यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 31 जनवरी 2010

मुंबई और महाराष्ट्र समस्त भारतवासियों का है कहने वाले मोहन भागवत को साधुवाद

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने गौहाटी में स्पष्ट कर दिया है कि वे शिवसेना और राज ठाकरे के विचार से सहमत नहीं है कि मुंबई मराठियों की है। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि मुंबई और महाराष्ट्र सारे भारतवासियों का है और पूरे भारत में कहीं भी कोई भी भारतीय अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए जा सकता है और वहां बस सकता है। उन्होंने वोट बैंक की इस मामले में निंदा की। शिवसेना और भाजपा के गठबंधन के कारण जो गलतफहमी पैदा हो रही थी, वह भी मोहन भागवत के वक्तव्य से एकदम स्पष्ट हो गयी हैं। मोहन भागवत ने तो यहां तक कहा कि मुंबई और महाराष्ट्र  में उत्तर भारतीयों पर यदि हमले हुए, उन्हें बचाने के लिए संघ के स्वयं सेवक आगे आएंगे। स्थानीयता के नाम पर लोगों को भड़का कर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने वालों के विरुद्ध मोहन भागवत का वक्तव्य वास्तव में राष्ट्र की एकता के लिए आवश्यक था। जिस संघ के नाम में राष्ट्रीय जुड़ा हुआ है, उसकी चिंतना भी राष्ट्रीय होना चाहिए, यह मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य से सिद्ध कर दिया है।

संघ प्रमुख की हैसियत से मोहन भागवत ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा को भी स्पष्ट कर दिया है। देश की एकता के लिए आज ऐसे ही स्पष्ट चिंतन वाले संगठनों की आवश्यकता है। जिनकी सोच में संकीर्णता न हो कर सहिष्णुता हो। अभी तक संघ को मात्र सांप्रदायिक कहकर बदनाम करने की कोशिश की जाती रही, वह वास्तव में सांप्रदायिक न होकर राष्ट्रीय विचारधारा से ओतप्रोत है और हिंदुओं की जब वह बात करता है तब अपने हिन्दुत्व में वह सबको समाहित कर लेता है। मोहन भागवत जानते हैं कि जब वे ऐसा वक्तव्य देंगे तब भाजपा शिवसेना गठबंधन को चोट लगेगी और हो सकता है कि गठबंधन टूट भी जाए लेकिन गठबंधन सत्ता के लिए बनाए रखने की कीमत पर वे राष्ट्र की एकता को टूटता देखना पसंद नहीं कर सकते। फिर कीमत कुछ भी चुकाना पड़े। 


संघ ने अपनी विचारधारा को लेकर पूर्व में भी कम कीमत नहीं चुकायी है। उसे बदनाम करने के लिए महात्मा गांधी की हत्या को भी हथियार के रुप में प्रयुक्त किया गया लेकिन राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ अपनी विचारधारा पर अडिग रहा। हिन्दुओं को संगठित करने के काम पर वह अनवरत लगा रहा। सबसे बड़ी बात तो यही है कि संघ जात-पांत को नहीं मानता। पिछले दिनों ही मोहन भागवत ने हिन्दुओं को जात-पांत से मुक्त होने का आव्हान किया। यह कटु सत्य है कि हिन्दुओं की जाति व्यवस्था का राजनीति में कम शोषण नहीं हुआ। आज भी राजनैतिक पार्र्टियां जाति आधार पर प्रत्याशी का चयन करते हैं। एक तरह से जाति व्यवस्था को पोषित करती हैं। जिससे हिन्दू कभी भी एक न हो सकें। अल्पसंख्यकों को हिन्दुओं का डर दिखाओ और हिन्दुओं को एक न होने दो तो इससे सत्ता चमत्कारिक रुप से हाथ आ जाती हैं। 1952 से लेकर आज तक यह रटंत चालू है। 


मोहन भागवत के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने अन्य संगठनों के साथ इतना काम समाज में कर रहा है कि आने वाले कल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ संपूर्ण राष्ट्र की धुरी बन जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। मोहन भागवत जब कहते हैं कि भाजपा राख से उठ खड़ी हो सकती है तो यह बड़बोलापन नहीं हैं बल्कि वे जानते हैं कि उनके निष्ठावान स्वयं सेवकों की ताकत इतनी बड़ी है कि वे हर असंभव काम को भी संभव कर सकते हैं। जब 2 लोकसभा सदस्यों वाली भाजपा 182 सदस्यों की पार्टी बन सकती है तो वह 282 सदस्यों की पार्टी भी बन सकती है। इसके लिए चाहिए जनता का विश्वास। वायदों पर खरा उतरने की क्षमता। भाजपा का पतन सत्ता सिंहासन से इसलिए हुआ क्योंकि उसने भारतीय जनता से जो वायदे किए थे, वह गठबंधन के कारण निभा नहीं पायी तो जनता की नजरों से उसकी अहमियत केंद्र की सत्ता के मामले में समाप्त हो गयी लेकिन राज्यों में उसने अपना परचम लहराया। वह एक बार नहीं दो बार, तीन बार चुन कर आयी तो कारण जनता में उसकी विश्वसनीयता का बना रहना था। 


कांग्रेस धर्म निरपेक्षता, संपूर्ण भारत एक की बात अवश्य करती है लेकिन महाराष्ट्र  में उसकी सरकार होने के बावजूद जिस तरह से उत्तर भारतीयों के साथ राज ठाकरे ने मार पिटायी की और वह मूक दर्शक बनी रही, उससे जनता के बीच अच्छा संदेश नहीं गया। सबको समझ में आ गया कि शिवसेना के वोट राज ठाकरे के द्वारा विभाजित करवा कर वह सिर्फ सत्ता का खेल, खेल रही है। वह उस खेल में सफल भी हो गयी लेकिन फूट डालो और राज करो की उसकी नीति भी स्पष्ट हो गयी। ऐसे में उत्तर भारतीयों के लिए  महाराष्ट्र  में असुरक्षा और बढ़ी ही। सचिन तेंदुलकर का पहले भारतीय फिर मराठी होने का वक्तव्य जिन्हें अप्रिय लगा, और उन्होंने अपने विचारों की अभिव्यक्ति में कंजूसी नहीं की। फिर मुकेश अंबानी के यह कहने पर कि मुंबई, दिल्ली, चेन्नई सभी भारतीयों के हैं, शिवसेना को नागवार गुजरा। फिल्मी सितारों को धमकाया और दबाव में अपने अनुसार चलाना तो इन शक्तियों का पुराना खेल है। अभी भी विलासराव देशमुख केंद्रीय मंत्री कह रहे हैं कि यह सब पब्लिसिटी स्टंट है, क्या मायने रखता है? महाराष्ट्र सरकार कांग्रेसी सरकार टैक्सी चालकों के लिए मराठी बोलना, लिखना, पढऩा अनिवार्य करने की बात कहती है तो यह कांग्रेसी मुख्यमंत्री की सोच है।


कांग्रेस छत्तीसगढ़ में भी आदिवासी मुख्यमंत्री की बात करती रही। आदिवासी मुख्यमंत्री भी बनाया लेकिन आज आदिवासी ही एक गैर आदिवासी भाजपाई मुख्यमंत्री के पक्ष में खड़े है। चाहे भाषाई पृथकता की राजनीति हो या आतंकवाद की, देन किसकी है? किसकी राजनीति भारतीयों को एक होने से रोकती है। जनता सब देखती समझती हैं। तथाकथित अपने आपको बुद्धिजीवी समझने वाले तक विभिन्न गुटों में बंट कर अपनी रोटियां सेंकते हैं। यथार्थ से मुंह फेरने के सौ तरीके है। बाहर से आए आतंकवादी और बाहरी विचारधारा से भी ज्यादा वे लोग खतरनाक हैं जो राष्ट्र  की एकता पर प्रश्र चिन्ह लगाने का काम करते हैं। ये जिस वर्ग विशेष के हितैषी बनने का मुखौटा लगा कर घूमते हैं, उस वर्ग से भी इनका बहुत कुछ लेना देना नहीं है। मतलब तो अपना उल्लू सीधा करना है।


काश्मीर के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस पर तिरंगा नहीं फहराया गया। वहां चुनी हुई कांग्रेस गठबंधन की सरकार हैं। काश्मीर की सरकार स्वायत्तता की मांग कर रही है। मतलब साफ है। कदम पृथकतावादी ही है। उनका ही एक नुमाइंदा केंद्रीय मंत्रिमंडल में है। उनका ही एक नुमाइंदा राजग मंत्रिमंडल में भी था। गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय झंडा न फहराना क्या राष्ट्र की अस्मिता को चोट नहीं पहुंचाता? पहुचाता है लेकिन फिक्र कौन करेगा? भाजपा के जब मुरली मनोहर जोशी राष्ट्रीय  अध्यक्ष थे तब उन्होंने झंडा फहराया था। तब से अब तक फहराया गया लेकिन इस वर्ष नहीं। कौन है इस तरह की मानसिकता के लिए दोषी? दोष स्वीकार करने की परंपरा तो नहीं है। तब कोई क्यों दोष स्वीकार करे? फिर भी एक मर्द मराठा मोहन भागवत पूरे भारत को समस्त भारतवासियों के लिए एक बताता है तो स्वागत योग्य है, वक्तव्य। वे साधुवाद के पात्र हैं।


विष्णु सिन्हा


दिनांक 31.01.2010

शनिवार, 30 जनवरी 2010

सम्मान प्राप्त करने वाला व्यक्ति सम्मान प्राप्त कर स्वयं को अपमानित न महसूस करे

सैफ अली खान को पद्म सम्मान के लिए चुनकर भारत सरकार ने पद्म सम्मानों का मान बढ़ाया है या कम किया है। जिस व्यक्ति पर काले हिरण के  वध के आरोप हो और एक कलाकार वह भी फिल्मी होने के सिवाय और कोई सम्मानजनक काम जिसने न किया हो, उसे पद्म सम्मान के लिए चुनकर चयनकर्ताओ ने उन लोगों को चिंतन का विषय दे दिया है जिन्हें अभी तक पद्म सम्मान से नवाजा जा चुका है। पद्म सम्मान के  लिए यदि योग्यता का मापदंड सैफ  अली खान हैं तो जिन लोगो ने अभी तक सम्मान प्राप्त किया है, उनके लिए इससे बड़ा असम्मानजनक और कुछ हो सकता है, क्या ? ऐसा भी नहीं है कि फिल्मी क्षेत्र में ही सैफ  अली ने अभिनय की ही दृष्टि  से कोई मील के पत्थर गाड़े हैं। शर्मिला टैगोर और नवाब पटौदी के पुत्र होने से ही तो कोई पद्म सम्मान का हकदार नहीं बन जाता है। सैफ अली के  दर्जें के फिल्मी नायकों से तो फिल्मी दुनिया भरी पड़ी है और उन नायकों पर किसी न्यायालय में आपराधिक मामले भी दर्ज नहीं हैं।

सैफ अली की चर्चा का बड़ा कारण तो यही है कि राजकपूर की पोती करीना कपूर को उन्होंने उसके पूर्व प्रेमी शाहिद कपूर से छीन लिया। अपनी पहली पत्नी को उन्होंने तलाक दे दिया। यह सब ऐसी बातें नहीं हैं जिनके लिए किसी व्यक्ति को समाज सम्मान की दृष्टिï से देखें। जिन कृत्यों के लिए किसी व्यक्ति को समाज सम्मान की दृष्टिï से नहीं देखता, उन कृत्यों के लिए तो किसी को भी पद्म सम्मान से सम्मानित नहीं किया जा सकता। फिर ऐसा क्या देखा चयनकर्ताओं ने सैफ अली में कि उसे पद्म सम्मान के लिए चुन लिया। राजस्थान में सैफ अली को पद्म सम्मान देने के विरोध में प्रदर्शन किए जा रहे हैं। राजस्थान और दिल्ली दोनों जगह कांग्रेस की ही सरकार है। क्या सरकार को पूरे भारतवर्ष में सैफ अली खान के सिवाय और कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखायी पड़ा जो वास्तव में सम्मान का अधिकारी है।


वैसे भी सम्मानों के विषय में तो यही प्रचलित है कि अंधा बांटे रेवड़ी अपने अपनों को दे। सम्मान भी राजनीति के  हथियार की तरह प्रयुक्त होते हैं। यह सब भारत में ही होता है, ऐसा नहीं है। महात्मा गांधी के मुकाबले का व्यक्ति बीसवीं सदी में पैदा नहीं हुआ। यह बात आज सारी दुनिया मानती है लेकिन नोबेल पुरस्कार वह भी शांति के लिए उन्हें नामांकित करने के बावजूद नहीं दिया गया। नेताजी सुभाषचंद्र बोस को भारत रत्न देने की मांग उठती रही है लेकिन नहीं दिया गया। नामों की कमी नहीं है जो वास्तव में सम्मान के अधिकारी थे और हैं लेकिन उन्हें सम्मानित नहीं किया जाता। वैसे भी एक स्वाभिमानी व्यक्ति अपने जीवन में जो कुछ करता है, उसके पीछे किसी तरह के सम्मान प्राप्त करने की भावना ही नहीं होती बल्कि उसे अच्छा करना अच्छा लगता है, इसलिए वह करता है।


महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी। उन्होंने विरोध का एक नया पथ तलाश किया। सत्य और अहिंसा से भी न्यायोचित वस्तु प्राप्त की जा सकती है, यह सिर्फ संदेश ही नहीं दिया दुनिया को बल्कि करके दिखाया। उन्होने जो कुछ किया, वह इसलिए नही किया था कि भारत उन्हें राष्ट्रपिता  के रूप में स्वीकार करे लेकिन भारत ने स्वीकार किया। भारत के अधिकांश लोगों ने स्वीकार किया। चंद लोगों को वे पसंद नहीं आए। उनका रास्ता पसंद नहीं आया तो उन्होंने अलग रास्ता चुना लेकिन उनके भी हृदय में  गांधी जी के लिए सम्मान कम नहीं था। कांग्रेस आज भी अपने को महात्मा गांधी की कांग्रेस कहकर गौरवान्वित होती है। आज ही के दिन उनके सीने में एक व्यक्ति ने तीन गोलियां उतार दी थी और हे राम कहते हुए गांधी जी ने अपना शरीर छोड़ दिया था।


किसी तरह के पुरस्कार की लालसा में गांधी जी ने अपना जीवन न्यौछावर नहीं किया था। गांधी जी का किसी भी तरह का सम्मान हम करते हैं तो सम्मान बड़ा नहीं होता बल्कि गांधी जी ही बड़े होते हैं। आज के नेताओं की तरह गांधी जी की कथनी और करनी में अंतर नहीं था। स्वतंत्रता संग्राम के साथ सामाजिक बुराइयों पर भी गांधी जी ने कार्य किया। दलित बस्ती में निवास कर उन्होंने सबको गले लगाया। परतंत्र भारत में उनके कृत्य उन्हें किसी राजसिंहासन पर नहीं बिठाते थे बल्कि जेल की हवा खिलाते थे। वे चाहते तो स्वयं जवाहरलाल नेहरू की जगह प्रधानमंत्री बन सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं और न ही ऐसा सोचा। इसीलिए तो वे भारत की कोटि कोटि जनता के दिलों में निवास करते थे और इससे बड़ा सम्मान किसी व्यक्ति का क्या हो सकता है?
पद्म सम्मान की ही बात नहीं है। जितने भी तरह के सम्मान आज दिए जाते हैं, सब में लोगों को खोट दिखायी देता है। भाई भतीजावाद, विचारधारा, चापलूसी हर चीज तो तौली जाती है, सम्मान के  मामले में। अभी  कुछ दिन पहले ही हरियाणा से अवकाश प्राप्त करने वाले पुलिस के उच्चाधिकारी को अदालत ने 6 माह की सजा एक नाबालिग लड़की को छेड़छाड़ के मामले में सुनायी। उन्हें पुलिस अधिकारी के रूप में राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया था। ऐसे और भी  अधिकारी हैं। अब उनसे पुलिस पदक वापस लेने की कार्यवाही की जा रही है। यह सम्मान देने वालों के लिए एक सबक होना चाहिए लेकिन कोई सबक लेने के लिए तैयार है, क्या?
आज सैफ अली खान को पद्म सम्मान से सम्मानित करने की तैयारी है। उनके  पिता नवाब पटौदी पर भी अवैध शिकार के मामले में न्यायालय में मुकदमा चल रहा है। यह तो माना जाता है कि जब तक न्यायालय में किसी का अपराध सिद्घ न हो जाए और उसे सजा न हो जाए तब तक वह निर्दोष है लेकिन सम्मान के इतने योग्य भारत सरकार को सैफ अली खान ही लग रहे हैं । पिछले दिनों ही चुनाव आयोग की हीरक जयंती के अवसर पर सोनिया गांधी ने कहा कि राजनीति से अपराधियों को दूर रखने के पुख्ता इंतजाम किए जाने चाहिए। 



संवैधानिक संस्थाओं में अपराधिक छवि के लोग न पहुंचें, इसकी मांग तो पुरानी है लेकिन अधिकांश दल चुनाव जीतने के लिए इनका न केवल उपयोग करते हैं बल्कि इन्हें भी टिकट से नवाजते रहे हैं। आज भी लोकसभा में 20 प्रतिशत इनकी संख्या मानी जाती है। सरकार चाहे तो कड़ा कानून इस संबंध में बना सकती है। जब संवैधानिक संस्थाओं से इन्हें दूर रखने की बात फिर से सोची जा रही है और यह सिर्फ जबानी जमा खर्च नहीं है बल्कि सोनिया गांधी गंभीर हैं, इस मामले में तो कानून बनाने में देर किस बात की है। इसी तरह से सम्मान के मामले में भी पुख्ता कानून बनाए जाएं। सम्मानों का इस तरह अवमूल्यन न हो कि सम्मान प्राप्त करने वाला व्यक्ति अपने को सम्मानित होने के बदले अपमानित महसूस करे।

- विष्णु सिन्हा


30-1-2010

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

नक्सलियों को महिमा मंडित करने वालों को ही सोचना चाहिए कि वे कितने सही हैं

पंचायत चुनाव का प्रथम चरण संपन्न हो गया। नक्सलियों ने 6 मतदान केंद्रों में मतपेटियां लूट ली और 4 लोगों का अपहरण कर लिया। नक्सलियों के ताकतवर होने का जो शोर है कि वे ताकतवर हैं, इन घटनाओं से पता चलता है। नक्सली जोर जबरदस्ती से लोगों को चुनाव में भाग लेने से रोकना चाहते थे लेकिन लोग रूकना नहीं चाहते। नक्सलियों का ऐसा ही प्रभाव होता तो कम से कम नक्सली क्षेत्रों में तो मतदान होना ही नहीं चाहिए था। इतने बड़े प्रदेश में ऐसी छुटपुट घटनाओं की इतनी ही महत्ता है जैसे नाक पर बैठी मक्खी को उड़ा दिया। आतंक फैलाने के लिए नक्सलियों ने पिछले दिनों 21 वाहन और मशीनों को आग के हवाले कर दिया था। इन निर्दोष मशीनो से आखिर चिढ़ क्या है, नक्सलियों को। करोड़ों की धन संपदा को आग के हवाले कर देने से वे कौन सा क्रांतिकारी काम कर रहे हैं ? सिवाय विकास के  रास्ते को अवरूद्घ करने के और तो कुछ नही कर रहे हैं।

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के दौरे पर आए केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने नक्सलियों के  द्वारा दो छात्रों की हत्या पर यही प्रश्न तो किया था, नक्सलियों से कि यह कौन सी नीति सिद्घांत के तहत वे कर रहे हैं। स्पष्ट दिखायी देता है कि नक्सली दिग्भ्रमित हैं। जिस उद्देश्य को लेकर वे चले थे, उससे कोसों दूर भटक गए हैं। अब नक्सल आंदोलन कोई राजनैतिक आंदोलन नहीं है बल्कि शोषित आदिवासियों के शोषक नई शक्ल में पैदा हो गए हैं। आपरेशन ग्रीन हंन्ट के विरोध प्रदर्शन के लिए बंद का जिस तरह से सड़क अवरूद्घ कर वे प्रदर्शन कर रहे हैं और आम जनता को सिवाय कष्ट के और कुछ नहीं दे रहे हैं, उससे उनके  प्रति जो भी सहानुभूति  दिखाता है, वह वास्तव में जनता का भी अपराधी है। जिन्होंने आदिवासियों की कभी चिंता नहीं की, वे नक्सलियों के  हितचिंतक बनकर आदिवासियों के हितचिंतक बनने का ढोंग कर रहे हैं।


सरकार को गरियाने से जब उनकी नहीं चली और सरकार टस से मस नहीं हुई और राज्य सरकार के  सहयोग में जब केंद्र सरकार भी खड़ी हो गयी तो नक्सली समर्थकों में ऐसी हताशा दिखायी पड़ी कि वे स्थानीय मीडिया को बिका हुआ बताने लगे। अच्छे बुरे लोग कहां नही हैं लेकिन सामूहिक रूप से सबको गलत बताना सिवाय हताशा के और कुछ नहीं। दिल्ली से अपने संसाधनों से युक्त होकर आए। नक्सलियों का साक्षात्कार लिया और अपने चैनल के माध्यम से गुणगान किया। जरा उन आदिवासियों की भी खोज खबर लेते जो निरंतर आतंक के साये में जी रहे हैं। ये भले ही नक्सलियों का गुणगान करें लेकिन नक्सली इन पर भी विश्वास नही करते। इनकी भी आंखों मे पट्टी बांधकर इन्हें अपने ठिकाने में ले जाते हैं। परेड करते, हथियारों का प्रदर्शन करते नक्सली इन्हें आकर्षित तो करते हैं लेकिन इनके चेहरे पर भी भय की छाया तो दिखायी पड़ती है।


दरअसल राष्ट्रीय मीडिया ने महानता का एक मुखौटा लगाया हआ है। ये समझते हैं कि इनकी सोच और कारगुजारियों से ये देश के नक्सलियों को प्रभावित कर लेंगे। इस झूठ का भ्रम तो भारतीय जनता ने कई बार तोड़ा है। जब चुनाव संबंधी इनकी भविष्यवाणियां ही कितनी बार गलत साबित हो चुकी है। ये वह देखते हैं जो उन्हें दिखाया जाता है तो स्थानीय मीडिया रूबरू होकर तथ्यों से साक्षात्कार करता है। वह स्थानीय जनता के दिल की धड़कन के ज्यादा करीब है। नक्सली आतंक का खामियाजा स्थानीय लोग किस तरह से भुगतते हैं, यह स्थानीय मीडिया सिर्फ देखता ही नही महसूस भी करता है। जब महसूस करता है तो अपने माध्यम से अभिव्यक्त भी करता है.


डा. रमन सिंह छत्तीसगढ़ की जनता के बीच और खासकर नक्सल प्रभावित क्षेत्र में खासा लोकप्रिय हैं तो उसका कारण मीडिया नहीं है। सिर्फ मीडिया की तारीफ से ही कोई लोकप्रिय हो जाता तो फिर आपातकाल में तो इंदिरा गांधी को ही सबसे ज्यादा लोकप्रिय होना चाहिए था। क्योंकि उस समय मीडिया पूरी तरह से सेंसर था। इंदिरा गांधी या उनकी सरकार के  खिलाफ धोखे से किसी ने कुछ छाप दिया तो सीधे जेल की हवा खानी पड़ती थी। ऐसे में इंदिरा गांधी और कांग्रेस को तो जनता के द्वारा नकारा नहीं जाना था लेकिन इतिहास गवाह है  कि मीडिया में लोकप्रियता के बावजूद इंदिरा गांधी की कांग्रेस ही चुनाव नहीं हारी बल्कि इंदिरा गांधी स्वयं चुनाव हार गयी थी।



 दूर क्यों जाएं ? गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खलनायक बनाने की कम कोशिश मीडिया ने नहीं की लेकिन बार बार चुनाव हुआ तो नरेंद्र मोदी ही गुजरात की जनता की पसंद रहे। असल में मीडिया द्वारा प्रचारित सत्य ही सत्य नहीं होता बल्कि जनता जिसे सत्य स्वीकार करती है वही असली सत्य होता है। छत्तीसगढ़ के गठन के बाद जब पहली बार विधानसभा  के चुनाव हुए तब दिलीपसिंह जूदेव भाजपा के स्टार प्रचारक थे। तब जूदेव पर घूस लेने का एक मामला मीडिया के द्वारा प्रसारित किया गया। दिलीप सिंह जूदेव ने घूस लिया या नहीं लिया् यह अभी न्यायालय में सिद्घ होना है लेकिन छत्तीसगढ़ की जनता ने इतने बड़े स्कैंडल के सामने आने के बावजूद सरकार बनाने के लिए भाजपा को ही चुना। क्योंकि लोगो के  मन में पहली प्रतिक्रिया यही हुई कि यह सिर्फ चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस का स्कैंडल है। मीडिया ने तो और खासकर दिल्ली के मीडिया ने समझ लिया था कि उसने बड़ा तीर मारा है। सारे चैनल सुबह से शाम तक दिलीप सिंह जूदेव को कठघरे में खड़ा करते रहे। बाद में जो तथ्य इस मामले में प्रगट हुए उससे जनता का विश्वास ही सत्य सिद्घ हुआ कि चुनाव में उपयोग के लिए सीडी तैयार की गई थी।

नक्सलियों को भी महिमा मंडित करने में तथाकथित बुद्घिजीवियों एवं मीडिया के एक वर्ग की बड़ी भूमिका रही है। इसे प्रारंभ में शोषण और अत्याचार के विरूद्घ सशस्त्र विद्रोह के रूप में प्रचारित किया गया और कांग्रेसी शासकों ने समस्या की गंभीरता को नहीं आंका। उसका परिणाम हुआ कि पशुपति से तिरूपति तक इन्होंने अपने पैर पसार लिए। इन्होंने अपना अलग शासन तंत्र खड़ा किया। ये न्याय करने लगे। इनका न्याय भी आदिम न्याय था। तुरत न्याय और तुरत पिटायी से लेकर हत्या। पुलिस और सरकार के पास जाने से बड़ा अपराध और कुछ नहीं था। मुखबिर है तो गोली खा। इस व्यवस्था को  कौन न्याय संगत कह सकता है। सरकार तो आतंकवादी हत्यारे को भी फाँसी पर चढ़ाने के पहले लंबी कानूनी प्रक्रिया की सुविधा देती है। सबसे बड़ा उदाहरण तो मोहम्मद कसाब ही हैं। मोहम्मद कसाब दोषी हैं, यह सत्य सबको अच्छी तरह से पता है। सार सबूत सामने हैं। फिर भी कानून व्यवस्था ने उसे अपने बचाव के लिए वकील मुहैया कराया है। सभ्य व्यवस्था इसी को कहते हैं। अब तो बड़े अपराधी को भी फांसी न देने की मांग उठती है। फाँसी को ही कानून की किताब से अलग करने की बात उठती है। ऐसे में नक्सलियों की नीति रीति के लिए सभ्य समाज मे कोई स्थान है, क्या ?


-विष्णु सिन्हा


29-1-2010
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गुरुवार, 28 जनवरी 2010

अमन सिंह का केद्र की नौकरी छोड़कर राज्य में संविदा नियुक्ति लेना अक्लमंदी है, क्या ?

अमन सिंह डा. रमन सिंह सरकार के शक्तिशाली नौकरशाह हैं। उनकी शक्ति का श्रोत उनके पद ही नही हैं बल्कि डा. रमन सिंह के विश्वसनीय होने के कारण वे शक्तिशाली हैं। फिर ताली एक हाथ से तो बजती नहीं। दोनों ने एक दूसरे को न केवल प्रभावित किया है बल्कि डा. रमन सिंह की उपलब्धियों में अमन सिंह का भी बड़ा हाथ है। डा. रमन सिंह ने जब से मुख्यमंत्री का पद संभाला ऊर्जा विभाग उन्होंने अपने पास रखा। राज्य गठन के  समय विद्युत के मामले में राज्य सरप्लस राज्य था लेकिन विकास की गति ने विद्युत की खपत में जिस तरह से वृद्घि की, उसके बाद बिजली की कमी होने लगी लेकिन बहुत समय तक कमी का सामना छत्तीसगढ़ को नहीं करना पड़ा। डा. रमन सिंह की सोच और दूरदृष्टि ने राज्य की बढ़ती हुई विद्युत आवश्यकता की पूर्ति तो की ही, राज्य को पुन: सरप्लस राज्य बना दिया। आज देश के अधिकांश राज्य विद्युत कमी के शिकार हैं। तब छत्तीसगढ़ के उपभोक्ताओं को 24 घंटे अनवरत बिजली मिलना कम सौभाग्य की बात नहीं है। राज्य को इस स्थिति में लाने के लिए डा. रमन सिंह के प्रमुख सहयोगी के रूप में अमन सिंह का नाम लिया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी अमनसिंह प्रतिनियुक्ति पर छत्तीसगढ़ आए। मुख्यमंत्री के सचिव के साथ ऊर्जा, सूचना एवं प्रौद्योगिकी के  सचिव वे आज हैं। मुख्यमंत्री और राज्य को उनकी सेवाएं की जरूरत है लेकिन इसी बीच उनकी प्रतिनियुक्ति की अवधि समाप्त हो गयी। डा. रमन सिंह ने कोशिश की कि उनकी प्रतिनियुक्ति की अवधि बढ़ा दी जाए लेकिन नियम कायदे आड़े आ गए। मतलब साफ था कि भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी के रूप में बने रहते हैं तो वापस केंद्र में जाना पड़ेगा। कोई भी अमन सिंह की जगह होता तो नौकरी से इस्तीफा देने के बदले वापस जाना ही पसंद करता लेकिन अमन सिंह ने नौकरी छोडऩा पसंद किया। इसके बदले उन्हें राज्य सरकार ने 3 वर्ष के लिए संविदा नियुक्ति दी। कोई भी अक्लमंद आदमी स्थायी नौकरी छोड़कर संविदा नियुक्ति स्वीकार नहीं करेगा लेकिन अमन सिंह ने स्वीकार किया।


है, तो आश्चर्य की बात। कोई भी इसे सिर्फ मूर्खता के और किसी संज्ञा से नवाजना पसंद नहीं करेगा। सिर्फ डा. रमन सिंह के भरोसे स्थायी नौकरी पर लात मार देना किसी की भी नजर में अक्लमंदी नही हो सकती। क्योंकि डा. रमन सिंह का ही क्या भरोसा? वे आज मुख्यमंत्री हैं। कल भी होंगे, इस बात की गारंटी कौन कर सकता है ? अभी 4 वर्ष तक मुख्यमंत्री वे रहेंगे, इस बात की पूरी संभावना है लेकिन चुनाव के बाद भी वे जनता  के द्वारा पुन: चुने जाएंगे, इसकी गारंटी कोई नहीं कर सकता? यदि खुदा न खास्ता डा. रमन सिंह पुन: मुख्यमंत्री न बने तब अमनसिंह का क्या होगा? बहुत से ऐसे संभावित प्रश्न है जो किसी के भी मस्तिष्क में जन्म ले सकते हैं। तब परिवार और सर्वदृष्टि से सोचने से यही निष्कर्ष निकलेगा कि केंद्र की नौकरी कदापि नहीं छोडऩा चाहिए। कोई भी अक्लमंद आदमी अपने सगे संबंधी के लिए भी ऐसा निर्णय नहीं लेगा लेकिन अमन सिंह ने नौकरी छोडऩे का निर्णय लिया।


जरूर डा. रमन सिंह कोई सम्मोहन विद्या जानते हैं। ईमानदारी और निस्वार्थ प्रेम से बड़ा कोई सम्मोहन नहीं होता। जब एक पढा़ लिखा समझदार आदमी एक व्यक्ति से इतना प्रभावित होता है कि वह निश्चित भविष्य से मुंह मोड़कर अनिश्चित भविष्य को स्वीकार कर लेता है तब इसे और क्या कहेंगे? अब अमन सिंह की पूरी जिम्मेदारी डा. रमन सिंह की है। अमन सिंह की भी कम जिम्मेदारी नही है। उन्होंने केंद्र सरकार की नौकरी छोड़कर डा. रमन सिंह के साथ रहने का जो निश्चय किया है, उस कसौटी पर उन्हें खरा साबित होकर दिखाना है। अब एक तरह से डा. रमन सिंह और अमन सिंह के भाग्य की डोर एक साथ बंध गयी है। जीना साथ मरना साथ, छोड़कर जाना कहां। पहले भी अमन सिंह खास अधिकारी  डा. रमन सिंह के माने जाते थे। जिन्हें उम्मीद थी कि प्रतिनियुक्ति की अवधि समाप्त होने के बाद अमन सिंह केंद्र में लौट जाएंगे और उन्हें अमन सिंह की कुर्सी नसीब होगी, उनके सपने तिरोहित हो गए। अब यह निश्चित हो गया कि अमन सिंह डा. रमन सिंह को छोड़कर कहीं जाने वाले नहीं है। जिन्हें ये प्रेम, ईमानदारी फूटी आंख नहीं सुहायेगी, वे पूरी सतर्कता से अपनी चालें चलेंगे। कैसे डा. रमन सिंह के  मन में अमन सिंह के लिए दुर्भावना पैदा हो, इसका पूरा प्रयास किया जाएगा। यह कोई नई बात नहीं है। यह सत्ता के  गलियारे में सदा से होता आया है। सावधान दोनों को रहना चाहिए।


अमन सिंह सूचना प्रौद्योगिकी के  सचिव हैं। वे ऐसा तंत्र रचने में सक्षम हैं, जिससे पूरा प्रशासन तंत्र एक कम्प्यूटर में आ सकता है। तकनीक के विकास के साथ अब नौकरशाहों के कार्यों की भी निगरानी रखी जा सकती है। बिना कागज के भी मंत्रालय में सचिव काम कर सकते हैं। लाल फीताशाही के तंत्र को तोड़ा जा सकता है। सारी जानकारी गांव से लेकर राजधानी तक अपडेट मुख्यमंत्री को तुरंत उपलब्ध करायी जा सकती है और यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि कौन सा नौकरशाह कितना योग्य है और जनता के कामों को पूरी तरजीह देता है। पारदर्शी प्रशासन की अब बात ही नहीं की जाएगी बल्कि उसे अमलीजामा भी पहनाया जा सकता है। मुख्यमंत्री की शह पर अमनसिंह यह सब करने में सक्षम हैं।


वे तो छत्तीसगढ़ को इस मामले में उदाहरण के रूप में पूरे देश के समक्ष प्रस्तुत कर सकते हैं। अभी ही डा. रमन सिंह का नाम देश में एक सफल मुख्यमंत्री के रूप में कम नहीं हैं। फिर भी नौकरशाहों की ताकत के  सामने शासन अभी भी अपने को कमजोर ही पाता है। क्योंकि सरकार नीतियां बनाता है। उसे लागू करने का आदेश भी देता है लेकिन लाल फीताशाही के भंवर में फंसकर अच्छी अच्छी जनकल्याणकारी योजनाएं धराशायी हो जाती है। जमीन की नकल ही प्राप्त करना आज भी एक कठिन काम है। बिना जेब ढीला किए, काम होता नहीं। इस व्यवस्था को तोडऩे के लिए कम्प्यूटरीकरण किया गया लेकिन सफल तो नहीं हुआ। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के मामले में अवश्य सरकार को सफलता मिली है। गरीबों को 1 रूपये और 2 रूपये किलो चांवल के मामले में अभी भी छुटपुट शिकायतें तो मिलती है।


अमन सिंह ने केंद्र की नौकरी छोड़कर राज्य सरकार की संविदा नौकरी स्वीकार की है तो यह उनके लिए एक चुनौती की तरह है। स्वाभाविक है कि उन्हे छत्तीसगढ़ में काम के अच्छे अवसर भी दिखायी दिए। डा. रमन सिंह का वरदहस्त उन्हें अब निश्चिंतता से अपने काम को आगे बढ़ाने में मददगार साबित होगा। उन्हें ऐसे परिणाम देने होंगे जिससे डा. रमन सिंह की लोकप्रियता दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़े। उनके असुरक्षा में खड़े होने के निर्णय के लिए शुभकामनाएं।


- विष्णु सिन्हा


29-1-2010

बुधवार, 27 जनवरी 2010

राष्ट्रपति ठीक कह रही हैं कि देश को दूसरी हरित क्रांति की जरूरत

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश के नाम अपने संबोधन में राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने बढ़ती महंगाई पर चिंता प्रगट की है। प्रधानमंत्री पहले ही चिंता प्रगट कर चुके हैं। जहां तक चिंता का प्रश्न है तो महंगाई  ने देशवासियो को चिंता में डाल रखा है। देश की 20 प्रतिशत जनता को भले ही महंगाई उतना परेशान नहीं कर रही है जितना 80 प्रतिशत जनता को कर रही है लेकिन यह भी कटु सत्य है कि 20 प्रतिशत जनता तब तक ही निश्चत रह सकती है जब तक महंगाई के बावजूद गरीब के पेट में अन्न का निवाला पहुंच रहा है। राशन की महंगाई ने यदि आम जनता की कमर तोड़ दी तो वे सारे ख्वाब धरे के धरे रह जाएंगे जो देश के उज्जवल विकास के संबंध में राजनीतिज्ञ देशवासियों को दिखा रहे हैं। राष्ट्रपति  जब कहती हैं कि देश को दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है तब यह बात एक तरह से सरकार की ही बात है जो राष्ट्रपति  के मुंह से निकल रही है।
पहली हरित क्रांति ने देश को आत्मनिर्भर बनाया। नहीं तो उसके पहले तो अमेरिका से प्राप्त गेहूं से देश के अधिकांश लोगों का पेट भरता था। पीएल 480 के गेहूं की अब तो याद भी नहीं है, लोगों को। आज की युवा पीढ़ी को तो पता भी नहीं है कि वह गेहूं कैसा होता था और कैसे हलक के नीचे उतारा जाता था ? तब तो जनसंख्या भी कम थी तब देश का पेट कृषि नहीं भर पाती थी। तब तो सरकारें परिवार नियोजन का विस्तृत प्रचार कार्यक्रम भी चलाती थी लेकिन धीरे-धीरे परिवार नियोजन का कार्यक्रम लोगों के  स्वविवेक पर छोड़ दिया गया और वोट बैंक की राजनीति ने इस संवेदनशील मुद्दे से अपने को अलग कर लिया। आपातकाल के दौरान संजय गांधी की परिवार नियोजन की योजना ने जबरदस्ती और ज्यादती के  इतने किस्से प्रचारित किए और कांग्रेस चुनाव मे चारों खाने चित्त गिरी कि परिवार नियोजन  के नाम से तौबा करने में ही भलाई दिखायी दी।


देश में खाद्यान्न का उत्पादन पर्याप्त था और लोगों का पेट भी आसानी से भर रहा था तो बढ़ती आबादी की चिंता करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। कहा जा रहा है कि देश की जनसंख्या 115 करोड़ हो गयी है। 2011 में फिर से जनगणना होगी तो आंकड़े और स्पष्ट हो जाएंगे। भविष्य में आंका जा रहा है कि चीन और भारत दोनों आर्थिक विकास के अगुआ होंगे। आर्थिक विकास में क्या होगा भविष्य में और चीन को हम पीछे छोड़ सकेंगे या नहीं यह तो वक्त बताएगा लेकिन एक बात निश्चित दिखायी दे रही है कि जनसंख्या के मामले में हम चीन की आज जो स्थिति है, उसे हम पीछे छोड़ देंगे। देश और किसी मामले में रिकार्ड दुनिया में बनाए न बनाए लेकिन आबादी के मामले में निश्चित ही रिकार्ड बनाने की स्थिति में है। आबादी बढ़ रही है लेकिन भूमि तो निश्चित और सीमित है। वन क्षेत्र कम होते जा रहे हैं। इससे कृषि भूमि बढ़ रही है लेकिन कृषि भूमि पर भी उद्योग लग रहे हैं और बढ़ती आबादी के निवास के  लिए भी कृषि भूमि का ही उपयोग किया जा रहा है। शहरों की बढ़ती आबादी आसपास के गांवों को निगल रही है।


शहर बड़ा हो या छोटा सड़कों पर चलना कठिन हो रहा है। सर्वत्र भीड़ और भीड़ ही दिखायी देती है। इसके कारण आवागमन के संसाधन भी सड़कों पर बढ़ रहे हैं। कल को जो सड़कें चौड़ी दिखायी पड़ती थी, सिकुड़ती जा रही है। पूरा शहर बाजार बनता जा रहा है। बेरोजगारी ने रोटी रोजी के लिए सड़कों के किनारे भी दुकान लगाने के लिए लोगों को मजबूर कर दिया है। फलाई ओह्वïर, ओह्वïर ब्रिज, अंडरब्रिज बनाकर यातायात को सुधारने की कोशिश की जा रही है लेकिन बढ़ती आबादी सारी कोशिशों पर पानी फेर रही है। चीन ने तो कानून बनाकर बढ़ती आबादी को थामने की कोशिश की है लेकिन भारत में तो पूरी स्वतंत्रता है। अब फिर से खाद्यान्न के निर्यातक देश को आयात की जरूरत पड़ रही है। जबकि दुनिया भर में खाद्यान्न की कमी हो रही है।


महंगाई को राजनीति का मुद्दा न बनाकर भविष्य में आने वाली कठिनाइयों के मद्देनजर अभी से कोशिश करने की जरूरत है। महंगाई का ठीकरा शरद पवार के सिर फोडऩे से तो महंगाई कम नहीं होगी और न ही शरद पवार के प्रधानमंत्री को जिम्मेदार बताने से। जनता नाराज हुई तो यही कर सकती है कि चुनाव आने पर वर्तमान सरकार को हटाकर दूसरी पार्टियों की सरकार बना दे, लेकिन इससे ही मामला हल तो हो जाने वाला नहीं है। मांग केअनुरूप पूर्ति होने से ही मामला हल होगा। कांग्रेस प्रवक्ता का यह कहना कि देश में सूखा पड़ गया तो सरकार उसके लिए दोषी नहीं है तो फिर कौन दोषी है? आखिर विपरीत स्थितियों के लिए तैयार रहने की जिम्मेदारी सरकार की है। सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकती। सरकार का मंत्री ही घोषणा करता है कि शक्कर की कीमत बढ़ेगी। दूध की कीमत बढ़ेगी। जब मालूम है कि ऐसा होने वाला है तब इससे निपटने की तैयारी करना भी तो सरकार का काम है। अब सरकार कहे कि उसे मालूम है कि देश पर आतंकवादी हमला होने वाला है तो उस हमले को रोकने की जिम्मेदारी भी तो सरकार की है। जनता ने अपने वोटों से सरकार बनायी, किसलिए ? सिर्फ चेतावनी देने के लिए कि ऐसा होने वाला है। जनता तैयार रहे। महंगाई है तो जनता भुगते। आतंकवादी हमला करें तो जनता मरे। इससे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना बात और क्या हो सकती है?


जनता अपने खून पसीने की कमाई से टैक्स भरती है। दिल्ली से लेकर ग्राम पंचायत में बैठी सरकार जनता से टैक्स के रूप में वसूली करती है। जनता को हर हाल में टैक्स देना है। कहने को संपत्ति का अधिकार जनता के पास है लेकिन संपत्ति कर मुक्त नहीं है। हर जगह सरकार खड़ी है। वह नित्य नए नए तरीके निकालती हैं कि उसका राजस्व कैसे बढ़े। तब बाजार में बढ़ती महंगाई के लिए वह जिम्मेदार क्यों नहीं है ? क्यों वह खाद्यान्न का सट्टा बाजार चलाने देती है। कृषि पर आयकर भले ही न हो लेकिन जो मशीनें डीजल से कृषि कार्य में चलती है तो डीजल परतो टैक्स लगता ही है। कृषि उपज मंडी का टैक्स है, ही। प्रवेश कर भी है, एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाने पर। कृषि जमीन की खरीदी बिक्री पर भी सरकार का रजिस्ट्री शुल्क देना पड़ता है। सिंचाई की नहर से सुविधा प्राप्त  करने पर भी सिंचाई टैक्स देना पड़ता है। सरकार के चंगुल से कोई मुक्त  नहीं है।


जब सरकार को किसी जमीन की आवश्यकता हो तो सरकार के पास हर किसी की जमीन अधिग्रहण करने का अधिकार है। यह दूसरी बात है कि अधिग्रहण केलिए सरकार मुआवजा देती है। कानून के अनुसार यदि मुआवजे से आप संतुष्ट नहीं है तो न्यायालय की शरण ले सकते है लेकिन अधिग्रहण को नहीं रोक सकते। सरकार ने कृषि भूमि के लिए सीलिंग कानून बनाया। कितने भूमिहीनों को इस तरह प्राप्त जमीन प्राप्त हुई। शहरी भूमि सीलिंग को अंतत: सरकार ने रद्द कर दिया। शहरों के विस्तृत होने का नुकसान किसानों को भरना पड़ा और कितने ही किसान इस दुष्चक्र में फंसकर भूमिहीन हो गए। कभी कहा जाता था कि भारत कृषि प्रधान देश है। इसका तो अर्थ होना चाहिए था कि प्राथमिकता के  आधार पर कृषि ही सरकार की दृष्टि में पहले नंबर पर होना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा है क्या ? पिछले दिनों तक तो खेती को घाटे का ही धंधा समझा जाता था। फिर भी यह कटु सत्य है कि आर्थिक मंदी से भारत उबर पाया तो उसका कारण कृषि ही है। ठोस बुनियाद कृषि है और उसे ही पुख्ता करने की जरूरत है। राïष्ट्रपति महोदया ठीक कहती हैं कि देश को दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है.


- विष्णु  सिन्हा


27-1-2010

सोमवार, 25 जनवरी 2010

भारतीयों के लिए सबसे महत्वपूर्ण दिन 26 जनवरी


कल 60 वर्ष पूरे कर लेगा, हमारा गणतंत्र। 26 जनवरी, 1950 को हमारा संविधान लागू हुआ था। 15 अगस्त जिस तरह से स्वतंत्रता दिवस के रुप में अपनी महत्ता रखता है, उससे कम महत्व 26 जनवरी नहीं रखता। 15 अगस्त 1947 को भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ था। देश स्वतंत्र हुआ था लेकिन इसके साथ ही विभाजन के जख्म भी थे। स्वतंत्रता की पूरी कीमत वसूल की गयी थी। हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के संघर्ष और बलिदान की तो अहम भूमिका स्वतंत्रता संग्राम में थी लेकिन विभाजन के परिणाम स्वरुप जो खून खराबा हुआ और वैमनस्यता पनपी, वह आज भी किसी न किसी रुप में हमें परेशान करने की कोशिश करती रहती है। बंटवारे के बाद जो भाई चारा पनपना चाहिए था, वह तो नहीं पनपा बल्कि उसके बदले बंटवारा प्राप्त कर अलग होने वालों ने किसी न किसी बहाने अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए दुश्मनी की अग्नि को ही प्रज्जवलित किया। 

26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू कर भारत ने अपने नागरिकों को स्वतंत्रता के साथ अधिकार भी प्रदान किए और नागरिकों की खुशहाली के लिए विकास की तरफ कदम बढ़ाए। सबसे बड़ी बात तो संविधान की यही है कि धर्म के आधार पर विभाजित होने के बावजूद भारत ने धर्म निरपेक्षता को स्वीकार किया। बहुसंख्यकों के हाथ में था कि वे किस तरफ देश को ले जाते हैं। बौद्धिक परिपक्वता का परिचय दिया, संविधान निर्माताओं ने और देश की कोटि-कोटि जनता ने उसे स्वीकार किया । तमाम तरह की विभिन्नताओं के बावजूद संविधान ने सबको एक सूत्र में जोडऩे का जो बीड़ा उठाया, उसे छिन्न-भिन्न करने का प्रयास तो छुटभैय्ये नेता अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए करते रहे लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। आम नागरिकों ने ही उन्हें स्वीकार नहीं किया।


काश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है, यह सिर्फ स्लोगन नहीं है बल्कि इसका मर्म हमारे संविधान में ही छिपा है। जो हर भारतीय नागरिक को मूल अधिकार के रुप में एक समान मानता है। प्रजातंत्र की जड़ें इतनी गहरी हो गयी हैं कि आज विश्व में सबसे बड़ी जनसंख्या का प्रजातंत्र भारत में ही है। जो लोग मानते थे कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत बिखर जाएगा, उन्हें तो करारा जवाब भारतीय ही दे चुके। आपस में लड़ाने के लिए कम षडय़ंत्र नहीं किए गए लेकिन सफलता किसी को नहीं मिली। इस देश की एकता ने पाकिस्तान के भारत से काश्मीर को अलग करने के षडय़ंत्र को ही न केवल नकार दिया बल्कि हिंदू मुसलमानों को लड़ाने की तमाम कोशिशों को फेल कर दिया।


इसकी जड़ हमारे संविधान में है। संविधान के द्वारा स्थापित कानून के शासन में है। जो राजनैतिक षडय़ंत्रों को भी विफल करने की क्षमता रखता है। कानून से ऊपर कोई नहीं है। यह छोटी बात नहीं है। 115 करोड़ नागरिकों के मुल्क को एक धागे से पिरो कर रखने का काम हमारे संविधान ने ही किया है। विभिन्न रुपों में आतंकवाद ने भारत में सिर उठाने की कोशिश की लेकिन कोई भी भारतीयों को अपने कृत्यों से सहमत नहीं करा सका। न तो पाकिस्तानी आतंकवादी और न ही नक्सली सफल होते दिख रहे हैं बल्कि इनके विरुद्ध कानूनी शिकंजा कस रहा है। 


संविधान ने स्वाभिमान से जीने का अधिकार सभी भारतीयों को दिया। आर्थिक रुप से पिछड़ों को आरक्षण की सौगात दिया। कितने ही तरह की सामाजिक बुराइयों से मुक्त होने के लिए कानूनी अधिकार दिए। इसलिए 15 अगस्त की तरह ही 26 जनवरी हमारा राष्ट्रीय  त्यौहार है। यह गर्व का दिन है। इस दिन ने सिर उठा कर चलने की आजादी हमें प्रदान की।



- विष्णु सिन्हा 

दिनांक 25.01.2010

निगम मंडल में नियुक्ति के अवसर पर महिलाओं को आगे लाने पर पूरा ध्यान देना चाहिए

एक वर्ष से भी अधिक का समय बीत गया। चुनाव, चुनाव, और चुनाव। भाजपा के कार्यकर्ता और नेता जो आजकल इन चुनावों में पार्टी प्रत्याशियों को विजयी बनाने के लिए श्रम करते रहे हैं, वे पंचायत चुनावों के समाप्त होने का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। क्योंकि अब अवसर आ गया है कि उन्हें सरकारी पदों पर पदारूढ़ कर पुरस्कृत किया जाए। जिन्होंने चुनाव लड़ा और जीते, वे तो पद पा गए लेकिन जिन्होंने चुनाव लडा और हार गए, वे भी उम्मीद करते हैं कि किसी निगम मंडल में उनकी ताजपोशी होगी। खासकर वे लोग जो डा. रमन सिंह के पिछले कार्यकाल में शासकीय पदों पर थे और सत्ता का भरपूर लुत्फ उठाया, वे तो पूरी तरह से अधीर हो गए हैं। डा. रमन सिंह की कृपादृष्टि हो जाए तो लालबत्ती की कार और कार्यालय सहित स्टाफ उन्हें उपलब्ध हो जाए। पिछले सवा साल से जो सुख शासकीय अधिकारी उठा रहे हैं और राजनैतिक व्यक्ति की नियुक्ति न होने से निगम मंडल भी मंत्रियों के अधीन हैं, उनका सुख अब पदाकांक्षियों के द्वारा देखा नहीं जा रहा है।

मन में आक्रोश बहुत है लेकिन अभिव्यक्त करना खतरे से खाली नहीं है। यदि आक्रोश को अभिव्यक्त किया और बात डा. रमन सिंह तक पहुंच गयी तो फिर किसी पद के मिलने की संभावना भी हुई तो वह भी जाती रहेगी लेकिन लोग चिकोटी काटने से भी तो बाज नहीं आते। मिलने पर पूछ ही लेते हैं कि भाई साहब कब लालबत्ती मिल रही है। ऐसे प्रश्न बड़ा धर्मसंकट खड़ा कर देते हैं। जवाब दे भी तो क्या दें ? यह कहें कि हमें लालबत्ती की जरूरत नहीं। हम तो पार्टी के अनुशासित कार्यकर्ता है और पार्टी का हुक्म बजाना ही हमारी कर्तव्यनिष्ठï है तो पूछने वाला मुस्कराए बिना नहीं रह सकता। क्योंकि वह यह बात अच्छी तरह से जानता है कि भाई साहब को तो रात रात भर नींद नहीं आती। बेचैनी बढ़ गयी है। मन में तरह तरह के नकारात्मक विचार आते रहते हैं कि कहीं किसी पद के योग्य नहीं समझा गया तो फिर सवा साल से जो पार्टी की तन मन धन से सेवा कर रहे हैं, उसका औचित्य ही क्या रह जाएगा ?


जो पिछले कार्यकाल में पदारूढ़ थे, वे ही ज्यादा बेचैन हैं। उन्हें ही सबसे ज्यादा डर भी है। कहीं नए लोगो को अवसर देने का मन संगठन और सत्ता ने बना लिया तो उनकी पत्ती तो कट ही जाएगी। फि र पिछले कार्यकाल में ताकतवर मंत्री रहे लोग जो चुनाव में हार गए, वे भी तो लाईन में लगे हुए हैं। आरक्षण के कारण नगर निगम के महापौर, जिला पंचायत के अध्यक्ष भी तो बेरोजगार हो गए हैं। वे भी पदाकांक्षी हैं। पिछले कार्यकाल में जिन्हे पद मिलना चाहिए था लेकिन नहीं मिला, वे भी पदाकांक्षी हैं। अनार गिने चुने हैं और बीमारों की कमी नहीं है। शायद इसी सोच ने चुनाव के  वर्ष में नियुक्ति को रोके  रखा। क्योंकि नियुक्ति हो जाती तो असंतुष्टों  की कतार भी खड़ी हो जाती। नियुक्ति नहीं हुई तो चुनाव में गंभीरता से कर्तव्य निर्वाह का काम तो अधिकांशों ने किया। जिन्होंने नहीं किया या जिन्होंने भीतरघात किया, उनके चेहरे भी सामने हैं। वे चेहरे भी सामने हैं जिन्होंने पार्टी का भट्ठा बिठाने में अपनी तरफ से कोर कसर नहीं छोड़ी। ईमानदारी से टिकट वितरित किया जाता तो जहां हार हुई है, वहां हार नहीं होती। फिर जिन्हें टिकट मिली उन्हें हरवाने के प्रयास भी किए गए।


अब सारी बातें साफ साफ हैं और किन्हें पदारूढ़ किया जाना चाहिए, यह भी स्पष्ट है। जिनकी नियुक्ति से पार्टी को लाभ होता हो, उन्हें ही पदारूढ़ किया जाना चाहिए। किसी नेता की सिफारिश के बदले इस बात पर दृष्टि होनी चाहिए कि किसे कहां बिठाया जाए, जिससे भविष्य में पार्टी की छवि उज्जवल हो। काम करने वाले और ईमानदार छवि के व्यक्ति को यदि पार्टी आगे बढ़ाती है तो उसका फल भी पार्टी को मिलेगा। चापलुसों एवं बेईमानो को पार्टी तवज्जो देगी तो नुकसान भी पार्टी को उठाना पड़ेगा। जैसे राïष्टरीय अध्यक्ष युवा व्यक्ति को बनाया गया है, उसी तरह से नियुक्ति में भी युवाओं को महत्व दिया जाना चाहिए। क्योंकि वक्त के साथ पार्टी में युवा नेतृत्व उभरता है तो युवा पीढ़ी का जुड़ाव पार्टी से होगा। जिनके  कारण पार्टी की छवि खराब होती है, उनसे पार्टी पूरी तरह से परहेज करे तो यह पार्टी के हित में ही होगा।
आने वाला कल महिलाओं का है। ग्राम पंचायत में 50 प्रतिशत पद उनके लिए आरक्षित किया गया है तो नगरीय निकाय में 33 प्रतिशत पद उनके लिए आरक्षित है। वह दिन दूर नहीं जब लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं को आरक्षण मिलेगा। पार्टी का काम एक सरोज पांडेय से नहीं चलने वाला है। भविष्य की दृष्टि से महिलाओं को सामने लाने का काम अभी से प्रारंभ कर देना चाहिए। कांग्रेस के पास प्रखर महिला नेत्री थी, इसलिए रायपुर और बिलासपुर में महापौर का चुनाव कांग्रेस ने जीता। चुनाव परिणाम का तो स्पष्ट निष्कर्ष हैं कि बिलासपुर में भाजपा के 55 में से 30 पार्षद जीते लेकिन 18 पार्षद जीतने के बावजूद महापौर का पद कांग्रेस की झोली में चला गया। यह सिर्फ कांग्रेस के कारण नहीं हुआ। यह वाणीराव के व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण हुआ। रायपुर में भी किरणमयी नायक प्रभा दुबे पर अपने व्यक्तित्व के कारण भारी पड़ी। इसलिए भाजपा को अभी से महिला नेतृत्व उभारने की फिक्र करना चाहिए और निगम मंडलो में नियुक्ति के द्वारा इस तरफ  कदम बढ़ाया जा सकता है।


अब कोई ऐसा क्षेत्र नहीं रह गया है जहां महिलाएं अपनी योग्यता नही दिखा रही हैं। यहां तक कि फौज से लेकर हवाई जहाज उड़ाने में वे अपनी योग्यता साबित कर रही हैं। प्रतिपक्ष की नेता के  रूप में लोकसभा में सुषमा स्वराज ही उचित चयन है और वे कांग्रेस को बराबर की टक्कर दे रही हैं। सरोज पांडेय ने महापौर का चुनाव दो बार, विधानसभा और लोकसभा का चुनाव जीतकर अपनी योग्यता साबित की है। अक्लमंद वह नहीं होता जो आग लगने पर कुआं खोदता है बल्कि अक्लमंद वह होता है जो कुआं पहले ही खोद लेता है। यह उचित समय है जब निगम मंडलों में नियुक्ति के समय भाजपा अपनी महिला नेत्रियों पर ध्यान केंद्रित करे और उन्हें आगे बढऩे का अवसर दे।


आजकल तनाव एक महामारी की तरह फैल रहा है। राजनैतिक कार्यकर्ता का भी अधिक समय तक तनाव में रहना उचित नहीं है। धैर्य की भी एक सीमा होती है और देर अबेर धैर्य चूकने लगता है तब अधैर्य का जन्म होता है। सवा साल से इंतजार कर रहे कार्यकर्ताओं को अवसर देने के लिए यह उचित समय है। डा. रमन सिंह और संगठन को इस पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। नगरीय निकाय के चुनाव ने दो महिला नेत्रियों को आगे बढ़ाया है। इन्होंने अपने काम से अपनी छवि बनायी तो भविष्य में मुकाबला तगड़ा होगा। कांग्रेस में नया नेतृत्व उभर रहा है। नया नेतृत्व नई छवि का निर्माण करेगा। अक्लमंद है तो भविष्य को अभी से आंक लेना चाहिए।


- विष्णु सिन्हा


24-1-2010
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शनिवार, 23 जनवरी 2010

किरणमयी और रामसुंदरदास को नोटिस यदि कांग्रेस देती है तो यह उसकी कमजोरी की निशानी होगी

कांग्रेसी शिकायत कर रहे हैं कि किरणमयी नायक ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयंसेवकों पर फूल क्यों बरसाए ? दूधाधारी मठ के महंत और कांग्रेस के विधायक रामसुंदर दास ने मठ के ही सत्संग हाल में संघ प्रमुख मोहन भागवत के सर्व समाजों की बैठक में क्यों हिस्सा लिया ? दिल्ली में आलाकमान तक शिकायत की जा रही है कि यह अनुशासनहीनता है। खबर है कांग्रेस इन्हें नोटिस देकर जवाब तलब करने वाली है कि उन्होंने राष्टरीय स्वयं सेवक संघ के साथ सदाशयता क्यों दिखायी ? जो कांग्रेस पार्टी सबको साथ लेकर चलने का दावा करती है, वह अपने दो नेताओं के सदाशयता के कार्य पर प्रश्नचिन्ह लगाए तो इसे सहिष्णुता नहीं संकीर्णता ही कहा जाएगा। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारत में रहने वालो का ही संघ है। कांग्रेस के मतों में और संघ के मतों में यदि विभिन्नता है तो मतभिन्नता की स्वतंत्रता तो हमारा संविधान ही सभी को देता है। फिर एक राजनेता को तो ज्यादा इस बात की जरूरत है कि वह विभिन्न मतों की अच्छी तरह से जानकारी रखे। कम से कम कांग्रेस तो ऐसी पार्टी नहीं मानी जाती जिसने अपने आंख, कान बंद कर रखे हैं.

फिर किरणमयी नायक ने महापौर की हैसियत से नगर निगम के सामने से निकलने वाले संघ के स्वयं सेवकों पर फूल बरसाया तो ऐसी क्या आफत आ गयी? हजारो की संख्या में पथ संचालन करते स्वयं सेवकों पर सद्भावना प्रगट करना कैसे अनुशासहीनता हो गयी ? अनुशासनहीनता मतभिन्नता को दुश्मनी के रूप में लेगी, क्या ? तब तो अटलबिहारी वाजपेयी के  जन्मदिन पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का फूलों का गुलदस्ता भेजना भी अनुशासनहीनता के  दायर में ही आएगा। क्योंकि अटलबिहारी वाजपेयी ने तो हमेशा गर्व से कहा कि वे राष्टरीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवक हैं। सोनिया गांधी ने भी अटलबिहारी वाजपेयी को जन्मदिन की बधाई दी है। कांग्रेस के ही पूर्व अध्यक्ष एवं प्रधानमंत्री दिवंगत नरसिंहराव ने तो बड़े गर्व से कहा था कि अटलबिहारी वाजपेयी को वे अपना गुरू मानते हैं और जब वे बोलते हैं तो लगता है कि वे बोलते ही रहें और वे सुनते ही रहें।
तब कांग्रेसियों ने नरसिंहराव और मनमोहन सिंह पर अनुशासन की कार्यवाही करने के लिए क्यों नहीं आवाज उठायी ? बड़े जो भी करें, वह सही लेकिन छोटों को दायरे के अंदर रहना चाहिए। क्या डर है कि संघ के संपर्क मे आने से कांग्रेसी बहक जाएंगे ? संघ के पथ संचालन में तो कुछ मुस्लिमों ने भी स्वयं सेवकों पर फूल बरसाए। अपने घर कोई आए तो स्वागत सत्कार करना हमारी भारतीय संस्कृति रही है। हम तो पाकिस्तानियों और चीनियों का भी देश में स्वागत सत्कार करते हैं। जबकि वे हमारे प्रति, हमारी मातृभूमि के प्रति अच्छी भावना नहीं रखते। कांग्रेस केरल में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार बनाती है तब भी वह धर्मनिरपेक्ष बनी रहती है। सिर्फ राष्टरीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा के साथ जाना ही धर्मनिरपेक्षता के विरूद्घ जाना मानने का क्या तुक है ?


मुसलमान, ईसाई, सिख सभी अपना संगठन बनाते हैं तो हिंदुओं का संगठन बनाने वाली राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ही सांप्रदायिक क्यों ? क्या इस देश में हिंन्दुओं का संगठन बनाना ही धर्मनिरपेक्षता के विरूद्घ है ? जबकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत तो कहते हैं कि हिंदुत्व की उनकी परिभाषा में सभी भारतीय सम्मिलित हैं। वे तो स्पष्ट कहते हैं कि जहां पर हिंदू कमजोर पड़ा वहीं विभाजन की बात सर उठाने लगती है। आम हिंदू सहिष्णु और शांतिप्रिय है। वह धर्मनिरपेक्ष है। इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि देश धर्मनिरपेक्ष है। बहुसंख्यक हिंदू सांप्रदायिक होता और पाकिस्तान के बंटवारे क समय ऐसी स्थिति थी कि हिंदू सांप्रदायिक हो सकता था लेकिन उस समय हिंदू सांप्रदायिक नहीं हुआ। हिंदू सांप्रदायिक हो जाता तो देश धर्मनिरेपक्ष नहीं होता। हिंदुओं की ताकत वोट के रूप में एकमुश्त एकतरफा हो जाती तो देश कब का हिंदू राष्ट्र हो जाता। इस देश के अल्पसंख्यकों को भी पता है कि हिंदू सांप्रदायिक नहीं है। कभी कभार सांप्रदायिकता की भावना उभरती भी है तो उसका कारण प्रति संप्रदायिकता होती है।


इस देश की संस्कृति का जो असली तत्व है, वह सहिष्णुता है। हिंदू मन इतना विशाल है कि वह सबको अपने में समाहित करने की क्षमता रखता है। यह कारण था जो करोड़ों मुसलमानों ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान की मांग के बावजूद पाकिस्तान जाने के बदले भारत में ही रहना पसंद किया। इस देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब कहते हैं कि देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला अधिकार है तब बहुसंख्यक जनता भड़कती  नहीं। वह दोबारा उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाने के  लिए पहले से ज्यादा समर्थन देती है और जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले लालकृष्ण आडवाणी को खारिज कर देती है।


विभिन्नता में एकता इस देश का मूलमंत्र है। इस देश की यही तो खूबी है कि सब तरह के विचार यहं पुष्पित पल्लवित होते हैं लेकिन जनता के द्वारा स्वीकार अस्वीकार पर ही उनका भविष्य निर्भर करता है। जब पंडित जवाहर लाल नेहरू राष्टरीय स्वयं सेवक संघ को दिल्ली की परेड में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं। जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल गृहमंत्री भारत सरकार संघ के  कार्यक्रम में सम्मिलित हो सकते हैं। तब किरणमयी नायक का शहर की प्रथम नागरिक के रूप में स्वयं सेवकों पर फूल बरसाना गलत कैसे हो सकता है?ï हो सकता है कांग्रेसी महापौर से प्रभावित होकर स्वयं सेवक कांग्रेस के ही पक्ष में हो जाएं। जब भाजपा के विधायकों, पदाधिकारियों, कार्यकर्ताओं के कांग्रेस प्रवेश पर कोई रोक नहीं है तब कौन किसे प्रभावित कब कर सकता है, क्या कहा जा सकता है?


जब अपने ही मठ के सत्संग हाल में संघ के  सरसंघचालक सभी समाजों से खुली चर्चा के लिए आएं तो महंत रामसुंदरदास उस चर्चा में भाग लेने से मना करें तो वे कैसे हिंदू धर्म गुरू? वे तो मुसलमानों के बुलाए जाने पर उनके कार्यक्रमों में भी सम्मिलित होते हैं। कांग्रेस अपने नेताओं को इतना कमजोर क्यों समझती है कि वे किसी के बहकावे में आ जाएंगे बल्कि कांग्रेसियों को तो उम्मीद करना चाहिए कि वे अपने व्यवहार, विचारों से दूसरो को ही अपने पक्ष में करने में सफल होंगे। यदि किरणमयी या रामसुंदरदास संघ में जाना चाहेंगे तो उन्हे कौन रोक सकता हैै? वे कांग्रेस मे हैं तो सोच समझकर ही हैं। वे कांग्रेस की नीतियों सिद्घांतों से सहमत नहीं होते तो कांग्रेस में क्यों होते ? अनुशासन की कार्यवाही की मांग करने वाले ही कमजोर दिखायी पड़ते हैं। यह तो ऐसी बात ही नहीं है कि इस पर चर्चा या विचार होना चाहिए। हर तरफ  किरणमयी की सद्भावना की तारीफ ही हो रही है।


-विष्णु सिन्हा


23-1-2010

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

नक्सल विरोधी अभियान को त्वरा प्रदान करने के लिए चिदंबरम छत्तीसगढ़ में

केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम का स्वागत नक्सलियों ने दो छात्रों की गला रेत कर और डंडे से पीट कर हत्या कर किया है। कसूर क्या था, इन छात्रों का। 15 दिन पहले अपहरण कर छात्रों को यातनाएं दी गयी और पुलिस का मुखबिर बता कर हत्या कर लाश फेंक दी गयी। लगता नहीं कि मानवता नाम की कोई भावना नक्सलियों के हृदय में धड़कती है। एक आदमी तो कुत्ते तक को पत्थर मारने की भावना मन में नहीं पालता। किसी भी प्राणी को किसी भी तरह का कष्ट देने की कल्पना मात्र से हृदय में टीस उठती है। फिर एक मनुष्य तनधारी प्राणी निहत्थे छात्र को पीट-पीट कर मारे और अंत में उसका गला ही काट दे तो वह इंसान कहलाने की योग्यता भी खो देता है। यदि कभी भगवान न करे इनका शासन आ गया तो इंसान की जान की कीमत ही क्या रह जाएगी? जो लोग जनता में भय पैदा कर स्वयं को सही साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें कोई भी सही कैसे मान सकता है? इसीलिए वे गला काट कर हत्या करने के बावजूद भय पैदा नहीं कर पा रहे हैं बल्कि लोगों में क्रोध उबल रहा है। इसलिए छात्रों, नागरिकों ने रैली निकाल कर प्रदर्शन किया और नारे लगाए, जीने दो। 

अब इन नक्सलियों के विरुद्ध सशस्त्र बल कार्यवाही न करें तो क्या करें?  सरकार क्या अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुरा ले। अतिबुद्धिजीवी पुलिस और सशस्त्र बलों पर दोषारोपण करते हैं कि ये निर्दोष लोगों की हत्या करते हैं। ये अपनी लफ्फाजी से नक्सलियों का मनोबल बढ़ाने और सशस्त्र बलों का मनोबल गिराने का काम करते हैं। बेशर्मी तो पत्रकार जगत में भी आ गयी है। दिल्ली में बैठे बड़े-बड़े तथाकथित पत्रकार और न्यूज चैनल स्थानीय पत्रकारों पर आरोप लगाते हैं कि ये बिके हुए लोग हैं। जब जनता अंडे और टमाटर फेंक कर इनका मान मर्दन करती हैं तो ये भागते ही नजर आते हैं। किस परिस्थिति में नक्सल प्रभावित क्षेत्र के निवासी अपना जीवन यापन करते हैं, यह दिल्ली में बैठे लोगों की कल्पना से भी परे हैं। इन्हें तो सनसनी चाहिए और नक्सलियों के कारनामे इन्हें सनसनी प्रदान करते हैं।


यह तो गनीमत है कि भारत सरकार के गृहमंत्री स्थिति को अच्छी तरह से समझते हैं और यही कारण है कि पहली बार चिदंबरम ने इस समस्या की गंभीरता को समझा है। राज्यों को पर्याप्त सशस्त्र बल के साथ हर तरह की सुविधाएं नक्सलियों से लडऩे के लिए मुहैय्या कराया है। इसी कारण पहली बार छत्तीसगढ़ में तो नक्सली बैकफुट पर नजर आ रहे हैं। नित्य नक्सलियों के मारे जाने या पकड़े जाने के समाचार मिल रहे हैं। आज पी. चिदंबरम स्वयं छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में उड़ीसा के मुख्यमंत्री, महाराष्ट के गृहमंत्री और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री, अधिकारियों के साथ बैठक कर रहे हैं। लगता है निर्णायक लड़ाई के लिए फैसले लिए जाएंगे। नक्सली क्षेत्रों में सशस्त्र बलों की उपस्थिति से आम जनता का भी नक्सलियों के विरुद्ध मनोबल बढ़ा हुआ है। जनता भी यह बात अच्छी तरह से समझ रही है कि यही अवसर है जब वे सशस्त्र बलों को सहयोग कर नक्सलियों से मुक्त हो सकते हैं। 


निश्चित रुप से आज जो नक्सलियों के विरुद्ध जनता का मनोबल ऊंचा है, उसका कारण छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह हैं। रमन सिंह पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने आम जनता के दर्द को पहचाना और उन्हें नक्सलियों के चंगुल से छुड़ाने का निश्चय किया। सलवा जुड़ूम जैसे अहिंसक आदिवासियों के नक्सलियों के विरुद्ध आंदोलन को नैतिक समर्थन दिया। डॉ. रमन सिंह ने अपनी सरकार के सीमित साधनों के बावजूद नक्सलियों से लडऩे की इच्छाशक्ति का जो परिचय दिया, वह निश्चित ही सराहनीय है। उन्होंने निरंतर केंद्र सरकार के दरवाजे साधनों के लिए, सशस्त्र बल के लिए खटखटाए। आखिर पी. चिदंबरम के गृहमंत्री बनने के बाद डॉ. रमन सिंह की बात को अच्छी तरह से समझा गया। डॉ. रमन सिंह यह समझाने में सफल हो गए कि नक्सली समस्या कोई छत्तीसगढ़ की ही समस्या नहीं है बल्कि कई प्रांतों में यह समस्या है लेकिन उचित ध्यान न दिये जाने के कारण इन्होंने अपनी जड़ें गहरी जमा ली है। अब यह कोई राजनैतिक आंदोलन नहीं है बल्कि अरबों का व्यवसाय बन गया है। नक्सलियों का एकमात्र उद्देश्य है कि उनके प्रभाव वाले इलाकों में सरकार विकास के काम न कर पाए और उनका कब्जा अपने इलाके पर बना रहे। सशस्त्र बलों के सिपाही, अधिकारियों की निरंतर हत्या से भी एक संदेश निकालने की कोशिश की गयी कि सरकार गलत है और वह निर्दोषों की हत्या करवा रही है। नक्सलियों ने कोशिश पूरी की डॉ. रमन सिंह की सरकार अपने कदम पीछे हटा ले लेकिन डॉ. रमन सिंह के प्रति चुनावों में इस क्षेत्र की जनता ने जो एकतरफा समर्थन दिया, उससे सिद्ध हो गया कि डॉ. रमन सिंह से जनता खुश है और उसका विश्वास है कि नक्सली समस्या से उन्हें कोई निजात दिला सकता है तो वह डॉ. रमन सिंह ही है। 


पिछले चुनाव के दौरान डॉ. रमन सिंह ने बार-बार कहा कि नक्सल समस्या से मुक्त न करा पाने का दुख उन्हें है। आज जब उन्हें पुन: अवसर जनता ने दिया है तब डॉ. रमन सिंह की प्राथमिकताओं में नक्सल समस्या है। नक्सल प्रभावित राज्यों के मंत्रियों एवं अधिकारियों की बैठक का चिदंबरम की अध्यक्षता में रायपुर में होना ही इस बात की निशानी है कि जब छत्तीसगढ़ में नक्सलियों पर कार्यवाही हो तब पड़ोसी राज्यों में इस बात के लिए पूरा इंतजाम हो कि नक्सली वहां पनाह न प्राप्त कर सके। झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन को इस बैठक के लिए न बुलाने के पीछे यह कहा जा रहा है कि सोरेन नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और बैठक की बातें नक्सलियों तक न पहुंचे, इसलिए उन्हें बैठक से दूर रखा गया है। यह बात कितनी सच है, यह तो गृहमंत्री चिदंबरम ही जानें लेकिन यदि यह सच है तो यह भाजपा के लिए भी सोच का विषय है। क्योंकि शिबू सोरेन की सरकार में झारखंड में भाजपा भी सम्मिलित है। 


खबर तो यह भी है कि झारखंड में पुलिस और सशस्त्र बलों के अभियान को बंद कर दिया गया है और सशस्त्र बल को उड़ीसा शिफ्ट कर दिया गया है। यह तो केंद्र सरकार की ही सोच का विषय है कि ऐसी सरकार को कायम रहने दिया जाए या नहीं। वैसे तो खबर यह भी है कि भाजपा आलाकमान स्वयं सोच विचार कर रहा है कि वह सरकार में सम्मिलित रहे या बाहर आ जाए। शायद सोच के इसी विचार के कारण कांग्रस ने शिबू सोरेने को मुख्यमंत्री बनने से इंकार कर दिया था। भाजपा समझ नहीं पायी और उसने समर्थन देकर सरकार में सम्मिलित होने को अपनी उपलब्धि समझा। नितिन गडकरी तो नए-नए अध्यक्ष बने थे लेकिन बाकी लोगों को तो मालूम था कि झारखंड में स्थिति क्या है? अभी भी वक्त है और भाजपा आलाकमान चाहे तो गलती को सुधार सकता है। यह तो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है कि छत्तीसगढ़ में भाजपा नक्सलियों से लड़े और झारखंड में नक्सलियों से सहानुभूति रखने वालों की सरकार में सम्मिलित रहे।  


-विष्णु सिन्हा


दिनांक 22.01.2010
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गुरुवार, 21 जनवरी 2010

हिंदुत्व ही जोड़ सकता है देश को तो मोहन भागवत जोड़ कर दिखाएं

राजधानी रायपुर के लिए कल का दिन हिन्दू समागम का था। हिदुओं का भी इतना बड़ा संगठन छत्तीसगढ़ में है, यह जानकारी बहुतों को नहीं थी। जब राजधानी की सड़कों पर पथ संचालन करते हुए पूर्ण गणवेश में स्वयं सेवक निकले तो पता चला कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कितनी गहरी पैठ है, छत्तीसगढ़ में। बिना किसी प्रचार हो हल्ले के राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ ने विशाल हिंदू जनता को अपनी तरफ आकर्षित कर रखा है तो यह किसी आश्चर्य से कम नहीं है। बाल, युवा, वृद्घ स्वयं सेवक कतारबद्घ होकर बैंड की धुन पर जब मार्च पास्ट करते हुए सड़कों से निकल रहे थे, सड़क किनारे खड़े लोग पूछ रहे थे कि ये कौन हैं? जब अपने ही राज्य के  मंत्रियों, विधायकों, कार्यकर्ताओं को लोगों ने गणवेश में कदमताल करते देखा तब ही समझ में आया कि भाजपा की असली ताकत क्या है? सामने नजर आने वाले चंद चेहरों के पीछे कितने विशाल स्वयं सेवकों की शक्ति काम करती है। मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष तक काली टोपी लगाए जब कार्यक्रम में दिखायी पड़े तब तो और स्पष्ट हो गया कि भाजपा किसकी ताकत पर इतराती है।

सरसंघचालक का अर्थ होता है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सर्वोच्च पदाधिकारी। आजकल राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहनराव भागवत हैं। उनके छत्तीसगढ़ प्रांत के  आगमन पर ही हिंन्दू समागम का कार्यक्रम आयोजित किया गया। स्पोट्र्स काम्पलेक्स का मैदान स्वयंसेवकों से अटा पड़ा था तो सामान्य नागरिक भी दर्शक दीर्घा में उपस्थित थे। अपने उद्बोधन में मोहनराव भागवत ने स्पष्ट कहा कि जहां भी हिंदू कमजोर पड़ा वहीं विभाजन ने सर उठाया। पाकिस्तान, चीन और बंगलादेश से सचेत रहने की नसीहत भी उन्होंने दी। विभिन्न पूजा पद्घतियों के बावजूद समस्त भारतवासियों को उन्होंने हिंदुत्व के  दायरे में माना। भाषा, जाति, धर्म अलग अलग होने के बावजूद सांस्कृतिक एकता की उन्होंने बात की। बातें तो वही पुरानी है जो संघ का हर सरसंघचालक कहते आया हैं। बात को बार बार दोहराना इसलिए पड़ता है कि कहीं विस्मृति की धुंध मस्तिष्क पर न छा जाए। फिर नए नए स्वयं सेवक भी तो संघ में आते हैं और ऐसा अवसर कम ही होता है जब सीधे सरसंघचालक ही को सुनने का अवसर मिले।
मोहन भागवत ने सेवा पर जोर देना प्रारंभ किया है। स्वयं सेवक को सेवा कार्य से पीछे नहीं हटना चाहिए। संघ स्वयं सेवा के विभिन्न प्रकल्प संचालित करता है और उसका संचालन भी स्वयं सेवकों के ही हाथ में है। कभी मुसलमानों का दुश्मन कहकर प्रचारित किए जाने वाले संघ के स्वागत में फूल बरसाते मुसलमानों के जत्थे को देखकर तो लगता है कि संघ के विरूद्घ जो दुष्प्रचार था, वह अब कमजोर पड़ता जा रहा है। मोहन भागवत ने भी स्पष्ट किया है कि जोर जबरदस्ती, हिंसा के माध्यम से धर्म परिवर्तन उचित नहीं है। हर व्यक्ति को अपनी आस्था के अनुसार पूजा पद्घति अपनाने की पूरी तरह से छूट है। भाजपा का जो मुस्लिम विरोधी हव्वा था वह भी 6 वर्ष से छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार ने समाप्त किया है। सांप्रदायिक एकता की तो  छत्तीसगढ़ में जैसी स्थिति है, वही संघ और भाजपा की असली छवि है।
मोहन भागवत कहते है कि राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ कोई मिलिट्री या पैरा मिलिट्री फोर्स नही है बल्कि यह स्वयं सेवक संघ है। जिस संगठन के नाम में ही सेवक हो, उसकी मूल भावना सेवा से ही जुड़ी हो सकती है। महात्मा गांधी की हत्या का कलंक भी राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ पर लगा लेकिन जल्दी ही यह बात साफ  हो गयी कि महात्मा गांधी की हत्या में संघ की कोई भूमिका नहीं थी और संघ पर लगाया प्रतिबंध हटा लिया गया। चीन युद्घ में हार के बाद तो स्वयं जवाहरन्लाल नेहरू ने गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने के लिए संघ को आमंत्रित किया था। देश के  बंटवारे के समय पाकिस्तान से आए हिंन्दुओं को व्यवस्थित करने और नैतिक समर्थन देने में संघ ने अहम भूमिका निभायी। कही भी प्राकृतिक आपदा हो तो संघ के स्वयं सेवक सेवा कार्य मे किसी से पीछे नहीं रहते बल्कि चार कदम आगे ही रहते हैं।
हिंदुओं को जाति व्यवस्था से मुक्त होने का आह्वïन भी पिछले दिनों मोहन भागवत ने किया। दरअसल हिंदुओं की एकता के आड़े जाति व्यवस्था ही आती है। कभी कर्म के आधार पर बनायी गयी जाति व्यवस्था ने वक्त के साथ कर्म के स्थान पर जन्म को पर्यायवाची बना लिया। आज तो जाति व्यवस्था का कोई वैसे भी औचित्य नहीं रह गया है। क्योंकि कर्म अब किसी जाति का विशेषाधिकार न होकर कर्म करने के  लिए सभी स्वतंत्र हैं। उत्तरप्रदेश के नगरीय निकायों मे तो ब्राह्मïण तक सफाई कर्मियों का काम कर रहे हैं। राजपाठ में भी सभी जातियों को हिस्सा मिल रहा है। जाति अब राजनैतिक एकता का आधार बन गयी है और राजनैतिक लाभ  उठाने के लिए जातियों का उपयोग खुलकर किया जा रहा है। डा. राममनोहर लोहिया ने सबसे पहले जाति तोड़ो आंदोलन चलाया था लेकिन वह किसी मकाम पर पहुंचता उसके पहले ही उनका निधन हो गया। मोहन भागवत इसका बीड़ा उठाते हैं तो उनके सफल होने के अवसर तो है ही, इसके साथ ही वे बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति भी कर सकेंगे।
दरअसल समस्याएं सामाजिक क्षेत्रों मे ही अधिक है और राजनीति ने लोगों को जोडऩे का काम तो कम किया है, तोडऩे का काम अधिक किया है। फूट डालो और राज करो की नीति ने ही हिंदू समाज को एक होने से रोका। मुसलमानों और अल्पसंख्यकों को हिंदुओं का डर समझाया गया तो हिंदुओं की विभिन्न जातियों को एक दूसरे से लड़वाने का खेल भी खूब खेला गया। धर्म और जाति से परे अब भाषा के आधार पर लोगों के जज्बातों को भड़काया जा रहा है। संघ के मुख्यालय महाराष्ट्र में ही यह खेल खुलकर खेला जा रहा है। कल तक राज ठाकरे का नाम लिया जाता था, अब तो कांग्रेस और राष्ट्रव्दी  कांग्रेस भी इस खेल में सम्मिलित हो गयी।  15 वर्ष तक महाराष्ट्र का निवासी, मराठी बोलना, पढऩा, लिखना आए तब टैक्सी चलाने का लाइसेंस। सत्ता चाहिए और वह किस तरह से लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर हासिल की जा सकती है, इससे जब किसी का  लेना देना नहीं तब राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ इस मामले में अग्रणी भूमिका निभा सकता है। जब मोहन भागवत के ही अनुसार हिंन्दुत्व में सारे भारतीय समाहित हैं तब इस तरह के  भेदभाव का विरोध करना भी तो आज की आवश्यकता है। राष्ट्रभाषा  हिन्दी कागजों से बाहर आकर व्यवहारिक रूप न ले सकी तो उसका कारण भी तो राजनीति है। राजनैतिक लाभ ने दूरदृष्टि को अंधत्व प्रदान किया और तात्कालिक लाभ सर्वोपरि हो गया। असली सेवा तो राष्ट्र की यही है कि इन मुद्दों के विरूद्घ संघर्ष किया जाए। क्या मोहन भागवत इसके  लिए तैयार हैं?


-विष्णु सिन्हा
21.1.2010
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बुधवार, 20 जनवरी 2010

कांग्रेसी ही कांग्रेस को हराते हैं, यह तो राहुल गांधी अभी-अभी रायपुर में हुआ है

कांग्रेस के कुछ पार्षद महापौर परिषद में न लिए जाने से विचलित हो गए हैं। वे पार्टी छोडऩे तक की धमकी दे रहे हैं। उनका कहना है कि वे वरिष्ठï पार्षद हैं और उनका हक पहले बनता है, महापौर परिषद में सम्मिलित होने का। सबसे ज्यादा आक्रोश तो मनोज कंदोई को महापौर परिषद में लेने से है। दो बार पार्षद का चुनाव हारे और तीसरी बार में जीते पार्षद को एक तो सभापति का उम्मीदवार बनाया गया और सभापति का चुनाव भी वे जीत नही सके तब उन्हें महापौर परिषद में लेना कितना उचित है? आखिर एक व्यक्ति की इतनी तरफदारी क्यों की जा रही है? कांग्रेसी पार्षद तो कह रहे हैं कि जिसने मनोज कंदोई को हराया वही सभापति नगर निगम का बना। पहले सुनील सोनी ने मनोज को हराया तो सभापति बने। फिर रतन डागा ने हराया तो वे भी सभापति बने। अंत में तो सभापति के चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें प्रत्याशी बनाया तो संजय श्रीवास्तव भाजपा के पास बहुमत न होने के बावजूद जीत गए। मतलब साफ है कि कांग्रेस के ही पार्षदों ने मनोज कंदोई को सभापति बनाने के बदले संजय श्रीवास्तव को सभापति बनाना उचित समझा।

इतना सब होने के बाद जब मनोज कंदोई को महापौर परिषद में किरणमयी ने ले लिया तो असंतोष तो भड़कना ही था। यह दूसरी बात है कि कुछ लोग अपने असंतोष को अभिव्यक्त कर रहे हैं तो कुछ लोग असंतुष्ट होने क बावजूद मौन साधे हुए हैं। फिर भी यह बात तो आइने की तरह साफ  है कि महापौर परिषद में किसे लिया जाए और किसे कौन सा विभाग सौंपा जाए, यह महापौर का विशेषाधिकार है। क्योंकि जनता से किए वायदे को पूरा करने की जिम्मेदारी है तो किरणमयी नायक पर ही है। वे किस पार्षद से कौन सा काम अच्छी तरह से ले सकती हैं, यह सोचना उन्हीं का काम है। फिर यह कोई ऐसी बात भी नहीं हैं जो पहली बार हो रही है। मनमोहन सिंह को जब नरसिंहराव ने वित्त मंत्री बनाया था तब वे न तो लोकसभा के सदस्य थे और न ही राज्यसभा के लेकिन उनके अर्थशास्त्र के ज्ञान के कारण नरसिंहराव ने देश की आर्थिक गाड़ी को पटरी पर लाने के लिए उन्हें वित्त मंत्री बनाया था। शिवराज पाटिल को तो गृहमंत्री लोकसभा का चुनाव हार जाने के  बाद मनमोहन सिंह ने बनाया। यह बात दूसरी है कि वे असफल गृहमंत्री साबित हुए और उन्हें इस्तीफा देने के लिए बाध्य होना पड़ा लेकिन फिर से उनकी सेवा राज्यपाल के रूप में पंजाब में ली जा रही है।


मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह आजकल कांग्रेस के महासचिव हैं। उत्तप्रदेश का प्रभार उनके पास है। वे राहुल गांधी के खास सलाहकारों में हैं। मध्यप्रदेश में जिसने कांग्रेस की लुटिया डुबायी, वह उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के उत्थान के लिए प्रयत्नशील हैं। उन्होंने चुनाव लडऩे के पूर्व कहा था कि यदि वे चुनाव हार गए तो 10 वर्ष तक चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्हें पहले से पता था कि कांग्रेस के लिए मध्यप्रदेश में इतना बड़ा गड्ढा किया है कि वह कम से कम 10 वर्ष तक तो सत्ता पर लौट नहीं सकेगी। इसलिए सत्ता के द्वंद से दूर रहने की उन्होंने पहले ही घोषणा कर दी थी। छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री जब अजीत जोगी को बनाया गया था तब कांग्रेस विधायक दल में सिर्फ 2 विधायक उनके समर्थक थे। फिर भी उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया और कांग्रेस छत्तीसगढ़ में ऐसी डूबी कि 6 वर्ष तो बीत गए और 4 वर्ष तक उसके सत्ता में लौटने के कोई चांस नहीं हैं।


कल ही राहुल गांधी ने कहा है कि कांग्रेस को कांग्रेसी ही हराते हैं। वे कोई नई बात नही कह रहे हैं। कांग्रेसियों से ज्यादा अच्छी तरह से यह बात कौन जानता है? यह बात दूसरी है कि यह बात जनता भी अच्छी तरह से समझती है। रायपुर नगर निगम के चुनाव में किरणमयी नायक की जीत को भाजपा न पचा सके, यह बात तो समझ में भी आती है लेकिन कांग्रेसी नहीं पचा पा रहे हैं, यह बात जनता को असमंजस में डाल रही है। कल तक जो कांग्रेस की एक टिकट के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे, वे आज जीतकर महापौर परिषद पर दावा कर रहे हैं। यह महापौर का तो विशेषाधिकार है कि वह किसे अपनी परिषद में ले लेकिन यह पार्षद का कैसे अधिकार हो गया कि उसे महापौर, महापौर परिषद में ले? वह तो गनीमत है कि महापौर का चयन पार्षदों ने नहीं किया है, बल्कि रायपुर शहर की जनता ने किया है। यह कहना फिजूल है कि उनके  वार्ड से महापौर को  इतने मत की लीड मिली। कांग्रेस के तो 31 पार्षद ही जीतकर  आए हैं जबकि किरणमयी को 34 वार्डों में लीड मिली है। भाजपा और  निर्दलीय पार्षदों के वार्ड में भी अच्छी खासी लीड मिली है।
फिर अपने वार्ड का विकास करना है या महापौर परिषद में रहकर कोई विशेष उपलब्धि करना है। आज जो असंतोष की राजनीति कर रहे हैं उन्हें किस नेता की सिफरिश पर टिकट दी गई। इसकी तलाश करना चाहिए। क्योंकि जिसने अड़कर टिकट दिलायी, उसकी भी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने पार्षद को अनुशासन में रखें। क्योंकि ये पार्षद छवि तो कांग्रेस की खराब कर रहे हैं। जिन्होंने सभापति चुनाव में पार्टी प्रत्याशी के विरूद्घ मत दिया, उन्होंने गुपचुप रास्ता अपनाया लेकिन जो खुलेआम बयानबाजी कर रहे हैं, वे तो कांग्रेस को जनता की अदालत में कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। मतदाता को अफसोस न हो कि कांग्रेस को जितवाकर उसने कोई गलत निर्णय तो नहीं ले लिया। किरणमयी की साफ  सुथरी छवि को देखकर लोगों ने उसे महापौर चुना। कोई और प्रत्याशी होता तो कांग्रेस नहीं भाजपा जीत जाती और आज महापौर परिषद में आने का स्वप्न भी कांग्रेसी पार्षद नहीं देखते।


किरणमयी नायक को महापौर चुनकर जनता ने कांग्रेस को मौका दिया है। जनता देखना चाहती है कि कांग्रेस के  चाल चरित्र में अंतर आया है या नहीं। बार-बार नकारे जाने के बाद भी कांग्रेसी यदि अपनी आदतों से बाज नहीं आते तो कांग्रेस को भी भविष्य में जनता से किसी तरह के समर्थन की उम्मीद नहीं करना चाहिए। किरणमयी अपनी तरफ से पूरा प्रयास कर रही है कि वे जन आकांक्षा पर खरी साबित होकर दिखाएं। भाजपा तो ऐसा चाहेगी, नहीं। आखिर वह क्यों चाहेगी कि किरणमयी सफल हो? किरणमयी की सफलता का तो अर्थ होगा कि जनता का समर्थन कांग्रेस की तरफ  बढ़े । इससे भाजपा को सिवाय नुकसान के और क्या प्राप्त होगा? लेकिन भाजपा को ऐसी जरूरत नहीं पड़ेगी। संजय श्रीवास्तव बेकार ही उछलकूद कर रहे हैं। अच्छा हो वे सभापति के दायरे में रहकर अपना दायत्वि निभायें। इससे सभापति की गरिमा बढ़ेगी।


किरणमयी नायक को असफल करने के लिए कांग्रेसी हैं, न। वर्षों से सत्ता से दूरी उन्हें चैन से नहीं रहने देगी। जब वे अपने सभापति प्रत्याशी को हरा सकते हैं तो किरणमयी नायक को भी सफल नहीं होने देंगे। वे कालिदास की तरह हैं। जिस डाल पर बैठते हैं, उसे ही काटने में उन्हें ज्यादा सोच विचार नहीं करना पड़ता। आज वे महापौर परिषद में सम्मिलित न होने पर त्याग पत्र की धमकी दे रहे हैं। कल वे अविश्वास प्रस्ताव आने पर समर्थन भी करेंगे। गनीमत है तुरत फुरत अविश्वास प्रस्ताव लाया नहीं जा सकता। इसलिए किरणमयी को अपनी योग्यता प्रदर्शित करने से रोकने का अभी तो अवसर नहीं है और वे सफल हो गयी तो यही असंतुष्टï कल उनके चरणों में दिखायी पड़ें तो आश्चर्य की बात नहीं होगी।


- विष्णु सिन्हा


20.1.2010

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

इस देश का नौकरशाह ईमानदार होने की दृढ़ इच्छाशक्ति प्रदर्शित करे तो देश का कायाकल्प हो सकता है

कल का दिन कुछ पूर्व आईएएस और वर्तमान आईएएस के लिए अच्छा नहीं रहा। बारदाना घोटाला कांड में कल आर्थिक  अपराध अन्वेषण ब्यूरो ने दो पूर्व एवं एक वर्तमान आईएएस के विरूद्घ अपराध दर्ज कर लिया। अजीत जोगी शासनकाल के  घोटाले की लंबी जांच के बाद मुख्यमंत्री ने अपराध दर्ज करने की अनुमति दे दी। पूर्व मुख्य सचिव आर. पी. बगई, टी. एस. छतवाल और वर्तमान में पर्यटन सचिव सुब्रत साहू को आरोपी बनाया गया है। अपराध दर्ज करने की अनुमति देकर डा. रमनसिंह ने स्पष्ट कर दिया है  कि वे किसी को भी बख्शने के  पक्ष में नहीं हैं। बारदाना घोटाला करीब 150 करोड़ रूपये का है। आरोप है कि बिना किसी टेंडर के बारदाने खरीदे गए थे। 6 वर्ष हो गए, घोटाले को। जांच बड़ी लंबी चली। किसी को कोई उम्मीद नही थी कि इस मामले में कुछ होने वाला है। एक तरह से वक्त की राख ने इस मामले को ढंक लिया था लेकिन अंदर ही अंदर आग सुलग रही थी और जब राख उड़ायी गयी तो पता चला कि साक्ष्य और दस्तावेज के आधार पर भ्रष्टाचार साबित होता है।

जुर्म दर्ज होना सभी के लिए चेतावनी है कि कानून की चक्की भले ही धीरे-धीरे चलती है लेकिन पीसती बारीक है। सत्ता की कुर्सी पर सवार लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे मनमानी कर बच निकलेगे। अक्सर बड़े नौकरशाह बच भी निकलते है। खासकर आईएएस अधिकारियों पर ऊंगली उठाने से लोग झिझकते है लेकिन सूचना के अधिकार ने हर व्यक्ति को वह ताकत दे दी है जिससे शासकीय दस्तावेज हासिल किए जा सकते हैं। अब तो न्यायाधीशों को भी इसके अंतर्गत ले लिया गया है। प्रजातंत्र में पारदर्शिता ही असली चीज है जो गलत काम करने वालों में भय पैदा करती है। बेलगाम नौकरशाही पर अंकुश का काम करती है। आईएएस अधिकारियों को कठघरे में खड़ा कर  डा. रमन सिंह ने जनता को भी संदेश दे दिया है कि वे गलत कामों को शह देने वाले मुख्यमंत्री नहीं हैं।


कल ही मुख्यमंत्री ने मंत्रालय का अचानक निरीक्षण कर यह भी जांच कर ली कि कौन सा बड़ा अधिकारी अपनी सीट पर कार्यालयीन अवधि में  उपस्थित है और कौन अनुपस्थित। हालांकि उन्होंने साहबों के विषय में  चपारसियों से जानकारी ली और स्वास्थ्य का हाल चाल पूछा लेकिन समझदार के लिए स्पष्ट चेतावनी है कि उन्होंने अपने काम के समय को गंभीरता से नहीं लिया तो मुख्यमंत्री सख्त भी हो सकते है। दरअसल मुख्यमंत्री पर ही आरोप लगते हैं यदा कदा कि नौकरशाह उनके नियंत्रण में नहीं है। अजीत जोगी तो नौकरशाह को घोड़े की और मुख्यमंत्री को घुड़सवार की संज्ञा देते रहे हैं। अच्छे घुड़सवार के इशारे पर घोड़े दौड़ लगाते है। लगाम तो घुड़सवार के हाथ में ही होती है और अच्छा घुड़सवार न हो तो बिगड़ैल घोड़े घुड़सवार को भी पटक देते है।


उदाहरण में यह बात भले ही मन को अच्छी लगे लेकिन न तो मुख्यमंत्री घुड़सवार होता है और न ही नौकरशाह घोड़े। दोनों इंसान हैं और इंसानियत का तकाजा तो यही है कि दोनों मिलकर अपनी अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन पूरी संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से करें। मुख्यमंत्री और सरकार को जनता ने चुना है। वे जनता की तरफ से सरकार चलाने के लिए नियुक्त किए गए हैं और नौकरशाहों का काम है कि जनता की चुनी सरकार के आदेशों का त्वरित गति से पालन करें। कहते है कि न्याय में देरी भी अन्याय के समान हैं। नौकरशाहों को तो नित्य न्याय करना पड़ता है। मुख्यमंत्री को भी तुरंत फैसला लेना पड़ता है लेकिन मुख्यमंत्री के निर्देश, आदेश का शीघ्रता से पालन हो यह काम तो नौकरशाहो का है। नौकरशाह इस मामले में कोताही करें या अपनी मनमर्जी चलाने का प्रयास करें तो इसे उचित नहीं कहा जा सकता। फिर वे सरकारी खजाने को ही नुकसान पहुंचाएं तो वे सजा के हकदार तो स्वयं बन जाते है। मुख्यमंत्री चाहें न चाहें, उन्हें ऐसे नौकरशाहों को कानून के हवाले करने की अनुमति देना ही पड़ता है।


नौकरशाहों को छठवां वेतन आयोग के अनुसार वेतन और सुविधाएं मिले, इस मामले में जब मुख्यमंत्री पीछे नहीं हैं तो नौकरशाहों को भी अपने कर्तव्यों के निर्वहन में पीछे नहीं रहना चाहिए। आखिर वेतन और सुविधाओ पर जो खर्च होता है, वह होता तो जनता के खजाने से ही है। सही दृष्टि तो यही है कि जनता ही सबको वेतन देती है। प्रजातंत्र में तो जनता ही मालिक है। फिर मालिक का हुक्म बजाना तो नौकरशाहों का पहला कर्तव्य है। जबकि होता उल्टा है। नौकरशाह मालिक बन बैठे हैं। वे समझते हैं, शायद कि उनकी कृपा से जनता के काम होते हैं। ऐसे भाव प्रजातंत्र के लिए अच्छे नहीं हैं। क्यों नौकरशाह आम आदमी से कटकर सुरक्षा के घेरे में मंत्रालयों में बैठते हैं? उनसे यदि कोई मिलना चाहें तो सुरक्षा की लंबी चौड़ी दीवार को लांघना क्या आसान काम है? रोज न सही कम से कम सप्ताह में एक दिन ही सही वे जनता से रूबरू क्यों नहीं होते। जो समय पर दफतर आना ही जरूरी नही समझते, वे जनता से मिलने में क्यों रूचि लें? वास्तव में जो सरकार चलाते हैं, वे सात पर्दों में छुपकर बैठते हैं।


मंत्री शिकायत करते हैं कि उसका सचिव उनकी नहीं सुनता। यह कोई  अच्छी स्थिति नहीं है। कोई काम मंत्री के द्वारा बताए जाने पर नहीं हो सकता, किसी नियम, कायदे के कारण तो मंत्री को बताना चाहिए कि इस कारण काम नहीं हो सकता। आप नियम बदलिए, तब ही काम होगा। मंत्री को सम्मान सर्वोच्च प्राथमिकता होना चाहिए। मंत्री बुलाए, उसके पहले ही उससे मिलना सौजन्यता है। फिर मंत्री के बुलाने पर भी न जाना तो घोर अनुशासनहीनता है। बहुत पहले ऐसा मामला सामने आ चुका है जब मंत्री के  बुलाने पर अधिकारी ने मीटिंग का बहाना बनाया कि वह मीटिंग में व्यस्त है। मंत्री जी ने जाकर अधिकारी के कक्ष में देखा तो अधिकारी बैठा हुआ था और कोई मीटिंग नहीं चल रही थी। स्वाभिमानी होना अलग बात है लेकिन अहंकारी होना एकदम अलग बात है।


इस देश के आईएएस अधिकारी तय कर लें कि वे गलत काम नहीं करेंगे तो देश से भ्रष्टचार को मिटाया जा सकता है लेकिन पदस्थापना के चक्कर में जब वे गलत काम करने से भी परहेज नहीं करते तो फिर अपनी ऊंगलियां भी डुबाने से बाज नहीं आते। देश का सबसे बुद्घिमान युवा आईएएस के लिए चुना जाता है तो यह उनके लिए ही विचारणीय है कि आज देश जहां आकर पहुंच गया है, उसके लिए वे कितने जिम्मेदार हैं। उनका तो संगठन भी है। वे क्यों नहीं देश की समस्याओं के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते ? वे चाहें और दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो देश का कायाकल्प कर सकते हैं लेकिन इसके लिए उन्हे व्यवस्था की जड़ता को तोडऩा होगा। क्योंकि प्रारंभ तो स्वयं से होता है। स्वाध्याय करें। मतलब स्वयं का अध्ययन करें?ï अपने कामों की स्वयं समीक्षा करें तो कारण वे स्वयं को भी पाएंगे।


- विष्णु सिन्हा
19-1-2010 

सोमवार, 18 जनवरी 2010

सामान्य मानव की काया में महामानव ज्योति बसु


ज्योति बसु नहीं रहे। 96 वर्ष की आयु तक मनुष्य शरीर में रहने वाले व्यक्ति के शरीर त्याग के साथ ही भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के एक युग का भी अंत हो गया। पश्चिम बंगाल के लगातार 23 वर्षों तक मुख्यमंत्री रहने वाले ज्योति बसु ने मुख्यमंत्री रहने का जो रिकॉर्ड बनाया, उसे भविष्य में भी कोई तोड़ पाएगा, इसकी उम्मीद कम है। उन्हें किसी ने मुख्यमंत्री के पद से हटाया नहीं बल्कि स्वास्थ्य कारणों से उन्होंने स्वयं पद त्याग दिया।  उन्हें पदच्युत करने के सभी तरह के प्रयास निष्फल ही साबित हुए। उनकी प्रतिष्ठा  ऐसी थी कि संयुक्त मोर्चा ने एक समय उन्हें प्रधानमंत्री पद संभालने के लिए भी आमंत्रित किया लेकिन अपनी पार्टी के निर्णय को शिरोधार्य करते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री पद स्वीकार नहीं किया। वे चाहते तो पार्टी से अपने प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव भी पारित करवा सकते थे लेकिन उन्होंने अपने प्रभाव का उपयोग करने के बदले पार्टी के निर्णय का सम्मान किया। आज जब पद के लिए लोग नाराज हो कर पार्टी से ही किनारा करने मे देरी नहीं करते तब ज्योति बसु उन सभी के लिए उदाहरण हैं।
गठबंधन की सरकार चलाने को कठिनतम काम समझने वालों के लिए भी ज्योति बसु एक उदाहरण हैं। 23 वर्षों तक गठबंधन की सरकार उन्होंने चलायी। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का बहुमत होने के बावजूद उन्होंने गठबंधन के दलों से किनारा कर अपनी सरकार चलाने की स्वार्थपरता नहीं दिखायी। उनकी राजनीति का सबसे उज्जवल पक्ष तो यही है कि मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं की राजनीति उन्होने नहीं की। ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है जो वास्तव में अपने लिए ही ईमानदार न हो बल्कि सबके लिए ईमानदार हो। वाम मोर्चे की पश्चिम बंगाल सरकार के विरुद्ध सबसे ज्यादा संघर्ष ममता बेनर्जी ने किया लेकिन ज्योति बसु के मुख्यमंत्री रहते उन्हें सफलता नहीं मिली। आज ममता बेनर्जी पश्चिम बंगाल में सफल हो रही हैं और लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने कांग्रेस के साथ मिल कर कम्युनिस्टों को पीछे धकिया दिया है। उम्मीद की जा रही है कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा के अगले चुनाव के बाद सत्ता वाम मोर्चे के हाथ से निकल जाएगी और ममता के हाथ लग जाएगी लेकिन ऐसा तभी संभव हो रहा है जब कमान वाम मोर्चे की ज्योति बसु के हाथ में नहीं है और अब तो वह नश्वर शरीर को ही त्याग चुके हैं।
जब तक ज्योति बसु का स्वास्थ्य ठीक था तब तक वाम मोर्चा भारतीय राजनीत में निर्णायक स्थिति में था। तमाम कांग्रेस को छोड़कर धर्मनिरपेक्ष दल ज्योति बसु में अपना भविष्य देखते थे। मनमोहन सिंह ने भी अपने पिछले कार्यकाल में अधिकांश समय सरकार वाम मोर्चे के समर्थन से ही चलायी। वाम मोर्चे ने भले ही अमेरिका से परमाणु समझौते के कारण सरकार से समर्थन वापस ले लिया लेकिन व्यक्तिगत रुप से ज्योति बसु इससे सहमत नहीं थे। इसका परिणाम भी वाम मोर्चे को भोगना पड़ा और लोकसभा चुनाव में उसकी शक्ति क्षीण हुई। प्रकाश करात तो उम्मीद कर रहे थे कि चुनाव के बाद फिर ऐसा अवसर आने वाला है कि उनके इशारे पर केंद्र में सरकार बनेगी लेकिन जनता ने कांग्रेस की सीटों में इजाफा कर वाम मोर्चे को पश्चिम बंगाल और केरल में ही ठिकाने लगा दिया।
जीवन भर की मेहनत से ज्योति बसु ने जिस तरह से अपनी पार्टी और वाम मोर्चे को पुष्पित पल्लवित किया था, उसका इस तरह से पराभव उन्हें रास न आया हो तो आश्चर्य की बात नहीं। वे योद्धा थे और जीवन भर उन्होंने अपने मूल्यों के लिए संघर्ष किया। गरीब, वंचित, दलित तबकों के लिए उनकी पीड़ा ही प्रमुख कारण थी जो सुविधापूर्वक जीवन यापन के  बदले उन्होंने संघर्ष के रास्ते का चयन किया। नहीं तो लंदन से बैरिस्टर की डिग्री प्राप्त कर आने वाले व्यक्ति के लिए वकालत के पेशे में सुविधा ही सुविधा थी। वे चाहते तो आम आदमी की तरह सुविधा भोगी का जीवन भी आसानी से व्यतीत कर सकते थे। भारत में वामपंथियों के लिए बंगाल को उर्वरा बनाना कोई आसान काम नहीं था लेकिन लगातार 23 वर्षों तक पश्चिम बंगाल पर शासन कर उन्होंने सिद्ध किया कि वे असंभव को भी संभव करने की क्षमता रखते थे।
उनकी आलोचना की जाती है कि उनके शासनकाल में पश्चिम बंगाल विकास के नाम से पिछड़ गया। औद्योगिक विकास के नाम पर एक बड़ा शून्य पश्चिम बंगाल में है और बुद्धदेव भट्टïाचार्य वर्तमान मुख्यमंत्री ने जब औद्योगिक विकास की तरफ पश्चिम बंगाल को ले जाने की कोशिश की तो उद्योग तो पश्चिम बंगाल के हिस्से में आया नहीं बल्कि अलोकप्रियता उनके हाथ लगी। उद्योग के नाम पर कृषकों से अधिग्रहित की जाने वाली कृषि भूमि ही उनके लिए भारी नुकसान का सौदा साबित हुई। ममता ने उन्हीं के हथियार से उनका सफाया किया। गरीबी में भी लोग सुखी रह सकते हैं लेकिन अमीरी के नाम पर उनकी जमीन उनसे ले ली जाए, यह बंगालियों को पसंद नहीं आया। यह मर्म ज्योति बसु अच्छी तरह से समझते थे। इसलिए भूमि सुधार कानून के द्वारा उन्होंने बंगालियों का न केवल मन जीता बल्कि वर्षों तक उसी कारण उनके दिलों पर राज भी किया।
ज्योति बसु की ही पंचायत राज व्यवस्था से प्रभावित होकर राजीव गांधी ने इस व्यवस्था को पूरे देश में लागू किया। पूरे देश के मुख्यमंत्री अध्ययन कराते थे कि ज्योति बसु के शासन मे ऐसी कौन सी खूबी है कि पश्चिम बंगाल की जनता निरंतर उन्हें ही समर्थन देती है। ऊपर-ऊपर की जांच परख के बावजूद भी लोग समझ नहीं पाए कि असली खूबी तो स्वयं ज्योति बसु थे। राजनीति में अंदर और बाहर से एक होने की खूबी ऐसी खूबी हैं, जिसका कोई अन्य तोड़ नहीं है। यही खूबी जनता में विश्वसनीयता को जन्म देती है। क्योंकि मुखौटे वाले नेताओं के चेहरे से मुखौटा जब उतर जाता है तब उनका नग्न चेहरा जनता को असलियत का आभास करा देता है। पुत्र चंदन बसु के उद्योगपति होने को लेकर ज्योति बसु को घेरने की कम कोशिश नहीं की गई  लेकिन जब ज्योति बसु ने कोई पक्षपात किया ही नहीं तो आरोप लगते ही दम तोड़ गए।
जो कोई राजनेता नहीं कर सका, वह भी तो वे मरने से पहले अपने शरीर का दान कर, कर गए। अपने अंगों का दान, अपने शरीर का रिसर्च के लिए दान। धार्मिक कर्मकांडों से दूर और न उसका कोई भय मानते हुए  जब ज्योति बसु भावी पीढ़ी की शिक्षा के लिए अपने मृत शरीर का भी दान कर गए तो उन्होंने सिद्ध किया कि जिन मान्यताओं के लिए भी जीये, मरते समय भी उन्होंने उसे याद रखा। वे उन सबके लिए उदाहरण हैं जिनकी कथनी और करनी एक है। ऐसा युग पुरुष वास्तव में श्रद्धांजलि का हकदार है। सामान्य मानव की काया में भी महामानव जन्म लेते है, इसका उदाहरण है, ज्योति बसु।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक 18.01.2010

रविवार, 17 जनवरी 2010

राज्यपाल के पद पर अवकाश प्राप्त नौकरशाहों एवं बुजुर्ग नेताओं की नियुक्ति, क्या सेवाओं का पुरस्कार है ?

जो व्यक्ति आज से 20 वर्ष पहले रायपुर का कमिश्रर था, वह अब छत्तीसगढ़ का राज्यपाल बन कर आ रहा है। पूर्व आई ए एस शेखर दत्त कभी नेताओं को सर कहा करते थे, अब नेता उन्हें सर या महामहिम कह कर संबोधित करेंगे । पूर्व आई ए एस, आई पी एस, फौजी आजकल सत्तारुढ़ राजनीतिज्ञों की पहली पसंद हो गए है। जब सोनिया गांधी को अपने स्थान पर किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करना था तब उन्होंने किसी कांग्रेसी राजनेता के बदले मनमोहन सिह को नियुक्त करना पसंद किया। मनमोहन सिंह भी पूर्व नौकरशाही ही है। अर्जुनसिह, प्रणव मुखर्जी, नारायण दत्त तिवारी जैसे वरिष्ठï कांग्रेस नेताओं की तुलना में मनमोहन सिंह  सोनिया गांधी की पहली पसंद बने तो उसका कारण भी स्पष्टï है । एक नौकरशाह से काम लेना बनिस्बत एक राजनैतिक नेता के ज्यादा आसान लगा होगा। एक तो नौकरशाह का कोई पार्टी में राजनैतिक गुट नहीं, दूसरे नौकरशाह से बड़ा यस सर कहां मिलेगा । फिर उसका पार्टी में कोई गुट नहीं होने से वह सीधे-सीधे नियुक्त कर्ता के प्रति वफादार जितना रह सकता है, उतना कोई राजनैतिक नेता नहीं ।
वैसे भी सत्ता में रहते हुए सारा काम करवाना तो नौकरशाह से ही पड़ता है और वह कैसा भी काम हो करने या करवाने में सक्षम ही पाए गए हैं। नौकरशाह भी अच्छी तरह से समझते हैं कि ताकतवर राजनैतिक नेता का साथ उनका भाग्य बना सकता है। मनचाही पदस्थापना तो नौकरी के दौरान दिलाता ही है, अवकाश ग्रहण करने के बाद भी सत्ता के पास पदों की कमी नहीं, जहां वे तमाम सुख सुविधा भोगते हुए समाहित हो सकते हैं । इसलिए उच्च पदस्थ आई ए एस और आई पी एस अवकाश प्राप्त करने के बाद भी यदि सत्तारुढ़ के दुलारे हैं तो सलाहकार जैसा पद प्राप्त कर भी संतुष्ट हो जाते हैं । फिर जब कार्यरत इस वर्ग के लोग देखते हैं कि उनके वरिष्ठï राज्यपाल तक का पद प्राप्त कर लेते है तो सेवाभाव राजनेता के प्रति और प्रगाढ़ हो जाता है। राज्यपाल बन कर ये दिल्ली में बैठे अपने नियुक्ति कर्ता के प्रति और ज्यादा ईमानदार हो जाते हैं। जिसकी उम्मीद एक राजनेता से नहीं की जाती है। राजनेता भी राज्यपाल के पद में वही बिठाए जाते हैं जो बुढ़ापे में अपनी वफादारी का पुरस्कार चाहते हैं।
शिवराज पाटिल को एक अक्षम गृहमंत्री  मान कर हटाया गया लेकिन सोनिया गांधी की निकटता के कारण वे पंजाब का राज्यपाल पद प्राप्त करने में सफल हो गए। लोकसभा चुनाव हारने के बाद उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में लेकर गृहमंत्री बनाया गया था लेकिन वे गृहमंत्री के रुप में इतने अक्षम साबित हुए कि देश पर आतंकवादी हमले निरंतर होते रहे। जब तक अंतिम हमला मुंबई पर नहीं हुआ था तब तक बार-बार की आलोचना के बाद भी उन्हें पद से हटाया नहीं गया लेकिन इनसे हटा कर जब पी. चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया है तब से आतंकी हमले एकदम रुक गए हैं । देश की आंतरिक सुरक्षा के मामले में चिदंबरम को अपनी योग्यता के कारण जो सफलता मिली उससे सरकार की भी छवि सुधरी है। यहां तक कि नक्सलियों के मामले में जो गृह विभाग एकदम आंख बंद कर बैठा था, उसमें भी चिदंबरम की रुचि के कारण अब पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है। जो व्यक्ति गृहमंत्री के रुप में असफल सिद्ध हो गया, उसे पंजाब का राज्यपाल बना कर कांग्रेस सरकार क्या उपलब्ध कर लेगी?
अब्दुल कलाम को जब अटल बिहारी की सरकार ने राष्टï्रपति बनाया था तब राष्टï्रपति का पद स्वयं गौरवान्वित हुआ था। देश के जाने माने वैज्ञानिक का राष्टï्र्रपति बनना सबको भाया था, लेकिन आज जिस तरह से कांग्रेस के पिटे पिटाए नेताओं को और नौकरशाहों को राज्यपाल के पद पर प्रतिष्ठित किया जा रहा है, उससे इस पद की गरिमा में इजाफा हो रहा है, ऐसा मानने का तो कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता है। राज्यसभा का जब संविधान में निर्माण किया गया था तब सोच थी कि जो लोग चुनावी राजनीति में नहीं पडऩा चाहते लेकिन जिनकी विद्वता और सोच की राष्टï्र को जरुरत है, ऐसे लोगों को राज्यसभा में लाया जाएगा । हर क्षेत्र के विख्यात, निष्णात लोगों की यह सभा होगी और इनके विचारों, मार्गदर्शन से देश को नई दिशा मिलेगी। संविधान निर्माताओं ने जो कल्पना की थी, उसके विपरीत राज्यसभा चुनावी राजनीति में पिटे हुए लोगों का विश्राम स्थल बन गयी। और तो और सत्ता प्राप्त करने का साधन बन गयी। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक लोकसभा का चुनाव लडऩे से कतराते हैं। ठीक है। वे अर्थशास्त्री है। उन्हें राज्यसभा में होना चाहिए लेकिन देश की सर्वोच्च शक्तिशाली कुर्सी पर बैठने के लिए उन्हें जनता से भी नहीं घबराना चाहिए बल्कि चुनाव लड़कर जीत कर आना चाहिए।
राज्यपाल केंद्रीय सरकार द्वारा मनोनीत व्यक्ति होता है लेकिन राज्य की सरकार उसी के नाम से चलती है। जब राज्यपाल विधानसभा में अपना संबोधन देता है तब वह कहता है कि मेरी सरकार ने फलां-फलां किया और फलां करने वाली है। जनता के द्वारा जनता के लिए जनता के द्वारा चुनी गई सरकार जनता की सरकार न होकर राज्यपाल की सरकार हो जाती है। राज्यपाल किसी की भी सरकार नहीं बनवा सकता। सरकार उसी की बनती है जिसके पास विधानसभा में बहुमत होता है और यह बहुमत जनता देती है या फिर जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि बनाते हैं। जिसके पास बहुमत है, उसे शपथ ग्रहण कराना राज्यपाल की बाध्यता है। उसकी मनमर्जी नहीं है। सरकार के कामकाज से यदि राज्यपाल संतुष्ट न हो तो वह अपनी रिपोर्र्ट केंद्र सरकार को भेज सकता है। केंद्र सरकार भी जब  तक संविधान के प्रावधानोंं का उल्लंघन न हो, कुछ नहीं कर सकती। जहां तक सरकार के पास बहुमत है या नहीं, यह भी विधानसभा में ही तय होता है। राज्य शासन के कार्यों पर सीधे-सीधे हस्तक्षेप का भी अधिकार राज्यपाल को नहीं है। वह सिर्फ जानकारियां मांग सकता है। कुलाधिपति होने के कारण वह विश्वविद्यालयों के काम में हस्तक्षेप कर सकता है।
कई बार मांग उठी है कि राज्यपाल का पद समाप्त कर दिया जाए लेकिन अभी तक कोई भी सरकार इस ढांचे को गिराने के लिए तैयार नहीं हुई है। यह तो जब से न्यायालय के निर्देश पर राज्य सरकार के पक्ष में बहुमत है या नहीं, यह मालूम करने के लिए राज्यपाल के विवेकाधिाकर के बदले विधानसभा को उचित स्थान माना गया है तब से ही राज्य सरकारें सुरक्षित हुई है। नहीं तो पहले राज्यपाल की सिफारिश पर ही राज्य सरकारे भंग कर दी जाती थी। बिहार विधानसभा भंग करने के मामले में ही राज्यपाल की सिफारिश के विरुद्ध न्यायालय ने फैसला दिया था। राज्यपाल को महामहिम कहकर संबोधित करना भी प्रजातांत्रिक तरीका नहीं है । इस संबोधन से सामंतवाद की बू आती है। नययालयों ने भी मी लार्र्ड कहने को बदला है। सोचना चाहिए राज्यपालों को भी यह संबोधन उनके प्रति कितना उचित है।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक 17.01.2010
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