यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

हिंदुत्व ही जोड़ सकता है देश को तो मोहन भागवत जोड़ कर दिखाएं

राजधानी रायपुर के लिए कल का दिन हिन्दू समागम का था। हिदुओं का भी इतना बड़ा संगठन छत्तीसगढ़ में है, यह जानकारी बहुतों को नहीं थी। जब राजधानी की सड़कों पर पथ संचालन करते हुए पूर्ण गणवेश में स्वयं सेवक निकले तो पता चला कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कितनी गहरी पैठ है, छत्तीसगढ़ में। बिना किसी प्रचार हो हल्ले के राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ ने विशाल हिंदू जनता को अपनी तरफ आकर्षित कर रखा है तो यह किसी आश्चर्य से कम नहीं है। बाल, युवा, वृद्घ स्वयं सेवक कतारबद्घ होकर बैंड की धुन पर जब मार्च पास्ट करते हुए सड़कों से निकल रहे थे, सड़क किनारे खड़े लोग पूछ रहे थे कि ये कौन हैं? जब अपने ही राज्य के  मंत्रियों, विधायकों, कार्यकर्ताओं को लोगों ने गणवेश में कदमताल करते देखा तब ही समझ में आया कि भाजपा की असली ताकत क्या है? सामने नजर आने वाले चंद चेहरों के पीछे कितने विशाल स्वयं सेवकों की शक्ति काम करती है। मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष तक काली टोपी लगाए जब कार्यक्रम में दिखायी पड़े तब तो और स्पष्ट हो गया कि भाजपा किसकी ताकत पर इतराती है।

सरसंघचालक का अर्थ होता है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सर्वोच्च पदाधिकारी। आजकल राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहनराव भागवत हैं। उनके छत्तीसगढ़ प्रांत के  आगमन पर ही हिंन्दू समागम का कार्यक्रम आयोजित किया गया। स्पोट्र्स काम्पलेक्स का मैदान स्वयंसेवकों से अटा पड़ा था तो सामान्य नागरिक भी दर्शक दीर्घा में उपस्थित थे। अपने उद्बोधन में मोहनराव भागवत ने स्पष्ट कहा कि जहां भी हिंदू कमजोर पड़ा वहीं विभाजन ने सर उठाया। पाकिस्तान, चीन और बंगलादेश से सचेत रहने की नसीहत भी उन्होंने दी। विभिन्न पूजा पद्घतियों के बावजूद समस्त भारतवासियों को उन्होंने हिंदुत्व के  दायरे में माना। भाषा, जाति, धर्म अलग अलग होने के बावजूद सांस्कृतिक एकता की उन्होंने बात की। बातें तो वही पुरानी है जो संघ का हर सरसंघचालक कहते आया हैं। बात को बार बार दोहराना इसलिए पड़ता है कि कहीं विस्मृति की धुंध मस्तिष्क पर न छा जाए। फिर नए नए स्वयं सेवक भी तो संघ में आते हैं और ऐसा अवसर कम ही होता है जब सीधे सरसंघचालक ही को सुनने का अवसर मिले।
मोहन भागवत ने सेवा पर जोर देना प्रारंभ किया है। स्वयं सेवक को सेवा कार्य से पीछे नहीं हटना चाहिए। संघ स्वयं सेवा के विभिन्न प्रकल्प संचालित करता है और उसका संचालन भी स्वयं सेवकों के ही हाथ में है। कभी मुसलमानों का दुश्मन कहकर प्रचारित किए जाने वाले संघ के स्वागत में फूल बरसाते मुसलमानों के जत्थे को देखकर तो लगता है कि संघ के विरूद्घ जो दुष्प्रचार था, वह अब कमजोर पड़ता जा रहा है। मोहन भागवत ने भी स्पष्ट किया है कि जोर जबरदस्ती, हिंसा के माध्यम से धर्म परिवर्तन उचित नहीं है। हर व्यक्ति को अपनी आस्था के अनुसार पूजा पद्घति अपनाने की पूरी तरह से छूट है। भाजपा का जो मुस्लिम विरोधी हव्वा था वह भी 6 वर्ष से छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार ने समाप्त किया है। सांप्रदायिक एकता की तो  छत्तीसगढ़ में जैसी स्थिति है, वही संघ और भाजपा की असली छवि है।
मोहन भागवत कहते है कि राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ कोई मिलिट्री या पैरा मिलिट्री फोर्स नही है बल्कि यह स्वयं सेवक संघ है। जिस संगठन के नाम में ही सेवक हो, उसकी मूल भावना सेवा से ही जुड़ी हो सकती है। महात्मा गांधी की हत्या का कलंक भी राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ पर लगा लेकिन जल्दी ही यह बात साफ  हो गयी कि महात्मा गांधी की हत्या में संघ की कोई भूमिका नहीं थी और संघ पर लगाया प्रतिबंध हटा लिया गया। चीन युद्घ में हार के बाद तो स्वयं जवाहरन्लाल नेहरू ने गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने के लिए संघ को आमंत्रित किया था। देश के  बंटवारे के समय पाकिस्तान से आए हिंन्दुओं को व्यवस्थित करने और नैतिक समर्थन देने में संघ ने अहम भूमिका निभायी। कही भी प्राकृतिक आपदा हो तो संघ के स्वयं सेवक सेवा कार्य मे किसी से पीछे नहीं रहते बल्कि चार कदम आगे ही रहते हैं।
हिंदुओं को जाति व्यवस्था से मुक्त होने का आह्वïन भी पिछले दिनों मोहन भागवत ने किया। दरअसल हिंदुओं की एकता के आड़े जाति व्यवस्था ही आती है। कभी कर्म के आधार पर बनायी गयी जाति व्यवस्था ने वक्त के साथ कर्म के स्थान पर जन्म को पर्यायवाची बना लिया। आज तो जाति व्यवस्था का कोई वैसे भी औचित्य नहीं रह गया है। क्योंकि कर्म अब किसी जाति का विशेषाधिकार न होकर कर्म करने के  लिए सभी स्वतंत्र हैं। उत्तरप्रदेश के नगरीय निकायों मे तो ब्राह्मïण तक सफाई कर्मियों का काम कर रहे हैं। राजपाठ में भी सभी जातियों को हिस्सा मिल रहा है। जाति अब राजनैतिक एकता का आधार बन गयी है और राजनैतिक लाभ  उठाने के लिए जातियों का उपयोग खुलकर किया जा रहा है। डा. राममनोहर लोहिया ने सबसे पहले जाति तोड़ो आंदोलन चलाया था लेकिन वह किसी मकाम पर पहुंचता उसके पहले ही उनका निधन हो गया। मोहन भागवत इसका बीड़ा उठाते हैं तो उनके सफल होने के अवसर तो है ही, इसके साथ ही वे बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति भी कर सकेंगे।
दरअसल समस्याएं सामाजिक क्षेत्रों मे ही अधिक है और राजनीति ने लोगों को जोडऩे का काम तो कम किया है, तोडऩे का काम अधिक किया है। फूट डालो और राज करो की नीति ने ही हिंदू समाज को एक होने से रोका। मुसलमानों और अल्पसंख्यकों को हिंदुओं का डर समझाया गया तो हिंदुओं की विभिन्न जातियों को एक दूसरे से लड़वाने का खेल भी खूब खेला गया। धर्म और जाति से परे अब भाषा के आधार पर लोगों के जज्बातों को भड़काया जा रहा है। संघ के मुख्यालय महाराष्ट्र में ही यह खेल खुलकर खेला जा रहा है। कल तक राज ठाकरे का नाम लिया जाता था, अब तो कांग्रेस और राष्ट्रव्दी  कांग्रेस भी इस खेल में सम्मिलित हो गयी।  15 वर्ष तक महाराष्ट्र का निवासी, मराठी बोलना, पढऩा, लिखना आए तब टैक्सी चलाने का लाइसेंस। सत्ता चाहिए और वह किस तरह से लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर हासिल की जा सकती है, इससे जब किसी का  लेना देना नहीं तब राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ इस मामले में अग्रणी भूमिका निभा सकता है। जब मोहन भागवत के ही अनुसार हिंन्दुत्व में सारे भारतीय समाहित हैं तब इस तरह के  भेदभाव का विरोध करना भी तो आज की आवश्यकता है। राष्ट्रभाषा  हिन्दी कागजों से बाहर आकर व्यवहारिक रूप न ले सकी तो उसका कारण भी तो राजनीति है। राजनैतिक लाभ ने दूरदृष्टि को अंधत्व प्रदान किया और तात्कालिक लाभ सर्वोपरि हो गया। असली सेवा तो राष्ट्र की यही है कि इन मुद्दों के विरूद्घ संघर्ष किया जाए। क्या मोहन भागवत इसके  लिए तैयार हैं?


-विष्णु सिन्हा
21.1.2010
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