यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शनिवार, 31 जुलाई 2010

डॉ. रमन सिंह की घोषणा कि अब और उद्योग नहीं तारीफ के काबिल है

जब सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्री नए-नए उद्योग खोलने के लिए उद्योगपतियों को
आकर्षित करने के लिए नाना प्रकार के प्रलोभन देने में एक दूसरे से
प्रतियोगिता करते हैं तब छत्तीसगढ़ भी एक ऐसा राज्य है जिसके मुख्यमंत्री
डॉ. रमन सिंह विधानसभा में घोषणा करते हैं कि अब और नए उद्योग नहीं। सरकार किसी के भी साथ नए उद्योग के लिए एम ओ यू नहीं करेगी। न तो अब उद्योगों के लिए छत्तीसगढ़ में जमीन है और न ही
खनिज। मात्र 10 वर्ष भी पूरे नहीं हुए हैं, छत्तीसगढ़ राज्य को अस्तित्व में आए और नए
उद्योगों के लिए जगह नहीं है तो इसका तो यही मतलब होता है कि प्रदेश की
आवश्यकता के अनुरुप उद्योग छत्तीसगढ़ में लग चुके या लग रहे हैं। जब
छत्तीसगढ़ राज्य के लिए आंदोलन किया जा रहा था तब इस बात पर भी जोर था कि
पर्याप्त खनिज संसाधन होने के बावजूद क्षेत्र का विकास जैसा होना चाहिए,
नहीं हुआ। इसीलिए छत्तीसगढ़ के लोगों के हित में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य
बनाया जाए।

जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तब प्रदेश की आबादी 2 करोड़ से कुछ अधिक थी। अब
जनगणना हो रही है तो आबादी अधिक से अधिक ढाई करोड़ के आसपास पहुंची होगी।
इसका भी बड़ा कारण बाहर से रोजी रोटी की तलाश में आने वाले लोग हैं
जिन्हें छत्तीसगढ़ में रोटी रोजगार के अवसर दिखायी पड़े। उद्योगों की
बड़ी शृंखला छत्तीसगढ़ में खड़ी हुई लेकिन ईमानदारी से देखा जाए तो
कितने इन उद्योगों के मालिक छत्तीसगढ़ के हैं। इन उद्योगों में कार्यरत
कर्मचारियों और मजदूरों की बड़ी संख्या भी दूसरे प्रदेशों से आयी।
राजधानी रायपुर तक उद्योगों के प्रदूषण से परेशान है। प्रदूषण के विरुद्ध
आंदोलन तक हुए। कई गांवों से उद्योगों का स्थानीय लोगों ने विरोध किया।
एक स्थान पर तो गांववासी इतने उत्तेजित हुए कि हिंसा पर उतर आए। इसमें
कोई दो राय नहीं कि उद्योगों के लिए कृषि भूमि का उपयोग किया गया।
उद्योगों के साथ आवास के लिए भी कृषि भूमि का उपयोग किया गया।
छत्तीसगढ़ का मूल निवासी मुख्यत: कृषि पर ही अपनी जीविका चलाता रहा है।
इसलिए कृषि के प्रति उसका स्वाभाविक प्रेम है और उद्योग स्थापित होना है
तो और कृषि भूमि को खोना पड़ेगा। उद्योगपति भले ही करोड़पति, अरबपति
उद्योगों के कारण बने लेकिन जिस व्यक्ति की जमीन इन उद्योगों के काम आती
है वह तो भूमिहीन हो जाता है। उद्योग आसपास की कृषि भूमि को भी नुकसान
पहुंचाते हैं और स्वास्थ्य के प्रति घातक धूल, धुएं को भी छोड़ते हैं।
इन्हें नियंत्रित करना और लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा करना सरकार का
वैसे भी प्रथम कर्तव्य है। विकास की कीमत यदि आदमी के स्वास्थ्य से
चुकानी पड़े तो ऐसा विकास किस काम का। कितने ही लोग इन 10 वर्षों में
कंगालपति से करोड़पति बन गए लेकिन उसकी कीमत भी तो स्थानीय लोगों को
चुकानी पड़ी।

दरअसल अब छत्तीसगढ़ को नियंत्रित विकास की जरुरत है। छत्तीसगढ़ का आम
आदमी तो वैसे भी प्रारंभ से ही संतोषी जीव रहा है। शांति उसका स्वभाव रहा
है। विकास ने जमीन की कीमतों में पर्याप्त इजाफा किया। फिर भी दूसरे
प्रदेशों से छत्तीसगढ़ में कृषि भूमि की कीमत बहुत कम है। इसका भी फायदा
उठाने से लोग नहीं चूके और दूसरे प्रांतों से आकर कृषि भूमि पर भी लोग
काबिज होने लगे। छत्तीसगढ़ से छत्तीसगढवासियों का पलायन आज भी जारी है।
जो भूमि दूसरे प्रदेश के लोगों को जीवन यापन का अवसर देती है, वह अपने ही
माटी पुत्रों को पलायन के लिए बाध्य करती है तो यह अच्छी स्थिति नहीं है।
बड़े बड़े निर्माण कार्य प्रदेश के बाहर के ठेकेदारों ने लिया तो वे अपने
साथ अपने प्रदेश से तकनीकी जानकार ही नहीं मजदूर भी लेकर आए।
यह प्रश्र आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों अवश्य छत्तीसगढ़ी जनता के
मन में खड़ा होगा कि छत्तीसगढ़ राज्य बनने का वास्तविक लाभ किसे हुआ?
क्या जिस उद्देश्य से छत्तीसगढ़ पृथक राज्य की मांग उठी थी, वह उद्देश्य
पूरा हुआ? 10 वर्षों में धन भी छत्तीसगढ़ में खूब बरसा लेकिन धन गया
किसकी तिजौरी में? छत्तीसगढ़ के पानी, खनिज, जमीन सभी का लाभ कौन उठा रहा
है? क्या गरीबों को 2 रु. और 1 रु. किलो चांवल दे देने से ही कर्तव्य की
इतिश्री हो गयी? 25 हजार करोड़ के बजट में से 1 हजार करोड़ रुपए इन
गरीबों के बीच बंटा भी तो कोई अहसान तो नहीं किया गया। 55 सड़कें बिना
डब्ल्यू.बी.एम. के ही बनायी तो धन किसकी जेब में गया। ठेकेदार को 3 करोड़
के बदले 8 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया तो धन जनता के खजाने से ही दिया
गया। उद्योगपति अपने कोटे से ज्यादा पानी का उपयोग कर रहे हैं तो पानी
किसके हिस्से का मारा जा रहा है? प्रश्रों की कोई कमी नहीं हैं। दरअसल
व्यवस्था और धन लोभियों की अतृप्त इच्छा का ही यह सब खेल है।
जहां तक व्यवस्था के दोष का संबंध है तो यह डॉ. रमन सिंह की सरकार की देन
नहीं हैं। देन तो 63 वर्ष में जो ढांचा व्यवस्था का खड़ा हुआ, उसकी देन
हैं। डॉ. रमन सिंह तो उसे सुधारने का अपनी तरफ से पूरा प्रयास कर रहे
हैं। प्रशासन, शासन की तैयारी भी की जा रही है कि कागज विहीन व्यवस्था
हो। जिससे मुख्यमंत्री की हर जानकारी तक सीधे पहुंच हो और अकर्मण्यता और
लापरवाही के लिए बहानों की जरुरत न हो। इसलिए उद्योगों के नए दरवाजे बंद
किए जा रहे हैं। जिससे जो हैं, वे पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में हो।
आज जो स्थिति है, यही सही ढंग से फले फूलेगा तो छत्तीसगढ़ निश्चित रुप से
विकास और संपन्नता के नए अध्याय लिखेगा।

अनियमितताओं, कर चोरी सभी पर तो नियंत्रण की आवश्यकता है। छत्तीसगढ़ लूट
मार की ऐसी जगह के रुप में नहीं प्रचारित होना चाहिए, यहां जो भी करो कोई
देखने वाला नहीं। कानून का शासन हो और कानून का पालन करने वालों को सरकार
का पूरा संरक्षण मिले। किसी भी तरह के भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं। कल ही
एक मंत्री की कार का भी यातायात पुलिस ने चालान किया। शुरुआत बड़े लोगों
से ही होना चाहिए। जब बड़े नियम कायदे का पालन करेंगे तो छोटे खुद ही समझ
जाएंगे कि कानून का उल्लंघन किया तो खैर नहीं। जब मंत्री की कार का चालान
कर पांच सौ रुपए जुर्माना किया जाता है तो इससे सरकार की छवि जनता के मन
में अच्छी बनती है। कोई भी सरकार हो, उसका भविष्य इसी बात पर निर्भर करता
है कि उसकी छवि जनता के मन में किस प्रकार की है।

निस्संदेह डॉ. रमन सिंह की छवि अभी तक तो जनता के मन में अच्छी है।
केंद्र सरकार और योजना आयोग कहता है कि किसानों को मुफ्त बिजली देने का
काम राज्य सरकार न करे। क्योंकि इससे अधिक बिजली खर्च होती है और धन का
अपव्यय होता है। दरअसल केंद्र सरकार लोक लुभावन योजनाओं के ही पक्ष में
नहीं है लेकिन डॉ. रमन सिंह ने लोक लुभावन योजनाओं की प्रदेश में
शृंखला ही खड़ी कर रखी है। यह कहना कि अब हमें और उद्योगों के लिए
एम.ओ.यू. की जरुरत नहीं है, बड़ी बात है। मुख्यमंत्री निश्चय ही इसके लिए
तारीफ के हकदार हैं।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 30.07.2010
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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

स्वस्थ राजनैतिक वातावरण बनाने की कला के भी मर्मज्ञ हैं डॉ. रमन सिंह

कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में महाभारत युद्ध का दृश्य देखा गया।
जिस तरह से दिन भर महाभारत के युद्ध में कौरव और पांडव की सेनाएं लड़ती
थी और सूर्य के अस्त होते ही युद्द रुक जाता था। तब दोनों सेनाओं में कोई
बैर भाव नहीं रह जाता था और सभी आपस में मिलकर खाते पीते गुठियाते थे।
उसी तरह का दृश्य सरकार और विपक्ष में दिखायी दिया। विधानसभा में सरकार
के विरुद्ध खड़ा विपक्ष सरकार को कठघरे में खड़ा करने में कोई कोताही
नहीं बरत रहा था लेकिन जब सरकार ने विपक्ष की बात नहीं मानी तो विपक्ष ने
विधानसभा से बहिर्गमन किया और विधानसभा स्थगित हो गयी। तब मुख्यमंत्री के
नेतृत्व में सरकार और विपक्ष दोनों ने नई बनती राजधानी की सैर पर एक साथ
निकल पड़े। कोई देखकर नहीं कह सकता था कि ये वे ही लोग हैं जो विधानसभा
में दुश्मनों की तरह झगड़ रहे थे।

सभी ने नई राजधानी में वृक्षारोपण किया। स्टेडियम में लंच लिया और भव्य
आकार लेते राजधानी के स्वरुप का दर्शन किया। एक बात तो साफ है कि नई नई
बनती राजधानी का श्रेय डॉ. रमन सिंह को हैं लेकिन जहां तक उपयोग का
प्रश्र है तो उपयोग तो सभी करेंगे। आज डॉ. रमन सिंह की सरकार है और जनता
ने चाहा तो कभी न कभी कांग्रेस की भी सरकार बन सकती है। तब भव्य राजधानी
की सुविधाओं का भरपूर लाभ कांग्रेसियों को भी मिलेगा। उसी तरह से जिस तरह
से कभी भोपाल राजधानी का निर्माण कांग्रेस की सरकारों ने किया था लेकिन
आज उस पर भाजपा काबिज है और शिवराज सिंह वल्लभ आवास की पांचवीं मंजिल पर
विराजमान हैं तो मुख्यमंत्री के आलिशान भवन का सुख भोग रहे हैं। खासकर उन
लोगों को तो भोपाल की याद आती ही है जो कभी मध्यप्रदेश में मंत्री विधायक
हुआ करते थे। कहां नए भोपाल की शानो-शौकत और कहां पुराना रायपुर शहर जहां
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद पुराने भवनों, मकानों में गुजारा करना पड़ता
है। न तो भोपाल की तरह रायपुर में चौड़ी चौड़ी साफ सुथरी सड़कें हैं और न
ही खुला-खुला स्थान।

कुछ मार्गों को गौरवपथ के रुप में चौड़ा करने और सजाने संवारने का काम
डॉ. रमन सिंह की सरकार ने किया है लेकिन फिर भी भोपाल वाली बात तो नहीं
है। नया रायपुर पूरी तरह व्यवस्थित बनाया जा रहा है और सरकार की कल्पना
तो यही है कि देश के समस्त राज्यों की राजधानी से सुंदर और व्यवस्थित नया
रायपुर बने। नया रायपुर का स्वप्र तो प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने भी
देखा था और बहुत धूमधाम से सोनिया गांधी के कर कमलों से शिलान्यास भी
करवाया था लेकिन उनका दुर्भाग्य की जनता ने उन्हें मुख्यमंत्री बनने का
दोबारा अवसर नहीं दिया। यह सौभाग्य डॉ. रमन सिंह के भाग्य में था।
छत्तीसगढ़ को बने 10 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं और नया रायपुर रुपाकार हो
रहा है तो स्वाभाविक रुप से एक खुशी का भाव तो डॉ. रमन सिंह के मन में
होगा ही। भाग्य के धनी तो डॉ. रमन सिंह हैं, ही लेकिन धैर्यपूर्वक अपनी
योग्यता को कार्य रुप में परिणित करने में भी उनको महारत हासिल है।
दिल्ली में राजग की सरकार थी तो अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री थे।
उन्होंने तो केंद्र सरकार के समक्ष प्रदर्शन भी किया था। डॉ. रमन सिंह
मुख्यमंत्री हैं तो दिल्ली में कांग्रेस की सरकार है। ऐसे में प्रदेश के
विकास के लिए पर्याप्त धन की व्यवस्था आसान काम नहीं है। फिर भी
छत्तीसगढ़ का वार्षिक बजट हर वर्ष बढ़ रहा है और अब तो ढाई हजार करोड़ से
प्रारंभ हुआ बजट 25 हजार करोड़ रुपए से भी अधिक का हो गया है। छत्तीसगढ़
राज्य जब बना था तब विद्युत की खपत 12 सौ मेगावाट छत्तीसगढ़ में थी जो आज
बढ़ कर 26 सौ मेगावाट से भी अधिक हो गयी है। इससे विकास का अर्थ समझा जा
सकता है। दोगुने से भी ज्यादा विद्युत खपत का तो स्पष्ट अर्थ होता है कि
राज्य विकास की गति तीव्र है और सबसे बड़ी बात तो यही है कि केंद्र सरकार
के द्वारा निरंतर बिजली कटौती के बावजूद छत्तीसगढ़ सरप्लस विद्युत राज्य
है। कितनी ही लोक लुभावन योजना सरकार चला रही है और उसमें भी 2 रु. एवं 1
रु. किलो चांवल 32 लाख से अधिक परिवारों को प्रतिमाह 35 किलो दिया जा रहा
है। जबकि 3 रु. किलो में 35 किलो अनाज देने के वायदे के नाम पर केंद्र की
सत्ता में पुन: पदारुढ़ हुई सरकार अभी तक अपने वायदें को पूरा करने में
सक्षम नहीं हुई।

विपक्ष भले ही अपना विपक्ष का धर्म निभाने के लिए सरकार की आलोचना करें
लेकिन डॉ. रमन की सज्जनता के तो सभी कायल हैं। नया रायपुर के दर्शन
के लिए भले ही अजीत जोगी नहीं गए लेकिन उनकी विधायक पत्नी रेणु जोगी तो
गयी। विपक्ष के विधायकों को विधानसभा अध्यक्ष के द्वारा आमंत्रित कर
सस्ती राजनीति से परहेज भी किया डॉ. रमन सिंह। छत्तीसगढ़ में वैसे भी
राजनैतिक माहौल स्वस्थ है। मतभिन्नता अलग बात है लेकिन एक दूसरे के प्रति
आदर भाव प्रगट करने में पक्ष और विपक्ष दोनों का कोई सानी नहीं हैं। किसी
भी तरह का व्यक्तिगत दुराव नहीं है। यही कारण है कि पक्ष और विपक्ष
राजनीति से परे कुंभ के समय गंगा स्नान करने भी चला जाता है। स्वाभाविक
है कि कुछ चुगलखोरों को यह सब अच्छा नहीं लगता। वे कांग्रेस आलाकमान से
शिकायत भी करते हैं। नए रायपुर भ्रमण की भी शिकायत करें तो कोई आश्चर्य
की बात नहीं। क्योंकि इनकी समझ में राजनीति में आगे बढऩे का यही तरीका
है।

विरोध का एक मर्यादित तरीका होता है। सरकार का ध्यान आकर्षित करना और
जनता को सरकार के गलत काम से परिचित कराना। यह दायित्व कांग्रेस के
विधायक अपनी तरफ से विधानसभा में निभाने का पूरा प्रयत्न करते हैं। वे यह
भी तो अच्छी तरह से जानते हैं कि जब तक सरकार के पास जनादेश बहुमत का है
तब तक उसे हटाया नहीं जा सकता। केंद्र सरकार भी संवैधानिक प्रावधानों से
बंधी हुई है। वह किसी भी तरह का मनमाना फैसला नहीं ले सकती। कितनी बार तो
अजीत जोगी राष्टपति शासन की मांग उठा चुके लेकिन केंद्र सरकार ने उनकी
नहीं सुनी। वह सुन भी नहीं सकती। विपक्ष अपनी दृष्टि से जो देखता है, वही
सही है, ऐसा भी तो नहीं है। नक्सली समस्या को लेकर डॉ. रमन सिंह पर आरोप
लगाना कि उनकी नक्सलियों से सांठगांठ है, सच होती तो यह सच क्या केंद्र
सरकार से छुपा होता? यह तो डॉ. रमन सिंह का बड़प्पन है कि वे अपने पर
लगाए गए आरोपों से किसी के प्रति व्यक्तिगत बैर भाव नहीं रखते और यही
सरकार के मुखिया में होना भी चाहिए। क्षुद्र मनोवृत्ति का व्यक्ति बड़े
पद पर बैठता है तो पद की गरिमा गिरती है लेकिन विस्तृत और खुले मन का
व्यक्ति पदासीन होता है तो गरिमा बढ़ती है। डॉ. रमन सिंह इसके साक्षात
उदाहरण हैं।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 29.07.2010
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बुधवार, 28 जुलाई 2010

छत्तीसगढ़ को नक्सल समस्या से मुक्त कराना कोई ईमानदारी से चाहता हैं तो वे डॉ. रमन सिंह ही हैं

डॉ. रमन सिंह ने स्पष्ट कह दिया है कि वे इस्तीफा देने वाले नहीं हैं।
पिछले 7 वर्ष में कांग्रेस ने कई बार इस्तीफा मांगा। कांग्रेस का तो एक
सूत्रीय कार्यक्रम है कि डॉ. रमन सिंह इस्तीफा दें। खास कर पूर्व
मुख्यमंत्री अजीत जोगी का। अजीत जोगी आरोप लगाते हैं कि डॉ. रमन सिंह
नहीं चाहते कि नक्सल समस्या समाप्त हो। उनका आरोप है कि नक्सलियों के
सहयोग से ही डॉ. रमन सिंह ने भाजपा को बस्तर में जितवाया। यही आरोप
मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का भी है। इससे
हास्यास्पद कोई आरोप नहीं हो सकता। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की जरा सी
भी सहानुभूति नक्सलियों से होती तो वे जंगल वार प्रशिक्षण स्कूल ही नहीं
खोलते। केंद्र सरकार से बार-बार और सशस्त्र बल और संसाधनों की मांग ही
नहीं करते। आंध्र के समान ग्रेहाऊंड सशस्त्र बल तैयार करने की कोशिश ही
नहीं करते। फिर सबसे बड़ी बात केंद्रीय गृह मंत्रालय को तो यह जानकारी
सबसे पहले होती कि डॉ. रमन सिंह की सांठगांठ नक्सलियों के साथ है।

केंद्र में कांग्रेस की सरकार और राज्य में भाजपा की सरकार। इससे बढिय़ा
अवसर क्या होता डॉ. रमन सिंह की सरकार को अपदस्थ करने का । दरअसल नक्सल
समस्या के विषय में केंद्र सरकार का दरवाजा बार-बार खटखटाकर डॉ. रमन सिंह
ने ही नक्सल समस्या की गंभीरता को समझने के लिए केंद्र सरकार को बाध्य
किया। पहली बार डॉ. रमन सिंह ने ही नक्सल समस्या को समाप्त करने का बीड़ा
उठाया। किसी कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने ऐसा किया हो मध्यप्रदेश या
छत्तीसगढ़ में ऐसा कम से कम जनता को तो नहीं मालूम। नक्सलियों को अपने
बिलों से निकलने के लिए डॉ. रमन सिंह ने ही मजबूर किया। तब असलियत सामने
आयी कि किस तरह से बस्तर को मुख्यालय बनाकर नक्सली कैसी तैयारी कर रहे
हैं? मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से इस्तीफा मांगना तो एक तरह से नक्सलियों
का ही मनोबल बढ़ाने का काम है।

नक्सलियों को दिखायी पड़ता है कि उनके नंबर एक दुश्मन डॉ. रमन सिंह से
इस्तीफा मांग कर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करने वाले सरकार
को कमजोर साबित कर एक तरह से उनका ही काम कर रहे हैं। सदन में सरकार के
विरुद्ध नारेबाजी, पोस्टर लहरा कर प्रतिपक्ष जनता और नक्सलियों को क्या
संदेश दे रहा है? नक्सली सशस्त्र बल के जवानों और निर्दोष आदिवासियों को
मार कर सरकार का मनोबल कमजोर करना चाहते हैं तो विपक्ष विधानसभा में भी
इसी तरह की कोशिश कर रहा है। कांग्रेस के नेता आलाकमान से शिकायत करते
हैं कि केंद्र के मंत्री राज्य में आकर राज्य सरकार की तारीफ करते हैं तो
वे कांग्रेसियों का मनोबल राज्य में कमजोर करते हैं। भाजपा विपक्ष की
पार्टी है, केंद्र में लेकिन गृह मंत्री पी.चिदंबरम के इस्तीफे की जब
स्वयं चिदंबरम ने पेशकश की थी तब भाजपा और रमन सिंह ने ही कहा था कि
उन्हें इस्तीफा नहीं देना चाहिए।

चिदंबरम यदि इस्तीफा देते और उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया जाता तो यह एक
तरह से नक्सलियों की ही बड़ी जीत माना जाता। डॉ. रमन सिंह भी आज इस्तीफा
दे देते हैं तो यह नक्सलियों की बड़ी जीत ही माना जाएगा। डॉ. रमन सिंह
नक्सलियों को यह खुशी तो किसी कीमत पर नहीं दे सकते। बीच लड़ाई से भाग
खड़ा होना उनकी फितरत में नहीं हैं। इसीलिए उन्होंने विधानसभा में
स्पष्ट कह दिया कि वे किसी भी हाल में इस्तीफा नहीं देंगे। अजीत जोगी तो
कह रहे थे कि डॉ. रमन सिंह राज्यपाल को न सही अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष
नीतिन गडकरी को ही इस्तीफा दे दें। डॉ. रमन सिंह अजीत जोगी के कहने से
किसी को भी इस्तीफा देने का नाटक क्यों करें? विपक्ष का अधिकार है,
इस्तीफा मांगना लेकिन कितने हैं जो विपक्ष की मांग पर इस्तीफा दे देते
हैं।

अमेरिका के खुफिया रिकार्ड से ही स्पष्ट हो गया है कि पाकिस्तान
अफगानिस्तान में आतंकवादियों की मदद करता है। काबुल में भारतीय दूतावास
पर जो हमला हुआ था, वह आई एस आई ने ही करवाया और सारी जानकारी अमेरिका को
है। फिर भी अमेरिका हर तरह से मदद पाकिस्तान की कर रहा है। अमेरिका में
पकड़े गए आतंकवादी हेडली ने ही स्पष्ट कर दिया है कि मुंबई हमले में आई
एस आई का हाथ था। भारत में सीमा से आने वाला आतंकवाद पाकिस्तान की ही देन
है। फिर भी अमेरिका से दोस्ती करने और निभाने के लिए हमारी केंद्र सरकार
सब कुछ करने के लिए तैयार रहती है। कांग्रेसियों में दम है तो मांगें
केंद्र सरकार से इस्तीफा। संसद में महंगाई को लेकर भाजपा ने, सरकार को
कठघरे में खड़ा कर रखा है। केंद्र सरकार तो बहस कराने के लिए भी तैयार
नहीं हैं जबकि छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह सरकार ने नक्सल समस्या पर 7
घंटे तक बहस करा ली। डॉ. रमन सिंह किसी बहस से पीछे नहीं हट रहे हैं तो
कांग्रेसी कहें मनमोहन सिंह से कि वे भी वोटिंग वाला बहस कराएं। जिससे
देश को पता तो चले कि महंगाई के पक्ष में कौन है और विरोध में कौन खड़ा
है?

अक्टूबर में दिल्ली में राष्टमंडल खेल होने जा रहे हैं। कांग्रेस के
पूर्व मंत्री और राज्यसभा सदस्य मणिशंकर अय्यर कह रहे हैं कि
राष्टमंडल खेलों का बेड़ा गर्क हो तो इसी में देश का लाभ है। कहा जा
रहा है कि इन खेलों पर सरकार चालीस हजार करोड़ रुपए खर्च कर रही है।
प्रारंभ और समापन पर ही तीन हजार करोड़ की आतिशबाजी की जाएगी। आखिर यह धन
आएगा, कहां से? पेट्रोलियम पदार्थों का घाटा सरकार उठाने में सक्षम नहीं
हैं और रोना रो रही है कि अभी भी 56 हजार करोड़ का घाटा है। जब जनता के
धन से जनता को ही राहत देने में सरकार सक्षम नहीं है तब वह चालीस हजार
करोड़ रुपए क्यों राष्टमंडल खेलों पर खर्च कर रही हैं? मणिशंकर अय्यर
की बात कड़वी लग सकती है लेकिन है तो सही।

सरकार के पास रखने के लिए अनाज गोदाम नहीं है और हजारों टन अनाज सड़ रहा
है। सुप्रीम कोर्ट ने ही सरकार से पूछा है कि अनाज को सड़ाने के बदलने
जनता को बांट क्यों नहीं दिया जाता? इस संबंध में जब कृषि मंत्री शरद
पवार से पूछा जाता है तो वे कहते हैं कि वे सिर्फ संसद के प्रति जवाबदेह
हैं। यह तो हाल है सरकार का और माक्र्सवादी कहते हैं कि तृणमूल कांग्रेस
की नक्सलियों से सांठगांठ है। तृणमूल कांग्रेस तो केंद्र सरकार का हिस्सा
है। कितने मणिशंकर अय्यर हैं कांग्रेस में जो अपनी ही सरकार को कठघरे में
खड़ा करें। छत्तीसगढ़ की सत्ता पर काबिज होने का ख्वाब देखने वाले डॉ.
रमन सिंह से भले ही इस्तीफा मांगें लेकिन असलियत यही है कि नक्सली समस्या
से छत्तीसगढ़ को ईमानदारी से कोई मुक्त कराना चाहता है तो वे डॉ. रमन
सिंह ही हैं।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 28.07.2010
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मंगलवार, 27 जुलाई 2010

मुकेश गुप्ता और दीपांशु काबरा ने जो भी काम हाथ में लिया उसमें सफल होकर ही दिखाया

आगे पाठ पीछे सपाट। यातायात पुलिस और नगर निगम ने मिलकर शहर की यातायात
व्यवस्था को सुचारु बनाने के लिए पिछले कई दिनों से मुहिम चलायी। सड़क के
किनारे से खोमचे, ठेले वालों को हटाया गया लेकिन क्या वे हट गए? अभी भी
नगर निगम की नाक के नीचे खोमचे, ठेले लगे देखे जा सकते हैं। पुलिस और नगर
निगम का स्टाफ सड़कों पर निकलता है तो ये हट जाते हैं लेकिन पुलिस के
हटते ही ये फिर अपने पुराने स्थानों पर जम जाते हैं। मालवीय रोड पर ही
कारों, वाहनों का खड़ा करना मना है। जवाहर बाजार में पार्किंग की सुविधा
है लेकिन जब तक यातायात के सिपाही निरंतर इस मार्ग की देखरेख करते रहे तब
तक ही इनका खड़ा होना कठिन था लेकिन जब से इन सिपाहियों के बदले पुलिस
सहयोगी खड़े किए गए हैं तब से बेरोक टोक गाडिय़ां खड़ी हो रही है। लोगों
ने तो तय ही कर रखा है कि हम नहीं सुधरेंगे।

तब पुलिस का 1 माह का कार्यक्रम कोई काम आने वाला नहीं है। निरंतरता
चाहिए। वर्षों की आदत छूटने वाली नहीं है। मालवीय रोड हो या फाफाडीह का
बाजार पुलिस प्रशासन ढीला पड़ा और हालात वैसे ही हो जाते हैं जैसे पुराने
थे। लोग कहने से भी बाज नहीं आते कि नए अफसर आए हैं तो कुछ दिन तक अपनी
उपस्थिति दर्ज कराने के लिए पुलिस की सक्रियता दिखायी देती है। जनता की
ही आदत वर्षों की नहीं है बल्कि पुलिस वालों की भी आदत पुरानी है। जनता
को सही रास्ते पर लाने के पहले पुलिस को सही रास्ते पर लाना जरुरी हैं।
जब तक पुलिस मेन और उनके अधिकारी यह बात नहीं समझेंगे तब तक यह व्यवस्था
भले ही चार दिन की चांदनी लगे लेकिन फिर अंधेरी रात की तरह ही है।
सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। सबसे ज्यादा जरुरी तो यही है कि उच्च
अधिकारी अपने अधीन काम करने वाले कर्मचारियों को सबसे पहले कर्तव्य
परायणता का पाठ पढ़ाएं और देखें कि वे आगे पाठ पीछे सपाट की तरह तो अपने
कर्तव्य का निर्वाह नहीं कर रहे हैं।

मुकेश गुप्ता जैसे आई जी और दीपांशु काबरा जैसा पुलिस कप्तान होने पर
उम्मीद की जा रही है कि पुरानी व्यवस्था नहीं लौटेगी लेकिन पुलिस की
निष्क्रियता फिर दिखायी तो दे रही है। यह सोचना कि अब व्यवस्था रास्ते पर
आ गयी है, खामख्याली साबित हो रही है। जनता तमाशा देख रही है। कभी सड़कें
एकदम साफ होती है जब पुलिस सक्रिय होती है लेकिन पुलिस निष्क्रिय हो तो
फिर स्थिति पुराने ढर्रे पर आ जाती है। सबसे ज्यादा जरुरी है कि शहर भर
की व्यवस्था एक साथ सुधारने की कोशिश के बदले निश्चित स्थानों की
व्यवस्था मुकम्मल की जाए। किसी भी स्थिति में जो व्यवस्था एक बार कायम हो
जाए, उसे निश्चिंतता प्रदान की जाए। हाईकोर्ट ने खुले आम मांस मटन की
दुकान चलाने पर रोक लगाया था लेकिन आज भी शहर में ऐसा नजारा देखने में
आता है कि सड़क किनारे ही मांस मटन की दुकानें अब तो ठेलों पर लगने लगी
हैं।

फाफाडीह बाजार से इन्हें हटाया नहीं जा सका। जैसे ही पुलिस आती है, ठेले
वाले, मुर्गी वाले गधे के सिर से सिंग की तरह गायब हो जाते हैं लेकिन फिर
पुलिस के जाते ही दुकानें सज जाती है। ऐसा लगता ही नहीं कि पुलिस का कोई
डर भय इन्हें है। साधारण सी बात है कि जो बात राह से गुजरते हर आदमी को
दिखायी देती है, वह पुलिस वालों को क्यों नहीं दिखायी देती? साफ लगता है
कि पुलिस के उच्चाधिकारी जो चाहते हैं, वह काम कनिष्ठ अधिकारियों और
कर्मचारियों की पसंद का काम नहीं है या फिर इन दुकानों से उन्हें अवश्य
कोई न कोई लाभ प्राप्त होता है। दुकानें ही नहीं लगेगी तो लाभ भी नहीं
होगा। शहर के नागरिकों को सड़कों पर चलने में क्या कष्ट होता है और किस
तरह की दुर्गंधों का सामना इन मांस मटन की दुकानों के कारण झेलना पड़ता
है, इससे आम पुलिस वालों का कोई लेना देना नहीं है।

अब तो इन दुकानदारों को नेताओं का भी सहारा मिल रहा है। कल ही खबर है कि
इन ठेले वालों ने प्रदर्शन किया। सरकारें कितनी बार सड़क किनारें लगने
वाले ठेले वालों का व्यवस्थापन कर चुकी लेकिन ये फिर से व्यवस्थित जगह
का मूल्य प्राप्त कर वापस अपनी जगह आ जाते हैं। गरीबों को भी रोटी रोजगार
का अवसर मिलना चाहिए। इस बात में दो राय नहीं हो सकती लेकिन सड़कों को
बाधित कर देना। आम नागरिकों को तकलीफ देना है। इसकी अनुमति किसी भी
कीमत पर नहीं होना चाहिए। पुलिस और नगर निगम ने जब इसका जिम्मा उठाया है
तो उन्हें अपनी जिम्मेदारी पर खरा साबित होकर दिखाना चाहिए। राजधानी जैसे
शहर की ही यातायात व्यवस्था को यदि शासन, प्रशासन, पुलिस सुव्यवस्थित
नहीं कर सकती, जिससे साबका हर किसी का पड़ता है तो फिर वह जनता की नजरों
में चढ़ कैसे सकती है?

मुकेश गुप्ता और दीपांशु काबरा के साथ अजातशत्रु के आने के बाद पुलिस ने
पुराने मामलों में अपराधियों को पकडऩे में सफलता प्राप्त की है। पंडरी
में हवाला व्यापारी की हत्या का मामला भी पुलिस ने सुलझाया है। यह मामला
तो ऐसा था कि लगता था, कभी अपराधी पकड़ में नहीं आएंगे लेकिन पुलिस ने
अपराधियों को पकड़ा, यह बड़ी सफलता है। इसी प्रकार बैंक डकैती के
अपराधियों का भी पुलिस ने पता लगा लिया है। ये ऐसी उपलब्धियां हैं जो
पुलिस के प्रति जनता में विश्वास बढ़ाती है। यातायात व्यवस्था सुगम करने
में पुलिस की सफलता भी बड़ी सफलता ही मानी जाएगी। क्योंकि चंद लोग भले ही
विरोध करें लेकिन आम आदमी को तो सुविधाओं का लाभ मिल रहा है। यातायात
व्यवस्था सुगम होगी तो अपराधियों के लिए भी अवसर कम होंगे। सबसे बड़ी बात
तो भीड़ में गायब होने की सुविधा नहीं मिलेगी।

जब शासन ने मुकेश गुप्ता और दीपांशु काबरा की पदस्थापना की है तो बहुत
सोच समझ कर ही किया है। इनकी योग्यता पर किसी तरह के संदेह का कोई कारण
नहीं है। सिर्फ जरुरत है तो पुलिस प्रशासन को अति सक्रिय करने की। इस
मामले में ये अफसर अपनी जिद पर आ जाएं तो असंभव कुछ नहीं है। मुकेश गुप्ता तो
रायपुर के पुलिस कप्तान भी रह चुके हैं और लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि
अपराधी उनके नाम से भयभीत हो जाते हैं। इनकी सफलता रायपुर के लिए वरदान
सिद्ध होगी।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 27.07.2010
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सोमवार, 26 जुलाई 2010

आकाश से तो अमृत बरस रहा है लेकिन सभी के लिए अमृत तो नहीं है

छत्तीसगढ़ में सर्वत्र पानी पानी हो गया। आकाश से ऐसा पानी गिरा कि उसे
मुसीबतों की बारिश भी कहा गया। यह वही पानी है जो आवश्यकता से अधिक गिरे
तो भी इंसान परेशान हो जाता है और न गिरे तो व्याकुल हो जाता है। अभी कुछ
दिन पूर्व ही चिलचिलाती गर्मी से परेशान इंसान यही विनती कर रहा था कि
जल्द से जल्द बरसात हो। आकाश पर बादल तो मंडराते थे लेकिन आशा के अनुरुप
बरसते नहीं थे। बादल छंटे और आसमान में चमकता सूर्य दिखायी पड़ा तो गर्मी
फिर बेचैन कर देती थी। किसान बरसात का इंतजार कर रहे थे। आषाढ़ जाते-जाते
बरसात की सौगात किसानों को दे गया तो शहरों में निचली बस्ती में रहने
वालों को परेशान कर गया। अभी भी मौसम विभाग बरसात की भविष्यवाणियां कर
रहा है। जिनकी जिम्मेदारी है इस बरसात में लोगों की सुख सुविधा का ध्यान
रखने की। वे दोषारोपण कर रहे हैं, एक दूसरे पर। इस दोषारोपण से लोगों को
समस्या से निजात तो मिलना नहीं है।

छत्तीसगढ़ में सड़क परिवहन पर बरसात ने अपना पूरा असर दिखाया है और कई
मुख्य मार्ग तक आवागमन के लिए बंद हो गए हैं। यह अल्पकालिक असुविधा है और
इस असुविधा को बर्दाश्त किया जा सकता है लेकिन बरसात न होती तो जो
असुविधा होती, उसकी कल्पना ही घबराने वाली है। पीने के पानी तक के लिए तो
प्रदेश की शहरी आबादी बांधों पर निर्भर करती है। बांधों में पानी हल्की
बरसात के कारण जिस तरह से भर रहा था, वह भविष्य की दृष्टि से समुचित
नहीं था लेकिन पिछले दो दिनों की बरसात से निश्चय ही बांधों में पानी का
भराव तीव्र गति से बढ़ा है। यह भविष्य में आने वाली गर्मी के लिए कितना
उपयोगी है, यह गर्मी के दिनों में ही समझ में आता है। सूख गए बोरिंगों
में भी पानी आ गया है। भू-जल स्तर को भी बरसात ने बढ़ाया है लेकिन यही जल
स्तर गर्मी में इतने नीचे चला जाता है कि फिर बांधों के पानी पर पूरी तरह
से निर्भरता ही शेष रह जाती है। अब तो गांवों के तालाबों को भी बांध के
पानी से भरने की जरुरत महसूस होने लगी है।

आकाश से गिरती पानी की बूंदें कितनी भी आज बेरहम लगें लेकिन इनके बिना हर
तरह के जीवन पर प्रश्र चिन्ह ही लग जाएगा। जीवन की पहली शर्त ही पानी है।
चिकित्सा विज्ञान कहता है कि भोजन के बिना तो आदमी 30 दिनों तक जिंदा रह
सकता है लेकिन पानी के बिना 6-7 दिनों बाद ही जीवन की संभावना क्षीण होने
लगती है। फिर खेतों में अनाज पैदा करना है तो उसके लिए भी आवश्यक पानी
ही है। बिन पानी सब सून है लेकिन इस पानी से होने वाली तकलीफों से बचने
का भी तरीका है। उचित व्यवस्था हो तो पानी जीवन के लिए खतरा नहीं है।
इंसानी लापरवाही के कारण यदि इंसानों को कष्ट होता है तो जिम्मेदार
लोगों पर कार्यवाही तो होना चाहिए। खासकर उन तकलीफों के लिए जो नई नहीं
हैं और हर वर्ष इंसान को परेशान करती हैं। पहली बार की गलती तो एक बार
क्षम्य है लेकिन फिर से गलती को सुधारा नहीं जाता तो जिम्मेदार लोगों को
बख्शा नहीं जाना चाहिए। लापरवाही किसी की और फल भोगे दूसरा तो यह स्थिति
उचित नहीं हैं।

सरकार और नगरीय निकाय जैसी संस्थाओं का औचित्य क्या है? जब वे जनता से कर
वसूल करते हैं और जनता के द्वारा ही चुने जाते हैं तो उनका दायित्व है कि
वे जनता को तकलीफों से निजात दिलाएं। कोई आकस्मिक आपदा हो कि भूकंप आया
तो बात अलग है लेकिन हर वर्ष जिन तकलीफों से जनता को दो चार होना पड़ता
है, उससे भी जनता को निजात न मिले तो दोषी कोई न कोई तो है। दोष एक सिर
से दूसरे सिर मढऩे से ही तो जनता को समस्याओं से छुटकारा नहीं मिलेगा।
अधिकारियों कर्मचारियों के ऊपर जनप्रतिनिधि को चुनकर बिठाने का औचित्य ही
यही है कि वे अधिकारियों कर्मचारियों से सही तरीके से काम लें। राजनीति
जनता को समस्याओं से मुक्त कराना होना चाहिए, न कि समस्याओं को लेकर
राजनीति करना।

पक्ष हो या विपक्ष जिम्मेदारी सामूहिक है। एक दूसरे को नीचा दिखाने या
बदनाम करने से जनता को समस्याओं से मुक्ति नहीं मिलती। कब तक जनता की
समस्याओं को राजनीति की शतरंज पर मोहरों की तरह चला जाता रहेगा। आखिर ठगी
तो जनता ही जाती है। हर वर्ष वही झमेला। वर्षों हो गए बाढ़ पीडि़त
क्षेत्र न होने के बावजूद राजधानी के ही कई इलाके बाढ़ की पीड़ा को झेलने
के लिए बाध्य हैं। नदियों के ऊफान से बरसात में आने वाली बाढ़ से राजधानी
रायपुर पूरी तरह से सुरक्षित है। सिर्फ बरसात में गिरने वाले पानी की
निकासी व्यवस्था सही हो तो बस्तियों को पानी में डूबना नहीं पड़ेगा।
मध्यप्रदेश में रहते हुए यह संभव नहीं था। इसीलिए तो अलग छत्तीसगढ़ की
मांग उठी और छत्तीसगढ़ अलग राज्य बना। राज्य बने भी 10 वर्ष पूरा होने जा
रहा है लेकिन बरसात की समस्या से आज तक राजधानी रायपुर ही मुक्त नहीं हुई
तो बाकी छत्तीसगढ़ के शहर कस्बों का क्या हाल होगा?

सरकार ने पॉलिथिन (झिल्ली) पर पाबंदी लगाया लेकिन न तो इनकी बिक्री बंद
हुई और न ही इनका उपयोग। नालियों को ये जाम करती हैं, यह सर्वविदित सत्य
है। कानून बनाने से ही कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती बल्कि उसका पालन
कराना सबसे अहम बात है। यदि मात्र कानून बना देने से ही सब कुछ ठीक ठाक
हो जाता तो आज देश में तो समस्याओं का नामोनिशान नहीं होता। स्वास्थ्य की
दृष्टि से सफाई व्यवस्था कितनी आवश्यक है,यह क्या किसी के समझाने की बात
है? सफाई व्यवस्था का क्या आलम है और किस तरह से बोगस रिकॉर्ड बना कर
जनता के धन को लूटा गया, यह तथ्य तो सबके सामने हैं। इसके बाद अधिकारी का
स्थानांतरण कर ही कर्तव्य की इतिश्री कर ली गई।

समस्या को सुलझाने के लिए जिस ईमानदार प्रयास की जरुरत है, जब तक वह नहीं
होता, तब तक समस्याएं अपना स्थान नहीं छोडऩे वाली हैं। घरों में घुसता
पानी, सड़कों में 4-4 फुट बहता पानी किसी भी ईमानदार प्रशासक को बेचैन कर
सकता है लेकिन यदि इन समस्याओं के बावजूद वह सुखपूर्वक निद्रा ले सकता है
तो यही कहा जाएगा कि संवेदनशीलता भोथरा गयी है। लोगों के घर में चुल्हा
नहीं जल रहा है। बच्चों के पेट में अनाज नहीं पहुंच रहा है और लोगों ने
अपने मोबाईल फोन बंद कर रखे हैं तो इसे और क्या कहा जाए? संवेदनशीलता ही
मनुष्य की असली पहचान है। इसी को इंसानियत भी कहते हैं। आकाश से तो बरसात
के रुप में अमृत बरस रहा है। अब जिम्मेदारी जिनकी है, उन्हें ही समझना
चाहिए कि वे अमृत को अमृत ही रहने दें। किसी को वह अमृत के बदले विष न
लगे।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 26.07.2010

रविवार, 25 जुलाई 2010

छत्तीसगढ़ के हित के प्रति डॉ. रमन सिंह की सोच की स्पष्टता ही लोकप्रियता का कारण है

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में आयोजित राष्ट्रीय विकास
परिषद की बैठक में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा कि छत्तीसगढ़ के 13
जिले नक्सलवाद से प्रभावित हैं। वैसे 13 जिले ही क्यों, नक्सलवाद से तो
पूरा छत्तीसगढ़ प्रभावित है। जब सरकार की पर्याप्त ऊर्जा नक्सल प्रभाव से
मुक्ति के लिए प्रयासरत है तो असर तो पूरे छत्तीसगढ़ पर पड़ता है। कभी
छत्तीसगढ़ को शांति का टापू कहा जाता था लेकिन नक्सल प्रभाव के कारण अब
यह हिंसा का टापू बन गया है। यह बात तो केंद्र सरकार और बुद्धिजीवी मानते
हैं कि नक्सलवाद का जवाब गोली नहीं विकास है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र
विकसित हो गए तो नक्सलवाद का स्वयं खात्मा हो जाएगा। भारतवर्ष के मध्य
में बसा बस्तर आज भी आदिम संस्कृति को जीवित रखे हुए है। अधिकांश समय
कांग्रेस का शासन इस क्षेत्र में रहा। विकास के लिए धन भी कम खर्च नहीं
किया गया बल्कि एक समय तो मध्यप्रदेश सरकार का एक तिहाई बजट आदिवासी
क्षेत्रों के लिए हुआ करता था। फिर भी विकास की किरण बस्तर के सुदूर
इलाकों तक नहीं पहुंच पायी तो दोषी कौन है?

जब आदिवासियों की जेब तक पैसा नहीं पहुंचा तो निश्चित रुप से खर्च किया
गया पैसा किसी न किसी की जेब में तो गया होगा। बस्तर ही क्यों पूरा का
पूरा छत्तीसगढ़ देश के गरीब राज्यों में से एक है। यह बात तो
अंतर्राष्टरीय संस्थाएं अपने सर्वेक्षण के आधार पर कहती हैं। यह बात तो
कांग्रेस के ही पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी बार-बार कह चुके कि
छत्तीसगढ़ की अमीर धरती पर गरीब लोग रहते हैं। खनिज संपदा और प्राकृतिक
संपदा के मान से देश के कितने क्षेत्र हैं जो बस्तर का मुकाबला कर सकें।
मिट्टी के मोल लौह अयस्क खोद कर जापान तक को बेचा गया। जंगल कटते रहे और
कम से कम होते गए लेकिन बस्तर के आदिवासियों के हाथ में क्या आया? आज भी
गरीबी जितनी बस्तर के मूल निवासियों की है, वह उदाहरण है व्यवस्था और
सरकार के शोषण की।

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद पहली बार इन आदिवासियों की किसी ने सुधि ली
तो वे डॉ. रमन सिंह ही है। उन्होंने ही पहचाना कि आदिवासियों की व्यथा
कथा क्या है? कैसे नक्सल आतंकवाद से आदिवासी पीडि़त है? क्यों विकास की
किरण उन तक पहुंच नहीं रही है उन्होंने ही पहचाना कि जब तक नक्सलियों के
प्रभाव से बस्तर को मुक्त नहीं कराया जाता तब तक आदिवासियों को विकास की
मुख्यधारा में लाना कठिन काम है। यह डॉ. रमन सिंह के ही प्रयासों का
परिणाम है कि केंद्र सरकार नक्सलवाद की समस्या पर गंभीर चिंतन के लिए
बाध्य हुई और तब उसे समझ में आया कि नक्सलवाद को हल्के ढंग से लेना देश
की आंतरिक सुरक्षा के लिए कितना खतरनाक हैं। डॉ. रमन सिंह के ही प्रयासों
के कारण नक्सलियों के असली क्रियाकलाप उजागार हुए।

जब डॉ. रमन सिंह राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में कहते हैं कि 7 नहीं
13 जिले नक्सल प्रभावित हैं तो स्पष्ट इशारा करते हैं कि 7 जिलों की
नहीं 13 जिलों के विकास की चिंतना केंद्र सरकार करे। क्योंकि एकीकृत
विकास जब तक सभी जिलों का नहीं होगा तब तक नक्सलवाद 7 जिलों से हटा तो
अन्य जिलों में अपनी जड़ें जमाने की कोशिश करेगा। जड़ मूल से नक्सल
समस्या को समाप्त करना है तो उस माहौल और व्यवस्था को समाप्त करना जरुरी
है जो नक्सलवाद के लिए फलने-फूलने का अवसर उपलब्ध कराता है। प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह कहते हैं कि वे महंगाई और नक्सलवाद से निपट लेंगे। कैसे
निपटेंगे? महंगाई को तो सरकार में आने के बाद 100 दिन में कम करने का
वादा किया था लेकिन 1 वर्ष पूरा हो चुका और दिसंबर तक का समय और मांगा जा
रहा है। कहा जा रहा है कि वर्षा अच्छी हो रही है और दिसंबर तक जब नई फसल
आएगी तब महंगाई 6 प्रतिशत पर आ जाएगी। अत्यधिक वर्षा के कारण जो नुकसान
हो रहा है, उसका आंकलन कर लिया गया है, क्या? वर्षा समयानुकूल अच्छी हो
गयी तो महंगाई कम हो जाएगी लेकिन नहीं हुई, तब?

अभी ही अनाज को रखने की समुचित व्यवस्था नहीं है और बहुत सा सरकारी अनाज
गोदामों की कमी के कारण खराब हो चुका है। जनता महंगाई की मार से पीडि़त
है और अनाज सड़ रहा है। यह कैसी व्यवस्था है? महंगाई कोई नक्सलियों के
कारण तो है, नहीं लेकिन आर्थिक लाभ अधिक से अधिक प्राप्त करने के लोभियों
के कारण अवश्य है। महंगाई इसी तरह से बढ़ती रही और आम आदमी महंगाई के
चक्कर में पिसता रहा तो नक्सलियों के प्रति सहानुभूति पीडि़तों की नहीं
बढ़ेगी, क्या? जब प्रजातांत्रिक ढंग से सरकार अपने नागरिकों की दैनंदिन
समस्या का निदान करने में अक्षम साबित होगी तब जनता का आक्रोश उनके प्रति
भी सहानुभूति में बदल सकता है जिन्हें जनता पसंद नहीं करती। कहावत है कि
मरता क्या न करता? यह सही है कि हिंसा का जवाब हिंसा नहीं है। हिंसा का
जवाब हिंसा से देना तो वक्ती मजबूरी है। तब और मजबूरी है जब कोई बातों से
हल निकलने की कोशिश करने के लिए ही तैयार न हो लेकिन आम जनता को बंदूक,
लाठी, गोली से नहीं हंकाला जा सकता।

आम जनता खुशहाल हो। दैनंदिन जीवन उसका सरल सहज हो। इसकी जिम्मेदारी
सीधे-सीधे सरकार पर हैं। जनता की बेसिक जरुरत की चीजें उचित मूल्य पर
जनता को सहज ही उपलब्ध हो यह कर्तव्य प्रजातंत्र में जनता के द्वारा चुनी
गई सरकारों का ही है। डॉ. रमन सिंह ने तो 2 रु. और 1 रु. किलो अनाज देकर
जनता को और खासकर गरीब जनता को बहुत बड़ी राहत दी है। यही कारण है कि
बस्तर का आदिवासी सरकार के पक्ष में हैं। जब डॉ. रमन सिंह कहते हैं कि 7
नहीं 13 जिले नक्सल प्रभावित हैं तो केंद्र सरकार को यह बात समझनी
चाहिए। जब डॉ. रमन सिंह कहते हैं कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सीमेंट
की सड़क बनाना चाहिए तब भी यह बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को समझ में
आना चाहिए। जब तक सुचारु रुप से आवागमन की व्यवस्था नहीं होगी तब तक
सशस्त्र बलों को नक्सलियों से निपटने में अड़चनों का सामना करना पड़ेगा
और समय भी बहुत लगेगा।

प्रधानमंत्री को अर्थशास्त्रियों पर नहीं यथार्थ में जो समस्याओं से
रुबरु हो रहे हैं, उनकी सोच पर विश्वास करना चाहिए। डॉ. रमन सिंह की सबसे
बड़ी विशेषता यही है कि वे समस्याओं को लेकर राजनीति नहीं करते बल्कि
समस्याओं को समाप्त करने पर विचार करते हैं। यही कारण है कि छत्तीसगढ़
में उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। कांग्रेसियों का विरोध जनता को
प्रभावित करने में सक्षम सिद्ध नहीं हो रहा है। जो व्यक्ति बिना केंद्र
सरकार के समुचित सहयोग के बिना ही 2 रु. किलो में 35 किलो अनाज देने की
योजना चला सकता है, वह केंद्र सरकार मदद नहीं करेगी तब भी करेगा। यह बात
दूसरी है कि तब जो काम आज हो सकता है उसमें समय लगेगा लेकिन इसका यह अर्थ
नहीं कि इसका लाभ कांग्रेस की राजनीति को मिलेगा बल्कि कांग्रेस और
नुकसान में ही जाएगी।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 25.07.2010

अमित शाह के मामले में भाजपा का प्रधानमंत्री के लंच का बहिष्कार कोई मायने नहीं रखता

क्या किसी राज्य का गृह राज्यमंत्री फरार भी हो सकता है? गृहमंत्री का
अर्थ होता है, पुलिस विभाग का मंत्री। इसलिए कम से कम पुलिस विभाग का
मंत्री तो पुलिस की नजर से ओझल नहीं हो सकता है। फरार शब्द का सामान्य
लोग यही अर्थ लगाते हैं कि ऐसा व्यक्ति जिसकी जरुरत पुलिस को गिरफ्तारी
के लिए है और उसे पुलिस ढूंढ नहीं पा रही है। ढूंढने से भी वह मिल नहीं
रहा है। आम आदमी तो यह समझ ही नहीं सकता कि गृह राज्यमंत्री फरार कैसे हो
सकता है? लेकिन गुजरात राज्य के गृहमंत्री अमित शाह की अग्रिम जमानत
याचिका सीबीआई की विशेष अदालत ने खारिज कर दी और सीबीआई के बुलावे पर गृह
राज्यमंत्री उपस्थित नहीं हुए। इसलिए गृह राज्यमंत्री फरार घोषित हो गए
हैं। स्वाभाविक है कि अब अदालत उनकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी करे और
संवैधानिक मर्यादा तो यही कहती है कि इस स्थिति में गृह राज्यमंत्री को
अपने पद से इस्तीफा देकर न्यायालय के समक्ष आत्मसमर्पण कर देना चाहिए ।
सीबीआई एक संवैधानिक शपथ से बंधे व्यक्ति को गिरफ्तार कर यदि न्यायालय के
समक्ष प्रस्तुत करती हैं तो यह प्रजातंत्र के लिए शुभ संदेश नहीं है।

सीबीआई ने कहा जा रहा है कि अमित शाह पर आरोप लगाया है कि उन्होंने
सोहराबुद्दीन की हत्या के लिए सुपारी दी थी। सुपारी भी किसी आम अपराधी
व्यक्ति को नहीं आईपीएस अधिकारियों को दी गई थी और आईपीएस अधिकारी
गिरफ्तार होकर जेल में हैं। पुलिस का छोटा मोटा कर्मचारी या अधिकारी किसी
की हत्या की सुपारी ले, यह समझ में भी आने वाली बात है लेकिन आईपीएस
अधिकारी भी सुपारी ले सकते हैं, यह बात आसानी से हजम होने वाली नहीं है।
गृहमंत्री के आदेशों का पालन अधिकारियों ने किया हो तो यह समझ में भी आने
वाली बात है लेकिन सुपारी लेकर हत्या की बात विश्वसनीय नहीं लगती। फिर भी
जब सीबीआई तीस हजार पृष्ठ का आरोप पत्र पेश कर यह बात न्यायालय से
कहती हैं तो विश्वास डगमगा अवश्य जाता है।

पुलिस के इतने बड़े अधिकारी राजनेता के कहने पर किसी की भी हत्या कर सकते
हैं तो फिर आम आदमी की सुरक्षा की जिस पर जिम्मेदारी है, उस पर
प्रश्रचिन्ह लग जाता है। पुलिस ही तो ऐसी संस्था है जिस पर आम नागरिक की
सुरक्षा का पूरा दारोमदार है। यदि यह बात न्यायालय में सिद्ध हो जाती है
और पुलिस अधिकारियों को न्यायालय सजा दे देता है तो यह निश्चित ही जनता
और पुलिस दोनों के लिए बड़ा सबक होगा। भाजपा के बड़े राष्ट्रीय नेता भले
ही प्रधानमंत्री के लंच का बायकाट करें लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि
वे ठीक हैं। उन्हें संविधान और कानून पर पूरा विश्वास प्रगट करना चाहिए।
सीबीआई केंद्र सरकार के इशारे पर भाजपा के एक मंत्री को आरोपी बना रही है
तो न्यायालय में अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए अमित शाह के पास अवसर
नहीं है, ऐसा सोचना का तो कारण नहीं है।

सीबीआई की पूछताछ के लिए जब मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी उपस्थित हो सकते
हैं तब उनके गृह राज्यमंत्री क्यों नहीं? कानून की दृष्टि में न तो कोई
छोटा है और न ही कोई बड़ा। सिर्फ यह कहने से की सीबीआई का केंद्र सरकार
दुरुपयोग कर रही है, मामले को रफादफा नहीं किया जा सकता। यदि अमित
निर्दोष हैं और उन पर झूठा आरोप मढ़ा जा रहा है तो न्यायालय में दूध का
दूध और पानी का पानी हो जाएगा। सीबीआई जांच कोई केंद्र सरकार तो करा नहीं
रही हैं। न्यायालय के आदेश पर सीबीआई जांच कर रही है। न्यायालय के आदेश
पर ही बिहार के मुख्यमंत्री और मंत्रियों पर दायर मुकदमे पर सीबीआई जांच
का आदेश न्यायालय ने दिया था। सीबीआई जांच के आदेश के बाद विपक्ष ने
विधानसभा में जो हंगामा किया, उससे नीतीश कुमार और उनके मंत्री दोषी तो
सिद्ध हो नहीं गए बल्कि सरकार ने न्यायालय में अपना पक्ष रख कर सीबीआई
जांच वापस लेने का फैसला न्यायालय से ही करवाया।

सही तरीका भी यही है। प्रधानमंत्री के लंच का बहिष्कार करने से यह सिद्ध
नहीं होता कि केंद्र सरकार सीबीआई का दुरुपयोग कर भाजपा को बदनाम कर रही
है। अरुण जेटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता एक विख्यात अधिवक्ता हैं।
उन्हें तो कम से कम समझना चाहिए कि सीबीआई यदि कुछ गलत कर रही है तो उसके
लिए न्यायालय के दरवाजे खुले हुए हैं। न्यायालय में अपनी बात रखी जानी
चाहिए। हर मामले को राजनीति के चश्मे से ही देखना स्वस्थ प्रजातंत्र के
लिए उचित नहीं है। यह सही है कि अमित शाह गुजरात के लोकप्रिय नेता हैं।
पिछला विधानसभा चुनाव उन्होंने सर्वाधिक मतों से जीता लेकिन कोई भी
व्यक्ति कितना भी लोकप्रिय हो उसे कानून से खिलवाड़ का अधिकार नहीं है।
यह बात ही किसी भी राजनैतिक दल को शर्मसार करने के लिए पर्याप्त है कि
उसका गृह राज्यमंत्री हत्या के लिए सुपारी दे। अपनी पार्टी का नेता होने
से ही कोई ईमानदार नहीं हो जाता। जो भी कानून से खिलवाड़ करने की और
कानून से अपने को बड़ा समझने की भूल करेगा,उसकी जगह न्यायालय के कठघरे
में ही है। आम नागरिक के लिए एक ही जगह तो अंतिम रुप से बची है जहां जाकर
वह बड़े से बड़े व्यक्ति को भी चुनौती दे सकता है।

इसी से संविधान पर आम आदमी की आस्था अडिग है। हुक्मरानों के द्वारा सत्ता
के दुरुपयोग के किस्से 63 वर्षों में कम नहीं है। अपराधी तक चुनाव लड़ कर
और जीत कर संवैधानिक संस्थाओं पर काबिज होते रहे हैं और आज भी काबिज हैं।
किसी के साथ ये अन्याय करें तो न्यायालय में ही न्याय की तलाश की जा सकती
है। इंदिरा गांधी जैसी सशक्त नेत्री तक के चुनाव को न्यायालय ने खारिज कर
दिया था। राजीव गांधी पर लगाए गए बोफोर्स दलाली के आरोप तक न्यायालय में
सिद्ध नहीं हुए लेकिन क्रूर राजनीति ने दुष्प्रचार कर सत्ता उनके हाथ से
जनता को बहका कर छीन लिया था। तमाम तरह के आरोपों के बावजूद आज भी केंद्र
की सत्ता कांग्रेस के ही हाथ में है। न्यायालय के आदेश से सीबीआई
सोहराबुद्दीन की हत्या की जांच कर रही है। सीबीआई कांग्रेस के दबाव में
कोई गलत काम यदि करती है तो सीबीआई की जांच न्यायालय का फैसला तो नहीं
है।

विधानसभा चुनाव के समय गुजरात में चुनाव प्रचार के समय सोनिया गांधी ने
नरेन्द्र मोदी को मौत का सौदागर कहा था लेकिन मतदाताओं ने उसके बावजूद
अपना विश्वास सोनिया गांधी की कांग्रेस के प्रति तो प्रगट नहीं किया
बल्कि नरेन्द्र मोदी को ही पूर्ण बहुमत से सत्ता सौंपा। नरेन्द्र मोदी को
सत्ता से हटाने का कोई भी प्रयास सफल नहीं हुआ। तब अमित शाह के मामले में
भाजपा इतनी उत्तेजित क्यों है? विरोध तो नरेन्द्र मोदी के विज्ञापन का
नीतीश कुमार ने भी किया लेकिन भाजपा की समस्त उत्तेजना सत्ता के सामने एक
झाग की तरह बैठ गयी। अमित शाह का न्याय न्यायालय ही करेगा, राजनीति नहीं।

-विष्णु सिन्हा
दिनांक : 24.07.2010
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शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

डा. रमनसिंह का ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बनना प्रदेश में खेल क्रांति को जन्म देगा

मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह छत्तीसगढ़ ओलंपिक संघ के अध्यक्ष बन गए। डा.
अनिल वर्मा के विरूद्घ जिस तरह से बशीर के नेतृत्व में ओलंपिक संघ के
पदाधिकारी और सदस्य गोलबंद हुए और डा. अनिल वर्मा को अध्यक्ष पद से हटाया
गया, उनकी कहानी तो सर्वविदित है लेकिन अनिल वर्मा को हटाकर भी बशीर और
उनकी टीम हटा नहीं पायी। ओलंपिक संघ ने तो लिखकर दे दिया कि अनिल वर्मा
ही अध्यक्ष हैं। अनिल वर्मा पर तो आर्थिक घोटाले तक का आरोप लगाया गया
लेकिन अनिल वर्मा किसी भी आरोप से विचलित नहीं हुए बल्कि स्थिति स्पष्ट
करते हुए उन्होंने तो मानहानि का मुकदमा ही दायर कर दिया। इसके साथ ही
मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह का नाम अध्यक्ष के लिए बार बार उछाला गया।
जिससे अनिल वर्मा का मनोबल कमजोर किया जा सके लेकिन विवाद के बीच डा. रमन
सिंह अध्यक्ष बनने के लिए तैयार ही नहीं हुए।

तब अनिल वर्मा से समझौते के सिवाय कोई चारा ही नहीं बचा। यह तो समझ में
आ गया कि डा. अनिल वर्मा को उनकी इच्छा के विरूद्घ अध्यक्ष पद से नहीं
हटाया जा सकता। अनिल वर्मा को भी एक बात तो समझ में आ ही रही थी कि यह
विवाद अंतत: नुकसान तो खेलों को ही पहुंचाएगा और 2013 में होने वाला
नेशनल गेम इस विवाद से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। खेल संघों में
पदाधिकारियों के बीच अहम का टकराव कोई नई बात नहीं है। इससे खेल को
नुकसान भी होता है लेकिन कितने विवेकवान व्यक्ति है जो अपने अहम से बड़ा
खेल को समझें। अनिल वर्मा ने समझा कि ओलंपिक संघ का असल उदेश्य खेलों का
हित है, न कि आपसी विवाद और मुख्यमंत्री संघ के अध्यक्ष बनते हैं तो सभी
तरह के खेलों को लाभ ही होगा। इसलिए अपने अहम को एक तरफ रखते हुए
उन्होंने अध्यक्ष पद से न केवल इस्तीफा दे दिया वरन अध्यक्ष के लिए डा.
रमनसिंह का नाम भी प्रस्तावित कर दिया।

विद्याचरण शुक्ल कह रहे हैं जो ओलंपिक संघ के आजीवन अध्यक्ष हैं कि डा.
रमन सिंह ओलंपिक संघ के अध्यक्ष बनें, उन्हें कोई ऐतराज नहीं है लेकिन
संवैधानिक प्रक्रिया के तहत उनका चुनाव हो। जब सभी राजी हैं तो संवैधानिक
प्रक्रिया भी पूरी की जा सकती है। इसमें अड़चन कहां है। मुख्यमंत्री जब
किसी काम का बीड़ा उठाते है तब तन मन धन से सहयोग करने में पीछे नहीं
रहते। मुख्यमंत्री अध्यक्ष न भी रहते तब भी सहयोग में पीछे नहीं रहते
लेकिन जब खेल संघ के अधिकांश पदाधिकारियों की इच्छा है कि नेतृत्व
मुख्यमंत्री के ही हाथ में हो तो मुख्यमंत्री ने भी उनकी इच्छाओं का आदर
किया। अब सभी खेलों के संघ मुख्यमंत्री से आशा कर सकते हैं कि उनके विकास
में धन की कमी आड़े नहीं आएगी।

दरअसल अब खेलों में धन की भी अहम भूमिका हो गयी है। खेल मात्र खेल होकर
मनोरंजन का साधन तो है नहीं बल्कि खेल अब निष्णात होने पर एक अच्छा
कैरियर भी प्रदान करते हैं? राष्ट्रीय स्तर पर जब कोई खिलाड़ी नाम कमाता
है तो अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी उसके लिए दरवाजे खुल जाते हैं। फिर
नाम के साथ नामा भी मिलता है। आजकल अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में
उपलब्धि हासिल करने वाले खिलाडिय़ों को तो इतना धन मिलता है कि जितना धन
किसी भी तरह की नौकरी या व्यवसाय में भी नही मिलता। राष्ट्रीय स्तर पर
खेल में प्रतिनिधित्व मिले तो अच्छी नौकरियां मिल जाती है। खेल कोटे से
भी आरक्षण की व्यवस्था है। जब तक छत्तीसगढ़ राज्य नहीं बना था तब तक
खेलों के विषय में इस क्षेत्र में किसी तरह के विकास की भी कल्पना नहीं
थी लेकिन आज जब लोग समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि भारत के क्रिकेट
कप्तान महेंन्द सिंह धोनी ने 200 करोड़ रूपये का अनुबंध किया तो खेल
क्षेत्र से जुड़े खिलाडिय़ों की ही लालसा नहीं बढ़ती बल्कि खिलाड़ी के
माता पिता भी खेल में सोच रखने वाले अपने बच्चों को प्रोत्साहित करते
दिखायी देते हैं।

वह जमाना चला गया जब कहा जाता था कि पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब और
खेलोगे कूदोगे तो बनोगे गंवार। पढ़ लिखकर नवाब बनो न बनो लेकिन खेल कूद
में यदि ऊंचाइयों का स्पर्श किया तो नवाब की तरह जीवन की सुविधएं प्राप्त
करना कठिन काम नहीं है। डा. रमन सिंह के ओलंपिक संघ के अध्यक्ष बनने के
बाद सरकार खेल सुविधाएं बढ़ाने पर पूरा ध्यान देगी, इसमें अब शक की कोई
गुंजाईश नहीं है। अभी छत्तीसगढ़ में नेशनल गेम्स होने में 3 वर्ष का समय
है। मतलब पर्याप्त समय है। हर तरह के खेल के लिए सभी सुविधाएं जुटाने के
लिए पर्याप्त समय है। छत्तीसगढ़ में प्रतिभा की कोई कमी है ऐसा मानने का
तो कोई कारण नही है लेकिन निश्चित रूप से सुविधाओं का अभाव है। डा.
रमन सिंह के नेतृत्व में सुविधाओं की व्यवस्था युद्घस्तर पर की जाती है
तो पूरा माहौल ही बदला बदला दिखायी देगा। डा. रमन सिंह में क्षमता की और
इच्छाशक्ति की कोई कमी नहीं है। नेशनल गेम्स की तैयारी कुंभ की तरह की
जाएगी। दरअसल भविष्य में अंतराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के लिए यह नींव
का काम करेगी। जिस तरह से डा. रमन सिंह के नेतृत्व में अंतराष्ट्रीय
स्टेडियम का निर्माण किया गया और वहां पर खेल गांव बनाने की मंशा डा. रमन
सिंह ने प्रगट की है, उससे ही उनकी खेल भावना को समझा जा सकता है।
मुख्यमंत्री जनता की मांग पर अक्सर कहा करते है कि धन की कमी नहीं आने दी
जाएगी तो खेल के मामले में भी डा. रमन सिंह धन की कोई कमी नहीं आने
देंगे। परिणाम भी आएगा। प्रदेश के युवाओं में शिक्षा के साथ खेल का भी
स्वस्थ माहौल बनेगा। युवाओं की ऊर्जा को खर्च करने के लिए खेल ही सही
माध्यम है। उच्च स्तर के हर खेल के मार्गदर्शक उपलब्ध कराए जा सकते हैं
तो खेल की बारीकियों को समझने का अवसर खिलाडिय़ों को मिलेगा। नक्सल
प्रभावित क्षेत्रों में खेल को पर्याप्त बढ़ावा मिला तो युवा वर्ग हिंसा
की तरफ आकर्षित होने के बदले खेल की तरफ आकर्षित होंगे और परिणाम स्वरूप
इन क्षेत्रों से भी विभिन्न खेल स्पर्धाओं के लिए निष्णात खिलाड़ी
निकलेंगे।

2013 में नेशनल गेम्स होंगे तो 2013 में ही विधानसभा के भी चुनाव होंगे।
सफल नेशनल गेम्स और खेल सुविधाओं का विस्तार निश्चित रूप से युवाओं को
डा. रमन सिंह की तरफ आकर्षित करेगा तो चुनाव परिणामों पर भी इसका कोई असर
नहीं पड़ेगा, यह तो नहीं कहा जा सकता बल्कि साफ साफ असर दिखायी देगा।
डा. रमन सिंह का ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बनना प्रदेश में खेल क्रांति को
जन्म देगा। एक नई फिजां का निर्माण करेगा। डा. रमन सिंह चतुर सुजान हैं
और उन्होंने 2013 के नेशनल गेम्स के साथ ही चुनाव की भी तैयारियां
प्रारंभ कर दी है।

- विष्णु सिन्हा
23-7-2010

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

विपक्ष के द्वारा की गई शर्मनाक हरकतों से नीतीश कुमार इस्तीफा देने वाले नहीं

बिहार विधानसभा में घटित क्रियाकलापों को कितना भी शर्मनाक कहे लेकिन
विधायक और विधान परिषद के सदस्य जिन्होंने अपने क्रियाकलापों से सभ्य
समाज को शर्मसार किया, वे तो शर्मसार नहीं हैं। कोई विधायक विधानसभा
अध्यक्ष को चप्पल फेंक कर मारता है तो कोई विधान परिषद की महिला सदस्य
विधानसभा के बाहर रखे गमलों को उठा उठाकर पटकती है। कहीं से भी नहीं लगता
कि अपने कृत्यों के प्रति कोई अपराध भाव इनके मन में हैं। विधानसभा से
मार्शल विधायकों को उठाकर बाहर करते हैं। विधानसभा ऐसे 67 विधायकों को
निलंबित करती है। बस मामला समाप्त। क्या ऐसे लोग जनता का विधानसभा में
प्रतिनिधित्व करने का हक रखते हैं? सभ्य आचरण, मर्यादा जैसी कोई भी
गरिमामय भावना इनमें दिखायी नहीं देती। यह सही है कि 11 हजार करोड़ रुपए
के मामले में उच्च न्यायालय ने सीबीआई को जांच करने का निर्देश दिया है
तो इसका मतलब यह तो नहीं है कि सरकार से इस्तीफा मांगने के लिए विधायक
विधानसभा में ही कानून की धज्जियां उड़ाएं।

यह मामला तीन सरकारों पर केंद्रित है। राबड़ी देवी सरकार, राष्टपति
शासन के दौरान राज्यपाल बूटा सिंह का शासनकाल और नीतीश कुमार का शासन
काल। इस मामले में भ्रष्टाचार हुआ है या नहीं और हुआ है तो किसने कितना
भ्रष्टाचार किया है, यह सीबीआई की जांच का विषय है। जांच के बाद जब जांच
की रिपोर्ट न्यायालय के समय प्रस्तुत होगी तभी पता चलेगा कि दोषी कौन है?
दोष सिद्ध होने के पहले ही किसी को भी किसी तरह की सजा देने का प्रावधान
नहीं है। सभी राजनैतिक दल अभी तक तो इसी सिद्धांत पर राजकाज करते रहे।
चारा घोटाले के आरोप के बावजूद जब लालू प्साद यादव भारत सरकार के रेल
मंत्री रह सकते हैं तो फिर नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री रहने के मामले में
नए नियम कैसे बनाए जा सकते हैं? फिर मामला जांच क बाद न्यायालय में
प्रस्तुत हो और प्रथम दृष्टि में नीतिश कुमार दोषी पाए जाएं तब न
न्यायालय उनके विरुद्ध समंस या वारंट निकालेगा। उस समय नीतीश कुमार से
विपक्ष इस्तीफा भी मांगे तो समझ में आने वाली बात है।
लेकिन बिहार विधान सभा के अंदर उग्र कार्यवाही के द्वारा विपक्ष के
विधायक नीतीश कुमार को दोषी सिद्ध नहीं कर सकते। इस तरह की नौटंकी से वे
जनता के बीच यह संदेश तो दे ही नहीं सकते कि भ्रष्टïचार के विरुद्ध वे
लड़ रहे हैं। बिहार की जनता तो देख ही रही है कि लंबे अंतराल के बाद
नीतीश कुमार का शासन बिहार में अच्छे शासन का संदेश दे रहा है। चुनाव
सन्निकट है और सारा प्रयास नीतीश कुमार को बदनाम कर सत्ता हथियाने का है।
अभी तक का नीतीश कुमार का चरित्र और व्यक्तित्व एक ईमानदार व्यक्ति का
रहा है। बिहार में विकास के काम और अपराधियों पर नियंत्रण भी उनके शासन
काल में हुआ है। यह बात तो बिहार के लोग ही मानते हैं कि नीतीश कुमार का
शासन और 5 वर्ष बिहार में रह गया तो बिहार में कायापलट हो सकता है।
इसी से बौखलाए लोगों ने अपनी पूरी ऊर्जा गलत तरीके से नीतीश कुमार और
उनकी सरकार पर लगायी है कि नीतीश कुमार बदनाम हों। सीएजी की रिपोर्ट को
माध्यम बनाकर बदनाम करने का अवसर उन्हें दिखायी दे रहा है। नहीं तो
सीधे-सीधे चुनाव हो तो नीतीश कुमार भाजपा का गठबंधन फिर से सरकार बना
सकता है। जब नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी के एक साथ चित्रों के विज्ञापन
छपे थे तब नीतीश कुमार ने नाराजगी प्रगट की थी। विपक्ष को लगा था कि अब
ये गठबंधन चलने वाला नहीं है लेकिन वक्त के साथ सारा मामला टांय-टांय
फिस्स हो गया और यह तय दिखायी देने लगा कि नीतीश और भाजपा मिल कर चुनाव
मैदान में उतरेंगे। लालू यादव, रामविलास पासवान के गठबंधन में भी अब
पुराना जोश खरोश नहीं है। रामविलास पासवान तो लोकसभा का ही चुनाव नहीं
जीत पाए और बड़ी मुश्किल से राज्यसभा में पहुंच पाए हैं। सोनिया गांधी ने
भी पिछले कार्यकाल की तरह कोई लिफ्ट दिया नहीं। क्योंकि चुनाव के समय जिस
तरह से कांग्रेस के साथ ये दोनों सज्जनों ने व्यवहार किया था, उसके बाद
चुनाव में मिली असफलता ने वैसे भी इनकी गठबंधन में आवश्यकता ही नहीं होने
दी।। ये बिना मांगे संप्रग सरकार को समर्थन दे रहे हैं लेकिन बदले में
इन्हें कोई शासकीय पद तो मिला नहीं।

अभी तक बिहार में जो राजनैतिक स्थिति है, उसमें कांग्रेस इन दोनों से
गठबंधन कर चुनाव लडऩे में कोई रुचि प्रदर्शित नहीं कर रही है बल्कि
स्थिति ऐसी है कि पिछले चुनाव में जो व्यवहार इन लोगों ने कांग्रेस के
साथ किया, वही व्यवहार कांग्रेस इनके साथ करे। यदि कांग्रेस गठबंधन के
लिए तैयार भी हुई तो अपनी शर्तों पर तैयार होगी। मतलब साफ है कि
कांग्रेस के पास खोने के लिए तो कुछ नहीं है लेकिन कांग्रेस को कुछ नहीं
मिलता तो उसकी रुचि इनका हित सोचने में भी नहीं है। कांग्रेस से गठबंधन
की मजबूरी अब लालू और रामविलास को ही है, कांग्रेस को नहीं। कांग्रेस तो
चाहती है कि इनका पतन हो तो उसका उद्धार हो बिहार में। नीतीश कुमार का 5
वर्ष का कार्यकाल जिस तरह की नई आशाएं बिहार में जगा रहा है, उसके बाद तो
सत्ता में लौटने की किसी तरह की आशा लालू की है, नहीं। अब यह सीएजी की
रिपोर्ट जिसका संज्ञान उच्च न्यायालय ने लिया है और सीबीआई को जांच का
आदेश दिया है, एकमात्र आशा की किरण है कि नीतीश कुमार इसमें फंसें तो
बाकी के लिए सत्ता में लौटने का अवसर उपलब्ध हो।

विधानसभा में जो विधायक सक्रियता हुल्लड़ के द्वारा दिखा रहे हैं 5 वर्ष
तक तो वे कुछ कर नहीं सके। ऐसा कोई काम भी नहीं किया, जिससे जनता उन्हें
चुने। नीतीश कुमार की बढ़ती लोकप्रियता पुन: विधानसभा में चुन कर आने के
मामले में सरकार बना सकती है। टिकट के मामले में भी पार्टी का ध्यान
आकर्षित करने का सुनहरा अवसर है। वे यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि जब
तक विधानसभा में नीतीश कुमार के पास बहुमत है तब तक वे नीतीश कुमार को
मुख्यमंत्री की गद्दी से नहीं उतार सकते। गठबंधन में दरार भी नहीं डाल
सकते और न ही उनके उकसावे से नीतीश कुमार इस्तीफा देने वाले हैं। भारतीय
राजनीति ऐसी नहीं है कि लोग आरोप लगते ही इस्तीफा दे दें। वे लोग दुनिया
छोड़कर चले गए जो एक अंगुली भी उठे तो इस्तीफा देने में देरी नहीं करते
थे। रेल मंत्री के रुप में एक दुर्घटना पर इस्तीफा देने वाले लाल बहादुर
शास्त्री जैसा व्यक्ति अब राजनीति में नहीं पाया जाता। रोज ट्रेन
दुर्घटना होती है और आरोप प्रत्यारोप का दौर चलता है लेकिन रेल मंत्री
आराम से अपनी कुर्सी पर विराजमान रहते हैं। ऐसे लोग इस्तीफा देने लगे
आरोप लगने पर तो वर्तमान में शासन में आरुढ़ हर व्यक्ति को किसी न किसी
आरोप के कारण इस्तीफा देना पड़ेगा। लालू प्रसाद यादव तो मुख्यमंत्री रहते
कहते थे कि वे जेल भी चले गए तब भी मुख्यमंत्री रहेंगे और जेल से ही
सरकार चलाएंगे। यह बात दूसरी है कि जब ऐसा अवसर आया तो उसके पहले ही
उन्होंने अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया था। ऐसी
स्थिति में नीतीश कुमार विधानसभा में विपक्ष के विधायकों के हुल्लड़ के
कारण इस्तीफा दे देंगे, सोचने का कोई कारण नहीं हैं।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 22.07.2010

बुधवार, 21 जुलाई 2010

यह तो भविष्य ही बताएगा कि बच्चों को मारपीट से बचाने का कानून कितना फायदेमंद साबित हुआ

केंद्र सरकार कानून बनाने जा रही है कि अब स्कूल में बच्चों को शिक्षक
पीट नहीं सकेंगे। शिक्षक ही नहीं माता पिता भी बच्चों की पिटाई नहीं कर
सकेंगे। पड़ोसी रिश्तेदार भी बच्चों पर बल प्रयोग नहीं कर सकेंगे। यदि
ऐसा कोई करेगा तो जेल की हवा खाएगा और जुर्माना भी अदा करना पड़ेगा। इसके
लिए हर स्कूल में व्यवस्था की जाएगी जहां बच्चे अपनी शिकायत दर्ज करा
सकेंगे। मतलब साफ है कि अब बच्चे अपनों से पूरी तरह से सुरक्षित रहें,
इसकी व्यवस्था कानून के माध्यम से की जा रही है। अब सभी को बच्चों के
साथ सम्मानजनक व्यवहार करना पड़ेगा। कानूनी बाध्यता के बावजूद इस मामले
में बच्चे कितने सुरक्षित होंगे, यह तो कानून लागू होने के बाद ही पता
चलेगा लेकिन एक बात तो स्पष्ट दिखायी देती हैं कि सरकार की मंशा स्पष्ट
है और स्वागत योग्य है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो हिंसा का प्रभाव बाल मन पर जो पड़ता है,
वह जीवन भर उसका पीछा नहीं छोड़ता। स्कूल जाने से कतराने के पीछे भी
बच्चों के मन में जो शिक्षक और माता पिता की मार का भय होता है, वह असली
कारण होता है। यह मारपीट वह कारण है जो बच्चों में स्कूल के प्रति उत्साह
नहीं भरता। अक्सर देखा गया है कि छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जाते समय रोते
हैं और स्कूल से वापस आते हैं तो हंसते खिलखिलाते हुए आते हैं। ठीक उस
कैदी की तरह जो जेल से छुटकारे के बाद प्रसन्न दिखायी देता है। कहा जाता
है कि मनुष्य के जीवन में सबसे अच्छा समय बचपन का होता है। जब न कमाने
खाने की चिंता होती है और न किसी तरह की किसी जिम्मेदारी की। यह बात
ऊपर-ऊपर भले ही ठीक लगे लेकिन वास्तव में स्थिति तो ऐसी नहीं होती। जितना
दबाव बचपन में किसी पर होता है, चारों तरफ से उतना दबाव बड़ा और
जिम्मेदार होने पर नहीं होता। बच्चे को जितना लाड़ प्यार नहीं मिलता,
उससे ज्यादा उसे बड़े दबाते हैं।

उसे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए कुछ न कुछ ऐसा करना पड़ता है जिससे
लोगों का ध्यान उसकी तरफ आकर्षित हो। घर में बच्चा एकदम शांत है लेकिन
जैसे ही घर में कोई मेहमान आता है, बच्चा हल्ला गुल्ला, उछल कूद करने
लगता है। घर के लोग बार-बार उसकी तरफ आकर्षित होते हैं और उसे समझाने की
कोशिश करते हैं कि पप्पू शांत रहो। अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते लेकिन
बच्चे भी अच्छी तरह से जानते हैं कि बड़े उसके साथ किसी भी तरह का कठोर
व्यवहार मेहमान के सामने नहीं कर सकते। क्योंकि वे बच्चों के प्रति कठोर
किसी के सामने नहीं दिखायी देना चाहते। बच्चों का मन बड़ा कोमल होता है
और उस पर हर तरह के व्यवहार का असर पड़ता है। जो माता पिता या शिक्षक बात
बेबात बच्चों को मारते हैं, वे बच्चे को ठीक तो नहीं कर पाते बल्कि दब्बू
या उदंड बना देते हैं।

बच्चे के साथ सख्ती या ज्यादा लाड़ प्यार का प्रदर्शन दोनों ही
नुकसानदायी होता है। सख्ती से ही बच्चे नहीं बिगड़ते बल्कि ज्यादा लाड़
प्यार भी उन्हें बिगाड़ता है। असल में बड़ों के पास जिस धैर्य की जरुरत
होना चाहिए, बच्चों के साथ व्यवहार करने के लिए उसका सर्वथा अभाव ही हो
गया है। समय किसी के पास है, नहीं। पालक समझते हैं कि खाने, पीने ,
पहनने, पढऩे का इंतजाम कर वे अपने कर्तव्य को पूरा कर रहे हैं। इसके लिए
वे आदर के पात्र हैं। बच्चा वास्तव में क्या चाहता है और वास्तव में उसे
क्या चाहिए, इसकी समझाइश धैर्यपूर्वक देने की कोई जरुरत ही नहीं समझता।
एक अच्छे स्कूल में यदि बच्चे को भर्ती करा देते हैं तो समझते हैं कि
उन्होंने अपना फर्ज पूरी तरह से निभा दिया। अब बच्चों को योग्य और भविष्य
के लिए तैयार करने का दायित्व शिक्षक और स्कूल का है। शिक्षक और स्कूल भी
पूरी जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है। वह होमवर्क का ऐसा बोझ
बच्चों पर डालता है कि स्कूल से घर आकर भी खेलने कूदने का समय उन्हें
नहीं मिलता।

जबकि बच्चे के शरीर में ऊर्जा बहुत होती है और वह उछल कूद कर ही ऊर्जा को
व्यवस्थित कर सकता है। स्कूल में अनुशासित रहे, घर में अनुशासित रहे।
जैसे बच्चा जिंदा प्राणी न होकर कोई मशीन हो। परीक्षा में कम नंबर मिले
तो बच्चा दोषी। क्योंकि जिस तरह से पढ़ाई लिखाई में उसे ध्यान देना
चाहिए, वह नहीं देता। उसकी निंदा शिक्षक, माता पिता सब करते हैं और उससे
सख्ती का व्यवहार किया जाता है। फिर सबसे बड़ी बात तो यह होती है कि
बच्चा अपने भविष्य में क्या बनना चाहता है और माता पिता उसे क्या बनाना
चाहते हैं? विपरीत विचारों का संघर्ष उसका बचपन तो छीन ही लेते हैं, साथ
ही भविष्य भी उसका खराब कर देते हैं। साक्षर होना आज मनुष्य की जरुरत है
और जो भी बच्चा स्कूल जाता है वह साक्षर तो हो ही जाता है। इसके बाद
उसका स्वाभाविक विकास होना चाहिए। अक्सर इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
शिक्षा को ज्ञान का नहीं अर्थ प्राप्ति का साधन माना जाता है। आज जो
आर्थिक विकास की ऐसी दौड़ है कि हर माता पिता की यही कोशिश है कि बच्चा
वह पढ़ कर बने जिससे अधिक से अधिक धन कमा सके। नौकरी आसानी से मिल सके।
मारपीट भी बच्चे के साथ जो की जाती है, उसका उद्देश्य तो यही समझा जाता
है कि बच्चे के भविष्य का निर्माण किया जा रहा है। अक्सर तो बच्चे अपने
माता पिता या शिक्षक की मन:स्थिति का शिकार हो जाते हैं। बच्चा तो कभी
कभी समझ ही नहीं पाता कि कभी जिस बात के लिए उसकी तारीफ की जाती हैं, वही
बात कभी उसकी पिटाई का कारण भी बन जाती है। माता पिता प्रसन्न हों तो
बच्चे के कूदने, नाचने पर प्रसन्न होते हैं लेकिन किसी कारण से अप्रसन्न
हों तो उन्हें बच्चे का नाचना, कूदना अच्छा नहीं लगता और मना करने के
बावजूद जब बच्चा नहीं मानता तो उसकी पिटाई कर देते हैं।

बच्चों के साथ बड़ों का व्यवहार दरअसल एक गूढ़ विषय है और सूक्ष्मता से
इसके लिए कोई नियम नहीं बनाए जा सकते। फिर सभी बच्चे एक समान नहीं होते।
कुछ बच्चे जन्म से ही शांत होते हैं तो कुछ बच्चे उदंड होते हैं। ये अपने
साथी बच्चों की पिटाई भी कर देते हैं और अपने साथ अपने अनुरुप चलने के
लिए बाध्य भी करते हैं। सभी को एक तराजू में नहीं तौला जा सकता। फिर सभी
न तो एक ही माहौल में पलते बढ़ते हैं और न ही एक तरह के संस्कारों में
संस्कारित होते हैं। बाल मन परिस्थितियों के अनुसार ही विचारों को ग्रहण
करता है और उसी के अनुसार उसका विकास होता है। इसीलिए एक तरह का मनुष्य
तन प्राप्त करने के बावजूद भी व्यक्ति में भेद है। भेद तो एक ही
परिस्थिति, एक ही माता पिता की संतानों में भी होता है। सब समान तो नहीं
होते। इसलिए यह विषय अत्यंत गूढ़ है और अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था स्कूलों
में नहीं हुई कि हर बच्चे का अलग-अलग अध्ययन किया जा सके। फिर भी हिंसा
किसी भी तरह की बच्चों के साथ हो उसे उचित तो नहीं कहा जा सकता। सरकार को
हर समस्या का हल कानून में ही दिखायी पड़ता है। वह समझती है कि कानून बना
कर समाज को सुधारा जा सकता है परंतु इतने सारे कानूनों के बावजूद क्या हल
निकला? जो बच्चों के प्रति हिंसा रोकने का कानून बना कर निकल जाएगा।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 21.07.2010
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मंगलवार, 20 जुलाई 2010

चिदंबरम और रमन सिंह की नक्सल समस्या से मुक्ति के प्रयासों को सफल करना अधिकारियों का ही काम

चिदंबरम जब गृहमंत्री बने थे तब उन्होंने अपनी निजी सुरक्षा की आवश्यकता
महसूस नहीं की थी लेकिन अब वैसी स्थिति रही नहीं। आज नक्सलियों को वे
अपने सबसे बड़े दुश्मन नजर आ रहे हैं। प्रथम श्रेणी के नक्सली नेता
राजकुमार उर्फ आजाद के आंध्र में पुलिस के द्वारा मार गिराए जाने के बाद
नक्सलियों को चिदंबरम दुश्मन नं. एक दिखायी दे रहे हैं। समाचार पत्रों
में छपी खबरों के अनुसार पुलिस ने आजाद का एनकाउंटर चिदंबरम की जानकारी
में किया। कहा तो यह भी जाता है कि स्वामी अग्निमेश के साथ शांति वार्ता
की चर्चा आजाद ही कर रहे है। अग्निमेश का भी वक्तव्य आया है कि आजाद के
मारे जाने से शांति वार्ता को धक्का लगा है। नक्सली कह भी रहे हैं कि वे
आजाद की मौत का बदला लेकर रहेंगे। आजाद की मौत के बाद नक्सलियों की हिंसक
गतिविधियां बढ़ी हैं। फिर भी सशस्त्र बलों के सिपाहियों या निर्दोष
नागरिकों को मारने से तो आजाद की मौत का बदला पूरा नहीं होता। इसलिए
नक्सली किसी बड़े व्यक्ति की हत्या कर बदला भंजाना चाहते हैं।
खुफिया सूचना के अनुसार गृहमंत्रीचिदंबरम और गृह सचिव जी.के. पिल्लई
नक्सलियों की प्राथमिकता सूची में हैं तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं।
कभी भी किसी गृहमंत्री ने नक्सलियों के विरुद्ध ऐसा आक्रामक रुख नहीं
अपनाया जैसा रुख चिदंबरम ने अपनाया। दरअसल पहली बार किसी गृहमंत्री ने
समझा कि नक्सल समस्या देश के लिए कितनी खतरनाक है। जब गृहमंत्री ने
समस्या को समझा तो उनके कर्तव्य निर्वाह के लिए आवश्यक हो गया कि वे इस
समस्या से देश को मुक्त कराएं। कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति समस्या को सामने
देखकर आंख तो मूंद नहीं सकता और चिदंबरम ने आंखें नहीं मूंदी बल्कि
राजनीति से परे हटकर राज्य की समस्या कह कर पल्लू झाडऩे का भी प्रयास
नहीं किया। नक्सल प्रभावित अधिकांश राज्यों में कांग्रेस का शासन नहीं
है। फिर भी हर राज्य सरकार को नक्सलियों से लडऩे के लिए पर्याप्त संसाधन
और सुझाव देने में चिदंबरम पीछे नहीं रहे। एक तरफ से चिदंबरम केंद्र
सरकार के बड़े और सक्रिय मंत्री के रुप में उभरे।

जब शिवराज पाटिल को हटा कर चिदंबरम को गृहमंत्री बनाया गया तब वे वित्त
मंत्री थे और अपने काम से पूरी तरह संतुष्ट थे। मुंबई में आतंकवादी हमले
के बाद जब केंद्र सरकार को लग गया कि संकट काल में शिवराज पाटिल एक अच्छे
गृहमंत्री साबित नहीं हुए तब तलाश की गयी कि गृहमंत्री का ओहदा किसे
सौंपा जाए? तब पूरे मंत्रिमंडल में इस पद के लिए चिंदबरम ही सबसे योग्य
व्यक्ति दिखायी दिए। अनमने से चिदंबरम ने गृहमंत्री पद को स्वीकार किया
लेकिन जब स्वीकार कर लिया तो फिर अपनी जिम्मेदारी के निर्वहन में किसी
तरह की कोताही नहीं की। उनके गृहमंत्री बनने के बाद आयातित आतंकवाद में
निश्चित ही भारी कमी आयी। छुटपुट घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो आयातित
आतंकवाद जो देशभर में कहीं भी कभी भी कुछ भी घटित करने में सक्षम था, उस
पर लगाम तो निश्चित रुप से लगा।

यह सही है कि आयातित आतंकवाद ने काश्मीर में फिर से सिर उठाया है लेकिन
इसके लिए गृह मंत्रालय को तो दोषी नहीं ठहराया जा सकता। राज्य में चुनी
हुई सरकार है और उसकी असफलता का ठीकरा चिदंबरम के सर फोडऩा नाइंसाफी
होगी। क्योंकि काश्मीर के विषय में अकेले निर्णय गृह मंत्रालय नहीं लेता
और वहां की राजनीति अपना खेल खेलती है। जहां तक नक्सली समस्या का प्रश्न
हैं तो इसके लिए बहुत कुछ किया है। 4 राज्यों की एकीकृत योजना को स्वीकृत
कराना भी उनकी बड़ी उपलब्धि है। अधिकारियों का अहम आपस में न टकराए और वे
भी चिदंबरम और डॉ. रमन सिंह की तरह नक्सल समस्या से मुक्त कराने के ही
टारगेट पर ध्यान केंद्रित करें तो समस्या से मुक्ति कठिन नहीं हैं।
सशस्त्र बलों को नक्सलियों से निपटने के लिए तैयार करने के लिए भले ही
समय की जरुरत हो लेकिन अधिकारियों का अहम टकराता रहा तो लाभ नक्सलियों को
ही होगा।

उच्च पदस्थ अधिकारी यदि बोलने से अपने को रोक सकें तो वे इस मुहिम में
लगे हजारों जवानों का भला ही करेंगे। यह मेरे जवान और वह तुम्हारे जवान
जैसा बंटवारा कम से कम अधिकारियों को तो शोभा नहीं देता। राजनीतिज्ञ इस
तरह का खेल खेलते हैं और समस्याओं को उलझाते हैं तो यह समझ में भी आने
वाली बात है। क्योंकि उनके मन में कहीं न कहीं कोई चोर छुपा रहता है।
दूसरों की सफलता उन्हें ईष्र्यालु बनाती है। तब तो और जब उनके शासनकाल
में समस्या को फलने-फूलने का मौका मिला। वे तो शांत जल में पत्थर फेंक
कर लहरें उठाने को ही राजनीति समझते हैं और इन उठी लहरों में ही अपने लिए
पद प्रतिष्ठा की जगह तलाश करते हैं। राजनीतिज्ञों और अधिकारियों में तो
अंतर होना चाहिए। दोनों की चयन प्रक्रिया और योग्यता भी अलग है।
ईमानदारी से देखा जाए तो राजनेताओं से ज्यादा जिम्मेदारी अधिकारियों की
हैं। जिस पद पर वे बैठते हैं, उसके अधिकार और कर्तव्य स्पष्ट हैं। सारा
शासन प्रशासन इनके ही हस्ताक्षरों से संचालित होता है। नेता तो आते हैं
और चले जाते हैं लेकिन अधिकारियों की कुर्सी भले ही बदले वे ज्यादा
स्थायी होते हैं। जनता ने जिसे चुनकर शासन करने का अधिकार सौंपा उसकी
नीतियों का ईमानदारी से क्रियान्वयन हो इसकी जिम्मेदारी अधिकारियों की है
लेकिन जब ये अधिकारी आपस में उलझ कर समस्या से मुक्त कराने के बदले खुद
उलझते हैं तो अपनी योग्यता पर ही प्रश्रचिन्ह लगाते हैं।

जब चिदंबरम जैसा गृहमंत्री हो और डॉ. रमन सिंह जैसा मुख्यमंत्री तब
अधिकारियों को आपस में उलझ कर समस्याओं को उलझाने का काम तो और नहीं करना
चाहिए। क्या उन्हें समझ में नहीं आता कि उनके अहम भले ही उन्हें लगे कि
संतुष्ट हो रहे हैं लेकिन फायदा तो उन्हें होता है जो असल में समस्या की
जड़ है। आज चिदंबरम और डॉ. रमन सिंह नक्सलियों की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर
हैं। ये दोनों अच्छी तरह से जानते हैं कि नक्सलियों के विरुद्ध मुहिम चला
कर ये अपनी जान जोखिम में डाल रहे है। जब ऐसा नेतृत्व हो तो ऐसी कोई बात
नहीं होना चाहिए कि समस्या पैदा करने वालों का मनोबल बढ़े। इससे तो
अधिनस्थों का ही मनोबल कमजोर होता है। आपस में उलझते अपने अधिकारियों को
देख कर इनके मन में कैसे विचार उत्पन्न होते होंगे। तब और जब एक पद पर
बैठा व्यक्ति दूसरे पद पर भी कभी भी बिठाया जा सकता हो। चाहे वह केंद्रीय
बल हो या राज्य बल, हैं तो दोनों ही एक ही उद्देश्य के लिए। सब मिलकर और
शहीदों की कुर्बानी को याद करते हुए मिलकर समस्या से देश को मुक्त कराने
का प्रयास करेंगे तो असंभव कुछ भी नहीं है। सोचना इन पढ़े लिखे सज्जनों
को ही है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 20.07.2010
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सोमवार, 19 जुलाई 2010

कांग्रेस यदि सत्ता में आने का वास्तव में इरादा रखती है तो उसे मोहम्मद अकबर को प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहिए

कांग्रेस में संगठन चुनाव की गतिविधियां चल रही हैं। नाम भले ही चुनाव हो
लेकिन वोट डालकर चुनाव तो नहीं कराया जा रहा है। यह बात जरुर है कि जिसकी
जितनी चल रही है, वह उतने अपने कार्यकर्ताओं को पदाधिकारी बनाने की कोशिश
में लगा हैं। नाराजगी भी अभिव्यक्त हो रही है और खास कर वे लोग अंदर ही
अंदर ज्यादा नाराज हैं जिनकी एक समय कांग्रेस में एकतरफा चलती थी।
कार्यकर्ता अच्छी तरह से जानते हैं कि अंतत: पार्टी में चलेगी, किसकी?
बीआरओ और डीआरओ नियुक्ति में एक तरफा चरणदास महंत और मोतीलाल वोरा गुट की
चली है। इसलिए लोग उम्मीद भी कर रहे हैं कि प्रदेश अध्यक्ष जो भी बनेगा,
वह इनकी ही पसंद का व्यक्ति होगा? पसंद का व्यक्ति होना अलग बात है और
ऐसे व्यक्ति को प्रदेश अध्यक्ष बनाना अलग बात है जो दो चुनाव में निरंतर
हारती पार्टी को सत्तारुढ़ पार्टी के मुकाबले में खड़ा कर सके।

महत्वाकांक्षियों की कमी तो है नहीं, पार्टी में। महत्वाकांक्षा रखने
वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि खुदा न खास्ता प्रदेश अध्यक्ष का पद
उन्हें मिल गया तो वे रायपुर से लेकर दिल्ली तक स्थापित हो जाएंगे।
पार्टी का वे छत्तीसगढ़ में कितना भला करेंगे, यह अलग बात है। मोतीलाल
वोरा छत्तीसगढ़ के ऐसे नेता है जो पूरी तरह से दिल्ली में स्थापित होने
के साथ सोनिया गांधी के पूरी तरह से विश्वसनीय व्यक्ति है। सोनिया गांधी
ने अपने कितने ही विश्वसनीय व्यक्तियों को संगठन से हटा कर सत्ता में
भेजा लेकिन मोतीलाल वोरा को उन्होंने संगठन के काम से हटाना उचित नहीं
समझा। पार्टी का कोषाध्यक्ष जैसा पद संभाले मोतीलाल वोरा का पार्टी के
प्रति विश्वसनीयता का लंबा इतिहास है। वे प्रदेश कांग्रेस कमेटी के
अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल जैसे कई पदों को
सुशोभित कर चुके हैं। छत्तीसगढ़ में विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता
रविन्द्र चौबे हैं तो प्रदेश अध्यक्ष धनेन्द्र साहू। दोनों की नियुक्ति
में मोतीलाल वोरा का वरदहस्त रहा है।

यह बात दूसरी है कि धनेन्द्र साहू के नेतृत्व में चुनाव लड़कर कांग्रेस
सत्ता की आसंदी हासिल नहीं कर सकी। स्वयं धनेन्द्र साहू विधानसभा का
चुनाव हार गए। फिर सोच का दायरा अति संकीर्ण हैं। इसलिए प्रदेश अध्यक्ष
के बावजूद वे प्रदेश स्तर पर अपनी ऐसी कोई छवि निर्मित करने में सफल नहीं
हुए जिससे उन्हें छत्तीसगढ़ का बड़ा कांग्रेसी नेता माना जाए। जहां तक
रविन्द्र चौबे का प्रश्र है तो प्रतिपक्ष का नेता होने के बावजूद वे भी
अपनी छवि विपक्ष के नेता की अभी तक तो नहीं बना पाएं हैं कि लोग कह सके
कि इनके नेतृत्व में कांग्रेस निश्चित रुप से फलेगी-फूलेगी। प्रदेश स्तर
के पद के अनुरुप नेता होने के बावजूद अवसर मिलने पर भी जो लोग अपना कद
ऊंचा नहीं कर पाए वे पार्टी को जनता के मन में पुन: स्थापित कर सकते हैं,
इसमें संदेह ही है।

आज तो स्थिति यही है कि सत्तारुढ़ दल से जनता नाराज हो तभी कांग्रेस के
हाथ में सत्ता सौंपने के विषय में जनता सोच सकती है। जिसके लक्षण दूर-दूर
तक दिखायी नहीं देते। इसलिए कांग्रेस के लिए जरुरी है कि वह प्रदेश
अध्यक्ष के पद के लिए ऐसे व्यक्ति की तलाश करे जो वास्तव में पार्टी की
छवि को जनता के मन में पुन: स्थापित कर सके। जातिवाद और सांप्रदायिकता की
सोच से परे योग्य व्यक्ति को सभी पसंद करते हैं। महापौर के चुनाव में ही
जिस तरह से नए चेहरों को पार्टी ने चुनाव मैदान में उतारा, उनकी छवि से
प्रभावित होकर लोगों ने उन्हें चुना। पार्टी के पुराने नेताओं पर अब जनता
का वैसा विश्वास रहा नहीं बल्कि पार्टी के प्रति जनता के झुकाव के मामले
में ये अड़ंगा ही है। ये जहां-जहां प्रचार करने जाते हैं वहीं पार्टी के
प्रत्याशियों को नुकसान ही उठाना पड़ता है।

कांग्रेस के विधायक गुरुमुख सिंह होरा, कुलदीप जुनेजा, भजन सिंह
निरंकारी, मोहम्मद अकबर, बदरुद्दीन कुरैशी ऐसे प्रत्याशी रहे हैं जो बिना
जात-पांत के प्रभाव के जीत कर आए हैं। मोहम्मद अकबर का तो विधानसभा
क्षेत्र परिसीमन में विलोपित हो गया। इसके बावजूद वे नए क्षेत्र से जीत
कर आए। जाति, धर्म के आधार पर मतदाता वोट डालता तो इन्हें जीतना नहीं
चाहिए था। जनता में अपनी निर्विवाद छवि और जन आकांक्षाओं पर खरा उतरने
की क्षमता के कारण ये चुनाव जीत कर आए। ये सभी अल्पसंख्यक समुदायों से
आते हैं। ये सब जीत गए तो इसी से कांग्रेस आलाकमान को समझना चाहिए कि
पार्टी को जनता के बीच स्थापित करने की क्षमता किसकी है। सभी अच्छी तरह
से जानते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष और प्रतिपक्ष का नेता होने का मतलब
भविष्य में पार्टी को सत्ता का अवसर मिला तो मुख्यमंत्री भी बनाया जा
सकता है। फिर पार्टी की सोच, नीति और छवि के भी अनुरुप ये नेता है।
मोहम्मद अकबर को यह पद सौंपा जाता है तो ये पार्टी को पुन: जनता के बीच
स्थापित करने की क्षमता रखते हैं। छात्रसंघ की राजनीति से ये राजनीति में
हैं। राजनीति की बारीकियों को अच्छी तरह से समझते हैं। युवा हैं और छवि
उज्जवल है। भाजपा से किसी भी तरह की सांठगांठ की भी इनसे उम्मीद नहीं की
जा सकती। आज भी विधानसभा में सबसे ज्यादा सक्रिय विपक्षी नेता के रुप में
ये स्थापित हैं। नई पीढ़ी के लिए ये उदाहरण स्वरुप हैं। जहां तक शिक्षा
का प्रश्र है तो ये स्नातकोत्तर हैं। पार्टी इन्हें अवसर दे तो पार्टी का
भला हो सकता है।

लेकिन पार्टी इसकी हिम्मत करेगी क्या? कर सकती है तो अपना भला कर सकती
है। नहीं तो फिर इसकी उसकी सलाह पर किसी व्यक्ति की प्रदेश अध्यक्ष पद पर
नियुक्ति व्यक्ति विशेष को संतुष्ट कर सकती है। विपक्ष की नेतागिरी तो
एक अवसर होता है। पार्टी 6 वर्षों से बहुतों को अवसर दे चुकी। वरिष्ठ
की सलाह पर काम चलाऊ व्यक्तियों की नियुक्ति कर भी देख चुकी। प्रदेश
अध्यक्ष ऐसा होना चाहिए जो कि विधानसभा के अंदर और बाहर दोनों जगह पर
जनता को अपने साथ खड़ा दिखायी दे। पुराने नामचीन नेता अब ऐसा प्रभाव नहीं
रखते। उनकी सोच का दायरा भी सीमित है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के हाथ में
सत्ता लौट कर न आए, यह सोच यदि आलाकमान की है तो वह फिर वरिष्ठ नेताओं के
समर्थकों को पद देती रहे और इंतजार करती रहे कि बिल्ली के भाग्य से कब
छींका टूटे।

बिल्ली भले ही ख्वाब देखे लेकिन हकीकत में ऐसा हमेशा संभव नहीं होता।
भाजपा का जिस तरह से छत्तीसगढ़ में वर्चस्व बढ़ा है और डॉ. रमन सिंह की
लोकप्रियता आसमान में हैं, इस हालत में कांग्रेस के लिए वैसे भी बहुत
संभावना नहीं हैं। राजनीति में जो संभावना न भी हो तब भी संभावनाओं की
तलाश कर सके, वही सफल हो सकता है। मोहम्मद अकबर ऐसे ही नेता हैं। पार्टी
चाहे तो उन्हें अवसर देकर सत्ता में लौटने के अवसर तलाश सकती है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 19.07.2010
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राजधानी का स्वप्न नया रायपुर के रुप में आकार ले रहा है

छत्तीसगढ़ राज्य को अस्तित्व में आए 10 वर्ष पूरे होने जा रहे है।
छत्तीसगढ़ राज्य बना तो रायपुर को राजधानी बनाया गया। राजधानी के अनुरुप
कोई संरचना तो रायपुर के पास थी, नहीं। फिर भी पुराने शहर में राजधानी ने
जन्म लिया और सभी को पुराने शहर ने समाहित कर लिया। प्रारंभ में ही नया
राजधानी क्षेत्र विकसित करने के संबंध में सोच यही थी कि पहले छत्तीसगढ़
की असल समस्याओं से मुक्ति के लिए धन व्यय किया जाए और नया राजधानी
क्षेत्र बनाने के विषय में न सोचा जाए। क्योंकि नया राजधानी क्षेत्र
विकसित करने के लिए केंद्र सरकार कोई अलग से धन राशि तो दे नहीं रही थी।
पुराना डी. के. अस्पताल मंत्रालय बना तो कलेक्टर का बंगला मुख्यमंत्री
निवास। सर्किट हाउस को राजभवन बनाया गया। जैसे तैसे मंत्री से लेकर
वरिष्ठ अधिकारी पुराने शहर में ही समायोजित हो गए।
लेकिन राजधानी का जो स्वरुप अन्यत्र पाया जाता है, उसकी कमी तो छत्तीसगढ़
को खलती रही। पिछले 9 वर्षों में विकास के वे काम हुए जो कभी मध्यप्रदेश
में रहते छत्तीसगढ़ में संभव नहीं था। विकास के लिए खनिज संपदा से संपन्न
छत्तीसगढ़ में विकास के लिए आवश्यक विद्युत की भी कोई कमी नहीं है। किसान
संपन्न हुआ। गरीबों को 2 रु. किलो में चांवल मिलने लगा। शिक्षा के
केंद्रों का विकास हुआ तो स्वास्थ्य सुविधाए भी बढ़ी। इंजीनियरिंग और
मेडिकल कॉलेजों की संख्या में वृद्धि हुई। राजग सरकार केंद्र में रहती तो
एम्स भी स्थापित हो चुका होता। रोटी रोजगार के अवसर बढ़े तो विकास की
किरण छत्तीसगढ़ के हर क्षेत्र में दिखायी देने लगी। नक्सल प्रभावित
क्षेत्र अवश्य वह लाभ विकास का नक्सलियों के कारण नहीं उठा पाए लेकिन
नक्सली समस्या से जूझने में डॉ. रमन सिंह ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। आज
उन्हीं के प्रयासों का फल है कि नक्सल समस्या की असलियत से केंद्र सरकार
परिचित हुई। नहीं तो अंदर ही अंदर दीमक की तरह हिंसा और आतंक का कारोबार
किस तरह फैल रहा है, इसकी भनक भी नहीं थी।

समय कितना भी लगे लेकिन डॉ. रमन सिंह कृत संकल्पित हैं कि वे प्रदेश को
नक्सल समस्या से मुक्त करा कर ही रहेंगे। जिस दृढ़ इच्छा शक्ति से
नक्सलियों के विरुद्ध छत्तीसगढ़ सरकार खड़ी है, उसी का परिणाम है कि आज
केंद्र एकीकृत योजना के लिए तैयार हुआ। जिस छत्तीसगढ़ का नाम देश में
अंजाने की तरह था, वह छत्तीसगढ़ आज सुर्खियों में है। डॉ. रमन सिंह की
सरकार सिर्फ नक्सलियों से भिडऩे का ही काम नहीं कर रही है बल्कि विकास की
नई कहानियां भी लिख रही है। आज देश भर के सभी बड़े उद्योगपतियों की नजर
छत्तीसगढ़ पर है। टाटा और एस्सार तो बस्तर में स्टील प्लांट भी लगाना
चाहते हैं। ये स्टील प्लांट लग गए तो बस्तर का कायाकल्प हो सकता है।
बस्तर में तो खदान ही लौह अयस्क के नहीं है सिर्फ बल्कि लौह अयस्क से
भरपूर पहाड़ भी खड़े हैं। वन संपदा से संपन्न छत्तीसगढ़ को आज भी हरियाली
की चिंता है और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह हरियर छत्तीसगढ़ की कल्पना को
साकार करने के लिए कृत संकल्पित दिखायी दे रहे हैं।

राजधानी के अनुरुप नया रायपुर विकसित किया जा रहा है। एक आधुनिक शहर।
अनुमान है कि अगले वर्ष मार्च तक पुराने शहर से मंत्रालय उठ कर नया
रायपुर चला जाएगा लेकिन नया रायपुर बिना हरियाली के हो, यह डॉ. रमन सिंह
को उचित नहीं लगता। इसीलिए कल एक लाख पौधे नया रायपुर में रोपित किए गए।
वर्ष भर में यह पौधे बड़े-बड़े वृक्षों की शक्ल ले लेंगे। डॉ. रमन सिंह
की कल्पना का नया रायपुर देश के किसी भी राज्य की राजधानी से उन्नीस नहीं
होगा। उम्मीद की जा रही है कि नया रायपुर में 2030 तक 5 लाख से अधिक लोग
निवास करेंगे। इसे दृष्टि में रखते हुए नया रायपुर विकसित किया जा रहा
है। कल ही मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने घोषणा की कि 135 एकड़ में झील का
निर्माण किया जाएगा तो 400 एकड़ में वन विकसित किया जाएगा। स्टेडियम के
पास खेल ग्राम विकसित किया जाएगा। स्कूल, कॉलेज, मेडिकल कॉलेज, कैंसर
अस्पताल सभी नया रायपुर में होंगे। जब यह नया शहर विकसित हो जाएगा तब
छत्तीसगढ़ के हर व्यक्ति को अपनी राजधानी पर गर्व होगा।

10 वर्ष छत्तीसगढ़ को बने होने जा रहे हैं। समय व्यतीत हो जाता है और पता
ही नहीं चलता। छत्तीसगढ़ का वक्त बदल रहा है। रायपुर तो वैसे भी
व्यवसायिक राजधानी रही है और व्यवसाय के लिए उड़ीसा के भी बड़े क्षेत्र
को कवर करती है। पुराने शहर का भी विस्तार जिस तरह से नया रायपुर की तरफ
हो रहा है उससे बहुत जल्द वह दिन भी आएगा जब पुराने रायपुर और नए रायपुर
की सीमा एक हो जाएगी। पिछले 10 वर्षों में ही रायपुर का विस्तार जिस तरह
से हुआ है और हो रहा हैं उससे शहर चारों तरफ विकसित हो रहा है। रायपुर
विकास प्राधिकरण कमल विहार योजना, गृह निर्माण मंडल की बोरियाकला में
बड़ी कॉलोनी की योजना, अभनपुर रोड पर विकसित होता थोक बाजार विस्तार और
विकास की नई कहानियां लिख रहा है।

राजधानी के काम से आने वालों को बिना पुराने शहर में आए ही नया रायपुर
में प्रवेश के मार्ग बन गए हैं। जो कहा जाता है कि राजधानी बनने के कारण
रायपुर में आवागमन बढ़ा है और इससे शहर के निवासियों को तकलीफों का सामना
करना पड़ रहा है, उससे भी नया रायपुर में राजधानी जाते ही छुटकारा मिल
जाएगा। दरअसल छत्तीसगढ़ में विकास की नई इबारत लिखी जा रही है। विध्वंस
और विकास का प्राकृतिक स्वरुप स्पष्ट दिखायी देता है। एक तरफ विध्वंसक
के रुप में नक्सली सक्रिय हैं तो दूसरी तरफ जनता के द्वारा चुनी हुई
सरकार अपने नागरिकों को विकास का संदेश दे रही है। फिर यह सरकार तो
नक्सलियों से भी छत्तीसगढ़ को मुक्त कराने का संकल्प लेकर शासन कर रही
हैं। विधानसभा चुनाव के समय डॉ. रमन सिंह ने भी स्पष्ट स्वीकार किया था
कि नक्सलियों से क्षेत्र को मुक्त न करा पाने की पीड़ा उनके मन में हैं।

लुंज-पुंज पुलिस व्यवस्था के साथ शासन करने का अधिकार डॉ. रमन सिंह को
मिला था। उनके 6 वर्ष के शासनकाल में पुलिस व्यवस्था में सुधार तो दिखायी
देता ही है। स्वाभाविक रुप से अपराध का ग्राफ विकास के साथ बढ़ा लेकिन
अपराधियों को पकडऩे का भी रिकार्ड तो पुलिस के खाते में दर्ज है। कम
प्रशासनिक अधिकारियों के साथ छत्तीसगढ़ राज्य बना। सरकार को मजबूरी में
वन विभाग के अधिकारियों से काम चलाना पड़ रहा है। प्रशासनिक कमजोरियां तो
सरकार में दिखायी पड़ती हैं लेकिन अब उसमें धीरे-धीरे कसावट भी आ रही है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली का बेहतर प्रदर्शन कर सरकार ने दूसरे राज्यों को
अपनी तरफ आकर्षित किया है। स्वास्थ्य सेवाओं में भी निरंतर सुधार हो रहा
है। कोई गरीब बिना उपचार के न रहे इसके लिए भी सरकार ने पूरा बंदोबस्त
किया है। सरकार की उपलब्धि और सफलता का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि
केंद्र के मंत्री भी सरकार की तारीफ करते हैं। जबकि केंद्र में सरकार
कांग्रेस की है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 18.07.2010
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रविवार, 18 जुलाई 2010

पाकिस्तान से किसी भी तरह की चर्चा का कोई औचित्य तो दिखायी नहीं देता

पिछले 63 वर्षों का इतिहास तो कहीं से भी यह नहीं कहता कि पाकिस्तान की
नीयत भारत के साथ भाईचारे के साथ रहने की है। स्वतंत्रता के बाद ही जिस
तरह से काश्मीर के एक तिहाई हिस्से पर कबायलियों के द्वारा पाकिस्तान ने
कब्जा किया, उससे ही उसकी मंशा स्पष्ट हो गयी। फिर बार-बार युद्धों का
इतिहास तो सबके सामने है। ताशकंद समझौता, शिमला समझौता किसी पर भी तो खरा
उतरकर पाकिस्तान ने नहीं दिखाया। 63 वर्षों से भारत के हुक्मरान शांति
और अहिंसा की बात कर रहे हैं लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरानों ने ऐसी मंशा
वास्तव में प्रगट नहीं की। कहते हैं कि दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक
कर पीता है लेकिन पता नहीं भारत के हुक्मरान कोई सबक क्यों नहीं लेते?
पाकिस्तान भारत के साथ समझौते के लिए तभी तैयार हुआ जब उसे युद्ध में हार
का मुख देखना पड़ा। हो सकता है कि हार की कसक उसे पीडि़त करती हो लेकिन
इसका यह अर्थ तो नहीं होता कि हम बार-बार पाकिस्तान से चर्चा करने के लिए
उतावले हों।

अंतराष्ट्रीय राजनीति में सिर्फ आदर्शवाद ही काम नहीं आता। तब तो और
नहीं जब सामने वाले की मंशा में खोट हो। चीन के साथ भारत के प्रथम
प्रधानमंत्री ने पंचशील के सिद्धांत पर दोस्ती करनी और निभानी चाही लेकिन
वे भूल गए कि वे तथागत बुद्ध के अनुयायियों से दोस्ती नहीं कर रहे हैं
बल्कि दोस्त के रुप में खड़ा चीन माओवाद पर विश्वास करता है। माओवाद कोई
अध्यात्मवाद नहीं है। वरन माओवाद किसी भी तरह के अध्यात्मवाद पर विश्वास
नहीं करता। हिंदी चीनी भाई-भाई का नारा लगाते हुए चीन ने भारत को युद्ध
में न केवल शिकस्त दी बल्कि लाखों वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर कब्जा कर
लिया। आज भी उसकी कुदृष्टि अरुणांचल पर है। हम संबंध सुधारने के लिए हर
तरह की सुविधा चीन को दे रहे हैं। चीन के लिए तो हमने अपने बाजार को भी
खुला छोड़ दिया है।

यही चीन काश्मीर के एक हिस्से को तोहफे के तौर पर पाकिस्तान से प्राप्त
कर चुका है। पाकिस्तान को परमाणु शक्ति बनाने में भी चीन की अहम भूमिका
है। अब वह पाकिस्तान से भारत अमेरिका की तरह परमाणु संधि करने जा रहा है।
दो परमाणु विद्युत घर स्थापित करने जा रहा है। म्यांमार, बंगलादेश, नेपाल
और श्रीलंका में चीन अपने प्रभाव क्षेत्र को विकसित कर रहा है। सब कुछ
हुक्मरानों की नजरों के सामने हो रहा है। हम क्या कर रहे हैं? हम बातचीत
कर रहे हैं। हमारे विदेश मंत्री चर्चा करने पाकिस्तान जाते हैं और
पाकिस्तानी फौज जम्मू सेक्टर में फायरिंग करती है। हमारा एक मेजर और 8
जवान घायल होते हैं। सीज फायर का खुला उल्लंघन कर आतंकवादियों के भारत
प्रवेश के लिए पाकिस्तानी सेना फायरिंग कर ध्यान बंटाने का काम करती है।
काश्मीर में पथराव सशस्त्र बलों पर करने के लिए युवकों को धन देकर खरीदा
जाता है। काश्मीर में फिर से फौज भेजना पड़ता है। कितने ही शहरों में
कफ्र्यू लगाना पड़ता है और पाकिस्तान कहता है कि काश्मीर समस्या पर चर्चा
करो। काश्मीर से पाकिस्तान का क्या लेना-देना? यह बात भारतवासियों के मन
में एकदम साफ है कि काश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है। इस देश में ही नारे
लगते रहे हैं कि दूध मांगोगे तो खीर देंगे लेकिन काश्मीर मांगेगे तो चीर
देंगे। हमारी कमजोरियों के कारण ही काश्मीर को पाकिस्तान मुद्दा बनाए हुए
हैं। चीन तिब्बत को हजम कर गया। जो चाहे वह करता है। भारत ने भी मान्यता
दे दी कि तिब्बत चीन का हिस्सा है। जबकि दलाई लामा भारत में शरण लिए हुए
हैं। कैलाश मानसरोवर जिसका वर्णन हमारे पुराणों में हजारों वर्षों से
हैं, वह भारत में नहीं तिब्बत में है और तिब्बत चीन में है। हमारी तो
कहीं से कोई सुगबुगाहट भी नहीं दिखायी देती कि हम कह सकें कि कैलाश
मानसरोवर हमारा है।

बीच में तो यह बात भी सुनने में आयी थी कि पाकिस्तान के कब्जे वाले
काश्मीर को पाकिस्तान का मानकर पाकिस्तान से समझौता कर लिया जाए लेकिन
बात बनी नहीं। पाकिस्तान आतंकवादियों को खुलेआम शह देता है। यह बात विश्व
बिरादरी भी जानती है। अमेरिका में पकड़े गए हेडली के बयान के बाद तो
स्थिति और स्पष्ट हो गयी है कि आईएसआई का पूरा सहयोग आतंकवादी संगठनों
को है। मुंबई हमले का मुख्य आरोपी खुलेआम भारत के विरुद्ध जेहाद की बात
करता है और खुल्ला घूम रहा है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री भारत के
गृहसचिव के बयान की उससे तुलना करते हैं। जबकि गृह सचिव ने जो कहा, वह
तथ्यों पर आधारित है और हेडली के बयान से संबंध रखता है। प्रेस कांफ्रेंस
में भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्री चर्चा उपरांत कहते हैं कि खुली और
ईमानदार चर्चा हुई। फिर आरोप प्रत्यारोप प्रारंभ हो जाता है। चर्चा का
परिणाम ढाक के तीन पात। हासिल आया शून्य। जब भारत के हुक्मरान पर्याप्त
शक्तिशाली थे और अपनी शक्ति के बल पर पाकिस्तान को समझौता करने के लिए
बाध्य कर चुके तब पाकिस्तान समझौते पर खरा नहीं उतरा तो अब उससे वार्ता
का क्या औचित्य है?

एक समाचार पत्र में खबर छपी है कि श्रीलंका के लिट्टे नक्सलियों के साथ
मिल गए हैं और उन्हें प्रशिक्षित कर रहे हैं। यदि यह समाचार सत्य है तो
इसकी गंभीरता को हल्के से नहीं लिया जा सकता। श्रीलंका तो लिट्टे की
समस्या से मुक्त हो गया लेकिन वहां से पलायन कर लिट्टे के बचे हुए लोग
नक्सलियों की शरण में हैं तो सशस्त्र बलों के बस की बात नहीं कि वे
नक्सलियों का मुकाबला कर सकें। आखिर लिट्टे से मुक्ति के लिए श्रीलंका को
अपनी पूरी फौजी ताकत झोंकनी पड़ी थी। नक्सलियों के हमले बढ़ रहे हैं। और
कितना नुकसान करने के बाद फौज के हवाले इस समस्या को किया जाएगा। काश्मीर
से फौज हटाने के बाद जब स्थिति सशस्त्र बलों से नहीं संभली तब फौज को फिर
बुलाना पड़ा।

यह बात तो एकदम साफ है कि पड़ोसियों की नीयत साफ है। वे भारत को
शांतिपूर्वक फलता-फूलता देखना पसंद नहीं करते। अंदर से और बाहर से दोनों
तरफ से कमजोर करना चाहते हैं और आंख खोलकर देखें तो स्पष्ट दिखायी
पड़ेगा कि स्थिति से निपटना अब एकदम जरुरी हो गया है। कठोर कदम उठाने के
लिए दृढ़ इच्छा शक्ति की जरुरत है। पाकिस्तान से चर्चा में समय बर्बाद
करने के बदले अपनी तैयारियों की जरुरत है। नेतृत्व को लाल बहादुर
शास्त्री और इंदिरा गांधी की तरह दिखायी देने की जरुरत है। महंगाई से
पीडि़त जनता को नेतृत्व की कमजोरी का आभास तो हो रहा है। क्योंकि महंगाई
के मुद्दे पर ही सरकार जनता को राहत देने की स्थिति में नहीं है।
नक्सलियों की हिंसा और पाकिस्तान जैसे देश का आंख तरेरना जनता को चिंतित
तो करता है। पाकिस्तान से किसी भी तरह की चर्चा का कोई औचित्य तो नहीं
दिखायी पड़ता।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 17.07.2010