यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

गांधी जी आज भी यही कहेंगे कि सबको सन्मति दे भगवान

26 जनवरी को काश्मीर में श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने के भारतीय जनता युवा मोर्चा के घोषित कार्यक्रम को असफल करने के प्रयास में जम्मू काश्मीर की सरकार के साथ केंद्र सरकार भी सम्मिलित हो गयी है। कल रायपुर से जम्मू के लिए विशेष आरक्षित ट्रेन को गृह मंत्रालय ने रद्द करवा दिया। इस ट्रेन को आरक्षित करने के लिए बाकायदा भाजयुमो ने 18 लाख रुपए रेलवे के मांगने पर पटाए थे। यदि रेल सुविधा नहीं दी जानी थी तो धन लेकर ट्रेन आरक्षित करने की जरुरत ही क्या थी? ऐसा तो नहीं था कि रेल और गृह मंत्रालय को जानकारी नहीं थी कि ट्रेन किस उद्देश्य से आरक्षित करवायी गई है। इस तरह की रणनीति कम से कम एक साफ सुथरी सरकार की अच्छी रणनीति नहीं समझी जा सकती। भाजयुमो को भी उम्मीद नहीं थी कि रेल विभाग इस तरह से धन लेने के बावजूद ट्रेन चलाने से इंकार कर देगा। इससे सरकार के संबंध में कोई अच्छा संदेश तो जनता के बीच नहीं गया।
बेंगलुरु से चलने वाली ट्रेन को भी महाराष्टï्र से रात के अंधेरे में वापस बेंगलुरु भेज देना, सरकार की कमजोरी का ही द्योतक है। जब श्रीनगर यात्री नींद में हों तब उन्हें धोखा देकर ट्रेन को वापस कर देना केंद्र सरकार की छबि खराब करने वाला काम ही समझा जाएगा। इससे कांग्रेसी सरकार यह न सोचे कि उसने कोई बड़ा तीर मार लिया है। श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने का कार्यक्रम निखालिस राजनीति से संबंधित है और लाल चौक पर भाजयुमो झंडा फहरा सके या न फहरा सके, उसने राजनैतिक संदेश तो देश के लोगों को दे ही दिया। भाजपा भाजयुमो के द्वारा यह संदेश भी देने में तो सफल हो ही गयी कि केंद्र सरकार देश के ही एक राज्य में तिरंगा फहराने के कार्यक्रम को बाधित करने के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाती है। भाजयुमो का लाल चौक पर 26 जनवरी को झंडा फहराने के कार्यक्रम से सहमति असहमति होना तो स्वाभाविक है लेकिन जिस तरह से रोका जा रहा है कार्यक्रम को उसे कैसे उचित कहा जा सकता है? कम से कम जम्मू तक तो लोगों को जाने ही दिया जाता। इससे यह तो प्रतिध्वनित होता कि देश में कहीं से भी काश्मीर जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
श्रीनगर जाने का अवसर भाजयुमो को नहीं मिलता तो 26 जनवरी भी गुजर जाती और प्रदर्शनकारी जम्मू में प्रदर्शन कर लौट आते। इसमें कोई दो राय नहीं है कि तिरंगा देश के नागरिकों के स्वाभिमान से जुड़ा मामला है। तिरंगा फहराने का अधिकार हर भारतीय नागरिक को पूरे देश में है। काश्मीर में जब तिरंगा न फहराने दिया जाए तो इससे लोगों के हृदय पर चोट लगती है। फिर भी भारतीय इतने सहनशील हैं ही कि सब कुछ बर्दाश्त कर लेते हैं। भाजयुमो के इस कार्यक्रम पर देश के नागरिकों की ही नजर नहीं है बल्कि दुनिया भी देख रही है कि किस तरह की राजनीति देश में हो रही है। दुनिया में ऐसा कौन सा देश होगा जहां राष्ट्रीय झंडे को फहराने से रोका जाए? भारत शायद इकलौता देश है जहां राष्टï्रीय झंडे के साथ इस तरह का व्यवहार किया जा रहा है। यदि पड़ोसी देश काश्मीर को विवादास्पद क्षेत्र बताते हैं तो भारत सरकार का कृत्य उनकी बातों को और ताकत ही देता है।
जो लोग काश्मीर के भारत में विलय को ही नहीं मानते और वे भारतीय हैं। उनके खिलाफ तो भारत सरकार कोई कदम नहीं उठाती। आजादी का क्या यही अर्थ होता है? राष्टï्र विरोधी विचारों की भी आजादी। काश्मीर में पाकिस्तानी झंडा फहराया जाता है तब क्या सरकार के स्वाभिमान पर चोट नहीं लगती? भारतीयों के मन पर तो चोट लगती है लेकिन तुष्टिकरण की राजनीति ऐसी है कि सब चलता है। यह तो एकदम स्पष्टï है कि श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने की कोशिश में क्या होगा, यह भाजपा और भाजयुमो अच्छी तरह से जानते हैं। वे भी चाहते तो यही हैं कि सरकार केंद्र और राज्य की उन्हें रोकने के लिए हर तरह का प्रयत्न करे। जिससे वे नायक बन कर उभरें। वे सफल हैं अपने कार्यक्रम में। एक राम जन्मभूमि आंदोलन जब भाजपा को सत्ता तक पहुंचा सकता है तो काश्मीर में झंडा फहराने की कोशिश भी कुछ उसी तरह का कृत्य है।
लोगों की भावनाओं को, संवेदनाओं को किस तरह से उकसाया जाए। यदि लोग उत्तेजित होते हैं तो राजनीति अपना उल्लू सीधा करना जानती है। क्योंकि यह बात तो कई बार स्पष्ट हो चुकी है कि भारतीय मतदाता सरकार के 5 वर्ष के कार्य पर तो आम समय में दृष्टिï डालकर फैसला करता है लेकिन संवेदनाओं का उफान उठे तो वह सब कुछ भूल भाल जाता है। उसे महंगाई और भ्रष्टाचार उतना नहीं उकसाते जितना भावनाओं से जुड़े मुद्दे। भारतीयों का चरित्र तो इस तरह का है कि जरुरत पडऩे पर वह राष्ट्र के लिए सप्ताह में एक समय उपवास भी रख सकता है। युद्ध के समय सरकार मांगे तो माताएं बहनें अपने जेवर दान कर सकती हैं। चीन के युद्ध के समय यह सब हुआ देश में। लाल बहादुर शास्त्री के आव्हान पर खाद्य समस्या से निपटने के लिए लोगों ने सप्ताह में एक समय का भोजन त्याग दिया था। महात्मा गांधी के आïव्हान पर अंग्रेजों की लाठियां खाने के लिए लोग तैयार हो गए थे। भावनाओं को उकसाया जाए तो भारतीय सब कुछ कर सकते हैं।
भाजपा के विरुद्ध अल्पसंख्यकों को सतर्क करने का काम कर राजनैतिक पार्टियां सत्ता सुख लूटती रही हैं। अल्पसंख्यकों को इसका लाभ क्या हुआ, यह अब तो स्पष्टï है। खेल अब भी चालू है। भ्रष्टाचार सारी सीमाओं को तोड़ रहा है। महंगाई लोगों का गला दबा रही है। संसद की कार्यवाही पूरे एक सत्र नहीं चलती। न तो विपक्ष मानने को तैयार है और न ही सरकार। विकास, विकास और विकास की बातें सभी सरकारों की जबान की शोभा है। विश्व की प्रमुख शक्ति बनने की राह पर भारत है। कितने विरोधाभासों से भरा भारतीयों का जीवन है। कितने ही राज्य नक्सली समस्या से पीडि़त है। यह सब एक तरफ है लेकिन इससे जरुरी है काश्मीर में श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराना। भारत की दूसरे नंबर की राजनैतिक पार्टी के लिए तिरंगा फहराने से अहम कोई काम नहीं है तो प्रथम राजनैतिक पार्टी जो सरकार में है, उसके लिए तिरंगा न फहराने देना। महात्मा गांधी स्वर्ग में बैठ कर देखते होंगे कि जिनके लिए आजादी का संघर्ष उन्होंने किया, वे इस देश को किस तरफ ले जा रहे हैं तो निश्चित रुप से प्रसन्न नहीं होते होंगे। वे फिर से गाने लगते हों कि अल्ला ईश्वर तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान लेकिन आश्चर्य से देखते होंगे कि कोई उनका भजन भी सुनने के लिए तैयार नहीं है। जितना श्रम और धन इस तरह के कार्यक्रमों पर खर्च किया जा रहा है, वह लोगों की समस्या हल करने में लगाया जाए तो ही राजनीति सही मार्ग पर चलेगी।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 24.01.2011
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श्रीनगर में झंडा फहराने से देश की सत्ता हाथ में नहीं आने वाली

26 जनवरी को श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने की योजना पर भारतीय जनता युवा मोर्चा ने अपनी यात्रा प्रारंभ कर दी है। भारतीय जनता युवा मोर्चा भारतीय जनता पार्टी की ही युवा शाखा है। इसके पहले जब मुरली मनोहर जोशी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष थे तब उन्होंने भी लाल चौक पर तिरंगा फहराया था लेकिन इससे हासिल क्या हुआ? काश्मीर के कुछ लोगों और चंद गिने चुने भारतीयों के सिवाय सभी भारतीयों की स्पष्टï सोच है कि काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है । 26 जनवरी को जम्मू काश्मीर के मुख्यमंत्री उमर फारूक अब्दुल्ला श्रीनगर में तिरंगा निश्चित रूप से फहराएंगे और फोर्स की सलामी लेंगे। जहां तक शासकीय आयोजन का प्रश्र है तो देश भर में जिस तरह से सरकारें 26 जनवरी गणतंत्र दिवस मनाती हैं, उसी तरह से जम्मू काश्मीर में भी मनाया जाएगा ।
यह तो सर्वविदित है कि अपने निहित स्वार्थों के लिए अलगाववादी काश्मीर में हमेशा अशांति फैलाने के लिए प्रयासरत रहते हैं और उन्हें इस संबंध में पड़ोसी मुल्क से भी सहयोग और समर्थन मिलता है। काश्मीर में लंबी अशांति और हिंसा के बाद फिलहाल शांति है। सशस्त्र बलों पर पत्थर फेंकने वाले अब पुलिस में भर्ती हो रहे हैं। बेरोजगार युवकों को नौकरी या काम धंधे से लगाया जा सका तो अलगाववादियों को समर्थन मिलना कम हो जाएगा। काश्मीर में जरूरत इस बात की है कि लोग आतंकवादियों और अलगाववादियों के बहकावे में आने के बदले सुख शांति से रहें और हिंसा से परहेज करें। श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराकर भारतीय जनता युवा मोर्चा अपने अहम की तो संतुष्टिï कर सकता है लेकिन झंडा फहराना समस्या का समाधान नहीं है बल्कि इससे अलगाववादियों को लोगों को भड़काने का एक अवसर ही मिलेगा ।
यह सही है कि काश्मीर में पाकिस्तानी झंडा फहराया, लहराया जाता रहा है। पाकिस्तानी आतंकवादी भी सशस्त्र बलों की गोलियों का निशाना बनते रहे हैं लेकिन अपने तमाम प्रयत्नों के बावजूद काश्मीर को भारत से अलग करने में सफल नहीं हुए। यहां तक कि जम्मू काश्मीर में चुनाव भी होते हैं और विधानसभा और लोकसभा के लिए प्रतिनिधि भी चुने जाते हैं। पूरी की पूरी काश्मीरी जनता भारत से अलग होने के पक्ष में रहती तो चुनाव में मतदान ही नहीं होते। 50 प्रतिशत से अधिक लोग मतदान में आतंकवादियों एवं अलगाववादियों की धमकी के बावजूद भाग लेते हैं। भारतीय जनता पार्टी देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी है। 6 वर्ष तक वह सत्ता पर भी काबिज रह चुकी है। काश्मीर से भगाए गए काश्मीरी पंडितों को भाजपा की सरकार ही वापस बसा नहीं सकी बल्कि आज जो जम्मू काश्मीर के मुख्यमंत्री हैं, वे भी भारतीय जनता पार्टी की राज्य सरकार में मंत्री रह चुके हैं।
काश्मीर एक अति नाजुक संवेदनशील मामला है। भारतीय जनता पार्टी भले ही विपक्ष में हो लेकिन उसकी जिम्मेदारी सरकारी दल से कम नहीं है। राष्टï्रभक्ति प्रदर्शित करने का यह तरीका कितना उचित है? मुरली मनोहर जोशी के झंडा फहराने से ही जब कुछ हासिल नहीं हुआ तो भारतीय जनता युवा मोर्चा के झंडा फहराने से क्या हासिल हो जाएगा? हालांकि वर्तमान स्थिति ऐसी नहीं दिखायी पड़ती कि सरकार श्रीनगर तक झंडा फहराने के लिए भाजयुमो कार्यकर्ताताओं को पहुंचने देगी। कोई भी जिम्मेदार सरकार ऐसा नहीं करने दे सकती। सरकार यदि सुविधा देती है कि आओ और झंडा फहरा लो तो झंडा तो अवश्य भाजयुमो फहरा लेगा लेकिन इसके लिए सरकार को अनहोनी न हो, इसके लिए कफर्यू लगाना पड़ेगा। इसका परिणाम क्या होगा ? अलगाववादी तत्वों को और लोगों को उकसाने के लिए खाद पानी मिल जाएगा ।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी इस स्थिति से बचने की अपील की है। झंडा फहराकर अहम को भले ही संतुष्टिï मिले लेकिन इससे काश्मीरी जनता के मन में स्थान नहीं बनाया जा सकता। यह किसी क्षेत्र को जीतकर झंडा फहराने वाली बात नहीं है। करना है तो ऐसा कुछ करें जिससे काश्मीरी जनता के हृदय में भारत के प्रति पे्रम बढ़े और वह स्वयं अलगाववादियों को खदेडऩे के लिए तत्पर हों। काश्मीर की जनता स्वयं घर घर में तिरंगा फहराने के लिए सहर्ष तैयार हो। उसे लगे कि 26 जनवरी और 15 अगस्त उसके अपने राष्टï्रीय त्यौहार हैं। इसके लिए बहुत श्रम, सेवा और सहिष्णुता की जरूरत है । पूरे देश से युवकों को इक_ïा कर श्रीनगर कूच करने से यह नहीं होगा। इससे यह जरूर होगा कि पूरे देश को बताया जाए कि हम कितने बड़े राष्टï्र भक्त हैं। श्रीनगर में झंडा फहराने का दम रखते हैं।
देश में राजग सरकार आने के पहले भाजपा कहती थी कि पाकिस्तान के कब्जे वाले काश्मीर को भी वापस प्राप्त किया जाएगा। वह तो हुआ नहीं। लोगों को उम्मीद तो थी कि कांग्रेस तो काश्मीर पाकिस्तान से वापस प्राप्त कर नहीं सकी। भाजपा शायद प्राप्त कर लें लेकिन भाजपा ने तो सरकार गठबंधन की बनाने के लिए अपने तीन बड़े जनता से किए वायदों को ही एक तरफ रख दिया था। इसीलिए दोबारा सत्ता में भाजपा लौट नहीं सकी। देश इस समय महंगाई और भ्रष्टïाचार से पीडि़त है। केंद्र सरकार राज्य सरकार पर दोषारोपण करती है और बाकी सभी केंद्र सरकार पर। केंद्र सरकार अपने मंत्रियों के साथ बैठक कर महंगाई कम करने के उपाय ढूंढ़ती है तो उसे कोई उपाय ढूंढ़े नहीं मिलता। सरकार बड़ी या महंगाई किसी से पूछें तो कोई भी आसानी से कह सकता है, महंगाई। क्योंकि जिस पर सरकार नियंत्रण न कर सके वही तो सरकार से बड़ी होगी। जिस असल मुद्दे पर जनता को राहत पहुंचाने के लिए भाजपा जैसी पार्टी को काम करना चाहिए, उसका युवा वर्ग श्रीनगर में तिरंगा फहराने को सबसे अहम काम मान रहा है। जिसे भ्रष्टïाचार के विरूद्घ संघर्ष करना चाहिए, वह श्रीनगर में झंडा फहरा कर क्या हासिल कर लेगा ? विदेशों में जमा काला धन वापस प्राप्त करने के लिए जिसे जनजागृति पैदा करना चाहिए, वह झंडा फहराने को अहम मुद्दा मान रहा है।
इस तरह से ध्यान भटकाने की राजनीति से देश के लोगों का भला नहीं होने वाला है। यह युवा शक्ति का सदुपयोग भी नहीं है। जनता का ध्यान भटकाकर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास तो हो सकता है लेकिन भाजपा पर जिस तरह का लोगों का विश्वास रहा है, वह भी टूट गया तो इससे बड़ा नुकसान और कुछ नहीं होगा। सेाच के धनी नेताओं का तो वैसे भी अकाल दिखायी देता है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को ही समझ में नहीं आता कि महंगाई से कैसे निपटा जाए। राष्टï्र के समक्ष चुनौतियों की कमी नहीं है। जनता की हताशा निराशा कोई अच्छा संदेश भी नहीं देती। भाजपा के नेताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि सत्ता प्राप्त करना ही पार्टी का एकमात्र उद्देश्य तो नहीं हो गया है। उसका सबसे अलग दिखने वाली पार्टी का चेहरा बदल तो नहीं गया है। जनता को विकल्प मिल गया तो वह क्या करेगी, यह सोच कर देख लें। श्रीनगर में झंडा फहराने से ही देश की सत्ता हाथ नहीं आने वाली।
-विष्णु सिन्हा
दिनांक : 22.01.2011
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भारतीयों के लिए सबसे महत्वपूर्ण दिन 26 जनवरी

भारतीयों के लिए दो ही दिन सबसे मत्वपूर्ण हैं। पहला 15 अगस्त, 1947 । इस दिन देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ। दूसरा 26 जनवरी, 1950 । इस दिन संविधान लागू हुआ। इस संविधान ने ही भारत की जनता को अपना स्वयं का मालिक बना दिया। संविधान ने भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकार दिया और अपनी मनपसंद सरकार चुनने का अवसर। हर 5 वर्ष में चुनाव की बाध्यता है। जिसका सीधा अर्थ होता है कि सरकार को हर 5 वर्ष में जनता से पुन: शासन करने के लिए जनादेश लेना पड़ता है। जिसका सीधा और स्पष्टï अर्थ होता है कि सरकार की पूरी तरह से जवाबदारी जनता के प्रति है । विगत 60 वर्षों में जनता भी यह बात अच्छी तरह समझ गयी है कि वह चाहे तो सरकार को बना और हटा सकती है। यह अधिकार संविधान ने भारतीय नागरिकों को दिया और उच्चतम न्यायालय का फैसला भी है कि कोई भी सरकार संविधान में परिवर्तन करते समय मूल अधिकारों से छेड़छाड़ नहीं कर सकती।
संविधान की सर्वोच्चता ने भारतीयों को असल में स्वतंत्रता का भान कराया और लडऩे का सरकार से भी अधिकार दिया। सरकार के गलत कृत्यों के लिए उसे न्यायालय के कठघरे में खड़ा करने का अधिकार भी सभी नागरिकों को मिला हुआ है। संविधान और कानून से परे सरकार की कोई सत्ता नहीं हैं। सरकारें संविधान के विपरीत कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं रखती। यदि जनहित में संविधान संशोधन की जरुरत है तो संसद के दो तिहाई सदस्यों का समर्थन चाहिए और देश के आधे से अधिक राज्यों का समर्थन। आज की स्थिति में तो यह संभव ही नहीं दिखायी देता। जनता ने तो केंद्र सरकार के लिए किसी भी एक दल को बहुमत देने से ही इंकार कर दिया है और वर्षों से देश में अल्पमत या गठबंधन की सरकार चल रही है। राज्यों में भी अलग-अलग दलों की सरकार है।
स्वतंत्र भारत में भी दो तिहाई बहुमत के बल पर संविधान का दुरुपयोग कर तानाशाह बनने की कोशिश की गई लेकिन जल्द ही समझ में आ गया कि यह सब भारत में संभव नहीं है। अब तो जनता इतनी जागरुक  है कि काम के आधार पर भी सरकारों के चयन का काम करती है। भारत को दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र माना जाता है और तमाम तरह की विभिन्नताओं के बावजूद देश की एकजुटता को देखकर वे लोग भी आश्चर्यचकित हैं जो सोचते थे कि स्वतंत्र होने के बाद भारत टूट-टूट कर बिखर जाएगा। पिछले 60 वर्षों में इसके लिए कम प्रयास भी नहीं किए गए। विदेशी ताकतों ने भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी लेकिन भारत की एकता को तोडऩे में सफल नहीं हुए तो उसका सबसे बड़ा कारण हमारा संविधान है। जो समानता से सबके अधिकारों की रक्षा करने में सक्षम है। बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कम नहीं कर सकते। भेदभाव की कोई गुंजाईश ही संविधान ने नहीं छोड़ी है।
राजनैतिक दल भले ही धर्म निरपेक्षता और साम्प्रदायिकता का हव्वा खड़ा करने की कोशिश करें लेकिन आम आदमी अच्छी तरह से जानता है यह सब सिर्फ वोट की राजनीति का अंग है। वोट बैंक को अपने पक्ष में करने की कोशिश के सिवाय कुछ नहीं है। कानून के दायरे के बाहर कोई नहीं है। यह सब राजनीतिज्ञों के कारण नहीं बल्कि संविधान के कारण है। 26 जनवरी इसलिए भारत का सबसे बड़ा त्यौहार है। इस दिन देश की राजधानी और राज्यों की राजधानी में बड़े रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं और सलामी लेने की जिम्मेदारी राष्टपति और राज्यपालों की है। ये दोनों पद संवैधानिक रुप से दलगत राजनीति से अलग माने जाते हैं। सरकार केंद्र में एवं राज्यों में किसी की भी हो वह कहलाती राष्टपति और राज्यपालों की सरकार हैं। इसी से देश मजबूत होता है क्योंकि राष्टï्रीय एकता और मजबूत होती है। निरंकुशता पर पाबंदी लगती है। जनता के अधिकारों को सुरक्षा मिलती है। यह सब 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के कारण है तो स्वाभाविक रुप से यह दिन राष्ट्र  के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 25.01.2011
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चुनाव जीत ही न सके बल्कि चुनाव जितवा भी सके ऐसा भाजपा में इकलौता शख्स बृजमोहन अग्रवाल

वैशालीनगर का उपचुनाव और भिलाई नगर निगम का चुनाव जीत कर कांग्रेस अति उत्साहित हुई और संजारी बालोद का उपचुनाव भी जीत लेने की उसे पूरी आशा थी लेकिन अपने संकटमोचक बृजमोहन अग्रवाल को चुनाव संचालक बनाकर भाजपा ने अति उत्साहित कांग्रेसी आशा को कठिन चुनौती में तो बदल ही दिया है। भाजपा में वैसे तो एक से एक बड़े बड़े नेता हैं लेकिन चुनाव में विजयी होने की मर्मज्ञता जिस तरह से बृजमोहन अग्रवाल के पास है, वैसा तो दूसरा कोई नहीं दिखायी पड़ता। अपने चुनाव क्षेत्र से चुनाव लडऩा और जीतना अलग बात है लेकिन दूसरे विधानसभा क्षेत्र से पार्टी के प्रत्याशी को जीत दिलाना और वह भी सिक्केबंद जीत दिलाना हर किसी के बस की बात नहीं। हर किसी के क्या अच्छे अच्छों के भी बस की बात नहीं। दुर्ग जिले में भाजपा के पास नेता नहीं हैं, ऐसा नहीं है। सरोज पांडे, हेमचंद यादव, प्रेमप्रकाश पांडे जैसे दिग्गज नेता हैं लेकिन इन्हें चुनाव संचालन की जिम्मेदारी न देकर रायपुर के विधायक बृजमोहन अग्रवाल को जिम्मेदारी देना, बहुत कुछ कहा जाता है।
वैशाली नगर और नगर निगम भिलाई की हार ने भी बड़े नेताओं के कसबल ढीले कर दिए हैं। किसी ने भी विरोध करने की जरुरत नहीं समझी कि हम हैं, न। संजारी बालोद जीतने के लिए बृजमोहन की क्या जरुरत है? हार ने सभी को अपनी स्थिति से अच्छी तरह परिचित करा दिया है। रायपुर नगर निगम में महापौर का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस से भी कम पार्षदों के जीतने के बावजूद सभापति का चुनाव बृजमोहन अग्रवाल ने जीत कर दिखा दिया। इसके विपरीत भिलाई नगर निगम में महापौर का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस से ज्यादा भाजपाई पार्षदों के होने के बावजूद सभापति का चुनाव भाजपा जीत नहीं पायी। कहा जाता है कि दुर्ग जिले में भाजपा में गुटबाजी इतनी हावी है कि जनता तो चाहती हैं कि भाजपा जीते लेकिन नेताओं का आपसी द्वन्द हार का कारण बन जाता है।
कांग्रेस में गुटबाजी कम है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता बल्कि खुल कर है और चुनाव के समय तो शर्म हया को ताक पर रख कर गुटबाजी अपना खेल दिखा चुकी है। कांग्रेस के दो विधायक ही खुल्लम खुल्ला लड़ते दिखायी पड़े। छत्तीसगढ़ स्वाभिमान को जो 45 हजार वोट मिले, उसमें भी बड़ा हिस्सा कांग्रेस का ही था लेकिन फिर भी जीत कांग्रेस के हिस्से में आयी। जबकि अक्लमंदी का परिचय दिया जाता तो भाजपा इसे अपने पक्ष में भुना सकती थी। भाजपा संगठन इससे अंजान है, ऐसा नहीं है लेकिन बड़े नेताओं की आपसी टकराहट को रोकने में ïवह भी असफल हैं। किसी पर कार्यवाही करना तो दूर की बात है। इसीलिए चुनाव के बाद ईमानदारी से हार की समीक्षा से भी वह भय खाता है। रायपुर नगर निगम के चुनाव की समीक्षा ही ईमानदारी से संगठन करता तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता। आश्चर्य तो तब होता है जब असली दोषियों को सजा देने के बदले सरकारी पद देकर सम्मानित किया जाता है और ऐसे लोग पार्टी के भाग्यविधाता बने रहते हैं।
आज भी छोटे कार्यकर्ताओं को कम शिकायत नहीं है। वही गिने-चुने चेहरे सत्ता का सुख लूट रहे हैं। स्वाभाविक रुप से पार्टी से भावनात्मक लगाव के नाम पर उनका कब तक शोषण किया जाता रहेगा। बृजमोहन अग्रवाल की एक सबसे बड़ी खूबी तो यही है कि वह छोटे-बड़े कार्यकर्ता का भेद किए बिना सबके साथ समान रुप से जुड़े रहते हैं और कार्यकर्ता का काम हो तो किसी से भी भिडऩे में संकोच नहीं करते। पार्टी के प्रति भावनात्मक लगाव ऐसा है कि बिना इस बात की परवाह किए, किसी भी चुनौती को स्वीकार कर लेते हैं, जिसमें असफल होने की संभावना भी रहती है। संजारी बालोद की जिम्मेदारी कोई चतुर सुजान लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। घर में वैवाहिक कार्यक्रम के बावजूद बृजमोहन चुनौती स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए। वे यह भी जानते हैं कि संजारी बालोद जैसे क्षेत्र में उन्हें कांग्रेस से ही नहीं जूझना पड़ेगा बल्कि अपनी ही पार्टी के उन लोगों से भी जूझना पड़ेगा जो नहीं चाहते कि जीत का श्रेय बृजमोहन अग्रवाल को मिले। क्योंकि संजारी बालोद की जीत उन्हें बौना बना देगी।
विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रविन्द्र चौबे के लिए भी संजारी बालोद का चुनाव बड़ी चुनौती  है। धनेन्द्र साहू तो पार्टी के अध्यक्ष कार्यकाल समाप्त हो जाने के बाद भी इसीलिए बने हुए हैं क्योंकि संजारी बालोद का उपचुनाव है। भटगांव में जीत के बड़े-बड़े दावे जिस तरह से असफल सिद्ध हुए थे, उसके बाद संजारी बालोद पद पर बने रहने के लिए आखरी मौका है। इसलिए रविन्द्र चौबे और धनेन्द्र साहू के लिए संजारी बालोद का चुनाव जीतना पद पर बने रहने के लिए सबसे ज्यादा जरुरी है। जो नहीं चाहते कि ये दोनों पद पर बने रहें उनके लिए तो यह सुनहरा अवसर हैं। फिर रविन्द्र चौबे के लिए तो यह गृह क्षेत्र की तरह है। स्वाभाविक रुप से जीत के लिए ये कुछ उठा नहीं रखेंगे।
कांग्रेस और भाजपा के साथ यह चुनाव छत्तीसगढ़ स्वाभिमान के लिए भी एक तरह से अंतिम मौका है। यदि वह संजारी बालोद पर कब्जा करने में सफल हो जाए तो कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए खतरे की घंटी बज जाएगी। वह न भी जीत पाए तो भाजपा को ही हरवाने में सफल हो जाए तो उसके लिए संतुष्टि की बात होगी। छत्तीसगढ़ स्वाभिमान के सुप्रीमो ताराचंद साहू का तो एक ही स्वप्न है, भाजपा का पराभव। इन सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए कोई भी चतुर सुजान भाजपा का जितवाने की जिम्मेदारी स्वयं लेने के बदले बृजमोहन अग्रवाल को देना चाहता हैं तो वह एक तरह से अपनी गर्दन तो बचाता ही है, बृजमोहन की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाता है। अजेय बृजमोहन अग्रवाल सारी परिस्थितियों को अच्छी तरह से समझते हैं। घर में शादी के बहाने वे इस जिम्मेदारी से बच सकते थे और तथाकथित चतुर सुजानों की राह पकड़ सकते थे लेकिन चुनौतियों से बच कर निकल जाना तो उनके स्वभाव में नहीं है। चुनौतियों को ललकारने, उससे दो दो हाथ करने में ही उनका सदा से विश्वास रहा है। बड़े-बड़े पार्टी के चतुर सुजान चुनाव हारते और जीतते रहे हैं लेकिन बृजमोहन अग्रवाल हैं कि उन्हें अभी तक कोई हरा नहीं सका।
यह भी तय है कि संजारी बालोद का चुनाव पार्टी प्रत्याशी जीता तो जीत का श्रेय पार्टी को मिलेगा। कार्यकर्ताओं को मिलेगा बड़े-बड़े नेताओं को मिलेगा लेकिन जनता तो जानेगी कि जीत के असली हकदार बृजमोहन अग्रवाल हैं। भाजपा सरकार में सबसे दबंग मंत्री की छबि उनकी ऐसे ही नहीं है। समाचार पत्र ही जब लिखते हैं कि दबंग मंत्री बिना उनका नाम लिखे तब भी लोग समझ जाते हंै कि दबंग मंत्री कौन है? बृजमोहन के संजारी बालोद का चुनाव संचालक बनने से यह आशा तो भाजपा में सहज ही बन गयी है कि चुनाव जीत लेंगे। यह कोई छोटी छबि नहीं हैं बृजमोहन अग्रवाल  की। दरअसल चुनाव जो जीत सके, उससे भी बड़ी बात जो चुनाव जितवा सके, उसमें होती है। बृजमोहन अग्रवाल ऐसे शख्स हैं, यह बात भाजपा ही नहीं, सभी मानते हैं।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 22.01.2011
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केंद्रीय मंत्रिमंडल में छत्तीसगढ़ की उपेक्षा जनता के मन में कांग्रेस के प्रति निराशा ही पैदा करती है

भारत सरकार में छत्तीसगढ़ के लिए कोई स्थान नहीं है। यह बात कल मंत्रिमंडल के विस्तार और फेरबदल ने सिद्ध कर दी। न तो सोनिया गांधी ने ही किसी छत्तीसगढ़ी को सरकार में लेने की जरुरत समझी और न ही मनमोहन सिंह ने। इस बार तो छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों को बहुत उम्मीद थी कि चरणदास महंत को कम से कम राज्यमंत्री के रुप में केंद्रीय मंत्रिमंडल में अवश्य लिया जाएगा लेकिन इसकी जरुरत ही नहीं समझी गयी। छत्तीसगढ़ के कुछ कांग्रेसी भले ही इससे खुश हों कि चरणदास महंत का कद नहीं बढ़ा और उनके लिए अभी कांग्रेस की राजनीति में स्थान शेष है लेकिन आम कांग्रेसी कार्यकर्ता इस उपेक्षा से निराश ही हुआ है। चरणदास के साथ ही एक आशा की किरण मोहसिना किदवई भी थी। उम्मीद की जा रही थी कि अल्पसंख्यक, महिला और उत्तरप्रदेश की नेत्री होने के कारण उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान मिल सकता है और इस तरह से अल्पसंख्यक, महिला छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश सबको संतुष्टï किया जा सकता है लेकिन इसकी भी जरुरत नहीं समझ गई।
हालांकि मंत्रिमंडल में विस्तार और फेरबदल के पीछे जो बड़ा कारण सामने दिखायी देता है, वह उत्तरप्रदेश का 2012 में होने वाला विधानसभा चुनाव भी है। प्रकाश जायसवाल और सलमान खुर्शीद को राज्यमंत्री से केबिनेट मंत्री बनाया गया तो पुराने समाजवादी पार्टी के नेता बेनी प्रसाद वर्मा को राज्यमंत्री बना कर सरकार में सम्मिलित किया गया। कहा जा रहा है कि बेनी प्रसाद वर्मा राज्यमंत्री बनने से खुश नहीं हैं। क्योंकि पहले संयुक्त मोर्चा की सरकार में केबिनेट मंत्री रह चुके हैं लेकिन उनको मंत्री बनाने के पीछे की स्पष्टï सोच तो एकदम साफ है। वे कुर्मी जाति के हैं और पुराने मुलायम सिंह यादव के सहयोगी होने के कारण चुनाव में कांग्रेस के लिए लाभप्रद हो सकते हैं। जतिन प्रसाद पहले ही ब्राह्मïण मंत्री हैं। इस तरह से उत्तरप्रदेश में सभी को संतुष्टï करने की कोशिश की गई है। पंजाब से अश्विनी कुमार और केरल से वेणुगोपाल को मंत्री बना कर पंजाब और केरल में होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी की गई है।
छत्तीसगढ़ की इस तरह से कोई उपयोगिता सोनिया, राहुल गांधी की नजर में नहीं है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा को मंत्री बनाया जा सकता था जिन पर सोनिया गांधी का पूरा विश्वास है। वे कोषाध्यक्ष हैं और यह ऐसी जिम्मेदारी है जिसके लिए हर किसी पर विश्वास नहीं किया जा सकता। छत्तीसगढ़ तो इसी से संतोष महसूस कर सकता है तो कर ले कि उसके वरिष्ठ नेता पार्टी संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे हैं। बाकी तो छत्तीसगढ़ की कांग्रेस के लिए आलाकमान के पास न समय है और न ज्यादा सोच विचार करने की जरुरत। कांग्रेस के छत्तीसगढ़ के नेताओं ने पार्टी की जो दुर्दशा की है। आपसी गुटबाजी को लेकर उसी का परिणाम है कि छत्तीसगढ़ की कांग्रेस को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है।
छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी नेता रोज गिनाते रहते हैं कि केंद्र सरकार ने छत्तीसगढ़ को इतना धन दिया और केंद्र की योजना को राज्य सरकार अपने नाम से चला रही है। इससे जनता में कांग्रेस की कोई छवि बनती है, ऐसा दिखायी नहीं पड़ता। कुछ प्रमुख नगर निगमों पर कांग्रेस प्रत्याशी चुनाव अवश्य जीत गए है लेकिन विकास के मामले में उनका कार्यकाल कैसा जा रहा है, यह जनता से ज्यादा अच्छी तरह से कौन जानता है? प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति का अधिकार सोनिया गांधी को सौंपा गया है लेकिन उनके पास फुरसत ही नहीं है कि वे प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति करें। कांग्रेस अध्यक्ष बदले भी जाते हैं तो कार्यकारिणी नहीं बनायी जाती। कार्यकाल समाप्त होने के बावजूद अध्यक्ष और कार्यकारिणी अस्तित्व बनाए रखती है। हर चुनाव में जीत के बड़े-बड़े दावे कांग्रेस करती है और चुनाव परिणाम मुंह चिढ़ाते हैं।
छत्तीसगढ़ के मतदाता लोकसभा के लिए 11 में से 1 सदस्य कांग्रेस का चुनते हैं तो उसे भी तव्वजो देने की जरुरत नहीं समझी जाती। मनमोहन सिंह की सरकार बने 7 वर्ष होने जा रहे हैं लेकिन एक अदद मंत्री का पद भी छत्तीसगढ़ को उपलब्ध नहीं हुआ। निश्चित रुप से चरणदास महंत को मंत्री बनाया जाता तो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की रगों  में नई ऊर्जा का संचार होता। सब तरह से योग्य है, चरणदास महंत। मध्यप्रदेश में गृहमंत्री तक रह चुके हैं। कई कांग्रेसियों की मान्यता तो यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष ही छत्तीसगढ़ का चरणदास महंत को रहने दिया जाता तो कांग्रेस का यह हाल नहीं होता लेकिन अध्यक्ष को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया और चरणदास महंत अपमान के घूंट को भी पी गए। इससे बड़ी वफादारी और क्या चाहिए, कांग्रेस आलाकमान को।
राज्यसभा के लिए छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के लिए दो ही सीटें है और उस पर छत्तीसगढ़ का हक मार कर उत्तरप्रदेश की मोहसिना किदवई को एक सीट दे दी गई। यही उपयोगिता है, छत्तीसगढ़ की, कांग्रेस के लिए। किसी छत्तीसगढ़ी को भी तो उत्तरप्रदेश से राज्यसभा में भेज कर दिखाइए। यह विचारणीय ही नहीं है, कांग्रेस के लिए। छत्तीसगढ़ तो सदा से उपेक्षित रहा और आज भी उपेक्षित है। कहा जा रहा है कि बजट सत्र के बाद मंत्रिमंडल का बड़ा विस्तार और फेरबदल होगा। मतलब उम्मीद पर दुनिया कायम है तो छत्तीसगढ़ भी उम्मीद करे कि भविष्य में उसे केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान मिलेगा। इस तरह का लालीपॉप छत्तीसगढ़ के लिए कोई नया नहीं है। इसीलिए तो लोग कहते हैं, अभी से कि डॉ. रमन सिंह तीसरा विधानसभा चुनाव भी जीत लें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। केंद्र की कांग्रेस सरकार नक्सलियों से लडऩे के लिए फोर्स भी छत्तीसगढ़ सरकार को देती है तो उसके बदले 800 करोड़ रुपए का बिल थमाती है। एनएमडीसी की खदानें छत्तीसगढ़ में हैं तो उसका मुख्यालय आंध्रप्रदेश के हैद्राबाद में है। कोयला, लोहा जैसी खनिज संपदा का निर्णय भी केंद्र सरकार के पास है। रायल्टी बढ़ाने की मांग अनसुनी है।
कांग्रेस को छत्तीसगढ़ के लोगों के दिल में स्थान बनाना है तो उसे परायापन छोडऩा चाहिए। चरणदास महंत को मंत्री बनाकर वह ऐसा कर सकती थी लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। जहां मंत्रिमंडल में 68 मंत्री हो वहां 28 राज्यों में से एक छत्तीसगढ़ का ही कोई मंत्री नहीं है। यदि लोग कांग्रेस की उपेक्षा को परायापन समझने लगें तो किसे दोष देंगे? भ्रष्टाचार और महंगाई से पीडि़त जनता के लिए मंत्रिमंडल में फेरबदल और विस्तार कोई आशा तो जगाता नहीं। उल्टे भेदभाव निराशा ही पैदा करता है।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 20.01.2011
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भारत आज भी सोने की चिडिय़ा है लेकिन सोना स्विस बैंकों में जमा है

छत्तीसगढ़ सरकार का बजट 25 हजार करोड़ रुपए वार्षिक का है। यह स्थिति भी
10 वर्ष के निरंतर प्रयासों के बाद आयी है। 1 नवम्बर 2000 में जब
छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आया तब मार्च 2001 में जो बजट पेश किया गया
था, वह तो 3 हजार करोड़ रुपए से अधिक का नहीं था। अब सरकार प्रयास कर रही
है कि मार्च में वह 30 हजार करोड़ का बजट प्रस्तुत करे। 2 करोड़ से अधिक
आबादी का राज्य 25-30 हजार करोड़ रुपए वर्ष भर में खर्च कर सर्वाधिक
विकास दर देश भर में हासिल कर लेता है। इसके विपरीत एक केंद्रीय मंत्री,
एक विभाग का मंत्री 1 लाख 76 हजार करोड़ का सरकारी खजाने को चूना लगा
देता है। छत्तीसगढ़ के मान से देखें तो छत्तीसगढ़ सरकार पिछले 10 वर्ष
में जो रकम अपनी जनता और प्रदेश के विकास पर खर्च नहीं कर सकी उससे अधिक
रकम संचार मंत्री ने सरकारी खजाने में आने से रोक दिया। यह रकम यदि
छत्तीसगढ़ सरकार को मिल जाती और सरकार इसे बैंक में ही फिक्सड डिपाजिट
में जमा कर देती तो जनता से बिना एक पैसे का टैक्स लिए ही उसका काम चल
जाता।
फिर भी 1 लाख 76 हजार करोड़ की लूट स्विस बैंक में जमा भारतीय धन के
मुकाबले में कुछ भी नहीं है। स्विस बैंक के आंकड़े ही कह रहे हैं कि 66
हजार अरब रुपए भारतीयों के स्विस बैंकों में जमा है। दुनिया भर के देशों
के लोगों ने जितनी रकम स्विस बैंक में जमा करा रखी है, उससे अधिक सिर्फ
भारतीयों की ही रकम है। 66 हजार अरब रुपए का अर्थ होता है, 66 लाख करोड़
रुपए। भारत सरकार का बजट 10 लाख करोड़ के आसपास है। मतलब स्विस बैंकों
में जमा रकम से 7 वर्ष तक भारत सरकार का खर्च बिना किसी तरह से जनता पर
टैक्स लगाए भी चल सकता है। फिक्सड डिपाजिट में ही जमा करा दिया जाए तो
आधे से अधिक रकम सिर्फ ब्याज से ही प्राप्त की जा सकती है। आंकड़े
स्पष्टï करते हैं कि भारत अभी भी वर्षों की गुलामी और लूटमार के बावजूद
सोने की चिडिय़ा ही है।
फिर भी इस देश की 50 प्रतिशत जनसंख्या 20 रुपए प्रतिदिन में गुजारा करने
के लिए बाध्य है तो कमजोरी हुक्मरानों की ही है। कभी कभार खबर आती है कि
किसी छुटभैय्ये के यहां छापा पड़ा और उसके पास 3-4 करोड़ की संपत्ति
मिली। किसी बड़े नौकरशाह के पास 4-5 सौ करोड़ की संपत्ति  किसी के घर से
दो चार करोड़ के नोट ही निकल आते हैं। सरकार ने बड़े बड़े नौकरशाहों की
भारी भरकम टीम ही बना रखी है जिनका काम है, काले धन का पता लगाना। इसके
बावजूद देश से 66 लाख करोड़ रुपए स्विस बैंकों में पहुंच जाते हैं। पता
ही नहीं चलता। कभी बेईमान बोल देने से किसी का बड़ा से बड़ा अपमान समझा
जाता था लेकिन अब वह बात तो रही नहीं। धन ही मान प्रतिष्ठा का कारण बन
गया और कोई पूछने के लिए भी तैयार नहीं कि धन आया कहां से? यह तो तभी
पूछा जाता है जब किसी तरह की राजनैतिक अदावत हो। अपराधी संवैधानिक
संस्थाओं के लिए चुन लिए जाते हैं। मंत्री तक बना दिए जाते हैं। तर्क
दिया जाता है कि जब तक न्यायालय में किसी का दोष सिद्ध न हो तब तक सभी
ईमानदार, निरपराध।
उच्चतम न्यायालय में ही एक वरिष्ठï वकील, भूतपूर्व कानून मंत्री
शांतिभूषण कहते हैं कि उच्चतम न्यायालय के 8 पूर्व न्यायाधीश भ्रष्टï थे।
प्रमुख उद्योगपति रतन टाटा कहते हैं कि उनसे एक विमान मंत्री ने रिश्वत
मांगी थी और उनके इंकार करने के कारण वे हवाई सेवाओं के व्यापार में नहीं
आ सके। 1970 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टïाचार के
विरुद्ध ही सबसे बड़ा आंदोलन गुजरात से प्रारंभ होकर पूरे देश में फैला।
देश में आपातकाल लगा। बड़े-बड़े नेताओं से लेकर छोटे-छोटे नेता जेल की
सलाखों के पीछे डाल दिए गए थे। आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत व्यापारियों
को भी जेल की हवा खानी पड़ी थी। मीडिया पर सैंसर लगा दिया गया था। इसके
बाद चुनाव हुआ तो बाहर से सब कुछ अच्छा-अच्छा दिखायी देने वाला सरकार को
माहौल भारी पड़ा और कांग्रेस की सरकार को जनता ने सत्ताच्युत कर दिया।
लगा कि नया जमाना आया। तपस्वी, ईमानदार लोग सत्ता में आ गए। अब सब कुछ
बदल जाएगा। बदला कुछ नहीं और शर्म हया विलोपित हो गयी। सत्ता के लिए ऐसा
संघर्ष मचा कि सरकार अपना कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पायी। फिर से चुनाव
हुआ और जनता ने सत्ता उसे ही सौंप दी, जिनसे वह ढाई वर्ष पूर्व पूरी तरह
से नाराज थी। फिर 10 वर्ष बाद बोफोर्स दलाली का तूफान उठा। राजा नहीं
फकीर है, का नारा लगा लेकिन ढाक के वही तीन पात। मंदिर मुद्दा, आरक्षण
मुद्दा के सामने भ्रष्टाचार के मुद्दे को दफन कर दिया गया। आज पार्टी कोई
भी हो मुद्दा एक ही है धर्म निरपेक्षता या सांप्रदायिक शक्तियां सत्ता पर
काबिज न हो जाएं, इसलिए बिना किसी नीति सिद्धांत के भी समझौता और गठबंधन।
बहुमत का आंकड़ा और सत्ता की आसंदी। जहां तक आर्थिक विकास का प्रश्न है
तो यह सभी  पार्टियों का मुद्दा है। गरीब की भलाई ऐसा मुखौटा है जिससे
वोट बटोरा जाता है। खुलेआम चुनाव आयोग की आचार संहिता के बावजूद चुनाव
में धन की नदियां बहती हैं। लेने वाला तो पूछता ही नहीं कि आखिर यह दौलत
आया कहां से। छोटे-छोटे मुद्दे भ्रष्टाचार के भी यदा कदा उठते हैं लेकिन
बड़ा मगरमच्छ तो पकड़ में आता नहीं। कोई धोखे से आ भी गया तो न्यायालय
में ही वर्षों लग जाते हैं और आरोपी जमानत पाकर सत्ता का मजा लूटता है।
प्रश्र तो यही है कि भ्रष्टïाचार मुद्दा ही नहीं बनता। दो बार मुद्दा बना
और परिणाम नकारात्मक ही मिले। चोर-चोर मौसेरे भाई भ्रष्टाचार के मामले
में यह सही साबित होता है। ईमानदारी को मूर्खता का तमगा मिले तो ईमानदारी
कौन करना चाहेगा? फिर ईमानदारी को ठिकाने लगाना भ्रष्टाचारियों के लिए
कोई कठिन काम भी नहीं है। कभी रहा होगा जमाना कि भ्रष्टïाचार करने वाले
डरे रहते थे कि कानून के शिकंजे में न फंस जाएं लेकिन आज तो ईमानदार आदमी
डरा हुआ है कि उसे बेईमान कहीं झूठे मामले में न फंसा दे। धन में बड़ी
शक्ति है और धन किसे नहीं चाहिए। कानून का पालन कराने की जिनकी
जिम्मेदारी है, वे ही बचने का भी रास्ता बताते हैं। जब मनमोहन सिंह जैसा
ईमानदार प्रधानमंत्री ही अपने बेईमान मंत्री का कुछ नहीं बिगाड़ सकता तब
किससे उम्मीद की जा सकती है।
हालांकि स्वामी रामदेव भारत स्वाभिमान के नाम पर देश भर में एक बड़ी
राजनैतिक चेतना भ्रष्टïाचार के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं।
वे पूरे भारत के दौरे पर हैं। गांव-गांव अलख जगा रहे हैं। स्विस बैंक में
जमा  काला धन वापस लाने की बात भी सबसे पहले उन्होंने कहा। इसके लिए वे
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी मिले। भारतीय जनता पार्टी ने भी लोकसभा
चुनाव के समय कहा था कि उसकी सरकार बनी तो वे स्विस बैंक में जमा काला धन
वापस लाएंगे लेकिन जनता ने उन्हें सरकार बनाने का अधिकार नहीं दिया। खबर
है कि मनमोहन सिंह की सरकार भी इसके लिए प्रयास कर रही है। सरकार के
प्रयासों में जो त्वरा होनी चाहिए, वह नहीं दिखायी पड़ती। जैसा कभी कभार
सरकार अपनी अघोषित आय घोषित करने वालों को रियायत देने की योजना बनाती
है। उसी तरह की योजना स्विस बैंक के लिए भी बनाए तो कुछ परिणाम आ सकते
हैं। ज्यादा उम्मीद इसलिए नहीं की जा सकती, क्योंकि ज्यादा धन
राजनीतिज्ञों एवं नौकरशाहों के ही जमा होने की उम्मीद है। जनता को बात
समझ में आ गयी तो स्वामी रामदेव का आंदोलन भी स्वामी रामदेव के पक्ष में
हवा बना सकता है। क्योंकि जनता के पास खोने के लिए क्या है? वह सबको आजमा
कर देख चुकी है।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 19.11.2010
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मनमोहन इस्तीफा दें या न दें लेकिन राजा का भ्रष्टïचार कांग्रेस के लिए भारी नुकसानप्रद साबित होगा

कहा जा रहा है कि मनमोहन सिंह इस्तीफा नहीं देंगे। लोग उम्मीद ही क्यों
कर रहे हैं कि मनमोहन सिंह इस्तीफा दे देंगे? लाल बहादुर शास्त्री अकेले
ऐसे राजनेता थे जिन्होंने रेल दुर्घटना पर रेल मंत्री का पद छोड़ दिया
था। अब तो रोज दुर्घटनाएं होती हैं। कोई रेल मंत्री इस्तीफा नहीं देता।
नैतिकता और आदर्श की बातें अब छोटों के लिए भले ही आवश्यक हों लेकिन
उच्चतम पद पर बैठे लोग इस तरह की बातों पर विश्वास नहीं करते। महाधिवक्ता
कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री की चुप्पी के विषय में उच्चतम न्यायालय का
प्रश्र प्रधानमंत्री के लिए अपमानजनक नहीं हैं। अपमानजनक तो अब कुछ भी
नहीं रह गया है। लोगों को मुफत में अनाज सड़ाने के बदले बांटने का उच्चतम
न्यायालय का आदेश भी कहां शर्मिंदगी पैदा करता है बल्कि उच्चतम न्यायालय
के निर्देश को मानने से इंकार कर न्यायालय के औचित्य पर ही प्रश्रचिन्ह
लगाया जाता है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। इस बात को सारी दुनिया
मानती है लेकिन एक व्यक्ति बिना जनता से जनादेश प्राप्त किए संवैधानिक
प्रावधानों के तहत देश का सर्वोच्च पद सुशेाभित कर सकता है, यह भी भारतीय
प्रजातंत्र की ही देन है। मंत्रिपरिषद का एक मंत्री प्रधानमंत्री के आदेश
की भी उपेक्षा कर अरबों के भ्रष्टïाचार को प्रोत्साहित करता है और
प्रधानमंत्री टुकुर टुकुर देखते रहने के सिवाय कुछ कर नहीं सकते। इससे
बड़ी विडंबना क्या होगी? मंत्री प्रधानमंत्री के कहने से इस्तीफा भी देने
के लिए तैयार नहीं होता और प्रधानमंत्री उसे हटा भी नहीं सकते, यह बडी़
से बड़ी विडंबना है। न्यायालय पूछने के लिए बाध्य होता है कि मुकदमा
चलाने की अनुमति 16 माह तक क्यों नहीं दी गयी तो इससे सरकार की नीयत पर
ही संदेह खड़ा होता है। स्पष्टï प्रथम दृष्टिï में तो यही दिखायी देता है
कि प्रधानमंत्री अपने मंत्री को संरक्षण दे रहे हैं।
भ्रष्टïाचार के मामले में न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जाता है लेकिन
प्रधानमंत्री के कान पर जूं भी नहीं रेंगती। जब कैग की रिपोर्ट ही इस
संबंध में आ जाती है कि करीब 1 लाख 76 हजार करोड़ का नुकसान सरकारी खजाने
को पहुंचाया गया है और विपक्ष सांसद में हंगामा करता है तब भी मंत्री
पूरी बेशर्मी से कहता हैं कि मैं इस्तीफा नहीं दूंगा। प्र्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह 79 वर्ष के हो गये। वे कहते हैं कि अवकाश ग्रहण करने की उनकी
इच्छा नहीं है तो युवा मंत्री कैसे सोच सकता है कि वह राजपाठ का त्याग कर
दे। जब अशोक चव्हाण से आदर्श घोटाले के नाम पर इस्तीफा ले लिया जाता है
और निर्णय सोनिया गांधी करती हैं तब मनमोहन सिंह भी अशोक चव्हाण की तरह
अपना इस्तीफा सोनिया गांधी को ही देने से क्यों हिचक रहे हैं? सोनिया
गांधी स्वीकार करें या न करें लेकिन पहल तो उन्हें करना ही चाहिए।
खुद का ईमानदार होना ही पर्याप्त नहीं होता। वे सामूहिक रूप से अपने
मंत्रियों के कामों के लिए भी जिम्मेदार हैं। फिर यह मामला तो सीधा और
साफ है। सब कुछ जानते बुझते हुए भी सिर्फ सरकार बनी रहे और वे
प्रधानमंत्री बने रहें, इसलिए उन्होंने राजा को मंत्रिमंडल से बर्खास्त
करने की हिम्मत नहीं दिखायी। यह उनकी कमजोरी का ही परिचायक है। सब कुछ
जानते समझते हुए इतने बड़े भ्रष्टïाचार को रोकने में असफल रहना,
प्रधानमंत्री की स्वयं की असफलता है। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जमे रहने
के लिए वे हर तरह का समझौता करने के लिए तैयार हैं। अर्जुनसिंह ने उनके
मंत्रिमंडल में रहते हुए जब राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए योग्य
करार दिया तो मनमोहन सिंह ऐसे नाराज हुए कि दूसरी बार सरकार बनाते समय
अपने मंत्रिमंडल में सम्मिलित करने के लिए तैयार नहीं हुए। उनके स्थान पर
कपिल सिब्बल को मानव संसाधन मंत्री बनाया और राजा के इस्तीफा देने पर
संचार मंत्रालय का कार्यभार भी सिब्बल को ही सौंप दिया।
वे महान अर्थशास्त्री हैं लेकिन इतने ही बड़े इंसान हैं, यह तो साबित
नहीं होता। नरसिंह राव के मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री बनकर उन्होंने
राजनीति में प्रवेश किया था। नरसिंहराव ऐसे कांग्रेसी प्रधानमंत्री हुए
जिन पर तरह तरह के आरोप लगे। बाबरी मस्जिद विध्वंस तक में सहयोगी होने का
आरोप उन पर लगा। सांसदों की खरीद फरोख्त का आरोप लगा। जब हवाला का आरोप
उनके मंत्रियों पर लगा तो उन्होंने मंत्रियों से इस्तीफा ले लिया लेकिन
खुद पर लगे आरोपों के कारण इस्तीफा नहीं दिया। मनमेाहन सिंह तो अपने
मंत्री से भी इस्तीफा नहीं ले सके। मंत्री ने इस्तीफा भी दिया तो अपनी
पार्टी के नेता के कहने पर दिया। नरसिंहराव को भी विद्वान व्यक्ति माना
जाता था और मनमोहन सिंह को भी विद्वान माना जाता है। उनकी आर्थिक विद्वता
के कारण ही नरसिंहराव ने उन्हें वित्त मंत्री बनाया था। नरसिंहराव की
सरकार चले जाने के बाद अपनी सज्जनता से मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी का
विश्वास अर्जित किया। मनमोहन सिंह कांग्रेस के नेता ऐसे रहे जिनका कभी
कोई गुट नहीं रहा। ठीक वैसे ही जैसे नरसिंहराव का भी कोई गुट नहीं था।
कांग्रेस के आलाकमानों की दृष्टिï में ये ऐसे नेता रहे जिन्होंने
हार्मलेस होने की छवि अपनी बनायी। आलाकमान का विश्वास जीतने का यह सौ
फीसदी आजमाया हुआ नुस्खा है। जब कोई गुट ही नहीं है। कोई अपना आदमी नहीं।
आलाकमान के प्रति वफादारी ही एकमात्र सिद्घांत तो विश्वसनीयता का इससे
बड़ा तरीका और क्या होगा? महाराष्टï्र के नवनियुक्त मुख्यमंत्री
पृथ्वीराज चव्हाण भी इसी छवि के व्यक्ति हैं और महाराष्टï्र में सर्वोच्च
पद के हकदार बन गए। आलाकमान के नाम की माला जपी तो एक दिन बरदान मिलता ही
है। ऐसा ही वरदान छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी को भी मिला था। पद में आने के
बाद फिर अपने लोग पैदा हो ही जाते हैं और पद बचाने के लिए हर तरह के
कृत्य जायज लगने लगते हैं।
जनसेवा का राग कितना भी राजनेता गाएं लेकिन असली उद्देश्य तो सत्ता होती
है। एक बार सत्ता की आसंदी पर बैठने का अवसर मिल जाए तो आसंदी से ऐसे
चिपकते हैं कि उठने का नाम ही नहीं लेते। जमे रहने के लिए हर तरह का
कृत्य जायज लगता है। नाजायज भी लगे तो भी बर्दाश्त किया जाता है। पद पर
पदारूढ़ होना इतना सम्मानजनक लगता है कि बड़े से बड़ा अपमान भी कोई बहुत
मायने नहीं रखता। नहीं तो क्या कारण है कि जो एक ईमानदार व्यक्ति भ्रष्टï
व्यक्ति को अपने मंत्रिमंडल में बर्दाश्त करता है। वह कैग को ही उपदेश
देता है कि भूल से किए गए काम और जान बूझकर किए काम में उसे भेद करना
चाहिए। 150 वर्ष हो गए, कैग को अस्तित्व में आए। कैग की रिपोर्ट नहीं आती
तो राजा आज भी मंत्री पद पर जमे रहते। क्योंकि कैग की रिपोर्ट ने झूठ की
पोल खोल दी और विपक्ष इसे गले से नीचे उतारने में स्वयं को सक्षम नहीं
महसूस कर सका। उसके पास इसके सिवाय कोई चारा नहंी था कि वह राजा के
इस्तीफे के लिए सरकार को बाध्य करे। उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद
तो विपक्ष का हक बनता है कि वह प्रधानमंत्री से भी इस्तीफा मांगे। सोनिया
गांधी को बाध्य करे कि वे मनमेाहन सिंह का इस्तीफा ले लें। या फिर
कांग्रेस पार्टी राजा के पाप के बोझ को ढोए। बोफोर्स ने कांग्रेस की क्या
हालत की थी, यह आलाकमान सहित सबको अच्छी तरह से पता है। वह तो सौ करोड़
से भी कम का मामला था लेकिन यह मामला तो 1 लाख 76 हजार करोड़ का है और यह
चुनावी मुद्दा बना तो कांग्रेस की लुटिया डूबा सकता है।
- विष्णु सिन्हा
18-11-2010


उच्चतम न्यायालय को जवाब देकर मनमोहन सिंह सिद्ध करें कि वे कमजोर प्रधानमंत्री नहीं हैं

उच्चतम न्यायालय प्रधानमंत्री से पूछ रहा है कि राजा के खिलाफ मुकदमा
चलाने के मामले पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई? उच्चतम न्यायालय  ने 3 माह
का समय दिया था लेकिन 16 माह बीत जाने के बाद भी निर्णय नहीं हुआ। उच्चतम
न्यायालय अपनी कार्रवाई आगे बढ़ाने के लिए भले ही सरकार का उत्तर चाहता
है लेकिन क्यों कार्रवाई नहीं की गयी, यह बात तो सभी को पता है। सरकार को
बनाए रखने के लिए बहुमत की आवश्यकता ने ही प्रधानमंत्री को रोके रखा।
राजा मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के ऐसे मंत्री थे जो प्रधानमंत्री की बात भी
नहीं मानते थे। करुणानिधि की जिद थी कि राजा इस्तीफा नहीं देंगे और उनसे
इस्तीफा लिया गया या उन्हें बर्खास्त किया गया तो वे सरकार से समर्थन
वापस ले लेंगे। करुणानिधि की इस बंदर घुड़की से ही सरकार दबी हुई थी
लेकिन जब करुणानिधि ने देख लिया कि राजा को इस्तीफा देना ही पड़ेगा और
सरकार अब राजा को बचा नहीं सकती तो उन्होंने इस्तीफा देने का निर्देश
राजा को दिया।
मनमोहन सिंह की कमजोरी यह थी कि वे मुकदमा चलाने की अनुमति देते तो
उन्हें राजा से इस्तीफा लेना पड़ता। इस्तीफा न देने पर बर्खास्त करना
पड़ता। संसद में विपक्ष के हंगामे के बाद भी राजा इस्तीफा देने के पहले
स्वयं को न केवल पाक साफ बताते रहे बल्कि इस्तीफे को सिरे से नकारते रहे।
फिर क्यों नहीं नकारते, जब उन्हें अपने दल के सुप्रीमो करुणानिधि का
आशीर्वाद मिला हुआ था। विपक्ष दृढ़ संकल्प से राजा को हटाने की और
संयुक्त संसदीय दल से जांच की मांग पर अड़ा रहा और उसने संसद नहीं चलने
दिया तब कहीं जाकर करुणानिधि राजा के इस्तीफे के लिए तैयार हुए। यह तो
ऊपर-ऊपर की कहानी है और इससे सभी परिचित हैं लेकिन अंदर की कहानी भी
स्पष्टï है। राजा का इस्तीफा  करुणानिधि को भारी पडऩा था और पड़  रहा है।
देश भर में तो उनकी प्रतिष्ठा धूल धूसरित हुई ही। तमिलनाडु में भी उनके
लिए आसन्न विधानसभा चुनाव भारी पडऩे वाला हैं। 1 लाख 76 हजार रुपए का
भ्रष्टाचार उनकी मिट्टी पलीद करने के लिए पर्याप्त हैं।
क्योंकि यह बात कोई व्यक्ति या राजनैतिक पार्टी नहीं कर रही है बल्कि कैग
की रिपोर्ट कह रही है। जिसे संसद के पटल पर रख दिया गया है। प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह लोकसभा में इस संबंध में बयान देने वाले थे लेकिन फिर अचानक
राजा के इस्तीफा देने के बाद उन्होंने बयान नहीं दिया। निश्चित रुप से
मनमोहन सिंह एक ईमानदार व्यक्ति हैं लेकिन राजा के कृत्य ने उनकी
ईमानदारी को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। सब कुछ जानते हुए कार्रवाई न
करना उन्हें न केवल नैतिक रुप से जिम्मेदार बनाता है बल्कि संवैधानिक रुप
से भी उनकी ही जिम्मेदारी थी कि वे राजा के कृत्य के लिए उसे न्यायालय के
हवाले करते। भारत में 120 करोड़ जनता के धन के साथ ऐसा लूटमार एक
प्रधानमंत्री कैसे देख और बर्दाश्त कर सकता है?  इस मामले में निश्चय ही
मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी से भी निर्देश मांगा होगा। क्योंकि वास्तव
में वे ऐसे प्रधानमंत्री नहीं जो सब कुछ का निर्णय स्वयं लें। उनकी लगाम
सोनिया गांधी के हाथ में है और इस बात से तो कोई भी इंकार नहीं कर सकता।
आजकल समाचार पत्रों में सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच न पटने के भी
समाचार प्रकाशित हो रहे हैं। इससे यह भी संदेश पैदा होता है कि कहीं
मनमोहन सिंह की छबि खराब करने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है। जिससे
उन्हें प्रधानमंत्री के पद से हटाया जा सके। यदि यह सच है तो एक ईमानदार
व्यक्ति के साथ यह कोई अच्छी राजनैतिक चाल  नहीं है। मनमोहन सिंह को जब
चाहें पूरी भलमनसाहत के साथ हटाया जा सकता है लेकिन शायद मन में डर हो कि
भले आदमी को बिना किसी वजह के पद से हटाना राजनैतिक रुप से नुकसानप्रद न
साबित हो। मनमोहन सिंह का अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ता कद किसी न
किसी को तो बौनेपन का आभास करा रहा है। दुनिया की ताकतवर हस्ती जब मनमोहन
सिंह की तारीफ में कसीदे काढ़े तो किसी न किसी के हृदय में टीस उठती ही
होगी।
गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं। गठबंधन में कौन सा दल रहे और कौन सा
नहीं, यह तय करना मनमोहन सिंह का नहीं सोनिया गांधी का काम है। फिर
गठबंधन के किस दल को मंत्रिमंडल में कितना स्थान और कौन सा विभाग मिले,
यह तय करना भी मनमोहन सिंह के हाथ में नहीं है। राजनैतिक रुप से कभी न
कभी मनमोहन सिंह ने कोशिश की और न ही सोनियागांधी ने अवसर दिया कि मनमोहन
सिंह देश की जनता के बीच एक राजनेेता की तरह प्रतिष्ठिïत हों। चुनाव
प्रचार में भी उनकी भूमिका एक टोकन की तरह रही। मनमोहन सिंह ने इस
व्यवस्था को लेकर कभी नाराजगी भी प्रगट नहीं की। वे अपनी भूमिका को अच्छी
तरह से जानते और समझते हैं। वे यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि वे
सोनिया गांधी के चुने हुए प्रधानमंत्री हैं। जब तक सोनिया गांधी चाहेंगी
वे पद पर बने रहेंगे। इसके बावजूद उन्होंने पिछले दिनों कहा कि अभी वे
अवकाश ग्रहण नहीं करना चाहते। उनकी स्थिति का आभास तो इसी बात से हो जाता
है कि उनकी ही मंत्रिपरिषद का सदस्य उनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं था
और उसके बावजूद वे उसे अपने मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता नहीं दिखा सकते
थे। इस कमजोरी का असली कारण तो स्पष्टï है। बिना आलाकमान के निर्णय के वे
कुछ कर नहीं सकते। तमाम कारणों के बावजूद मनमोहन सिंह अपनी स्थिति के लिए
किसी दूसरे पर दोषारोपण कर बच नहीं सकते। संवैधानिक रुप से वे
प्रधानमंत्री की हैसियत से अपने मंत्री के कार्यों के प्रति जवाबदार है।
वे सुप्रीम कोर्ट में अपनी दयनीय स्थिति का बखान कर बच नहीं सकते कि उनका
मंत्री उनका कहा नहीं सुनता तो वे  चुप्पी लगाते हैं। अर्थशास्त्र के इस
प्रकांड पंडित को प्रधानमंत्री बने रहने की ही ऐसी क्या मजबूरी है कि
इतना बड़ा आर्थिक घोटाला होते हुए वे न तो रोक सके और न ही उसे
मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर सके। वे यदि राजा को हटाने में अक्षम थे तो वे
स्वयं प्रधानमंत्री का पद छोड़ सकते थे। उनकी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री के
रुप में सोनिया गांधी से ज्यादा राष्टï्र के प्रति थी और वे इस मामले में
अक्षम सिद्ध हुए, इसके लिए अब प्रमाण की जरुरत नहीं है।
लोकसभा चुनाव के समय जब लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि मनमोहन सिंह एक
कमजोर प्रधानमंत्री हैं तब तो मनमोहन सिंह ने बड़े गुस्से से कहा था कि
वे कमजोर प्रधानमंत्री नहीं है लेकिन राजा के मामले में उच्चतम न्यायालय
के निर्देश का पालन न कर एक भ्रष्टï व्यक्ति को इतने दिनों तक अपने
मंत्रिमंडल में रख कर तो उन्होंने यह संदेश दिया है कि वे कमजोर
प्रधानमंत्री हैं। यह दूसरी बात है कि देश को आर्थिक रुप से सुदृढ़ करने
के मामले में उनकी सेवाएं अद्वितीय हैं लेकिन 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपए
का नुकसान अपनी आंखों के सामने होता देखना, उनकी योग्यता पर भी
प्रश्रचिन्ह ही लगाता है। अब दें जवाब उच्चतम न्यायालय को पूरी ईमानदारी
से कि क्यों उन्होने मुकदमा चलाने की अनुमति 16 माह तक नहीं दी?

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 17.11.2010
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