यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
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गुरुवार, 27 जनवरी 2011

चुनाव जीत ही न सके बल्कि चुनाव जितवा भी सके ऐसा भाजपा में इकलौता शख्स बृजमोहन अग्रवाल

वैशालीनगर का उपचुनाव और भिलाई नगर निगम का चुनाव जीत कर कांग्रेस अति उत्साहित हुई और संजारी बालोद का उपचुनाव भी जीत लेने की उसे पूरी आशा थी लेकिन अपने संकटमोचक बृजमोहन अग्रवाल को चुनाव संचालक बनाकर भाजपा ने अति उत्साहित कांग्रेसी आशा को कठिन चुनौती में तो बदल ही दिया है। भाजपा में वैसे तो एक से एक बड़े बड़े नेता हैं लेकिन चुनाव में विजयी होने की मर्मज्ञता जिस तरह से बृजमोहन अग्रवाल के पास है, वैसा तो दूसरा कोई नहीं दिखायी पड़ता। अपने चुनाव क्षेत्र से चुनाव लडऩा और जीतना अलग बात है लेकिन दूसरे विधानसभा क्षेत्र से पार्टी के प्रत्याशी को जीत दिलाना और वह भी सिक्केबंद जीत दिलाना हर किसी के बस की बात नहीं। हर किसी के क्या अच्छे अच्छों के भी बस की बात नहीं। दुर्ग जिले में भाजपा के पास नेता नहीं हैं, ऐसा नहीं है। सरोज पांडे, हेमचंद यादव, प्रेमप्रकाश पांडे जैसे दिग्गज नेता हैं लेकिन इन्हें चुनाव संचालन की जिम्मेदारी न देकर रायपुर के विधायक बृजमोहन अग्रवाल को जिम्मेदारी देना, बहुत कुछ कहा जाता है।
वैशाली नगर और नगर निगम भिलाई की हार ने भी बड़े नेताओं के कसबल ढीले कर दिए हैं। किसी ने भी विरोध करने की जरुरत नहीं समझी कि हम हैं, न। संजारी बालोद जीतने के लिए बृजमोहन की क्या जरुरत है? हार ने सभी को अपनी स्थिति से अच्छी तरह परिचित करा दिया है। रायपुर नगर निगम में महापौर का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस से भी कम पार्षदों के जीतने के बावजूद सभापति का चुनाव बृजमोहन अग्रवाल ने जीत कर दिखा दिया। इसके विपरीत भिलाई नगर निगम में महापौर का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस से ज्यादा भाजपाई पार्षदों के होने के बावजूद सभापति का चुनाव भाजपा जीत नहीं पायी। कहा जाता है कि दुर्ग जिले में भाजपा में गुटबाजी इतनी हावी है कि जनता तो चाहती हैं कि भाजपा जीते लेकिन नेताओं का आपसी द्वन्द हार का कारण बन जाता है।
कांग्रेस में गुटबाजी कम है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता बल्कि खुल कर है और चुनाव के समय तो शर्म हया को ताक पर रख कर गुटबाजी अपना खेल दिखा चुकी है। कांग्रेस के दो विधायक ही खुल्लम खुल्ला लड़ते दिखायी पड़े। छत्तीसगढ़ स्वाभिमान को जो 45 हजार वोट मिले, उसमें भी बड़ा हिस्सा कांग्रेस का ही था लेकिन फिर भी जीत कांग्रेस के हिस्से में आयी। जबकि अक्लमंदी का परिचय दिया जाता तो भाजपा इसे अपने पक्ष में भुना सकती थी। भाजपा संगठन इससे अंजान है, ऐसा नहीं है लेकिन बड़े नेताओं की आपसी टकराहट को रोकने में ïवह भी असफल हैं। किसी पर कार्यवाही करना तो दूर की बात है। इसीलिए चुनाव के बाद ईमानदारी से हार की समीक्षा से भी वह भय खाता है। रायपुर नगर निगम के चुनाव की समीक्षा ही ईमानदारी से संगठन करता तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता। आश्चर्य तो तब होता है जब असली दोषियों को सजा देने के बदले सरकारी पद देकर सम्मानित किया जाता है और ऐसे लोग पार्टी के भाग्यविधाता बने रहते हैं।
आज भी छोटे कार्यकर्ताओं को कम शिकायत नहीं है। वही गिने-चुने चेहरे सत्ता का सुख लूट रहे हैं। स्वाभाविक रुप से पार्टी से भावनात्मक लगाव के नाम पर उनका कब तक शोषण किया जाता रहेगा। बृजमोहन अग्रवाल की एक सबसे बड़ी खूबी तो यही है कि वह छोटे-बड़े कार्यकर्ता का भेद किए बिना सबके साथ समान रुप से जुड़े रहते हैं और कार्यकर्ता का काम हो तो किसी से भी भिडऩे में संकोच नहीं करते। पार्टी के प्रति भावनात्मक लगाव ऐसा है कि बिना इस बात की परवाह किए, किसी भी चुनौती को स्वीकार कर लेते हैं, जिसमें असफल होने की संभावना भी रहती है। संजारी बालोद की जिम्मेदारी कोई चतुर सुजान लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। घर में वैवाहिक कार्यक्रम के बावजूद बृजमोहन चुनौती स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए। वे यह भी जानते हैं कि संजारी बालोद जैसे क्षेत्र में उन्हें कांग्रेस से ही नहीं जूझना पड़ेगा बल्कि अपनी ही पार्टी के उन लोगों से भी जूझना पड़ेगा जो नहीं चाहते कि जीत का श्रेय बृजमोहन अग्रवाल को मिले। क्योंकि संजारी बालोद की जीत उन्हें बौना बना देगी।
विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रविन्द्र चौबे के लिए भी संजारी बालोद का चुनाव बड़ी चुनौती  है। धनेन्द्र साहू तो पार्टी के अध्यक्ष कार्यकाल समाप्त हो जाने के बाद भी इसीलिए बने हुए हैं क्योंकि संजारी बालोद का उपचुनाव है। भटगांव में जीत के बड़े-बड़े दावे जिस तरह से असफल सिद्ध हुए थे, उसके बाद संजारी बालोद पद पर बने रहने के लिए आखरी मौका है। इसलिए रविन्द्र चौबे और धनेन्द्र साहू के लिए संजारी बालोद का चुनाव जीतना पद पर बने रहने के लिए सबसे ज्यादा जरुरी है। जो नहीं चाहते कि ये दोनों पद पर बने रहें उनके लिए तो यह सुनहरा अवसर हैं। फिर रविन्द्र चौबे के लिए तो यह गृह क्षेत्र की तरह है। स्वाभाविक रुप से जीत के लिए ये कुछ उठा नहीं रखेंगे।
कांग्रेस और भाजपा के साथ यह चुनाव छत्तीसगढ़ स्वाभिमान के लिए भी एक तरह से अंतिम मौका है। यदि वह संजारी बालोद पर कब्जा करने में सफल हो जाए तो कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए खतरे की घंटी बज जाएगी। वह न भी जीत पाए तो भाजपा को ही हरवाने में सफल हो जाए तो उसके लिए संतुष्टि की बात होगी। छत्तीसगढ़ स्वाभिमान के सुप्रीमो ताराचंद साहू का तो एक ही स्वप्न है, भाजपा का पराभव। इन सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए कोई भी चतुर सुजान भाजपा का जितवाने की जिम्मेदारी स्वयं लेने के बदले बृजमोहन अग्रवाल को देना चाहता हैं तो वह एक तरह से अपनी गर्दन तो बचाता ही है, बृजमोहन की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाता है। अजेय बृजमोहन अग्रवाल सारी परिस्थितियों को अच्छी तरह से समझते हैं। घर में शादी के बहाने वे इस जिम्मेदारी से बच सकते थे और तथाकथित चतुर सुजानों की राह पकड़ सकते थे लेकिन चुनौतियों से बच कर निकल जाना तो उनके स्वभाव में नहीं है। चुनौतियों को ललकारने, उससे दो दो हाथ करने में ही उनका सदा से विश्वास रहा है। बड़े-बड़े पार्टी के चतुर सुजान चुनाव हारते और जीतते रहे हैं लेकिन बृजमोहन अग्रवाल हैं कि उन्हें अभी तक कोई हरा नहीं सका।
यह भी तय है कि संजारी बालोद का चुनाव पार्टी प्रत्याशी जीता तो जीत का श्रेय पार्टी को मिलेगा। कार्यकर्ताओं को मिलेगा बड़े-बड़े नेताओं को मिलेगा लेकिन जनता तो जानेगी कि जीत के असली हकदार बृजमोहन अग्रवाल हैं। भाजपा सरकार में सबसे दबंग मंत्री की छबि उनकी ऐसे ही नहीं है। समाचार पत्र ही जब लिखते हैं कि दबंग मंत्री बिना उनका नाम लिखे तब भी लोग समझ जाते हंै कि दबंग मंत्री कौन है? बृजमोहन के संजारी बालोद का चुनाव संचालक बनने से यह आशा तो भाजपा में सहज ही बन गयी है कि चुनाव जीत लेंगे। यह कोई छोटी छबि नहीं हैं बृजमोहन अग्रवाल  की। दरअसल चुनाव जो जीत सके, उससे भी बड़ी बात जो चुनाव जितवा सके, उसमें होती है। बृजमोहन अग्रवाल ऐसे शख्स हैं, यह बात भाजपा ही नहीं, सभी मानते हैं।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 22.01.2011
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