यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

भारत आज भी सोने की चिडिय़ा है लेकिन सोना स्विस बैंकों में जमा है

छत्तीसगढ़ सरकार का बजट 25 हजार करोड़ रुपए वार्षिक का है। यह स्थिति भी
10 वर्ष के निरंतर प्रयासों के बाद आयी है। 1 नवम्बर 2000 में जब
छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आया तब मार्च 2001 में जो बजट पेश किया गया
था, वह तो 3 हजार करोड़ रुपए से अधिक का नहीं था। अब सरकार प्रयास कर रही
है कि मार्च में वह 30 हजार करोड़ का बजट प्रस्तुत करे। 2 करोड़ से अधिक
आबादी का राज्य 25-30 हजार करोड़ रुपए वर्ष भर में खर्च कर सर्वाधिक
विकास दर देश भर में हासिल कर लेता है। इसके विपरीत एक केंद्रीय मंत्री,
एक विभाग का मंत्री 1 लाख 76 हजार करोड़ का सरकारी खजाने को चूना लगा
देता है। छत्तीसगढ़ के मान से देखें तो छत्तीसगढ़ सरकार पिछले 10 वर्ष
में जो रकम अपनी जनता और प्रदेश के विकास पर खर्च नहीं कर सकी उससे अधिक
रकम संचार मंत्री ने सरकारी खजाने में आने से रोक दिया। यह रकम यदि
छत्तीसगढ़ सरकार को मिल जाती और सरकार इसे बैंक में ही फिक्सड डिपाजिट
में जमा कर देती तो जनता से बिना एक पैसे का टैक्स लिए ही उसका काम चल
जाता।
फिर भी 1 लाख 76 हजार करोड़ की लूट स्विस बैंक में जमा भारतीय धन के
मुकाबले में कुछ भी नहीं है। स्विस बैंक के आंकड़े ही कह रहे हैं कि 66
हजार अरब रुपए भारतीयों के स्विस बैंकों में जमा है। दुनिया भर के देशों
के लोगों ने जितनी रकम स्विस बैंक में जमा करा रखी है, उससे अधिक सिर्फ
भारतीयों की ही रकम है। 66 हजार अरब रुपए का अर्थ होता है, 66 लाख करोड़
रुपए। भारत सरकार का बजट 10 लाख करोड़ के आसपास है। मतलब स्विस बैंकों
में जमा रकम से 7 वर्ष तक भारत सरकार का खर्च बिना किसी तरह से जनता पर
टैक्स लगाए भी चल सकता है। फिक्सड डिपाजिट में ही जमा करा दिया जाए तो
आधे से अधिक रकम सिर्फ ब्याज से ही प्राप्त की जा सकती है। आंकड़े
स्पष्टï करते हैं कि भारत अभी भी वर्षों की गुलामी और लूटमार के बावजूद
सोने की चिडिय़ा ही है।
फिर भी इस देश की 50 प्रतिशत जनसंख्या 20 रुपए प्रतिदिन में गुजारा करने
के लिए बाध्य है तो कमजोरी हुक्मरानों की ही है। कभी कभार खबर आती है कि
किसी छुटभैय्ये के यहां छापा पड़ा और उसके पास 3-4 करोड़ की संपत्ति
मिली। किसी बड़े नौकरशाह के पास 4-5 सौ करोड़ की संपत्ति  किसी के घर से
दो चार करोड़ के नोट ही निकल आते हैं। सरकार ने बड़े बड़े नौकरशाहों की
भारी भरकम टीम ही बना रखी है जिनका काम है, काले धन का पता लगाना। इसके
बावजूद देश से 66 लाख करोड़ रुपए स्विस बैंकों में पहुंच जाते हैं। पता
ही नहीं चलता। कभी बेईमान बोल देने से किसी का बड़ा से बड़ा अपमान समझा
जाता था लेकिन अब वह बात तो रही नहीं। धन ही मान प्रतिष्ठा का कारण बन
गया और कोई पूछने के लिए भी तैयार नहीं कि धन आया कहां से? यह तो तभी
पूछा जाता है जब किसी तरह की राजनैतिक अदावत हो। अपराधी संवैधानिक
संस्थाओं के लिए चुन लिए जाते हैं। मंत्री तक बना दिए जाते हैं। तर्क
दिया जाता है कि जब तक न्यायालय में किसी का दोष सिद्ध न हो तब तक सभी
ईमानदार, निरपराध।
उच्चतम न्यायालय में ही एक वरिष्ठï वकील, भूतपूर्व कानून मंत्री
शांतिभूषण कहते हैं कि उच्चतम न्यायालय के 8 पूर्व न्यायाधीश भ्रष्टï थे।
प्रमुख उद्योगपति रतन टाटा कहते हैं कि उनसे एक विमान मंत्री ने रिश्वत
मांगी थी और उनके इंकार करने के कारण वे हवाई सेवाओं के व्यापार में नहीं
आ सके। 1970 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टïाचार के
विरुद्ध ही सबसे बड़ा आंदोलन गुजरात से प्रारंभ होकर पूरे देश में फैला।
देश में आपातकाल लगा। बड़े-बड़े नेताओं से लेकर छोटे-छोटे नेता जेल की
सलाखों के पीछे डाल दिए गए थे। आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत व्यापारियों
को भी जेल की हवा खानी पड़ी थी। मीडिया पर सैंसर लगा दिया गया था। इसके
बाद चुनाव हुआ तो बाहर से सब कुछ अच्छा-अच्छा दिखायी देने वाला सरकार को
माहौल भारी पड़ा और कांग्रेस की सरकार को जनता ने सत्ताच्युत कर दिया।
लगा कि नया जमाना आया। तपस्वी, ईमानदार लोग सत्ता में आ गए। अब सब कुछ
बदल जाएगा। बदला कुछ नहीं और शर्म हया विलोपित हो गयी। सत्ता के लिए ऐसा
संघर्ष मचा कि सरकार अपना कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पायी। फिर से चुनाव
हुआ और जनता ने सत्ता उसे ही सौंप दी, जिनसे वह ढाई वर्ष पूर्व पूरी तरह
से नाराज थी। फिर 10 वर्ष बाद बोफोर्स दलाली का तूफान उठा। राजा नहीं
फकीर है, का नारा लगा लेकिन ढाक के वही तीन पात। मंदिर मुद्दा, आरक्षण
मुद्दा के सामने भ्रष्टाचार के मुद्दे को दफन कर दिया गया। आज पार्टी कोई
भी हो मुद्दा एक ही है धर्म निरपेक्षता या सांप्रदायिक शक्तियां सत्ता पर
काबिज न हो जाएं, इसलिए बिना किसी नीति सिद्धांत के भी समझौता और गठबंधन।
बहुमत का आंकड़ा और सत्ता की आसंदी। जहां तक आर्थिक विकास का प्रश्न है
तो यह सभी  पार्टियों का मुद्दा है। गरीब की भलाई ऐसा मुखौटा है जिससे
वोट बटोरा जाता है। खुलेआम चुनाव आयोग की आचार संहिता के बावजूद चुनाव
में धन की नदियां बहती हैं। लेने वाला तो पूछता ही नहीं कि आखिर यह दौलत
आया कहां से। छोटे-छोटे मुद्दे भ्रष्टाचार के भी यदा कदा उठते हैं लेकिन
बड़ा मगरमच्छ तो पकड़ में आता नहीं। कोई धोखे से आ भी गया तो न्यायालय
में ही वर्षों लग जाते हैं और आरोपी जमानत पाकर सत्ता का मजा लूटता है।
प्रश्र तो यही है कि भ्रष्टïाचार मुद्दा ही नहीं बनता। दो बार मुद्दा बना
और परिणाम नकारात्मक ही मिले। चोर-चोर मौसेरे भाई भ्रष्टाचार के मामले
में यह सही साबित होता है। ईमानदारी को मूर्खता का तमगा मिले तो ईमानदारी
कौन करना चाहेगा? फिर ईमानदारी को ठिकाने लगाना भ्रष्टाचारियों के लिए
कोई कठिन काम भी नहीं है। कभी रहा होगा जमाना कि भ्रष्टïाचार करने वाले
डरे रहते थे कि कानून के शिकंजे में न फंस जाएं लेकिन आज तो ईमानदार आदमी
डरा हुआ है कि उसे बेईमान कहीं झूठे मामले में न फंसा दे। धन में बड़ी
शक्ति है और धन किसे नहीं चाहिए। कानून का पालन कराने की जिनकी
जिम्मेदारी है, वे ही बचने का भी रास्ता बताते हैं। जब मनमोहन सिंह जैसा
ईमानदार प्रधानमंत्री ही अपने बेईमान मंत्री का कुछ नहीं बिगाड़ सकता तब
किससे उम्मीद की जा सकती है।
हालांकि स्वामी रामदेव भारत स्वाभिमान के नाम पर देश भर में एक बड़ी
राजनैतिक चेतना भ्रष्टïाचार के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं।
वे पूरे भारत के दौरे पर हैं। गांव-गांव अलख जगा रहे हैं। स्विस बैंक में
जमा  काला धन वापस लाने की बात भी सबसे पहले उन्होंने कहा। इसके लिए वे
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी मिले। भारतीय जनता पार्टी ने भी लोकसभा
चुनाव के समय कहा था कि उसकी सरकार बनी तो वे स्विस बैंक में जमा काला धन
वापस लाएंगे लेकिन जनता ने उन्हें सरकार बनाने का अधिकार नहीं दिया। खबर
है कि मनमोहन सिंह की सरकार भी इसके लिए प्रयास कर रही है। सरकार के
प्रयासों में जो त्वरा होनी चाहिए, वह नहीं दिखायी पड़ती। जैसा कभी कभार
सरकार अपनी अघोषित आय घोषित करने वालों को रियायत देने की योजना बनाती
है। उसी तरह की योजना स्विस बैंक के लिए भी बनाए तो कुछ परिणाम आ सकते
हैं। ज्यादा उम्मीद इसलिए नहीं की जा सकती, क्योंकि ज्यादा धन
राजनीतिज्ञों एवं नौकरशाहों के ही जमा होने की उम्मीद है। जनता को बात
समझ में आ गयी तो स्वामी रामदेव का आंदोलन भी स्वामी रामदेव के पक्ष में
हवा बना सकता है। क्योंकि जनता के पास खोने के लिए क्या है? वह सबको आजमा
कर देख चुकी है।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 19.11.2010
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