यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

गांधी जी आज भी यही कहेंगे कि सबको सन्मति दे भगवान

26 जनवरी को काश्मीर में श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने के भारतीय जनता युवा मोर्चा के घोषित कार्यक्रम को असफल करने के प्रयास में जम्मू काश्मीर की सरकार के साथ केंद्र सरकार भी सम्मिलित हो गयी है। कल रायपुर से जम्मू के लिए विशेष आरक्षित ट्रेन को गृह मंत्रालय ने रद्द करवा दिया। इस ट्रेन को आरक्षित करने के लिए बाकायदा भाजयुमो ने 18 लाख रुपए रेलवे के मांगने पर पटाए थे। यदि रेल सुविधा नहीं दी जानी थी तो धन लेकर ट्रेन आरक्षित करने की जरुरत ही क्या थी? ऐसा तो नहीं था कि रेल और गृह मंत्रालय को जानकारी नहीं थी कि ट्रेन किस उद्देश्य से आरक्षित करवायी गई है। इस तरह की रणनीति कम से कम एक साफ सुथरी सरकार की अच्छी रणनीति नहीं समझी जा सकती। भाजयुमो को भी उम्मीद नहीं थी कि रेल विभाग इस तरह से धन लेने के बावजूद ट्रेन चलाने से इंकार कर देगा। इससे सरकार के संबंध में कोई अच्छा संदेश तो जनता के बीच नहीं गया।
बेंगलुरु से चलने वाली ट्रेन को भी महाराष्टï्र से रात के अंधेरे में वापस बेंगलुरु भेज देना, सरकार की कमजोरी का ही द्योतक है। जब श्रीनगर यात्री नींद में हों तब उन्हें धोखा देकर ट्रेन को वापस कर देना केंद्र सरकार की छबि खराब करने वाला काम ही समझा जाएगा। इससे कांग्रेसी सरकार यह न सोचे कि उसने कोई बड़ा तीर मार लिया है। श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने का कार्यक्रम निखालिस राजनीति से संबंधित है और लाल चौक पर भाजयुमो झंडा फहरा सके या न फहरा सके, उसने राजनैतिक संदेश तो देश के लोगों को दे ही दिया। भाजपा भाजयुमो के द्वारा यह संदेश भी देने में तो सफल हो ही गयी कि केंद्र सरकार देश के ही एक राज्य में तिरंगा फहराने के कार्यक्रम को बाधित करने के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाती है। भाजयुमो का लाल चौक पर 26 जनवरी को झंडा फहराने के कार्यक्रम से सहमति असहमति होना तो स्वाभाविक है लेकिन जिस तरह से रोका जा रहा है कार्यक्रम को उसे कैसे उचित कहा जा सकता है? कम से कम जम्मू तक तो लोगों को जाने ही दिया जाता। इससे यह तो प्रतिध्वनित होता कि देश में कहीं से भी काश्मीर जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
श्रीनगर जाने का अवसर भाजयुमो को नहीं मिलता तो 26 जनवरी भी गुजर जाती और प्रदर्शनकारी जम्मू में प्रदर्शन कर लौट आते। इसमें कोई दो राय नहीं है कि तिरंगा देश के नागरिकों के स्वाभिमान से जुड़ा मामला है। तिरंगा फहराने का अधिकार हर भारतीय नागरिक को पूरे देश में है। काश्मीर में जब तिरंगा न फहराने दिया जाए तो इससे लोगों के हृदय पर चोट लगती है। फिर भी भारतीय इतने सहनशील हैं ही कि सब कुछ बर्दाश्त कर लेते हैं। भाजयुमो के इस कार्यक्रम पर देश के नागरिकों की ही नजर नहीं है बल्कि दुनिया भी देख रही है कि किस तरह की राजनीति देश में हो रही है। दुनिया में ऐसा कौन सा देश होगा जहां राष्ट्रीय झंडे को फहराने से रोका जाए? भारत शायद इकलौता देश है जहां राष्टï्रीय झंडे के साथ इस तरह का व्यवहार किया जा रहा है। यदि पड़ोसी देश काश्मीर को विवादास्पद क्षेत्र बताते हैं तो भारत सरकार का कृत्य उनकी बातों को और ताकत ही देता है।
जो लोग काश्मीर के भारत में विलय को ही नहीं मानते और वे भारतीय हैं। उनके खिलाफ तो भारत सरकार कोई कदम नहीं उठाती। आजादी का क्या यही अर्थ होता है? राष्टï्र विरोधी विचारों की भी आजादी। काश्मीर में पाकिस्तानी झंडा फहराया जाता है तब क्या सरकार के स्वाभिमान पर चोट नहीं लगती? भारतीयों के मन पर तो चोट लगती है लेकिन तुष्टिकरण की राजनीति ऐसी है कि सब चलता है। यह तो एकदम स्पष्टï है कि श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने की कोशिश में क्या होगा, यह भाजपा और भाजयुमो अच्छी तरह से जानते हैं। वे भी चाहते तो यही हैं कि सरकार केंद्र और राज्य की उन्हें रोकने के लिए हर तरह का प्रयत्न करे। जिससे वे नायक बन कर उभरें। वे सफल हैं अपने कार्यक्रम में। एक राम जन्मभूमि आंदोलन जब भाजपा को सत्ता तक पहुंचा सकता है तो काश्मीर में झंडा फहराने की कोशिश भी कुछ उसी तरह का कृत्य है।
लोगों की भावनाओं को, संवेदनाओं को किस तरह से उकसाया जाए। यदि लोग उत्तेजित होते हैं तो राजनीति अपना उल्लू सीधा करना जानती है। क्योंकि यह बात तो कई बार स्पष्ट हो चुकी है कि भारतीय मतदाता सरकार के 5 वर्ष के कार्य पर तो आम समय में दृष्टिï डालकर फैसला करता है लेकिन संवेदनाओं का उफान उठे तो वह सब कुछ भूल भाल जाता है। उसे महंगाई और भ्रष्टाचार उतना नहीं उकसाते जितना भावनाओं से जुड़े मुद्दे। भारतीयों का चरित्र तो इस तरह का है कि जरुरत पडऩे पर वह राष्ट्र के लिए सप्ताह में एक समय उपवास भी रख सकता है। युद्ध के समय सरकार मांगे तो माताएं बहनें अपने जेवर दान कर सकती हैं। चीन के युद्ध के समय यह सब हुआ देश में। लाल बहादुर शास्त्री के आव्हान पर खाद्य समस्या से निपटने के लिए लोगों ने सप्ताह में एक समय का भोजन त्याग दिया था। महात्मा गांधी के आïव्हान पर अंग्रेजों की लाठियां खाने के लिए लोग तैयार हो गए थे। भावनाओं को उकसाया जाए तो भारतीय सब कुछ कर सकते हैं।
भाजपा के विरुद्ध अल्पसंख्यकों को सतर्क करने का काम कर राजनैतिक पार्टियां सत्ता सुख लूटती रही हैं। अल्पसंख्यकों को इसका लाभ क्या हुआ, यह अब तो स्पष्टï है। खेल अब भी चालू है। भ्रष्टाचार सारी सीमाओं को तोड़ रहा है। महंगाई लोगों का गला दबा रही है। संसद की कार्यवाही पूरे एक सत्र नहीं चलती। न तो विपक्ष मानने को तैयार है और न ही सरकार। विकास, विकास और विकास की बातें सभी सरकारों की जबान की शोभा है। विश्व की प्रमुख शक्ति बनने की राह पर भारत है। कितने विरोधाभासों से भरा भारतीयों का जीवन है। कितने ही राज्य नक्सली समस्या से पीडि़त है। यह सब एक तरफ है लेकिन इससे जरुरी है काश्मीर में श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराना। भारत की दूसरे नंबर की राजनैतिक पार्टी के लिए तिरंगा फहराने से अहम कोई काम नहीं है तो प्रथम राजनैतिक पार्टी जो सरकार में है, उसके लिए तिरंगा न फहराने देना। महात्मा गांधी स्वर्ग में बैठ कर देखते होंगे कि जिनके लिए आजादी का संघर्ष उन्होंने किया, वे इस देश को किस तरफ ले जा रहे हैं तो निश्चित रुप से प्रसन्न नहीं होते होंगे। वे फिर से गाने लगते हों कि अल्ला ईश्वर तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान लेकिन आश्चर्य से देखते होंगे कि कोई उनका भजन भी सुनने के लिए तैयार नहीं है। जितना श्रम और धन इस तरह के कार्यक्रमों पर खर्च किया जा रहा है, वह लोगों की समस्या हल करने में लगाया जाए तो ही राजनीति सही मार्ग पर चलेगी।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 24.01.2011
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