यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

नानाजी देशमुख के परलोक गमन से भारतमाता ने अपना एक सपूत खो दिया


आज की राजनीति में ऐसे इंसान की तलाश करना कठिन काम है, जिसकी कथनी और करनी एक हो। नानाजी देशमुख ऐसे ही व्यक्ति थे। जनता पार्टी की जब सरकार बनी तब उन्होंने घोषणा की थी कि 60 वर्ष का हो जाने पर राजनीतिज्ञ को सत्ता की राजनीति से अवकाश प्राप्त कर लेना चाहिए। आने वाली नई युवा पीढ़ी को मौका देना चाहिए। किसी ने उनकी बात नहीं मानी लेकिन नानाजी देशमुख अपनी बात पर कायम रहे और 60 वर्ष का होते ही, उन्होंने सक्रिय राजनीति से अवकाश प्राप्त कर लिया। वे चित्रकूट में जा बसे और सामाजिक कार्यों के लिए अपना जीवन लगा दिया। दीनदयाल शोध संस्थान और ग्रामोदय विश्वविद्यालय के माध्यम से उन्होंने ग्रामीण भारत की सेवा का प्रकल्प अपने अवकाश प्राप्त करने के बाद चुना। काश उनके आदर्शों का अनुसरण उनके साथी राजनीतिज्ञ करते तो देश किसी और दिशा में आगे बढ़ता।
देश में बढ़ती महंगाई, भ्रष्टïचार, बेरोजगारी के विरुद्ध जब आंदोलन प्रारभ हुआ तब जयप्रकाश नारायण के कंधे से कंधा मिलाकर नानाजी देशमुख ने आंदोलन को गति देने में सक्रिय भूमिका निभायी। जब पुलिस ने लाठी चार्ज किया तो नानाजी देशमुख जयप्रकाश नारायण की सुरक्षा में उनके सामने चट्टïन की तरह खड़े हो गए। जब सभी विपक्षी दलों ने इंदिरा गांधी के तानाशाही शासन के विरुद्ध एकजुट होकर संघर्ष किया तो भारतीय जनसंघ को जनता पार्टी में एकाकार करने में नानाजी देशमुख की प्रमुख भूमिका थी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवक और आजन्म प्रचारक की भूमिका जब उन्होंने चुनी तो उनका उद्देश्य देश प्रेम ही था। वे भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य थे। वे चाहते तो बड़ा से बड़ा पद राजनीति में प्राप्त कर सकते थे लेकिन पद प्राप्त करना ही जिसका उद्देश्य न हो, वह इस बात की फिक्र नहीं करता कि कौन पद पर बैठता है? उसे तो मतलब होता है कि कोई भी पद पर बैठे लेकिन जनता की सेवा ईमानदारी से करें। 
इसलिए राजनीति में भी उन्होंने विचारों की उच्चता तो कायम रखी लेकिन उच्च पदों के अभिलाषी नहीं रहे। जिस तरह से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति का पूरा आंदोलन चला लेकिन जब जनता ने जनादेश दे दिया जनता पार्टी को तब जयप्रकाश नारायण ने स्वयं प्रधानमंत्री बनने की कोशिश नहीं की। ठीक उसी तरह से जिस तरह से आजादी का आंदोलन चला तो महात्मा गांधी के नेतृत्व में लेकिन जब भारत स्वतंत्र हो गया तब महात्मा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने की कोई इच्छा प्रगट नहीं की। हालांकि वे चाहते तो प्रधानमंत्री बनने से उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। जयप्रकाश नारायण भी प्रधानमंत्री बनना चाहते तो किसकी ताकत थी जो उन्हें प्रधानमंत्री बनने से रोक सकता था। ये सब त्यागी पुरुष थे। नानाजी देशमुख भी इसी कड़ी के व्यक्ति थे। वे भी कुछ बनना चाहते सत्ता की राजनीति में तो उन्हें कौन रोक सकता था? लेकिन नानाजी देशमुख के लिए राजनीति सत्ता का नहीं सेवा का माध्यम था। 
यही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवक के रुप में उन्होंने सीखा था और इसी की दीक्षा उन्होंने प्राप्त की थी। पूरा जीवन बिना गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किए देश की सेवा में लगाने वाले विरले ही होते हैं। कहां 80-85 वर्ष की उम्र में भी लोग सत्ता में बड़ा से बड़ा पद प्राप्त करने के लिए उस तरह के षडय़ंत्र करते हैं, पूरी बेशर्मी से जो किसी भी लिहाज से शोभनीय नहीं है। लोग धक्के मार रहे हैं कि हटो। कुर्सी खाली करो लेकिन कुछ बुजुर्ग है, जो समझने के लिए ही तैयार नहीं है। 1911 में जन्मे नानाजी देशमुख ने 2010 में शरीर त्यागा। मतलब 1 वर्ष वे और रह जाते तो 100 वर्ष पूरे कर लेते लेकिन उन्होंने 60 वर्ष की उम्र में ही अर्थात आज से करीब 39 वर्ष पूर्व ही सक्रिय राजनीति को अलविदा कर दिया था लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वे घर में बैठ कर राम-राम जप रहे थे। जीवन से निराश हताश व्यक्ति नहीं थे नानाजी देशमुख बल्कि अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ वे वास्तविक लोककल्याण के काम में लगे थे। 
किसी को महानता का बुखार चढ़ता है तो वह जोश में घोषणा कर देता है कि 60 वर्ष की उम्र के बाद वह अवकाश ग्रहण कर लेगा लेकिन 60 वर्ष पूरे भी हो जाते है और वह पद लिप्सा से ग्रस्त राजनीति को छोड़ नहीं पाता। तब नानाजी देशमुख की ही याद आती है कि देखो यह भी एक व्यक्ति है जो कहा कर के दिखाया। वे सक्रिय राजनीति में न जाते तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी सर्वोच्च पद को सुशोभित कर सकते थे। कम संभावना नहीं थी कि वे राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ के सरसघ्चालक बन जाते लेकिन महत्वाकांक्षा और पदलिप्सा का ज्वर जिसे न हो उसकी सोच ही अलग होती है। भारतीय संस्कृति में आस्था के वे बड़े प्रतीक थे। हिंदुओं के उत्थान और एकता को उन्होंने अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य माना था। पूरा जीवन जिस उद्देय को लेकर उन्होंने होम किया, उसके पदचिन्ह तो सर्वत्र दिखायी पड़ते हैं। पद्मविभूषण जैसा सम्मान उन्हें अवश्य मिला लेकिन उनके जीवन का उद्देश्य कहीं से भी ऐसा सम्मान प्राप्त करने की लालसा वाला नहीं रहा।
बड़े-बड़े भवनों के नींव में जो पत्थर लगे रहते हैं और जिन पर ही भवन का पूरा भार होता है, ऐसे नींव में नानाजी देशमुख ही थे। भाजपा राष्ट्रीय  स्वयंसेवक का आज जो भवन खड़ा है, उसकी  नींव की खबर आज भले ही भवनों में बैठी नई पीढ़ी को नहीं लेकिन जब नानाजी देशमुख ने इन भवनों के निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभायी तब किसी को पता नहीं था कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब संघ के मोहन भागवत यह कहने की ताकत रखेंगे कि राख से भी खड़े होने की ताकत भाजपा में है। यह सब नानाजी देशमुख जैसे किशोरावस्था में ही गृह त्यागी लोगों की कर्मठता का फल है। यह बात दूसरी है कि वृक्ष जब फल से लद गया तो नानाजी ने भावी पीढ़ी के लिए उन फलों को छोड़ दिया। मैंने बोया। मैं ही खाऊं की प्रवृत्ति न होकर सबका कल्याण जिनकी प्रवृत्ति थी,ऐसा व्यक्ति इहलोक छोड़ कर चला गया। अब भावी पीढ़ी का कर्तव्य है कि उनके त्याग तपस्या से शिक्षित होकर अपने जीवन को भी उनके ढंग में ढालें। नानाजी देशमुख को हार्दिक श्रद्धांजलि।
विष्णु सिन्हा 

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

26 हजार करोड़ की छूट पर जो लोग ऐश करेंगे उसकी कीमत आम जनता 46 करोड़ चुकाएगी

बड़ी उम्मीद थी कि केंद्र सरकार का बजट महंगाई से पीडि़त आम जनता के लिए वरदान की तरह होगा लेकिन किसी को भी कल्पना नहीं थी कि प्रणव मुखर्जी इतने निष्ठुर निकलेंगे। बजट वरदान तो था नहीं लेकिन अभिशाप अवश्य दिखायी पड़ रहा है। जिनके एक साथ खड़े होने की कोई उम्मीद भी नहीं करता था, उन्हें बजट के विरुद्ध एक साथ खड़ा होने के लिए प्रणव मुखर्जी के बजट ने बाध्य कर दिया। बजट के बीच में ही विपक्ष के सांसद एक साथ बिना किसी भेदभाव के बर्हिगमन  के लिए बाध्य होते हैं तो इसी से समझा जा सकता है कि आम आदमी पर यह बजट कहर की तरह टूटेगा। सिर्फ डीजल की कीमत में ही इजाफा महंगाई को और बढ़ाने के सिवाय तो कुछ नहीं करेंगा। दैनंदिन के लिए उपयोगी हर चीज पर यह अपना प्रभाव दिखाएगा। मतलब जनता सोचने के लिए बाध्य होगी कि कांग्रेस को पुन: सरकार बनाने का अवसर देकर उसने अपने लिए जी का  जंजाल ही खड़ा किया। 

कभी कांग्रेस ने नारा  दिया था कि गरीबी हटाओ तो भारतीय मतदाताओं ने वोटों से उसकी झोली भर दी थी। आज 38 वर्ष बाद इस नारे के गरीबी तो मिटी नहीं अकल्पनीय महंगाई ने लोगों को अवश्य अपने कब्जे में कर लिया है। कभी कांग्रेस का नारा गरीबी हटाओ अवश्य था और उसमें वह सफल नहीं हुई लेकिन अब इस बजट को देखकर तो लगता है कि कांग्रेस का नारा है, महंगाई बढ़ाओ। जिस देश की 40 प्रतिशत जनता 20 रुपए से कम में प्रतिदिन गुजारा करती है, उस देश के हुक्मरान न जाने किस सोच की किस दुनिया में रहते हैं। न तो अंतर्राष्ट्रीय  बाजार में डीजल, पेट्रोल की कीमतों में कोई वृद्धि दर्ज की जा रही है और न ही तुरंत बढऩे के कोई आसार हैं लेकिन फिर भी कल बजट प्रस्तुत हुआ और उसमें वित्त मंत्री ने इजाफा करने का प्रस्ताव किया है और रात से ही कीमत बढ़ गई। संसद ने अभी वित्त मंत्री के प्रस्ताव को पारित नहीं किया है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी कह रहे हैं कि यह गलत है लेकिन सरकार के कान में जूं नहीं रेंग रही है।


यह सब प्रजातांत्रिक भारत में हो रहा है। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी कह रहे हैं कि प्रस्ताव वापस लेने का प्रश्न ही नहीं उठता। विपक्ष संसद से लेकर सड़क तक पर सरकार के विरुद्ध संघर्ष की बातें कर रहा है। बजट के दो दिन पहले ही महंगाई पर लोकसभा में बहस हो चुकी है। विपक्ष ने और खास कर प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने महंगाई को लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उम्मीद की जा रही थी कि इससे सरकार कुछ तो चेतेगी लेकिन सरकार तो लगता है कि पूरी तरह से मदांध हो गई है। शायद सरकार को लगता हो कि जनता ने उसे 5 वर्ष तक अपने ऊपर अन्याय करने का लाइसेंस दे दिया है। उसके पास बहुमत है और वह जब तक पुन: चुनाव नहीं होता तब तक जो चाहे कर सकती है। विपक्ष और जनता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। 


ऐसा ही अहंकार एक बार इंदिरा गांधी को भी दो तिहाई बहुमत से चुनाव जीतने के बाद हुआ था। तब भी बेरोजगारी, महंगाई सब कुछ सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गए थे और गुजरात से उठा आंदोलन जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में पूरे देश में फैल गया था। इतिहास दोहराया जाता है लेकिन इतनी जल्दी। उस समय तो दो तिहाई बहुमत था, इस समय तो गठबंधन की सरकार है। जनता महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही है। चंद लोग दोनों हाथों लूट रहे है और केंद्र सरकार राज्य सरकारों को दोषी ठहरा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर रही है। महंगाई के लिए कौन दोषी तो केंद्र सरकार का जवाब है कि राज्य सरकार। डीजल के भाव भी राज्य सरकार ने बढ़ाए हैं, क्या? जब डीजल के भाव बढ़े हैं तो परिवहन भाड़ा बढ़ेगा। परिवहन भाड़ा बढऩे का अर्थ हर वस्तु के भाव बढ़ेंगे। खेती में काम आने वाला ट्रैक्टर  भी डीजल से ही चलता है। अब खेतों में फसल उगाही का खर्च भी बढ़ेगा। यात्री बस का किराया भी बढ़ेगा। आज के इस युग में ऐसी कौन सी चीज है जो बिना डीजल के यहां से वहां ले जायी जा सके। यह छोटी सी बात जो हर किसी के समझ में आती है, सरकार की समझ में न आती हो, ऐसा तो नहीं है।


फिर भी सरकार राहत देने के बदले कीमतों में इजाफा हो ऐसा प्रस्ताव बजट में करती है तो कौन मानेगा कि वह दोषी नहीं हैं? आयकर में सरकार छूट देती है। 3 लाख तक आयकर में पुरानी स्थिति है। इससे ज्यादा जिनकी आय होती हैं उन्हें छूट का लाभ मिलेगा? 115 करोड़ के देश में 3 लाख तक आय प्राप्त करने वाले कितने व्यक्ति है? सरकार के इस छूट से 26 हजार करोड़ के आयकर की कमी होगी तो वह पेट्रोल डीजल से46 हजार करोड़ निकालेगी। मतलब चंद लोग छूट का लाभ उठाएंगे और भुगतान उसके बदले सबको करना पड़ेगा। अब जिन्हें आयकर के छूट का लाभ होगा, वे शेयर बाजार में रकम लगाएंगे तो शेयर सूचकांक ऊपर जाएगा। शेयर सूचकांक का ऊपर जाना ही तो सरकार की नजर में देश की आर्थिक तरक्की है। आयकर की छूट की रकम बाजार में आएगी। माल ज्यादा बिकेगा। मतलब व्यापारियों, उद्योगपतियों का पूरा ख्याल रखा है, सरकार ने। गरीब आदमी तो वैसे भी बाजार में खाद्यान्न के सिवाय खरीदता क्या है? खाने की पूर्ति ही नहीं कर सकता तो और क्या खरीदेगा?


खाद्यान्न की कीमतों में वृद्धि का लाभ भी आम आदमी, उत्पादक किसान नहीं प्राप्त करता। इसका लाभ व्यापारी या सटोरिए उठाते है। खाद्यान्न का सट्टï बाजार खुले आम चलता है। ये सटोरिए नित्य तरह-तरह के उपाय करते है कि भाव बढ़े और बढ़े भाव का लाभ बिना कुछ वास्तव में खरीदे बेचे ये उठाएं। गरीब को तो दाना चुगाया जाता है। जिससे वह न जी सके और न ही मर सके। सीमेंट, लोहा सब महंगा होगा। एक अदद मकान बनवाना भी अब आसान नहीं होगा। गरीबों के लिए सस्ता मकान बनाने और देने की भी सरकार की योजना है लेकिन सभी गरीब तो गरीबी रेखा के नीचे नहीं आते। मात्र 6 हजार रुपए वार्षिक सें जिसकी आय कम है वही तो गरीबी रेखा से नीचे है। छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेसी नेता कहते है कि 17 लाख गरीब बढ़कर 36 लाख कैसे हो गए? जिसकी आय वार्षिक 6 हजार वह गरीब और जिसकी साढ़े सात हजार वह गरीब नहीं। महंगाई ने 25-30 हजार रुपए वार्षिक पाने वाले को भी गरीब बना दिया।
आयकर का लाभ राजनेताओं को, नौकरशाहों को, व्यापरियों को मिलेगा। इनकी खर्च करने की ताकत बढ़ेगी। साफ मतलब है कि इनकी संपन्नता और बढ़ेगी। इन्हीं के घरों पर छापे मारने से करोड़ों रुपए आयकर विभाग अघोषित के नाम पर पकड़ता है। गरीब के घर क्या मिलेगा? लेकिन छूट का हर्जाना तो प्रणव मुखर्जी ने इन गरीबों से ही वसूल करने की ठानी है। 26 हजार करोड़ रुपए से जो लोग ऐश करेंगे, उसकी कीमत आम जनता 46 हजार करोड़ रुपए के ही रुप में नहीं चुकाएगी बल्कि उसका भुगतान हर खरीदी पर करेगी। हम तो यही कह सकते हैं कि सरकार गरीब की हाय लेने के लिए कटिबद्ध दिखायी देती है।

                                                        
- विष्णु सिन्हा


दिनांक 27.02.2010

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

सचिन की उपलब्धि से पूरा राष्ट्र प्रसन्न होता है लेकिन ममता के रेल बजट से क्यों नहीं ?

एक तरफ सचिन तेंदुलकर का दोहरा शतक है तो दूसरी तरफ ममता का रेल बजट। जिंदगी के भी दो पहलू है एक भावनाओं का, एक यथार्थ का। भावनाओं का संबंध हृदय से होता है। क्रिकेट एक खेल है। इस खेल में दोहरा शतक लगाने से जिंदगी का यथार्थ नहीं बदलता लेकिन भावनाओं के संसार को यह उपलब्धि भरा पूरा कर देती है। सचिन तेंदुलकर वन डे क्रिकेट में दोहरा शतक लगाकर विश्व रिकार्र्ड बनाते हैं। दुनिया के वे ऐसे क्रिकेट खिलाड़ी बन जाते हैं जिसके मुकाबले कोई नहीं। इससे सचिन खुश हों, यह तो स्वाभाविक है लेकिन सारे भारतीयों को सचिन की उपलब्धि खुशी प्रदान करती है। कारण सचिन भारतीय हैं। उनका यह कथन भी याद आता है कि मुझे महाराष्ट्रीयन होने पर गर्व है लेकिन पहले मैं भारतीय हूं। बाल ठाकरे जैसे लोगों को सचिन का कथन नहीं सुहाता लेकिन सारा भारत उनके कथन से गर्व महसूस करता है। सारे भारतीयों को सचिन अपने लगते हैं और सारा देश उनकी उपलब्धि पर होली दीवाली एक साथ मनाता है। 

लोकसभा में बैठे पूरे भारत के सांसद टेबल ठोंक कर बधाई देते हैं, बिना किसी भेदभाव के। सचिन का जन्म भी महाराष्ट्र में हुआ और ठाकरों की कर्मभूमि भी महाराष्ट्र है लेकिन कितना फर्क है, दोनों की सोच में। पूर्व क्रिकेट के महान खिलाड़ी सुनील गावस्कर कहते है कि सचिन के चरण स्पर्श करने का मन करता है। सचिन से बहुत बड़े हैं उम्र में सुनील गावस्कर। जब बड़ों का मन छोटों के चरण स्पर्श का करें तो इसी से समझ में आता है कि सुनील ने कितना आत्मिक सुख दिया है। ममता का रेल बजट आज की प्रमुख खबर नहीं है बल्कि सचिन का दोहरा शतक प्रमुख खबर है। जबकि रेल बजट प्रमुख समाचार होना चाहिए। क्योंकि रेल बजट सीधे-सीधे लोगों को प्रभावित करेगा। ममता ने इतनी ममता तो दिखाई है कि किराए भाड़े में वृद्धि नहीं की है। कुछ छूट दे दी हैं लेकिन सुविधाओं और विकास का सुख जिस तरह से कोलकाता और अमेठी की तरफ कर रखा है, उससे कम से कम छत्तीसगढ़ के लोगों की तो उपेक्षा स्पष्ट दिखायी पड़ती है। सर्वाधिक राजस्व देने वाले बिलासपुर जोन की उपेक्षा की कथा नई नहीं है। 


सब तरह की लफ्फाजी है, बजट में। स्कूल, अस्पताल और न जाने क्या-क्या रेल के धन से ममता करने वाली हैं। छत्तीसगढ़ में मेडिकल कॉलेज खोलने का आश्वासन भी पुराना हैं लेकिन अभी तक उसका कुछ अता-पता नहीं है। धमतरी रेल लाईन को बड़ी लाईन में परिवर्तित करने के लिए सर्वेक्षण भी हो चुका लेकिन उसके विषय में भी बजट चुप है। एक सीधी सी बात है कि जो ज्यादा कमा कर दे उसे सबसे ज्यादा न सही राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में लेकिन न्यायोचित हक तो मिलना चाहिए। यह एक अलग तरह की परिपाटी बन गई है कि बिहार का रेल मंत्री बने तो सब कुछ बिहार ही ले जाने की सोचता है और बंगाल का बना तो बंगाल ले जाने की। संकीर्णता से ऊपर उठने की जो जरुरत केंद्रीय मंत्रियों में होना चाहिए, वह नहीं दिखायी पड़ती। यही कारण है कि ममता भी बंगाल से बाहर ज्यादा सोच नहीं पाती। बंगाल के ही माक्र्सवादी नेता कह रहे हैं कि यह चुनावी बजट है। ममता को पश्चिम बंगाल की सत्ता चाहिए। अगले वर्ष वहां चुनाव होने जा रहा है। यदि पश्चिम बंगाल की जनता ने तृणमूल  कांग्रेस को सत्ता सौंपी तो ममता पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनना ज्यादा पंसद करेंगी बनिस्बत की रेल मंत्री बने रहने के।


छत्तीसगढ़ से कभी कोई रेल मंत्री बनेगा तभी छत्तीसगढ़ में रेल के विकास के विषय में कुछ हो सकेगा लेकिन क्या कभी ऐसी स्थिति आएगी? उम्मीद तो नहीं है। इसलिए दो बड़े स्टेशनों के बीच में छत्तीसगढ़ का जितना हिस्सा आएगा, वहां से गुजरने वाली ट्रेनों में जितनी सीट मिल जाए, उसी पर छत्तीसगढ़ को संतोष करना पड़ेगा। यदि छत्तीसगढ़ में कुछ करने से बंगाल को फायदा होता है तब भी उम्मीद की जा सकती है। बरुवाडीह चिरमिरी लाईन पर काम करने की घोषणा तो रेल बजट में है। इससे कोलकाता और मुंबई की दूरी 400 किलोमीटर कम हो जाएगी। कोलकाता से रायपुर और पास आ जाएगा। स्पष्ट दिखायी देता है कि यह छत्तीसगढ़ की हित चिंता नहीं है बल्कि कोलकाता की हित चिंता है। रावघाट के लिए जो अत्यंत आवश्यक है, कोई चिंता नहीं की गई है। ममता को ही क्यों दोष दिया जाए? जब राजनीति में सोच का दायरा अपने पक्ष में वोट मात्र हो। 


यही तो फर्क है खेल और राजनीति का। राजनीति बांट कर देखती है और खेल जोड़ता है। सचिन पर हर भारतीय को गर्व होता है लेकिन ममता पर गर्व करने के लिए सब तैयार नहीं है। राजनीति में तो कोई भी ऐसा महापुरुष नहीं दिखायी देता जिस पर सब सहमत हों और एक स्वर से गर्व महसूस कर सकें लेकिन खेलों पर भी राजनीतिज्ञों ने अपना शिकंजा कस रखा है। कोई भी खेल संघ हो अध्यक्ष की कुर्सी पर कोई न कोई राजनीतिज्ञ या नौकरशाह बैठा दिखायी देता है। ईमानदारी से देखें तो राजनीतिज्ञों से जूझते हुए खिलाड़ी देश को गर्व करने का अवसर देते हैं तो यह किसी आश्चर्य से कम नहीं है। क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के ही अध्यक्ष भारत सरकार में कृषि मंत्री शरद पवार हैं। कृषि, नागरिक आपूर्ति मंत्री शरद पवार देश के लोगों को तो महंगाई की मार से नहीं बचा सके बल्कि हमेशा यही कहते पाए गए कि अभी शक्कर की कीमत और बढ़ेगी, दूध की कीमत बढ़ेगी। वे तो जब ऐसा कहते थे, तब लगता था, जैसे अपनी कोई बड़ी उपलब्धि गिना रहे हैं। 


इसीलिए तो क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष होने के बावजूद क्रिकेट टीम की जीत का श्रेय सचिन तेंदुलकर, महेन्द्र सिंह धोनी, वीरेन्द्र सहवाग को दिया जाता है, कोई शरद पवार को इसके लिए श्रेय देने के लिए तैयार नहीं है। यह बात दूसरी है कि पूरी बेशर्मी से जब भारत ट्वेन्टी ट्वेन्टी विश्व कप जीत कर आता है तो वे मंच पर मुख्य आसन में विराजमान हो जाते हैं। जनता उनका नहीं खिलाडिय़ों का स्वागत करना चाहती हैं और करती भी है। लोग कहने में नहीं हिचकते कि सचिन तेंदुलकर क्रिकेट का भगवान है लेकिन कोई यह नहीं कहता कि शरद पवार क्रिकेट के भगवान हैं। कभी भारतीय हॉकी विश्व की सबसे महान टीम थी लेकिन आज अपना मेहनताना पाने के लिए उसे हड़ताल करना पड़ता है। जहां-जहां राजनैतिक संतों के कदम पड़े तहां-तहां बंटाधार ही हुआ।


क्योंकि राजनीतिज्ञ अपने स्वभाव से बाज तो नहीं आते। जो राजनीति में करते हैं, वही खेल में भी करना चाहते हैं। इसके बावजूद कोई सचिन तेंदुलकर इस मकाम तक पहुंच जाता है तो यह उसके ही बस की बात है। खिलाड़ी राष्ट्रीय  होता है लेकिन नेता स्थानीय ही रह जाते है। खिलाड़ी की जीत सबकी जीत होती है लेकिन राजनेता की जीत सबकी जीत नहीं हो पाती। एक तोड़ता है तो दूसरा जोड़ता है। तब जोडऩे वाले के सम्मान में पूरा राष्ट्र नतमस्तक हो जाए तो यही होना चाहिए और इसी की देश को जरुरत है।


- विष्णु सिन्हा
दिनांक 25.02.2010

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

माओवादियों की शर्त नामांजूर कर चिदंबरम ने सही कदम उठाया

यह पहली बार हो रहा है कि सरकार नक्सलियों के दबाव में नहीं हैं बल्कि नक्सली सशस्त्र बल की कार्यवाही से दबाव में आ गए हैं। नक्सली नेता ने गृहमंत्री पी. चिदंबरम को एक एसएमएस के द्वारा संदेश दिया कि सरकार सशस्त्र बलों की कार्यवाही रोके तो वे 72 दिन के लिए सीज फायर करने को तैयार है। गृहमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि वे किसी तरह की शर्त के तहत नक्सलियों से बातचीत नहीं करेंगे बल्कि नक्सली हिंसा का रास्ता छोड़ें और बिना शर्त वार्ता के लिए आगे आएं तभी उनसे बातचीत की जाएगी। वार्ता  के लिए कितु, परंतु या कोई शर्त स्वीकार नहीं की जाएगी । दरअसल जब तक बातचीत खुले दिमाग से नहीं की जाएगी और इसे जीत हार के खेल की तरह से देखा जाएगा तब तक वार्ता का कोई निष्कर्ष नहीं निकलेगा लेकिन इससे भी बड़ा प्रश्र यह है कि नक्सली नेता किशनजी ने जो प्रस्ताव गृहमंत्री से किया है, उसके लिए वे अधिकृत हैं, क्या? 

नक्सलियों ने पोलित ब्यूरो में यह तय किया है क्या कि किशनजी जो चर्चा करेंगे सरकार से, उसे मानने के लिए समस्त नक्सली नेता तैयार होंगे? उड़ीसा के ही एक नेता नक्सली ने किशनजी से असहमति प्रगट की है। फिर इधर हिंसा रोकने का प्रस्ताव किशनजी करते हैं और दूसरी तरफ हिंसक हमले चालू हैं। तब सरकार उनकी बात पर कैसे विश्वास करे? इससे तो यही नजर आता है कि नक्सली नेता कुछ दिनों के लिए सशस्त्र बलों की कार्यवाही रोकना चाहते हैं। लगता है सशस्त्र बलों की कार्यवाही से नक्सली कैंपों में एक डर पैदा हो गया है। छत्तीसगढ़ में तो या तो नक्सली मारे जा रहे हैं या पकड़े जा रहे हैं या फिर आत्मसमर्पण भी कर रहे हैं। अभी सिर्फ तीन राज्यों में ही सशस्त्र बल की कार्यवाही चल रही है। धीरे-धीरे इसका विस्तार होगा तो नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में नक्सली नेताओं की पकड़ कमजोर होगी। 


कल तक नक्सली ही पुलिस के जवानों को मारते थे। मुखबिरी के नाम पर निर्दोष ग्रामीणों की हत्या करते थे। तब नक्सलियों का मनोबल बढ़ा हुआ था। अब जब अपने लोगों के मारे, पकड़े जाने या आत्मसमर्पण की खबर आती है तो नक्सली बने लोग सोचने के लिए मजबूर तो हो ही रहे हैं कि वे भी एक दिन मारे जाएंगे। नक्सली नेता समझ रहे हैं कि वक्त रहते नक्सली कार्यकर्ताओं को मृत्यु भय से मुक्त नहीं किया गया तो वह दिन भी आ सकता है कि नेता ही रह जाएं और कार्यकर्ता या तो मृत्यु के भय से भाग खड़े हो या फिर आत्मसमर्पण कर दें। समर्पण करने वालों के लिए सरकार ने स्वाभिमानपूर्वक जीने के लिए आर्थिक पैकेज की भी घोषणा कर रखी है। ऐसे में नक्सली कार्यकर्ताओं को रोककर रखना अब नक्सली नेताओं के लिए कठिन काम होता जा रहा है। 


नक्सली नेता के सीज फायर के प्रस्ताव पर सरकार वैसे भी विश्वास नहीं कर सकती। आंध्रप्रदेश की सरकार ने नक्सलियों से वार्ता के लिए सीज फायर किया था लेकिन नक्सली अपनी जबान पर खरे साबित नहीं हुए। उन्होंने वार्ता के समाप्त होने और कोई निर्णय तक पहुंचने के पहले ही हिंसा प्रारंभ कर दिया था। प्रश्र यह भी है कि कल तक जो वार्ता के लिए किसी तरह भी तैयार नहीं हो रहे थे, वे अचानक इसके लिए तैयार कैसे हो गए? फिर वे तरह-तरह की बात करते हैं। बुद्धिजीवियों एवं मानवाधिकारियों को मध्यस्थ बनाकर वार्ता की बात कर रहे है। मतलब वे सीधे-सीधे वार्ता की मेज पर नहीं आना चाहते। कहीं न कहीं या तो डर छुपा हुआ है कि सरकार गिरफ्तार कर लेगी या फिर नीयत साफ नहीं है। दरअसल कोई मुद्दा हो तब न वे बात करें। पहला मुद्दा तो यही है कि हिंसा छोड़ें। गृहमंत्री ने कहा भी है कि हिंसा छोड़ें और बिना शर्त वार्ता करें। मध्यस्थ की क्या जरुरत है? सीधे-सीधे वार्ता से क्या डर है? यदि ईमानदार हैं और वास्तव में जनता की समस्या हल करने का इरादा रखते हैं तो मौका है। आत्मसमर्पण करें। क्योंकि उनके अभी तक के किए गए कृत्य तो पूरी तरह से गैरकानूनी रहे हैं। 


वह तो गनीमत है कि सरकार सुधरने का अवसर देना चाहती है। नहीं तो कानून के हिसाब से तो वे माफी के भी हकदार नहीं है। जिन्होंने सशस्त्र बल के जवानों की हत्या की, आम नागरिक की हत्या की वे किस दृष्टि से माफी के योग्य हैं। आज भी सरकार ने सशस्त्र बलों का दबाव नहीं बढ़ाया होता तो क्या वार्ता के लिए राजी होने का नाटक करते। नक्सली अपने आपको इतना अक्लमंद समझते हैं कि वे अपनी रणनीति के तहत सरकार को ही धोखा दे दें तो यह संभव नहीं। सरकार तो इंसानियत के कारण दरियादिली दिखा रही है, उनके साथ जिनमें इंसानियत कहीं से भी दिखायी नहीं देती। वह व्यक्ति जो अपने निहित विचारों की आड़ में सीधे सादे लोगों को बरगलाए और उन्हें हथियारों का प्रशिक्षण दे, सुरक्षा कर्मियों की हत्या करवाए, वह तो सिर्फ सजा का ही हकदार है। करोड़ों लोगों के जीवन को जो खतरे में डाले और निरंतर बंदूक की गोली से डरा कर अपने अनुसार चलने के लिए बाध्य करे, उसके प्रति कैसी दया दृष्टि?


जो विकास का घोर विरोधी हो। सड़क न बनने दे, स्कूल के भवनों को बम से उड़ा दे, पंचायत भवनों का नाश कर, घर-घर से एक सदस्य मरने के लिए देने के लिए दबाव डाले और नाबालिग बच्चों के हाथ में हथियार पकड़ा दे और इसे क्रांति की संज्ञा दे। ऐसे लोगों से वार्ता करना ही उचित नहीं। वैसे भी कोई सरकार हाथ पैर नहीं जोड़ रही है कि भैया हथियार रख दो और वार्ता करो। सरकार जो हिंसा के विरुद्ध कार्यवाही कर रही है, वही उचित है। जब सब तरह से समझाने के बावजूद श्रीलंका सरकार ने देख लिया कि तमिल टाइगर्स नहीं मान रहे हैं तो उसने हिंसा का जवाब हिंसा से दिया। आज वह समस्या से मुक्त हो गया। सरकार को तो सीधे-सीधे वार्निंग देना चाहिए कि समर्पण करो या फिर मरने के लिए तैयार रहो ।
चिदंबरम ने टका सा जवाब देकर कि कोई शर्त मंजूर नहीं, एकदम सटीक जवाब दिया है। भोले-भाले आदिवासी नक्सली कार्यकर्ता के साथ तो एक बार दया दृष्टि दिखायी भी जा सकती है। वास्तव में ये ही मुख्य धारा से भटक कर बहकावे में आ गए हैं लेकिन चतुर चालाक नेताओं ने जिस तरह से इन्हें मोहरों की तरह इस्तेमाल किया है, वही असली दोषी है। पढ़े लिखे होने के बावजूद उन्होंने सैकड़ों लोगों का वैचारिक शोषण भी किया है। दो ढाई हजार मासिक देकर मारने के लिए किसी को तैयार करना, वह भी छोटे-छोटे नासमझ बच्चों को कम बड़ा अपराध नहीं है। देश का करोड़ों रुपया इनके पीछे जाया हो चुका है। अभी भी लग रहा है। जिससे बहुतों का कल्याण हो सकता था। प्रजातंत्र में कानून के विरुद्ध काम करने वालों को हर तरह से हतोत्साहित करने की जरुरत है। चिदंबरम के इस निर्णय के लिए साधुवाद कि कोई शर्त वार्ता के लिए मंजूर नहीं है।


- विष्णु सिन्हा
दिनांक 24.02.2010

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

डॉ. रमन सिंह की पग ध्वनि में सब कुछ बदल डालने की प्रतिध्वनि तो सुनायी पड़ रही है

बजट किसी भी सरकार का हो, उसमें कमियां देखना प्रतिपक्ष का काम है। इसलिए डॉ. रमन सिंह के बजट में प्रतिपक्ष के नेताओं को कमियां दिखायी देती है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। जहां तक बजट से लोगों की आकांक्षाओं का प्रश्र है तो आकांक्षाएं इतनी ज्यादा है कि सीमित साधनों से सभी की मनोकामना पूरा करना किसी भी सरकार के  बस की बात नहीं। संतोष की बात तो यही है कि डॉ. रमन सिंह ने बजट में ऐसे प्रावधान नहीं किए जिससे जनता पर करों का बोझ बढ़े। कर लगाया भी है तो धुम्रपान करने वालों पर और स्वाभाविक है कि धुम्रपान करने वाले  के साथ किसी की भी सहानुभूति नहीं है। जहां तक शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा का प्रश्र है, डॉ. रमन सिंह ने बजट का बड़ा हिस्सा इसके लिए रखा है गांव, गरीब और किसान बजट के केंद्र में है तो नक्सल उन्मूलन, अपराध से नागरिकों की सुरक्षा के लिए गृह मंत्रालय को भी पर्याप्त राशि दी गई है। 

खाद्य सुरक्षा मतलब गरीबों को 2 रु. किलो और 1 रु.  किलो चांवल देने के लिए सरकार ने एक हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। चुनाव के समय जो कहा जा रहा था, विरोधियों के द्वारा कि चुनाव के बाद गरीबों को सस्ता चांवल मिलना बंद हो जाएगा। उस संबंध में डॉ. रमन सिंह ने बजट में पर्याप्त प्रावधान कर करारा जवाब दिया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भाजपा की गुटीय राजनीति में लाभ देखने वालों को भी डॉ. रमन सिंह ने बजट के बहाने संदेश दे दिया है कि उनके मंत्रिमंडल में सम्मिलित सभी सदस्यों में पूर्ण एकता है। सबसे अधिक बजट आबंटन बृजमोहन अग्रवाल को दिया गया है। मुख्यमंत्री ने अपने से भी अधिक राशि बृजमोहन अग्रवाल के विभागों के लिए आबंटित की है। मतलब साफ है कि आपस में किसी तरह का कोई विवाद नहीं है। कोई किसी की रेखा छोटी नहीं कर रहा है बल्कि बड़ी करने का अवसर देने में भी कोई हिचक नहीं है। राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी ने राष्ट्रीय अधिवेशन में जो संदेश दिया था, उसे छत्तीसगढ़ में देखा जा सकता है।


डॉ. रमन सिंह की दृष्टि साफ है। वे योग्यता है तो सबको बढऩे का अवसर देने के लिए तैयार हैं। डॉ. रमन सिंह का अनुभव भी स्पष्ट है कि किसी भी काम को बृजमोहन को सौंप कर निश्चिंत हुआ जा सकता है। एक तरह से प्रतिपक्ष की इस उम्मीद पर विराम लग गया है कि भाजपा में आपसी द्वन्द कराकर लाभ उठाया जा सकता है। प्रतिपक्ष का रोना कायम है कि घोषणा पत्र की मांग को पूरा नहीं किया गया। पिछले चुनाव के समय मतदाताओं को गाय न मिलने के लिए भी कम उकसाने का प्रयास प्रतिपक्ष ने नहीं किया लेकिन डॉ. रमन सिंह के शासन से संतुष्ट जनता ने तो प्रतिपक्ष की बातों पर कान देना भी उचित नहीं समझा था। फिर घोषणा पत्र 5 वर्ष के लिए होता है। डॉ. रमन सिंह की नियत साफ है तो जनता का विश्वास भी उन पर कायम है और जनता का विश्वास उन पर कायम है तो वे किसी की क्यों परवाह करें लेकिन फिर भी वे विनम्रतापूर्वक आग्रह करने में पीछे नहीं हैं कि जहां तक प्रदेश के विकास का प्रश्र निहित है वहां प्रतिपक्ष सार्थक सहयोग देकर राज्य की प्रगति में सहयोगी बने। 


डॉ. रमन सिंह अपने बजट भाषण का समापन करते हुए कहते है-
मुमकिन है सफर हो आसां, अब साथ भी चल कर देखें ।
कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बेदल कर देखें॥


छत्तीसगढ़ का हित सर्वप्रथम जिसकी दृष्टि में हो, वह कुंद बुद्धि का व्यक्ति नहीं होता। वह हर उस तरह की सोच का स्वागत करता है जिससे 2 करोड़ से अधिक छत्तीसगढ़वासियों का हित हो। बदलती दुनिया में अब प्रतिपक्ष का काम सिर्फ विरोध के लिए विरोध नहीं होता। जहां जरुरत हो बदलने की वहां सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए। जब जनता का कल्याण ही उद्देश्य हो और सत्ता में बैठा व्यक्ति उसे करने के लिए तैयार हो तो और क्या चाहिए? सरकार की कमियां सरकार को बदलने के लिए नहीं बल्कि कमियां दूर करने के लिए होना चाहिए। सरकारें तो बदल जाती हैं। जनता ने कितनी ही बार सरकारें बदली लेकिन कमियां कम होने के बदले बढ़ती ही गई। क्या इसका कारण सत्ता में बैठे लोगों का अहंकार और प्रतिपक्ष में बैठे नेताओं का सरकार को हटा कर स्वयं काबिज होने के अवसर की तलाश के सिवाय और कुछ रहा है। व्यक्ति बदले, नाम बदला, झंडा बदला लेकिन हासिल क्या हुआ? मतदाता को चुनावी शतरंज का मोहरा बना कर सिर्फ उपयोग किया गया। व्यवस्था की कमियां बदली जाए। भ्रष्टïचार समाप्त किया जाए। ईमानदारी को मान प्रतिष्ठï मिले। दलालों और सटोरियों के धंधे पर लगाम लगे और यह तभी हो सकता है जब सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष में एक स्वस्थ सोच हो।


दरअसल जब तक जनहित के कंधे पर बंदूक रखकर सत्ता पर काबिज होने का खेल चलता रहेगा तब तक बदलना कुछ भी आसान नहीं है। कहा भी जाता है कि चुनाव भ्रष्टाचार के केंद्र में है। तमाम तरह की आचार संहिताओं के बावजूद चुनाव में धन के खेल को रोका नहीं जा सका। जब बिना धन के कोई चुनाव नहीं जीत सकता तब जीत के बाद सत्ता धन उगाहने का साधन बन जाती है। कांग्रेस ने ही पिछले चुनाव में करीब 500 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। कांग्रेस के सिवाय तो अन्य पार्टियों ने चुनाव आयोग को हिसाब भी नहीं दिया है। व्यवस्था को बदलना है तो पहले स्वयं को बदलना होगा। सत्ता के ठाठ बदलने होंगे। किसी भी समस्या के निवारण के लिए यदि इच्छाशक्ति हो तो असंभव कुछ नहीं। आपरेशन ग्रीन हंट ने ही नक्सलियों को वार्ता के लिए बाध्य तो किया है। जो समस्या कल तक लाइलाज दिखायी देती है, उसका हल निश्चित रुप से दिखायी दे रहा है। 


यह एक व्यक्ति डॉ. रमन सिंह की निरंतरता और इच्छाशक्ति का ही कमाल है। जब सब तरफ से डॉ. रमन सिंह पर नक्सल समस्या के हल के तरीके को लेकर हमले हो रहे थे तब भी डॉ. रमन सिंह अपने प्रयासों से पीछे नहीं हटे । वह दिन भी आया जब केंद्र में गृहमंत्री चिदंबरम बने और उन्होंने डॉ. रमन सिंह की बात को अच्छी तरह से समझा और समस्या के हल के लिए तैयार हुए। आज परिणाम सामने है। छत्तीसगढ़ में नक्सली बैकफुट पर है। अब 72 दिन के लिए सीज फायर के लिए भी तैयार है। जो व्यक्ति इतनी बड़ी समस्या से जूझ सकता है, वह अपने प्रदेश के लोगों के लिए क्या नहीं कर सकता। गंदी, संकीर्ण राजनीति सत्ता को आड़े न आए तो मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह सब कुछ करने में सक्षम है। आदिवासी क्षेत्रों में विकास के काम तो होने दीजिए। छत्तीसगढ़ विकास के मान से पूरा बदला-बदला नजर आएगा। मुख्यमंत्री बजट के बहाने प्रतिपक्ष का आव्हान तो कर ही रहे हैं कि कुछ तुम बदलो, कुछ हम बदलें।


- विष्णु सिन्हा
दिनांक 23.02.2010

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

जिला पंचायतों में जीत का डंका बजाकर डा. रमन सिंह ने फिर अपनी लोकप्रियता सिद्घ की

जिला पंचायतों के चुनाव ने फिर सिद्घ कर दिया कि डा. रमन सिंह के जादू से अभी भी मतदाता सम्मोहित हैं। इसे सम्मोहन न कहें तो क्या कहें कि जिला पंचायत के लिए चुने गए कांग्रेसी अध्यक्ष के लिए कांग्रेस प्रत्याशी को वोट देने के  बदले भाजपा प्रत्याशी को वोट देते हैं। कारण जो भी हो लेकिन मतदान तो यही साबित करता है कि कांग्रेसी भी चाहते हैं कि जिला पंचायतों पर भाजपा का कब्जा रहे। रायपुर जिला पंचायत के लिए चुने गए प्रतिनिधियों में कांग्रेस के प्रतिनिधियों की संख्या सर्वाधिक थी। स्वाभाविक रूप से कांग्रेस के प्रत्याशी को चुनाव में विजयी होना था लेकिन जब चुनाव परिणाम आए तो भाजपा प्रत्याशी भारी बहुमत से जीत गया। भाजपा प्रत्याशी को 25 मत मिले तो कांग्रेस प्रत्याशी को 10। स्पष्ट दिखायी देता है कि कांग्रेसी भी अब कांग्रेस के  साथ न होकर भाजपा के साथ रहना ज्यादा पसंद करते हैं। मतलब साफ है कि कांग्रेस के पदाधिकारियों पर कांग्रेसियों का विश्वास अब रह नहीं गया है।

राष्ट्रीय स्तर पर भले ही कांग्रेस और भाजपा नदी के दो किनारे हों। जो कभी नहीं मिलते लेकिन नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा में तो भाजपा और कांग्रेस एक दिखायी पड़ते हैं। जहां जिला पंचायत के चुनाव में भारतीय कम्युनस्टि पार्टी के विरूद्घ दोनों एक हो गए और भाजपा का अध्यक्ष चुना गया तो कांग्रेस का उपाध्यक्ष। अब कांग्रेस आलाकमान और पदाधिकारी भले ही अपने सिर के बालो को नोचें लेकिन सत्य तो यही है कि कम्युनिस्ट पार्टी की तुलना में कांग्रेस और भाजपा ने समझौता करना ही बेहतर समझा। यह सब छत्तीसगढ़ में ही संभव है। क्या सही है और क्या गलत है, इसकी पहचान छत्तीसगढ़वासियों को अच्छी तरह है। वे अपना हित भी अच्छी तरह से पहचानते हैं। पार्टी से बढ़कर विश्वसनीयता उनके लिए ज्यादा अहमियत रखती है और यह बात तो दो चुनावों में छत्तीसगढ़ के मतदाताओं ने सिद्घ किया है कि उनकी विश्वसनीयता डा. रमन सिंह पर अधिक है।


डा. रमन सिंह की बढ़ती लोकप्रियता से किसी के  भी सीने पर सांप लोटे लेकिन तथ्य और सत्य को नकारा नहीं जा सकता। ठेठ छत्तीसगढिय़ा जिस तरह का सीधा सादा, भोला भाला होता है, उसका ही प्रतिनिधित्व डा. रमन सिंह करते हैं। खांटी छत्तीगढिय़ा नेता कौन तो डा. रमन सिंह। सिद्घांत भी साफ है कि कर्म किए जाओ फल की चिंता मत करो। विकास जिसका मूल मंत्र हो, वह किसी बात की फिक्र न करे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात ? कभी छत्तीसगढ़ कांग्रेस का गढ़ कहा जाता था और मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के मुख्य कारणों में से सबसे बड़ा कारण छत्तीसगढ़ का कांग्रेस के प्रति समर्थन था लेकिन वादा और वादा और सिर्फ वादा के  सिवाय छत्तीसगढ़ को कुछ नहीं मिला तो छत्तीसगढ़ को मध्यप्रदेश से अलग होने के सिवाय अन्य कोई चारा भी दिखायी नहीं दिया। अटलबिहारी वाजपेयी ने आश्वासन दिया कि छत्तीसगढ़ की 11 में से 11 लोकसभा सीट भाजपा को मिली तो वे छत्तीसगढ़ राज्य बनाएंगे लेकिन छत्तीसगढ़ से 8 ही सीटें भाजपा को मिली। इतने समर्थन को भी अटलबिहारी वाजपेयी ने पर्याप्त माना और  छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बना दिया।


तब भी कांग्रेस को समझ में नहीं आया कि छत्तीगढ़वासियों का विश्वास उसने खो दिया है। प्रथम मौका सरकार बनाने का पुराने मध्यप्रदेश के लिए हुए चुनाव के आधार पर कांग्रेस को ही मिला तो जनप्रतिनिधियों की राय से इत्तफाक न करते हुए अजीत जोगी को मुख्यमंत्री के रूप में थोप दिया। इस व्यक्ति ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के रूप में ऐसे तेवर दिखाए कि आदिवासी जनता ने ही कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। पहले चुनाव का अवसर मिलते ही कांग्रेस से सत्ता छीनकर जनता ने सत्ता भाजपा को सौंप दी। भाजपा ने भी डा. रमन सिंह के रूप में ऐसे मुख्यमंत्री का चयन किया जो जनता की कसौटी पर खरा साबित हुआ। कहते हैं कि विकास के अभाव के कारण नक्सल समस्या का जन्म हुआ। कांग्रेस सरकारों ने इफरात धन खर्च किया, अपने शासनकाल में आदिवासियों के लिए। स्वयं अजीत जोगी ने एक बार कहा  कि यह धन आदिवासियों को सीधे सीधे बांट दिया जाता तो हर आदिवासी के हिस्से में 2 करोड़ रूपये आते। किसी को भी आसानी से समझ में आता है कि आदिवासियों तक पहुंचने वाला धन किनकी जेबों में पहुंच गया। अवसर अच्छा था और नक्सलियों ने इसका भरपूर लाभ उठाया।


पहली बार डा. रमन सिंह ने आदिवासियों के दुख तकलीफ  को महसूस किया। सलवा जुडूम जब प्रारंभ हुआ तो तमाम तरह के बुद्घिजीवियों और आदिवासी हितैषी कांग्रेसियों के विरोध के बावजूद डा. रमन सिंह ने सलवा जुडूम का साथ दिया। आदिवासियों की नक्सलियों से रक्षा के लिए विशेष पुलिस बल तैयार किया। केंद्र सरकार के कानों में इतनी बार अपनी बात समझायी कि आज केंद्र सरकार भी मानने को तैयार है कि नक्सली समस्या देश के लिए खतरनाक है। आज संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने भी नक्सल समस्या की गंभीरता को स्वीकार किया। पार्टीगत राजनीति भले ही इसका श्रेय डा. रमन सिंह को देने में सकुचाए लेकिन छत्तीगसढ़ के  लोग तो अच्छी तरह से जानते हैं कि केंद्र सरकार को नक्सली समस्या की गंभीरता को समझने के लिए डा. रमन सिंह ने ही बाध्य किया।
अब डा. रमन सिंह ने ईमानदारी से काम किया तो उसके परिणाम भी आए। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों को बैकफुट में धकेलने में सशस्त्र बल सफल रहे। जो लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए आदिवासी नेता ही आदिवासियों का विकास कर सकता है, नारा लगाते थे, उन्हें डा. रमन सिंह ने करारा जवाब दिया। जो काम कांग्रेस का तथाकथित आदिवासी मुख्यमंत्री नहीं कर सका, वह काम करके एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने दिखाया। भाजपा के राष्ट्रीय  सम्मेलन में राष्ट्रीय  अध्यक्ष नितिन गडकरी ने न केवल नक्सलवाद से जूझने के लिए डा. रमन सिंह की तारीफ की बल्कि इसके साथ यह भी कहा कि पूरी पार्टी डा. रमन सिंह के  पीछे खड़ी है। 


पार्टी के साथ साथ छत्तीसगढ़ के  लोग भी डा. रमन सिंह  के पीछे खड़े हैं। यही कारण है कि जिला पंचायत के चुनाव में 18 में से 14 पर भाजपा को सफलता मिली। यह कम बड़ी बात नहीं है कि कांग्रेसी भी अपने नेताओं के बदले डा. रमन सिंह की तरफ ही आशा भरी नजरों से देखते हैं। इस जीत के बाद डा. रमन सिंह ने भी पूरी दरियादिली दिखाते हुए कहा हैं कि सरकार 18 जिला पंचायतों को विकास के काम में पूरी मदद करेगी। किसी भी जिला पंचायत से भेदभाव नहीं किया जाएगा। नक्सली समस्या से जूझना और उससे अपने नागरिकों को मुक्त कराना तो सरकार का दायित्व है लेकिन डा. रमन सिंह इतने से ही संतोष करने वाले नहीं है बल्कि उनका मुख्य मकसद विकास है। विकास की ऐसी गंगा में छत्तीसगढ़वासियों को गोता लगाते देखना चाहते हैं। जिसमें हर किसी की सुख समृद्घि विकसित हो।


- विष्णु सिन्हा
22-2-2010

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

ए टीम को जनता ने नकारा तो बी टीम ही सत्ता पर होगी

दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि भाजपा कांग्रेस की बी टीम बन रही है। वामपंथी तो पहले से ही यह बात कहते थे। अब कौन ए टीम है और कौन बी टीम इससे परे यह बात स्मरणीय है कि कांग्रेस कभी समाजवादी पार्टी हुआ करती थी। उसका झुकाव स्वतंत्रता के बाद सत्ता में आने पर अपने को गरीबों की पार्टी बताने पर ज्यादा जोर था। यहां तक कि इंदिरा गांधी ने तो गरीबी हटाओ का नारा देकर ही एक आम चुनाव जीता। फिर जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तब धीरे धीरे कांग्रेस ने समाजवाद का चोला छोड़कर पूंजीवाद को अपनाना प्रारंभ किया और नरसिंहराव के वित्त मंत्री बनकर मनमोहन सिंह ने तो कांग्रेस को पूरी तरह से पूंजीवादी पार्टी बना दिया। उदारीकरण के नाम पर कांग्रेस ने पूंजीवाद को आश्रय देना प्रारंभ कर दिया। भाजपा और पूर्व में भारतीय जनसंघ तो प्रांरभ से ही दक्षिण पंथी पार्टी मानी जाती थी। कांग्रेसी ही भाजपा को बनियाओं की पार्टी कहा करते थे। बीच में कुछ समय के लिए भाजपा ने अपने को गांधीवादी समाजवाद के नाम पर प्रचारित करना शुरू किया था लेकिन बहुत जल्द भाजपा इस भ्रम से बाहर निकल गयी।

आज केंद्र में कांग्रेस गठबंधन की सरकार है और वह ऊपर-ऊपर पैकिंग के रूप में गरीबों की हितैषी दिखने का प्रयास कुछ कार्यक्रमों को लेकर भले ही करती है लेकिन उसकी नजर हर बजट में इसी बात पर ही लगी रहती है कि जनता के हित में जारी किसी भी तरह की सब्सिडी को कैसे खत्म किया जाए? जैसे जैसे सब्सिडियां खत्म होती गयी, सरकार का खजाना चौड़ा होता गया। जिस तरह से एक पूंजीपति कितना भी धन कमा ले संतुष्ट नहीं होता, उसी तरह से अब सरकार भी कितना ही टैक्स वसूल कर ले, खुश नहीं होती। वह अवसरों की तलाश में रहती है कि कैसे नागरिकों पर और बोझ डाला जाए। नागरिकों को पूरी तरह से बाजार के हवाले कर दिया गया है। पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस जैसी कुछ वस्तुएं सरकार के नियंत्रण में है तो सरकार उससे भी छुटकारा पा लेना चाहती है। जिससे उसे इन मदों में होने वाले घाटे से निजात मिले और जनता स्वयं इस बोझ को उठाए। सरकार भरसक प्रयास कर रही है कि तेरा तू जाने, हमें क्या लेना देना?


कहने का अर्थ यही है कि कांग्रेस अब पूरी तरह से पूंजीवादी हो गयी है। जैसे बड़े-बड़े सेठ करोड़ों, अरबों कमाकर  कुछ दान दक्षिणा देते हैं कि इस जन्म में पाप यदि कुछ किए हैं तो उसे पुण्य में बदल लें। उसी तरह से सरकार भी टैक्स वसूली में कोई कृपणता न दिखाते हुए मीठा मीठा गप गप और कड़वा कड़वा थू थू करने में लगी है। सरकार में रहना है तो गरीबों के  वोट चाहिए। इसलिए गरीब नवाज होने का एक मुखौटा भी चाहिए। सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के द्वारा गरीबों की मदद का ढोंग करती है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों को 3 रू. किलो में चांवल गेहूं देती है।  इसका कोटा भी कम करने का अवसर तलाशती है। शक्कर महंगी हुई तो राज्य सरकार का कोटा काटा जा रहा है। सब्सिडी इसलिए समाप्त की जाती है कि धन सरकार के खजाने में बचेगा तो सरकार देश का विकास करेगी। खाद्यान्न का सट्टा हो तो सरकार इसे रोकने की कोशिश नहीं करती। उसकी सोच है कि खाद्यान्न की कीमत बढ़ेगी तो फायदा किसान को होगा। किसान को कैसे फायदा होगा? किसान सरकार के द्वारा निर्धारित समर्थन मूल्य पर अनाज सरकार को बेच देता है। उसे तो उतना ही धन अपनी फसल का मिलता है जितना सरकार तय करती है।


फिर बाजार में बढ़ती महंगाई का लाभ उसे कैसे मिलेगा ? लाभ तो इस महंगाई का जमाखोर, व्यापारी, खाद्यान्न का सट्टा खेलने वाले उठाते हैं और नुकसान देश की आम जनता को उठाना पड़ता है। भाजपा की नकल में कांग्रेस दक्षिण पंथी तो हो गयी लेकिन परिणाम तो जनता भुगत रही है। अब कोई कैसे माने कि कांग्रेस गरीबों की पार्टी है। कहा जा रहा है कि शक्कर से ही एक लाख करोड़ रूपये व्यापारियों ने कमा लिए। सरकार खुश है कि उसकी आर्थिक नीति सफल है। विकास दर में इजाफा हो रहा है। सरकार की छाती चौड़ी हो रही है। सरकार को और धन चाहिए। अगले वर्ष 1 करोड़ और लोगों को रोजगार देना है। इस बहाने जनता की गर्दन पर महंगाई अपनी पकड़ और सख्त करे। खाद्यान्न के साथ अब दूसरी चीजों पर महंगाई अपनी नकेल कसने वाली है। आखिर जनता चाहती है कि देश विकसित हो तो उसे ही तो इसकी कीमत चुकानी है। यह सब ए टीम कांग्रेस कर रही है।


अब कांग्रेस की बी टीम भाजपा क्या करे ? वह यह सब आंख बंद कर देख तो नहीं सकती। इसलिए उसका कर्तव्य है कि वह कांग्रेस सरकार के विरोध में प्रदर्शन करे। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में तय हुआ है कि 21 अप्रेल  को भाजपा संसद का घेराव करेगी। 15 लाख नागरिको को लाकर दिल्ली में ऐसा प्रदर्शन किया जाएगा कि सरकार की चूल हिल जाए। लालकृष्ण आडवाणी ने तो आह्वïन किया है कि सिर्फ भाजपा के कार्यकर्ता ही इस प्रदर्शन में सम्मिलित नहीं हों बल्कि महंगाई के  विरूद्घ जनता भी प्रदर्शन में भाग ले। जिससे जनता को पता चले कि उसकी असली हितैषी भाजपा है। जब कांग्रेस के महामंत्री दिग्विजयसिंह ही कांग्रेस को ए टीम और भाजपा को बी टीम बता रहे हैं तो दोनों के  बीच सत्ता के लिए फे्रंडली मैच होना तो जायज है।


यह राजनीति का खेल है। जिस तरह से किसी भी  खेल में दो टीम होती है और वे आपस में जीत के लिए खेलती है और दर्शक ताली बजाते हैं। उसी तरह का यह भी खेल है। दिल्ली में कांग्रेस की सरकार है तो भाजपा दिल्ली में प्रदर्शन करती है। छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार है तो कांग्रेस छत्तीसगढ़ में धरना प्रदर्शन करती है। देश भर के  भाजपाई महंगाई का कारण केंद्र की कांग्रेस सरकार को बताते हैं तो छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी महंगाई के लिए राज्य की भाजपा सरकार को दोषी बताते हैं। अब यह जनता पर है कि  वह तय करे कि कौन सही है? चुनाव में निर्णय का अधिकार जनता के पास ही होता है। जनता के  वोट ही निर्णायक होते हैं कि खेल में कौन जीता, कौन हारा? लेकिन कोई जीते कोई हारे, अंतत: हार तो जनता ही जाती है। क्योंकि उसका एक बार किया निर्णय जिसके भी पक्ष में होता है, वही 5 वर्ष के लिए सत्ता का हकदार बन जाता है।


कभी कभी जनता किसी अच्छे व्यक्ति को भी चुन लेती है। वह अपनी क्षमता भर बल्कि उससे बढ़कर जनता की समस्याओं को हल करने का ईमानदारी से प्रयास करता है। तब दूसरी बार भी  निर्णय के वक्त जनता दुष्प्रचारों से प्रभावित न होकर पुन: सत्ता उसे ही सौंप देती है। कभी देश में एक छत्र शासन करने वाली कंग्रेस जिसे ए टीम बताया जाता है केंद्र में मिली जुली सरकार चला रही है तो कितने ही राज्यों में उसका सुपड़ा साफ हो गया है। भाजपा जिसे बी टीम बताया जा रहा है वह 9 राज्यों में सत्ता पर है और 100 से अधिक लोकसभा सदस्य उसके पास हैं। वह 6 वर्ष तक केंद्र की सत्ता पर काबिज भी रह चुकी। मतलब साफ  है कि जनता ए टीम  से नाराज हुई तो सत्ता बी टीम के पास ही जाना है। सत्ता जिसके पास हो वहीं ए टीम है तो आज की ए टीम कल को बी टीम बन जाती है तो यही तो राजनीति का खेल है।


- विष्णु सिन्हा
20-2-2010

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

नितिन गडकरी के प्रस्ताव पर सभी पक्षों को सद्भावना से विचार करना चाहिए

दरअसल ऐसी ही सोच की जरूरत है। नितिन गडकरी द्वारा भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में दिए गए वक्तव्य की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। समन्वय, सामंजस्य से ही देश को एक रखा जा सकता है। पहली बार किसी राष्ट्रीय राजनेता ने जोडऩे की बात कही है। यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था। मुसलमानों से नितिन गडकरी की यह अपील कि राम मंदिर बनने दें और बनाने में सहयोग करें, वे कहीं और मस्जिद बनाएं, हम पूरा सहयोग देंगे। ऐसी अपील है जिससे हिंदू मुसलमान को बांटकर राजनीति करने वालों को सबक मिलेगा। बाबरी मस्जिद की जगह को पहले ही मुसलमानों से मांगा जाता तो न तो बाबरी मस्जिद विध्वंस की जरूरत पड़ती और न ही कितनों को अपनी जान गंवानी पड़ती। और तो और राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद राजनीति में हथियार की तरह काम नहीं करते। यदि ईमानदारी से, भाईचारे से मुसलमानों से हिंदू कुछ मांगें तो मुसलमान देने से इंकार कर देंगे, यह सोच ही फिजूल है। हिंदू मुसलमान भाईचारे का इतिहास तो पुराना है।

भारतीय मुसलमान वे लोग हैं जिन्होंने बंटवारे को स्वीकार नहीं किया। पाकिस्तान जाकर रहने के बदले भारत में ही अपने हिंदू भाइयों के साथ रहना स्वीकार किया। उनका अपने हिंन्दू भाइयों पर विश्वास नहीं होता तो वे यहां रहते ही क्यों? भारत ने भी धार्मिक राष्ट्र  बनने के बदले धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र  बनना स्वीकार किया। आज दुनिया आश्चर्य से भारत की तरफ  देखती है कि धर्म ही नहीं और कितनी तरह की विभिन्नताओं के बावजूद भारतीय मेल जोल, भाईचारे से रहते हैं। देश के नागरिकों को आपस में लड़ाने का षडय़ंत्र कम नहीं किया जाता लेकिन फिर भी षडय़ंत्रकारी सफल नहीं होते। यह हर मुसलमान जानता है कि उनके हिंदू भाइयों की श्रद्घा भगवान राम पर कितनी है। यदि हिंदुओं की आस्था जहां बाबरी मस्जिद थी उस स्थान को राम जन्मभूमि मानता है तो उसके लिए कानून कायदों से निर्णय होना चाहिए। किसी जोर जबरदस्ती से नहीं। जहां कानून का शासन हो, वहां निर्णय भी कानून के अनुसार होना चाहिए।
कानून का यही तो प्रभाव है कि 6 वर्ष तक केंद्र की सत्ता में रहने के बावजूद भाजपा भी विवादित स्थल पर मंदिर का निर्माण नहीं करा सकी। न्यायालय में वर्षों से मामला विचाराधीन है। पता नहीं कब फैसला आएगा। फिर फैसला भी आएगा तो जिसके पक्ष में नहीं आएगा, उसे अच्छा थोड़े ही लगेगा। कोई हारे कोई जीते, किसी न किसी के स्वाभिमान को ठेस लगेगी। अच्छा तरीका तो यही है कि हिंदू मुसलमान मिलकर न्यायालय के बाहर कोई सम्मानजनक फैसला करें। जिससे हमारे भाईचारे को और ताकत मिले। उन संकीर्ण लोगों को करारा जवाब मिले जो राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद के  बहाने अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास करते हैं। भाजपा के नए युवा अध्यक्ष की पहल से हो सकता है कि भाजपा के समर्थक कुछ संगठन सहमत न हों। उन्हें लगे कि विवाद समाप्त हो गया तो फिर हमारी अहमियत क्या रह जाएगी? ऐसी ही सोच दूसरे पक्ष के  कुछ लोगों में भी हो सकती है लेकिन यदि यह मामला न्यायालय से बाहर निपट जाए तो यह देश के दीर्घकालीन हित के अनुरूप होगा।


आज बड़ा भाई छोटे भाई से मांग रहा है कि उसे जमीन का यह टुकड़ा  दे दो तो छोटे भाई को भी पूरी संवेदनशीलता से शांतिपूर्वक विचार करना चाहिए। हमारी संस्कृति, सभ्यता में यह कोई अच्छी स्थिति तो नहीं है कि बड़ा भाई छोटे भाई से मांगे। होना तो यह चाहिए कि छोटा भाई मांगे और बड़ा भाई दे। छोटे भाई का हक है कि वह बड़े भाई से मांगे और बड़े भाई का कर्तव्य है कि वह छोटे भाई को दे लेकिन परिस्थिति विशेष है। बड़ा भाई अपने किसी निजी स्वार्थ के  लिए जमीन मांग नहीं रहा है बल्कि वह उस जमीन पर अपने भगवान का मंदिर बनाना चाहता है। जिससे कोटि कोटि लोग भगवान के दर्शन, पूजा, अर्चना कर अपने लिए और सबके लिए सुख, समृद्घि, अमन, चैन की प्रार्थना कर सके। वैसे भी यह व्यक्तिगत स्वार्थ का मामला नहीं है। जिनकी उपासना पद्घति अलग है उनके लिए भी अन्यत्र पूजा स्थल का निर्माण करने में पूरा सहयोग देने का वायदा किया जा रहा है।


दुनिया में सब कुछ बदल रहा है। विज्ञान की तरक्की ने बहुत कुछ बदल दिया है। सभी को तरक्की करने का अवसर मिलना चाहिए। आर्थिक स्थिति बदलने का अवसर आ गया है। भारत की युवा पीढ़ी को भी नई दुनिया में जीना है। कठिन प्रतियोगिता में अपने लिए स्थान बनाना है। संकीर्णता से अब काम चलने वाला नहीं है। खुले दिमाग से भविष्य का आंकलन कर अपने बच्चों को आगे बढऩे का अवसर देना है। इसके  लिए सबसे जरूरी जो बात है, वह यही है कि विवादों का निपटारा किया जाए। विवादों में हमारी शक्ति  नष्ट होने के बदले निर्माण में लगे। दुनिया हमारी तरफ देख रही है। अमेरिका तक की सोच है कि आने वाले कल में भारत एक महाशक्ति का रूप ले लेगा। तब हम मंदिर मस्जिद के विवाद में उलझते रहे तो दुश्मन फायदा उठाने से बाज नहीं आएगा। मंदिर मस्जिद विवाद को निपटाकर हम उन लोगों को स्पष्ट संदेश दे देंगे जो हमारे बीच फूट का  बीज बोकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं ।


हिंदू हो, मुसलमान हो, हम सबको और हमारी आने वाली पीढ़ी को इसी भूमि में जीना रहना है। हम क्या बीजारोपण करते है और अपने आने वाली पीढ़ी के लिए किस तरह की समस्याओं को छोड़ते है, यह तो हमीं पर निर्भर करता है। बड़े भाई की हैसियत से हिंदुओं की जिम्मेदारी किसी से भी कम नहीं है लेकिन छोटे भाई होने के कारण मुसलमानों की भी जिम्मेदारी कम नहीं है। नितिन गडकरी के  प्रस्ताव पर गंभीरता से, शांति से विचार करने की जरूरत है। यह ऐसा प्रस्ताव है कि मिल बैठकर कोई रास्ता निकालने की कोशिश करेंगे तो रास्ता अवश्य निकलेगा। पुराने चश्मे से समस्या को न देखकर युवा आंखों से देखने की जरूरत है। हर वह काम जरूरी है जिससे लोगों के बीच संदेह का नहीं विश्वास का माहौल बने। हमारी भावी पीढ़ी गर्व से कह सके कि हमारे बुजुर्ग इतने समझदार थे कि उन्होंने किसी तरह की समस्या हमारे लिए नहीं छोड़ी और हमें उस स्थिति में वारिसाना हक दिया है जहां हम सुख चैन से रह रहे हैं। कौन मां बाप होगा जो चाहेगा कि उसके  बच्चों में आपस में प्रेम न पनपे। प्रेम, मुहब्बत से बड़ी कोई चीज भी नहीं है। प्रेम का पौधा पुष्पित पल्लवित हो, इस दृष्टि को रखकर ही समस्याओं का निपटारा करना चाहिए। यह अच्छी तरह से समझना होगा कि किसी के भी स्वाभिमान को ठेस पहुंचाने का मतलब अपने ही स्वाभिमान को ठेस पहुंचाना है। पूजा पद्घति अलग अलग होने से सब कुछ अलग नहीं हो जाता। ईश्वर को कौन किस तरह से याद करता है या किस तरह से उससे प्रार्थना करता है, इसकी स्वतंत्रता तो हमारा संविधान ही देता है। इसका सम्मान करना हमारा परम कर्तव्य है। इसलिए अवसर हो तो समस्या का समाधान कर लेना चाहिए।


विष्णु सिन्हा
19-2-2010
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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

नितिन गडकरी के तेवर चौकड़ी के लिए खतरे की घंटी बजा रहे हैं

भाजपा के राष्ट्रीय  अधिवेशन से जो समाचार आ रहे हैं, वे समाचार यदि सिर्फ बातें न रहकर क्रियान्वयन तक पहुंच गए तो भाजपा में सब कुछ बदला बदला सा दिखायी पड़ेगा। जब नितिन गडकरी को भाजपा का राष्ट्रीय  अध्यक्ष बनाया गया तब किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि दिल्ली में बैठी चौकड़ी नितिन गडकरी को अध्यक्ष के रूप में सफल होते देखना पसंद करेगी और वे लोग वह सब करेंगे जिससे गडकरी उनकी हाथ की कठपुतली बन जाएं। खाने के शौकीन मोटे से या कहें बेडौल नितिन गडकरी अपने व्यक्तित्व से भी ऐसा संदेश नहीं देते थे कि इतने स्मार्ट भी हो सकते हैं कि दिग्गजों की खाट खड़ी कर दें। जब उन्होंने कहा कि दूसरों की बड़ी लकीर को छोटा करने के बदले अपनी लकीर को बड़ा करना उद्देश्य होना चाहिए तब वह यह बात दूसरों के लिए कम और अपने लिए ज्यादा कह रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि छोटे दिल से बड़े काम नहीं हो सकते। मतलब पार्टी में काम दिल बड़ा रखकर करें।

नितिन गडकरी ने यह भी अच्छी तरह से समझ लिया है कि पार्टी का वोट बैंक यदि 10 प्रतिशत बढा  लिया जाए तो भाजपा कांग्रेस के बराबर खड़ी हो सकती है और इसके लिए सबसे पहले उन्होंने दलितों पर अपनी दृष्टि केंद्रित की है। दलित के घर भोजन कर और बाबा साहेब आम्बेडकर की प्रतिमा पर पुष्प माला चढ़ाकर उन्होंने इशारा भी पार्टी के कार्यकर्ताओं को कर दिया है कि कार्यकर्ता अपना ध्यान किस तरफ केंद्रित करें। कहने वाले तो यह भी कह रहे हैं कि अब जयश्री राम के बदले भाजपा जय भीम का नारा लगाते दिखायी पड़े तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पार्टी की मुख्यधारा को किस तरफ ले जाना है यह नितिन गडकरी अच्छी तरह से समझते हैं। मुसलमान कितना भाजपा पर विश्वास करेंगे, यह अलग बात है लेकिन नितिन गडकरी मुसलमानों को भी अपने पाले में लाने का चिंतन तो कर रहे हैं और उम्मीद की जा रही है कि इस तरफ भी पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया जायेगा।


ब्राह्मण, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक कभी कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करता था। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुसलमानों को जहां विकल्प मिला, उन्होंने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। जहां तक दलितों का प्रश्र है तो कांग्रेस का यह वोट बैंक बसपा ने अपनी तरफ कर लिया। छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों का आदिवासी आज भाजपा के पाले में है। बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि के कारण ब्राह्मण भाजपा की तरफ  आकर्षित हुआ लेकिन भाजपा उसे संभाल नहीं सकी तो उत्तरप्रदेश जैसे प्रदेश में ब्राह्मण भी मायावती के साथ चला गया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत जाति तोड़ो की बात कह रहे हैं लेकिन यह हिंन्दू समाज में आसान काम नहीं है। शहरों में तो वैसे भी जाति का महत्व कम होता जा रहा है लेकिन ग्रामीण पृष्ठभूमि में अभी भी जातियों की पकड़ मौजूद है


यही कारण है कि हिंदुओं को एक करने की कोशिश में भाजपा को सफलता नहीं मिली। भाजपा को पहली बार हिंदुओं के एक बड़े वर्ग का समर्थन मिला तो उसका कारण राम जन्मभूमि आंदोलन रहा लेकिन अब वह बात तो रही नहीं। सरकार में आने के बाद जब भाजपा राम जन्मभूमि पर मंदिर नहीं बना सकी तो फिर उत्तरप्रदेश में ही उसकी हालत खराब हो गयी। यहां तक कि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस मृतशैय्या से उठ खड़ी हुई लेकिन भाजपा का हाल आज सबसे खराब है। यह दूसरी बात है कि आज भाजपा देश के 9 राज्यों में सत्ता पर है लेकिन कुछ राज्यों में उसके  पास संपूर्ण सत्ता नहीं है। भाजपा ने जिन दलों के साथ मिलकर राजग बनाया था उनमें से जनता दल यू जैसे कुछ दलों को छोड़कर अधिकांश उससे अलग हो चुके हैं। इसके साथ यह भी सच है कि छत्तीसगढ़ , मध्यप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल, उत्तराखंड राज्य में संपूर्ण सत्ता भाजपा के पास है तो कई राज्यों में वह पुन: सत्तारूढ़ हुई है तो उसका कारण वहां के मुख्यमंत्रियों के क्रियाकलाप हैं। इन राज्यों में भी भाजपा सरकार को प्रतिपक्ष के कारण कोई नुकसान नहीं है लेकिन पार्टी के ही दिग्गज सत्ता के  लालच में तरह तरह के उद्यम कर पार्टी को कमजोर करने का प्रयास तो कर ही रहे हैं।


इनके विरूद्घ सख्त कार्यवाही की जरूरत है लेकिन पार्टी इनके  विरूद्घ कुछ कर नहीं पा रही है। यह निर्णय तो पार्टी का उचित है कि पार्टी से निष्कासित नेताओं को पार्टी में नहीं लिया जाएगा। इस मामले में पार्टी गुण दोष के आधार पर विचार करे तो ज्यादा अच्छा रहेगा। यह अवश्य देखा जाना चाहिए कि नेता या कार्यकर्ता पार्टी के विरूद्घ चुनाव लडऩे के  लिए तैयार होते हैं तो असल में वे दोषी हैं या पार्टी के नेता ही उन्हें उकसाते हैं और उनका उद्देश्य भी स्पष्ट होता है कि वे बागी होने के लिए उकसा कर पार्टी को नुकसान पहुंचाएं। यदि किसी कार्यकर्ता के साथ पार्टी का कोई नेता अन्याय करता है तब उस पर भी तो कार्यवाही होना चाहिए।


एक बात तो स्पष्ट दिखायी दे रही है कि नितिन गडकरी को वरिष्ठ नेता उस तरह से दबा नहीं पाएंगे जिस तरह का खेल उन्होंने राजनाथ सिंह के साथ खेला। लालकृष्ण आडवाणी कह रहे हैं कि कमियों को दूर करने की जरूरत है। यह कोई ऐसी बात नहीं है कि जिसे गडकरी नहीं समझते। बड़े नेताओं को तो वैसे भी खटका दिखायी दे रहा है। गडकरी सुनने वाले सबकी है लेकिन कार्यकारिणी के गठन से ही स्पष्ट हो जाएगा कि गडकरी अपने मन की करने वाले हैं। गडकरी के हाव-भाव से तो यही लगता है कि वे आमूल चूल परिवर्तन के मूड में हैं और निष्ठïवान, सक्रिय कार्यकर्ता को पार्टी तवज्जो देने वाली है। संगठन में दिग्गजों को लूप लाईन में डाल दें गडकरी तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उनके पक्ष में सबसे बड़ी बात तो यही है कि राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ का पूरा वरदहस्त उन पर है।


और मोहन भागवत ने पहले ही कह दिया है कि राख से उठ खड़े होने का दम भाजपा में है। संघ की सक्रियता भी मोहन भागवत के सरसंघचालक बनने के बाद बढ़ी है। भाजपा को चुस्त दुरूस्त और विस्तारित करने का दायित्व नितिन गडकरी पर है तो संघ को चारों दिशाओं में फैलाने और सशक्त करने का काम मोहन भागवत के पास है। मतलब दोनों संगठन को मजबूत करने का काम करने वाले हैं। प्रतिपक्ष की सत्ता पर भले ही आडवाणी और उनके अनुयायी काबिज रहें लेकिन असली ताकत तो संगठन ही है और संगठन पर जिस तरह से नितिन गडकरी का शिकंजा कसता जा रहा है, उसके  बाद दर्शनीय हुंडियों का क्या महत्व रह जाएगा, यह भी स्पष्ट दिखायी दे रहा है। अब जोड़ तोड़ की राजनीति से उच्च पदस्थ होने का वक्त बीत रहा हैै। चापलूसी के बदले कार्यकुशलता काम आने वाली है तो भाजपा चौकड़ी से या तो मुक्त हो जाएगी या फिर  चौकड़ी को ही अपने रंग ढंग बदलने पड़ेंगे।


- विष्णु सिन्हा
18-2-2010
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अलकायदा की चेतावनी से क्या कोई देश डर जाएगा?

अब अलकायदा ने विश्व समुदाय को चेतावनी दी है कि वह अपने खिलाडिय़ों को विश्व कप हॉकी, आईपीएल तथा राष्ट्र्रमंडल खेलों के लिए भारत न भेजे। अन्यथा परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे। यह चेतावनी अलकायदा के कमांडर इलियास काश्मीरी ने दिया है। यह वही शख्स है जिसके साथ डेविड हेडली के संबंध चर्चित है और मुंबई हमले में भी जिसका हाथ था। एक तरफ भारत जैसा धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है और दूसरी तरफ चंद आतंकवादी। भारत सरकार सुरक्षा की पूरी गारंटी दे रही है लेकिन फिर भी खेल के नाम पर अपने देश के खिलाडिय़ों की जान जोखिम डालने के लिए कुछ देश तैयार न हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं और यही अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठन चाहते भी हैं कि उनकी धमकी से लोग डर कर यदि खेल में भाग लेने से कतराते हैं तो यह उनकी बड़ी जीत होगी। 

यह तो भारत के लिए ही नहीं विश्व समुदाय के सोच का विषय है कि वह इन आतंकवादी धमकियों से प्रभावित होता है या उनका मुंहतोड़ जवाब देता है। स्वाभाविक है कि भारत पर इस धमकी के  बाद सुरक्षा की अहम जिम्मेदारी है। इन खेलों को आतंकवाद से बचा कर सफलतापूर्वक संपन्न कराने की भी जिम्मेदारी भारत पर है। भारत तो अपनी तरफ से हर संभव प्रयास करेगा कि खेल में किसी भी तरह का विघ्न न पड़े लेकिन विश्व समुदाय की भी अपनी जिम्मेदारी है। जो देश आतंकवादी धमकी से घबराएगा, वह सहज ही आतंकवादियों की दृष्टि में सरल निशाना होगा। यही समय है, अलकायदा को जवाब दिया जाए कि उसकी धमकी से दुनिया का कोई देश नहीं घबराता। राष्ट्रों  की सत्ता इतनी कमजोर नहीं है कि वह चंद आतंकवादियों की धमकी के सामने घुटने टेक दे। 


शांतिप्रिय देशों का हिंसा पर कोई विश्वास नहीं होता लेकिन यदि उन्हें कमजोर समझ कर कोई हिंसा के बल पर आतंक फैलाना चाहे और अपने मनमाफिक चलने के लिए बाध्य करने की कोशिश करे तो उसका मुहतोड़ जवाब देना राष्ट्रों  का कर्तव्य है। अमेरिका का ही उदाहरण पर्याप्त है। जब उस पर आतंकवादी हमला हआ तब उसने उसका मुहतोड़ जवाब देने के लिए अलकायदा के विरुद्ध अफगानिस्तान में जाकर सैन्य कार्यवाही करने से भी परहेज नहीं किया। सुरक्षा का ऐसा कवच अपने देश में बनाया कि दूसरी आतंकवादी घटना करने की धमकी तो अलकायदा देता रहा लेकिन आज तक वह ऐसा कर नहीं पाया। अमेरिका का खौफ तो इतना है कि वल्र्ड ट्रेड  सेंटर पर हमले के बाद ओसामा बिन लादेन ऐसा गायब हुआ कि ढूंढने पर भी नहीं मिल रहा है और बीच बीच में उसकी मृत्यु की खबर अवश्य आती है। 


आज की तारीख में आतंकवाद को कड़ा जवाब देना विश्व बिरादरी का पहला कर्तव्य है। क्योंकि हर कोई शांति और अहिंसा चाहता है। कौन अपने शांतिप्रिय नागरिकों की जान को आतंकवादियों के खौफ के साये में में देखना चाहता है। फिर जहां तक भारत का प्रश्र है तो उसने आतंकवाद का सबसे ज्यादा स्वाद चखा है। 1 लाख से अधिक भारतीय आतंकवाद के शिकार हो चुके हैं लेकिन अहिंसा और शांति के देश भारत ने आतंकवादियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है, ऐसा तो किसी भी कोण से परिलक्षित नहीं होता। कल की तुलना में भारत आज आतंकवादियों का मुकाबला करने में अधिक सक्षम हुआ है। मुंबई हमले के बाद तो कहा जा रहा है कि यदि फिर से भारत पर आतंकवादी हमला हुआ तो भारत अपने आपको युद्ध करने से रोक नहीं पाएगा। स्थिति तो ऐसी निर्मित होती है लेकिन युद्धों का भारत के पास लंबा इतिहास है। वह जानता है कि युद्ध अधैर्य का परिणाम नहीं होना चाहिए लेकिन जब युद्ध जरुरी हो जाए तब भारत ने उसका कड़ा जवाब भी दिया है।


दुनिया के देश और आतंकवादी यह समझ ही नहीं पाते कि भारतीय आखिर किस मिट्टी के बने हैं? मुंबई पर हमला होता है और दूसरे ही दिन से मुंबई अपनी पुरानी रफ्तार में भागता दिखायी देता है। न तो कोई आतंकवाद के डर से घर से निकलना छोड़ता है और न ही इस बात की परवाह करता है कि उसे आतंकवादियों का कोई खौफ है। पुणे में जर्मन बेकरी पर हुए विस्फोट से भी देश के मिजाज पर कोई फर्क नहीं आया बल्कि एक बात समझ में आयी कि भारत की सुरक्षा व्यवस्था इतनी तो है कि आतंकवादी तक डरे हुए हैं। वे पूरी तरह से कायराना हमला करते हैं और तब भी जांच एजेंसियों की नजरों से बच नहीं पाते। केंद्रीय गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने वर्ष भर में ही खुफिया एजेंसियों के मृत शरीर में प्राण संचार कर दिया है और प्रशिक्षण की रफ्तार भी तेज है। वे देश में होने वाले विश्व खेलों को आतंकवादियों के कृत्यों से बचा ले जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पहले घटनाएं होती थी तो दो चार दिन हल्ला गुल्ला होने के बाद सब शांत हो जाता था लेकिन अब वह स्थिति नहीं है। हर घटना की न केवल सुक्ष्मता से जांच की जाती है बल्कि आतंकवादियों को पकडऩे में भी सफलता मिलती है।


जहां भी सुरक्षा बलों की, खुफिया एजेंसियों की कमजोरी समझ में आती है, उसे दूर करने का पूरा प्रयास किया जाता है। इसी कारण से नक्सलियों पर भी लगाम लग रही है। न केवल नक्सली पकड़े जा रहे हैं बल्कि मुठभेड़ों में मारे भी जा रहे है। यह भ्रम भी टूट गया है कि नक्सली कोई राजनैतिक समस्या है। पश्चिम बंगाल में जो 20 पुलिस के सिपाही नक्सली हमले में मारे गए तो उसका कारण नक्सलियों की वीरता नहीं थी बल्कि सुरक्षा कर्मियों की लापरवाही थी। यह बात नक्सलियों को भी समझ में आ रही है कि सरकार निरंतर इसी तरह से सख्ती से शिकंजा कसती रही तो वह दिन दूर नहीं जब नक्सली समस्या से ग्रस्त क्षेत्र मुख्य धारा में आ जाएंगे। उच्चतम न्यायालय ने भी माना है कि नक्सलवाद नाम की कोई राजनैतिक बात नहीं है। विकास का न होना असल में नक्सलियों के पनपने का कारण है। यह बात भी सामने आ चुकी है कि नक्सली विकास विरोधी हैं वे सड़कें तोड़ते है, स्कूल और पंचायत भवनों को बमों से उड़ा देते हैं। सरकार विकास के काम करती है तो होने नहीं देते लेकिन अब नक्सल समस्या से ग्रस्त इलाकों को मुक्त ही नहीं कराया जा रहा है बल्कि विकास के काम भी प्राथमिकता के आधार पर कराए जा रहे हैं। 


जहां तक विदेशों से आयातित आतंकवाद की बात है तो चंद लोग उसके बहकावे में भले ही आ जाएं लेकिन बहुसंख्यक भारतीय आतंकवाद के विरुद्ध अपना गुस्सा बार-बार प्रगट कर चुका है। आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए एक युवक की मां जब यह कहती है कि यदि उसके  बेटे ने गलत काम किया है तो उसे सजा होनी चाहिए तो इसी से समझ में आता है कि यह मदर इंडिया का देश है। देश के नागरिकों के  सपड़ में आतंकवादी आए तो उनकी खैर नहीं है। क्योंकि यह तो तय है कि आतंकवाद को प्रश्रय देने के लिए देश में कोई तैयार नहीं है। भारतीयों को पूरी उम्मीद है कि खेल भारत में होंगे और शांतिपूर्वक होंगे। कोई आतंकवादी खेल में विघ्र नहीं डाल सकेगा ।
विष्णु सिन्हा
दिनांक 17.02.2010
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महंगाई कम करना डॉ. रमन सिंह के हाथ में होता तो महंगाई बढ़ती ही क्यों ?

स्वाभाविक है, नौटंकी लगना। राज्य सरकार साइकिल पर सवार होकर महंगाई के  प्रति विरोध प्रदर्शित करती है तो कांग्रेस के पास इसके सिवाय कहने को और क्या है कि यह नौटंकी है। केंद्र सरकार मंत्रिमंडल की बैठक कर महंगाई पर चिंता प्रगट करती है और महंगाई कम करने के लिए कड़े कदम उठाने की बात करती है तो कृषि मंत्री शरद पवार महंगाई कम होने के लिए अगली फसल का इंतजार करने को कहते हैं। शक्कर की बढ़ती कीमत के लिए उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को दोषी बताते हैं। केद्र सरकार पूरी बेशर्मी से राज्य सरकारों को महंगाई के  लिए दोषी बताती है। इसका तो अर्थ होता है कि राज्यों में स्थित विभिन्न पार्टियों की सरकारों में महंगाई बढ़ाने को लेकर एकता है। क्या यह संभव है? साफ  पता चलता है कि केंद्र सरकार के  बस में नहीं है महंगाई कम करना तो स्वयं को दोषी भी तो वह नहीं मान सकती। इसलिए राज्य सरकारें दोषी हैं। राज्य सरकारें व्यापारियों पर डंडा चलाएं। उन्हें परेशान करें और अलोकप्रिय बनें।

डा. रमन सिंह सरकार के मंत्री साइकिल पर सवार होकर विधानसभा जाते हैं तो वे जनता को संदेश देते हैं कि महंगाई के  लिए वे नहीं, केंद्र सरकार दोषी है।केंद्र सरकार 17 रू. किलो में शक्कर विदेशों में बेचती है और फिर 34 रूपये किलो में शक्कर विदेशों से खरीदती है तो दोषी कौन है? अपनी शक्कर सस्ते में विदेशियों के लिए और विदेश की महंगी शक्कर अपने देशवासियों के लिए तो महंगाई कम होगी या बढ़ेगी ? छत्तीसगढ़ के बीपीएल परिवारों के लिए ही जब केंद्र सरकार शक्कर पूरा नहीं देती तो उसे गरीबों की कितनी चिंता है, यह आसानी से समझ में आ जाता है। बाकी निम्र मध्यम श्रेणी के लोगों  के लिए तो सोचने विचारने की जरूरत ही केंद्र सरकार नहीं समझती।


मनमोहन सिंह जैसे पूर्व नौकरशाह को प्रधानमंत्री बनाकर कांग्रेस ने तो पहले ही कांग्रेसियों को बता दिया है कि कोई भी पूरी तरह से राजनीतिज्ञ कांग्रेसी इस योग्य उसकी दृष्टि में नहीं है कि जिसे वह प्रधानमंत्री बना सके। सेवानिवृत्त होने के बाद करीब 5 दर्जन नौकरशाह मनमोहन सिंह की सरकार का कामकाज देख रहे हैं। इसका अर्थ भी स्पष्टï है कि पूर्व नौकरशाह प्रधानमंत्री के लिए नौकरशाहों से काम लेना ही सरल है। छत्तीसगढ़ राज्य बना तब भी एक पूर्व नौकरशाह अजीत जोगी को ही छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के लिए सोनिया गांधी ने चुना था। परिणाम क्या हुआ? कभी कांग्रेस का गढ़ रहा छत्तीसगढ़ कांग्रेस के हाथ से निकल गया। विद्याचरण शुक्ल, श्यामाचरण शुक्ल जैसे दिग्गज राजनीतिज्ञों के रहते नौकरशाह को तरजीह देकर कांग्रेस ने आम लोगों से अपने को काट लिया।


महंगाई के लिए जब कांग्रेस ने शरद पवार को टारगेट बनाया तब शरद पवार ने पूरी सरकार को इसके लिए जवाबदार बताया। क्योंकि निर्णय किसी का व्यक्तिगत न होकर सामूहिक रूप से मंत्रिमंडल का है। शरद पवार की एक ही घुड़की से कांग्रेस ने फिर दोबारा महंगाई के लिए शरद पवार को दोषी ठहराना बंद कर दिया । जिस सरकार का मुखिया पूर्व नौकरशाह हो और वह एक पूर्व दिग्गज राजनीतिज्ञ अर्जुनसिंह को मंत्रिमंडल में लेने से इसलिए इंकार कर दे, क्योंकि अर्जुनसिंह ने कभी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने के लिए योग्य बताया था और इसमें आलाकमान हस्तक्षेप न कर सके  तो इसी से समझ में आता है कि सरकार कौन और किस तरह से चला रहा है। नौकरशाहों पर पूरी तरह से आश्रित सरकार के निर्णयों पर नौकरशाहों का ही नियंत्रण है। यहां तक कि राज्यों में राज्यपाल के  रूप में भी अधिकांश नियुक्ति नौकरशाहों की ही की गई है। कल तक जो राजनीतिज्ञों को सर कहा करते थे, अब राजनीतिज्ञ उन्हें सर कहकर संबोधित कर रहे हैं। संवैधानिक प्रक्रिया ऐसी है कि दोषारोपण भी जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों पर होता है जो सरकार में है। नौकरशाहों को दोषी तो बताया नहीं जाता.


मधु कौड़ा 4 हजार करोड़ का भ्रष्टाचार करते हैं तो नौकरशाह भी इस जमात में शामिल हैं। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में ही अरबपति नौकरशाह पकड़ में आए हैं। कांग्रेसी कह रहे हैं कि यह राज्य सरकार का सबूत है कि कितना भ्रष्टïचार है। मधु कौड़ा की सरकार को तो कांग्रेस का समर्थन था। उस विषय में कांग्रेसी क्या कहेंगे ? दरअसल भ्रष्ट राजनीतिज्ञ और भ्रष्ट नौकरशाह के आपसी सामंजस्य के बिना भ्रष्टचार हो ही नहीं सकता। भ्रष्टाचार की बहती गंगा में थोड़ा बहुत प्रसाद तो संबंधित सभी लोगों को  मिल जाता है। जो गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों का राशन चुराने में भी पीछे नहीं रहते, उनके विषय में तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि धन के सामने नैतिकता अब छोटी बात हो गयी है। जब भ्रष्टïचार की गटर गंगा में सभी डुबकी लगाने के लिए तैयार हैं तो फिर महंगाई  बढऩे ही वाली है। नहीं तो एक संवेदनशील मानवीय सरकार खाद्यान्न पर वायदा कारोबार की इजाजत दे कैसे सकती है? पेट की भूख को सट्टे के  हवाले कैसे कर सकती है?


कांग्रेस के प्रवक्ता जब कहते हैं कि सूखा और बाढ़ के लिए सरकार दोषी नहीं तो वे अर्धसत्य ही कहते हैं। क्योंकि सामान्य स्थिति में सरकार की कोई भूमिका न हो यह तो समझ में भी आता है लेकिन विपरीत परिस्थितियों में सरकार जनता के लिए प्रबंध करे, यही तो सरकार की उपयोगिता है। जब सब कुछ बाजार के हवाले होगा और सट्टा कानूनी होगा तो फिर जनता जो भोग रही है, उसके  बाद जनता के लिए सरकार का औचित्य ही क्या रह जाता है? एक संवेदनशील, मानवीय सरकार का तो यह पहला कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों को बताए कि महंगाई का कारण कौन है? सामान्य रूप से जनता तक संदेश पहुंचे न पहुंचे लेकिन जब सरकार विधानसभा साइकिल पर बैठकर जाती है और अपना पसीना बहाती है तो जनता को अच्छी तरह से समझ में आता है कि आज जो महंगाई की मार उस पर पड़ रही है, उसके लिए उसकी चुनी हुई राज्य सरकार दोषी नहीं है।


पिछले दिनों ताजमहल के शहर आगरा जाने का अवसर मिला। 4-5 घंटे बिजली का गायब रहना आगरा शहर में आम बात है। जगह जगह लोगों ने जनरेटर लगा रखे हैं। इनवर्टर तो आम बात है लेकिन आगरा जैसी स्थिति तो फिरोजाबाद में नही है। वहां दिन दिन भर बिजली गुल रहती है। कभी कभी तो गर्मी में दिन रात गोल रहती है। उस दृष्टि  से तो छत्तीसगढ़ में बिजली एक वरदान की तरह है। जब छत्तीसगढ़ राज्य बना था तब से बिजली की खपत छत्तीसगढ़ में दोगुनी हो चुकी है लेकिन फिर भी डा. रमन सिंह के प्रयासों से छत्तीसगढ़ के लोगों को भरपूर बिजली मिल रही है। यह उस स्थिति में है जब केद्र सरकार ने बिजली के कोटे में कटौती कर रखी है। खाद्यान्न के कोटे में कटौती की गई। फिर भी सरकार गरीबों को और करीब करीब आधे छत्तीसगढ़ को 2 रू. और 1 रू. किलो में चांवल दे रही है। कितने ही राज्यों की तुलना में छत्तीसगढ़ की स्थिति अच्छी है। महंगाई कम करना भी सरकार के बस में होता तो डा. रमन सिंह पीछे रहने वाले नहीं थे। साइकिल पर सवार होकर जनता को असलियत का परिचय देना तो उनका कर्तव्य है और इसे कोई नौटंकी कहे तो कहता रहे। जनता सब कुछ अच्छी तरह से समझती है


- विष्णु सिन्हा
16-2-2010

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

भाजपा का बंद ही साबित करता है कि महगाई से जनता कितनी परेशान है

महंगाई के विरोध में भारतीय जनता पार्टी का छत्तीसगढ़ बंद पूरी तरह से सफल रहा। कांग्रेस कितना भी प्रचार करे कि महंगाई का कारण राज्य सरकार है लेकिन आम जनता के गले से यह बात नीचे नहीं उतरती। क्योंकि राज्य सरकार के कारण सिर्फ महंगाई होती तो फिर राज्य विशेष में ही होती। अखिल भारतीय स्तर पर उसका प्रभाव नहीं होता। रसोई गैस की कीमत ही अब 100 रुपए अधिक मांगे जा रहे हैं। इसका कारण भी राज्य सरकार है, क्या? केंद्र की कांग्रेस सरकार कुछ करती है तो कुछ दिनों के लिए दालों की कीमत थोक बाजार में कम हो जाती है लेकिन चिल्हर  बाजार पर उसका जो असर पडऩा चाहिए वह नहीं पड़ता। दो चार दिन के बाद कीमतें फिर बढऩे लगती हैं। सरकार में बैठे लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि वास्तव में आम जनता का महंगाई ने किस प्रकार जीना मुश्किल कर रखा है। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में शासन करने वाली भाजपा जब महंगाई के नाम पर राज्य बंद का आव्हान करती है, तब स्वस्फूर्त बंद हो जाता है। 

बंद को मिलने वाली सफलता से स्थानीय कांग्रेसियों को स्वाभाविक रुप से कष्ट होता है। वे टोकन रुप से राज्य सरकार और महंगाई का पुतला जला कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहते हैं कि वे भी महंगाई के विरुद्ध हैं और महंगाई उनकी केंद्र सरकार के कारण नहीं बल्कि राज्य सरकार के कारण है। यह बात जनता को हजम नहीं होती। प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में जब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह कहते हैं कि वायदा कारोबार खाद्यान्न का बंद किया जाए, तब केंद्र सरकार इस पर ध्यान देने को तैयार नहीं। खाद्यान्न पर जब तक खुले आम सट्ट होगा तब तक बाजार में भाव सटोरियों के अनुसार चलेंगे। जिनका न तो फसल पैदा करने में कोई हाथ है और खरीदी बिक्री में। वे ही जब भाव के उतार चढ़ाव में करोड़ों नहीं अरबों का खेल खेलते हैं तब भाव उनके नियंत्रण में चले जाते हैं। सट्टï शब्द ही समाज की दृष्टि में अच्छा नहीं है। एक संवेदनशील सरकार किस तरह से खाद्यान्न पर सट्टï करने का कानूनी अधिकार देती हैं? पेट के आग से बड़ी आग तो कोई नहीं होती। गरीबों को सस्ते दर पर खाद्यान्न देने का कार्यक्रम यदि सरकार बंद कर दे तब क्या हो सकता है, कुछ कहा नहीं जा सकता


मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने प्रधानमंत्री से यह भी कहा कि थोक और चिल्हर में लाभ का प्रतिशत तय कर दिया जाए तो मूल्य पर नियंत्रण किया जा सकता है। या तो केंद्र सरकार इसके लिए कानून बनाए या राज्य सरकार को इसका अधिकार दे। जिससे भाव तो बाजार में इस तरह से छलांग न लगाएं लेकिन केंद्र सरकार इसके लिए भी तैयार नहीं है। विकासशील देश को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए कृतसंकल्पित मनमोहन सिंह बहुत बड़े अर्थशास्त्री हैं लेकिन पेट की भूख किसी शास्त्र के अनुसार नहीं चलती। 115 करोड़ जनसंख्या का देश मांग और पूर्ति के अनुसार कीमत बाजार में निर्धारित कर लोगों को राहत नहीं दे सकता। राज्य की डॉ. रमन सिंह सरकार तो इतनी संवेदनशील है कि उसने महंगाई की मार का पहले ही आकलन कर लिया था। इसीलिए अपनी आधी जनसंख्या की वह 2 रु. किलो एवं 1 रुपए किलो में चांवल दे रही है। इसके लिए बजट का बड़ा हिस्सा जो विकास कार्य में लगना चाहिए, उसे इस काम में लगाया जा रहा है। डॉ. रमन सिंह कहते हैं कि उनके राज्य में कोई भूखा रहे, यह उन्हें बर्दाश्त नहीं।
डॉ.  सिंह ने तो दाल भी केंद्र से मांगा हैं। जिससे गरीब आदमी भात के साथ दाल तो खा सके। कभी कहा जाता था कि दाल रोटी खाओ प्रभु के  गुन गाओ। आज स्थिति ऐसी है कि रोटी या भात के साथ दाल नसीब में नहीं है, गरीब आदमी के। सबसे महंगा खाद्यान्न दाल ही हो गया है। जहां तक शक्कर का प्रश्र है तो वह अब हर किसी के बस की बात नहीं रही। जो खाते हैं उनका जायका भी मीठा नहीं। बाकी जिन्हें नहीं मिलता, उनके विषय में सोचने की फुरसत किसे है। ऊपर से शरद पवार केंद्रीय कृषि मंत्री का समाचार पत्र तो शक्कर न खाने के लाभ बता रहा है। कोई जल कुकड़ा मधुमेह रोगी शक्कर महंगी होने से भले ही खुश हो, क्योंकि उस पर तो शक्कर खाने क्या चखने का भी प्रतिबंध है लेकिन आम आदमी की जिंदगी में खुशी के पल दो पल शक्कर की मिठास ही ले आती है। जो अब प्राप्त करना कठिन हो गया है।
निम्र मध्यम श्रेणी वर्ग का व्यक्ति अपने परिवार का पालन पोषण किस तरह से करता है, यह बड़े-बड़े पदों पर बैठ विरले ही समझ सकते हैं। विकास के नाम पर भोजन इतना महंगा हो जाएगा, यह तो सोच के भी बाहर की बात है। कहते हैं मंदी से भारत उबर गया। भारतीय कृषि ने भारत को मंदी से उबारने में सबसे बड़ी भूमिका निभायी। देश में भोजन के लिए खाद्यान्न की पर्याप्त व्यवस्था होने के कारण देश को आयात का कम सहारा लेना पड़ा। हालांकि इसके बावजूद भारत ने खाद्यान्न का निर्यात भी किया। जब निर्यात पर कुछ जिन्सों में पाबंदी लगायी गई तब भी व्यापारियों ने बड़ा हल्ला मचाया कि निर्यात की इजाजत दी जाए। क्योंकि विश्व बाजार में अच्छी मांग है और अच्छे भाव पर बिकवाली हो सकती है। सरकार की दूरदर्शिता कहे या बेवकूफी कि उसने शक्कर सस्ते में विदेशों को बेची और फिर महंगी कीमत पर देश की आवश्यकता पूर्ति के लिए खरीदी।


भारत जैसे प्रजातांत्रिक मुल्क में 115 करोड़ देशवासियों को बाजार के  हवाले करना सरकार की कितनी बड़ी दूरदर्शिता है, यह अब दिखायी देने लगा है। कृषि पर आधारित जीवन यापन करने वालों की संख्या ही इस समय 60 प्रतिशत से अधिक है। क्या बाजार में बढ़े मूल्यों का लाभ कृषकों को मिल रहा है तो कितना मिल रहा है? कोई भी किसान हर तरह की फसल तो नहीं उगाता। इसलिए बाकी के लिए उसे बाजार का शिकार होना ही पड़ता है। चावल, गेहूं तो सरकार समर्थन मूल्य पर खरीदती है। गन्ने का भी समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए पिछले दिनों किसानों ने दिल्ली में प्रदर्शन किया था लेकिन उत्पादक किसान भी तो बाजार से ही शक्कर खरीद कर उपयोग में लाता है।


60 प्रतिशत किसानों के बाद देश की जो 40 प्रतिशत आबादी है, वह निश्चित आय में ही गुजारा करती है। बहुतों को तो उसकी निश्चितता भी उपलब्ध नहीं है। बाजार में बढ़ती कीमत ने उसका बजट पूरी तरह से बिगाड़ दिया है। शासकीय कर्मचारियों का वेतन सरकार ने बढ़ा दिया लेकिन सबके  वेतन तो उस अनुपात में नहीं बढ़े बल्कि कइयों को इस दौर में अपनी नौकरी गंवानी पड़ी। कोई शिकायत करे भी तो किससे? फिर शिकायत करने से महंगाई कम हो जाती तो जनता शिकायत भी कर लेती। इसीलिए जब भाजपा ने महंगाई के विरुद्ध बंद का आव्हान किया तो बंद को व्यापक सफलता मिली। यह सही है कि इससे रोज कमाने खाने वालों को तकलीफ हुई लेकिन रोज की तकलीफ की तुलना में एक दिन की तकलीफ तो कोई मायने नहीं रखती। शरद पवार कहते हैं कि फसल अच्छी आएगी तो महंगाई कम हो जाएगी। मतलब साफ है कि भोगो महंगाई को और परमात्मा से ही प्रार्थना करो कि वह अच्छी फसल का अवसर दे। जिससे महंगाई से निजात मिले।
- विष्णु सिन्हा 


दिनांक 14.02.2010
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सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

आतंकवादी हमला करते रहें और हम वार्ता, यह कितनी उचित नीति है?

केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम का यह कहना कि खुफिया एजेंसियों की नाकामी के कारण जर्मन बेकरी में विस्फोट नहीं हुआ, से कुछ लोग भले ही असहमत हों लेकिन चिदंबरम सही कहते लगते हैं। क्योंकि जर्मन बेकरी में हुए विस्फोट से बचा जा सकता था। जर्मन बेकरी के स्टॉफ ने सतर्कता बरती होती और टेबल के नीचे रखे बैग को खोलने के बदले पुलिस को सूचना दी होती तो विस्फोट को रोका जा सकता था। दरअसल जर्मन बेकरी में बम का रखना आतंकवादियों की हताशा का प्रतीक है। अभी जो खबरें आ रही हैं, उसके अनुसार टारगेट तो ओशो आश्रम और यहुदियों का उपासना स्थल खबाद हाउस था। समय से पहले खबाद हाउस में प्रार्थना प्रारंभ हो गयी और सुरक्षा बढ़ गयी, इसलिए आतंकवादी उसे टारगेट नहीं बना सके। यही हाल ओशो आश्रम का भी हुआ। पहले खुले मैदान में कार्यक्रम होना था लेकिन भीड़ अधिक होने के कारण स्थान परिवर्तन कर दिया गया और सुरक्षा वहां भी बढ़ गयी। इसलिए आतंकवादी ओशो आश्रम को भी टारगेट नहीं बना सके। तब उन्होंने जर्मन बेकरी जैसे आसान निशाने को चुना। यहां भी वे असफल हो जाते, लेकिन बेकरी के स्टाफ की मूर्खता के कारण विस्फोट हो गया। 

सुरक्षा एजेंसियों की कड़ी चौकसी के कारण ओशो आश्रम और खबाद हाउस तो बच गए लेकिन जर्मन बेकरी निशाना बन गया। कहा जा रहा है कि हेडली ने इस क्षेत्र के एक होटल में रुक कर रेकी की थी। हेडली इस समय अमेरिका की पुलिस के  कब्जे में है लेकिन इसके साथ-साथ यह भी कहा जा रहा है कि पाकिस्तान के एक आतंकवादी संगठन के नेता ने पिछले दिनों पाकिस्तान में पुणे पर हमला करने की घोषणा की थी। इन तमाम बातों पर गौर करें तो यह बात स्पष्ट दिखायी देती है कि आतंकवादियों का यह हमला जिसमें 9 लोग 2 विदेशी नागरिकों सहित मारे गए और 50 लोग घायल हुए, पूरी तरह से कायराना हमला था। अभी तक किसी ने भी इस हमले की जिम्मेदारी नहीं ली है लेकिन इंडियन मुजाहिदीन या पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन पर संदेह किया जा रहा है। नाम भले ही अलग-अलग हों लेकिन उद्देश्य तो उनका एक ही है। भारत को उकसाना कि वह पाकिस्तान से लड़े। जब भारत के हुक्मरान मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान से लडऩे के लिए तैयार नहीं हुए, तब वे पुणे विस्फोट के बाद क्या पाकिस्तान से लड़ेंगे?


भारत के हुक्मरान तो 25 फरवरी को विदेश सचिव स्तर की पाकिस्तान से चर्चा करने के लिए तैयार हो गए हैं। दक्षेस सम्मेलन में गृहमंत्री स्तर की वार्ता भी होने की उम्मीद की जा रही है। वह सब बातें अब कोई मायने नहीं रखती जो मुंबई हमले के बाद कही गयी थी कि जब तक दोषियों के विरुद्ध पाकिस्तान कार्यवाही नहीं करता तब तक उससे कोई बातचीत नहीं की जाएगी। पाकिस्तान के हुक्मरान इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत की इस तरह की बात का कोई विशेष औचित्य नहीं है। वे तो इन बातों को एक तरह की गीदड़ भभकी ही समझते हैं और मजाक उड़ाते हैं। 6 माह, साल भर व्यतीत होने दो भारत फिर बातचीत करेगा। यह पाकिस्तानी हुक्मरानों की सोच है और वे गलत भी नहीं सोचते, यह भारतीय हुक्मरान ही सिद्ध करते हैं ?


विनम्रता अच्छी बात है। गल्तियों को माफ करने की ताकत भी बड़ी बात है लेकिन यह उनके संबंध में उचित है जो गल्तियों को महसूस करते हैं लेकिन जो इस तरह की अच्छी भावनाओं को कायरता समझते हैं, उनके साथ भलमनसाहत का क्या अर्थ है? जो अपनी आदतों से बाज आने को तैयार नहीं। तीन-तीन बार युद्ध में हार जाने के बावजूद जिनकी अक्ल ठिकाने नहीं आयी, उनसे बातचीत से मामला निपटाया जा सकता है, यह सोच ही अव्यवहारिक है। एक तरफ आतंकवादियों से निपटने के नाम पर अमेरिका पाकिस्तान को अरबों रुपए की सहायता करता है और दूसरी तरफ हमें शांति का पाठ पढ़ाता है। पाकिस्तान तो खुल कर कह रहा है कि काश्मीर का मामला फिलीस्तीन की तरह का है। काश्मीर को आतंक की आग में झुलसाने का पाकिस्तान ने कम प्रयास नहीं किया और आज भी कर रहा है। घुसपैठ जारी है। युद्ध विराम के बावजूद पाकिस्तानी सीमा से भारतीय सीमा पर गोलीबारी होती ही रहती है। पाकिस्तान ने तो एक भी उदाहरण आज तक प्रस्तुत नहीं किया कि वह वास्तव में भारत के साथ मैत्री चाहता है। दुनिया को दिखाने के लिए वह इस तरह के ढोंग अवश्य करता है।


किसी भी तरह की बातचीत का तब तक क्या औचित्य है जब तक बातचीत में ईमानदारी न हो। शिमला समझौता भी तो भारत के साथ पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान गंवाने के बाद किया था। यह भी तथ्य स्पष्ट है कि पाकिस्तानी आतंकवादी बंगला देश से भी भारत में घुसते ही नहीं है बल्कि वहां भी उन्होंने अपने ठिकाने बना रखे है। पाकिस्तान तो अमेरिका और चीन दोनों से दोस्ती का दम भरता है। वह अमेरिका और चीन दोनों से लाभ उठाता है और भारत को चुनौती देता है। यहां तक कि जब लंका की क्रिकेट टीम पर पाकिस्तान में हमला हुआ तब भी उसने तुरंत आरोप लगाया कि यह भारत ने किया है। ब्लूचिस्तान में भी वह भारत के हस्तक्षेप का राग अलापता है। अफगानिस्तान को भारत की मदद भी उसे फूटी आंख नहीं सुहाती। फिर उसकी राजनीति का मूल केंद्र भारत से दोस्ती नहीं, घृणा है। तब भारत कितनी भी दोस्ती की, शांति की बात करें, उसका परिणाम तो वह नहीं निकलता जो भारत चाहता है।
ऐसे में पाकिस्तान के साथ किसी भी स्तर की बातचीत करना सिवाय समय खराब करने के और क्या है? पाकिस्तान सरकार की नीयत और वहां से चलने वाली आतंकवादी गतिविधियों से सतर्क रहने और उसका  मुंह तोड़ जवाब देने के सिवाय भारत के पास दूसरा चारा नहीं है। जो लोग समझते हैं कि वार्ता की कूटनीति से हमारी समस्याओं का हल हो जाएगा, उनके सामने उदाहरणों की कमी नहीं है कि वार्ता में हमने जीत तक को तो गंवाया है। चाहे वह ताशकंद समझौता हो या शिमला समझौता। हमें मिला क्या है? यहां तक कि पाकिस्तान के कब्जे में चला गया काश्मीर तक हम वापस प्राप्त नहीं कर सके। राजनीति का आदर्शवाद भारत के लिए चीन और पाकिस्तान के मामले में ही नहीं नेपाल तक के मामले में भी नुकसानप्रद ही साबित हुआ है। कभी इसकी भी समीक्षा करें, भारत के हुक्मरान। 


चीन के मामले में पंचशील का सिद्धांत काम नहीं आया। चीनी हिन्दी भाई-भाई का अलाप लाखों वर्ग किलोमीटर जमीन गंवा बैठा और आज भी चीन की नजर हमारी भूमि पर लगी हुई है। हमारे हुक्मरान कहते हैं कि चीन हमारा दोस्त है और उससे कोई खतरा नहीं है। भारत के ही एक प्रदेश में भारत के प्रधानमंत्री के जाने पर जो चीन विरोध प्रदर्शित करता है, वह हमारा मित्र कैसे दिखायी पड़ता है? यदि दिखायी पड़ता है तो सिर्फ हमारी कमजोरी ही दिखायी पड़ती है। हम वार्ता करते रहते हैं और चीन हमारी भूमि पर कब्जा करता जाता है। चीन तो पाकिस्तान में फौजी केंद्र भी बनाने वाला है। वे हमारा मजाक उड़ाते हैं तो गलत क्या करते हैं? क्या हमारे कृत्य मजाक के योग्य नहीं है? शुतुरमुर्ग की तरह सोच होगी तो परिणाम भी शुतुरमुर्ग की तरह ही भोगना पड़ेगा।


- विष्णु सिन्हा
दिनांक 15.02.2010

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

220 बैंक खाते और 300 करोड़ की संपत्ति एक नौकरशाह के पास क्या काफी नहीं है सरकारों की आंख खोलने के लिए?

अब बाबूलाल अग्रवाल कितना भी कहें कि उन्हें षडय़ंत्र कर फंसाया गया है लेकिन कोई भी उनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं होगा। 300 करोड़ की बेनामी संपत्ति और बैंकों में 220 ऐसे खाते, जिनके नाम से है, वे ही कहते है कि हमारे नहीं हैं लेकिन बाबूलाल का सी ए कहता है कि सभी खाते बाबूलाल के हैं और वे स्वयं उसे आपरेट करते थे, के बाद अब सोचने समझने के लिए बच ही क्या जाता है? पता नहीं क्या सोचकर बाबूलाल अग्रवाल के माता-पिता ने उनका नाम बाबूलाल रखा था। हालांकि उन्होंने नाम को सार्थक तो किया है। बाबूलाल ने बाबू बनकर इतना धन तिकड़मों से इकट्ठा कर लिया कि किसी की भी कल्पना से परे है। अभी तक नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के किस्से ही प्रचारित होते थे और भ्रष्टचार का प्रमुख कारण भी उन्हें माना जाता था लेकिन इतना भ्रष्टाचार कि आयकर विभाग को हिसाब लगाने में ही कई दिन नहीं माह लग जाएं तो स्पष्ट दिखायी देता है कि कैसे लोगों के हाथ देश की बागडोर है। आखिर ये बाबू ही तो देश को चलाते हैं।

कहने को भले ही सरकार जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की हो लेकिन स्थायी रुप से राजकाज तो इन बाबुओं के पास ही है। जनता के प्रतिनिधियों को तो हर 5 वर्ष में चुनाव की अग्रिपरीक्षा से गुजरना पड़ता है। मतदाताओं के सामने हाथ जोड़कर खड़े ही नहीं होना पड़ता है बल्कि हर तरह की विनम्रता का प्रदर्शन करना पड़ता है। भ्रष्टाचार से कमायी रकम को मतदाताओं पर, कार्यकर्ताओं पर खर्च भी करना पड़ता है। चुनाव इतने महंगे हो गए कि लाखों करोड़ों रुपए खर्च कर चुनाव जीतने वाला गलत तरीके से कमाए नहीं तो अगला चुनाव लड़ेगा, कैसे? जनता हो या विपक्ष खरी-खोटी जनप्रतिनिधियों को ही सुनना पड़ता है। इनके ही कृत्यों पर चुनाव में जीत हार निश्चित होती है लेकिन वास्तव में कृत्य तो नौकरशाहों और शासकीय मशीनरी का होता है। ये स्थायी होते हैं। जनता किसी को भी चुने इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। इन्हें ज्यादा से ज्यादा उठा कर इस कुर्सी से उस कुर्सी पर बिठाया जा सकता है लेकिन होशियार लोग तो लहर गिनने का काम भी मिले तो उसमें भी धन उगाहने के तरीके निकाल लेते हैं।


भ्रष्टाचारियों में यह किस्सा बहुत चर्चित है। एक राजा के  एक सिपहसालार पर दरबारियों ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और राजा से दरख्वास्त की कि उसे उसकी वर्तमान जगह से हटाया जाए और ऐसा काम दिया जाए, जिसमें भ्रष्टाचार की कोई गुंजाईश न हो। राजा ने बहुत सोचा कि ऐसा कौन सा काम हो सकता है जिसमें भ्रष्टाचार की जगह न हो तो उसने नदी में लहर गिनने के काम में सिपहसालार को लगा दिया। दरबारी बहुत खुश हुए कि अब वह भ्रष्टाचार से धन नहीं कमा सकेगा लेकिन कुछ दिन बाद ही खबर आयी कि वह तो अति प्रसन्न है और खूब चांदी काट रहा है। पता लगाया गया कि लहरें गिनने में भ्रष्टïचार की जगह कैसे बन गयी तो पता चला कि वे सुबह से नदी किनारे जा कर बैठ जाते हैं और सिपाहियों को आदेश दे देते हैं कि कोई भी नाव, जहाज न तो आ सकती है न ही जा सकता। जो जहां है वहीं खड़ा रहे। क्योंकि साहब लहरें गिन रहे है। नाव और जहाज के आने-जाने से लहर गिनने में अड़चन होती है। सिपाहियों ने ही जहाज और नावों के मालिक से कहा कि आना-जाना है तो साहब को भेंट चढ़ाओ। इस तरह से लहरें गिनने के नाम से भेंट मिलने लगा।


कोई बुद्धि से कमजोर आदमी तो नौकरशाह बन नहीं सकता। कठिन प्रतियोगी परीक्षा से इनका चुनाव होता है। फिर साक्षात्कार भी होता है। सब तरह से ठोक बजा कर अति होशियार व्यक्ति को ही नौकरशाही मिलती है। जब इतने चतुर चालाक व्यक्ति को अधिकार मिलेगा तो कितने लोग हैं जो अपनी बुद्धि का प्रयोग सिर्फ अपने कर्तव्य के निर्वाह में करेंगे। नया-नया रंगरुट ईमानदार भी होता है। वह ईमानदारी से काम भी करता है लेकिन उसके ऊपर बैठा अधिकारी और नीचे काम करने वाले कर्मचारी भी ईमानदार हों तब न वह ईमानदारी से काम करे। फिर भी वह ईमानदार होने की जिद करता है तो उसे तरह-तरह से प्रताडऩा झेलनी पड़ती है। उसके संगी साथी ही समझाते हैं कि इस तरह से कितने दिन चलेगा। वह क्या सोच कर नौकरी में आता है और उसके एकदम विरुद्ध माहौल पाता है तो उसे निर्णय करना पड़ता है कि भेड़ों के झुंड में भेड़ बन जाए या शेर बनने की कोशिश करे। वह शेर बनने की कोशिश करता है। नियम, कायदे की बात करता है लेकिन उसे असफल करने पर तुले लोग उसकी चलने नहीं देते। वह संरक्षण देने वाले की तलाश करता है तो उसे कोई संरक्षण देने वाला दिखायी नहीं देता। धीरे-धीरे उसे समझ में अच्छी तरह से आ जाता है कि वह व्यवस्था को बदल नहीं सकता तो फिर उसके पास व्यवस्था का अंग बनने के सिवाय चारा क्या रहता है? वह एक बार सोचता अवश्य है कि नौकरी ही छोड़ दे लेकिन फिर यही प्रश्र कि करेगा क्या? उसे अपने परिवार का ध्यान आता है। नौकरी छोडऩे से भी बदलने वाला तो कुछ नहीं। तब वह झुकता है और झुकता है, समझौता करता है तो करता ही चला जाता है।


बाबूलाल अग्रवाल, अरविंद जोशी, दीनू जोशी तो आयकर शिकंजे में फंस गए। क्या ये सिर्फ तीन ही भ्रष्टïचार के जनक हैं? इनके पकड़े जाने से सिर्फ यही पता चलता है कि भ्रष्टïचार कितना ज्यादा है। सरकार ने अभी छठवां वेतन आयोग देकर अपने नौकरशाहों, कर्मचारियों की हर जरुरत पूरी करने की कोशिश की। फिर भी ये ईमानदार नहीं बन सके तो दोष किसका है? कहा जाता है कि दुनिया के भ्रष्टतम देशों में भारत का नंबर ऊपर है। भ्रष्टïचार इतना है कि सी ए भी बचाने की स्थिति में नहीं है तो वह आयकर विभाग के सामने आत्मसमर्पण कर देता है और अपने ही क्लायंट की पूरी पोल खोल देता है। जनता की गाढ़ी कमायी से वसूला गया टैक्स व्यापारी, अधिकारी मिल कर लूट रहे हैं। सरकार सही ढंग से भ्रष्ट लोगों पर शिकंजा कसने के लिए तैयार हो तो एक पंचवर्षीय योजना से ज्यादा धन उगाह सकती है। आज छत्तीसगढ़ की ही सरकार किसानों को बोनस नहीं दे पा रही है। एक अधिकारी के पास 300 करोड़ रुपए निकल रहे है तो तीन अधिकारियों के पास से इतनी रकम निकले तो किसानों को बोनस दिया जा सकता है। सिर्फ 3 लोग ही इतना धन लूट रहे हैं जिससे लाखों लोगों की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है।


इन छापों के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों की आंख नहीं खुलती है तो फिर सरकारों को जनकल्याण का ढोंग छोड़ देना चाहिए। राजीव गांधी कहते-कहते दुनिया छोड़कर चले गए कि 1 रुपया सरकार देती है तो 15 पैसे ही जनता तक पहुंचते हैं। यह बीच में गायब होने वाले 85 पैसों का खेल है। जो भ्रष्टाचार के द्वारा विभिन्न लोगों की जेब ही नहीं भर रहा है बल्कि उनके पास धन के ठिकानों की कमी पड़ गयी है। है भी अचरज की बात कि नौकरानी के नाम से विदेशी मुद्रा जमा है और नौकरानी को पता ही नहीं कि वह करोड़पति है। गांव के मजदूरों को पता नहीं कि लाखों रुपए उनके नाम से बैंकों में जमा है। कितना बड़ा जाल है भ्रष्टाचार का। पता चलने के बाद सरकारें कुछ करेंगी या यह ऐसा ही चलता रहेगा?


- विष्णु सिन्हा


दिनांक 07.02.2010