यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

भाजपा और कांग्रेस राजनीति के खेल में जनता को उलझाने की कोशिश न करें तो उनके लिए अच्छा

कांग्रेसी महापौर कह रहे है कि संपत्ति कर में वृद्धि का आदेश सरकार ने दिया है और मंत्री कह रहे है कि सरकार ने ऐसा आदेश नहीं दिया। प्रश्र यह नहीं है कि किस के आदेश से संपत्ति कर में वृद्धि की जा रही है। प्रश्र यह है कि संपत्ति कर में वृद्धि की जा रही है या नहीं। आदेश किसी का भी हो, संपत्ति कर पटाने की जिम्मेदारी तो जनता की है और संपत्ति कर में वृद्धि लागू है तो पटाना जनता को पड़ेगा। जो कह रहे हैं कि हमारे आदेश से नहीं बढ़ाया गया है तो वे वैसा आदेश मानने से इंकार क्यों नहीं करते? एक दूसरे पर दोषारोपण से जनता का तो भला होने से रहा। अभी तक नगर निगम में किसी भी काम के लिए पार्षद और जनता महापौर से मिलती रही है लेकिन अब काम के लिए कांग्रेसी पार्षद तक महापौर से नहीं आयुक्त से मिल रहे हैं। आयुक्त से कह रहे है कि वे अपने चेम्बर से निकल कर जरा सफाई और पानी की व्यवस्था का स्वयं मुआयना करें। आयुक्त ने भी आश्वासन दिया है कि वे प्रतिदिन 5 वार्डों का निरीक्षण करेंगे ।
जब सब कुछ आयुक्त को ही करना है तो फिर महापौर की क्या उपयोगिता है? वैसे भी जहां-जहां कांग्रेस का महापौर जनता ने चुना है, वहां-वहां राजनीति सरगर्म है। नौकरशाह नगर निगम के कर्मचारी की तरह काम करने के बदले सरकार के प्रतिनिधि के रुप में काम कर रहे है। स्थिति तो यहां तक है कि महापौर और आयुक्त में कई जगह सीधे बोलचाल भी नहीं है और कागजी घोड़े दौड़ते हैं। कागजी घोड़ों से सरकार में बैठा व्यक्ति कैसे काम करता है, इसका अनुभव तो इस देश के नागरिकों को अच्छा खासा है। पहले महापौर के मुह जुबानी आदेशों का भी पालन आयुक्त सहित नगर निगम के कर्मचारी करते थे लेकिन आज स्थिति एकदम विपरीत है। कर्मचारी आयुक्त के अधीन है तो महापौर सिर्फ नोटशीट ही लिखकर आयुक्त को भेज सकती है। अब उसका निपटारा कब हो, यह देखना आयुक्त का ही काम है।

जिस पार्टी की सरकार हो उसका स्थानीय संस्थाओं पर भी कब्जा न हो तो कैसी स्थिति निर्मित होती है, यह सबको दिखायी दे रहा है। रायपुर के नागरिकों ने जिस तरह से कांग्रेस के प्रत्याशी को महापौर चुना, उसका फल तो रायपुर की जनता को भोगना ही पड़ेगा। जहां जनता से बड़ी राजनीति हो, वहां यह सब ही होना है। अभी तो प्रारंभ है। सत्ता की राजनीति का खुला अखाड़ा रायपुर नगर निगम बना हुआ है। एक तरफ महापौर है जिनकी कोई सुनता नहीं तो दूसरी तरफ सभापति हैं जिनके इशारे पर समस्त काम चुटकी बजाते हो जाते हैं। यहां तक कि प्रतिपक्ष के नेता भी जो चाहें करवाने में सक्षम हैं लेकिन महापौर और उनके समर्थक 35 पार्षदों की सुनने वाला तो है लेकिन उनके इच्छानुसार काम करने वाला कोई नहीं है। महापौर के बाद शक्ति के मामले में महापौर परिषद के सदस्य ही आते है लेकिन जब महापौर परिषद के सदस्य ही महापौर के समक्ष नहीं आयुक्त के समक्ष काम न होने का रोना रोएं तो इसे बुरी स्थिति ही कहा जाएगा।

भीषण गर्मी और चिलचिलाती धूप में पानी की क्या महत्ता है, यह बात सबको अच्छी तरह से पता है। इस समय समस्त राजनीति को भूल कर रायपुर शहर की जनता तक पानी आसानी से पहुचें यह कर्तव्य किसी पार्टी विशेष का ही नहीं बल्कि सबका है। यह नहीं होना चाहिए कि जिस वार्ड के लोगों ने भाजपा के पार्षदों को चुना, वहां तो पानी की सुख-सुविधाएं और जहां कांग्रेसी और निर्दलीय पार्षदों को जनता ने चुना है, उनके साथ सौतेला व्यवहार हो। यह आरोप गंभीर है कि फायर बिग्रेड की गाडिय़ों से महत्वपूर्ण व्यक्तियों के बंगले तक पानी पहुंचाया जाए और आम आदमी को पर्याप्त पानी के लिए टैंकरों की पर्याप्त सुविधा न मिले। टूल्लू पंप से आखिर लोगों को क्यों पानी खींचना पड़ता है? सीधा और साफ जवाब है कि नलों से इतनी पतली धार आती है कि नहाने धोने की बात तो जाने दीजिए पीने और भोजन पकाने के लिए ही पानी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलता। यदि पर्याप्त मात्रा में पानी मिले निर्धारित समय में भी तो किसी का दिमाग खराब नहीं है कि वह टूल्लू पंप का उपयोग करें।

अब कह रहे हैं कि नलों में मीटर लगाया जाएगा। मतलब अब बूंद-बूंद पानी का भी पैसा जनता को देना होगा। संपत्ति कर बढ़ाओ, पानी का पैसा वसूल करो लेकिन सुविधा के नाम पर नगर निगम में बैठ कर राजनीति करो। कांग्रेस संगठन भी महापौर को आंखें दिखा रहा है कि संगठन के कहे अनुसार चलो, नहीं तो ठीक नहीं होगा। एक तरफ आयुक्त सुनता नहीं दूसरी तरफ संगठन हुक्म चलाना चाहता है तो महापौर करे तो क्या करे? जिस महापौर पद की ऐसी गरिमा मानी जाती है कि उसे शहर का प्रथम नागरिक कहा जाता है। जहां शहर के प्रतिनिधित्व का मामला हो वहां सबसे पहले उसी की पूछ होती है। उसकी स्थिति राजनीति ने ऐसी बना दी है कि वह नाम का महापौर रह गया है। संवैधानिक पद की गरिमा का तो कम से कम सबको ध्यान रखना चाहिए।

जब सुनील सोनी महापौर थे तो उन्होंने मांग की थी कि आयुक्त की सीआर लिखने का अधिकार महापौर को दिया जाना चाहिए। आज रायपुर के लोगों को महापौर के रुप में सुनील सोनी की ज्यादा याद आती है। उनके कार्यकाल में जनता की समस्याओं का निपटारा आसानी से हो जाता था। सरकार ने महापौर को आयुक्त की सीआर लिखने का अधिकार दे दिया होता तो आज जो स्थिति खड़ी है, वह खड़ी नहीं होती। किसी भी जनप्रतिनिधि से यदि नौकरशाह के पास ज्यादा ताकत हो तो यह प्रजातंत्र के लिए अच्छी स्थिति नहीं है। हर 5 वर्ष में जनता नौकरशाह के कार्यों का फैसला नहीं सुनाती बल्कि जनता की अग्रि परीक्षा जनप्रतिनिधियों को देनी पड़ती है।

यह जनता है। इसका मिजाज कब बदल जाए, कौन कह सकता है? रायपुर शहर के ही चार विधानसभा क्षेत्रों में से 3 पर भाजपा के विधायक जनता ने चुने। सांसद भी भाजपा का चुना लेकिन महापौर चुनते समय उसने भाजपा को झटका दिया कि मनमानी करेंगे तो विकल्प उसके पास है। जिसे चाहो उसे टिकट दोगे तो यह अन्याय जनता बर्दाश्त नहीं करेगी। जरा इस पर भी तो गौर करना चाहिए कि आखिर जनता ने 10 निर्दलीय पार्षद क्यों चुने? क्योंकि जनता ने कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवारों की तुलना में निर्दलियों को ज्यादा योग्य पाया। जनता के इस अधिकार पर कोई प्रश्र चिह नहीं लगा सकता। जनता अपनी समस्याओं का ईमानदारी से हल चाहती है। यदि दलों की राजनीति जनता के लिए समस्या बनी तो ऐसा सोचने की गफलत नहीं करना चाहिए कि भाजपा और कांग्रेस के सिवाय जनता के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है।
जनता भले ही मौन है लेकिन वह शांति से बाबा रामदेव की गतिविधियों की तरफ भी देख रही है। जब जनता को राजनीति का शिकार ही होना है और राजनीतिक संकीर्णता जनता की राह का रोड़ा बनने लगे तब विकल्प बाबा रामदेव भी हो सकते हैं। एक बार इन्हें भी वोट देकर देख लेने में कोई हर्ज नहीं जनता ने सोचा तो जनता में वह ताकत है कि वह पूरी फिजां बदल कर रख दे। अरे जहां सत्यानाश वहां सवा सत्यानाश। इससे ज्यादा क्या होगा लेकिन यह भी तो हो सकता है कि बाबा रामदेव की सरकार वास्तव में जनहितैषी साबित हो। राजनीति संभावनाओं का खेल है और जनता की निराशा इस संभावनाओं के खेल के परिणाम को बदल भी सकती है। आज सरकार के विषय में लोगों के विचार अच्छे हैं लेकिन जैसी गतिविधियां चल रही है, उससे खेल बिगड़ भी सकता है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 30.04.2010

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

कानून से ही अवैध निर्माण पर पाबंदी लग जाए तो यह सरकार का सराहनीय काम

यत्र तत्र सर्वत्र जो काम धड़ल्ले से होता है और कभी कभार किसी पर सरकारी एजेंसियां कार्यवाही करती हैं, उन्हें डराने के लिए सरकार ने जुर्माना और सजा तो बढ़ा दिया लेकिन क्या वास्तव में सरकार के नौकरशाह कार्यवाही भी कर पाएंगे। अवैध कालोनी या निर्माण करने वालों से सरकार अब भारी जुर्माना वसूल करने का इरादा रखती है। सजा भी कहा जा रहा है कि 6 माह से 3 साल किया जा रहा है। मंत्रिमंडल ने मंजूरी दे दी है लेकिन कार्यवाही अब कब होगी? कुछ माह पूर्व केबिनेट ने निर्णय लिया था कि विकास प्राधिकरण और गृह निर्माण मंडल द्वारा लिए जाने वाले भू भाटक को समाप्त किया जाएगा। अभी तक तो ऐसी कोई खबर नहीं है कि सरकार ने भूभाटक समाप्त कर दिया। अभी कहा जा रहा है कि ग्राम सुराज अभियान में लिए गए निर्णयों का क्रियान्वयन 3 माह के भीतर कर दिया जाएगा। काश सरकार ऐसा कर सके।

सरकार निर्णय तो जनहित में अच्छे से अच्छा लेती है लेकिन पर्याप्त कार्यवाही के अभाव में जनता को उसका लाभ नहीं मिलता। सूचना के अधिकार के तहत नगर निगम रायपुर से किसी निर्मित होने वाले भवन के विषय में जानकारी मांगी जाती है तो नगर निगम का जवाब होता है कि संबंधित भवन निर्माण अनुमति संबंधी दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। नगर निगम के पास भवन निर्माण अनुमति संबंधी दस्तावेज उपलब्ध नहीं लेकिन भवन निर्माण का काम धड़ल्ले से चल रहा है। जबकि इस तरह के निर्माण को अवैध ही माना जाएगा। क्योंकि बिना नगर निगम की अनुमति के भवन निर्माण वैध तो नहीं कहा जा सकता। भवन निर्माण संबंधी सरकार के नियम कायदो में भी विसंगतियों की कमी नहीं है। एक ही स्थान पर किसी को एफएआर 1.5 दिया जा रहा है तो किसी को 2.4। किसी का भवन तीन मंजिल से ज्यादा नहीं बन सकता तो उसी के पड़ोस में 6 मंजिला भवन बन जाता है। हर मंजिल पर निर्माण के बाद अगली मंजिल के निर्माण के पूर्व निगम की अनुमति आवश्यक है लेकिन कौन देख रहा है कि कितना वैध निर्माण है कितना अवैध।
सरकार ने नियम कायदे कानून बना दिए लेकिन अब उसकी व्याख्या तो अधिकारियों के हाथ में चली गयी। नगर निवेशक ले आऊट पास करने में ही महिनों लगाता है। कभी कहता है कि सामने 15 फुट छोड़ो, कभी कहता है कि 20 फुट छोड़ो। जब 2.4 एफएआर है तो इतना निर्माण करना भवन निर्माता का अधिकार होना चाहिए लेकिन नहीं। तरह तरह के अड़ंगे लगाए जाते हैं। भवन की ऊंचाई किसी के लिए 12.5 मीटर तो किसी के लिए 25 मीटर। जो बातें एकदम सीधी और साफ होना चाहिए कि कोई भी आसानी से समझ जाए, ऐसी स्थिति नहीं है। आर्किटेक्ट और इंजीनियर भी नहीं समझते। समझते तो कानून के अनुसार जो वे नक्शा बनाकर नगर निवेशक के सम्मुख प्रस्तुत करते, उसमें बार बार कांट छांट की जरूरत क्यों पड़ती?
सरकार यदि समझती है कि सिर्फ कानून बना देने से ही सब कुछ ठीक ठाक हो जाएगा तो कब का सब कुछ ठीक ठाक हो जाना चाहिए था। सोच की दो धारा है। एक अपराध के बाद अपराधी को पकडऩा और दूसरा ऐसी स्थिति निर्मित करना कि अपराधी अपराध कर ही न सके। अब लंबी चौड़ी लिस्ट समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रही है कि बिल्डर्स से 15 प्रतिशत जमीन जो गरीबों के लिए कानून के तहत छोड़ी जानी चाहिए थी, उसे प्राप्त किया जाए। यह तो जब निर्णय की अनुमति दी गई तब ही प्राप्त की जा सकती थी। तब ही 15 प्रतिशत जमीन सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया होता तो आज बिल्डर्स से मांगने की जरूरत ही क्यों पड़ती? सरकारी गृह निर्माण समिति की जांच की जा रही है। कई बार तो जांच हो चुकी। फिर भी कुछ लोगों की मनमानी बंद नहीं होती। मतलब कुछ लोगों को कानून का तो डर है, ही नहीं। फिर सरकार कभी कानून का डंडा चलाती है तो लोग कोर्ट से स्थगन लेकर सरकार का रास्ता रोक देते हैं।

मुट्ठी भर नक्सली जब हजारों सिपाहियों पर भारी पड़ते हैं तो मुट्ठी भर कानून तोडऩे वाले कानून का पालन कराने वालों पर भी भारी पड़ते हैं। दरअसल सरकार अवैध निर्माण, अवैध कालोनियों को तो कानून का डंडा दिखाती है लेकिन इन अवैध कृत्यों को रोकने की जिस पर जिम्मेदारी है, उनका दायित्व निश्चित नहीं करती। जब तक कानून का पालन कराने वालों का भी दायित्व निश्चित नहीं किया जाएगा तब तक कानून अवैध काम का भी माध्यम बना रहेगा। आखिर रिश्वत मिलती किस बात की है। कानून का पालन करने वाला क्यों रिश्वत देगा? लेकिन उसे भी कानून की ऐसी ऐसी पेचीदिगियों में उलझाया जाता है कि उसे समझ में आ जाता है कि कानून का पालन कराने वाले के साथ भी कानून का खेल खेला जा सकता है। अवैध तरीके से अवैध धन बरसता है और फिर यह धन सब कुछ जायज नाजायज करा लेने की शक्ति देता है। मेडिकल कालेज की मान्यता प्राप्त करने के लिए जब 5 करोड़ रूपये की घूस ली जाती है तो मेडिकल कालेज में भर्ती करने के लिए प्रबंधक लाखों रूपये लेते हैं। अब सरकार कैपिटेशन फीस लेने वालों को जेल भेजने का कानून बनाए तो उससे फर्क क्या पड़ता है?

सरकार ने जो बड़े बड़े जुर्माने और सजा का प्रावधान अवैध निर्माण के लिए किया है, इसे भय में बदलकर बड़ी रकम प्राप्त की जा सकती है लेकिन सरकार का वरदहस्त जिसे हासिल हो, उस पर कार्यवाही कौन करेगा? कुछ भी छुपा हुआ नहीं है। फिर जहां तक निर्माण की बात है तो वह तो खुले आसमान के नीचे होता है। हर आते जाते व्यक्ति को जो दिखायी देता है, वह सरकारी कर्मचारियों को दिखायी न दे तो आश्चर्य की बात है। कौन मानेगा कि यह बिना किसी मिली भगत के होता है। जहां एक एक फुट निर्माण की कीमत हजारों रूपये हो, वहां लोभ आदमी से सब कराता है। निर्माण का नक्शा पास कराते समय जिस स्थान को पार्किंग के लिए दिखाया जाता है, उसे भी बेचने में बिल्डर पीछे नहीं रहता। क्योंकि लाखों नहीं करोड़ों का प्रश्र होता है।

एक बार बनाया और बेच दिया। अब लेने वाला जाने। क्योंकि बिल्डर तो आगे बढ़ गया। कुछ ऐसे भी बिल्डर हैं जो छत के कारण अधिकार नहीं छोड़ते और शर्त विक्रय में डाल देते हैं कि जब भी खरीददार बेचेगा तो वह बिल्डर की अनुमति के बिना नहीं बेच सकता। बिल्डर छोडें, रायपुर विकास प्राधिकरण ही सरकारी ऐसी एजेंसी है कि जो हर बार विक्रय पर बेचने वाले से 10 प्रतिशत विक्रय कीमत का लेती है। फिर यह कानूनी है। क्योंकि कानून ही ऐसा बना हुआ है। शोषण की इंतहा तो अब केंद्र सरकार भी कर रही है। जो भवन, मकान की खरीद पर 5 प्रतिशत सर्विस टैक्स लेगी। गृह निर्माण मंडल ने सर्विस टैक्स वसूलना प्रारंभ भी कर दिया है। साढ़े बारह लाख का मकान गृह निर्माण से खरीदो तो 60 हजार रूपये सर्विस टैक्स दो। यह प्रजातंत्र है और प्रजा के द्वारा चुनी गई सरकार ही आदमी के गले पर शिकंजा कस रही है।

-विष्णु सिन्हा
29-04-2010

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

महंगाई लोकसभा में जीत गई और आम आदमी के लिए लडऩे वाले हार गए

और महंगाई जीत गयी। लोकसभा में महंगाई के पक्ष में वे भी मत देते देखे गए जो महंगाई के विरुद्ध हैं। लोकसभा के बाहर जिन 13 दलों ने महंगाई के विरोध में भारत बंद का आव्हान किया था उममें से कुछ महंगाई के विरुद्ध कटौती प्रस्ताव पर मत देने के लिए सहमत नहीं हुए। यहां तक कि झारखंड में भाजपा के समर्थन से सरकार चलाने वाले शिबू सोरेन तक कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में मतदान करते देखे गए। पूछने पर बड़ा भोला सा जवाब दिया कि किसी को तो मत देना था, इसलिए सरकार के पक्ष में मत दे दिया। मुलायम और लालू संसद के बाहर महंगाई का विरोध करते नारे लगाते देखे गए लेकिन मतदान का लोकसभा में बहिष्कार किया। वामपंथियों ने अवश्य अपने कटौती प्रस्ताव के पक्ष में मतदान दिया लेकिन भाजपा को उनके कटौती के पक्ष में मतदान करने में कोई हिचक नहीं हुई। भाजपा के कटौती प्रस्ताव पर मतदान करने में जिन्हें हिचक हुई, उनकी सोच की संकीर्णता ही उजागर होती है। क्योंकि महंगाई भी धर्मनिरपेक्ष हैं। ऐसा नहीं है कि महंगाई किसी धर्म विशेष के मानने वालों को प्रभावित करती है।

कभी गरीबों हटाओ का नारा कांग्रेस का मुख्य आधार था। आज महंगाई उसका नारा दिखायी देता है। देश में गेहूं की बंपर फसल है। गोदामों में रखने की जगह नहीं है। फिर भी विदेशों से मनमाने गेहूं आयात किया जा रहा है। जो कि सस्ता है और गेहूं की पैदावार करने वाले कृषकों के लिए सिवाय नुकसान के और कुछ नहीं है। जिस खाद्यान्न की देश में जरुरत नहीं उसे मंगवाया जाना कौन सा राष्ट्र् हित है? जो सरकार साढ़े बारह रुपए किलो में शक्कर विदेशों में बेचने की अनुमति देती है और 30-35 रु. किलो फिर आयात की स्वीकृति देती है, वह कैसे गरीबों की हितैषी हो सकती है। सरकार ने संख्या बल के आधार पर भले ही महंगाई बढ़ाने वाले प्रस्तावों को स्वीकृत करा लिया है लेकिन गरीबों के हितैषी बनने वाले दल सरकार के पक्ष में संसद में दिखायी देते हैं तो जनता अच्छी तरह से समझती है कि उसे कौन बेवकूफ समझ रहा है?

कल अगर कटौती प्रस्ताव लोकसभा में पारित हो जाता तो सरकार ही गिर जाती। मायावती कांग्रेस को अपना दुश्मन नंबर एक बताते नहीं अघाती। मुलामय सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव को कांग्रेस ने सरकार में न लेकर जैसा झटका दिया है, उसके बावजूद वे कांग्रेस की सरकार को ही बचाते दिखायी देते हैं। वे भाजपा के साथ खड़ा होते नहीं दिखायी देना चाहते। कारण मुसलमान वोट उनसे नाराज न हो जाएं। मुलायम सिंह कल्याण सिंह को साथ लेकर मुसलमान वोटों के नुकसान को झेल चुके हैं। मायावती इसलिए कांग्रेस के साथ कि शायद सरकार सीबीआई से उनकी जान छुड़ाए। फिर मुलायम महंगाई के विरुद्ध आंदोलन में तो मायावती कांग्रेस के साथ। भारतीय राजनीति का यह विरोधाभास सत्ता के अंकगणित को ऐसा प्रभावित करता है कि जनता भले ही दुख भोगे लेकिन होशियार लाभ उठाते रहें।

इस समय देश में वास्तव में विपक्ष के नाम पर भाजपा और वाम दल ही हैं। कभी जिस भाजपा को बनियों की पार्टी कहा जाता था, वही भाजपा आज महंगाई के विरोध में खड़ी है। वह अपना जनता के प्रति दायित्व निभा रही है। दूसरी तरफ वामपंथी हैं जो समझते हैं कि महंगाई का बोझ जनता के बर्दाश्त के बाहर हो रहा है। वे अपनी शक्ति भर लड़ रहे हैं लेकिन असल में जिस कांग्रेस को महंगाई के विरुद्ध जनता को राहत पहुंचाने की सोचना चाहिए, वह नित्य नए आयामों से महंगाई जनता पर लाद रही है। बड़ी ही चालाकी से वह छोटे क्षेत्रीय दलों की कमजोरियों का लाभ उठा रही हैं। क्योंकि ये दल भाजपा के साथ नहीं जा सकते। देश की 120 करोड़ जनता में से 100 करोड़ महंगाई का फल भोग रही है। उत्तरप्रदेश बिहार में बसें जलायी जा रही हैं। मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव के कार्यकर्ता ही जला रहे हैं। महंगाई भले ही रहे लेकिन सरकार नहीं गिरना चाहिए। इसलिए लोकसभा में महंगाई के विरुद्ध मतदान नहीं करते।

देश की एक महिला राजनयिक पाकिस्तान में देश के गोपनीय दस्तावेज आई एस आई को बेचती है। पैसों के लिए। मतलब देश से बड़ा धन है, उसके लिए। देश भर में अपराध बढ़ रहे हैं। आर्थिक भेदभाव इसी तरह से बढ़ता रहा और महंगाई पर लगाम नहीं कसी गयी तो धन के लिए लोग सब कुछ करेंगे । सिर्फ पुलिस और कानून का डंडा इसे रोक नहीं सकता। ऐसी ही परिस्थितियां तो आतंकवाद और नक्सलवाद को भी सहयोग करती हैं। बुद्धिजीवी कहते भी हैं कि विकास के अभाव के कारण नक्सलवाद को प्रोत्साहन मिला। तथाकथित विकास हो भी गया और पेट की भूख मिटाना आसान न रहा तो क्या यह भी एक कारण नहीं बनेगा, लोगों के क्रोध को हिंसा की तरफ मुडऩे में। फिर अपराध स्वच्छंदता तो देता ही है, आसान कमायी भी देता है। मरता क्या न करता की तर्ज पर कानून का नियंत्रण कमजोर पड़ा तो यह महंगाई देश के लिए विकास के नाम पर घातक ही सिद्ध होगी।

खाद्यान्न की महंगाई के साथ पानी की किल्लत भी भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं दे रही है। अटल बिहारी की सरकार ने नदियों को जोड़कर पानी की स्थायी व्यवस्था करने की जो योजना बनायी थी, उसे तो कांग्रेस गठबंधन सरकार ने छोड़ दिया। खाद्यान्न महंगा ही सही विदेशों से मंगवाएंगे लेकिन पानी भी विदेशों से मंगवाएंगे क्या? विकास दर साढ़े आठ चाहिए। इससे क्या सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा? जनसंख्या नियंत्रण कभी कांग्रेस के मुख्य कार्यक्रमों में से एक था लेकिन अब उस पर भी सरकार ने चुप्पी साध रखी है। जब मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया था तब सोच एक आयाम में केंद्रित हो गयी। निश्चित रुप से कुछ लोग बहुत फल-फूल रहे हैं। दुनिया के गिने-चुने अमीरों की सूची में भी चंद भारतीयों का नाम आ गया है। आईपीएल जैसे क्रिकेट के तमाशे भी अरबों के हो गए हैं तो अरबों के घोटाले भी हो रहे हैं। मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने वाले अधिकारी की ही तिजोरी से डेढ़ टन सोना निकल रहा है। 5 करोड़ की रिश्वत लेते पकड़े गए। आईएएस के घर की तलाशी में ही करोड़ों रुपये निकलते है। यही है, आर्थिक विकास या सत्ता कानून का दुरुपयोग।

कमा सकते हो, कमा लो। खाद्यान्न का सट्टा बंद करो। विपक्ष मांग करता है लेकिन सरकार सुनती नहीं। खाद्यान्न ही क्यों हर वस्तु पर सट्टï हो रहा है। आखिर एम सी एक्स में कमा कौन रहा है? न तो कुछ वास्तव में खरीदा जाता और न ही बेचा जाता लेकिन अरबों का वारा-न्यारा प्रतिदिन होता है। नंबर एक में भी और नंबर दो में भी। क्रिकेट में ही सट्टा नहीं होता। हर उसमें सट्टा होता है जिसमें उतार चढ़ाव का खेल है। आयकर अधिकारियों के यहां से भी करोड़ों रुपए पकड़े जातें हैं। सरकार पेट्र्रोल डीजल की कीमतें बढ़ा कर ही मस्त है। क्योंकि अभी चुनाव दूर है। अभी जनता को सहलाने की जरुरत नहीं हैं। सरकार चलती रहना चाहिए। चुनाव मजबूरी है। लडऩा कौन चाहता है? जनता ने सत्ता से उतार दिया तो? महंगाई संसद में खिलखिला कर हंसती है तो सत्ता पक्ष के भी चेहरे खिल जाते हैं। यही आम आदमी का भाग्य है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 28.04.2010

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

एक असफल व्यक्ति की सलाह पर ध्यान भी देने की जरुरत नहीं

दिग्विजय सिंह के शासनकाल की कांग्रेसी कितनी भी तारीफ करें लेकिन छत्तीसगढ़ के लोग दिग्विजय सिंह शासनकाल को भूले नहीं हैं। इतने बड़े छत्तीसगढ़ राज्य के इकलौते रायपुर मेडिकल कॉलेज के लिए ही दिग्विजय सिंह ने मात्र 7 करोड़ रुपए देने से इंकार कर दिया था। मेडिकल कॉलेज के छात्रों ने कितने ही दिनों तक हड़ताल की लेकिन दिग्विजय सिंह टस से मस नहीं हुए। छत्तीसगढ़ में बिजली कटौती भी सामान्य सी बात थी। मालवा के खेतों को पानी देने के लिए छत्तीसगढ़ की बिजली काटी जाती थी। छत्तीसगढ़ के चरणदास महंत गृहमंत्री थे लेकिन पुलिस विभाग के अदना से कर्मचारी का भी स्थानांतरण करने का अधिकार उनके पास नहीं था। कांग्रेसी कह रहे हैं कि नक्सली दंतेवाड़ा तक सीमित थे तो बालाघाट में मध्यप्रदेश के परिवहन मंत्री कांवरे कैसे नक्सलियों के हाथ शहीद हुए। रास्ता तो बस्तर से राजनांदगांव होते हुए ही बालाघाट जाता है। मंडला तक जाता है।

दरअसल उस समय नक्सलियों को खुली छूट थी। इसलिए नक्सलियों के किस्से ज्यादा प्रचारित नहीं होते थे। मात्र विकास न होने के कारण नक्सलियों को बस्तर में जगह बनाने की सुविधा नहीं मिली बल्कि पुलिस और शासकीय कर्मचारियों के शोषण के विरुद्ध, अन्याय के विरुद्ध आदिवासियों ने नक्सलियों को आश्रय दिया। तब ऐसा समय भी आया कि शासकीय मशीनरी नक्सलियों के सामने जी हुजुरी करने लगी। असलियत को तोडऩे मरोडऩे से सच छुप नहीं जाता। आंध्र में कांग्रेस सरकार के द्वारा नक्सलियों से मुकाबले की जो बात कही जा रही है, वह भी पूर्ण सत्य नहीं है। क्योंकि चंद्रबाबू नायडू पर सबसे पहले नक्सलियों ने हमला किया। चंद्रबाबू नायडू ने ही नक्सलियों के खिलाफ मुहिम चलायी और नक्सलियों ने तिरुपति में उन पर निशाना साधा। फिर भी मान लें कि कांग्रेस की सरकार ने आंध्रप्रदेश में नक्सलियों पर काबू किया तो ऐसा ही कांग्रेस की सरकार ने मध्यप्रदेश में क्यों नहीं किया? क्यों आदिवासियों को नक्सलियों के रहमोकरम के भरोसे छोड़ दिया। फिर बस्तर में जो नक्सली नेता आए, वे आए तो आंध्रप्रदेश से। मतलब आंध्र में दबाव बढ़ा तो वे बस्तर आए। दोनों जगह कांग्रेस की सरकारें थी तो तालमेल से समस्या का समाधान तो उसी समय हो जाना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ, यही यथार्थ है।
पहली बार छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद भाजपा की सरकार बनी और वह भी आदिवासियों के समर्थन से। आदिवासियों ने ही सलवा जुड़ूम आंदोलन नक्सलियों के विरुद्ध चलाया। यह आंदोलन कांग्रेस राज में आदिवासियों ने क्यों नहीं चलाया? जरुर कोई न कोई बात तो रही होगी। भाजपा की सरकार नक्सलियों की पोषक नहीं हैं, इस बात का विश्वास होने पर ही तो सलवा जुड़ूम आंदोलन चला। यदि आदिवासियों को लगता कि सरकार और नक्सली मिले हुए हैं तो वे आंदोलन कभी नहीं चलाते। क्योंकि ऐसे तो वे सरकार और नक्सलियों के बीच फंस जाते। पहली बार आदिवासियों को लगा कि प्रदेश में ऐसी सरकार हैं जो नक्सलियों का साथ नहीं देगी। आदिवासियों के आंदोलन से उत्साहित होकर कांग्रेस के नेता महेंद्र कर्मा भी सलवा जुड़ूम के साथ जुड़े। उनसे ज्यादा नक्सलियों के विषय में और कौन जानता हैं? वे स्वयं भुक्तभोगी है। अपने परिवार के सदस्यों को उन्होंने नक्सलियों की गोली का शिकार होते देखा है। जब सोनिया गांधी ने महेंद्र कर्मा को विधानसभा में प्रतिपक्ष का नेता बनाया तो कांग्रेसी ही उन्हें हजम नहीं कर पा रहे थे।


भाजपा के वरिष्ठ नेता बलीराम कश्यप ने नक्सलियों के हाथ अपने पुत्र को खोया। उन पर ओछे आरोप लगाये जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ के लोग सत्यता से अच्छी तरह से परिचित है। पहली बार डॉ. रमन सिंह की सरकार ने नक्सलियों के विरुद्ध मुहिम चलायी है। पहली बार केंद्र सरकार के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने माना है कि नक्सली देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा है। तब दिग्विजय सिंह अपना अलग राग अलाप रहे है। वे तो गृहमंत्री चिदंबरम की कार्यप्रणाली पर ही प्रश्रचिन्ह लगा रहे हैं। इससे कांग्रेस की ही छवि खराब हो रही है और छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी दिग्विजय सिंह के पक्ष में राग अलाप रहे हैं। छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आने के ठीक पहले जब दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रुप में छत्तीसगढ़ के भी मुख्यमंत्री थे तब विद्याचरण शुक्ल के फार्म हाउस में कांग्रेसियों ने ही उनकी कैसी विदाई की थी, इसे स्मरण कर लेना चाहिए। जो व्यक्ति अपने राजनैतिक गुरु अर्जुन सिंह का ही वफादार नहीं हुआ, वह किसी के प्रति कितना ईमानदार होगा?


मुख्यमंत्री रहते हुए दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश की ऐसी मिट्टी पलीद की कि आज तक कांग्रेसी वहां सत्ता में लौट नहीं सके। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ठीक कहते हैं कि जब भी दूसरे प्रदेश से मध्यप्रदेश में कोई प्रवेश करता था तो सड़कों की जर्जर स्थिति बता देती थी कि मध्यप्रदेश आ गया। मुख्यमंत्री रहते हुए अपनी कारगुजारियों से दिग्विजय सिंह स्वयं अच्छी तरह से परिचित थे और इसीलिए उन्होंने चुनाव से पहले कहा था कि वे चुनाव हार गए तो 10 वर्ष तक शासकीय पद स्वीकार नहीं करेंगे। क्योंकि वे जानते थे कि 10 वर्ष तक तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस लौटकर आती नहीं। छत्तीसगढ़ अलग राज्य बन गया लेकिन बनने के  पहले ही भोपाल में चर्चा गर्म रहती थी कि नक्सल समस्या से ग्रस्त छत्तीसगढ़ राज्य चल नहीं पाएगा और उसे वापस मध्यप्रदेश में मिलाने की मांग की जाएगी। ऐसा कुछ हुआ नहीं और छत्तीसगढ़ ने विकास की ऊंचाइयों को स्पर्श करना प्रारंभ कर दिया।


नक्सली समस्या से भी वह जूझ रहा है। जूझने का सबसे बड़ा कारण तो यही है कि जैसी पुलिस चाहिए थी, वैसी पुलिस छत्तीसगढ़ के पास थी, नहीं। तिनका- तिनका जोड़कर डॉ. रमन सिंह की सरकार आज उस स्थिति में तो पुलिस को ले आयी है कि वह मुकाबले में खड़ी हो सके। सबसे बड़ी बात तो यही है कि डॉ. रमन सिंह केंद्र सरकार को ही समझाने में सफल हो गए कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सली खतरनाक है। जिनका उद्देश्य सन 2050 तक दिल्ली की गद्दी पर कब्जा करना हो और वह भी बंदूक के बल पर वे कितने खतरनाक इरादे रखते हैं, यह केंद्र सरकार नहीं समझेगी तो राज्य सरकारें अकेले क्या कर लेंगी? 


आज की तारीख में दिग्विजय सिंह का इस मामले से कोई संबध नहीं है। फिर भी वे टांग अड़ा रहे हैं। क्या वे नक्सलियों के सहारे बिहार का चुनाव जीतना चाहते हैं? क्योंकि उन्होंने स्वयं कहा है कि जो बड़ी बोली लगाता है, नक्सली उसी का समर्थन करते है। जब वे ऐसा कह रहे हैं तो अपने अनुभव से ही कह रहे होंगे। बिहार में चुनाव होना है। राहुल गांधी वहां लगे हुए हैं। फिर भी उन्हें दिग्विजय सिंह जैसे सलाहकारों से सावधान रहना चाहिए। वे इतने ही होशियार होते जितना दिखाने की कोशिश कर रहे हैं तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस की दुर्गति नहीं होती।

-विष्णु सिन्हा
दिनांक : 27.04.2010

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

आईपीएल सिर्फ क्रिकेट ही नहीं है बल्कि आर्थिक घोटालों का सबसे बड़ा कांड है

शशि थरुर की बलि लेने के बावजूद आईपीएल की प्यास बुझी नहीं है। जिन लोगों ने भी आईपीएल के साथ अनाचार किया है, वह उन सबकी बलि लेकर ही शांत होगा। संदेह की सुई पूरी तरह से कृषि मंत्री शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल पर टिक गयी है। शरद पवार जहां अपने दामाद सदानंद सुले के कारण फंसते दिखायी दे रहे हैं, वहीं प्रफुल्ल पटेल अपनी पुत्री पूर्णा पटेल के कारण विवादों के दायरे में हैं। शरद पवार ने तो ललित मोदी की बलि लेकर पूरा मामला समाप्त करने का प्रयास किया लेकिन ललित मोदी बलि का बकरा बनने के लिए तैयार नहीं हैं। 26 अप्रैल को 25 अप्रैल के फायनल मैच के बाद जो गवर्निंग बाडी की बैठक बुलाने की कोशिश की गई है, उससे ललित मोदी पूरी तरह से असहमत है और उनका कहना है कि ऐसी कोई भी बैठक बुलाने का अधिकार सिर्फ उन्हें ही है। वे 1 मई को बैठक बुलाना चाहते है लेकिन 26 अप्रैल को बैठक कर ललित मोदी को कमिश्रर के पद से बर्खास्त करने का निर्णय अडिग ही दिख रहा है तो ललित मोदी ने मुंबई हाईकोर्र्ट का दरवाजा खटखटाने का निर्णय ले लिया है।

ललित मोदी और थरुर के विवाद ने आईपीएल की सारी गंदगी को उछालने का काम किया है। आयकर विभाग हर टीम की जांच कर रहा है कि कौन उसके मालिक हैं और करोड़ों रुपए धन कहां से आया? ललित मोदी के ही खाते में अरबों रुपए कहां से आए? उनके साढ़ू चेलाराम जो राजस्थान टीम के मालिक है, क्यों निरंतर बड़ी रकमें ललित मोदी के खाते में जमा कर रहे हैं। केंद्र सरकार की पूरी तरह से दृष्टि इस मामले में है और प्रधानमंत्री स्वयं राजीव शुक्ला को बुलाकर पूरा मामला समझते हैं। संसद के दोनों सदनों में आईपीएल को लेकर हंगामा मचता है। मीडिया में प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा न तो पर्याप्त स्थान प्राप्त करती है और न ही लाखों की भीड़ के साथ भाजपा का दिल्ली में महंगाई के विरुद्ध प्रदर्शन। समस्याओं की देश में कोई कमी नहीं है लेकिन सबसे बड़ी समस्या आईपीएल में धन का खेल बन गयी है।

चूंकि क्रिकेट से जुड़ा मामला है और आईपीएल की टीमों में विदेशी खिलाड़ी भी खेलते हैं इसलिए उन तमाम देशों में जहां क्रिकेट खेला जाता है, आईपीएल का आर्थिक खेल चर्चा का विषय बना हुआ है। बाल और बल्ले का खेल अरबों का वारा न्यारा कर सकता है और कुछ लोगों की भारी भरकम कमायी का जरिया बन सकता है, यह देख तो पूरी दुनिया रही है। अभी वास्तव में क्या खेल हुआ है, इसकी जांच रिपोर्ट आने वाली है लेकिन चर्चा का बाजार तो गर्म हो चुका है। बाहर से जो आम आदमी के लिए सीधा सादा खेल दिखायी पड़ता और अधिक से अधिक सटोरियों की नाजायज कोशिश ही दिखायी पड़ता है। उसके पीछे आर्थिक भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े कारनामे छुपे होंगे, यह किसने सोचा था। केंद्र सरकार और राज्य सरकार खेल के नाम पर टैक्स नहीं लेती और इसलिए इनके आर्थिक खाते बहियों की जांच नहीं होती तो ये मनमाने रुप से कितने ही आर्थिक कानूनों को अंगूठा दिखा रहे हैं। आयकर, विदेशी मुद्रा कानून, कंपनी लॉ सभी की तो आंख में आईपीएल के धुरंधरों ने पर्दा डाला हुआ था।

फिर शरद पवार जैसे दिग्गज नेता का नेतृत्व जिस क्रिकेट के पास हो, उस पर हाथ डालने की हिम्मत कौन करे? शरद पवार की सरपरस्ती में क्रिकेट का यह धंधा कुछ लोगों के लिए तो कल्प वृक्ष से कम नहीं था। ललित मोदी जैसे शातिर व्यक्ति को कमिश्रर बना कर तो गलत ढंग से धन कमाने वालों को मुंहमांगी मुराद ही मिल गयी थी। आईपीएल-1 और 2 तक 8 टीमें थी तो किसी तरह का विवाद सामने नहीं आ रहा था। लालच ने दो और टीमों के लिए रास्ता खोला तो शशि थरुर का भी प्रवेश हो गया। सीधे न सही अपनी महिला मित्र के द्वारा ही। नाम टीम कोच्चि लेकिन अधिकांश मालिक केरल के बाहर के। शशि थरुर इसी पर गर्व कर रहे थे कि केरल के नाम पर टीम बनी। किसी केरल वासी के लिए शशि थरुर की रुचि नहीं थी। रुचि थी तो अपनी महिला मित्र सुनंदा पुष्कर के लिए और बिना एक बूंद पसीना बहाए ही पसीना बहाने की कीमत के रुप में उन्हें 70 करोड़ रुपए के शेयर मिल गए। इस मामले में शशि थरुर और ललित मोदी का अंहकार नहीं टकराता तो सब कुछ ऊपर-ऊपर ठीक ही दिखायी दे रहा था।

लेकिन यहीं से बाजी पलट गयी। शशि थरुर के बहाने केंद्र सरकार को विवाद में घसीटा गया। वह भी ललित मोदी जैसे व्यक्ति के द्वारा। जिसका संबंध राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ था। मतलब निकाला गया कि भाजपा के इशारे पर कांग्रेसी मंत्री को फंसा कर कांग्रेस को बदनाम किया जा रहा है। फिर कहा गया कि ललित मोदी कोच्चि टीम के बदले गुजरात की टीम को प्रश्रय देना चाहते हैं। पर्दे के पीछे नरेन्द्र मोदी है। जब नरेन्द्र मोदी फंसते नहीं दिखायी दिए तो आयकर विभाग को आईपीएल के पीछे लगा दिया गया। फिर तो जानकारियों का ऐसा राज खुलने लगा कि केंद्र सरकार की आंख भी चकाचौंध हो गयी। प्रणव मुखर्जी ने शरद पवार को बता दिया कि मामला गंभीर है और ललित मोदी को चलता करो। शरद पवार भी समझ तो गए कि कांग्रेस के पास ऐसा हथियार हाथ लग गया है कि वे ललित मोदी को कमिश्रर के पद से हटा नहीं पाए तो, उनकी गर्दन भी शिकंजे में कस सकती है लेकिन ललित मोदी भी समझ गए कि खीर खाने के समय तो सब साथ थे लेकिन फंसने का मौका आया है तो उन्हें अलग थलग किया जा रहा है। वे शांति से अलग हो गए तो भी बच नहीं पाएंगे। शशि थरुर की बलि का बदला उनसे अवश्य लिया जाएगा और हो सकता है कि उनका जीवन जेल की सलाखों के पीछे कटे।

ललित मोदी तो समझ चुके हैं कि उनके दिन लद गए। अब उनके सामने लडऩे और संघर्ष करने के सिवाय कोई चारा नहीं है। गवर्निंग बाडी के लोग अपना हित साधने में लगे हैं और उनकी बलि देने में उन्हें कोई हिचक नहीं है। फिर भी यह प्रश्र तो खड़ा होता ही है कि आईपीएल में जो कुछ हुआ, उसके लिए ललित मोदी ही अकेले जिम्मेदार क्यों हैं? शशि थरुर का ही मंत्री पद से इस्तीफा पर्याप्त क्यों हैं? इस्तीफा तो अब मनमोहन सिंह को शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल से भी मांग लेना चाहिए। शरद पवार के दामाद आईपीएल के प्रसारण से जुड़े हुए हैं तो प्रफुल्ल पटेल की सुपुत्री पूर्णा पटेल ने आईपीएल की नौकरी के साथ जानकारी अपने पिता को ई-मेल की। उसने एक पैसेंजर एयर इंडिया के विमान को चार्टर्ड विमान में तब्दील करवा दिया और यात्रियों को कष्ट उठाना ही नहीं पड़ा बल्कि यह कायदे कानून के भी विरुद्ध है। इतने आरोप कम नहीं हैं। पर्याप्त हैं मंत्रिमंडल से हटाने के लिए लेकिन गठबंधन की केंद्र सरकार और महाराष्ट की सरकार क्या इसकी इजाजत मनमोहन सिंह को देता है। तब शशि थरुर के इस्तीफे का भी कांग्रेस को क्या लाभ मिलेगा? आईपीएल बहुत बड़ा आर्थिक घोटाला है और इसकी जांच संसदीय समिति करे तब और दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ सकता है। नहीं तो जांच रिपोर्ट का सरकार अपने हित में उपयोग कर सकती है लेकिन जनता को तो पता चल गया है कि यह सिर्फ क्रिकेट नहीं है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 23.04.2010

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

नितिन गडकरी को राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना है तो अपनी शारीरिक क्षमता पर ध्यान देना होगा

नितिन गडकरी की दिल्ली में आयोजित महंगाई विरोधी महारैली भीड़ के मान से तो सफलतम रैली कही जा सकती है। क्योंकि देश भर से 3 लाख से अधिक भाजपा के कार्यकर्ता दिल्ली के रामलीला मैदान में इकट्ठा हुए। भीषण गर्मी में दोपहर में इतने लोगों का लंबी यात्रा कर इकट्ठा होना, इस बात की निशानी तो है कि भाजपा के कार्यकर्ता अपनी पार्टी, अपने नेता के प्रति कितनी निष्ठा रखते हैं। देश का नेता कैसा हो, नितिन गडकरी जैसा हो के नारे लगाते कार्यकर्ता इस बात का आभास दे रहे थे कि वे किसी व्यक्ति से नहीं पार्टी से जुड़े हुए हैं। बहुत पुरानी बात नहीं है जब महाराष्ट के बाहर नितिन गडकरी को कोई जानता नहीं था। आम जनता तो दूर की बात है, पार्टी के चंद नेताओं के सिवाय कार्यकर्ता भी नहीं जानते थे कि नितिन गडकरी नामक कोई पार्टी का नागपुर में कार्यकर्ता है जो पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बन सकता है। नितिन गडकरी भले ही कहें कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बनाया लेकिन कार्यकर्ता अच्छी तरह से जानते हैं कि नितिन गडकरी की ताजपोशी संघ ने की है।

पार्टी कार्यकर्ताओं को कोई लेना देना नहीं है कि पार्टी का अध्यक्ष कौन है? जो भी है, वही ठीक है। कल तक अटल आडवाणी कमल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान का नारा लगाने वाले दिल्ली की सड़कों पर नितिन गडकरी के नाम का नारा लगा रहे थे। भाजपा सत्ता से अभी केंद्र की भले ही दूर हो लेकिन छोटे छोटे कार्यकर्ताओं ने ही नहीं, बड़े बड़े नेताओं ने भी नितिन गडकरी को अध्यक्ष स्वीकार कर लिया है। दिल्ली की रैली दरअसल महंगाई के बहाने नितिन गडकरी को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने का प्रयास ज्यादा दिखायी दे रहा था। मंच पर भी नितिन गडकरी का ही चित्र लगाया गया था। अटलबिहारी वाजपेयी की तरह तो भाषण कोई नहीं दे सकता। जनता को अपने भाषण से सम्मोहित करने की कला जो अटलबिहारी वाजपेयी को आती है, वह तो लालकृष्ण आडवाणी या भाजपा के किसी अन्य नेता को नहीं आती। इसलिए नितिन गडकरी की तुलना अटलबिहारी वाजपेयी से नहीं की जा सकती लेकिन फिर भी यह तो कहा जा सकता है कि वे ठीक ठाक भाषण दे लेते हैं।

बोलते समय एक क्षेत्रीय नेता होने के कारण आत्मविश्वास का अभाव उनमें नहीं दिखायी देता। आत्मविश्वास से भरपूर अपनी बात वे स्पष्ट लहजे में कहने में समर्थ हैं। बड़े बड़े पत्रकारों ने उनसे साक्षात्कार लिया और अपने वाकजाल में फंसाने का प्रयास किया लेकिन नितिन गडकरी को वे उलझा नहीं सके बल्कि सभी का जवाब उन्होंने मुस्कराते हुए दिया और अपनी परिपक्वता का परिचय दिया। नितिन गडकरी अपना स्थान धीरे धीरे राष्ट्रीय राजनीति में बना रहे हैं। कल दिल्ली में महंगाई के विरोध में निकली महारैली मील का पत्थर साबित हो सकती थी। हो भी रही थी लेकिन जब रैली रामलीला मैदान से निकलकर जंतर मंतर की तरफ बढ़ी तब रास्ते में गर्मी बर्दाश्त न करने के कारण नितिन गडकरी बेहोश होकर गिर पड़े। यह किसीके भी साथ हो सकता है। गर्मी ही ऐसी पड़ रही है लेकिन अध्यक्ष के साथ होना अच्छा संदेश नहीं देता। बुजुर्गों की पार्टी भाजपा कही जा रही थी। लालकृष्ण आडवाणी जैसे बुजुर्ग नेता के नेतृत्व के कारण। इसीलिए नितिन गडकरी के रूप में युवा नेतृत्व लाया गया। अभी उम्र उनकी मात्र 52 वर्ष ही है। इसलिए उम्मीद तो यह की जाती थी कि वे शारीरिक रूप से भी सशक्त नेता होंगे।

उनके बेहोश होने के बाद जंतर मंतर में लगाया गया मंच हटा दिया गया और रैली की समाप्ति की भी घोषणा कर दी गई। सड़क पर पैदल नारे लगाते हुए चलते कार्यकर्ता जिस व्यक्ति के नाम पर नारे लगा रहे थे, वह बेहोश होकर गिर जाए तो इससे अच्छा संदेश तो आम जनता को नहीं मिलता और न ही कार्यकर्ताओं को। यह तो प्रारंभ है। अभी देश भर में राष्ट्रीय अध्यक्ष को न जाने कितना पसीना बहाना पड़ेगा। पूरे देश में पार्टी को जनता की नजरों में चढ़ाने के लिए कितनी ही यात्राएं करना पड़ेगा। शरीर से कमजोर अध्यक्ष यह सब सफलतापूर्वक कर सकेगा या नहीं। एक दो बार ऐसी घटना फिर घटित हुई तो अभी तो लोगों ने कोई टिप्पणी नितिन गडकरी के गश खाकर गिरने पर नहीं की लेकिन आगे भी नहीं करेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। फिर ऐसी घटनाओं से कार्यकर्ताओं का भी मनोबल कमजोर पड़ता है।

नितिन गडकरी जब अध्यक्ष बने थे तब उनके शरीर को देखकर ही लगता था कि इतना मोटा आदमी कहीं शारीरिक क्षमता के कारण कमजोर साबित न हो। फिर भी सौम्यता के कारण इस मामले में किसी ने ऊंगली उठाना उचित नहीं समझा। यह ठीक है कि कई बड़े बड़े काम नितिन गडकरी ने महाराष्ट्र में किए लेकिन पसीना बहाने वाला काम उन्होंने कम ही किया होगा। क्योंकि जिस क्षेत्र नागपुर के वे रहने वाले हैं वह क्षेत्र तो गर्मी के मामले में दिल्ली से भी ज्यादा गर्म रहने वाला क्षेत्र है। सभी बड़े नेता वातानुकूलित कक्षों में अपना समय व्यतीत करते हैं लेकिन कल की रैली में सभी धूप में ही खड़े थे। यहां तक लालकृष्ण आडवाणी भी कुछ देर तक धूप में 82 वर्ष की उम्र में खड़े दिखायी दिए। अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी भी धूप में थे और ये सभी बड़े नेता उम्र में भी नितिन गडकरी से बड़े हैं। इनमें से कोई भी तो धूप के कारण गश खाकर नहीं गिरा। सफेद दाढ़ी बाल वाले अहलूवालिया अपने से कम उम्र के नितिन को गश खाने पर संभाल रहे थे। अब यह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और नितिन गडकरी के लिए ही सोच का विषय है कि कम उम्र के युवा को अध्यक्ष बनाने के पीछे जो सोच काम कर रही थी, वह सोच कितनी उचित दिखायी पड़ रही है।

नितिन गडकरी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि उनके पास जेब में दस रूपये हों तो वे एक हजार रूपये करोड़ की कंपनी खड़ा कर सकते हैं। यदि यह गुण उनमें है तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक व्यवसायिक कंपनी को चलाना अलग बात है और एक राष्ट्रीय पार्टी को चलाना अलग बात। एक कितनी भी बड़ी कंपनी हो, उसकी क्षमता और उद्देश्य सीमित होता है और एक राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टी को तो जनता को तैयार करना पड़ता है कि वह उसे वोट दे और वह जनता की समस्या हल करके दिखाएगी। हजार, दो हजार शेयर होल्डरों का ध्यान रखना और 120 करोड़ लोगों के ध्यान रखने में जमीन आसमान का अंतर है। जिस व्यक्ति को भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर राहुल गांधी से मुकाबला करना चाहती है, वह यदि रैलियों में बेहोश होने लगा तो जनता को क्या संदेश जाएगा?

राहुल गांधी शारीरिक रूप से संतुलित हैं। एक चार्मिंग व्यक्तित्व हं उनका। उनका पेट अंदर है और नितिन गडकरी का बाहर। युवाओं को आकर्षित करने का जो ग्लैमर राहुल गांधी के पास है, वह नितिन गडकरी के पास तो दिखायी नहीं देता। नितिन गडकरी वास्तव में भाजपा को सत्ता की आसंदी तक पहुंचाना चाहते हैं तो उन्हें अपना शारीरिक नाप जोख ठीक करना होगा। यह बात उन्हें अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए। क्योंकि इस धूप से तो उनको बार बार साक्षात्कार करना होगा। इसके बिना वे आम आदमी को प्रभावित नहीं कर सकते। एक बार की बेहोशी एक बार चलती है लेकिन दोबारा ऐसा हुआ तो ?

-विष्णु सिन्हा
22-04-2010

क्रिकेट की लोकप्रियता और अथाह धन विवाद पैदा करे तो आश्चर्य की बात नहीं

हमारे देश में मुख्य मुद्दा महंगाई, बेरोजगारी, जल है या क्रिकेट। किसी भी तरह के मीडिया को देखें, पढ़ें, सुनें तो मुख्य मुद्दा क्रिकेट ही दिखायी देता है। कल तक क्रिकेट सिर्फ सट्टेबाजी के लिए मशहूर था। मैच फिक्सिंग के लिए कभी क्रिकेट के कप्तान अजहरुद्दीन पर आरोप लगे थे तो उन्हें क्रिकेट से अवकाश ही लेना पड़ा था लेकिन आज वे कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा के सदस्य है। पुरानी बात है और जब जनता ने लोकसभा के लिए चुन लिया तो कौन पुरानी बात को याद करता है लेकिन आज आईपीएल के नाम पर जो क्रिकेट हो रहा है, उसने सांसदों को सदन में इस पर चर्चा करने के लिए बाध्य कर दिया। जनता दल के अध्यक्ष शरद यादव कह रहे हैं कि आईपीएल अय्याशी का अड्डा है। लालू प्रसाद यादव कह रहे हैं कि सट्टे जुए का ठिकाना है, आईपीएल। आईपीएल कमिश्रर के पास याट, जेट हवाई जहाज, लक्जरी कारें सब कुछ है। कहां से आया पैसा? यह आईपीएल की ही मेहरबानी है कि एक केंद्रीय मंत्री अपनी महिला मित्र को 70 करोड़ रुपए की भागीदारी गिफ्ट में दिलाने की ताकत रखता है।
अपने जीवन का अधिकांश समय पश्चिमी देशों में गुजार कर आए व्यक्ति को यह समझ नहीं थी कि यह भारत है। यह देश कितनी भी पश्चिम की नकल कर ले लेकिन अपने मूल स्वभाव से परे नहीं हो सकता। शशि थरुर ने गलती की और उन्हें सरकार से जाना पड़ा। इसके साथ ही राष्टवादी कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री भी सफाई देने लगे कि आईपीएल से उनका कोई लेना-देना नहीं है। प्रफुल्ल पटेल ने कहा कि उनकी सुपुत्री अवश्य आईपीएल में काम करती है लेकिन उनका कोई लेना-देना नहीं। शरद पवार की सुपुत्री को मीडिया से कहना पड़ा कि उनके पति क्रिकेट प्रेमी अवश्य हैं लेकिन आईपीएल से उनका भी कोई लेना-देना नहीं है। महाराष्ट में राष्टवादी कांग्रेस के सरकार में मंत्री छगन भुजबल भी कह रहे हैं कि उनका आईपीएल से कोई लेना-देना नहीं है।

शशि थरुर के इस्तीफे के बाद शरद पवार वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से मिले और बीसीसीआई के अध्यक्ष मनोहर के साथ बैठकर फैसला हो गया कि ललित मोदी को इस्तीफा देना पड़ेगा। दूसरी तरफ ललित मोदी पूरे दमखम के साथ कह रहे हैं कि वे इस्तीफा नहीं देंगे। ललित मोदी यदि इस्तीफा न देने पर अड़े रहे तो उन्हें हटाने के लिए कार्यकारी मंडल को दो तिहाई सदस्यों के समर्थन की जरुरत पड़ेगी। जिन्होंने भी ललित मोदी के कमिश्रर रहते मलाई चाटी है, ललित मोदी के पक्ष में हैं और हटाने के लिए वे लोग तैयार हैं जो समझते है कि ललित मोदी के हटने से आईपीएल की आलोचना के छींटे से वे बचे रहेंगे। चमड़ी तो सबको अपनी ही प्यारी है। कौन बलि का बकरा बनता है, इससे किसी का लेना-देना नहीं है। यह सच है कि तमाम तरह के बुद्धिजीवियों की आलोचना के बावजूद क्रिकेट भारत का सबसे लोकप्रिय खेल है। हर वर्ग में इसके दीवानों की कमी नहीं है। सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट के भगवान तक की संज्ञा दी गई है। जिन फिल्मी हस्तियों के दीवाने लाखों करोड़ों लोग हैं, वे भी क्रिकेट सितारों के दीवाने हैं। क्रिकेट टीमों के मालिक तक फिल्मी सितारें हैं। मैदान में ग्लैमर जहां क्रिकेट खिलाडिय़ों का है, उसमें इजाफा से फिल्मी हस्तियां भी करती हैं। देर रात तक मैच और उसके बाद रात भर चलने वाली ग्लैमरस पार्टियां क्रिकेट को और रंगीन कर रही हैं। ऐसे में शरद यादव को आईपीएल अय्याशी का अड्डा दिखायी दें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

भारत में कितने तरह का विरोधाभास है। एक तरफ कहा जाता है कि आधी आबादी 20 रुपए प्रतिदिन में अपना गुजर बसर करती है तो दूसरी तरफ 40 करोड़ लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं। इतने लोगों को तो टायलेट की ही सुविधा नहीं है। उस पर भीषण महंगाई। महंगाई की जिम्मेदारी भी कृषि मंत्री की और कृषि खाद्य मंत्री क्रिकेट में व्यस्त हैं। खाने को मिले न मिले, मनोरंजन तो मिलना ही चाहिए। पिछले 40 दिनों में आईपीएल मनोरंजन आम आदमियों के लिए भी परोस रहा है। टीवी एक ऐसा माध्यम है जिसने शहरों में ही नहीं गांवों में भी अपनी पैठ बना ली है और टीवी के द्वारा क्रिकेट का नकली मैच घर-घर में देखा जा रहा है। आईपीएल को टीवी प्रसारण के अधिकार बेचने से ही अरबों की कमायी होती है। कितना लेन-देन किस मद में सफेद में होता है और कितना काले में यह जांच का विषय आयकर विभाग का है और आयकर विभाग ने थरुर मोदी विवाद के बाद पहली बार आईपीएल की जांच प्रारंभ की है।

बीसीसीआई और आईपीएल कोई धर्मार्थ संस्था नहीं है। अरबों का खुला कारोबार ये कर रहे है तो इससे करों की वसूली तो एकदम जायज है। महाराष्ट सरकार ने आईपीएल के पहले मनोरंजन कर लगाने की घोषणा की थी लेकिन उसने सर्वाधिक मैच मुंबई में होने के बावजूद कर नहीं लगाया। सुरक्षा की दृष्टि से सरकार जो खर्च करती है, वह भी तो सरकारी खजाने से किया जाता है। एक तरफ आईपीएल कमा रहा है और दूसरी तरफ सरकार मुफ्त में सुरक्षा व्यवस्था कर रही है। यह न्यायोचित तो नहीं है। ललित मोदी ने कहा था कि जो आय हो रही है इससे क्रिकेट के स्टेडियम देश में और बनाए जाएंगे। इससे तो अच्छा है कि सरकार कर वसूले और वही खेल में इसे खर्च करे। अथाह धन बेइमानी के लिए किसी को भी उकसा सकता है। फिर जिसका चरित्र प्रारंभ से ही संदिग्ध हो उसे इतनी बड़ी जिम्मेदारी देने की तो सोचना भी नहीं चाहिए था। राजस्थान ने ललित मोदी को अपना क्रिकेट अध्यक्ष चुनने से इंकार किया तो क्रिकेट की ऊपर की यात्रा तो उनकी वहीं रुक जानी चाहिए थी लेकिन जिन लोगों ने ललित मोदी को आईपीएल का कमिश्रर बनाया, वे भी कम जिम्मेदार नहीं है। भले ही आज वे उनसे इस्तीफा मांग रहे हों। जो कुछ भी आईपीएल में हो रहा था, उससे आंख मूंद कर वे क्यो बैठे थे?

जिस तरह से 76 जवानों के काल कवलित होने पर नैतिक जिम्मेदारी गृहमंत्री पी.चिंदबरम ने ली थी। उसी तरह से आईपीएल की कारगुजारियों की जिम्मेदारी बीसीसीआई को लेना चाहिए। साफ-साफ कहें तो शरद पवार को लेना चाहिए। अप्रत्यक्ष रुप से ही सही क्रिकेट कंट्रोल बोर्र्ड को कंट्रोल तो वे ही कर रहे हैं। नहीं तो बीसीसीआई के अध्यक्ष दिल्ली आकर उनसे क्यों दिशा-निर्देश प्राप्त कर रहे थे? जहां तक जनता का प्रश्र है तो जनता के लिए मामला एकदम साफ है। कृषि मंत्री कहते हैं कि महंगाई और बढ़ेगी तो महंगाई बढ़ जाती है। फिर पूछा जाता है कि महंगाई कम कब होगी तो कहते हैं कि वे कोई अर्थशास्त्री नहीं जो यह बता सके। क्रिकेट में बला का आकर्षण और पैसा है। यह अच्छे-अच्छों की नीयत खराब कर सकता है। सदा जवान रहने का नुस्खा भी है क्रिकेट। ललित मोदी जानते हैं कि वे पद से हटे तो कहीं के नहीं रहेंगे और जांच प्रक्रिया में वे उलझ जाएंगे। वे पद पर बने रहे तो जांच से बचाव के रास्ते भी तलाश लेंगे। इसलिए वे इस्तीफा देने से बचना चाहते हैं। देखें 26 अप्रैल को आईपीएल -युद्ध के बाद उनकी क्या गति होती है?

-विष्णु सिन्हा
दिनांक : 21.04.2010

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

विदेश यात्रा पर पाबंदी लगाकर डा. रमनसिंह ने सही काम किया

अब 31 मार्च, 2011 तक छत्तीसगढ़ के मंत्री, संसदीय सचिव, अधिकारी, कर्मचारी छत्तीसगढ़ सरकार के खर्च पर विदेश यात्रा का सुख प्राप्त नहीं कर सकेंगे। देर से ही सही मुख्यमंत्री ने सही निर्णय लिया है। इस दायरे में सरकारी निगम, मंडल के पदाधिकारी और अधिकारी भी आएंगे। प्रश्र तो यही है कि विदेश यात्रा का लाभ प्रदेश को क्या होता है? जमीनी हकीकत छत्तीसगढ़ की जो है, उसमें समस्याओं का निदान विदेश दौरों से कैसे किया जा सकता है? समस्याओं का निदान विदेश दौरे से नहीं छत्तीसगढ़ के दौरे से ढूंढा जा सकता है। ऐसे कितने मंत्री, अधिकारी हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ का चप्पा चप्पा देखा हुआ है। अपने विधानसभा क्षेत्र से परिचित होना तो चुनाव लडऩे कं लिए आवश्यक होता है।

जनता की शिकायतों को अधिकारियों कर्मचारियों की आंखों से ही नहीं देखा जाना चाहिए। क्योंकि जब तक स्वयं की नजरों से हकीकत से परिचित न हो मंत्री तब तक वह असलियत से परिचित नहीं होता। अधिकारी, कर्मचारी अपनी गल्तियों का, कमजोरियों का स्वयं बखान करेंगे, इसकी उम्मीद तो नहीं की जानी चाहिए। आज मुख्यमंत्री ग्राम सुराज योजना में मंत्रियों, विधायकों, अधिकारियों कर्मचारियों सहित जो गांव गांव का दौरा कर रहे हैं, उसका असल उद्देश्य तो यही है कि जनता की समस्याओं से साक्षात्कार किया जाए। जनता के लिए सरकार के द्वारा बनायी योजनाएं कितनी जनता तक पहुंच रही है और उसका क्या परिणाम निकल रहा है, इस हकीकत से परिचित हुआ जाए। खाली परिचित ही नहीं हुआ जाए बल्कि उसका त्वरित हल किया जाए।

कुछ जगह ग्राम सुराज यात्राओं का विरोध भी हो रहा है। इससे हकीकत सामने आ रही है कि उस क्षेत्र के लोग शासकीय कर्मचारियों की अकमण्र्यता से नाराज है। जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा से आक्रोशित हैं। इनकी नाराजगी और आक्रोश को दूर करने की जिम्मेदारी मंत्रियों की है, अधिकारियों की है। मुख्यमंत्री विभिन्न घोषणाएं भी कर रहे हैं लेकिन पहले की गई घोषणाओं का क्या हश्र हुआ, उस पर भी दृष्टि डालने की जरूरत है। कहीं स्कूल चाहिए, अस्पताल चाहिए, पीने के पानी की व्यवस्था चाहिए। तमाम तरह की ग्रामीण समस्याएं हैं? इनका निपटारा क्या विदेश यात्रा से होगा? जितने दिन मंत्री अधिकारी, कर्मचारी विदेश यात्रा करते हैं, उतने दिन तो वे छत्तीसगढ़ से ही गैर हाजिर रहते है और काम सब ठप्प पड़ जाते हैं। जनता खोजती और चक्कर ही लगाती है।

डा. रमन सिंह ने एक और अच्छा काम किया है। अधिकारियों के छुट्टी पर रहने पर उनका काम कौन से अधिकारी अनुपस्थिति में देखेंगे, यह तय कर दिया है। इसके तहत यह भी देखना जरूरी है कि अधिकारी के छुट्टी पर जाने पर कम से कम स्थानापन्न अधिकारी भी छुट्टी न ले। व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि किसी की भी अनुपस्थिति में काम रूके न। हर काम का एक समय तय करना चाहिए। समय पर काम न होने पर जिम्मेदारी और जवाबदेही तय होना चाहिए। यह काम मुख्य सचिव का है। क्योंकि मंत्रालय की व्यवस्था वे सुधार सकें तो पूरे प्रदेश की व्यवस्था सुधार सकते हैं। जो बात स्पष्ट रूप से लोगों को खटकती है, वह काम के होने में विलंब है। अंग्रेजों के जमाने में नौकरशाही का काम अच्छा इसलिए था क्योंकि कोई भी अधिकारी या कर्मचारी काम पेंडिंग छोड़कर घर नहीं जाता था। रोज का काम रोज निपटाया जाता था। अब तो फाइलें धूल खाती पड़ी रहती हैं। जैसे उनका कोई माई बाप न हो। संबंधित व्यक्ति आए और निरंतर फाइल के पीछे पड़े तब कहीं फाइल निर्णय के अंजाम तक पहुंचती है।

व्यवस्था को आमूल चूल बदलने की जरूरत है और इसके लिए विदेश जाकर कुछ सीखने की जरूरत नहीं है। जो काम को लटकाने में ही अपनी महारत समझते हैं, वे विदेश यात्रा कर भी क्या सुधर जाएंगे? इतनी तो विदेश यात्राएं कितनों ने कर ली लेकिन काम के प्रति समर्पण का जो भाव होना चाहिए, वह क्या सीख पाए? सीख जाते तो आज प्रदेश की स्थिति दूसरी ही होती। मंदी की स्थिति में भी एक योग्य अधिकारी गणेश शंकर मिश्रा राज्य के राजस्व में 5 सौ करोड़ से अधिक की वृद्घि करता है। काम करने की मंशा हो तो सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है, यह गणेश शंकर मिश्रा ने करके दिखा दिया है। बस्तर के कलेकटर के रूप में पीडीएस की ऐसी व्यवस्था करके दिखाया कि आदिवासी सरकार के समर्थक हो गए। करना चाहें तो सभी अधिकारी कर सकते हैं लेकिन उनमें अपने कार्य के प्रति जज्बा तो हो। ईमानदारी तो हो। लगे भी तो नौकरी में आने के समय उन्होंने जो शपथ लिया था, उस पर वे कितने खरे साबित हो रहे हैं। अपने अधिकारों का दुरूपयोग कर धन कमाना ही यदि उद्देश्य है तब परिणाम कहां से दिखेगा?

डा. रमन सिंह ने जितनी छूट और स्वतंत्रता अपने अधिकारियों कर्मचारियों को दी है, उन्हें उस छूट और स्वतंत्रता का सुपात्र तो सिद्घ करना चाहिए। डा. रमन सिंह ने विदेश यात्रा की भी छूट दी कि शायद मंत्री, अधिकारी, कर्मचारी विदेश जाकर कुछ सीखेंगे लेकिन दिखायी तो नहीं देता कि इन लोगों ने कुछ सीखा। सीखा होता तो शासन प्रशासन में आमूल चूल परिवर्तन आ जाता। आज डा. रमन सिंह ने 31 मार्च 2011 तक विदेश यात्रा पर प्रतिबंध लगाया है। हो सकता है, कल यह मियाद और आगे बढ़ा दी जाए। केंद्र सरकार ने भी मितव्ययिता के नाम पर अपने मंत्रियों को इकानामी क्लास में सफर करने का निर्देश दिया था तो एक पश्चिमी संस्कृति में ढले मंत्री शशि थरूर ने इकानामी क्लास को कैटल क्लास बताया था। आज उनकी क्या दुर्गति हुई? मंत्री पद तो गंवाना ही पड़ा। साथ ही साथ मान सम्मान भी गया।

उन्हें कठघरे में खड़ा करने वाले आईपीएल के कमिश्रर ललित मोदी पर भी तलवार लटक रही है। उनकी भी जांच केंद्र सरकार कर रहा है और खबर है कि वे भी जाने वाले हैं। देर है अंधेर नहीं। मुख्यमंत्री ने एक समय काल के लिए मितव्ययिता के नाम पर प्रतिबंध लगाया है। भविष्य में अनुमति दें विदेश यात्रा की तो अधिकारी कर्मचारी के परफर्मेंस को भी दृष्टि में रखा जाए। जो अच्छा काम करे। जनता जिसके काम से सबसे ज्यादा संतुष्ट हो, उसे ही विदेश यात्रा की पात्रता मिलनी चाहिए। क्योंकि जो जनता को संतुष्ट करें उसे ही जनता के धन पर विदेश में कुछ सीखने का अवसर मिले। वह अवश्य कुछ न कुछ अच्छी बात सीखेगा और अपने काम में सुधार लाने का प्रयास करेगा। नहीं तो बेकार अधिकारी के पीछे विदेश यात्रा का व्यय जनता के धन का अपव्यय ही है।

-विष्णु सिन्हा
20.04.2010

भाजपा सत्ता में रहते हुए उकता गयी है छत्तीसगढ़ में तो उसे अवश्य रमेश बैस को पार्टी अध्यक्ष बनाना चाहिए

पार्टी चाहे तो रमेश बैस प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार हैं। यह बात स्वयं रमेश बैस कह रहे है। पत्रकारों से कह रहे हैं। पार्टी के कार्यकर्ता, नेता यह बात कहे कि रमेश बैस को पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाए तो उसका कोई मतलब भी होता। रमेश बैस जैसा नेता जब स्वयं अपने नाम का सिफारिश करे तो बात सम्मानजनक तो नहीं लगती। फिर पार्टी को यदि आत्महत्या ही करना हो तो वह रमेश बैस को पार्टी अध्यक्ष बनाए। एक रायपुर नगर निगम का चुनाव तो टिकट बांट कर वे जितवा नहीं सके। जो उनके ही संसदीय क्षेत्र में आता है। पूरे प्रदेश में भाजपा को वे अध्यक्ष बन गए तो कैसी फजीहत कराएंगे, यह पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं से ज्यादा अच्छी तरह कौन जानता हैं? उनकी सोच का दायरा कि छत्तीसगढ़ में आदिवासी 32 प्रतिशत हैं और पिछड़े वर्ग के लोग 52 प्रतिशत हैं। रमेश बैस स्वयं को पिछड़े वर्ग का मानते हैं। इसलिए वे अध्यक्ष बनने की पात्रता रखते हैं।

राष्टरीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत कहते है कि जात पात तोड़ो और लोकसभा में पार्टी का सचेतक अपनी योग्यता का मापदंड पिछड़ा वर्ग का होने को बताता है। कभी आदिवासी कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करते थे और आज राज्य में भाजपा की जो सरकार है, उसका बहुत बड़ा कारण आदिवासियों का भाजपा को समर्थन देना है। आदिवासी इसलिए भाजपा को समर्थन नहीं दे रहे हैं कि भाजपा ने किसी आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाया है। यदि जात पात के नाम पर ही वोट पड़ते तो डॉ. रमन सिंह को आदिवासी समर्थन नहीं देते। यदि जात पात ही जीत का आधार होता तो दुर्ग से सरोज पांडे को नहीं जीतना चाहिए था। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ब्राह्मण प्रत्याशी खड़े किए थे और भाजपा से ही निष्कासित ताराचंद साहू पिछड़े वर्ग का मुकाबला कर रहे थे। ताराचंद साहू तो कई बार भाजपा के ही सांसद रह चुके थे लेकिन मतदाताओं ने उनके बदले ब्राह्मण भाजपा प्रत्याशी सरोज पांडे को चुना।

रमेश बैस भी जो कुछ है, भाजपा के कारण है। रायपुर लोकसभा सीट से वे बार-बार जीत रहे हैं तो उसका कारण पिछड़े वर्ग का होना ही नहीं है बल्कि भाजपा के नेताओं, कार्यकर्ताओं का अथक प्रयास उनकी जीत के पीछे हैं। ताराचंद साहू तो भाजपा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं लेकिन पार्टी से बाहर होने के बाद उनकी स्थिति आज क्या है? रमेश बैस तो ताराचंद साहू की कद काठी के नेता भी नहीं है। रमेश बैस को अपनी शक्ति का आंकलन करना है तो एक बार निर्दलीय लड़कर देख लें। पता चल जाएगा कि उनकी स्थिति क्या है? उनकी स्थिति का पता तो इसी से चलता है कि अध्यक्ष पद के लिए स्वयं का नाम वे ही प्रस्तावित करते है। दरअसल कहा यही जाता है कि रमेश बैस की इच्छा मुख्यमंत्री बनने की है और चूंकि मुख्यमंत्री का पद डॉ. रमन सिंह की योग्यता के कारण खाली होने की कोई संभावना नहीं दिखायी पड़ती, इसलिए रमेश बैस संगठन के ही सर्वोच्च पद पर आसीन हो जाना चाहते हैं।

जब वे केंद्रीय मंत्री थे, अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार में तब उन्हें ही सबसे पहले प्रदेश अध्यक्ष बनने के लिए कहा गया था लेकिन सत्ता सुख भोगते हुए रमेश बैस को छत्तीसगढ़ भाजपा का अध्यक्ष बनना गंवारा नहीं हुआ। क्योंकि उस समय भाजपा के पास छत्तीसगढ़ में सत्ता तो थी नहीं। ऊपर से पार्टी के विधायक, कार्यकर्ता, पदाधिकारी पार्टी छोड़कर अजीत जोगी के मोह जाल में फंस रहे थे। अध्यक्ष के रुप में सरकार के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाना और उस पर विधानसभा चुनाव जितवाना आसान काम तो था, नहीं। मीडिया में अजीत जोगी छाए हुए थे और दूसरी तरफ उनके विरोध का बिगुल विद्याचरण शुक्ल बजा रहे थे तो भाजपा के हाथ सत्ता लगेगी, यह रमेश बैस के लिए सोचना कठिन काम था। तब डॉ. रमन सिंह को पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष का पद भार सौंपा। डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में पार्टी चुनाव मैदान में उतरी और पार्टी को बहुमत मिल गया। जीत का श्रेय डॉ. रमन सिंह के खाते में दर्ज हुआ और वे मुख्यमंत्री बन गए। तब रमेश बैस ने प्रयास तो किया था कि मुख्यमंत्री उन्हें बनाया जाए लेकिन उनकी किसी ने सुनी नहीं।

लोकसभा का चुनाव हुआ और रमेश बैस चुनाव तो जीत गए लेकिन दिल्ली में भाजपा की सरकार नहीं बन पायी। सत्ता रमेश बैस के हाथ से निकल गयी। इसके बाद अपनी तरफ से डॉ. रमन सिंह को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास कांग्रेस से ज्यादा रमेश बैस ने किया। येन-केन-प्रकारेण वे चाहते रहे कि आलाकमान डॉ. रमन सिंह को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतारे तो उनको बैठने का अवसर मिले लेकिन सभी प्रकार के प्रयास निष्फल ही साबित हुए। डॉ. रमन सिंह की लोकप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गयी और विधानसभा और लोकसभा दोनों का चुनाव डॉ. रमन सिंह ने जीता। इसलिए उनकी गद्दी की दावेदारी के तो अवसर शेष नहीं रहे। अब एक अवसर यही दिखायी देता है कि बिल्ली के भाग्य में छींका टूटे तो शायद प्रदेशाध्यक्ष ही बनने का अवसर मिल जाए। क्योंकि भाजपा का प्रदेशाध्यक्ष बन कर भी तो सरकार पर अपनी मनमर्जी थोपी जा सकती है। सरकार को तरह-तरह से परेशान किया जा सकता है। तब शायद कोई मौका मिले डॉ. रमन सिंह को हटाने का और प्रदेशाध्यक्ष के रुप में मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठने का। जहां तक स्वप्न देखने का संबंध है तो उसे देखने में कोई आड़े नहीं आ सकता लेकिन पार्टी कोई भी निर्णय किसी के स्वप्न साकार करने के लिए तो लेती नहीं।

अभी तक सरगुजा के सांसद मुरारी सिंह का नाम ही प्रदेशाध्यक्ष के लिए लिया जा रहा था। रमेश बैस ने अपना स्वयं का नाम प्रस्तावित कर कोर ग्रुप के सदस्यों को हैरान कर दिया। किसी ने कुछ नहीं कहा। इसका मतलब तो स्पष्ट है कि कोई भी उनके समर्थन में नहीं है। नहीं तो एक दो लोग तो कम से कम रमेश बैस के पक्ष में बोलते कि रमेश जी चाहते हैं प्रदेशाध्यक्ष की जिम्मेदारी तो उन्हें ही अवसर दिया जाए। दिल्ली में बड़े नेताओं के साथ संबंधों की आड़ में यदि रमेश बैस समझते हैं कि वे अध्यक्ष की कुर्सी पा जाएंगे तो ऐसा मुमकिन तो नहीं दिखायी पड़ता। क्योंकि मुख्यमंत्री से उनकी राय अवश्य ली जाएगी। सौदान सिंह से भी राय ली जाएगी और हो सकता है कि छत्तीसगढ़ के भाजपा सांसदों से भी राय ली जाए तो ऐसा कौन सा व्यक्ति है जो रमेश बैस का समर्थन करेगा? एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं दिखायी पड़ता जो रमेश बैस का समर्थन करे।

दिल्ली के नेता छत्तीसगढ़ में पार्टी को पूरी तरह से सत्ताच्युत करना चाहते हैं तो उन्हें रमेश बैस को अवश्य प्रदेशाध्यक्ष बनाना चाहिए। जीती बाजी को हार में भाजपा के कैसे बदला जा सकता है, यह रमेश बैस अच्छी तरह से जानते हैं। रायपुर नगर निगम का चुनाव इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। यह भूल कर कि कल रायपुर लोकसभा सीट से ही चुनाव लडऩा है और ऐसे में रायपुर नगर निगम पर भाजपा के बदले कांग्रेस का कब्जा हो गया तो क्या होगा? जो व्यक्ति निर्णय लेने में हिचक महसूस नहीं करता, वह पूरी पार्टी को हार का भी रास्ता प्रदेशाध्यक्ष बन कर प्रशस्त करे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ऐसी गलती भाजपा आलाकमान करेगा तो फल भी पार्टी को ही भोगना पड़ेगा।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 19.04.2010

रविवार, 18 अप्रैल 2010

बढ़ती गर्मी पूर्वाभास दे रही है कि धरती का भविष्य किस तरफ जा रहा है

थर्मामीटर में पारा थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। उत्तर भारत का अधिकांश क्षेत्र 40 डिग्री को पार कर गया है और 24 शहरों में तो तापमान 45 डिग्री पर पहुंच गया है। राजस्थान के अलवर और महाराष्ट के जलगांव में पारा 47 डिग्री पर पहुंच गया है। छत्तीसगढ़ का भी हाल कुछ ठीक नहीं हैं। बिलासपुर में पारा 45 डिग्री तो रायपुर में पारा 44 डिग्री पहुंच चुका है। अभी अप्रैल माह ही चल रहा है। 12 दिन अप्रैल के बचे है और पूरा मई बचा है। जून में भी मानसून कब आएगा, यह अभी मौसम वैज्ञानिक नहीं बता सकते। बढ़ती गर्मी का अर्थ है पानी की आवश्यकता का बढऩा और गर्मी पानी की दुश्मन है। जलाशयों में इकट्ठा पानी ही जीवन का आखिरी सहारा हैं और वह भी गर्मी के कारण तेजी से भाप बन कर उड़ रहा हैं। भूमिगत पानी तो नीचे और नीचे ही जाता जा रहा है।

रायपुर में ही अधिकांश ट्यूबवेलों ने पानी देना बंद कर दिया है। नगर निगम द्वारा दिया जाने वाला पानी ही जीवन का आधार है। यह पानी भी गंगरेल बांध से आता है जो रायपुर के साथ धमतरी और भिलाई को भी प्रदाय करता है। गांव-गांव में तालाब या तो सूख गए हैं या फिर पानी इतना कम हो गया है कि उपयोग के लायक ही नहीं रह गया है। सरकार जलाशयों से नहरों के द्वारा पानी लाकर तालाबों को भरने का इरादा रखती हैं लेकिन नहरों के द्वारा आने वाला पानी भी या तो जमीन के द्वारा सोख लिया जाता है या फिर सूरज की गर्मी उसे भाप बनने के लिए बाध्य कर देती है। 2 रु. किलो और 1 रुपए किलो में चांवल तो दिया जा सकता है लेकिन उसे भी पकाने के लिए पानी की ही आवश्यकता पड़ती हैं। चांवल न हो तो कहीं से भी लाया जा सकता है लेकिन पानी न हो तो कहां से लाएंगे?

बहुत पहले ही भविष्यवाणी हो चुकी है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। अक्सर खबर आती है कि ब्रह्मपुत्र नदी जो चीन से निकलती है और भारत की सबसे बड़ी नदी है उसका मुंह चीन अपनी तरफ मोड़ रहा है। भारत से निकलने वाली कितनी ही नदियां पाकिस्तान और बंगलादेश जाती हैं। भविष्य इस तरफ इशारा कर रहा है कि जिस भी देश के पास पानी का जो स्रोत होगा, वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए उसका बहाव दूसरे देश की तरफ जाने से रोकने के लिए बाध्य होगा। ऐसा विश्व भर में हो सकता है। क्योंकि प्राकृतिक रुप से नदियां तो किसी देश की सीमा को पहचानती नहीं और प्रकृति ने ही किसी देश को बनाया नहीं है। वैज्ञानिक चंद्रमा पर राकेट भेजते हैं या मंगल पर तो तलाश पानी की ही करते हैं। क्योंकि अभी तक की वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार बिना पानी के किसी तरह का जीवन नहीं हो सकता।

पृथ्वी में जो विभिन्न रुपों में जीवन है, उसका कारण पानी ही है और प्रकृति से हमारी अंधी महत्वाकांक्षाओं ने विकास के नाम पर ऐसा खिलवाड़ किया है कि संतुलन पूरी तरह से बिगड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग मतलब पृथ्वी गर्म हो रही है। बाहर से ही नहीं अंदर से भी गर्मी बढ़ रही है। वैसे भी पृथ्वी के गर्भ में पच्चीस सौ डिग्री से ज्यादा तापमान है और वहां पिघला हुआ लोहा पानी की तरह बहता है। इसीलिए प्रकृति ने भूगर्भ में ही पानी की व्यवस्था की है। जिससे गर्मी भीतर ही सीमित रहे लेकिन जिस तरह से विगत वर्षों में भूगर्भ से जल का दोहन किया जा रहा है, उससे ठंडा रखने की प्रक्रिया पर प्रभाव पड़ रहा है। यही कारण है कि ज्वालामुखी भड़क रहे हैं। समुद्र में ज्वालामुखी भड़क रहे हैं तो बर्फीले प्रदेशों में भी भड़क रहे हैं और लावा पृथ्वी पर ही नहीं हवा में भी फैल रहा है। विगत कई दिनों से लावे की धूल के कारण इंग्लैंड में हवाई जहाज नहीं उड़ रहे हैं। हीथ्रो हवाई अड्डा कहा जा रहा है कि ज्वालामुखी क्षेत्र से 1600 किलोमीटर दूर है और वहां तक जब प्रभाव पहुंच रहा है तब भविष्य के लिए सिग्नल तो मिल रहा है कि अभी भी वक्त है, मनुष्यों सुधर जाओ।

पृथ्वी से खिलवाड़ बंद करो। जमीन के गर्भ से पेट्रोल, डीजल, गैस सभी कुछ तो निकाल कर पृथ्वी के ऊपर जलाया जा रहा है। बिजली बनायी जा रही है। यह भी गर्मी पैदा करने का बड़ा कारण है। कारखानों की तो पृथ्वी पर बाढ़ ही आ गयी है जो सिवाय गर्मी के पृथ्वी को और कुछ नहीं दे रहे है। हर खनिज पदार्थ जमीन से निकाला जा रहा है। कोयला निकाल कर जलाया जा रहा है। पृथ्वी का आंतरिक संतुलन बिगाड़ा जा रहा है। भूकंप की श्रंखला बढ़ रही है। जो सुनामी का भी कारण बन रही है। ए.सी., फ्रिज जैसे निरंतर छोटे से क्षेत्र को भले ही ठंडा रखें लेकिन ये भी सिर्फ पृथ्वी की गर्मी को ही नहीं बढ़ा रहे हैं बल्कि पृथ्वी को घेरी हुई ओजोन पर्त को भी छेद रहे हैं और अल्ट्रावायलेट सूर्य की नुकसानदेह किरणों को पृथ्वी पर आनेका रास्ता दे रहे हैं। पृथ्वी के साथ जितना अनाचार मनुष्य कर रहा है और स्वयं को विकसित होने का गर्व पाल रहा है, उसका परिणाम भी अंतत: भोगना तो उसे ही है।

सारी दुनिया के हुक्मरान अच्छी तरह से सारी परिस्थितियों को समझते हैं और विश्व सम्मेलन करते हैं लेकिन निर्णय ले नहीं पाते। क्योंकि तथाकथित विकास उन्हें ऐसा करने से रोकता है। जिस स्थिति की कल्पना ये 2035 में कर रहे थे, उसके लक्षण तो 2010 में ही दिखायी देने लगे हैं। भारत में गंगोत्री पीछे तेजी से सरकती जा रही है तो चीन के तिब्बत में भूकंप तबाही ला रहा है। आतंकवाद, परमाणु हथियार जैसी समस्याओं का कोई हल दिखायी नहीं देता। विश्व के हुक्मरान मिलते हैं लेकिन बातें होती हैं। त्वरित उपचार, वह भी ईमानदारी से होता तो दिखायी नहीं पड़ता। दिल्ली में ही कबाड़ी बाजार में कोबाल्ट 60 रेडियोधर्मिता फैलाता है। यह कहां से आया, पता नहीं चलता। फिर दूसरा ऐसा ही कोबाल्ट पकड़ा जाता है। कबाड़ी अस्पताल में पड़े हैं। कहा जा रहा है कि लंबे उपचार की जरुरत है। रेडियोधर्मिता एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भी फैलती है।

फिर भी बिजली जरुरी है तो परमाणु बिजली घर बनाए जा रहे हैं। ये परमाणु बिजली घर कितनी सुविधा देंगे यह अलग बात है लेकिन चूक हुई तो कितनों के प्राण हर लेंगे, इस पर विकास पुरुष चिंता नहीं करना चाहते। एक ऐसा विधेयक संसद से पास होने की प्रतीक्षा कर रहा है कि दुर्घटना होने पर मुआवजे के तौर पर 500 करोड़ रुपए बिजली घर बनाने वाली कंपनी देगी और बाकी मुआवजा भारत सरकार देगी। ये परमाणु संयंत्र भी गर्मी ही पैदा करेंगे। क्या ऐसा नहीं लगता कि आदमी विकास के दुष्चक्र में फंसकर बड़ी कीमत अदा कर रहा है। विज्ञान वरदान के बदले अभिशाप साबित होने की तैयारी कर रहा है। सबसे चिंताजनक तो यह है कि सब जान समझ कर भी विकास के पहिए को तेजी से घुमाने का प्रयास किया जा रहा है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक: 18.04.2010

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

शशि थरूर की सारी बातें लफफाजी के सिवाय और कुछ नहीं

विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर को क्यों कांग्रेस बर्दाश्त कर रही है? जब से वे विदेश मंत्री बने हैं तब से ही अपने बेलाग विचारों के कारण वे कांग्रेस की छवि को नुकसान ही पहुंचा रहे हैं। कभी हवाई जहाज के इकानामी क्लास को भेड़ बकरियों का बताकर तो कभी सऊदी अरब को पाकिस्तान भारत में मध्यस्थता की बात कर विवाद खड़ा करने के सिवाय शशि थरूर ने और क्या किया है? अब आईपीएल में अपनी टांग अड़ा रहे हैं। कोच्चि टीम को लेकर वे विवाद के घेरे में हैं। अपनी महिला मित्र सुनंदा पुष्कर को कोच्चि टीम में बिना एक पैसा लगाए 17 प्रतिशत का हिस्सेदार बनाने का आरोप उन पर है। आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी तो कह रहे हैं कि वे कोच्चि टीम को अबूधाबी ले जाना चाहते हैं। आईपीएल की तीसरी श्रृंखला चल रही है और आईपीएल ने दो नई टीमें बेची हैं। इसमें से ही एक कोच्चि टीम है जिसने पंद्रह सौ करोड़ रूपये से अधिक में मालिकाना हक खरीदा है।

आयकर विभाग को भी दो श्रृंखला तक खोज खबर लेने की जरूरत महसूस नहीं हुई कि अरबों का धंधा करती आईपीएल की जांच की जाए कि आखिर पैसा आ कहां से रहा है और जा कहां रहा है? शायद शशि थरूर विवाद नहीं होता तो आयकर विभाग को भी जरूरत महसूस नहीं होती, जांच की। शशि थरूर कांग्रेस की छवि खराब कर रहे हैं और इसमें बड़ा हाथ ललित मोदी का है तो आयकर विभाग ललित मोदी को घेरने के लिए प्रमाणों की जुगत में है। भले ही घोषित रूप से क्रिकेट भारत का राष्टरीय खेल न हो लेकिन क्रिकेट के प्रति भारतीयों की उत्सुकता ने ही क्रिकेट को फलने फूलने का अवसर दिया और क्रिकेट आईपीएल के द्वारा बड़ा उद्योग ही साबित हो रहा है। न तो विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का कोई असर है, इस खेल पर, न ही किसी भी अन्य क्षेत्र की तुलना में धन की बरसात कम हो रही है क्रिकेट पर। कहा तो यह जा रहा है कि एक सीजन आईपीएल का सब तरह के धंधों को मिलाकर एक लाख करोड़ रूपये से अधिक का कारोबार करता है.

पिछली बार जब देश में चुनाव हो रहे थे तब गृह मंत्रालय ने सुरक्षा के कारणों से आईपीएल टू के लिए इजाजत नहीं दी तो आईपीएल दक्षिण अफ्रीका चला गया और वहां भी शान से आईपीएल के मैच हुए। आईपीएल जब प्रारंभ हुआ तब सौ दो सौ करोड़ में टीमें नीलामी में बिकी थी और 3 वर्ष के लिए खिलाडिय़ों की भी नीलामी हुई थी। करोड़ों में खिलाड़ी भी बिके थे लेकिन 2 वर्ष में ही तीसरा वर्ष आते आते टीम की कीमत 15 सौ से 18 सौ करोड़ रूपये हो गई। आखिर इतनी महंगे टीम बिकने का कारण आर्थिक नहीं है तो क्या है? मैदान में दर्शकों के लिए भले ही खेल खिलाडिय़ों का हो लेकिन मैदान के बाहर यह कमायी का खेल पूंजीपतियों, राजनीतिज्ञों, अभिनेता, अभिनेत्रियों के लिए हो गया। जहां इतना ज्यादा धन होगा, वहां स्वाभाविक है कि सब कुछ ठीक ठाक तो नहीं होगा।

आईपीएल के कमिश्रर ललित मोदी के विषय में ही कहा जा रहा है कि विद्यार्थी के रूप में जब विदेश में पढ़ रहे थे तो 10 हजार डालर प्राप्त करने के लिए अपराध करने से भी ये नहीं चूके थे। विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर ने अपना अधिकांश जीवन विदेश में व्यतीत किया है। ये एक पत्नी को तलाक दे चुके हैं। दूसरी को देने जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि तीसरी के लिए ही इन्होंने कोच्चि टीम में अपने पद का दुरूपयोग किया। पहली बार सांसद बने और कांग्रेस ने न जाने क्या सोचकर इन्हें अपना विदेश राज्यमंत्री बना दिया।
राज्यमंत्री बनते ही इन्होंने अपना ठिकाना पंचसितारा होटल में बनाया और जब हल्ला मचा तब प्रणव मुखर्जी की घुड़की के बाद होटल छोड़ा। उस पर कहने से नहीं चूके कि होटल का बिल ये अपनी जेब से भर रहे थे?

कभी कांग्रेस गरीबी हटाओ का नारा लगाकर सत्ता पर काबिज होती थी और आज कांग्रेस का मंत्री एक ऐसा पूंजीपति है जो पद का दुरूपयोग कर आईपीएल की टीम खरीदने में मदद करता है। कांच की गिलास को रूमाल से छुपाकर पता नहीं क्या सरेआम पार्टी में पीता है? यदि छुपाने वाली वस्तु न हो तो रूमाल से गिलास ढंकने की जरूरत क्या थी? यह हर बार गलती करता रहा और प्रधानमंत्री हर बार इसे माफ करते रहे लेकिन अब बात बहुत आगे बढ़ गयी है। संसद में दिए गए वक्तव्य को सरकार का वक्तव्य न मानकर एक सांसद का वक्तव्य माना गया और पूरा विपक्ष इन्हें मंत्रिपरिषद से बर्खास्त करने की अपनी मांग पर अड़कर सदन के गर्भगृह में खड़ा हो गया। तृणमूल कांग्रेस तो संसद में आ नहीं रही है और लालू मुलायम ने भी सरकार का समर्थक होने के बावजूद विपक्ष का ही साथ दिया। आईपीएल की महिमा देखिए कि संसद की कार्यवाही इसी को लेकर ठप्प की जा रही है। यह इतना बड़ा मुद्दा है कि अन्य मुद्दे पीछे रह गए। यह सब इसीलिए हो रहा है क्योंकि भारत सरकार का एक मंत्री इसमें संलग्र पाया जा रहा है। शायद शशि थरूर को अभिमान हो गया था कि वे चूंकि सरकार में हैं, इसलिए वे जैसा चाहेंगे वैसा आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी करने के लिए बाध्य होंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विदेश में हैं, और उन्होंने कहा है कि वे वापस लौटकर सभी तथ्यों की जानकारी लेकर आगे की कार्यवाही करेंगे। विपक्ष भी उनके वापस आने और उनके विचार जानने के बाद आगे की रणनीति पर विचार करेगा। लेकिन अभी तक के घटनाक्रम में कांग्रेस के किसी भी नेता ने शशि थरूर के पक्ष में कुछ नहीं कहा है जबकि शशि थरूर तीन तीन बार प्रणव मुखर्जी से मिल चुके हैं। वे सोनिया गांधी से भी मिल चुके हैं लेकिन कहीं से भी उन्हें रक्षात्मक सहायता नहीं मिली। अब सब कुछ मनमोहन सिंह पर निर्भर करता है। मामला इसलिए गंभीर है कि शशि थरूर की मित्र सुनंदा पुष्कर को बिना एक पैसा लगाए 70 करोड़ रूपये की हिस्सेदारी कोच्चि टीम में दी गई है। सुनंदा पुष्कर का कहना है जो दुबई में रहती है कि उन्हें हिस्सेदारी उनके काम के मेहनताने के बदले में दी गई है। पता नही कंपनी के लिए वे ऐसा क्या काम करेगी ? जिसके लिए उन्हें इतनी ज्यादा इज्जत दी जा रही है। सुनंदा स्वीकार करती हैं और शशि थरूर भी स्वीकार करते हैं कि वे दोनों आपस में अच्छे मित्र हैं। इससे प्रतिध्वनित तो यही होता है कि मित्र के पद को लाभ पहुंचाने की कीमत सुनंदा को दी गई।

अब कितना भी शशि थरूर अपने को निर्दोष बताएं लेकिन संदेह की सुई उन्हीं पर टिकी हुई है। वे कहते हैं कि केरल को एक टीम मिले और केरल का गौरव बढ़े यही उनका उद्देश्य था लेकिन कोच्चि टीम होने के बाद भी केरल के कितने खिलाड़ी इस टीम में खेलेंगे और नाम भर रख लेने से केरल कैसे गौरवान्वित होगा ? अरबों में जिन्होंने टीम खरीदी है, उन्होंने इसलिए तो टीम खरीदी नहीं है कि वे केरल के खिलाड़ी ही अपनी टीम में खिलाएंगे। क्योंकि हार जाएं, यह दूसरी बात है लेकिन हर कोई चाहता तो यही है कि उसकी टीम जीते। इसीलिए तो विदेशी खिलाडिय़ों को भी भारी कीमत पर खरीदा जाता है। शशि थरूर की सारी बातें सिवाय लफफाजी के और कुछ नहीं। कांग्रेस उन्हें टिकाए रखने का निर्णय लेती है तो नुकसान कांग्रेस का ही होगा।

- विष्णु सिन्हा
17-04-2010

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

नक्सलियों की किससे मिली भगत है यह जनता को अच्छी तरह से पता है

लोकसभा में छत्तीसगढ़ के इकलौते कांग्रेसी सांसद चरणदास महंत ने दंतेवाड़ा की घटना के विषय में कहा कि जवानों को बुलेट प्रूफ जैकेट मुहैया नहीं कराया गया। सीआरपीएफ को हथियार, वर्दी, बुलेट प्रूफ जैकेट देने का काम राज्य सरकार का नहीं है। फिर खबर तो यह है कि जवानों के मृत शरीर से बुलेट प्रूफ जैकेट तक नक्सली उतार कर ले गए। ऐसी स्थिति में चरणदास महंत के आरोपों का क्या औचित्य रह जाता है? चरणदास महंत लोकसभा में लालूप्रसाद यादव को बता रहे थे कि वे एमएससी, एमए, लॉ एवं पीएचडी हैं। उनके नाम चरणदास से उन्हें बिना पढ़ा लिखा न समझा जाए। वे मध्यप्रदेश के गृहमंत्री भी रह चुके हैं। इतना परिचय देने का तो यही अर्थ निकलता है कि दूसरी बार लोकसभा में पहुंचे चरणदास महंत को अभी ठीक से लोकसभा सदस्य पहचानते भी नहीं। भाजपा पर आरोप लगाते हुए चरणदास महंत ने ऐसे आरोप लगाए कि भाजपा के छत्तीसगढ़ के सांसद उनके विरूद्घ संसद में खड़े हो गए और चरणदास महंत के आरोपों को नियमों के तहत कार्यवाही से निकाल दिया गया।

मध्यप्रदेश के गृहमंत्री, छत्तीसगढ़ के प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और बाद में कार्यकारी अध्यक्ष के पद को सुशोभित करने वाला व्यक्ति जब कांग्रेस की तरफ से लोकसभा में बोलने के लिए खड़ा हुआ तो बार बार पानी पीते हुए दिखायी पड़ा। उन्होंने भाजपा पर आरोप लगाया कि नक्सलियों से उसकी मिली भगत है। बस्तर की जो 12 में से 11 सीटें भाजपा ने जीती है तो वह नक्सलियों से मिली भगत के कारण जीती है। जबकि यह तथ्य सबको अच्छी तरह से पता है कि पहली बार राज्य में कोई सरकार नक्सलियों से जूझ रही है तो वह डा. रमन सिंह की ही सरकार है। यदि डा. रमन सिंह की भाजपा सरकार की नक्सलियों से मिली भगत होती तो वह सलवा जुडूम का समर्थन ही क्यों करती? बार बार केंद्र सरकार को नक्सली समस्या की गंभीरता से अवगत कराने की कोशिश ही क्यों करती? बार बार डा. रमन सिंह केंद्र सरकार से क्यों कहते कि यह अकेले छत्तीसगढ़ राज्य की समस्या नहीं है बल्कि कई राज्यों में फैली समस्या है और केंद्र सरकार जब तक सभी राज्यों को एक साथ जोड़कर संयुक्त कार्यवाही नहीं करती तब तक समस्या से निपटा नहीं जा सकता।
बस्तर की जो 12 में से 11 सीटें भाजपा ने जीती है, वह नक्सलियों से मिली भगत के कारण नहीं जीती है बल्कि इसलिए जीती है, क्योंकि पहली बार किसी सरकार पर आदिवासियों ने नक्सल समस्या से मुक्त कराने के लिए विश्वास प्रगट किया है। विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में छत्तीसगढ़ में भाजपा को जो आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में समर्थन मिला है, उसका कारण भी यही है। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह आज तपती दोपहरी में वातानुकूलित कक्षों में नहीं बैठे हैं बल्कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जाकर चौपाल पर बैठकर ग्रामीणों की समस्या हल कर रहे हैं। कांग्रेसी छत्तीसगढ़ के क्या कर रहे हैं? लोगों को सरकार के विरूद्घ जागरूक करने का काम कर रहे हैं और इसके लिए वे एक दिनी धरना देकर और राज्यपाल को ज्ञापन देकर कि सरकार को बर्खास्त किया जाए, कर्तव्य की इतिश्री कर रहे हैं। पिछली बार अकेले लोकसभा के लिए अजीत जोगी चुने गए थे, इस बार उनकी पत्नी ने चुनाव लड़ा तो वह हार गयी और चरणदास महंत अकेले 11 में से लोकसभा के लिए जीत पाए। यदि नक्सलियों से मिली भगत से ही चुनाव जीतना आसान होता तो कांग्रेस को क्या समस्या थी ? जबकि नक्सलियों से जूझते और सलवा जुडूम के पक्ष मे खड़े डा. रमन सिंह की आलोचना करने में कांग्रेस का एक गुट बढ़ चढ़कर आगे रहा। मानवाधिकार की वकालत करने वाले भी राज्य सरकार को ही दोषी करार देते रहे लेकिन 76 जवानों की हत्या के मामले में आंसू बहाने के लिए कोई सामने नहीं आया। दिग्विजय सिंह जैसे असफल कांग्रेसी नेता अपनी ही पार्टी के चिदंबरम को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। जो हर समस्या में राजनैतिक लाभ ही तलाशते हैं तो देश के साथ क्या कर रहे हैं, यह नहीं समझते, ऐसा तो नहीं माना जा सकता। ये वही दिग्विजय सिंह हैं जो अपने विधायकों से कहा करते थे कि 5 वर्ष के काम पर वोट नहीं मिलते बल्कि रणनीति पर वोट मिलते हैं। चरणदास महंत इन्हीं के तो शिष्य हैं और गृहमंत्री के रूप में इनकी कितनी चलती थी, सरकार में, यह छत्तीसगढ़ के लोगों को अच्छी तरह से पता है।

चरणदास महंत यह दावा कर रहे है कि इनके गृहमंत्री रहते नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हिसक घटनाएं नहीं हुई। बालाघाट के पास जो नेता मारा गया था, वह हिंसक घटना नहीं थी। फिर जब नक्सलियों के रहमोकरम पर आदिवासियों को पूरी तरह से छोड़ दिया गया था तब हिंसक घटनाएं कम हुई तो आश्चर्य की क्या बात ? आज भी नक्सली यही मांग तो कर रहे हैं कि उनके विरूद्घ चलाया जा रहा सशस्त्र बल का आपरेशन बंद किया जाए। मतलब साफ है कि उनके प्रभाव वाले क्षेत्र में सरकार हस्तक्षेप न करे। तब एकदम शांति होगी। क्या कोई भी सरकार ऐसी शांति पसंद करेगी? जैसे नक्सलियों का प्रभाव क्षेत्र बढ़ता जाए, वैसे वैसे सरकार सिमटती जाए तो नक्सली जो कह रहे है कि सन 2050 तक तक वे पूरे भारत में अपना शासन कायम कर लेंगे, इसके लिए सरकारें तैयार हैं, क्या ?

यह तो तय है कि अभी जो जनता के नुमाइंदे बने लोकसभा और विधानसभा में बैठे हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों में बैठे हैं। इनमें से अधिकांश आज से 40 वर्ष बाद 2050 में शायद ही जीवित बचें लेकिन इनके बाल बच्चे तो निश्चित रूप से इसी भारत में रहेंगे। आज बैठे लोगों को ही तय करना है कि वे अपने बाल बच्चों के लिए कैसा भारत छोडऩा चाहते हैं? आज जो नक्सली नेता हैं या नक्सली लड़ाके वह भी 40 वर्ष में बुजुर्ग हो जाएंगे और 40 वर्ष बहुत बड़ा समय होता है। या तो देश की नई पीढ़ी का भविष्य उज्जवल होगा या फिर दरिद्र। यदि इसी तरह से विभाजित विचारों से समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया जाएगा और व्यक्तिगत राजनैतिक लाभ के लिए एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का खेल चलता रहेगा तो एकता की ताकत से जिस तरह से राष्ट्रीय समस्याओं से निपटा जाना चाहिए, उस तरह से निपटना कठिन होगा।
प्रतिपक्ष में होने के बावजूद भाजपा गृहमंत्रीके साथ खड़ी दिखायी दे रही है। जबकि कुछ कांग्रेसी गृहमंत्री की नीतियों से सहमत नहीं हैं। हालांकि अभी तक पार्टी असहमत नेताओं के साथ खड़ी नहीं दिखायी दे रही है और गृहमंत्री ने स्वयं कहा है कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने जिस तरह से उनका समर्थन किया है, उसके लिए वे कृतज्ञ हैं। नक्सलियों के विरूद्घ अभियान बंद नहीं होगा। वे हथियार छोड़ दें तो वार्ता की जा सकती है। विकल्प खुला हुआ है और कितनी विनम्रता दिखाए सरकार। नक्सलियों से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी सरकार में बैठे लोगों की नहीं है। उनके कृत्यों से सहमति का तो प्रश्न ही नहीं उठता। कोई भी सरकार को बंदूक के बल पर झुकाकर अपने को सही सिद्घ करना चाहे तो सरकार उसे सही नहीं मान सकती। सरकार ही क्यों, कोई भी सही नहीं मान सकता।

- विष्णु सिन्हा
16-04-2010

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

मध्यप्रदेश में कांग्रेस को सत्ताच्युत करने वाले दिग्विजयसिंह की सलाह पर ध्यान देना बुद्धिमानी नहीं

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कहते है कि नक्सलवाद को कानून और व्यवस्था की समस्या समझना गलत है। वे गृहमंत्री पी. चिदंबरम से सहमत नहीं है। दिग्विजय सिंह से पूछा जाना चाहिए कि जब वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री 10 वर्ष तक थे तब उन्होंने इस समस्या से राज्य को मुक्त क्यों नहीं कराया? तब तो छत्तीसगढ़ भी उनके ही अधीन था। दिग्विजयसिंह के शासन का नतीजा है कि पिछले दो चुनावों में कांग्रेस मध्यप्रदेश में ही नहीं छत्तीसगढ़ में भी हारती रही है। मुख्यमंत्री रहते दिग्विजय सिंह ने प्रण किया था कि यदि वे चुनाव हार गए तो 10 वर्ष तक सरकारी पद ग्रहण नहीं करेंगे। उन्हें अच्छी तरह से पता था कि 10 वर्ष तक तो कांग्रेस मध्यप्रदेश में सत्ता में लौटने वाली नहीं हैं। उन्होंने राज्य की जो दुर्दशा कर रखी थी उससे जनता इतनी नाराज थी कि वह कांग्रेस को सत्ता में वापस देखना किसी भी हाल में पसंद नहीं करती और जनता ने यही किया। तमाम तरह के भाजपा में मध्यप्रदेश में विवाद के बावजूद जनता ने सत्ता भाजपा को ही सौंपी।

नक्सली समस्या भी तो दिग्विजय सिंह सरकार की ही देन कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। दिग्विजय सिंह ने ऐसा कुछ नहीं किया। जिससे नक्सल समस्या कानून और व्यवस्था की समस्या न लगे। जनता के असंतोष की समस्या लगे। यदि यह कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है तो इसका अर्थ होता है कि यह राजनैतिक समस्या है। यह राजनैतिक समस्या है तो पिछले 30-40 वर्षों में कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने इस समस्या को हल क्यों नहीं किया? छत्तीसगढ़ के पूर्व कांग्रेसी अजीत जोगी ने तो कहा था कि आदिवासियों के लिए सरकारों ने जो खर्च किया, वह सीधे-सीधे आदिवासियों को ही बांट दिया जाना तो प्रत्येक के हिस्से में 2 करोड रुपए आते। ऐसा हो नहीं पाया तो दोषी कौन है? आज जो समस्या स्पष्ट
रुप से कानून और व्यवस्था की समस्या बन गयी है, उसका दोष भी तो कांग्रेस के ही माथे पर है।

आंध्रप्रदेश में नक्सलियों को नियंत्रित किया गया तो ग्रेहाऊंड सशस्त्र बल बना कर। धीरे-धीरे नक्सलियों के प्रभाव के क्षेत्र को मुक्त कराया आंध्रप्रदेश सरकारों ने। पश्चिम बंगाल को भी नक्सलियों से कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने मुक्त कराया था तो बंदूक के दम पर। पंजाब से आंतकवाद का सफाया किया गया तो वह भी बंदूक के ही दम पर। आज गृहमंत्री पी.चिदंबरम दोनों तरफ से मुकाबला कर रहे हैं। एक तरफ नक्सली है तो दूसरी तरफ कांग्रेसी। नक्सलियों के विरुद्ध ग्रीन हंट आपरेशन ममता बेनर्जी और नीतीश कुमार को पसंद नहीं है तो उसका कारण उनके प्रदेशों में निकट भविष्य में होने वाला चुनाव है लेकिन दिग्विजय सिंह और छत्तीसगढ़ के चंद कांग्रेसियों की राय अलहदा है चिदंबरम से तो उसका कारण भी स्पष्ट है। यदि कल को नक्सल समस्या से क्षेत्र मुक्त हो गया तो श्रेय के हकदार चिदंबरम बनेंगे। यहां तक तो ठीक है। क्योंकि कांग्रेसी गृहमंत्री को श्रेय मिले तो कांग्रेस इसका लाभ राजनैतिक रुप से उठा सकती है लेकिन श्रेय साथ ही डॉ. रमन सिंह को भी मिले तो यह सिद्ध होगा कि कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों की तुलना में भाजपा का मुख्यमंत्री अधिक योग्य है। उसकी सोच ज्यादा कारगर है।

दिग्विजय सिंह की टिप्पणी पर कांग्रेस प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने आपत्ति प्रगट की है। सार्वजनिक रुप से बयान को उन्होंने गलत बताया है। कांग्रेस का महासचिव यदि सरकारी नीति के विरुद्ध कोई बयान देता है तो इससे पार्टी की ही छवि खराब होती है। जनार्दन द्विवेदी का स्पष्ट कहना है कि लोकतांत्रिक देश में अपने निजी विचार व्यक्त करने का अधिकार सभी को है लेकिन सार्वजनिक रुप से विचार व्यक्त करने के बदले पार्टीफोरम में विचार व्यक्त करना चाहिए। दिग्विजयसिंह यह पहली बार कह रहे हैं, ऐसा भी नहीं। पहले भी मायावती के विरुद्ध वे जोश में कह बैठे थे कि उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि सीबीआई उनके पास है। आजमगढ़ मे जाकर आतंकवादियों के पक्ष में बोलकर वे वोट बैंक बटोर रहे थे। जो शख्स मध्यप्रदेश में पूरी तरह से असफल हो गया, उसे उत्तरप्रदेश का इंचार्ज बना कर कांग्रेस कुछ प्राप्त तो कर नहीं सकेगी लेकिन राहुल गांधी के अथक प्रयासों को किसी मोड़ पर दिग्विजय सिंह के कारण नुकसान हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। जो व्यक्ति अपने छोटे भाई को कांग्रेस से भाजपा में जाने से नहीं रोक सका, वह जनता को कैसे कांग्रेस के पक्ष में कर सकेगा?

फिर खबर है कि आजकल उत्तरप्रदेश प्रभारी के रुप में ये राहुल गांधी के भी प्रमुख सलाहकार हैं। उनसे सतर्क रहने की जरुरत है। छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद जब दिग्विजयसिंह छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री चुनवाने आए थे तब उनके साथ कांग्रेसियों ने ही जो व्यवहार किया था, वही काफी है, समझने के लिए कि उनका कांग्रेसियों पर कैसा प्रभाव है? आश्चर्य तब होता है जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस के पतन के लिए जिम्मेदार व्यक्ति गृहमंत्री को सलाह देने लगता है। गृहमंत्री की खुलेआम आलोचना करने लगता है। क्या उसे इसका अधिकार कांग्रेस ने दिया है? अभी भी समय है। कांग्रेस आलाकमान को दिग्विजय सिंह से सावधान रहने की जरुरत है। ये अपने राजनैतिक गुरु अर्जुनसिंह के नहीं हुए तो ये किसके हितैषी हो सकते हैं।

चिदंबरम और डॉ. रमन सिंह दृढ़ प्रतिज्ञ दिखायी दे रहे है। नक्सली जब युद्ध थोप रहे हैं तब उनसे लडऩे के सिवाय चारा क्या है? इस देश में समस्याओं को हल करने की क्षमता रखने वाले नेता हैं तो राजनैतिक लाभ के लिए समस्या को खड़ा करने वाले नेता भी हैं। जिन्हें समस्या सत्ता प्राप्त करने का साधन दिखायी देता है। कितनी अच्छी बात कहते हैं कि गोली पुलिस की चले या नक्सली की, लगनी भारतीय नागरिक को है। पुलिस, नक्सली, नागरिक सभी भारतीय हैं। कोई संविधान और कानून के अनुसार चलता है और कोई अपना संविधान या कानून चलाना चाहता है। किसी के लिए कानून सर्वोच्च है और कोई कानून की धज्जियां उड़ा रहा है। फिर भी धज्जियां उड़ाने वाला, हजारों लोगों का कत्ल करने वाला कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं है। इस तरह से यदि दृष्टि और दर्शन निर्मित किया जाएगा तो फिर जेल में बंद तमाम अपराधियों को भी छोड़ देना चाहिए। क्योंकि सभी के पास उनकी दृष्टि में अपराध के लिए जायज कारण हैं परंतु कानून ऐसे कारणों को नहीं मानता और अपराध सिद्ध होने पर सजा देता है।

पुलिस तो नक्सलियों को सीधे गोली नहीं मारती। पहले पकडऩे की कोशिश करती है। गोली तो चलाने के लिए पुलिस तभी बाध्य होती है जब नक्सली गोली चलाते हैं। उसे आत्मरक्षा में गोली चलाना पड़ता है। नक्सलियों की तरह पुलिस भी कानून की परवाह न कर गोलियां ही सिर्फ चलाए तो कोई नक्सली पकड़ा न जाए बल्कि सीधा मार दिया जाए। गृहमंत्री ने ही नक्सलियों के पुनर्वास की घोषणा की है। हथियारों तक को जमा करने पर उसकी कीमत तक देने की बात की है। जो आत्मसमर्पण करेंगे, उन्हें मासिक धन दिया जाएगा। यह नक्सल समस्या का सामाजिक पहलू है। दूसरा पहलू कानून व्यवस्था का है और नक्सली हिंसा ही करने पर उतारु होंगे तो जवाब तो देना ही पड़ेगा। एक असफल व्यक्ति की सलाह पर कान देने की जरुरत नहीं समझना चाहिए, सरकार को।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 15.04.2010

चाहे शब्दों से चाहे हावभाव से, संवेदना अभिव्यक्तनहीं करेंगे तो पता कैसे चलेगा?

नैतिक कारणों से इस्तीफा देने के लिए लाल बहादुर शास्त्री और माधवराव सिंधिया का नाम लिया जा रहा है। कहां लाल बहादुर शास्त्री और कहां आज के कांग्रेसी। कोई मुकाबला है, क्या? एक ट्रेन दुर्घटना पर रेलमंत्री की हैसियत से इस्तीफा देने वाले लाल बहादुर शास्त्री का नाम तो इतिहास में स्वर्णाक्षर में लिखा गया। कोई परिवारवाद लाल बहादुर शास्त्री ने नहीं चलाया। प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए, अपने परिवार के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जो आज कांग्रेसी कर रहे हैं। फिर वह व्यक्ति नैतिकता के आधार पर लाल बहादुर शास्त्री का नाम लेता हुआ तो कहीं से भी उचित नहीं लगता जिसके मुख्यमंत्री रहते एक नेता की हत्या हुई और प्राथमिकी उसके और उसके पुत्र के नाम से दर्ज हुई। जिसकी जाति को लेकर अभी भी न्यायालय में मुकदमा चल रहा है। पति पत्नी तो विधायक हैं ही, पुत्र को राज्यसभा में भेजने की इच्छा रखते हैं।

छत्तीसगढ़ के बहुत सारे कांग्रेसी यही तो पूछते हैं कि सारे के सारे पद पर ये बैठ सकते तो किसी अन्य को कोई पद नसीब नहीं होता। आज छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जो दुर्दशा है उसके लिए कांग्रेसी स्वयं अपनी चर्चा में जवाबदार उसी व्यक्ति को मानते हैं। सोनिया गांधी ने मुख्यमंत्री के रूप में उसका चयन न किया होता तो कांग्रेस की प्रदेश में यह दुर्दशा नहीं होती। कांग्रेस से जनता की कम नाराजगी है बनस्बित की इस व्यक्ति से। कहा तो यहां तक जाता है कि जब तक यह व्यक्ति सामने रहेगा, कांग्रेस का समर्थन जनता करने वाली नहीं। नौकरशाही से राजनीति में आए इस व्यक्ति ने सत्ता सिंहासन पर बैठकर नौकरशाही की तरह ही सरकार चलाने की कोशिश की। परिणाम यह निकला कि कांग्रेस के हाथ से छत्तीसगढ़ की सत्ता ऐसी निकली कि वापसी के कोई अवसर नहीं दिखायी पड़ते। लोग तो यहां तक कहते है कि डा. रमनसिंह तीसरी बार भी चुनाव जितवाने में सफल हो जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

यह कहते है कि संवेदना जताने का नहीं महसूस करने और अभिव्यक्त करने का भाव होता है। जब भी कोई किसी भाव को महसूस करता है तो या तो उसे शब्दों से अभिव्यक्त करता है या अपने हावभाव से। मुख्यमंत्री भी यही कह रहे है कि भाव कहीं से भी व्यक्त नहीं हुआ। जब रायबरेली और अमेठी के जवान मारे गए तो उनके अंतिम संस्कार में ही सोनिया या राहुल उपस्थित होते तो बिना कहे भी भाव अभिव्यक्त हो जाता। न सही अंतिम संस्कार में उसके बाद भी शहीद जवानों के परिवारों से सोनिया राहुल के संपर्क का कोई समाचार तो नहीं। यह समाचार जरूर है कि दलितों को आकर्षित करने के लिए राहुल गांधी उत्तरप्रदेश के अंबेडकर नगर से यात्रा का शुभारंभ कर रहे हैं। जिससे मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगायी जा सके। उत्तरप्रदेश में करीब 21 प्रतिशत दलित हैं और मायावती की सबसे बड़ी ताकत भी यही हैं। राहुल गांधी समझते हैं कि दलित वोट बैंक में से कुछ भी अपने हिस्से में किया जा सका तो अपनी ताकत बढ़ेगी और मायावती की कमजोर होगी। इसी कारण तो राहुल ने दलितों के यहां रात्रि में रूकना और भोजन करना अपने लोकसभा क्षेत्र में प्रारंभ किया था।

वे शिवसेना की चुनौती का सामना करने के लिए मुंबई की लोकल ट्रेन में यात्रा करते हैं। लोग उनकी तारीफ भी करते हैं लेकिन बस्तर में नक्सलियों के द्वारा सशस्त्र जवानों की हत्या करने पर वे बस्तर की तरफ रूख नहीं करते। जबकि विधानसभा चुनाव के पूर्व वे बस्तर की यात्रा कर चुके हैं। बहुत घुल मिलकर आदिवासियों से चर्चा की लेकिन चुनाव परिणाम में उसका असर नहीं दिखायी पड़ा। इस बार तो स्थानीय निकाय के चुनावों में तीन नगर निगमों पर कांग्रेस का कब्जा हुआ लेकिन कब्जा करने वाले नए नेता हैं। बिना बड़े नेताओं का सहयोग लिए इन लोगों ने जनता का विश्वास प्राप्त किया। जनता भी चाहती है कि किसी पार्टी का ऐसा वर्चस्व न हो कि वह तानाशाह हो जाए लेकिन जब वह तुलनात्मक रूप से देखती है तो भाजपा के मुख्यमंत्री को अधिक विनम्र, अधिक प्रजातांत्रिक पाती है। वह कांग्रेस की तानाशाही का समय देख चुकी है। जब बस्तर के आदिवासी नक्सलियों की तानाशाही बर्दाश्त नहीं कर सकते और भाजपा को खुलकर वोट देते हैं तो इससे ही मानसिकता का पता चलता है। बंदूकों के साये में जान जोखिम में डालकर वोट डालना और वह भी तब जब नक्सली वोट डालने से मना करें तो इस साहस को सिर्फ सलाम किया जा सकता है।

छत्तीसगढ़ के लोग विनम्र हैं, सज्जन हैं तो वे अपनी तरह का ही नेता पसंद करते हैं। वे किसी ऐसे आदमी को पसंद नहीं कर सकते जो मुख्यमंत्री को लबरा मुख्यमंत्री कहे। सज्जनता की चादर को तार तार कर दे। सोनिया दाई का नाम लेकर सब कुछ करने की आजादी चाहे। मुख्यमंत्री ने तो चुटकी ली थी कि सोनिया और राहुल ने शोक प्रकट नहीं किया। निश्चित रूप से संवेदना जताने की कोई होड़ नहीं हो रही है लेकिन संवेदना प्रगट करना ऐसे समय पर लोकाचार है। बहुत से काम लोकाचार में करने पड़ते हैं। लोकाचार न हो तब ऐसे प्रश्न खड़े होते है।

नक्सलियों ने 76 जवानों की नृशंस हत्या कर दी। केंद्र सरकार के अधीन है, सीआरपीएफ। जवानों की शिकायत है कि उन्हें वर्षों से वर्दी नहीं मिली। उनकी वर्दी फट गयी है। उन्हें राशन नहीं मिल रहा है, ठीक से। वे आम की चटनी और रोटी खा रहे हैं। यह काम उनके ही बड़े अफसरों का है। किस कारण से इन जवानों की हत्या हुई, इसकी जांच भी गृहमंत्री करवा रहे हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकार में अच्छा समन्वय है। गल्तियां इसलिए नहीं ढूंढी जा रही है कि किसी को सजा दी जाए बल्कि इस लिए ढूंढी जा रही है कि भविष्य में ऐसी गल्तियां न हो। यह कहना कि हजारों जवानों और आदिवासियों की हत्या नक्सलियों ने कर दी, इसलिए राज्य सरकार को इस्तीफा दे देना चाहिए। यदि राज्य सरकार इस्तीफा दे दे तो क्या नक्सली समस्या हल हो जाएगी। केंद्रीय गृहमंत्री तो आरोप नहीं लगा रहे हैं नकि राज्य सरकार के असहयोग के कारण नक्सली फल फूल रहे हैं। नक्सली तक कह रहे हैं कि ग्रीन हंट आपरेशन बंद करो। ऐसा कहने के लिए वे क्यों बाध्य हुए? क्योंकि उनका राजपाठ संकट में है। आज गृहमंत्री चिदंबरम का इस्तीफा केंद्र सरकार स्वीकार करती तो इससे नक्सलियों का मनोबल बढ़ता। ठीक उसी तरह से डा. रमन सिंह इस्तीफा दें तो इससे नक्सली ही सबसे ज्यादा खुश होंगे। दूसरे कांग्रेस के वे नेता जो सत्तारूढ़ होने का ख्वाब देख रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह है कि नक्सलियों और कांग्रेसियों को एक सी खुशी डा. रमन सिंह की सरकार को बर्खास्त करने से होगी? चंद नेता भले ही कुछ भी सोचें लेकिन केंद्र सरकार ऐसा नहीं सोचती। यह बड़ी बात है। क्योंकि वह परिस्थितियों से अच्छी तरह से परिचित है।

- विष्णु सिन्हा
15-04-2010