दिग्विजय सिंह के शासनकाल की कांग्रेसी कितनी भी तारीफ करें लेकिन छत्तीसगढ़ के लोग दिग्विजय सिंह शासनकाल को भूले नहीं हैं। इतने बड़े छत्तीसगढ़ राज्य के इकलौते रायपुर मेडिकल कॉलेज के लिए ही दिग्विजय सिंह ने मात्र 7 करोड़ रुपए देने से इंकार कर दिया था। मेडिकल कॉलेज के छात्रों ने कितने ही दिनों तक हड़ताल की लेकिन दिग्विजय सिंह टस से मस नहीं हुए। छत्तीसगढ़ में बिजली कटौती भी सामान्य सी बात थी। मालवा के खेतों को पानी देने के लिए छत्तीसगढ़ की बिजली काटी जाती थी। छत्तीसगढ़ के चरणदास महंत गृहमंत्री थे लेकिन पुलिस विभाग के अदना से कर्मचारी का भी स्थानांतरण करने का अधिकार उनके पास नहीं था। कांग्रेसी कह रहे हैं कि नक्सली दंतेवाड़ा तक सीमित थे तो बालाघाट में मध्यप्रदेश के परिवहन मंत्री कांवरे कैसे नक्सलियों के हाथ शहीद हुए। रास्ता तो बस्तर से राजनांदगांव होते हुए ही बालाघाट जाता है। मंडला तक जाता है।
दरअसल उस समय नक्सलियों को खुली छूट थी। इसलिए नक्सलियों के किस्से ज्यादा प्रचारित नहीं होते थे। मात्र विकास न होने के कारण नक्सलियों को बस्तर में जगह बनाने की सुविधा नहीं मिली बल्कि पुलिस और शासकीय कर्मचारियों के शोषण के विरुद्ध, अन्याय के विरुद्ध आदिवासियों ने नक्सलियों को आश्रय दिया। तब ऐसा समय भी आया कि शासकीय मशीनरी नक्सलियों के सामने जी हुजुरी करने लगी। असलियत को तोडऩे मरोडऩे से सच छुप नहीं जाता। आंध्र में कांग्रेस सरकार के द्वारा नक्सलियों से मुकाबले की जो बात कही जा रही है, वह भी पूर्ण सत्य नहीं है। क्योंकि चंद्रबाबू नायडू पर सबसे पहले नक्सलियों ने हमला किया। चंद्रबाबू नायडू ने ही नक्सलियों के खिलाफ मुहिम चलायी और नक्सलियों ने तिरुपति में उन पर निशाना साधा। फिर भी मान लें कि कांग्रेस की सरकार ने आंध्रप्रदेश में नक्सलियों पर काबू किया तो ऐसा ही कांग्रेस की सरकार ने मध्यप्रदेश में क्यों नहीं किया? क्यों आदिवासियों को नक्सलियों के रहमोकरम के भरोसे छोड़ दिया। फिर बस्तर में जो नक्सली नेता आए, वे आए तो आंध्रप्रदेश से। मतलब आंध्र में दबाव बढ़ा तो वे बस्तर आए। दोनों जगह कांग्रेस की सरकारें थी तो तालमेल से समस्या का समाधान तो उसी समय हो जाना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ, यही यथार्थ है।
पहली बार छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद भाजपा की सरकार बनी और वह भी आदिवासियों के समर्थन से। आदिवासियों ने ही सलवा जुड़ूम आंदोलन नक्सलियों के विरुद्ध चलाया। यह आंदोलन कांग्रेस राज में आदिवासियों ने क्यों नहीं चलाया? जरुर कोई न कोई बात तो रही होगी। भाजपा की सरकार नक्सलियों की पोषक नहीं हैं, इस बात का विश्वास होने पर ही तो सलवा जुड़ूम आंदोलन चला। यदि आदिवासियों को लगता कि सरकार और नक्सली मिले हुए हैं तो वे आंदोलन कभी नहीं चलाते। क्योंकि ऐसे तो वे सरकार और नक्सलियों के बीच फंस जाते। पहली बार आदिवासियों को लगा कि प्रदेश में ऐसी सरकार हैं जो नक्सलियों का साथ नहीं देगी। आदिवासियों के आंदोलन से उत्साहित होकर कांग्रेस के नेता महेंद्र कर्मा भी सलवा जुड़ूम के साथ जुड़े। उनसे ज्यादा नक्सलियों के विषय में और कौन जानता हैं? वे स्वयं भुक्तभोगी है। अपने परिवार के सदस्यों को उन्होंने नक्सलियों की गोली का शिकार होते देखा है। जब सोनिया गांधी ने महेंद्र कर्मा को विधानसभा में प्रतिपक्ष का नेता बनाया तो कांग्रेसी ही उन्हें हजम नहीं कर पा रहे थे।
भाजपा के वरिष्ठ नेता बलीराम कश्यप ने नक्सलियों के हाथ अपने पुत्र को खोया। उन पर ओछे आरोप लगाये जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ के लोग सत्यता से अच्छी तरह से परिचित है। पहली बार डॉ. रमन सिंह की सरकार ने नक्सलियों के विरुद्ध मुहिम चलायी है। पहली बार केंद्र सरकार के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने माना है कि नक्सली देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा है। तब दिग्विजय सिंह अपना अलग राग अलाप रहे है। वे तो गृहमंत्री चिदंबरम की कार्यप्रणाली पर ही प्रश्रचिन्ह लगा रहे हैं। इससे कांग्रेस की ही छवि खराब हो रही है और छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी दिग्विजय सिंह के पक्ष में राग अलाप रहे हैं। छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आने के ठीक पहले जब दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रुप में छत्तीसगढ़ के भी मुख्यमंत्री थे तब विद्याचरण शुक्ल के फार्म हाउस में कांग्रेसियों ने ही उनकी कैसी विदाई की थी, इसे स्मरण कर लेना चाहिए। जो व्यक्ति अपने राजनैतिक गुरु अर्जुन सिंह का ही वफादार नहीं हुआ, वह किसी के प्रति कितना ईमानदार होगा?
मुख्यमंत्री रहते हुए दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश की ऐसी मिट्टी पलीद की कि आज तक कांग्रेसी वहां सत्ता में लौट नहीं सके। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ठीक कहते हैं कि जब भी दूसरे प्रदेश से मध्यप्रदेश में कोई प्रवेश करता था तो सड़कों की जर्जर स्थिति बता देती थी कि मध्यप्रदेश आ गया। मुख्यमंत्री रहते हुए अपनी कारगुजारियों से दिग्विजय सिंह स्वयं अच्छी तरह से परिचित थे और इसीलिए उन्होंने चुनाव से पहले कहा था कि वे चुनाव हार गए तो 10 वर्ष तक शासकीय पद स्वीकार नहीं करेंगे। क्योंकि वे जानते थे कि 10 वर्ष तक तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस लौटकर आती नहीं। छत्तीसगढ़ अलग राज्य बन गया लेकिन बनने के पहले ही भोपाल में चर्चा गर्म रहती थी कि नक्सल समस्या से ग्रस्त छत्तीसगढ़ राज्य चल नहीं पाएगा और उसे वापस मध्यप्रदेश में मिलाने की मांग की जाएगी। ऐसा कुछ हुआ नहीं और छत्तीसगढ़ ने विकास की ऊंचाइयों को स्पर्श करना प्रारंभ कर दिया।
नक्सली समस्या से भी वह जूझ रहा है। जूझने का सबसे बड़ा कारण तो यही है कि जैसी पुलिस चाहिए थी, वैसी पुलिस छत्तीसगढ़ के पास थी, नहीं। तिनका- तिनका जोड़कर डॉ. रमन सिंह की सरकार आज उस स्थिति में तो पुलिस को ले आयी है कि वह मुकाबले में खड़ी हो सके। सबसे बड़ी बात तो यही है कि डॉ. रमन सिंह केंद्र सरकार को ही समझाने में सफल हो गए कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सली खतरनाक है। जिनका उद्देश्य सन 2050 तक दिल्ली की गद्दी पर कब्जा करना हो और वह भी बंदूक के बल पर वे कितने खतरनाक इरादे रखते हैं, यह केंद्र सरकार नहीं समझेगी तो राज्य सरकारें अकेले क्या कर लेंगी?
आज की तारीख में दिग्विजय सिंह का इस मामले से कोई संबध नहीं है। फिर भी वे टांग अड़ा रहे हैं। क्या वे नक्सलियों के सहारे बिहार का चुनाव जीतना चाहते हैं? क्योंकि उन्होंने स्वयं कहा है कि जो बड़ी बोली लगाता है, नक्सली उसी का समर्थन करते है। जब वे ऐसा कह रहे हैं तो अपने अनुभव से ही कह रहे होंगे। बिहार में चुनाव होना है। राहुल गांधी वहां लगे हुए हैं। फिर भी उन्हें दिग्विजय सिंह जैसे सलाहकारों से सावधान रहना चाहिए। वे इतने ही होशियार होते जितना दिखाने की कोशिश कर रहे हैं तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस की दुर्गति नहीं होती।
-विष्णु सिन्हा
दिनांक : 27.04.2010
मंगलवार, 27 अप्रैल 2010
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दिग्विजय सिंह की तो यह आदत रही है...ठकुरासी यूँ नहीं जाती.
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