यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

शिक्षा का अधिकार कानून कहीं भ्रष्ट व्यवस्था की भेंट न चढ़ जाए

केंद्र सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया है। मनमोहन सिंह बता रहे हैं कि कैसे उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। घर से स्कूल बहुत दूर था और पैदल ही स्कूल जाना आना पड़ता था। मिट्टी तेल की लालटेन में पढ़ाई करना पड़ता था और आज वे उसी पढ़ाई के कारण देश के प्रधानमंत्री हैं। सुनने में कितना अच्छा लगता है। कोई भी पढ़ लिख जाए तो देश का प्रधानमंत्री बन सकता है। वास्तव में अशिक्षा के बावजूद देश में पढ़े लिखों की कमी नहीं है। होशियार तो अच्छी जिंदगी और मोटी तनख्वाह के लालच में देश ही छोड़ देते हैं। बाकी देश में ही विभिन्न नौकरियों में खप जाते हैं या शिक्षित बेरोजगार बन जाते हैं। फिर भी सिर्फ नौकरी की ही दृष्टि से शिक्षा के विषय में विचार नहीं किया जा सकता है। पढऩा लिखना और ज्ञान अर्जित करना मनुष्य के जीवन के उद्देश्यों में से प्रमुख उद्देश्य है। इसलिए शिक्षित होना वर्तमान समाज में जीने के लिए अति आवश्यक है।

स्वतंत्रता के 63 वर्ष बाद भी सरकारें सभी की शिक्षा का पर्याप्त इंतजाम नहीं कर सकी। शायद अब केंद्र सरकार शिक्षा के अधिकार के तहत पर्याप्त इंतजाम करने में सफल हो जाए। आशावादी सरकार का होना अच्छा है। क्योंकि सरकार ही अपनी योजना के प्रति आशावादी नहीं होगी तो जनता को किस तरह से शिक्षा के लिए उत्साहित करेगी। देश में आज भ्रष्टïचार की जो संस्कृति पनपी है, उसके कारण किसी भी योजना के प्रति जनता पूर्ण आशावादी नहीं हो पाती। क्योंकि 63 वर्ष में सरकारों ने स्वप्न तो जनता को बहुत दिखाए लेकिन भ्रष्टïचार ने योजनाओं की क्रूर हत्या में अहम भूमिका निभायी। केंद्र सरकार कह रही है कि वह 5 वर्ष में शिक्षा के अधिकार कानून को लागू करने के लिए डेढ़ लाख करोड़ रुपए खर्च करेगी। मतलब 30 हजार करोड़ रुपए प्रति वर्ष। इस खर्च के साथ सरकार हर बच्चे बच्ची को स्कूल में देखना चाहती है। हर आधे किलोमीटर पर स्कूल। 30 बच्चों पर एक शिक्षक। कहा जा रहा है कि 1 करोड़ बच्चे इस कानून के तहत स्कूलों में और आएंगे। अभी ही स्कूल में शिक्षकों की कमी है और 5-5 कक्षाएं एक ही शिक्षक संभालता है।
नए स्कूल में भर्ती होने वाले बच्चों के लिए ही 3 लाख 33 हजार से अधिक शिक्षकों की जरुरत पड़ेगी। या तो शिक्षकों को कम वेतन देंगे या फिर पूरा वेतन देंगे। 5 हजार रुपए भी प्रतिमाह प्रति शिक्षक देंगे तो 60 हजार रुपए प्रत्येक शिक्षक के लिए चाहिए। इसके साथ ही स्कूल भवन चाहिए। कुर्सी टेबल, बैंच न हो तब भी टाट पट्टी चाहिए। पुस्तकें, कापियां, स्टेशनरी चाहिए। मध्यान्ह भोजन के लिए धन चाहिए। आज कितने ही स्कूलों के पास उचित भवन नहीं है। भवन जो है, उनकी हालत चिंताजनक है। शिक्षक पेड़ के नीचे कक्षाएं लगाते हैं। टायलेट की व्यवस्था नहीं है। है भी तो किसी काम की नहीं। फिर भी सरकार की योजना सफल हो सकती है लेकिन उसके लिए अनुशासित, चरित्रवान अधिकारी तो चाहिए। जिनमें भ्रष्टाचार से लडऩे की शक्ति हो। ऐसे लोग कहां से लाएंगे? जो लोग गरीबों का अनाज चुराने में हिचक महसूस नहीं करते, वे क्या ईमानदारी से इस योजना को लागू करेंगे?

जनता से टैक्स के रुप में उगाहा हुआ धन तो सरकार खर्च कर सकती है लेकिन स्वयं राजीव गांधी के बाद राहुल गांधी कहते हैं कि सरकार 1 रुपया भेजती है तो 15 पैसे पहुंचते हैं। सबसे ज्यादा जरुरी भ्रष्टाचार की व्यवस्था को तोडऩे की है। शिक्षा का अधिकार कानून ही नहीं, किसी भी योजना की सफलता का सारा दारोमदार क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार लोगों का है। शिक्षा के निजीकरण का प्रभाव बढऩे के पहले लोग शासकीय स्कूलों में ही पड़ते थे। तब भी 14 वर्ष तक के सभी विद्यार्थियों की शिक्षा नि:शुल्क ही थी। ट्यूशन फीस के रुप में 6रुपए 14 वर्ष की उम्र पूरी करने के बाद ली जाती थी। इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज की फीस ही 20 रुपए प्रति माह थी। आज सारी व्यवस्था बदल गयी। व्यवसायिक कॉलेजों की फीस हजारों रुपयों से लेकर लाखों रुपये में पहुंच गयी। सरकार ने कानून बनाया है कि केपिटेशन फीस लेने वाले महाविद्यालयों को जुर्माना के साथ जेल की भी सजा होगी। अभी देखना है कि इस कानून से यह व्यवस्था बदली या नहीं। क्योंकि जो इस तरह का धन देने में सक्षम हैं वे अपने बच्चों के लिए धन देने से बाज नहीं आएंगे और धन लेने वालों को जब धन मिले तो वे लेने से परहेज क्यों करेंगे?

कानून बनाना आसान काम है लेकिन कानून को लागू करना? कितने प्रकार के इस देश में कानून हैं। आम आदमी उनमें से कितने कानून को समझता है? कानून को समझने के लिए पढ़ा लिखा होना जरुरी है लेकिन पढ़े लिखे लोगों के लिए भी कानून को समझना इतना आसान है, क्या? अभी ही न्यायालय में इतने मामले हैं कि उनका निपटारा होने में वर्षों लगेंगे। न्यायालय मुकदमों के बोझ से दबे हुए हैं। शिक्षा का अधिकार कानून तो बन गया लेकिन कानून की अवहेलना न होने पर आखिरी रास्ता तो न्यायालय ही होगा और कितने हैं जो न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकेंगे। उसके लिए भी जेब में धन होना चाहिए और न्याय प्राप्त के लिए इंतजार करने का धैर्य। कल ही मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के समक्ष कुछ लोगों ने उपस्थित होकर कहा कि 25 वर्ष पूर्व उनकी जमीन सरकार ने ले ली लेकिन आज तक मुआवजा नहीं मिला। जब सरकार जमीन ले और मुआवजा न दे तब फिर किस से न्याय की उम्मीद करें?

निजी शिक्षा संस्थाओं ने जिन्हें पब्लिक स्कूल कहा जाता है, शिक्षा का अधिकार कानून के प्रावधान का विरोध करना प्रारंभ कर दिया है। प्रावधान यह है कि 25 प्रतिशत सीटें पहली से गरीब बच्चों के लिए आरक्षित रहेगी और उन्हें नि:शुल्क शिक्षा देना होगा। पहली क्या नर्सरी में ही दो तीन वर्ष तक बच्चे को पढ़ाया जाता है तब वह पहली में आता है। कितने ही बड़े नामी गिरामी स्कूलों की नर्सरी की ही फीस 25 हजार रुपए से प्रारंभ होकर वार्षिक लाखों रुपए है। वे किस तरह से अपनी 25 प्रतिशत आय छोड़ सकते हैं। फिर कितने ही स्कूल है जहां मनमानी फीस के बावजूद बच्चों को एडमिशन नहीं मिलता। कई तरह की सिफारिशें लगायी जाती हैं। वे सरकार के आदेश को कैसे स्वीकार कर सकते हैं? उनका कहना स्पष्ट है कि वे 25 प्रतिशत लोगों को नि:शुल्क शिक्षा देंगे तो बाकी 75 प्रतिशत पर इनके खर्चे का भार डालना पड़ेगा या फिर शिक्षा के स्तर में गिरावट होगी। महंगे शिक्षकों के बदले सस्ते शिक्षक रखना पड़ेंगे। सुविधाओं में कटौती करनी पड़ेगी। वे सरकार के आदेश के विरुद्ध सड़क की लड़ाई लडऩे की बात कह रहे हैं तो न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाएंगे। उनका यह भी स्पष्ट कहना है कि वे सरकार से जब कोई सुविधा लेते नहीं तब सरकार का इस तरह से उनके मामले में हस्तक्षेप अनुचित है। स्थिति स्पष्ट है कि सरकार निजी शिक्षा संस्थाओं में शिक्षा के अधिकार कानून को लागू इतनी आसानी से नहीं कर पाएगी। वे तो स्कूल बंद करने की धमकी तक दे रहे हैं। कठिन डगर है पनघट की लेकिन सरकार को शुभकामनाएं तो दी ही जा सकती है।

- विष्णु सिन्हा

दिनांक 02.04.2010

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