सरकार निर्णय तो जनहित में अच्छे से अच्छा लेती है लेकिन पर्याप्त कार्यवाही के अभाव में जनता को उसका लाभ नहीं मिलता। सूचना के अधिकार के तहत नगर निगम रायपुर से किसी निर्मित होने वाले भवन के विषय में जानकारी मांगी जाती है तो नगर निगम का जवाब होता है कि संबंधित भवन निर्माण अनुमति संबंधी दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। नगर निगम के पास भवन निर्माण अनुमति संबंधी दस्तावेज उपलब्ध नहीं लेकिन भवन निर्माण का काम धड़ल्ले से चल रहा है। जबकि इस तरह के निर्माण को अवैध ही माना जाएगा। क्योंकि बिना नगर निगम की अनुमति के भवन निर्माण वैध तो नहीं कहा जा सकता। भवन निर्माण संबंधी सरकार के नियम कायदो में भी विसंगतियों की कमी नहीं है। एक ही स्थान पर किसी को एफएआर 1.5 दिया जा रहा है तो किसी को 2.4। किसी का भवन तीन मंजिल से ज्यादा नहीं बन सकता तो उसी के पड़ोस में 6 मंजिला भवन बन जाता है। हर मंजिल पर निर्माण के बाद अगली मंजिल के निर्माण के पूर्व निगम की अनुमति आवश्यक है लेकिन कौन देख रहा है कि कितना वैध निर्माण है कितना अवैध।
सरकार ने नियम कायदे कानून बना दिए लेकिन अब उसकी व्याख्या तो अधिकारियों के हाथ में चली गयी। नगर निवेशक ले आऊट पास करने में ही महिनों लगाता है। कभी कहता है कि सामने 15 फुट छोड़ो, कभी कहता है कि 20 फुट छोड़ो। जब 2.4 एफएआर है तो इतना निर्माण करना भवन निर्माता का अधिकार होना चाहिए लेकिन नहीं। तरह तरह के अड़ंगे लगाए जाते हैं। भवन की ऊंचाई किसी के लिए 12.5 मीटर तो किसी के लिए 25 मीटर। जो बातें एकदम सीधी और साफ होना चाहिए कि कोई भी आसानी से समझ जाए, ऐसी स्थिति नहीं है। आर्किटेक्ट और इंजीनियर भी नहीं समझते। समझते तो कानून के अनुसार जो वे नक्शा बनाकर नगर निवेशक के सम्मुख प्रस्तुत करते, उसमें बार बार कांट छांट की जरूरत क्यों पड़ती?
सरकार यदि समझती है कि सिर्फ कानून बना देने से ही सब कुछ ठीक ठाक हो जाएगा तो कब का सब कुछ ठीक ठाक हो जाना चाहिए था। सोच की दो धारा है। एक अपराध के बाद अपराधी को पकडऩा और दूसरा ऐसी स्थिति निर्मित करना कि अपराधी अपराध कर ही न सके। अब लंबी चौड़ी लिस्ट समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रही है कि बिल्डर्स से 15 प्रतिशत जमीन जो गरीबों के लिए कानून के तहत छोड़ी जानी चाहिए थी, उसे प्राप्त किया जाए। यह तो जब निर्णय की अनुमति दी गई तब ही प्राप्त की जा सकती थी। तब ही 15 प्रतिशत जमीन सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया होता तो आज बिल्डर्स से मांगने की जरूरत ही क्यों पड़ती? सरकारी गृह निर्माण समिति की जांच की जा रही है। कई बार तो जांच हो चुकी। फिर भी कुछ लोगों की मनमानी बंद नहीं होती। मतलब कुछ लोगों को कानून का तो डर है, ही नहीं। फिर सरकार कभी कानून का डंडा चलाती है तो लोग कोर्ट से स्थगन लेकर सरकार का रास्ता रोक देते हैं।
मुट्ठी भर नक्सली जब हजारों सिपाहियों पर भारी पड़ते हैं तो मुट्ठी भर कानून तोडऩे वाले कानून का पालन कराने वालों पर भी भारी पड़ते हैं। दरअसल सरकार अवैध निर्माण, अवैध कालोनियों को तो कानून का डंडा दिखाती है लेकिन इन अवैध कृत्यों को रोकने की जिस पर जिम्मेदारी है, उनका दायित्व निश्चित नहीं करती। जब तक कानून का पालन कराने वालों का भी दायित्व निश्चित नहीं किया जाएगा तब तक कानून अवैध काम का भी माध्यम बना रहेगा। आखिर रिश्वत मिलती किस बात की है। कानून का पालन करने वाला क्यों रिश्वत देगा? लेकिन उसे भी कानून की ऐसी ऐसी पेचीदिगियों में उलझाया जाता है कि उसे समझ में आ जाता है कि कानून का पालन कराने वाले के साथ भी कानून का खेल खेला जा सकता है। अवैध तरीके से अवैध धन बरसता है और फिर यह धन सब कुछ जायज नाजायज करा लेने की शक्ति देता है। मेडिकल कालेज की मान्यता प्राप्त करने के लिए जब 5 करोड़ रूपये की घूस ली जाती है तो मेडिकल कालेज में भर्ती करने के लिए प्रबंधक लाखों रूपये लेते हैं। अब सरकार कैपिटेशन फीस लेने वालों को जेल भेजने का कानून बनाए तो उससे फर्क क्या पड़ता है?
सरकार ने जो बड़े बड़े जुर्माने और सजा का प्रावधान अवैध निर्माण के लिए किया है, इसे भय में बदलकर बड़ी रकम प्राप्त की जा सकती है लेकिन सरकार का वरदहस्त जिसे हासिल हो, उस पर कार्यवाही कौन करेगा? कुछ भी छुपा हुआ नहीं है। फिर जहां तक निर्माण की बात है तो वह तो खुले आसमान के नीचे होता है। हर आते जाते व्यक्ति को जो दिखायी देता है, वह सरकारी कर्मचारियों को दिखायी न दे तो आश्चर्य की बात है। कौन मानेगा कि यह बिना किसी मिली भगत के होता है। जहां एक एक फुट निर्माण की कीमत हजारों रूपये हो, वहां लोभ आदमी से सब कराता है। निर्माण का नक्शा पास कराते समय जिस स्थान को पार्किंग के लिए दिखाया जाता है, उसे भी बेचने में बिल्डर पीछे नहीं रहता। क्योंकि लाखों नहीं करोड़ों का प्रश्र होता है।
एक बार बनाया और बेच दिया। अब लेने वाला जाने। क्योंकि बिल्डर तो आगे बढ़ गया। कुछ ऐसे भी बिल्डर हैं जो छत के कारण अधिकार नहीं छोड़ते और शर्त विक्रय में डाल देते हैं कि जब भी खरीददार बेचेगा तो वह बिल्डर की अनुमति के बिना नहीं बेच सकता। बिल्डर छोडें, रायपुर विकास प्राधिकरण ही सरकारी ऐसी एजेंसी है कि जो हर बार विक्रय पर बेचने वाले से 10 प्रतिशत विक्रय कीमत का लेती है। फिर यह कानूनी है। क्योंकि कानून ही ऐसा बना हुआ है। शोषण की इंतहा तो अब केंद्र सरकार भी कर रही है। जो भवन, मकान की खरीद पर 5 प्रतिशत सर्विस टैक्स लेगी। गृह निर्माण मंडल ने सर्विस टैक्स वसूलना प्रारंभ भी कर दिया है। साढ़े बारह लाख का मकान गृह निर्माण से खरीदो तो 60 हजार रूपये सर्विस टैक्स दो। यह प्रजातंत्र है और प्रजा के द्वारा चुनी गई सरकार ही आदमी के गले पर शिकंजा कस रही है।
-विष्णु सिन्हा
29-04-2010
जब तक इस देश में हर सरकारी खर्चों और घोटालों की जाँच देश भर के इमानदार समाज सेवकों से कराकर भ्रष्ट नेताओं और मंत्रियों को जनता के सामने सख्त सजा नहीं दी जाएगी, इस देश की हालत में सुधार नहीं होगा /अच्छी विश्लेष्णात्मक, खोजी और जानकारी आधारित रचना के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद / आशा है आप इसी तरह ब्लॉग की सार्थकता को बढ़ाने का काम आगे भी ,अपनी अच्छी सोच के साथ करते रहेंगे / ब्लॉग हम सब के सार्थक सोच और ईमानदारी भरे प्रयास से ही एक सशक्त सामानांतर मिडिया के रूप में स्थापित हो सकता है और इस देश को भ्रष्ट और लूटेरों से बचा सकता है /आशा है आप अपनी ओर से इसके लिए हर संभव प्रयास जरूर करेंगे /हम आपको अपने इस पोस्ट http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/04/blog-post_16.html पर देश हित में १०० शब्दों में अपने बहुमूल्य विचार और सुझाव रखने के लिए आमंत्रित करते हैं / उम्दा विचारों को हमने सम्मानित करने की व्यवस्था भी कर रखा है / पिछले हफ्ते अजित गुप्ता जी उम्दा विचारों के लिए सम्मानित की गयी हैं /
जवाब देंहटाएंविष्णु जी, सरकारी तंत्र है... खून चूसनें के लिए...
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