यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

बुधवार, 31 मार्च 2010

रायपुर नगर निगम चुनाव की हार के अवसाद से भाजपा मुक्तनहीं हो पा रही है

रायपुर नगर निगम के चुनाव में अपनी हार को भाजपा नहीं पचा पा रही है। नगर निगम में निरंतर दो दिनों से हो रही सामान्य सभा भी एक नया रिकार्ड बना रही है। सभापति का चुनाव जीतकर भाजपा ने समझ लिया था कि उसने हार की बाजी को पलट दिया है और वह जैसे चाहे वैसे नगर निगम चला सकती है। कल की सामान्य सभा जिस तरह से स्थगित की गई सभापति के द्वारा और कांग्रेसी और निर्दलीय पार्षदों ने प्रोटेम स्पीकर चुनकर सामान्य सभा की कार्यवाही पूर्ण की, ऐसा भी नगर निगम के इतिहास में कभी नहीं हुआ। प्रोटेम स्पीकर का चुनाव वैध है या अवैध, यह तो कानून के जानकार जानें लेकिन ऐसा करने के लिए सत्ता पक्ष को बाध्य करने वालों को भी सोचना तो चाहिए कि ऐसी स्थिति क्यों निर्मित हुई? जन साधारण को तो यही संदेश मिला कि विपक्ष किरणमयी नायक को नगर निगम चलाने के मामले में असफल करने की कोशिश कर रहा है। फिर भी धाकड़ महापौर किसी भी विरोध के आगे घुटने टेकने वाली नहीं है।
वे कान पकड़कर माफी मांग सकती है। विपक्ष के भूखे धरने में बैठे पार्षदों के लिए गुलाब जामुन लेकर स्वयं आ सकती है। सदव्यवहार की अपनी तरफ से कोई कंजूसी महापौर ने नहीं दिखायी। किरणमयी की सज्जनता और सदव्यवहार के कारण ही कांग्रेस का सदन में बहुमत न होने के बावजूद उनके साथ निर्दलीय सहित 39 पार्षद खड़े हैं। कुछ लोग यह भी सोच रहे हों कि कहां संजय श्रीवास्तव को वोट देकर सभापति चुन लिया तो आश्चर्य की बात नहीं। निर्दलीय पूर्णप्रकाश झा को ही किरणमयी नायक ने प्रोटेम स्पीकर चुनवा दिया। यह उनकी लोकप्रियता और ताकत का ही प्रतीक है। वे बहुमत के आधार पर प्रस्ताव पारित करती हैं तो बहुमत उनके साथ है, यह तो स्पष्ट दिखायी देता है। भाजपा के भी कुछ पार्षदों का समर्थन तो किरणमयी के साथ है। पार्टी अनुशासन के कारण वे विरोध नहीं कर सकते लेकिन भाजपा के बागी निर्दलीय पार्षदों में से पूर्णप्रकाश झा भी एक है जिन्हें प्रोटेम स्पीकर चुना गया।

कहा जा रहा है कि अब सभापति पूर्णप्रकाश झा हो गए और सभापति कक्ष में वे ही बैठेंगे। संजय श्रीवास्तव को बैठने नहीं दिया जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो महापौर को बर्खास्त कर दिया जाएगा। राज्य शासन के पास ऐसी शक्ति हो सकती है कि वह महापौर को बर्खास्त कर दे और तब तक जब तक नया महापौर नहीं चुना जाता तब तक महापौर भी सभापति ही हो जाते हैं। यदि वास्तव में ऐसा भाजपा सरकार ने किया तो किरणमयी की लोकप्रियता में इजाफा ही होगा। छवि खराब होने की बात है तो छवि भाजपा की ही खराब होगी। कुछ समय के लिए सत्ता पर भले ही भाजपा काबिज हो जाए लेकिन लाभ अंतत: किरणमयी और कांग्रेस को ही होगा। इसलिए भाजपा के सलाहकार सोच समझकर ही निर्णय लें। कभी कभी एक गलती बहुत भारी पड़ जाती है।

जुम्मा-जुम्मा अभी तीन माह से कुछ अधिक समय ही हुआ है, नगर निगम के चुनाव को। पहली सामान्य सभा ही बजट के साथ चल रही है। किसी भी मुद्दे को लेकर विरोध करने के बदले अभी कम से कम 1 वर्ष तक तो किरणमयी नायक को शांतिपूर्वक काम करने देना चाहिए। अपने वार्ड मोहल्ले की समस्या के विषय में अवश्य पार्षद कहें लेकिन जोन कैसा हो और किस जोन में कौन सा वार्ड हो यह सब राजनैतिक से बढ़कर प्रशासनिक मुद्दे हैं और इस मामले में महापौर को नवनिर्वाचित सभी पार्षदों का सहयोग ही मिलना चाहिए। जनता ने अपने जनादेश से महापौर को चुना है तो उस जनादेश का सम्मान कम से कम जनादेश से चुनकर आए पार्षदों को तो करना चाहिए। पहली बार नगर निगम की सत्ता महिला के हाथ में आयी है। उसका सम्मान किया जाना चाहिए। बेफिजूल के मुद्दे उठाकर कम से कम अपनी छवि तो खराब नहीं करना चाहिए। बजट फाडऩा, आसंदी के सामने धरने पर बैठ जाना, हमारी बात सुनो, नहीं तो सामान्य सभा की कार्यवाही नहीं चलने देंगे, यह सब प्रथम सामान्य सभा में ही करना जरूरी है, क्या ?

सामान्य सभा में कोई भी निर्णय बहुमत के आधार पर ही लिया जाता है। सभी जगह यही होता है। तब मत विभाजन की सत्तारूढ़ दल की मांग को सभापति खारिज कैसे कर सकते हैं? उन्होंने ऐसा किया और उसके बाद सामान्य सभा स्थगित कर चले गए तो इससे क्या संदेश निकलता है? यही न कि वे सभापति होने के बावजूद भाजपा पार्षद की दृष्टि से ही काम कर रहे हैं। जबकि सभापति चुन लिए जाने के बाद उन्हें दल की मानसिकता से ऊपर उठना चाहिए। फिर सामान्य सभा उन्होंने स्थगित की तो इसका पता ही नहीं चला, कांग्रेस और निर्दलीय पार्षदों को। इसकी जानकारी सचिव से मिली। जो भी हुआ, इससे भाजपा को लाभ नहीं होने वाला है। जनता ने समस्याएं हल करने के लिए जिन्हें चुना है, वे इस तरह से काम करेंगे तो संदेश क्या जाएगा?

कमिश्रर सहित नगर निगम के कर्मचारी, भाजपा पार्षद दल, सभापति, सरकार यदि चुनी हुई महापौर को असहयोग करेंगे तो नुकसान तो रायपुर की जनता को होगा। केंद्र में कांग्रेस की सरकार है प्रदेश में भाजपा की तो केंद्र सरकार तरह तरह से राज्य सरकार को परेशान करती है। अभी पिछले दिनों ही केंद्र सरकार ने विद्युत का कोटा काट लिया। केद्र सरकार की बिजली भी छत्तीसगढ़ में बनती है लेकिन बिजली काटने के लिए, चांवल का कोटा कम करने के लिए छत्तीसगढ़ ही कांग्रेस सरकार को मिलता है। मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों, विधायकों के साथ प्रधानमंत्री से मिलकर अपनी समस्याएं बताते हैं तो प्रधानमंत्री आश्वासन देते हैं कि विकास के लिए धन की कमी नहीं होगी। यही जरूरत नगर निगम रायपुर को भी है। जब किरणमयी नायक महापौर का चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से मिली थी तो डा. रमन सिंह ने कहा था कि विकास के लिए धन की कोई कमी नहीं होगी लेकिन आज नगर निगम का खजाना खाली है।

महापौर को संपत्ति कर बढ़ाना पड़ रहा है। कर्मचारियों को छठवां वेतन आयोग देना पड़ रहा है। ठेकेदारों और सप्लायरों का करोड़ों का बिल भुगतान का इंतजार कर रहा है। खबर है कि अगले मार्च अप्रेल तक सरकार नया रायपुर में चली जाएगी। तब क्या रायपुर का पुराना शहर और उपेक्षित हो जाएगा ? जिस तरह से नये भोपाल में तो सरकार भरपूर खर्च करती है लेकिन पुराना भोपाल उपेक्षित रह जाता है। उस पर प्रदेश में भाजपा की सरकार और नगर निगम में कांग्रेस। क्या राजनीति के भंवरजाल का शिकार होंगे, रायपुरवासी? क्या किरणमयी नायक के पक्ष में जनादेश देकर रायपुर की जनता ने कोई गलती की है? यदि राजनीति अपने ढंग से जनता से बदला लेगी तो फिर जनता की स्वतंत्र मत अभिव्यक्ति का अर्थ ही क्या रह जाएगा ?

-विष्णु सिन्हा
31.3.2010

मंगलवार, 30 मार्च 2010

संपत्ति कर वृद्घि और छठवां वेतन आयोग के बाद अब शहर के नागरिकों की सुविधाओं पर भी ध्यान दें

रायपुर नगर निगम की सामान्य सभा में किरणमयी नायक का प्रदर्शन तारीफ के काबिल था। प्रथम सामान्य सभा वह भी बजट सत्र में जिस तरह से कांग्रेस के साथ निर्दलियों ने भी बजट के पक्ष में मत दिया, उससे भाजपाई पार्षदों का प्रदर्शन बौना ही साबित हुआ। पहले बैठने की व्यवस्था को लेकर भाजपाई पार्षद अपने ही सभापति से उलझते रहे। फिर बजट पटल पर रखे जाने के पहले ही पार्षदों को बांटे जाने को लेकर बजट लीक करने का आरोप भी हास्यास्पद ही लगा। प्रतिपक्ष के उपनेता के द्वारा बजट को फाड़े जाने से कोई अच्छी छवि भाजपा की नहीं बनी। आखिर ऐसा क्या था बजट में जिसे पटल पर रखे जाने के बाद पार्षदों को दिया जाता तो लीक नहीं होता। सभी सदन के अंदर थे और महापौर बजट का पठन करने ही वाली थी। भाजपा पार्षद की हरकत देखकर तो यही लगा कि जैसे नगर निगम की सत्ता चले जाने से वे अवसादग्रस्त हो गए हैं।

एक निर्दलीय पार्षद तो मध्यप्रदेश के समय के लोगो को ही लेकर बजट फाड़ बैठे और आसंदी के सामने आकर बैठ गए। किरणमयी नायक ने बताया भी कि पिछले कई वर्षों से यह लोगो छप रहा है। अब इसे सुधार लिया जाएगा। बजट लीक होने के नाम पर लोगो के नाम पर सामान्य सभा में लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए तो मोहल्ले वालों ने अपना पार्षद नहीं चुना है। जनता की असली समस्या को लेकर सकारात्मक बहस करते यदि पार्षद तो 9 घंटे जो सामान्य सभा चली, उसका कुछ अर्थ भी था। सक्रियता और जागरूकता ही दिखाना है तो जनता को भी लगना चाहिए कि पार्षद उनके दुख दर्द को समझ रहा है। किरणमयी नायक ने तो सिद्घ किया कि उनमें अहंकार नहीं है और कर्मचारियों के द्वारा की गई गलती के लिए वे कान पकड़कर माफी मांगती है। माफी मांगने से कोई छोटा नहीं हो जाता बल्कि उससे उसका बड़प्पन ही झलकता है।

भाजपाई पार्षद खुश हो सकते है कि उन्होंने किरणमयी नायक को माफी मांगने के लिए मजबूर कर दिया। शायद इसी से उनका अहंकार पुष्ट होता हो लेकिन जिस दमदारी से किरणमयी नायक ने पार्षदो के बीच सामंजस्य बिठाने का प्रयास किया, उसकी तो तारीफ ही की जाएगी। महापौर ने संपत्ति कर बढ़ाने का प्रस्ताव किया और उसे पारित भी करा लिया। छत्तीसगढ़ सरकार ने तो 500 वर्गफुट के कच्चे पक्के मकान को ही संपत्ति कर से छूट दी थी लेकिन किरणमयी नायक ने 600 फुट तक के मकानों को इसमे छूट दी और इससे बड़े मकानों पर 10 प्रतिशत टैक्स बढ़ा दिया। सबसे ज्यादा बोझ उन्होंने व्यवसायिक भवनों पर डाला है और कहा जा रहा है कि उनका टैक्स अब तिगुना हो जाएगा। संपत्ति कर का भुगतान किरायेदार नहीं करता बल्कि मालिक करता है। यदि कोई व्यवसायिक भवन किराये पर है तो किरायेदार पर संपत्ति कर नहीं लगेगा बल्कि किराया वसूल करने वाला मालिक टैक्स देगा। अब मकान मालिक चाहे कि किरायेदार किराया बढ़ाए तो क्या यह आसान है? टैक्स और तमाम तरह की कानूनी पेचीदगियों के कारण ही तो व्यवसायिक भवन निर्माता अब किराये में देने में रूचि नहीं लेते बल्कि वे बेचने में ज्यादा रूचि लेते हैं। इससे बड़े बड़े व्यवसायिक भवनों की दुकानों, आफिसों को खरीदने के लिए कोई गरीब या मध्यम वर्ग का व्यक्ति तो सोच नहीं सकता। पहले किराये में मिल जाते थे तो ये भी कुछ धंधा पानी कर लेते थे लेकिन अब जब खरीदने की बात है तो पूंजीपति ही खरीद सकता है या फिर बैंक से लोन लेकर खरीदा जाए लेकिन उसके लिए भी गारंटी लगती है जो हर किसी के बस की बात नहीं।

भारत का संविधान हर किसी भारतीय को संपत्ति रखने का अधिकार देता है लेकिन संपत्ति रखना बिना टैक्स दिए संभव नहीं। नगर निगम ही टैक्स नहीं लेता्र केंद्र सरकार वेल्थ टैक्स भी 15 लाख से अधिक की संपत्ति पर लेती है। केंद्र सरकार, राज्य सरकार, स्थानीय संस्थाएं सभी की दृष्टि तो टैक्स पर है। आयकर, सर्विस टैक्स, सेंट्रल सेल टैक्स, कस्टम ड्यूटी, वेल्थ टैक्स, राज्य सरकार का सेल टैक्स, आबकारी टैक्स, अब केबल और डीटीएच पर टैक्स, संपत्ति कर, जल मल कर, प्राधिकरण के मकान में रहते हैं तो भूभाटक, कृषि उपज मंडी टैक्स और भी पता नहीं कितने प्रकार के टैक्स हैं। बैंक में फिक्स्ड डिपाजिट करें तो 25 हजार से अधिक के डिपाजिट पर टीडीएस काट लिया जाता है। अब किसी की आय आयकर के दायरे में न आती हो तो वह टीडीएस की वापसी के लिए आयकर विभाग के चक्कर लगाए । देश की समस्त खनिज पदार्थों की खदानें सरकार की है। जंगल सरकार के हैं। आप बिजली का बटन दबाते हैं तो सिर्फ बिजली जो खर्च करते हैं, उसका ही भुगतान नहीं करते बल्कि उस पर भी टैक्स देना पड़ता है। आपकी गाड़ी में जो पेट्रोल या डीजल भराते हैं, उस पर भी केंद्र और राज्य सरकारें टैक्स लेती हैै। यह सब टैक्स सरकार इसलिए लेती है, क्योंकि उसे जनकल्याण करना है। जनता की भलाई करना है।

मतलब जनता की भलाई तो सरकार करके रहेगी और टैक्स भी वसूल करके ही रहेगी। देना न देना आपकी इच्छा पर निर्भर नहीं करता। जो भी पार्टी जनता से जनादेश मांगती है कि उसकी सरकार बनी तो वह जनकल्याण के फलां फलां काम करेगी। तब वह यह जनता को नहीं बताती कि इसके लिए धन भी उससे ही वसूल किया जायेगा। क्योंकि वह चुनाव के समय जनता को स्पष्ट बताए कि वह जो जो जनकल्याण के काम करने का वादा कर रही है, उसके लिए वह फलां फलां तरह का टैक्स भी उस पर लगाएगी। कुछ टैक्स अमीरों पर लगेंगे तो कुछ टैक्स ऐसे होंगे जिसका प्रभाव सब पर पड़ेगा। पेट्रोल डीजल की कीमत को ही उदाहरण के तौर पर लें तो चुनाव वर्ष में इसमें वृद्घि नहीं की जाती। क्योंकि चुनाव वर्ष में वृद्घि करे सरकार तो उसकी पार्टी की जीतने की संभावना ही क्षीण हो जाएगी। वह यह काम तब करती है जब जनता से वोट ले लेती है और 5 वर्ष तक जनता कुछ करने की स्थिति में नहीं रहती। चुनाव वर्ष में तो वह किसानों का कर्ज माफ करती है। जिससे किसान उसे वोट दें और वह सत्ता का आनंद लूटे।

स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक को टैक्स के मकडज़ाल ने ऐसा घेर रखा है कि वह स्वतंत्र किस तरह से है यह समझ के बाहर है। नगर निगम की महापौर भी क्या करें? शहर में समस्या ही समस्या है। वर्षों हो गए मोहल्लों की समस्या हल करते हुए नगर निगम को लेकिन समस्या है कि हल होती ही नहीं। समस्या हल करना है तो धन चाहिए। अब धन या तो सरकारें दें या फिर जनता टैक्स के रूप में दें। जब पूरे देश की व्यवस्था ही ऐसी है तो किरणमयी भी क्या करें? संपत्ति कर पिछले 13 वर्षों से बढ़ाया नहीं गया है। क्योंकि नहीं बढ़ाने वाले जानते थे कि संपत्ति कर बढ़ाने का अर्थ होगा जनता में अलोकप्रिय होना। गरीब की थाली से दाल कब का गायब है। पिछले कई महीनों से मध्यम वर्ग भी दाल से महरूम है या फिर यदा कदा का मामला है। अब उस पर संपत्ति कर की वृद्घि। देना तो पड़ेगा। नहीं तो नगर निगम संपत्ति ही कुर्क न कर दे। उन पर भी तो कार्यवाही करें जो 10 वर्ष से टैक्स वसूल नहीं कर रहे हैं। टैक्स देने वाला ही क्यों जिम्मेदार हैं? टैक्स वसूल न करने वाला भी तो जिम्मेदार है। क्योंकि वेतन तो वह निगम खजाने से नियमित प्राप्त करता है। अब तो महापौर ने छठवां वेतन आयोग भी लागू कर दिया। संपत्ति कर की बढ़ी रकम इनके वेतन वृद्घि में ही निकल जाएगी। अब तो इनका कर्तव्य है कि ये शहर के नागरिकों की सुविधा का पूरी ईमानदारी से ध्यान रखें या महापौर कड़ी कार्यवाही करें।

-विष्णु सिन्हा
30.03.2010

सोमवार, 29 मार्च 2010

उड़ीसा का मुख्यमंत्री निवास उड़ाने की धमकी के बाद डा. रमन सिंह की सुरक्षा व्यवस्था को भी चाक चौबंद करने की जरूरत

नक्सलियों ने एक ई मेल के द्वारा धमकी दी है कि वे उड़ीसा के मुख्यमंत्री निवास को उड़ा देंगे। नक्सली कह रहे हैं कि वे अन्य प्रमुख प्रतिष्ठानों को भी विस्फोट से उड़ा देंगे। यह वे तब करेंगे जब सरकार नक्सलियों के विरूद्घ ग्रीन हंट आपरेशन प्रारंभ करेगी। मतलब साफ है कि ग्रीन हंट आपरेशन से नक्सली डरे हुए है और वे मुख्यमंत्री सहित सरकार को डराना चाहते हैं लेकिन क्या मुख्यमंत्री और सरकार नक्सलियों के डर से ग्रीन हंट आपरेशन बंद कर देगी? उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को ही तय करना है कि वे इस तरह से नक्सली धमकी से डर कर ग्रीन हंट आपरेशन से परहेज करेंगे या फिर राज्य को नक्सलियों से मुक्त कराने की मुहिम में अपनी पूरी शक्ति लगाएंगे। क्योंकि केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम तो कृतसंकल्पित हैं कि वे 2-3 वर्ष में नक्सलियों से देश को मुक्त करा देंगे। आज जो सहयोग केंद्र सरकार के गृहमंत्री नक्सली समस्या से निजात देने के लिए राज्यों को कर रहे हैं, ऐसा पहले ही हो गया होता तो नक्सली समस्या इतने बड़े भूभाग में फैलती ही नहीं। फिर भी पुराना रोना रोने से तो कोई फायदा नहीं। जो होना था वह हो चुका लेकिन आज गृहमंत्री सहयोग कर रहे हैं तो राज्य सरकारों का तो दायित्व बन जाता है कि वे नक्सलियों को स्पष्ट संदेश दें कि वे किसी धमकी के आगे न तो झुकने वाले हैं और न ही किसी से डरते हैं।

नक्सली कह रहे हैं कि किशन जी और विकराम को लगी एक एक गोली का जवाब दिया जाएगा। ऐसा क्या जवाब देंगे जो पहले नहीं दे रहे थे। वही विस्फोट, वही खून खराबा। इसके सिवाय नक्सलियों के पास है, क्या ? बंदूक के दम पर अपनी बात को सही समझाने की कोशिश वही करता है जिसकी बात लोग समझने के लिए तैयार नहीं। जहां तक सरकार का प्रश्र है तो सरकार ने कम अवसर नहीं दिया, नक्सलियों को। आज नहीं कल वे समझ जाएंगे और हिंसा का त्याग कर सही रास्ते पर आ जाएंगे लेकिन सरकार की शराफत को नक्सलियों ने सरकार की कमजोरी समझा और उसी का परिणाम है कि वे समझते हैं कि सरकार उनकी धमकियों से डरकर घर में छुपकर बैठ जाएगी। अपने नेता किशन जी और विकराम को लगी गोली का इतना दुख क्यों हो रहा है, नक्सलियों को ? गोली तो जिसे भी लगती है, उसे दर्द होना स्वाभाविक है। नक्सली जब पुलिस जवानों को, मुखबिर के नाम पर आम आदमी को गोली मारते हैं तब उन्हें भी उतना ही कष्ट होता है जितना किशन जी और विकराम को हो रहा है। यह तो वही बात हो गयी कि तुम्हारा खून, खून है और बाकियों का पानी।

गृह मंत्रालय के अधिकारी कह रहे हैं कि नक्सली अपने संगठनों में बेरोजगार युवकों युवतियों को तीन हजार मासिक वेतन पर भर्ती करते हैं। साथ ही वसूली पर एक निश्चित कमीशन देते हैं। मतलब किसी सिद्घांत नीति से प्रभावित होकर लोग नक्सली सेना में भर्ती नहीं होते। स्पष्ट है कि नक्सल आंदोलन जैसी कोई बात नहीं है। यह तो माफिया के तरीके से संगठन चलाया जा रहा है। उड़ीसा में नक्सलियों से पीडि़त शहरों में निवास करने वाले युवकों का कहना है कि नक्सली पहले आते थे तो खाना मांगते थे, चंदा मांगते थे लेकिन इसके साथ ही वे बहन, बेटियों की भी मांग करने लगे, तब उन्होंने विरोध किया तो गोलियों से उड़ाने की धमकी दी गई। जो इन नक्सलियों को राजनैतिक आंदोलन बताते थे, यह तो उनके ही सोच का विषय है कि यह किस तरह का राजनैतिक आंदोलन है। कहा जा रहा है कि वार्षिक उगाही नक्सलियों की करीब चौदह सौ करोड़ रूपये है। उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, शासकीय अधिकारियों से यह वसूली की जाती है।

स्पष्ट रूप से देखा जाए तो यह सब किसी आर्थिक साम्राज्य से कम नहीं है। धंधे की दृष्टि से देखा जाए तो बड़ा धंधा है। अब जब सरकार इस धंधे को उखाड़ फेंकने के लिए आमादा है तो जिसका धंधा छीना जा रहा है, वह हर तरह से कोशिश तो करेगा कि धंधे को बचाए। छत्तीसगढ़ में डा. रमन सिंह ने सबसे पहले नक्सलियों को अपने क्षेत्र से पलायन करने के लिए मजबूर किया। वैसे भी बस्तर का वृहत क्षेत्र नक्सलियों का सुदृढ़ गढ़ था लेकिन सशस्त्र बलों के निरंतर प्रयासों से नक्सली अब छत्तीसगढ़ में वैसा उत्पात नहीं कर पा रहे है जैसा वे पहले किया करते थे। छत्तीसगढ़ से लगा उड़ीसा उन्हें सुरक्षित ठिकाना लगता है लेकिन अब वहां भी सशस्त्र बलों ने दस्तक देना प्रारंभ कर दिया है। नक्सली समझ रहे हैं कि सशस्त्र बलों का दबाव बढ़ा तो उन्हें उड़ीसा से भी पलायन करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। पहले नक्सलियों की एक तरफा कार्यवाही चलती थी। बारूदी सुरंगें बनाकर वे सशस्त्र बलों पर हमला करते थे लेकिन अब वह बात तो रही नहीं बल्कि अब नक्सलियों को सशस्त्र बल से मुकाबला करना पड़ता है और मुकाबले में वे सशस्त्र बल के सामने टिकते नहीं तो फिर जान बचाकर भागना पड़ता है और भागना भी ऐसा पड़ता है कि अपने मारे गए साथियों को भी वे अपने साथ नहीं ले जा पाते। पहले वे अपने साथियों की लाश सशस्त्र बल के हाथ नहीं लगने देते थे। भागो नहीं तो मारे जाओगे की स्थिति जब खड़ी होती है तब गोला बारूद भी छोड़कर भागते हैं।

सशस्त्र बलों को भी स्पष्ट निर्देश है कि अपनी तरफ से हमला न करें। इसलिए निर्दोष लोगों के मारे जाने का भय दिखाकर सशस्त्र बलों की कार्यवाही रोकने का जो प्रयास प्रारंभ में आपरेशन ग्रीन हंट के पहले तथाकथित पदाधिकारियों एवं बुद्घिजीवियों ने किया, उसमें भी कोई दम नहीं था। यह बात अब निश्चित हो चुकी है। किशन जी जैसे नेताओं को मुठभेड़ में गोली लगना भी इस बात की निशानी है कि सशस्त्र बलों ने दबाव पूरी तरह से बनाया हुआ है। नित्य कहीं न कहीं से खबर आती है कि नक्सली पकड़े गए या मारे गए। आज जो 3 हजार वेतन में भर्ती की बात है, वह कभी 2 हजार थी लेकिन शायद अब 2 हजार रूपये में मरने मारने के लिए युवा मिल नहीं रहे हैं। क्योंकि सरकार ने ही नक्सलियों को 2 से ढाई हजार रूपये मासिक समर्पण करने वालों को देने की घोषणा कर रखी है। सशस्त्र बलों का दबाव यदि उसी तरह से बढ़ता गया तो वह दिन भी आ सकता है जब बड़ी संख्या में नक्सली मरने के बदले आत्मसमर्पण के लिए बाध्य हो जाएं।

नवीन पटनायक के निवास स्थान को उड़ाने की धमकी नक्सली दे रहे हैं तो यह नहीं भूलना चाहिए कि डा. रमन सिंह नक्सलियों की हिट लिस्ट में टाप पर हैं। ऐसा नहीं कि धमकी उड़ीसा के मुख्यमंत्री को दी जा रही हो और टारगेट छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हो। हरिद्वार में मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह गंगा में जिस तरह से स्नान कर रहे थे, वह सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं है। कभी भी ऐसी स्थिति उन्हें सरल टारगेट बना सकता है। क्योंकि आज नक्सलियों के विरूद्घ छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों में जो आपरेशन ग्रीन हंट चलाया जा रहा है, उसका बहुत बड़ा कारण डा. रमन सिंह ने ही सबसे पहले नक्सलियों के विरूद्घ अभियान चलाया। केंद्रीय गृहमंत्री को यथार्थ से अवगत कराया। तब यह स्थिति निर्मित हुई है कि सभी नक्सल प्रभावित राज्यों में आपरेशन ग्रीन हंट चलाया जा रहा है। इसलिए डा. रमन सिंह की सुरक्षा में किसी तरह की लापरवाही नही होना चाहिए।

- विष्णु सिन्हा
29-03-2010

रविवार, 28 मार्च 2010

अमिताभ बच्चन को ही नहीं हरिद्वार में गंगा स्नान को भी कांग्रेस राजनैतिक चश्मे से देख रही

विधानसभा अध्यक्ष के आमंत्रण पर छत्तीसगढ़ के अधिकांश विधायक हरिद्वार की यात्रा पर गए। पहले मुख्यमंत्री ने आमंत्रित किया था तो कांग्रेस विधायक दल ने इंकार कर दिया था। क्योंकि उन्हें डर था कि मुख्यमंत्री के आमंत्रण पर वे हरिद्वार गए तो उनकी छवि खराब होगी और जनता तक गलत संदेश जाएगा कि सरकार और प्रतिपक्ष में एकता है। फिर रास्ता निकाला गया और विधानसभा की तरफ से ले जाने का कार्यक्रम बना और कांग्रेस विधायक दल ने सहमति दे दी। अब कान सीधे पकड़ो या हाथ घुमाकर, पकड़ोगे तो कान ही। मुख्यमंत्री के आमंत्रण पर हरिद्वार जाओ या विधानसभा अध्यक्ष के, जाओगे तो छत्तीसगढ़ सरकार के ही खर्च पर। फिर जनता क्या समझती नहीं? 17 विधायक कांग्रेस के हरिद्वार चले गए और बड़े कांग्रेसी विधायकों ने येन समय पर व्यक्तिगत कारणों से हरिद्वार न जाने का बहाना बना लिया।

मुंबई में घटी घटना के कारण भी भय पैदा हो गया। जिस तरह से अमिताभ बच्चन के साथ कार्यक्रम में सम्मिलित होने पर अशोक चव्हाण को निशाना बनाया गया और कारण बताया गया कि वे नरेंद्र मोदी के गुजरात के ब्रांड अम्बेसडर है। इसलिए कांग्रेसियों को उनसे दूर रहना चाहिए। इससे कांग्रेस की छवि खराब होती है। इस भय ने ही कल दिल्ली में अर्थ ऑवर के दौरान अभिषेक बच्चन के बैनर और वीडियो से परहेज करने के लिए दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को प्रेरित किया। मतलब अमिताभ से ही नहीं उनके पुत्र से भी कांग्रेस दूरी दिखाना चाहती है। कोई भाजपा सरकार के राज्य का ब्रांड अम्बेसडर पर्यटन के मामले में बनता है तो वह तो कांग्रेस के लिए अछूत हो ही गया। उसका गैर राजनैतिक पुत्र भी अछूत हो गया। गांधीजी ने अछूतोद्धार का कार्यक्रम चलाया। कांग्रेस की घोषित नीति बनाया कि सब समान हैं। आज कांग्रेस भेदभाव सीखा रही है।

ऐसे माहौल में छत्तीसगढ़ के कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी विधायकों ने व्यक्तिगत कारणों से भाजपा के साथ हरिद्वार जाने से परहेज किया तो कोई आश्चर्य की बात नहींं। गुजरात का पर्यटन का ब्रांड अम्बेसडर बनने वाले को जब पसंद नहीं किया जा रहा है तो सरकार तो छत्तीसगढ़ में नरेन्द्र मोदी की ही पार्टी की हैं। विधानसभा अध्यक्ष भी उसी पार्टी के हैं। उनके साथ हरिद्वार जाकर गंगा स्नान करना तो धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस की छवि को नुकसान पहुंचाने वाला है। कल को कोई यह प्रश्र भी उठा सकता है कि विधानसभा अध्यक्ष से व्हील चेयर लेना अजीत जोगी का उचित नहीं है। लोकसभा अध्यक्ष से लेना अलग बात है। क्योंकि वे धर्म-निरपेक्ष दलों के समर्थन से लोकसभा अध्यक्ष बने थे। छत्तीसगढ़ विधानसभा में तो विधानसभा अध्यक्ष भाजपा की टिकट पर जीता विधायक बना है। उससे व्हील चेयर की मांग करना ही अजीत जोगी का गलत है। इससे तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस का दिग्गज नेता भाजपा की दी गई व्हील चेयर पर बैठ कर चलने-फिरने के लिए बाध्य है। जब विपक्ष में किसी के तर्क प्रस्तुत करना हो तो तर्कों की कमी तो नहीं हैं।

मुंबई में अमिताभ बच्चन को लेकर जो बवाल खड़ा किया गया, उसका कारण यह बताया जा रहा है कि कार्यक्रम में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को बुलाया नहीं गया और आमंत्रण पत्र में उनका नाम भी प्रकाशित नहीं किया गया। कांग्रेस में यह खेल पुराना है। कोई भी किसी से नाराज हो तो उसके विरुद्ध इसी तरह की बातें की जाती है। इससे पूरे देश के कांग्रेसी सतर्क हो जाते हैं और उसी रास्ते पर चलने लगते हैं। जब छत्तीसगढ़ सरकार ने विधायकों के वेतन भत्ते बढ़ाने का प्रस्ताव विधानसभा में रखा तब किसी कांग्रेसी ने विरोध नहीं किया। किसी ने भी यह कहने की जरुरत नहीं समझी कि सरकार हमारे वेतन भत्ते बढ़ाने के बदले किसानों को बोनस दे। किसानों को मुफ्त में बिजली दे। आखिर प्रस्ताव तो भाजपा सरकार का था, कांग्रेस ने सहमति क्यों दी? इसलिए कि स्वयं को लाभ हो रहा है। कितने ही मुद्दों पर कांग्रेसी विधायक बहिर्गमन करते हैं। इस मुद्दे पर भी करते। नहीं, इसकी जरुरत नहीं समझी गई।

किसी भी तरह की स्पष्ट सोच कांग्रेसियों के पास नहीं है। जब मुख्यमंत्री के आमंत्रण से असहमति प्रगट की गई तो विधानसभा के अध्यक्ष के आमंत्रण पर सहमति का क्या अर्थ होता है? फिर सहमति दी ही थी तो अंतिम समय पर जब कांग्रेसी विधायक हवाई अड्डे पहुंच गए तब व्यक्तिगत कारण के बहाने कन्नी क्यों काटी गई? व्यक्तिगत कारण भी वास्तव में था तो भी कम से कम प्रतिपक्ष के नेता रविन्द्र चौबे हवाई अड्डे पर कांग्रेसी विधायकों को विदा करने तो जा ही सकते थे। इसमें क्या अड़चन थी? अड़चन क्या भय था? यदि अशोक चव्हाण की तरह जवाब देना पड़ता तो क्या जवाब देते? यह तो कह नहीं सकते थे कि उन्हें मालूम नहीं था कि भाजपा के मंत्री और विधायक भी जा रहे हैं। क्योंकि यह बहाना चलने वाला नहीं था। मुंबई में अमिताभ बच्चन का मामला नहीं उठा होता तो जा भी सकते थे। डर यही था कि छत्तीसगढ़ के किसी कृपाशंकर सिंह ने भी हल्ला मचा दिया तो ऐसा न हो कि प्रतिपक्ष के नेता की कुर्सी चली जाए।

ऐसा तो कहा नहीं जा सकता कि प्रतिपक्ष का नेता बनने की इच्छा कोई और कांग्रेसी नहीं रखता। मौका मिला तो कौन बैठने के लिए तैयार नहीं होगा? कुछ है जो धनेन्द्र साहू की प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठना चाहते हैं। वे कोई ऐसा खतरा उठाने के लिए तैयार नहीं है। जिसके कारण गद्दी मिलने का अवसर खड़ा हो तो हरिद्वार यात्रा अड़ंगा बन कर खड़ा हो जाए। कांग्रेस के वही विधायक गए हैं जिन्हें मालूम है कि उन्हे कुछ मिलने वाला नहीं है। न तो वे प्रतिपक्ष का नेता बनने वाले है और न ही प्रदेशाध्यक्ष। इसलिए उन्हें कोई विशेष फर्र्क भी नहीं पड़ता। अभी तो पौने चार वर्ष तक सरकार से उन्हें काम पडऩा है और अपने क्षेत्र की समस्याओं को हल करना है। वे अपने शेष कार्यकाल मे जनता को समस्याओं से निजात दिलवाने में सफल हो गए तो फिर से जीत कर आने के अवसर उनके बढ़ जाएंगे।

बड़े कांग्रेसी विधायकों का क्या है? वे वैसे भी मुख्यमंत्री की गुड लिस्ट में है और प्राथमिकता के आधार पर अपने काम कराने में सक्षम हैं। इसलिए वे स्पष्ट भी नहीं कहते कि सरकार के साथ जाकर गंगा स्नान करने से कहीं उनके भविष्य पर प्रश्रचिन्ह न लग जाए। वे व्यक्तिगत कारण बता रहे हैं। सौजन्यता का परिचय दे रहे हैं। जिससे सरकार भी अन्यथा न समझे और आलाकमान से शिकायत भी न हो सके लेकिन शिकायत करने वाले यह तो कह ही सकते हैं कि ये जाना चाहते थे। अमिताभ बच्चन का मामला न उठा होता तो चले भी जाते। इसके साथ ही ये कोई नीति सिद्धांत की बात नहीं कह रहे हैं। बल्कि व्यक्तिगत कारण को बहाना बना रहे हैं। इससे कांग्रेस की छवि खराब हो रही है। इनका कर्तव्य था कि ये जाने वालों को भी रोकते और जाने के मामले में पहले सहमति ही नहीं देते। सीधा-सीधा कुंभ स्नान का मामला था लेकिन यह भी राजनैतिक चश्मे से देखा जा रहा है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 28.03.2010

शनिवार, 27 मार्च 2010

अमिताभ बच्चन का अपमान कर कांग्रेस संकीर्ण मनोवृत्ति का ही परिचय दे रही है

कभी नेहरू गांधी परिवार का कोई निकटतम था तो अमिताभ बच्चन का ही परिवार था। पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने अमिताभ बच्चन के पिता हरवंशराय बच्चन और तेजी बच्चन को अपने परिवार का ही सदस्य माना। इसलिए जब विवाह के लिए सोनिया गांधी भारत आयी तो उन्हें बच्चन परिवार के साथ ही ठहराया गया। सोनिया गांधी का कन्यादान अमिताभ के पिता और माता ने किया तो भाई के नेकदस्तूर अमिताभ ने निभाए थे। इंदिरा गांधी की जब हत्या कर दी गई तो राजीव गांधी के साथ अमिताभ बच्चन ही खड़े थे। राजीव गांधी के कहने पर अमिताभ ने इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता। दिसंबर की वार्षिक छुट्टियों में राजीव गांधी परिवार के साथ कोई छुट्टी मनाने जाता था तो वह अमिताभ बच्चन का ही परिवार था। बोफर्स दलाली में जब राजीव गांधी के साथ अमिताभ बच्चन को भी उलझाने की कोशिश की गई तब अमिताभ ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर राजनीति से तौबा कर ली लेकिन तब भी संबंध बने रहे।

लेकिन अब वह बात नहीं रह गयी है। इसके कई स्पष्ट प्रमाण हैं। जब अमिताभ बच्चन की कंपनी आर्थिक रूप से संकटग्रस्त हो गयी तब अमरसिंह ने उनकी मदद की और इस मदद के बदले अमरसिंह ने अमिताभ बच्चन को मुलायम सिंह से जोड़ा । जया बच्चन तो समाजवादी पार्टी की राज्यसभा सदस्य बन गयी और आज भी हैं लेकिन अमिताभ ने राजनीति में न आने का जो निश्चय किया था, उस पर आज भी कायम हैं। अमरसिंह और मुलायम सिंह से अमिताभ बच्चन का मधुर संबंध सोनिया गांधी को पसंद नहीं आया और आज स्थिति यह है कि मुम्बई में एक पुल के उद्घाटन के अवसर पर अमिताभ की उपस्थिति को विवादास्पद ही नहीं बनाया जा रहा है बल्कि कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण कह रहे हैं कि उन्हें कार्यक्रम में अमिताभ बच्चन के आने की जानकारी नहीं थी। होती तो वे कार्यक्रम मे नहीं जाते। सारी मुम्बई को पता था कि अमिताभ बच्चन बांद्रा वर्ली सी लिंक के उद्घाटन पर विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित रहने वाले है। क्योंकि समाचार पत्र ने में इसके लिए विज्ञापन भी प्रकाशित कराए गए थे।

मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण कार्यक्रम में गए और अमिताभ बच्चन से हाथ मिलाया। दोनों आसपास बैठे और हंस हंस कर बातें कर रहे थे। अमिताभ बच्चन का मंच पर सम्मान किया गया। उन्हें शाल और गुलदस्ता दिया गया। यह सब मुख्यमंत्री की उपस्थिति में हुआ। प्रदेश अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह ने सोनिया गांधी से अमिताभ बच्चन को कार्यक्रम में बुलाए जाने की शिकायत की। तब विवाद खड़ा हो गया। अशोक चव्हाण को तब समझ में आया कि अमिताभ बच्चन के साथ कार्यक्रम में शिरकत कर उन्होंने सोनिया गांधी को नाराज कर दिया। तब अशोक चव्हाण ने कहा कि उन्हें जानकारी नहीं थी कि अमिताभ बच्चन कार्यक्रम में सम्मिलित होने वाले हैं। उन्हें मालूम होता तो वे कर्यक्रम में जाते ही नहीं।

पुणे में अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन हो रहा है। इसके समापन कार्यक्रम में भी अशोक चव्हाण और अमिताभ बच्चन दोनों को आमंत्रित किया गया है। अशोक चव्हाण कह रहे हैं कि वे इस कार्यक्रम में अमिताभ के साथ सम्मिलित नहीं होंगे। आयोजकों ने इसीलिए दोनों के समय एक साथ को अलग अलग कर दिया है लेकिन इससे कांग्रेस की छवि को धक्का लगा है और अमिताभ के प्रशंसक कांग्रेस से नाराज हो गए है। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ही कह रहे हैं कि अमिताभ बच्चन क्या आतंकवादी हैं, चोर डाकू हैं, अछूत हैं। वे हिंदी सिनेमा के महानायक हैं और करोड़ों लोग उनके प्रशंसक हैं और यह स्थिति उन्होंने अपने श्रम से प्राप्त किया है। करोड़ों लोगों के दिल में स्थान उन्होंने अपने काम से बनाया है। जबकि चव्हाण तो सोनिया गांधी की मेहरबानी से मुख्यमंत्री हैं। नहीं तो अमिताभ के सामने वे लगते कहां हैं ?

लोगों को तो लगता है कि षडय़ंत्रपूर्वक अमिताभ को अपमानित करने के लिए यह नाटक रचा गया। राजनीति का इससे घृणित खेल और कुछ नहीं हो सकता। बहाना यह बनाया जा रहा है कि चूंकि अमिताभ बच्चन ने गुजरात का पर्यटन का ब्रांड अम्बेसडर बनना कबूल किया है। इसलिए वे नरेन्द्र मोदी के समर्थक हो गए हैं। अमिताभ ने अपने ब्लाग में इसका भी जवाब दिया है कि गुजरात के पर्यटन स्थलों का प्रचार करने का यह अर्थ नहीं कि वे नरेन्द्र मोदी का प्रचार कर रहे हैं। गुजरात में सोमनाथ का मंदिर, कृष्ण की द्वारिका है और इसका नरेन्द्र मोदी से क्या लेना देना ? इन स्थानों पर पर्यटक आएं, इसका प्रचार करना नरेन्द्र मोदी का प्रचार करना कैसे हो गया ? देश के बड़े बड़े उद्योगपतियों ने तो नरेन्द्र मोदी को देश का भावी प्रधानमंत्री बताया। कांग्रेस क्या इन उद्योगपतियों का भी अपमान करेगी ?

अमिताभ बच्चन तो चुनौती दे रहे हैं कि उन्होंने कोई अपराध किया है तो उन्हें जेल में बंद कर दो, सूली पर लटका दो। महाराष्ट्र के लोक निर्माण मंत्री जयदत्त क्षीर सागर कह रहें हैं कि उन्होंने कार्यक्रम में अमिताभ बच्चन को बुलाया था। अमिताभ ने सरकार के आमंत्रण का सम्मान किया और वे कार्यकम में शिरकत करने गए। अमिताभ बच्चन के गुजरात पर्यटन के ब्रांड अम्बेसडर बनने से यदि वास्तव में कांग्रेस नाराज है तो वह गुजरात की जनता से भी नाराज होंगी। जो बार बार दो तिहाई बहुमत से नरेन्द्र मोदी को चुनाव में जितवा रही है। तब क्या वह नरेन्द्र मोदी को समर्थन देने वाली जनता से बदला लेगी? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश भर के मुख्यमंत्रियों को यदा कदा बुलाकर सम्मेलन करते हैं तो उसमें नरेन्द्र मोदी भी हाजिर होते हैं। कांग्रेस कहे अपने प्रधानमंत्री से कि वे नरेन्द्र मोदी को इन सम्मेलनों में न बुलाया करें। नहीं, कांग्रेस ऐसा नहीं कर सकती।

वह अशोक चव्हाण से जो चाहे कहलवा सकती है लेकिन प्रधानमंत्री से नहीं। प्रधानमंत्री के सम्मेलन शासकीय कार्यक्रम होते हैं तो अशोक चव्हाण जिस पुल का उद्घाटन करने गए थे, वह भी सरकारी कार्यक्रम था। कांग्रेस का कोई निजी सम्मेलन नहीं था। क्या इस कार्यक्रम में नरेन्द्र मोदी की पार्टी के विधायकों, शिवसेना, मनसे के विधायकों को सरकार ने आमंत्रित नहीं किया था? जब हर कार्यक्रम में शिरकत करने की पात्रता भाजपा रखती है और उसे कांग्रेस रोक नहीं सकती तब गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति, सदी के महानायक, सिनेमा के सुपर स्टार की उपस्थिति से उसे क्यों परहेज होना चाहिए? एक मुख्यमंत्री के रूप में अशोक चव्हाण का यह कहना कि उन्हें मालूम होता कि अमिताभ बच्चन कार्यक्रम में आने वाले हैं तो वे कार्यकम में नहीं जाते, कितना उचित है? सोनिया गांधी को स्वयं सोचना चाहिए कि इससे उनकी संकीर्ण मनोवृत्ति की ही छवि बन रही है। क्योंकि सबको अच्छी तरह से मालूम है कि अशोक चव्हाण सोनिया गांधी के भय के कारण ही ऐसा वक्तव्य दे रहे हैं।

-विष्णु सिन्हा

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

सुख-सुविधा वेतन बढ़वाएं लेकिन कर्तव्यों के निर्वाह में खरा भी तो साबित होकर दिखाएं

मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने प्रदेश के 2 लाख शासकीय कर्मचारियों को फिर उपकृत किया है। 22 प्रतिशत महंगाई भत्ता 27 प्रतिशत कर दिया। इस बात की चिंता किए बिना कि इसका बोझ सरकार पर 120 करोड़ रुपए आएगा। महंगाई भत्ते में वृद्धि 1 अप्रैल, 2010 से की गई है लेकिन कितना भी मिले आदमी का मन भरता नहीं। तृतीय वर्ग शासकीय कर्मचारी संघ के विजय कुमार कह रहे हैं कि 1 अप्रैल, 2010 के बदले महंगाई भत्ता 1 जुलाई, 2009 से दिया जाता तो अच्छा होता। कहते हैं कि बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख लेकिन आदमी को बिना मांगें मोती भी मिल जाए तब भी याचना की प्रवृत्ति जाती नहीं। अभी बहुत समय नहीं व्यतीत हुआ जब राज्य सरकार ने अपने कर्मचारियों को छठवां वेतन आयोग की सिफारिशों से उपकृत किया था। जो पहले दिया था, वही सरकार पर भारी था। फिर 5 प्रतिशत महंगाई भत्ता बढ़ाकर खजाने पर और बोझ डाल दिया गया। आखिर जो धन सरकार अपने खजाने से कर्मचारियों पर खर्च करती है, वह आता तो जनता की जेब से है। ऐसे में शासकीय कर्मचारियों में यह भावना पैदा नहीं होती कि उस जनता के प्रति भी तो ईमानदारी से शासकीय योजनाओं को लागू करे।

मुख्यमंत्री ने महंगाई से राहत अपने कर्मचारियों को तो दे दिया लेकिन जनता को महंगाई से राहत देने का क्या उपाय है? खबर है कि विधायकों के वेतन भत्ते में भी वृद्धि की जा रही है। जब कर्मचारियों की सुख-सुविधा का ध्यान सरकार रख रही है तो उसे जनप्रतिनिधियों की सुख-सुविधा का भी ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि महंगाई का प्रभाव उन पर नहीं पड़ रहा है, यह तो मानने का कोई कारण नहीं है। विधायकों को अपने विधानसभा की जनता का ध्यान रखना पड़ता है। दो लाख से अधिक मतदाताओं में से एक विधायक चुना जाता है और जनता अपनी तरह-तरह की समस्या लेकर उनके पास आती है। इसमें आर्थिक मदद भी शामिल होता है। जब विधायक किसी पीडि़त की आर्थिक जरुरत को पूरा करने में सक्षम नहीं होता तो उसे स्वाभाविक रुप से पीड़ा होती है लेकिन वह इसके सिवाय कर भी क्या सकता है कि सरकार से उम्मीद करे कि वह मतदाता की आर्थिक समस्या का हल करे।

सारा खेल ही धन का है और हर समस्या का हल भी धन ही दिखायी देता है। 2 रुपए किलो की दर से 35 किलो चांवल भी इस धन से संबंधित ही समस्या है। गरीब की जेब में धन नहीं होता और वह बाजार भाव पर चांवल खरीद कर अपनी क्षुधा शांत नहीं कर सकता। इसलिए उसकी तकलीफ को समझ कर डॉ. रमन सिंह ने गरीब लोगों के लिए चांवल योजना लागू की और जनता से इसका प्रतिसाद भी मिला। डॉ. रमन सिंह की योजना से प्रभावित होकर कांग्रेस ने भी 3 रु. किलो में चांवल या गेहूँ देने की योजना प्रारंभ की। डॉ. रमन सिंह ने केंद्र सरकार से मांग की थी कि सिर्फ चांवल से पर्याप्त पोषक खाद्यान्न गरीबों को नहीं मिलता। इसलिए केंद्र सरकार चांवल गेहूं के साथ दाल भी दे। आज बाजार में दाल की कीमत आसमान छू रही है। गरीब तो दाल खाने के विषय में सोच ही नहीं सकता। मध्यम वर्ग की भी थाली से दाल गायब हो गयी। अब खबर है कि डॉ. रमन सिंह की सलाह पर ध्यान केंद्रित कर केंद्र सरकार गरीबों को सस्ते दर पर दाल मुहैया कराने के विषय में भी विचार कर रही है। छत्तीसगढ़ के साथ केंद्र सरकार भी भोजन के अधिकार पर कानून बनाने के विषय में गंभीर दिखायी दे रही है।

दरअसल मनुष्य की सबसे बड़ी गुलामी या परतंत्रता भूख ही है। कहा भी जाता है कि पापी पेट के लिए क्या नहीं करना पड़ता। यदि आदमी भूख की गुलामी से मुक्त हो जाए तभी उसे स्वतंत्र कहा जा सकता है। स्वतंत्रता के 63 वर्ष बाद ही सही आज पापी पेट की भूख के विषय में सरकार चिंता ही नहीं कर रही है बल्कि वह भूख से मुक्ति का मार्ग भी खोज रही है तो इससे सराहनीय तो और कोई काम नहीं हो सकता। असल में तो जनता की असली सरकार वही होगी जो बिना काम किए भी अपने नागरिकों की भूख मिटाने का इंतजाम करेगी। असली विकास भी उसे ही कहा जाएगा। जब दुनिया देखेगी कि भारत ऐसा देश है जहां किसी को भूख से छुटकारा पाने के लिए किसी तरह का उद्यम नहीं करना पड़ता। आज भोजन का अधिकार भले ही गरीबी रेखा से नीचे निवास करने वालों के लिए को दिया जा रहा है लेकिन ऐसा भी दिन अवश्य आना चाहिए जब यह अधिकार मौलिक अधिकार की तरह हर नागरिक का अधिकार हो।

प्राकृतिक व्यवस्था ऐसी है कि मनुष्य को छोड़कर कोई भी प्राणी कमा कर नहीं खाता। यहां तक कि पका कर भी नहीं खाता। हर प्राणी सीधा भोजन प्राप्त करता है और ग्रहण करता है। मनुष्य ने ही ऐसी व्यवस्था को जन्म दिया कि कमाने वाला खाएगा। सारा विकास ही दो कौड़ी का हो जाता है, यदि आदमी का पूरा जीवन कमाने खाने में चला जाता है। दुनिया में जो बड़ी से बड़ी वैज्ञानिक खोजें हुई हैं, उसके मूल में खोजकर्ता अपने पेट की आग बुझाने के लिए खोज नहीं कर रहे थे। उनकी खोजों ने ही दुनिया में सुख, सुविधा, समृद्धि को विकसित किया।

50 वर्ष पहले जो सुख-सुविधा राजा महाराजाओं को भी उपलब्ध नहीं थी, वह सुविधा आज सबके लिए उपलब्ध है। इस उपलब्धि के पीछे विज्ञान का बड़ा हाथ है। मनुष्य का श्रम जब मशीनों के पास चला गया तभी आज 120 करोड़ लोगों के लिए भी खाद्य सामाग्री उपजायी जा रही है। नहीं तो स्वतंत्र जब भारत हुआ था तब 40 करोड़ लोगों के ही पेट भरने का इंतजाम हमारे पास नहीं था। अमेरिका से पी एल 480 का गेहूं हमें मिलता था तब हमारी क्षुधा शांत होती थी। एक जमाना आएगा कमाने वाला खाएगा, यह बात तो अब फिजूल साबित हो गयी है। आज जो कमा कर खाने की कोशिश कर रहा है, वही गरीब है और जो दिमाग और पूंजी का खेल, खेल रहा हैं वह बड़ा से बड़ा धनपति होता जा रहा है। दुनिया के 5 बड़े धनी व्यक्तियों में भारत के दो पूंजीपति हैं। देश में अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। दुनिया बदल गयी है। योग्य लोगों को शासकीय नौकरी की जरुरत नहीं है। उनके लिए बड़ी-बड़ी नौकरियों के लिए द्वार दरवाजे खुले हुए हैं।

भारत के ही प्रोफेशनल आज अमेरिका की आर्थिक धुरी बने हुए हैं। ये सिर्फ खाने के लिए नहीं कमा रहे हैं। क्योंकि अब तो बहुतों के पास इतना है कि न भी कमाएं तो जिंदगी भर बैठ कर खा सकते हैं। गुणी व्यक्ति पूंजी पैदा कर रहा है तो शासकीय कर्मचारी कहां खड़ा है? वह देश की दशा और दिशा बदल सकता है लेकिन उसे अपनी मनोवृत्ति में परिवर्तन करना पड़ेगा। वह सुख सुविधाएं तो सभी चाहता है लेकिन उससे जनता की जो अपेक्षाएं हैं, उस पर खरा साबित होकर नहीं दिखाता। यदि वह ईमानदारी से जनहित की योजनाएं लागू करता है तो उसे वास्तव में सब सुख सुविधा मिलना चाहिए। किसी को इस मामले में आपत्ति नहीं हो सकती लेकिन वास्तव में ऐसा है, क्या, इसका आंकलन भी होना चाहिए?

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 26.03.2010

गुरुवार, 25 मार्च 2010

महिला आरक्षण के बहाने देश की संपूर्ण सत्ता प्राप्त करने की कोशिश

जनसंख्या के आधार पर जब विधानसभा क्षेत्र का परिसीमन किया गया तब अनुसूचित जनजाति की सीटें कम हुई। आदिवासी नेताओं ने मांग भी की कि उनकी सीटें कम न की जाए लेकिन न्याय पूर्ण तो यही था कि उनकी सीटें कम की जाएं। छत्तीसगढ़ में सीट कम हुई आदिवासियों की तो मध्यप्रदेश में बढ़ी थी। जिसे जो उसके हक के अनुसार मिलना चाहिए, वह अवश्य मिलना चाहिए लेकिन दूसरों का हक छीन कर अन्यों को देना न्यायपूर्ण नहीं है। जब संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया था तब उसकी समय सीमा 10 वर्ष रखी गयी थी। राजनैतिक दलों की वोट बैंक की राजनीति ने समय सीमा में निरंतर वृद्धि की और आज 60 वर्ष पूरे होने के बावजूद संविधान निर्माताओं की आकांक्षाएं पूरी नहीं हुई। संविधान निर्माता समझते थे कि 10 वर्षों के आरक्षण के बाद समाज के सभी वर्ग समान हो जाएंगे लेकिन राजनैतिक व्यवस्था ऐसा करने में सफल नहीं हुई।

10 वर्ष में आरक्षण समाप्त होने की बात तो दूर, यह एक तरह से अधिकार बन गया। कितने ही लोग आरक्षण का लाभ प्राप्त कर शासकीय नौकरी प्राप्त कर अवकाश प्राप्त कर चुके लेकिन आरक्षित समाज का पिछड़ापन दूर नहीं हुआ बल्कि आरक्षण का दायरा ही बढ़ गया। मंडल आयोग की सिफारिशों को मानकर पिछड़े वर्ग को भी आरक्षण दिया गया। पक्ष विपक्ष में कितने ही आंदोलन हुए और लोगों ने अपनी जान तक गंवायी लेकिन राजनीति को जब सत्ता प्राप्त करने के हथियार के रुप में आरक्षण मिला तो ऐसा मिला कि सब आरक्षण के गंगासागर में डुबकी लगाने के लिए तैयार दिखे। आरक्षण का बढ़ता दायरा महिलाओं तक भी जा पहुंचा है। प्रदेश सरकारों ने स्थानीय संस्थाओं में महिला आरक्षण दे दिया और यह 50 प्रतिशत तक पहुंच गया है। अब बारी लोकसभा और विधानसभा में महिला आरक्षण की है। कांग्रेस भाजपा वामदल महिलाओं को इन संवैधानिक संस्थाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण 15 वर्ष के लिए देने को तैयार हैं तो पिछड़े वर्ग के नेता मांग कर रहे हैं कि 33 प्रतिशत में पिछड़े वर्ग की महिलाओं को अलग से आरक्षण निश्चित किया जाए। आरक्षण के विरुद्ध कोई नहीं है लेकिन आरक्षण अपनी शर्तों पर सभी चाहते हैं।

विधि मंत्री मोइली कहते है कि लोकसभा और विधानसभा में पिछड़ों को आरक्षण देने का कोई कानून नहीं हैं, इसलिए महिलाओं के आरक्षण में इसे लागू नहीं किया जा सकता। मोइली अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि यदि महिला आरक्षण में पिछड़ों को आरक्षण दिया गया तो फिर सामान्य सीटों में भी पिछड़ों को आरक्षण देना पड़ेगा। सामान्य सीटों पर पिछड़ों को आरक्षण दे दिया गया तो फिर पूरी तरह से राजनीति का अंकगणित ही बदल जाएगा। फिर आरक्षण यहीं रुकने वाला नहीं है। अल्पसंख्यकों के लिए भी आरक्षण महिला आरक्षण में मांगा जा रहा है। शासकीय नौकरी में मुसलमानों को आरक्षण देने का प्रस्ताव आंध्र सरकार ने दिया था। जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया। न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण देने को कोई प्रावधान नहीं है। आंध्र के बाद पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार भी मुसलमानों को शासकीय नौकरी में आरक्षण देने की बात कह रही है।

अंतहीन है, यह सिलसिला। एक बार किसी को कोई भी सुविधा मिल गयी तो फिर वह किसी भी कीमत पर उसे खोना नहीं चाहता। पेट्रोल-डीजल पर ही सरकार के द्वारा दी गई सब्सिडी जब सरकार खत्म करती है तो सरकार का विरोध प्रारंभ हो जाता है। सरकार भी चुनावी लाभ की दृष्टि से छूट का खेल खेलती है। आरक्षण तो उसका पुराना जांचा परखा हथियार है। कोई भी यह सोच विचार करने को तैयार नहीं है कि आरक्षण से चंद लोगों को भले ही लाभ हुआ लेकिन पूरे वर्ग को उसका क्या लाभ मिला। 60 वर्ष कम नहीं होते? एक पीढ़ी अपनी पूरी जिंदगी गुजार चुकती है। चंद लोगों को मिले लाभ का फायदा क्या पूरे समाज को मिलता है? यह लाभ मिलता भी है तो पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हीं को मिलता है जो आरक्षण का लाभ पहले से ही उठा चुके। होना यह चाहिए कि आरक्षण का लाभ प्राप्त करने वाले आरक्षित समाज के हित में ऐसा काम करें जिससे सबको आगे बढऩे में मदद मिले। आरक्षण का लाभ उठा चुकी पीढ़ी के बदले आरक्षण का लाभ अब दूसरों को मिले, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। जिससे सभी को कभी न कभी लाभ उठाने का अवसर मिले।

आज महिला आरक्षण से मुलायम सिंह जैसे दिग्गज नेता बेचैन है। वे कहते है कि आरक्षण का वर्तमान महिला विधेयक पारित हो गया तो बड़े उद्योगपति, अफसरों के परिवार की स्त्रियां चुनाव जीत कर आ जाएंगी और जिन्हें देख कर लड़के सीटी बजाएंगे। एक महिला मायावती ने मुलायम सिंह का राजपाठ छीन लिया। वह किस उद्योगपति या अफसर परिवार से आती हैं। उन्हें देखकर कौन सीटी बजाने की हिम्मत कर सकता है? चुनाव के विषय में उद्योगपतियों का अनुभव अच्छा नहीं है। जनता ने उन्हें चुनना पसंद नहीं किया। अब तो बड़े उद्योगपति चुनाव लडऩे नहीं लेकिन पहले लड़कर देख चुके हैं और चुनाव हारने का कटु अनुभव प्राप्त कर चुके हैं। उन्हें तो राज्यसभा ही सुरक्षित लगते है और राज्यसभा में जाने के लिए जनता नहीं विधायक वोट देते है।

फिल्म अभिनेत्री जयाप्रदा को उन्हीं की पार्टी ने लोकसभा का टिकट दिया और वे जीती। जया बच्चन को राज्यसभा में मुलायम सिंह ने भी सदस्य बनाया लेकिन राज बब्बर के विरुद्ध वे अपनी बहू को लोकसभा का चुनाव नहीं जितवा सके। अमर सिंह को राजनीति में उन्होंने ही ऊंचा चढ़ाया। आज वे उनके विरुद्ध खड़े हैं और कह रहे हैं कि जब तक समाजवादी पार्टी को रसातल में नहीं मिला देंगे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे। मुलायम सिंह का अनुभव अच्छा नहीं रहा। इसका मतलब यह नहीं कि वे जो चाहें टिप्पणी करें। दरअसल महिला आरक्षण ऐसा राजनैतिक खेल है जिसमें कइयों को अपना भविष्य खराब दिखायी दे रहा है। मुलायम सिंह के साथ जो महिलाएं थी, वे उनका साथ छोड़ गयी और एक तिहाई महिला सीट हाथ से निकल गयी तो फिर सरकार में दोबारा आने का अवसर मिलता नहीं दिखायी देता। यह डर महिला आरक्षण के विरुद्ध खड़े होने के लिए उन्हें बाध्य करता है।

कहा जा रहा है कि महिला आरक्षण विधेयक अप्रैल में लोकसभा में रखा जाएगा और मतदान भी कराया जाएगा। यह भी कहा जा रहा है कि इस मुद्दे पर यदि सरकार गिर भी जाती है तो सोनिया गांधी इसके लिए भी तैयार हैं। वे मध्यावधि चुनाव करा कर कुल मतदाताओं के 50 प्रतिशत महिलाओं का समर्थन प्राप्त करना चाहती हैं। जिससे कांग्रेस को लोकसभा में पूर्ण बहुमत ही नहीं दो तिहाई बहुमत मिले और बिना किसी गठबंधन की उनकी सरकार केंद्र में बने। जिससे देश में गांधी परिवार फिर से सत्ता में स्थापित हो सके। होता क्या है, यह तो भविष्य तय करेगा लेकिन राजनैतिक प्रेक्षक महिला आरक्षण को इस दृष्टि से भी देख रहे हैं। कहीं पर निगाहें और कहीं निशाना।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 25.03.2010

बुधवार, 24 मार्च 2010

कनू सान्याल की आत्महत्या नक्सलियों को इशारा है कि उनका रास्ता गलत है

नक्सली आंदोलन के जनक कनू सान्याल ने फांसी के फंदे पर लटकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। 78 वर्षीय कनू सान्याल वैसे तो बुढ़ापे के रोगों से पीडि़त थे लेकिन आत्महत्या उनके सिद्घांतों पर प्रश्रचिन्ह तो लगाता ही है। वे यदि अपनी हिंसक क्रांति से संतुष्ट होते तो उन्हें प्रसन्न होना चाहिए था कि आज देश के बहुत बड़े इलाके में नक्सली फैल चुके हैं लेकिन प्रश्र यही खड़ा होता है कि वे इस स्थिति से प्रसन्न होते तो आत्महत्या क्यों करते ? कोई भी अपने कृत्य के परिणामों को फलता फूलता देखता है तो प्रसन्न ही होता है। उनके द्वारा की गई आत्महत्या इस बात की निशानी है कि वे प्रसन्न नहीं थे। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनका रोपित पौधा इस तरह से निर्दोषों की हत्या का कारण बनेगा और मुख्य उद्देश्य से भटक कर आतंक का पर्यायवाची बन जाएगा। आत्महत्या सीधे सीधे हताशा, निराशा और अवसाद का ही कारण दिखायी पड़ता है।

इतिहास में सैकड़ों उदाहरण हैं। हिंसा किसी भी समस्या का इलाज नहीं है। बंदूक की गोली किसी की जान तो ले सकती है लेकिन किसी के जीवन की रक्षा नहीं कर सकती। आज तो मनुष्य जीव जंतुओं की रक्षा की बात सोचता ही नहीं है बल्कि इसके लिए कानून भी उसने बनाया है। जानवर पागल हो जाए तब भी उसे पकड़कर उसका उपचार करने के विषय में सोचा जाता है न कि उसे मार डालने के विषय में। जब तक किसी की जान को ही खतरा न पैदा हो जाए तब तक किसी को भी मारना दंडनीय अपराध है। सरकार आज नक्सलियों के विरूद्घ ग्रीन हंट आपरेशन चला रही है तो यह सरकार की मजबूरी है। यह सरकार का शौक नहीं है। अपने निर्दोष शांतिप्रिय नागरिकों की जान माल और स्वतंत्रता की रक्षा करना सरकार का नैतिक कर्तव्य ही नहीं है बल्कि संवैधानिक दायित्व भी है। नक्सली तो हिंसा के लिए हिंसा कर रहे हैं। रेल पटरियों को उखाड़ देना, बम विस्फोट, नागरिकों को अपनी इच्छा के अनुसार चलाने के लिए बंदूक का भय। इन सब कृत्यों को तो पाशविक भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि पशु इस तरह का कृत्य नहीं करते।

जो व्यक्ति दूसरों की स्वतंत्रता का आदर नहीं करता, वह स्वयं की स्वतंत्रता का अधिकार भी खो देता है। कभी जमींदारों के विरूद्घ भूमि के अधिकार को लेकर चारू मजूमदार और कनू सान्याल ने हथियार उठाए थे। नक्सलबाड़ी से प्रारभ हुआ, यह हिंसक आंदोलन तो कब का समाप्त हो गया। चारू मजूमदार के बाद कनू सान्याल भी अब दुनिया छोड़कर चले गए। उनके हिंसक आंदोलन से किसका कितना हित हुआ? हित तो हुआ नहीं बल्कि हिंसा की अशांति ने जीवन दूभर अवश्य कर दिया। शायद कनू सान्याल को समझ में आ गया था कि वे गलत रास्ते पर थे। उनका जो प्रभाव युवा पीढ़ी पर पड़ा, उस कारण आज स्थिति ऐसी है कि मिला तो कुछ नहीं लेकिन बहुत से लोग मुख्य धारा से भटक गए। राजनीतिज्ञ कहते भी थे कि नक्सली हमारे ही भटक हुए भाई, बच्चे हैं और सही मार्ग पर बातचीत के द्वारा लाया जा सकता है लेकिन इस तरह की चर्चाओं ने नक्सलियों का मनोबल ही बढ़ाया। अच्छी बात भी कभी कभी बुरा असर दिखाती है, इसका उदाहरण है, नक्सलियों के प्रति सहानुभूति।

नक्सलियों ने इसका गलत अर्थ निकाला। वे समझने लगे कि सरकार झुक रही है, उनके सामने। वे और अकड़ गए। सरकार के पास इसके सिवाए कोई चारा ही नहीं बचा कि वह गोलियों का जवाब गोलियों से दे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने सबसे पहले इस बात को समझा कि नक्सली बातों की भाषा नहीं समझने वाले। निरंतर पुलिस जवानों की हत्या करके उनका मनोबल बढ़ा हुआ है। उनका प्रजातांत्रिक मूल्यों पर कोई भरोसा नहीं है। उनकी सोच स्पष्ट है कि वे जो सोचते हैं, वही उचित है। वे अपने प्रभावित क्षेत्र में विकास कार्यो के रास्ते का सबसे बड़ा अड़ंगा। जब आदिवासियों ने नक्सलियों के विरूद्घ सलवा जुडूम आंदोलन चलाया तो और स्पष्ट हो गया कि आदिवासी नक्सलियों से मुक्ति चाहते हैं। तब डा. रमन सिंह ने किसी बात की परवाह न करते हुए नक्सलियों से लडऩे का निश्चय कर लिया। आखिर उनकी नैतिक और संवैधानिक जिम्मेदारी भी है कि वे अपने नागरिकों की हिंसा से रक्षा करें। दबाव से मुक्त कराएं। उन्होंने सलवा जुडूम को सरकार का समर्थन दिलाया। नक्सलियों से लडऩे के लिए बल तैयार करने के लिए जंगलवार विद्यालय खोला। केंद्र सरकार के दरवाजे बार बार खटखटाए।

तथाकथित बुद्घिजीवियों और कांग्रेस के एक वर्ग ने डा. रमन सिंह की नक्सल विरोधी गतिविधियों की जमकर आलोचना की। वे येन केन प्रकारेण डा. रमन सिंह को रोकना चाहते थे लेकिन दृढ़ संकल्पित डा. रमन सिंह को वे रोक तो नहीं पाए बल्कि डा. रमन सिंह केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम को समझाने में सफल हो गए कि नक्सली समस्या देश के लिए कितनी खतरनाक है और यह अकेले छत्तीसगढ़ की समस्या नहीं है। केंद्र सरकार के सक्रिय होते ही राज्यों को हर तरह की मदद मिलना प्रारंभ हो गया। आज भले ही नक्सली रेल पटरियों पर विस्फोट कर रहे हैं लेकिन नक्सली नेता न केवल पकड़े जा रहे हैं बल्कि नक्सली अपना अंतिम हथियार आजमा रहे हैं। केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम कह रहे हैं कि भले ही 3-4 वर्ष लगे लेकिन नक्सल समस्या को वे समाप्त करके ही रहेंगे। यही बात डा. रमन सिंह ने कल विधानसभा में कही कि नक्सलियों को छत्तीसगढ़ छोडऩा ही पड़ेगा।

डा. रमन सिंह जो कह रहे हैं, उनकी बात में दम है। क्योंकि छत्तीसगढ़ में तो नक्सल विरोधी अभियान ने नक्सलियों को बैकफुट पर ढकेल दिया है। पहले नक्सली सशस्त्र बल के सिपाहियों को मारते थे। अब उल्टा हो रहा है। सशस्त्र बल के सिपाही नक्सलियों को मार रहे हैं या फिर नक्सली आत्मसमर्पण कर रहे हैं। नक्सलियों के हथियार बनाने के कारखाने को भी सशस्त्र बल ने अबूझमाड़ में नष्ट किया। स्वाभाविक है कि इससे आदिवासियों में खुशी की लहर है और वे कांग्रेसी नेता अब चुप्पी लगा गए हैं जो कल तक सशस्त्र बल की कार्यवाही का विरोध करते थे। आपरेशन ग्रीन हंट में निर्दोष नागरिकों के मारे जाने का राग अलाप रहे थे। मुख्यमंत्री का दिल तो इतना बड़ा है कि वे उपलब्धि को अपनी बताने के बदले पक्ष और विपक्ष की उपलब्धि बता रहे हैं। जबकि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि विपक्ष में बैठे कुछ लोगों ने इस मामले में पग पग पर कांटे बिछाने की कोशिश की।

दरअसल विपक्ष की राजनीति से सत्ता में आए डा. रमन सिंह समन्वय की राजनीति भी अच्छी तरह से जानते हैं। वे प्रतिपक्ष के अहंकार को भी फुसलाना अच्छी तरह से जानते हैं। नक्सल समस्या से प्रदेश मुक्तहोता है और जिसकी संभावना अब स्पष्ट दिखायी पड़ रही है तो श्रेय के हकदार सहज रूप से मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ही होंगे लेकिन वे श्रेय लेना जानते हैं तो श्रेय देने में भी कंजूसी नहीं करते। कनू सान्याल का विधानसभा में जिक्र करते हुए मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने कहा कि पिछले तीन वर्षों से जो लेख कनू सान्याल ने लिखे वे निराशाजनक थे। इसका सीधा अर्थ तो यही होता है कि नक्सल आंदोलन का जनक स्वयं आंदोलन से निराश था। हिंसा का यही परिणाम होता है। सृजन और विध्वंस का यही मूल अंतर है। डा. रमन सिंह प्रदेश के विकास के लिए सृजन में लगे है तो नक्सली विध्वंस में। सफल तो डा. रमन सिंह ही होंगे और सफलता की पगध्वनि सुनायी भी पड़ रही है।

- विष्णु सिन्हा
24-3-2010

मंगलवार, 23 मार्च 2010

प्राधिकरण के इतिहास के कारण लोग डरे, सहमे हुए हैं कमल विहार योजना से

नगरीय प्रशासन मंत्री ने घोषणा की है कि 1 अप्रेल से 500 वर्ग फुट के मकान पर संपत्ति कर नहीं लगेगा। 2000 वर्ग फुट का मकान बनाने के लिए स्थानीय संस्थाओं से नक्शा पास कराने की जरूरत नहीं रहेगी। आर्किटेक्ट और इंजीनियर ही नक्शा पास कर देंगे लेकिन रेन वाटर हार्वेस्टिंग को अनिवार्य कर दिया है और इसके लिए रकम स्थानीय संस्थाओं के पास जमा कराना पड़ेगा। घोषणाएं अच्छी हैं और स्वागत योग्य हैं। किसी भी आम आदमी के लिए नक्शा पास कराना किसी दुष्चक्र से कम नहीं है। इन घोषणाओं से सरकार की सोच स्पष्ट होती है। जितना कम सरकारी दबाव जनता पर हो उतना ही अच्छा शासन माना जाता है। पिछले कुछ माह पूर्व मंत्रिपरिषद ने निर्णय लिया था कि विकास प्राधिकरण और गृह निर्माण मंडल द्वारा लिए जाने वाले भूभाटक को समाप्त किया जाएगा और इसके लिए मुख्य सचिव के नेतृत्व में कमेटी बनायी जाएगी। अभी तक तो कमेटी को अपनी सिफारिश सरकार को दे देना चाहिए था। जिससे इन संस्थाओं के पट्टेदार संस्थाओं के मायाजाल से मुक्त हो जाते लेकिन अभी तक इस संबंध में निर्णय की कोई घोषणा नहीं हुई। लोग चर्चा करते हैं कि क्या यह चुनावी घोषणा थी और चुनाव के साथ सरकार ने इसे भूला दिया ?

विकास प्राधिकरण अभी तक जिन लोगों की जमीन लेता था, उन्हें बदले में जमीन का कुछ हिस्सा विकसित प्लाट के रूप में देता था और उस पर विकास शुल्क भी लेता था। इस मामले में पुराना भूस्वामी विकास प्राधिकरण का पट्टेदार हो जाता था। मजबूरी में लोगों ने इस योजना को स्वीकार तो कर लिया लेकिन यह नीति जमीन मालिकों के हित में तो नहीं थी। भूस्वामी अधिकार खोकर और विकास शुल्क देकर पट्टेदार बनना सरकारी शोषण की ही गाथा कहा जाएगा। उस समय तो मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ के लोगों को रहना पड़ता था और भोपाल इतनी दूर था कि हर किसी के बस की बात नहीं थी कि वह न्याय के लिए सरकार का दरवाजा खटखटा सके। इसलिए जमीन के बदले मुआवजा देने की नीति के तहत जमीन के कुल क्षेत्रफल का 20 प्रतिशत बिना विकास शुल्क के और 40 प्रतिशत विकास शुल्क के साथ देने की नीति लागू की गई। बहुतेरे किसान तो जमीन के बदले नगद मुआवजा सोलह हजार रूपये एकड़ ही लेने के लिए बाध्य हुए।

प्रजातंत्र में सरकारी शोषण का यह अनुपम उदाहरण रहा है। विकास प्राधिकरण ने अपनी कालोनियां देखरेख के लिए तो नगर निगम को सौंप दी और नगर निगम भी प्राधिकरण के निवासियों से संपत्ति कर, जल मल कर वसूलने लगे लेकिन प्राधिकरण को भूभाटक के रूप में भी धन तो देना ही पड़ता है। यहां तक कि जो कालोनियां नगर निगम को हस्तांतरित कर दी गई वहां भी विकास प्राधिकरण का शिकंजा कम नहीं हुआ। यदि कोई पट्टेदार अपना मकान बेचना चाहता है तो उसे विकास प्राधिकरण से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करना होगा और यह अनापत्ति प्रमाण पत्र उसे तब ही प्राप्त होगा जब बिकने वाले मकान का 10 प्रतिशत वह विकास प्राधिकरण के कार्यालय में जमा करे। किसी भी दृष्टि से देखें तो विकास प्राधिकरण से जमीन, मकान लेने वाले बंधुआ मजदूर से कम नहीं दिखायी पड़ते। इसका सीधा साफ मतलब तो यही है कि विकास प्राधिकरण से जो एक बार मकान ले लेता है, वह ताजिंदगी विकास प्राधिकरण के शिकंजे से मुक्त नहीं हो सकता।

फिर भी लोग इन कानूनी प्रावधानों को मानने के लिए बाध्य है लेकिन यदि किसी को किसी भी कारण से अपना मकान या भूमि बेचना है तो विकास प्राधिकरण से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करना आसान नही है। तरह तरह से परेशान करने में अधिकारी और कर्मचारी पीछे नहीं हैं। जब मंत्रिपरिषद ने इससे मुक्ति का निर्णय लिया तो लगा था कि सरकार दर्द को समझ गयी है और शीघ्र ही मुक्ति दिलाएगी लेकिन अभी तक तो कुछ हुआ नहीं। कमल विहार योजना से भी लोग भयभीत है तो उसका प्रमुख कारण शासकीय व्यवस्था है। शासकीय व्यवस्था के दुष्चक्र में फंसकर अपनी संपत्ति को विवादास्पद बनता तो व्यक्ति देखता ही है, साथ ही पुराना अनुभव उसे विरोध करने के लिए प्रेरित करता है। कमल विहार योजना में जो प्राधिकरण 35 प्रतिशत जमीन भूस्वामियों को देने वाला है, उस जमीन पर भूस्वामी मालिकाना हक रखेगा या वह अपनी जमीन में ही प्राधिकरण का पट्टेदार हो जाएगा। कौन ऐसा व्यक्ति है जो भूस्वामी हक खोकर अपनी ही जमीन के एक तिहाई से कुछ अधिक का किरायेदार बनना पसंद करेगा? यह स्थिति स्पष्ट होना चाहिए। शोषण का नया काला अध्याय नहीं लिखा जाना चाहिए। प्राधिकरण 65 प्रतिशत जमीन तो हड़प लेगा। जिस पर भूस्वामी का किसी भी तरह का हक नहीं रह जाएगा और 35 प्रतिशत उसे भूमि जो मिलेगी, उस पर कानूनी पाबंदी के साथ भूस्वामी किरायेदार हो जाएगा तो उसे प्रति वर्ष प्राधिकरण को भूभाटक अर्थात भूमि का किराया पटाना पड़ेगा।

सरकार की तरफ से जो वक्तव्य आ रहे हैं, उसमें कहा जा रहा है कि सरकार भूस्वामियों को भूमाफियाओं एवं दलालों से मुक्त कराना चाहती है। अवैध प्लाटिंग से जनता को बचाना चाहती है। यह सब ऊपर ऊपर से तो अच्छी बातें लगती है लेकिन प्राधिकरण के अभी तक के कृत्य किन भूमाफियाओं से कम है। उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। कितने ही किसानों की जमीन पर पूर्व में बिना अधिग्रहण ही प्राधिकरण ने कब्जा कर लिया। सड़कें बना दी। प्लाट बनाकर बेच दिए। अधिग्रहण का केस भी प्राधिकरण हार गया लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ता। एक आम आदमी और वह भी किसान कितना कोर्ट कचहरी में लड़े। 20-20 साल हो जाते है और उसके हाथ कुछ लगता नहीं। उसकी जमीन पर मकान बन जाते है और लोग रहने लगते हैं। वह सिर्फ देख सकता है और लड़ नहीं सकता। तब मजबूर होकर वह प्राधिकरण से समझौता कर लेता है। लाखों रूपये विकास शुल्क पटाकर अपनी ही भूमि के 40 प्रतिशत का वह पट्टेदार बन जाता है।

तब उसे नोटिस थमा दी जाती है कि फलां तारीख तक मकान निर्माण का काम प्रारंभ नहीं किया तो उसकी जमीन पर प्राधिकरण कब्जा कर लेगा। अब किसान अपना सब कुछ गंवाकर प्राधिकरण के निर्देश को देखकर दंग रह जाता है। वह कोई भवन निर्माता तो है, नहीं। वह करे तो क्या करे? वह जमीन बेचने के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र मांगता है तो उसे अनापत्ति प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया जाता है। विनिमय के आधार पर उसे जो जमीन दी जाती है उसका क्षेत्रफल ही कम होता है। वह और जमीन की मांग करता है तो उस पर ध्यान देने के लिए प्राधिकरण के पास समय ही नहीं है। अकथ कथा है, प्राधिकरणों की। किसी भी भूमाफिया से कम नहीं है, प्राधिकरण। सरकार तो जितने जल्दी प्राधिकरण से हितग्राहियों को मुक्त कराएगी, उतनी ही धन्यवाद की पात्र होगी।

- विष्णु सिन्हा
23-3-2010

सोमवार, 22 मार्च 2010

रायपुर नगर निगम का चुनाव कमल विहार के कारण भाजपा नहीं हारी बल्कि गलत टिकट वितरण के कारण हारी

भाजपा के वरिष्ठ नेता और रायपुर लोकसभा क्षेत्र के सांसद रमेश बैस कमल विहार योजना से खासे नाराज दिखायी पड़ रहें हैं। उनकी नाराजगी का एक कारण यह भी है कि इस योजना के संबंध में उनसे सलाह मशविरा नहीं किया गया। मतलब साफ है कि वे अपनी उपेक्षा से नाराज हैं लेकिन उनकी उपेक्षा की जा रही है तो इसका कारण भी उन्हें अपने में तलाश करना चाहिए। वे कहते हैं कि रायपुर नगर निगम के चुनाव में भाजपा की हार का कारण कमल विहार योजना है। क्या कमल विहार से पूरे नागरिक प्रभावित हो रहे है या जिनकी जमीन इस योजना के अंतर्गत आ रही है, वे प्रभावित हो रहे है? उस क्षेत्र के नागरिकों के सिवाय कमल विहार योजना से शहर के लोगों का कोई लेना-देना नहीं है। दानवीर भामाशाह वार्ड, गुढिय़ारी, खमतराई, तेलीबांधा में भाजपा चुनाव हारती है तो उसका कारण कमल विहार योजना है, ऐसा कोई भी नहीं मानेगा।

दरअसल गलत टिकट वितरण न किया जाता तो भाजपा चुनाव हारती नहीं। भाजपा के ही 5 बागी चुनाव निर्दलीय के रुप में जीते और अच्छे खासे वोटों के अंतर से जीते। ऐसा क्यों हुआ? क्यों जीतने वाले उम्मीदवारों के टिकट काटे गए और उन्हें जनता के दबाव में बागी होने के लिए बाध्य किया गया। अंतिम टिकट वितरण और घोषणा का अधिकार जिनके पास था, उसमें रमेश बैस भी थे। टिकट की घोषणा की और दिल्ली उड़ गए। जब टिकट बांटा था तो पार्टी प्रत्याशियों की जीत के लिए पसीना भी तो बहाना चाहिए था। अंतिम दिन मुख्यमंत्री के साथ रथ पर सवार होकर निकले तो किसके मुर्दाबाद के नारे लगे। जब टिकट बांटा था तो हार की नैतिक जिम्मेदारी भी लेना चाहिए। कमल विहार योजना के मत्थे हार का ठिकरा फोडऩे से सत्यता को छुपाया नहीं जा सकता। पूरी पार्टी में छोटे से छोटा कार्यकर्ता भी जानता है कि हार के लिए जिम्मेदार कौन है?

सांसद होने से ही कुछ ऐसा नहीं हो जाता कि सरकार हर काम सांसद से पूछ कर करे। फिर कमल विहार योजना का खाका तो बहुत दिनों से खींचा जा रहा है। जिनकी जमीन ली जा रही है, उन्हें 35 प्रतिशत विकसित भूखंड देने की बात है। आर्थिक रुप से नुकसान तो किसी का नहीं हो रहा है। राजधानी रायपुर में एक विकसित सर्वसुविधा संपन्न कॉलोनी बसे, इसमें ऐतराज की क्या बात है? विकास प्राधिकरण और गृह निर्माण मंडल निजी भवन निर्माताओं की तुलना में करीब आधी कीमत पर मकान देते हैं। फिर सरकार गरीबों का ध्यान नहीं रखती ऐसा कहां है? गरीबों के लिए तो सरकार ने मकान ही मकान बनाएं हैं और बना भी रही है। कुछ मकान या कॉलोनी मध्यम वर्ग के लिए भी सरकार बनाए तो इसमें आपत्ति कीक्या बात है?
स्वयं रमेश बैस ब्राम्हणपारा में रहते थे। वहीं रहते। रवि नगर कॉलोनी में रहने की क्या जरुरत थी? आखिर धन आया तो अच्छी कॉलोनी और अच्छे मकान में रहने की इच्छा भी जागृत हुई। जब रमेश बैस की इच्छा जागृत हुई तो शहर में बहुत से लोग हैं जो इन्हीं कॉलोनियों में रहना चाहते है। उनकी इच्छा को ध्यान में रख कर सरकारी एजेंसियां कुछ मकान बनाती है तो विरोध का क्या कारण है? ऐसे ही गरीबों की इतनी चिंता होती तो कुछ गरीबों के लिए करते भी दिखायी पड़ते। इस बार के लोकसभा चुनाव में गांवों से तो वह समर्थन नहीं मिला रमेश बैस को जो रायपुर शहर से मिला। यह समर्थन भी कोई रमेश बैस के कारण ही मिला हो, ऐसा भी नहीं, डॉ. रमन सिंह की लोकप्रिय जनहित कारी योजनाओं और शहर के भाजपा विधायकों के अथक प्रयासों के कारण मिला।

महिला आरक्षण विधेयक पारित हो गया तो हो सकता है कि रायपुर लोकसभा सीट महिला के कोटे में चली जाए। तब तो चुनाव रायपुर छोड़कर यदि लोकसभा में जाना है तो अन्य सीट से लडऩा पड़ेगा लेकिन क्या पार्टी अन्य सीट से टिकट देगी और वरिष्ठ मान कर दे भी दिया तो क्या जीत पाएंगे? न भी हुआ आरक्षण के तहत महिला सीट तो कांग्रेस के पास रमेश बैस का मुकाबला करने के लिए अब किरणमयी नायक दमदार प्रत्याशी है। नगर निगम चुनाव में जो बोया है उसे काटेगा कौन? स्वाभाविक है, रमेश बैस को ही काटना पड़ेगा। सभापति के चुनाव के लिए जब भाजपा के बागी पार्षदों से संपर्क किया गया तो उन्होंने भाजपा प्रत्याशी का समर्थन किया। क्योंकि संपर्क करने वालों को ये लोग अपनी टिकट काटने के मामले में दोषी नहीं समझते थे। ये अभी भी भाजपा से नाराज नहीं हैं लेकिन रमेश बैस से खुश है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता।

बहुसंख्यक जनता डॉ. रमन सिंह के शासन से खुश है। कांग्रेस भी विरोध कर के कुछ प्राप्त नहीं कर सकी। उसे स्थानीय संस्थाओं के चुनाव में सफलता भी मिली तो अपने कारण नहीं, भाजपा के उन वरिष्ठ लोगों के कारण जिनका अपनी वरिष्ठता को लेकर दिमाग सातवें आसमान पर है। आश्चर्य की बात तो यह है कि ये सब बातें भाजपा आलाकमान तक पहुंचती है या नहीं पहुंचती तो पहुंचानी चाहिए। कांग्रेस को नुकसान कांग्रेसियों के कारण पहुंचा और अब भाजपा को नुकसान भाजपाइयों के कारण पहुंच रहा है। पार्टी यदि ऐसे कालिदासों से सावधान नहीं रहती तो पार्टी को और नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए। क्योंकि जिस डाल पर बैठे हैं उसे ही जब काटेंगे तो डाल के साथ खुद भी तो नीचे गिरेंगे।

रमेश बैस कह रहे हैं कि वे कोर कमेटी में इस मामले को उठाएंगे। उन्हें अवश्य उठाना चाहिए लेकिन फिर मीडिया से वे बात कर लोगों को क्या संदेश दे रहे हैं? अभी कल ही तो राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने कहा है कि किसी को कोई शिकायत है तो वह मीडिया से नहीं, उनसे सीधी बात करें। कम से कम यह बात लोकसभा में भाजपा के संसदीय दल के सचेतक को तो समझ में आना ही चाहिए। इस तरह से पार्टी के बड़े नेता ही जब बेलगाम हो जाएंगे तो फिर पार्टी के अनुशासन का क्या होगा? सरकार तो पार्टी की पैठ और साख बढ़ाने के लिए काम करें और वरिष्ठ नेता मिट्टी पलीद करने की कोशिश करें। वे छोटे कार्यकर्ताओं को क्या संदेश दे रहे हैं? आखिर छोटे कार्यकर्ता सीखते तो बड़े नेताओं से ही है।

डॉ. रमन सिंह के विषय में इंडिया टुडे लिखता है कि भाजपा के असंतुष्ट उन्हें कुर्सी से बेदखल करने में नाकामयाब रहे। यहां तक कि पिछले वर्ष हुए नगरीय निकाय के चुनावों में मिला पार्टी को झटका भी उनकी छवि को बिगाड़ नहीं सका। यह बात असंतुष्ट को खल रही है। वे फिर से बहाने खोज रहे हैं। वे समझते हैं कि राजनाथ सिंह के बाद नितिन गडकरी के अध्यक्ष बनने से अब उनके लिए फिर अवसर है। कमल विहार तो बहाना है। दरअसल नजर कहीं और हैं और कुछ मिले न मिले दबाव की राजनीति के तहत निगम मंडलों में अपने समर्थकों के लिए पद हथियाए तो जा ही सकते हैं। खेल भी पुराना है और खिलाड़ी भी पुराने हैं लेकिन इस बार शायद दांव न चले। आलाकमान भी जानता है कि असल में रोग की जड़ क्या है ?

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 22.03.2010

रविवार, 21 मार्च 2010

मंत्री का अधिकारी को तमाचा जडऩा कोई अच्छा संदेश नहीं दे रहा है

प्रदेश के एक मंत्री ने एक अफसर के गाल पर तमाचा जड़ दिया। यह सही है कि किसी को भी किसी के साथ मारपीट का अधिकार नहीं है। यदि अधिकारी के कार्य या व्यवहार से मंत्री असंतुष्ट हैं तो वे उस अधिकारी पर उचित कार्यवाही करने की सिफारिश कर सकते हैं। उच्च अधिकारी को कर्तव्य के ठीक से नहीं करने के आधार पर निलंबित भी करने की सिफारिश कर सकते हैं लेकिन कानून को हाथ में लेकर मंत्री अधिकारी पर हाथ उठाने लगे तो फिर एक सभ्य समाज में कानून के शासन का क्या होगा? हालांकि मंत्री कह रहे है कि उन्होंने अधिकारी को तमाचा नहीं मारा। कलेक्टर भी कह रहे है कि कोई लिखित शिकायत अधिकारी ने उनसे नहीं की है। स्वाभाविक है कि मंत्री से तमाचा खा कर अधिकारी डर गया होगा। अपने को असुरक्षित समझने लगा होगा। क्योंकि यह सिद्ध करना कि मंत्री ने उसे मारा आसान काम तो है, नहीं। घटना के समय उपस्थित लोग जरुरी तो नहीं कि अधिकारी के पक्ष में बयान दें। कौन मंत्री से पंगा लेना चाहेगा?

फिर किसी जनता की समस्या को लेकर मंत्री नाराज होते तो एक बार सहानुभूति के हकदार भी होते लेकिन मंत्री किसी जनता की समस्या से रुष्ठ नहीं थे बल्कि अपनी सुख-सुविधा को लेकर नाराज थे। उनके लिए कमरा उचित स्थान पर आरक्षित क्यों नहीं किया गया, इसको लेकर नाराज थे। इसे एक तरह से उन्होंने अपना अपमान समझा कि मंत्री रहते उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। मंत्री हैं तो उनका खास ध्यान रखा जाना चाहिए। अधिवक्ता परिषद की ई-लायब्रेरी व वेबसाइट के उदघाटन के लिए आए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश राज्य के विशेष मेहमान थे। स्वाभाविक है कि प्रोटोकाल का ध्यान मेहमानों के प्रति ज्यादा होगा। ऐसे में घर के आदमी को अपनी उपेक्षा का नहीं, मेहमानों की उपेक्षा न हो इसका ध्यान रखना चाहिए था। यदि मेहमानों के स्वागत सत्कार में किसी शिकायत से मंत्री नाराज होते तो उनकी नाराजगी एक बार जायज भी मानी जा सकती थी लेकिन जिसे स्वयं की चिंता सबसे ज्यादा हो, वही अधिकारी को मारने जैसी हरकत कर सकता है।

कल ही डॉन ग्रुप के नाम पर शहर में बम फोडऩे के आरोप में पुलिस ने कुछ युवकों को न्यायालय में प्रस्तुत किया। इन युवकों ने न्यायालय में कहा कि वे बेकसूर है और उनसे मारपीट कर पुलिस ने जुर्म कबूल कराया है। न्यायालय ने युवकों को डॉक्टरों से जांच कराने का आदेश दिया है। यह बात स्मरणीय है कि पुलिस को भी पकड़े गए आरोपियों से मारपीट का कोई कानूनी अधिकार नहीं है लेकिन पुलिस मारपीट करती है और कभी-कभी तो आरोपियों की मृत्यु भी हो जाती है, मारपीट से, यह भी तथ्य हैं परंतु कानून के दायरे में यह पुलिस के द्वारा किए गए अपराध की श्रेणी में आता है। कानून किसी को भी किसी के साथ मारपीट करने का अधिकार नहीं देता। इस तरह का अधिकार मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री क्या राष्ट्रपति को भी नहीं है। ऐसे में किसी मंत्री के द्वारा किसी अधिकारी को तमाचा मारना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।

मंत्री का व्यवहार तो समाज के लिए उदाहरण होना चाहिए। जब मंत्री ही कानून का सम्मान नहीं करेगा तब वह लोगों से कानून का सम्मान करने की अपेक्षा कैसे कर सकता है? फिर वह विधि मंत्री भी हो तो उस पर तो कानून की पाबंदी की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है। विधि मंत्री ही कानून तोड़ेगा तो फिर कानून के पालन की उम्मीद किससे की जा सकती है। अपने अपमान का यह अर्थ नहीं है कि मंत्री अधिकारी का अपमान तमाचा मार कर करे। फिर मंत्री के अपमान का कोई उद्देश्य एक सामान्य से डिप्टी कलेक्टर के पास क्या हो सकता है? वह जानबूझकर ऐसा करने की तो सोच भी नहीं सकता। जिस अधिकारी को मंत्री, ने तमाचा जड़ा, वह तो अपमान का घूंट पीकर अपने घर चला गया। उसने तो मीडिया को भी बयान नहीं दिया कि उसके साथ क्या हुआ? उसका भी दिमाग आऊट आफ कंट्रोल हो जाता और वह भी पलट कर मंत्री जी के तमाचे के जवाब में तमाचा लगा देता तो क्या होता? क्या मंत्री जी ऐसी स्थिति बर्दाश्त कर सकते थे। तब जो बवंडर मचता और आए हुए मेहमानों को पता चलता कि एक अधिकारी ने मंत्री के तमाचे के जवाब में मंत्री को तमाचा जड़ दिया तो मंत्री जी का तो जो अपमान होता, वह होता ही, भाजपा और उनकी सरकार की छवि क्या बनती?

अधिकारी की तो तारीफ ही की जानी चाहिए कि उसने अपनी बुद्धि से नियंत्रण नहीं खोया। वह मंत्री जी के पदचिन्हों पर नहीं चला। मन मसोस कर रह गया। अपने अपमान के कड़वे घूंट को पी गया। वह जब अपने
अधीनस्थ कर्मचारियों, पत्नी, बच्चों के सामने खड़ा होता है तो कहीं न कहीं उसके दिल में चुभन तो होती ही होगी कि बिना किसी कसूर के उसे पीटा गया। यह दुख किसी भी व्यक्ति के लिए कमतर नहीं है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि निरपराध व्यक्ति अन्याय का शिकार हो जाए। मानसिक प्रताडऩा से बड़ी कोई तकलीफ नहीं होती। एक अधिकारी के गाल पर पड़ा तमाचा सारे कर्मचारियों के लिए सोच का विषय तो बन ही जाता है कि क्या अब ऐसे दिन आ गए है कि मंत्री उन्हें तमाचा जड़ेंगे। दुख में सोच की कोई लंबाई नहीं होती।

मंत्री जी में जरा सी भी इंसानियत है तो उन्हें अधिकारी से क्षमा मांगने में शर्म महसूस नहीं करना चाहिए। क्षमा मांगने वाला बड़ा इंसान होता है। अपनी गलती को महसूस करना और ईमानदारी से महसूस कर क्षमा मांगने से कोई छोटा नहीं होता बल्कि इससे उसका बड़प्पन ही झलकता है। क्षमा मांगना और क्षमा करना ये दोनों इंसानी सदगुण है। किसी भी बड़े से बड़े व्यक्ति को भी छोटे से छोटे व्यक्ति का अपमान करने का अधिकार नहीं है। ये वही मंत्री जी हैं जो मुख्यमंत्री से शिकायत करते हैं कि अधिकारी उनकी नहीं सुनते। उन्हें स्वयं विचार करना चाहिए कि उनमें क्या कमियां है जो अधिकारी उनकी नहीं सुनते। डांट-डपट और मारपीट से अधिकारियों से अपने मनमाफिक काम नहीं करवाया जा सकता। अपने कर्मचारियों से काम लेने की कला उन्हें सीखनी चाहिए।

अधिकारियों के द्वारा बुलायी गई रैली में शिरकत कर और उस रैली में जहां सरकार के विरुद्ध नारे लगते हैं, अधिकारियों को काम करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता। सरकार में मंत्री का पद मिलना ही बड़ी उपलब्धि नहीं है। उपलब्धि बड़ी तो तब होगी जब आप काम करने की क्षमता भी रखेंगे। मुख्यमंत्री बनने की इच्छा रखना कोई गलत बात नहीं हैं लेकिन यह भी तो देख लेना चाहिए कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ कर पूरे प्रदेश का राजकाज चलाने के लिए धैर्य की जरुरत होती है। सहनशक्ति की जरुरत होती है। जब मंत्री रह कर ही धैर्य नहीं रखा जाता और मात्र ठहरने की व्यवस्था सही नहीं होने पर अधिकारी के गाल पर तमाचा जड़ा जाता है। तब और बड़े पद पर बैठ कर अधैर्यवान व्यक्ति कैसे सुचारु रुप से राजकाज चलाएगा?

-विष्णु सिन्हा
दिनांक 21.03.2010

शनिवार, 20 मार्च 2010

कानून का भय होता तो न तो महंगाई बढ़ती और न ही सरकार को रोज नए कानून बनाने पड़ते

केंद्र सरकार ने अपने कर्मचारियों एवं पेंशनरों का महंगाई भत्ता 27 से बढ़ा कर 35 प्रतिशत कर दिया। इसका स्पष्ट अर्थ होता है कि सरकार ने माना की महंगाई बढ़ी है। केंद्र सरकार के कर्मचारियों को तो 8 प्रतिशत महंगाई भत्ता बढऩे से राहत मिलेगी लेकिन करोड़ों लोग जिन्होंने सरकार को चुना उनको महंगाई की मार से कौन बचाएगा? जनता के द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार अपने कर्मचारियों की तकलीफ तो समझती है लेकिन जनता की तकलीफ समझने के लिए उसके पास फुरसत नहीं है। जब पेट्रोल डीजल की बढ़ी कीमत वापस लेने के लिए विपक्ष सरकार से आग्रह करता है तो सरकार के वित्त मंत्री एक्सक्यूज मी कह कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। केंद्र सरकार ने जब अपने कर्मचारियों का महंगाई भत्ता बढ़ा दिया तब राज्य सरकारों को भी देर अबेर बढ़ाना तो पड़ेगा। जिसका अर्थ होगा विकास की योजनाओं एवं जनता के लिए खर्च की जाने वाली रकम में कटौती । केंद्र सरकार ने छठवां वेतन आयोग की सिफारिश लागू कर राज्य सरकार को भी उसे मानने के लिए बाध्य किया। प्रत्यक्ष रुप से न सही लेकिन अप्रत्यक्ष रुप से राज्य सरकारों पर दबाव डालने की स्थिति तो निर्मित हो ही जाती है।

देश की कुल आबादी का अधिक से अधिक 2 प्रतिशत शासकीय कर्मचारी है। एक कर्मचारी के परिवार में 5 सदस्य भी मानें तो शासकीय नौकरी का लाभ 10 प्रतिशत जनता को होता है। लेकिन 90 प्रतिशत जनता तो असुरक्षित क्षेत्र से ही अपनी आजीविका कमाती है। महंगाई का असर सबसे ज्यादा इन्हें ही भोगना पड़ता है। इनमें से भी 20 प्रतिशत जनता को संपन्न मान लिया जाए तो 70 प्रतिशत जनता की आय के क्षेत्र एकदम निश्चित नहीं है। खासकर कृषि क्षेत्र में लगे लोगों की। हालांकि सरकार विभिन्न योजनाओं के द्वारा इन्हें लाभ पहुंचाने की कोशिश करती है लेकिन फिर भी उत्पादन तो बहुत सारी बातों पर निर्भर करता है। खाद के भाव बढ़ गए। गेहूं की बंपर फसल है तो भाव उचित मिलने की संभावना कम हो जाती है। ऊपर से कृषि मंत्री शरद पवार कहते है कि वे अर्थशास्त्री नहीं है। वे तो किसान हैं। यदि वास्तव में वे किसान हैं तो किसानों के दुख तकलीफों से सबसे ज्यादा वाकिफ उन्हें ही होना चाहिए। वे बड़ा मजाकिया जवाब देते हैं कि वे ज्योतिषी नहीं हैं। मीडिया वालों ने महंगाई बढ़ायी। जो वे कहते हैं मीडिया उसे आम जनता के सामने खबरों के रुप में प्रस्तुत करता है। मीडिया के हाथ में महंगाई बढ़ाना या कम करना होता तो फिर मीडिया ही सब कुछ हो जाता। मीडिया ही महंगाई का कारण है तो मीडिया बढ़ती महंगाई का रोना क्यों रोता है?

असफलताओं और गल्तियों के कारण शक्कर की कीमत बढ़ी। पहले वह इसका ठिकरा राज्य सरकारों के सर फोड़ती रही लेकिन जब बात हजम नहीं हुई तब मायावती के सर मढऩे की कोशिश की गयी। तब भी दाल न गली तो अब मीडिया को महंगाई का कारण बताया जा रहा है। 3 लाख से अधिक कमाने वालों को आयकर में छूट दी जा रही है और पेट्र्रोल डीजल की कीमत बढ़ाकर आम आदमी को महंगाई के हवाले किया जा रहा है। 4 दिन महंगाई नीचे आती है तो फिर अपनी जगह पहुंचने के लिए जी तोड़ कोशिश करने लगती है। दरअसल कमायी का ऐसा चस्का है कि भाव गिरना व्यापारी बर्दाश्त ही नहीं कर पाते। विपक्ष मांग करता है कि खाद्यान्न का सट्टा बंद किया जाए लेकिन सरकार के कान पर जूं भी नहीं रेंगती।

महंगाई का सबसे अधिक प्रभाव महिलाओं पर ही पड़ता है। क्योंकि आज भी घर तो उन्हें ही चलाना पड़ता है। महिलाओं को महिला आरक्षण के नाम पर फुसलाया जा रहा है। उनकी तरक्की के स्वप्न दिखाए जा रहे हैं। अच्छा है। गलत नहीं है। शायद महिलाओं के ही हाथ में सत्ता की चाबी आए तो भ्रष्टïचार पर लगाम लगे। यह बात तो स्पष्ट हो चुकी है कि बढ़ी हुई महंगाई में भ्रष्टाचार का भी बहुत बड़ा हाथ है। साढ़े बारह रुपए किलो शक्कर निर्यात की जाती है और 35-36 रुपए किलो कच्ची शक्कर आयात की जाती है। अब गेहूं की बंपर फसल हुई है और सरकार के पास पहले से ही बपर स्टाक है। तब कहा जा रहा है कि निर्यात की अनुमति नहीं दी जाएगी। क्यों? इसलिए कि किसानों का गेहूं व्यापारियों, दलालों के गोदाम में सस्ते में खरीद कर भरा जा सके। वक्त आने पर महंगी कीमत पर देश में ही नहीं विदेशों को भी निर्यात किया जा सके। किसान बेचारा तो इस खेल को समझता नहीं और उसके श्रम को लूट कर अपना खजाना भरने वालों की कमी नहीं है।
लोगों का ध्यान किस तरह से मूल समस्या से हटे, इसके लिए महिला आरक्षण, कैपिटेशन फीस ली तो जेल जैसे मुद्दे उछाले जाते हैं। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल लोकसभा में विधेयक पेश कर रहे हैं कि जो संस्थाएं कैपिटेशन फीस लेंगे तो उन्हें 5 से 50 लाख जुर्माना के साथ 3 वर्ष की जेल भी हो सकती है। कैपिटेशन फीस कोई आम आदमी भर कर तो अपने बच्चों को पढ़ाता नहीं। धनी लोग ही अपने अयोग्य बच्चों को येन-केन-प्रकारेण पढ़ाना चाहते हैं। ऐसे लोग खुशी-खुशी कैपिटेशन फीस देते हैं। उन्हें दी गई फीस की रसीद भी नहीं चाहिए। वे तो अपने बच्चों को परीक्षा में उत्तीर्ण कराने के लिए भेंट पूजा देने से भी पीछे नहीं रहते। लेने वाला भी खुश और देने वाला भी खुश। मैनेजमेंट के पास जो सीटें होती हैं उसे बेच कर ही तो कॉलेज प्रबंधन अपना घर भरता है। यह लाभ न मिले तो अच्छे कॉलेजों का खुलना ही बंद हो जाए। जब लाभ नहीं होगा तो कौन कॉलेज खोलना चाहेगा?

देश में हर तरह के अपराध के लिए कानून हैं लेकिन क्या कानूनों से अपराध की रोक थाम हुई या उसमें इजाफा ही हुआ। भ्रष्टाचारी को किसी तरह का भय नहीं सताता। वह जानता है कि धन में बहुत बड़ी ताकत है । यदि धन है उसके पास तो बचने के रास्ते भी निकाल लेता है। एक विख्यात उपन्यासकार मारियो पूजो ने तो लिखा है कि बिना अपराध के धन के ढेर नहीं लगते। कानून की आड़ में कमजोरों को धमकाया चमकाया तो जा सकता है और उनसे अपने मनमाफिक काम करवाए जा सकते हैं लेकिन अपराध को जड़ मूल से नष्ट नहीं किया जा सकता। कभी नैतिक मूल्य ईमानदारी की बड़ी कीमत थी लेकिन अर्थ प्रधान युग में अर्थ की ही सबसे बड़ी कीमत है। इसीलिए तो धन कमाने वाले नैतिक मूल्यों को एक ताक रख देते हैं। ऐसा नहीं होता तो न तो महंगाई बढ़ती और न ही तरह-तरह के कानून बनाने की सरकार को जरुरत पड़ती।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 20.03.2010

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

पुरुष कुतर्कों से महिलाओं को आगे बढऩे से रोकने का कितना भी प्रयास करे, वह रोक नहीं पाएंगे

हिंदू नव वर्ष के प्रथम दिन नीतिन गडकरी ने अपनी कार्यकारिणी की घोषणा कर दी। छत्तीसगढ़ से दो महिलाएं उनकी टीम में है । करुणा शुक्ला उपाध्यक्ष और सरोज पांडे सचिव। ये पुरानी टीम में भी थी। गडकरी की टीम में महिलाओं को 30 प्रतिशत से अधिक स्थान मिला है। इससे महिलाओं के विषय में पार्टी की सोच एकदम स्पष्ट दिखायी देती है। फिर भी असंतोष तो है। कहा जा रहा है कि हर वर्ग की महिला का प्रतिनिधित्व नहीं है। दलित और आदिवासी महिलाओं की कमी टीम में खलने वाली है। छत्तीसगढ़ से ली गयी दोनों महिलाएं एक ही जाति से ताल्लुक रखती है। वैसे भाजपा की और खास कर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सोच जात-पात को नहीं मानती। उनकी सोच सभी के प्रति एक समान है। संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने तो जाति प्रथा समाप्त करने के लिए ही कहा है। कभी जाति का संबंध कर्म से था लेकिन अब तो सभी लोग सभी काम करने लगे, इसलिए जाति का अर्थ ही क्या रह जाता है? उत्तरप्रदेश में तो ब्राम्हण जाति के लोग स्थानीय संस्थाओं में सफाई कर्मचारी की हैसियत से भी काम करते हैं।

प्रश्र राजनीति के लिए जातियों का भले ही हो। क्योंकि जाति में भारतीयों को विभाजित कर ही कुछ लोग अपना राजनैतिक भविष्य देखते हैं। इसीलिए महिला आरक्षण का भी वे लोग विरोध करते हैं। उनका कहना स्पष्ट है कि महिला आरक्षण में जातियों का भी आरक्षण होना चाहिए। जिससे पिछड़ी जाति की महिलाएं भी राजनाति में आगे बढ़ सकें। वे महिला आरक्षण का यह अर्थ देखते है कि इससे लाभ सिर्फ पढ़ी लिखी सवर्ण महिलाओं को ही होगा और इस तरह से सवर्ण लोगों से सत्ता को मुक्त कराना कठिन होगा। यह बात ध्यान में नहीं रखी जाती कि मुख्यत: महिलाएं ही पूरी तरह से उपेक्षित हैं। अभी ही लोकसभा में सिर्फ 10 प्रतिशत महिलाएं चुन कर आयी हैं और यह 63 वर्ष के स्वतंत्र भारत का इतिहास है। पुरुषों को बराबरी की टक्कर देकर महिलाएं इतना ही अर्जित कर सकी है।

पुरुष प्रधान समाज में भी आज कांग्रेस की अध्यक्ष और संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी है तो लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज है। देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती हैं। पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के वर्चस्व को भी एक महिला ममता बेनर्जी ने तोड़ा है। यह सब अर्जित करने वाली महिलाओं ने पुरुषों से बड़ी प्रतिस्पर्धा से ही उच्च पदों को हासिल किया है। महिलाएं हर क्षेत्र में उपलब्धियों के झंडे गाड़ रही है। पिछले दिनों उच्च न्यायालय ने महिलाओं को सेना में स्थायी कमीशन देने के आदेश दिए है। पहली भारतीय महिला कल्पना चावला ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में भी अपनी योग्यता प्रदर्शित की है। महिलाओं का आगे बढऩा बहुत से पुरुषों को नागवार लग रहा है और वे अच्छी तरह से समझते हैं कि महिला आरक्षण हो गया तो उनके सत्ता सुख का रास्ता बंद हो जाएगा।

लेकिन आज के युग में महिलाओं को आगे बढऩे से रोकना क्या आसान है? जब पुरुष प्रधान समाज में उन्होंने संघर्ष कर अपना स्थान बनाया तब आरक्षण न भी मिला तो भी वे रुकने वाली नहीं हैं। इस देश की महिलाओं ने तो स्वतंत्रता में भी अहम भूमिका निभायी है। तब जब शिक्षा का पूरी तरह से अभाव था। आज भी प्रधानमंत्री की सूची पर जब दृष्टि डाली जाती है तो इंदिरा गांधी के मुकाबले में कौन ठहरता है? जब पुरुषों का पूरी तरह से कांग्रेस पर वर्चस्व था तब पार्टी से निकाले जाने के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी खड़ी की और एक बार नहीं दो बार। जनता ने उनको भरपूर समर्थन दिया। जनता आपातकाल के कारण उनसे नाराज भी हुई तो शीघ्र ही मात्र ढाई वर्ष के अंतराल के बाद सत्ता के लिए उन्हें योग्य समझा।

आज उनकी बहू सोनिया गांधी के ही इशारे पर ही सरकार चलती है। इटली में जन्मी महिला ने भारतीय जनता का विश्वास जीत लिया। जो लोग सोनिया गांधी के विदेशी मूल का होने के कारण उनका विरोध करते थे, जनता ने उनके बदले सोनिया को स्वीकार किया। विरोध करने वाले आज सोनिया गांधी की नाराजगी का अर्थ समझते हैं। राज्यसभा से महिला आरक्षण बिल का पास होना सोनिया गांधी की ही दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम है। इसी से समझ में आ जाना चाहिए कि महिला यदि किसी बात को ठान लेती है तो उसे वह करने से कोई रोक नहीं सकता। वह उपलब्धि और त्याग दोनों का उदाहरण है। सोनिया गांधी के लिए प्रधानमंत्री बनने का अवसर स्पष्ट था लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बनाया। यह भी एक महिला ही कर सकती है। घर की चहारदीवारी तोड़ कर जो महिला देश के लिए लडऩे के लिए फौज मे पहुंच गयी, उसकी शक्ति की कथाएं तो हमारे धर्मग्रंथों में भी भरी पड़ी हैं। शक्ति की देवी दुर्गा की उपासना का पर्व नवरात्रि चल रहा है। असुरों के संहार के लिए दुर्गा माता की ही उपासना की जाती है। बंगलादेश का युद्ध जीतने पर भाजपा के नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा की ही उपमा दी थी।

लोकसभा में ही देखें तो वयोवृद्ध भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी सुषमा स्वराज के सामने फीके लगते है। भाजपा ने स्त्री शक्ति को पहचाना है और उसे आगे बढ़ाना संगठन के माध्यम से प्रारंभ किया है। हेमामालिनी, स्मृति ईरानी, सरोज पांडे, वसुंधरा राजे सिंधिया जैसी नेताओं में जनता का विश्वास अर्जित करने की शक्ति है। कालचक्र का चक्का आगे घूम रहा है। उसे उल्टा नहीं घुमाया जा सकता। कल ही भिलाई के महर्षि विद्या मंदिर के प्राचार्य को लात जूते खाने पड़े। क्योंकि उसने छात्राओं के साथ अश्लील बातें की। अब पुरानी छात्राएं नहीं है। जो शर्म हया के कारण सब कुछ बर्दाश्त कर लें। छात्राओं ने प्राचार्य की बातें अपने मोबाइल में रिकार्ड कर ली और अपने पालकों को बतायी। पालक स्कूल पहुंच गए और फिर प्राचार्य को पीट-पीट कर पुलिस के हवाले कर दिया। छात्राओं की बुद्धिमता और जागरुकता की जितनी भी तारीफ की जाए, कम है।
वक्त बदल गया है। लड़कियां आगे आ रही हैं। आरक्षण मिला तो वे पुरुषों की बाढ़ को तोड़ देंगी। पुरुषों ने अपनी तरफ से रोकने का पूरा प्रयास किया।न भी मिला तब भी वह रुकने वाली नहीं है। ऐसा कौन सा क्षेत्र है जहां भारतीय लड़कियां, महिलाएं अपने जौहर नहीं दिखा रही है। राजनीति के क्षेत्र मे भी उन्हें अवसरों की जरुरत है। सीधे-सीधे अवसर न मिला तो वे झपट लेंगी। बहुत दिनों तक पुरुषों की दादागिरी नहीं चलने वाली है। महिला आरक्षण को कुतर्कों से जो रोकने की कोशिश कर रहे हैं, वे रोक तो नहीं पाएंगे।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 19.03.2010

किरणमयी बहुत से कांग्रेसियों से ज्यादा योग्य हैं और उन्हें किसी की सलाह की जरूरत नहीं

किरणमयी नायक को रायपुर नगर की जनता ने अपना महापौर चुना। कांगे्रस की प्रत्याशी के रूप में वे चुनाव मैदान में थी लेकिन कितने दिग्गज कांग्रेसियों ने उनकी जीत का मार्ग प्रशस्त किया ? कांग्रेस के पक्ष में जनादेश होता तो 70 में से कम से कम 36 पार्षद तो कांग्रेस के चुने जाते लेकिन 31 पार्षद ही चुने गए। भाजपा के केवल 29 पार्षद ही चुनाव जीत सके। 10 पार्षद निर्दलीय चुनाव जीतकर आए। इसमें भी अधिकांश भाजपा के ही बागी पार्षद थे। सभापति के चुनाव में कांग्रेस ने मनोज कंदोई को खड़ा किया लेकिन वे जीत नहीं सके और भाजपा के संजय श्रीवास्तव चुनाव जीत गए। कांग्रेस के ही पार्षदों ने भी संजय श्रीवास्तव को वोट दिया। स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस संगठन अपने पार्षदों को भी नहीं संभाल सकता। अब संगठन महापौर को नियंत्रित करना चाहता है। वह एक टीम बना रहा है जो किरणमयी नायक को घोषणा पत्र के अनुरूप कार्य करने के लिए बाध्य करेगा। जहां तक घोषणा पत्र का संबंध है तो वह किरणमयी नायक का बनाया हुआ नहीं है। उसे भी संगठन ने बढ़ चढ़कर जनता को लुभाने के लिए बनाया था।

हकीकत में नगर निगम की स्थिति क्या है और उसके पास आर्थिक संसाधनों की क्या स्थिति है, इसका अनुमान लगाए बिना ही वायदे किए गए हैं। जब किरणमयी नायक ने महापौर का पद संभाला तब उन्हें पता चला कि वायदों को पूरा करने के लिए जितने धन की जरूरत है, उतना धन नगर निगम के खजाने में नहीं है और न ही नगर निगम के आय श्रोत ही इतने हैं कि धन इकट्ठा किया जा सके। तब सबसे पहले उन्होंने धन प्राप्त करने के साधनों पर ही ध्यान देना प्रारंभ किया और इसका उदाहरण है कि शहर के बीचो बीच स्थित एक लाज से ही विगत 20 वर्षों से संपत्ति कर वसूला ही नहीं गया। करीब 20 लाख का संपत्ति कर वसूला जाना है। विज्ञापन की होर्डिंग से ही 40 करोड़ वसूलने की योजना है। नगर निगम की आय कैसे बढ़ायी जाए, इस पर महापौर ने अपना ध्यान केंद्रित किया है.

सफई व्यवस्था के लिए तो महापौर ने स्वयं सफाई कर सफाई विभाग को जागृत करने की कोशिश की लेकिन कांग्रेस संगठन जागृत नहीं हुआ। महापौर के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कांग्रेस संगठन ने भी शहर की सफाई व्यवस्था का बीड़ा उठाया होता तो आज शहर में कांग्रेस की स्थिति ही दूसरी होती। मोहल्ले मोहल्ले में कांग्रेस के पदाधिकारी, कार्यकर्ता, युवक कांग्रेस, सेवा दल, महिला कांग्रेस, छात्र संगठन के सदस्य झाड़ू उठाकर निकल जाते तो रायपुर शहर की जनता का विश्वास प्राप्त कर सकते थे। कांग्रेसी देखते रहें और महापौर अपने कुछ पार्षदों के साथ सफाई अभियान में लगी रही। सफेद क्लफ वाली खादी पहनने वाले कांग्रेसी भूल गए कि महात्मा गांधी तो अपना पाखाना तक साफ करने के लिए कांग्रेसियों को प्रेरित करते रहे हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में सफाई, स्वयं सेवा कांग्रेस के कार्यक्रमों का प्रमुख अंग रहा है। जनता का सेवक कहने में जिन्हें गर्व का भान होता था, वे सेवा धर्म से अपने को अलग कर चुके हैं। सफाई करना अब सफाई कर्मचारियों का काम रह गया है।

कल ही एक कटु टिप्पणी राजधानी रायपुर के विषय में समाचार पत्रों में छपी है कि रायपुर धारावी की तरह लगता है। मुंबई की झुग्गी झोपडिय़ों की बड़ी बस्ती धारावी। इससे बड़ा तमाचा शहर के गाल पर क्या हो सकता है लेकिन इसके बावजूद यह विचारणीय तो है कि वास्तव में रायपुर एक राजधानी शहर की तरह विकसित क्यों नहीं हो पा रहा है? यह ठीक है कि पुराना शहर है लेकिन फिर भी मास्टर प्लान तो रहा है। बढ़ते शहर की आवश्यकता के अनुसार कांग्रेस के ही सबसे बड़े नेता स्व. श्यामाचरण शुक्ल चिल्लाते रहे कि पूरे शहर को कांक्रीट का शहर मत बनाओ लेकिन कांग्रेसी शासन के बावजूद सुनवायी नहीं हुई। तालाबों का शहर पटता रहा और आज स्थिति यह है कि गर्मी के दिनों में ट्यूबवेल से पानी नहीं निकलता। जहां निकलता भी है तो दूषित पानी की शिकायतें भी आती है।

जिधर देखो उधर समस्याएं ही समस्याएं हैं। समस्याओं से ग्रस्त राजधानी को रातोंरात सुधारना किसी के बस की बात नहीं है। सड़कें बनती हैं लेकिन उन्हें उखडऩे में भी समय नहीं लगता। निरंतर काम की जरूरत है और उसके लिए 70 वार्डों के शहर को काफी मात्रा में धन चाहिए। महापौर 10 प्रतिशत संपत्ति कर बढ़ाना चाहती है तो उसका भी विरोध होता है। आखिर बिना धन के रायपुर की जनता की आकांक्षाओं को कैसे पूरा किया जा सकता है? फिर भी किरणमयी नायक की तारीफ ही की जाएगी। वे न तो स्थिति से हताश निराश हैं और न ही समस्याओं से मुंह चुराने वाली हैं। मात्र दो माह हुए हैं उन्हें पद संभालें और सब कुछ उनकी समझ में आता जा रहा है। कांग्रेसी नेता सलाह के चक्कर में न पड़ें और न ही महापौर को नियंत्रित करने का उद्यम करें। उन्हें स्वतंत्रता पूर्वक काम करने दें तो यही उनका बड़ा सहयोग होगा। वे रचनात्मक काम सफाई मे सहयोग कर सकते हैं लेकिन इसके लिए सफाई कर्मचारियों पर आश्रित होने के बदले वे स्वयं सफाई में हाथ बढ़ाएं और रायपुर शहर की जनता को सफाई के विषय में जागरूक करने का काम करें तो उनकी छवि भी बनेगी और जनता का कांग्रेस पर विश्वास भी बढ़ेगा। ऐसा कुछ करने में वे असमर्थ हैं तो अनावश्यक नगर निगम में हस्तक्षेप न करें। इससे लाभ तो होगा नहीं, नुकसान हो जाए तो आश्चर्य की बात नहीं। निगरानी करने का काम अपने हाथ में लेकर वे क्या रायपुर की जनता को संदेश देना चाहते है कि महापौर अक्षम हैं और उन्हें समझ नहीं है तो वे यह खामख्याली छोड़ दें। बहुतों से बहुत योग्य हैं किरणमयी और उनके प्रकाश से नगर की जनता स्वयं प्रकाशित अनुभव करेंगी।

विष्णु सिन्हा