यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

सुख-सुविधा वेतन बढ़वाएं लेकिन कर्तव्यों के निर्वाह में खरा भी तो साबित होकर दिखाएं

मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने प्रदेश के 2 लाख शासकीय कर्मचारियों को फिर उपकृत किया है। 22 प्रतिशत महंगाई भत्ता 27 प्रतिशत कर दिया। इस बात की चिंता किए बिना कि इसका बोझ सरकार पर 120 करोड़ रुपए आएगा। महंगाई भत्ते में वृद्धि 1 अप्रैल, 2010 से की गई है लेकिन कितना भी मिले आदमी का मन भरता नहीं। तृतीय वर्ग शासकीय कर्मचारी संघ के विजय कुमार कह रहे हैं कि 1 अप्रैल, 2010 के बदले महंगाई भत्ता 1 जुलाई, 2009 से दिया जाता तो अच्छा होता। कहते हैं कि बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख लेकिन आदमी को बिना मांगें मोती भी मिल जाए तब भी याचना की प्रवृत्ति जाती नहीं। अभी बहुत समय नहीं व्यतीत हुआ जब राज्य सरकार ने अपने कर्मचारियों को छठवां वेतन आयोग की सिफारिशों से उपकृत किया था। जो पहले दिया था, वही सरकार पर भारी था। फिर 5 प्रतिशत महंगाई भत्ता बढ़ाकर खजाने पर और बोझ डाल दिया गया। आखिर जो धन सरकार अपने खजाने से कर्मचारियों पर खर्च करती है, वह आता तो जनता की जेब से है। ऐसे में शासकीय कर्मचारियों में यह भावना पैदा नहीं होती कि उस जनता के प्रति भी तो ईमानदारी से शासकीय योजनाओं को लागू करे।

मुख्यमंत्री ने महंगाई से राहत अपने कर्मचारियों को तो दे दिया लेकिन जनता को महंगाई से राहत देने का क्या उपाय है? खबर है कि विधायकों के वेतन भत्ते में भी वृद्धि की जा रही है। जब कर्मचारियों की सुख-सुविधा का ध्यान सरकार रख रही है तो उसे जनप्रतिनिधियों की सुख-सुविधा का भी ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि महंगाई का प्रभाव उन पर नहीं पड़ रहा है, यह तो मानने का कोई कारण नहीं है। विधायकों को अपने विधानसभा की जनता का ध्यान रखना पड़ता है। दो लाख से अधिक मतदाताओं में से एक विधायक चुना जाता है और जनता अपनी तरह-तरह की समस्या लेकर उनके पास आती है। इसमें आर्थिक मदद भी शामिल होता है। जब विधायक किसी पीडि़त की आर्थिक जरुरत को पूरा करने में सक्षम नहीं होता तो उसे स्वाभाविक रुप से पीड़ा होती है लेकिन वह इसके सिवाय कर भी क्या सकता है कि सरकार से उम्मीद करे कि वह मतदाता की आर्थिक समस्या का हल करे।

सारा खेल ही धन का है और हर समस्या का हल भी धन ही दिखायी देता है। 2 रुपए किलो की दर से 35 किलो चांवल भी इस धन से संबंधित ही समस्या है। गरीब की जेब में धन नहीं होता और वह बाजार भाव पर चांवल खरीद कर अपनी क्षुधा शांत नहीं कर सकता। इसलिए उसकी तकलीफ को समझ कर डॉ. रमन सिंह ने गरीब लोगों के लिए चांवल योजना लागू की और जनता से इसका प्रतिसाद भी मिला। डॉ. रमन सिंह की योजना से प्रभावित होकर कांग्रेस ने भी 3 रु. किलो में चांवल या गेहूँ देने की योजना प्रारंभ की। डॉ. रमन सिंह ने केंद्र सरकार से मांग की थी कि सिर्फ चांवल से पर्याप्त पोषक खाद्यान्न गरीबों को नहीं मिलता। इसलिए केंद्र सरकार चांवल गेहूं के साथ दाल भी दे। आज बाजार में दाल की कीमत आसमान छू रही है। गरीब तो दाल खाने के विषय में सोच ही नहीं सकता। मध्यम वर्ग की भी थाली से दाल गायब हो गयी। अब खबर है कि डॉ. रमन सिंह की सलाह पर ध्यान केंद्रित कर केंद्र सरकार गरीबों को सस्ते दर पर दाल मुहैया कराने के विषय में भी विचार कर रही है। छत्तीसगढ़ के साथ केंद्र सरकार भी भोजन के अधिकार पर कानून बनाने के विषय में गंभीर दिखायी दे रही है।

दरअसल मनुष्य की सबसे बड़ी गुलामी या परतंत्रता भूख ही है। कहा भी जाता है कि पापी पेट के लिए क्या नहीं करना पड़ता। यदि आदमी भूख की गुलामी से मुक्त हो जाए तभी उसे स्वतंत्र कहा जा सकता है। स्वतंत्रता के 63 वर्ष बाद ही सही आज पापी पेट की भूख के विषय में सरकार चिंता ही नहीं कर रही है बल्कि वह भूख से मुक्ति का मार्ग भी खोज रही है तो इससे सराहनीय तो और कोई काम नहीं हो सकता। असल में तो जनता की असली सरकार वही होगी जो बिना काम किए भी अपने नागरिकों की भूख मिटाने का इंतजाम करेगी। असली विकास भी उसे ही कहा जाएगा। जब दुनिया देखेगी कि भारत ऐसा देश है जहां किसी को भूख से छुटकारा पाने के लिए किसी तरह का उद्यम नहीं करना पड़ता। आज भोजन का अधिकार भले ही गरीबी रेखा से नीचे निवास करने वालों के लिए को दिया जा रहा है लेकिन ऐसा भी दिन अवश्य आना चाहिए जब यह अधिकार मौलिक अधिकार की तरह हर नागरिक का अधिकार हो।

प्राकृतिक व्यवस्था ऐसी है कि मनुष्य को छोड़कर कोई भी प्राणी कमा कर नहीं खाता। यहां तक कि पका कर भी नहीं खाता। हर प्राणी सीधा भोजन प्राप्त करता है और ग्रहण करता है। मनुष्य ने ही ऐसी व्यवस्था को जन्म दिया कि कमाने वाला खाएगा। सारा विकास ही दो कौड़ी का हो जाता है, यदि आदमी का पूरा जीवन कमाने खाने में चला जाता है। दुनिया में जो बड़ी से बड़ी वैज्ञानिक खोजें हुई हैं, उसके मूल में खोजकर्ता अपने पेट की आग बुझाने के लिए खोज नहीं कर रहे थे। उनकी खोजों ने ही दुनिया में सुख, सुविधा, समृद्धि को विकसित किया।

50 वर्ष पहले जो सुख-सुविधा राजा महाराजाओं को भी उपलब्ध नहीं थी, वह सुविधा आज सबके लिए उपलब्ध है। इस उपलब्धि के पीछे विज्ञान का बड़ा हाथ है। मनुष्य का श्रम जब मशीनों के पास चला गया तभी आज 120 करोड़ लोगों के लिए भी खाद्य सामाग्री उपजायी जा रही है। नहीं तो स्वतंत्र जब भारत हुआ था तब 40 करोड़ लोगों के ही पेट भरने का इंतजाम हमारे पास नहीं था। अमेरिका से पी एल 480 का गेहूं हमें मिलता था तब हमारी क्षुधा शांत होती थी। एक जमाना आएगा कमाने वाला खाएगा, यह बात तो अब फिजूल साबित हो गयी है। आज जो कमा कर खाने की कोशिश कर रहा है, वही गरीब है और जो दिमाग और पूंजी का खेल, खेल रहा हैं वह बड़ा से बड़ा धनपति होता जा रहा है। दुनिया के 5 बड़े धनी व्यक्तियों में भारत के दो पूंजीपति हैं। देश में अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। दुनिया बदल गयी है। योग्य लोगों को शासकीय नौकरी की जरुरत नहीं है। उनके लिए बड़ी-बड़ी नौकरियों के लिए द्वार दरवाजे खुले हुए हैं।

भारत के ही प्रोफेशनल आज अमेरिका की आर्थिक धुरी बने हुए हैं। ये सिर्फ खाने के लिए नहीं कमा रहे हैं। क्योंकि अब तो बहुतों के पास इतना है कि न भी कमाएं तो जिंदगी भर बैठ कर खा सकते हैं। गुणी व्यक्ति पूंजी पैदा कर रहा है तो शासकीय कर्मचारी कहां खड़ा है? वह देश की दशा और दिशा बदल सकता है लेकिन उसे अपनी मनोवृत्ति में परिवर्तन करना पड़ेगा। वह सुख सुविधाएं तो सभी चाहता है लेकिन उससे जनता की जो अपेक्षाएं हैं, उस पर खरा साबित होकर नहीं दिखाता। यदि वह ईमानदारी से जनहित की योजनाएं लागू करता है तो उसे वास्तव में सब सुख सुविधा मिलना चाहिए। किसी को इस मामले में आपत्ति नहीं हो सकती लेकिन वास्तव में ऐसा है, क्या, इसका आंकलन भी होना चाहिए?

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 26.03.2010

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही विश्लेषणात्मक आलेख लिखा है सर...एक दम सरकार को और उसकी नीतियों को धो डाला है आपने ...आम जनता के लिए सरकार के पास कोई ठोस योजना कभी नहीं रहती है
    अजय कुमार झा

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