सरकार सुन न रही हो और मांग के प्रति सरकार का उपेक्षा का रुख हो तब तो रैली, प्रदर्शन, सभा की जरुरत समझ में भी आती है लेकिन सरकार कार्यवाही कर रही हो तब इन बातों का क्या औचित्य है? राज्य में आदिवासियों की आबादी 32 प्रतिशत है। यह पुराने आंकड़े है। इसी आधार पर विधानसभा सीटों का परिसीमन भी हुआ और आदिवासियों के लिए आरक्षित सीट कम हुई। भाजपा नेता नंद कुमार साय ने अजीत जोगी के साथ मिल कर सीटें कम न हो इसके लिए प्रयास भी किया लेकिन वे सफल नहीं हुए। क्योंकि उनकी मांग न्यायोचित नहीं थी। अब मामला आबादी के आधार पर शासकीय नौकरी में आदिवासियों को आरक्षण देने का है। सरकार ने इस विषय में एक समिति बना दी है, जो शीघ्र ही अपनी रिपोर्ट पेश करेगी। डॉ. रमन सिंह की मंशा स्पष्ट है। वे न्यायोचित काम में अवरोधक नहीं बनते। यदि आदिवासियों का हक मारा जा रहा है तो डॉ. रमन सिंह पहले व्यक्ति हैं जो इस मामले में उचित कार्यवाही करेंगे।
कांग्रेसियों को यह विश्वास भले ही उनकी राजनैतिक अभिलाषाओं के कारण न हो लेकिन भाजपाइयों को भी न हो तो यह आश्चर्य की बात है। फिर भाजपा के सामान्य कार्यकर्ता की भी बात नहीं है, राज्य शासन में मंत्री, सांसद जब इस तरह की रैली, सभा में मंचस्थ होकर अविश्वास को हवा देने का काम करें और डॉ. रमन सिंह के विरुद्ध सड़क पर नारेबाजी हो तो इसे क्या कहा जाए? मुख्यमंत्री न सही राज्यपाल ही आदिवासी बनाया जाए, इस तरह की बात का क्या औचित्य हैं? जहां तक मुख्यमंत्री चयन का प्रश्र है तो यह काम तो विधायक दल का है। बहुमत का विधायक जिसे अपना नेता चुने, उसे ही मुख्यमंत्री का पद मिलता है। फिर भाजपा ने तो विधानसभा चुनाव के पहले ही घोषणा कर दी थी कि भाजपा को जनता ने फिर से शासन चलाने का आदेश दिया तो मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह होंगे। जनता ने बहुमत भाजपा के पक्ष में दिया और इसमें बड़ी भूमिका आदिवासियों की ही थी। आदिवासी जनता ने तो एकतरफा समर्थन डॉ. रमन सिंह के पक्ष में घोषित किया।
आदिवासी क्षेत्रों की दो बड़ी समस्या है। नक्सली और विकास। डॉ. रमन सिंह ऐसे पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने नक्सली समस्या से निपटने के लिए खुली लड़ाई का जोखिम लिया। वे कितने सही है, यह इस बात से ही स्पष्ट होता है कि नक्सली आज छत्तीसगढ़ में बैकफुट में जाने के लिए बाध्य हुए। जहां तक विकास का प्रश्र है तो डॉ. रमन सिंह की पहली प्राथमिकता तो विकास ही है। उनकी सोच आदिवासियों का ही नहीं सर्वांगीण विकास का है। नक्सली आतंकवाद से लडऩा तो मजबूरी है। कोई शौक नहीं है। क्योंकि यह बात आइने की तरह साफ है कि जब तक आदिवासी क्षेत्रों को नक्सलियों से मुक्त नहीं किया जाएगा तब तक विकास के काम करना आसान नहीं है। सड़कें, स्कूल, पंचायत भवन सब के सब तो नक्सलियों द्वारा नष्ट किए जाते हैं। विद्युत के प्रकाश से आदिवासी क्षेत्र प्रकाशित न हो इसलिए टॉवर गिराए जाते हैं। खदानों में सुचारु रुप से काम न हो, इसलिए सब तरह के प्रयत्न किए जाते है। यहां तक कि इस्पात कारखानों का विरोध किया जाता है। क्योंकि ये प्रारंभ हो गए तो विकास की नई रौशनी क्षेत्र में फैल जाएगी। एक रुपए, दो रुपए किलो चांवल, मुफ्त में नमक जैसी योजना का लाभ आदिवासियों को भरपूर मिल रहा है और यह उनकी तात्कालिक जरुरत है।
नौकरी में आरक्षण देने से भी डॉ. रमन सिंह चूकने वाले नहीं हैं लेकिन उससे भी जरुरी है कि आदिवासियों के लिए शिक्षा का प्रबंध किया जाए। उन आदिवासियों के बच्चे भी सरकारी नौकरी प्राप्त कर सकें जिनके परिवार को अभी तक यह प्राप्त नहीं हुआ। अभी भी आरक्षित सीटों पर उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिल पाते। रैली में ही आए कितने ही आदिवासियों को पता नहीं था कि वे किसलिए राजधानी आए है। यह शिक्षा के अभाव का परिचायक है। नौकरी में आरक्षण जरुरी है आबादी के अनुपात में तो उससे ज्यादा जरुरी है कि बच्चों की शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था की जाए। जो लोग आदिवासी समुदाय में पढ़-लिख गए हैं और सरकारी नौकरी भी प्राप्त कर लिए है, उनका तो सबसे बड़ा कर्तव्य यही है कि वे शिक्षा के लिए समाज को तैयार करें। पढऩे लिखने पर जोर दें। समुदाय की एकता उन्नति का आधार होना चाहिए। सब तक सब कुछ पहुंचे, इसका प्रयास होना चाहिए।
आदिवासी 32 प्रतिशत है। दलित 12 प्रतिशत हैं। पिछड़ा वर्ग 52 प्रतिशत है। ये सब मिलकर राज्य की आबादी का 96 प्रतिशत हो जाते हैं। आंकड़े तो यही कहते हैं। यदि यह आंकड़े सही हैं तो फिर 4 प्रतिशत में ही अल्पसंख्यक, सवर्ण सहित शेष लोग आते हैं। 2011 में जनगणना हो रही है और सुना जा रहा है कि पहली बार जातिगत आधार पर भी जनगणना होगी। हालांकि इसे उचित नहीं माना जाता लेकिन जब जाति, धर्म के आधार पर आरक्षण की बात हो तब इस तरह की जनगणना की जरुरत भी है। संविधान के उच्च मान भले ही समस्त भारतवासियों को एक समान मानते हैं लेकिन राजनीति ने तो इसे माना ऐसा परिलक्षित नहीं होता। जाति, धर्म को भी वोट बैंक के रुप में देखा जाता है। तब कम से कम किस धर्म को मानने वाले और किस जाति के कितने लोग हैं, इसका सही आंकलन भी जरुरी है। यह सही ढंग से की गई जनगणना से ही पता चल सकता है।
राजनैतिक पार्र्टियों में भी पद अब जाति आधार पर मांगे जा रहे है। आदिवासी कहते हैं कि सबसे ज्यादा है तो पिछड़ा वर्ग कहता है, वे सबसे ज्यादा है। भाजपा प्रदेशाध्यक्ष का पद कांग्रेस की तरह पिछड़ी जाति वाले मांग रहे हैं। उनका कहना है कि सामान्य वर्ग से एक बार और आदिवासी वर्ग से 3 बार अध्यक्ष पार्टी का बन चुका। अब पिछड़े वर्ग को मौका दिया जाए। फिर कभी यह भी मांग उठेगी कि पिछड़े में बड़ी कौन सी जाति। ताराचंद साहू पिछड़े वर्ग से ही प्रदेश अध्यक्ष बने थे। आज वे पार्टी से बाहर हैं। शिवप्रताप सिंह आदिवासी वर्ग से अध्यक्ष बने थे। आज वे पार्टी से सस्पेंड हैं। आदिवासियों का सम्मेलन होता है और करीब-करीब सभी पार्टी के नेता मंचस्थ होते हैं लेकिन जिस व्यक्ति को आदिवासी होने के कारण कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बनाया था, उसे सम्मेलन में बुलाया नहीं जाता। एक नेता से पूछा जाता है कि फलां नेता नहीं है तो वे कहते हैं कि आदिवासियों का सम्मेलन है, दूसरों को नहीं बुलाया गया। मतलब साफ है कि कांग्रेस आलाकमान जिसे आदिवासी मानता है, उसे बाकी आदिवासी नेता आदिवासी नहीं मानते।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक कहते है कि जाति तोड़ो लेकिन भाजपा के नेता इसे नहीं मानते। कांग्रेस कहती रही कि न जात पर न पांत पर मुहर लगेगी हाथ पर लेकिन वहां भी टिकट से लेकर पदाधिकारियों की नियुक्ति पर जाति, संप्रदाय हावी है। असल में सत्ता की राजनीति वोट बैंक का खेल है और कैसे अपने पक्ष में वोट बढ़ें इसी की सारी रणनीति और मोलभाव है। 50 प्रतिशत से भी कम का समर्थन प्राप्त कर राजनैतिक पार्र्टियां सत्ता का सुख भोगती हैं तो सत्ता के बाहर बैठे लोग इस जुगाड़ में लगे रहते है कि कैसे 2-4 प्रतिशत मत उधर से इधर आ जाएं तो सत्ता का सुख हमें मिले। आज तो अपनी जाति, अपना संप्रदाय, अपना राज्य, अपनी भाषा यही राजनीति का आधार बने हुए हैं। फिर कौन किसे गलत कहे और किसे सही?
- विष्णु सिन्हा
दिनांक 02.03.2010
मंगलवार, 2 मार्च 2010
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