यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 30 मार्च 2010

संपत्ति कर वृद्घि और छठवां वेतन आयोग के बाद अब शहर के नागरिकों की सुविधाओं पर भी ध्यान दें

रायपुर नगर निगम की सामान्य सभा में किरणमयी नायक का प्रदर्शन तारीफ के काबिल था। प्रथम सामान्य सभा वह भी बजट सत्र में जिस तरह से कांग्रेस के साथ निर्दलियों ने भी बजट के पक्ष में मत दिया, उससे भाजपाई पार्षदों का प्रदर्शन बौना ही साबित हुआ। पहले बैठने की व्यवस्था को लेकर भाजपाई पार्षद अपने ही सभापति से उलझते रहे। फिर बजट पटल पर रखे जाने के पहले ही पार्षदों को बांटे जाने को लेकर बजट लीक करने का आरोप भी हास्यास्पद ही लगा। प्रतिपक्ष के उपनेता के द्वारा बजट को फाड़े जाने से कोई अच्छी छवि भाजपा की नहीं बनी। आखिर ऐसा क्या था बजट में जिसे पटल पर रखे जाने के बाद पार्षदों को दिया जाता तो लीक नहीं होता। सभी सदन के अंदर थे और महापौर बजट का पठन करने ही वाली थी। भाजपा पार्षद की हरकत देखकर तो यही लगा कि जैसे नगर निगम की सत्ता चले जाने से वे अवसादग्रस्त हो गए हैं।

एक निर्दलीय पार्षद तो मध्यप्रदेश के समय के लोगो को ही लेकर बजट फाड़ बैठे और आसंदी के सामने आकर बैठ गए। किरणमयी नायक ने बताया भी कि पिछले कई वर्षों से यह लोगो छप रहा है। अब इसे सुधार लिया जाएगा। बजट लीक होने के नाम पर लोगो के नाम पर सामान्य सभा में लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए तो मोहल्ले वालों ने अपना पार्षद नहीं चुना है। जनता की असली समस्या को लेकर सकारात्मक बहस करते यदि पार्षद तो 9 घंटे जो सामान्य सभा चली, उसका कुछ अर्थ भी था। सक्रियता और जागरूकता ही दिखाना है तो जनता को भी लगना चाहिए कि पार्षद उनके दुख दर्द को समझ रहा है। किरणमयी नायक ने तो सिद्घ किया कि उनमें अहंकार नहीं है और कर्मचारियों के द्वारा की गई गलती के लिए वे कान पकड़कर माफी मांगती है। माफी मांगने से कोई छोटा नहीं हो जाता बल्कि उससे उसका बड़प्पन ही झलकता है।

भाजपाई पार्षद खुश हो सकते है कि उन्होंने किरणमयी नायक को माफी मांगने के लिए मजबूर कर दिया। शायद इसी से उनका अहंकार पुष्ट होता हो लेकिन जिस दमदारी से किरणमयी नायक ने पार्षदो के बीच सामंजस्य बिठाने का प्रयास किया, उसकी तो तारीफ ही की जाएगी। महापौर ने संपत्ति कर बढ़ाने का प्रस्ताव किया और उसे पारित भी करा लिया। छत्तीसगढ़ सरकार ने तो 500 वर्गफुट के कच्चे पक्के मकान को ही संपत्ति कर से छूट दी थी लेकिन किरणमयी नायक ने 600 फुट तक के मकानों को इसमे छूट दी और इससे बड़े मकानों पर 10 प्रतिशत टैक्स बढ़ा दिया। सबसे ज्यादा बोझ उन्होंने व्यवसायिक भवनों पर डाला है और कहा जा रहा है कि उनका टैक्स अब तिगुना हो जाएगा। संपत्ति कर का भुगतान किरायेदार नहीं करता बल्कि मालिक करता है। यदि कोई व्यवसायिक भवन किराये पर है तो किरायेदार पर संपत्ति कर नहीं लगेगा बल्कि किराया वसूल करने वाला मालिक टैक्स देगा। अब मकान मालिक चाहे कि किरायेदार किराया बढ़ाए तो क्या यह आसान है? टैक्स और तमाम तरह की कानूनी पेचीदगियों के कारण ही तो व्यवसायिक भवन निर्माता अब किराये में देने में रूचि नहीं लेते बल्कि वे बेचने में ज्यादा रूचि लेते हैं। इससे बड़े बड़े व्यवसायिक भवनों की दुकानों, आफिसों को खरीदने के लिए कोई गरीब या मध्यम वर्ग का व्यक्ति तो सोच नहीं सकता। पहले किराये में मिल जाते थे तो ये भी कुछ धंधा पानी कर लेते थे लेकिन अब जब खरीदने की बात है तो पूंजीपति ही खरीद सकता है या फिर बैंक से लोन लेकर खरीदा जाए लेकिन उसके लिए भी गारंटी लगती है जो हर किसी के बस की बात नहीं।

भारत का संविधान हर किसी भारतीय को संपत्ति रखने का अधिकार देता है लेकिन संपत्ति रखना बिना टैक्स दिए संभव नहीं। नगर निगम ही टैक्स नहीं लेता्र केंद्र सरकार वेल्थ टैक्स भी 15 लाख से अधिक की संपत्ति पर लेती है। केंद्र सरकार, राज्य सरकार, स्थानीय संस्थाएं सभी की दृष्टि तो टैक्स पर है। आयकर, सर्विस टैक्स, सेंट्रल सेल टैक्स, कस्टम ड्यूटी, वेल्थ टैक्स, राज्य सरकार का सेल टैक्स, आबकारी टैक्स, अब केबल और डीटीएच पर टैक्स, संपत्ति कर, जल मल कर, प्राधिकरण के मकान में रहते हैं तो भूभाटक, कृषि उपज मंडी टैक्स और भी पता नहीं कितने प्रकार के टैक्स हैं। बैंक में फिक्स्ड डिपाजिट करें तो 25 हजार से अधिक के डिपाजिट पर टीडीएस काट लिया जाता है। अब किसी की आय आयकर के दायरे में न आती हो तो वह टीडीएस की वापसी के लिए आयकर विभाग के चक्कर लगाए । देश की समस्त खनिज पदार्थों की खदानें सरकार की है। जंगल सरकार के हैं। आप बिजली का बटन दबाते हैं तो सिर्फ बिजली जो खर्च करते हैं, उसका ही भुगतान नहीं करते बल्कि उस पर भी टैक्स देना पड़ता है। आपकी गाड़ी में जो पेट्रोल या डीजल भराते हैं, उस पर भी केंद्र और राज्य सरकारें टैक्स लेती हैै। यह सब टैक्स सरकार इसलिए लेती है, क्योंकि उसे जनकल्याण करना है। जनता की भलाई करना है।

मतलब जनता की भलाई तो सरकार करके रहेगी और टैक्स भी वसूल करके ही रहेगी। देना न देना आपकी इच्छा पर निर्भर नहीं करता। जो भी पार्टी जनता से जनादेश मांगती है कि उसकी सरकार बनी तो वह जनकल्याण के फलां फलां काम करेगी। तब वह यह जनता को नहीं बताती कि इसके लिए धन भी उससे ही वसूल किया जायेगा। क्योंकि वह चुनाव के समय जनता को स्पष्ट बताए कि वह जो जो जनकल्याण के काम करने का वादा कर रही है, उसके लिए वह फलां फलां तरह का टैक्स भी उस पर लगाएगी। कुछ टैक्स अमीरों पर लगेंगे तो कुछ टैक्स ऐसे होंगे जिसका प्रभाव सब पर पड़ेगा। पेट्रोल डीजल की कीमत को ही उदाहरण के तौर पर लें तो चुनाव वर्ष में इसमें वृद्घि नहीं की जाती। क्योंकि चुनाव वर्ष में वृद्घि करे सरकार तो उसकी पार्टी की जीतने की संभावना ही क्षीण हो जाएगी। वह यह काम तब करती है जब जनता से वोट ले लेती है और 5 वर्ष तक जनता कुछ करने की स्थिति में नहीं रहती। चुनाव वर्ष में तो वह किसानों का कर्ज माफ करती है। जिससे किसान उसे वोट दें और वह सत्ता का आनंद लूटे।

स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक को टैक्स के मकडज़ाल ने ऐसा घेर रखा है कि वह स्वतंत्र किस तरह से है यह समझ के बाहर है। नगर निगम की महापौर भी क्या करें? शहर में समस्या ही समस्या है। वर्षों हो गए मोहल्लों की समस्या हल करते हुए नगर निगम को लेकिन समस्या है कि हल होती ही नहीं। समस्या हल करना है तो धन चाहिए। अब धन या तो सरकारें दें या फिर जनता टैक्स के रूप में दें। जब पूरे देश की व्यवस्था ही ऐसी है तो किरणमयी भी क्या करें? संपत्ति कर पिछले 13 वर्षों से बढ़ाया नहीं गया है। क्योंकि नहीं बढ़ाने वाले जानते थे कि संपत्ति कर बढ़ाने का अर्थ होगा जनता में अलोकप्रिय होना। गरीब की थाली से दाल कब का गायब है। पिछले कई महीनों से मध्यम वर्ग भी दाल से महरूम है या फिर यदा कदा का मामला है। अब उस पर संपत्ति कर की वृद्घि। देना तो पड़ेगा। नहीं तो नगर निगम संपत्ति ही कुर्क न कर दे। उन पर भी तो कार्यवाही करें जो 10 वर्ष से टैक्स वसूल नहीं कर रहे हैं। टैक्स देने वाला ही क्यों जिम्मेदार हैं? टैक्स वसूल न करने वाला भी तो जिम्मेदार है। क्योंकि वेतन तो वह निगम खजाने से नियमित प्राप्त करता है। अब तो महापौर ने छठवां वेतन आयोग भी लागू कर दिया। संपत्ति कर की बढ़ी रकम इनके वेतन वृद्घि में ही निकल जाएगी। अब तो इनका कर्तव्य है कि ये शहर के नागरिकों की सुविधा का पूरी ईमानदारी से ध्यान रखें या महापौर कड़ी कार्यवाही करें।

-विष्णु सिन्हा
30.03.2010

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