यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की पूरी तरह से उपेक्षा केंद्र सरकार कर रही है

स्वतंत्र भारत में एक वह भी समय था, जब अनाज के दानों के लिए हमें
अमेरिका का मोहताज होना पड़ता था। अमेरिका लाल गेहूं देता था तो राशन
दुकानों से उसे आम जनता तक पहुंचाया जाता था। अमेरिका भारी मात्रा में
अनाज उत्पादित करता था और मूल्य नियंत्रित करने के लिए वह लाखों टन अनाज
समुद्र में बहा देता था। तब भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने
देश के नागरिकों से अपील की थी कि वे सप्ताह में एक दिन एक समय का उपवास
रखकर अन्न समस्या को हल करने में सहयोग करें। तब न देश की आबादी 120
करोड़ थी और न ही इतना अनाज भारत में उत्पादित  होता था कि गोदाम की
अनुपलब्धता के कारण अनाज को सड़ाया जा सके और न ही मूल्य नियंत्रित करने
के लिए समुद्र में बहाया जाए। इंदिरा गांधी ने ही देश के स्वाभिमान के
लिए अमेरिका से उसकी शर्तों पर गेहूं लेना बंद किया और देश में हरित
क्रांति को जन्म दिया।

आज स्थिति यह है कि अनाज गोदामों में सड़ रहा है। चूहे उसे उदरस्थ कर रहे
हैं लेकिन सरकार अनाज को गरीबों को मुफत देने के लिए तैयार नहीं। सरकार
संवेदनशील हो तो उसे सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देने की आवश्यकता ही नहीं
पडऩा चाहिए कि भूखों को अनाज दो। सड़ाओ मत और न ही चूहों को खाने के लिए
दो बल्कि इंसानों को दो। इसके बावजूद बाजार पर फिदा सरकार सुप्रीम कोर्ट
के निर्देश को मानने के लिए तैयार नहीं है। अनाज का सट्टï बाजार चलवाने
में जिस सरकार को जरा सी भी तकलीफ नहीं होती, वह सुप्रीम कोर्ट के
निर्देश को नहीं मानती तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं। सरकार को सिर्फ
आर्थिक विकास चाहिए। उस विकास की जनता से कीमत तो वसूली जाती है लेकिन
उसकी भूख के निपटारे के लिए अनाज देने में परहेज है। मुफत में अनाज बंटा
तो बाजार में मूल्य धराशायी हो जाएंगे। भूखों को तृप्ति मिलेगी, यह सरकार
की आवश्यकता नहीं है। उसकी आवश्यकता तो यह है कि कैसे विश्व उसकी विकास
दर देखकर चकाचौंध हो। अमेरिका का राष्ट्रपती  जब बड़ाई करे तो चेहरे का
रंग और लाल हो जाए।

जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता की सरकार प्रजातांत्रिक परिभाषा में
अच्छी लगती है लेकिन वास्तव में क्या यह जनता की सरकार है? जनता ने
जिन्हें सरकार बनाने के लिए चुना  और सब तरह की सुख सुविधा दी, वे लोग
जनता को भूख से निजात दिलाने के लिए तैयार नहीं है। मूल अधिकार में भोजन
के अधिकार को सम्मिलित करने की बात तो की जाती है लेकिन उसके अनुरूप आचरण
करने के लिए तैयार नहीं है। किसी भी देश की स्वतंत्रता उसके नागरिक की
स्वतंत्रता तब तक नहीं बन सकती जब तक मनुष्य को भूख की गुलामी से आजादी
नहीं मिलती। बड़ी से बड़ी गुलामी ही भूख है और आज तो ऐसे संसाधन उपलब्ध
हैं कि मनुष्य को भूख की गुलामी से सरकार चाहे तो मुक्ति दिला सकती है।
दिन प्रतिदिन श्रम यंत्रों के हाथों में जा रहा है। वह दिन दूर नहीं जब
मानव श्रम करे यह शर्म की बात हो जाएगी। जो काम मशीनें कर सकती हैं,
उन्हें मनुष्य करे भी तो क्यों ? ऐसे में कितने भी बेरोजगारी कम करने के
आंकड़े दिए जाएं लेकिन वह दिन आएगा जब मनुष्य के लिए काम कम होगा। तब 8
घंटे का कार्य दिवस नहीं 2 घंटे का कार्य दिवस होगा और वह भी आदमी दफतर
में बैठकर नहीं, घर में बैठकर काम करेगा। आज तो प्रशिक्षित कर्मियों की
जरूरत भी होती है लेकिन वह दिन भी आ रहा है जब यह काम रोबोट संभाल लेंगे।
तब मनुष्य की भूख मिटाने के लिए श्रम का विकल्प खोजना पड़ेगा। भूख तो
मिटानी ही पड़ेगी। नहीं तो भूख आदमी को चैन से नही बैठने देगी और जो
चैन से नहीं रहेगा, वह दूसरों को भी चैन से नहीं रहने देगा। सुख सुविधाएं
भी सीमित व्यक्ति तक सीमित नहीं रहने वाली है। आज बाजारवाद का जिस तरह से
सर्वत्र बोलबाला है और नई नई उपभोक्ता सामग्रियों से बाजार पट रहा है तो
इसका अर्थ ही यही है कि सबको सब कुछ चाहिए।

यह तो ऐसी दौड़ है जिसकी कोई अंतिम मंजिल नहीं है। सुख सुविधा भोगने
वाले तब तक ही सुरक्षित हैं जब तक कि भूख विकराल रूप नहीं ले लेती या
गरीब अमीर के बीच की खाई इतनी चौड़ी नहीं हो जाती कि उस पार झांकना संभव
न हो। आदमी शिक्षा प्राप्त कर ही सब कुछ समझता या सीखता नहीं है बल्कि वह
देख और सुनकर भी सीखता और समझता है। कार्ल माक्र्स का प्रभाव जितनी अमीरी
बढ़ेगी, उतना ही बढ़ेगा। धर्म ने बहुत से बफर लगा रखे थे। गरीबी को भी
सम्मानित कर रखा था। दरिद्र नारायण की उपमा दे रखी थी। भाग्य और कर्म का
शास्त्र रच रखा था लेकिन इतनी अमीरी तो कभी नहीं थी और व्यापारी इतना
संपन्न भी नहीं था। आज सरकार बाजार को प्रोत्साहित करने के लिए नाना
प्रकार के यत्न करती है तो समझदार लोग गरीबों के निवाले का भी इंतजाम कर
रहे हैं। अक्लमंदी भी इसी में है। राजनैतिक पार्टियां चुनाव के समय अधिक
से अधिक वायदे गरीबों के हित में करती है और इन गरीबों के समर्थन से ही
सत्ता पर काबिज होती है। प्रजातंत्र है तो वोट की महत्ता रहेगी और वोट के
मान से सरकारों का फैसला गरीब जनता ही करेगी।

गरीब जनता की प्राथमिक आवश्यकता अनाज ही है। आज खुले बाजार में अनाज का
जो भाव है खाद्य सामग्री के जो भाव हैं और उसमें उतार चढ़ाव इतना बढ़ गया
है कि किसी को नहीं मालूम कि खाने का बजट इस माह जो है, वही अगले माह भी
रहेगा। यदि सरकारें गरीबों को सस्ता अनाज देना बंद कर दें तो करोड़ों
घरों में दोनों समय चूल्हा जलना संभव नहीं है। मोंटेक सिंह आहलूवालिया के
कथन पर विश्वास करेगी सरकार तो सरकार धड़ाम से नीचे गिर जाएगी। जो कहते
हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक विकास इतना हुआ है कि ग्रामीण जनता
साग भाजी, फल, दूध का सेवन करने लगी हैं। अमीर गरीब सिर्फ शहरों में ही
नहीं रहते। गांव में भी अमीर गरीब हैं। आंकड़ों के जरिये आय भी बढ़ी है
लेकिन आज रूपये की क्रयशक्ति वह तो नहीं है जो कुछ वर्ष पहले थी। हजार
पांच सौ के नोट सरकार बंद कर दे तो झोला भरकर नोट लेकर बाजार जाना पड़ेगा
तब कहीं खरीददारी की जा सकेगी। बहुत नहीं 10 वर्ष पहले ही लाख रूपये की
बड़ी अहमियत थी। लखपति कहने से ही बड़ा व्यक्ति समझा जाता था। आज तो छोटी
से छोटी संपत्ति का मालिक ही लखपति है। झुग्गी झोपडिय़ां ही लाखों में
बिकती है लेकिन गरीबी है कि कम होने का नाम नहीं लेती।

सुप्रीम कोर्ट तो कह रहा है कि सड़ाने और चूहों को खिलाने के बदले मुफत
में गरीबी रेखा के नीचे जीने वालों को अनाज दे दिया जाए लेकिन सरकार तो
अपने वायदे कि 3 रूपये में 35 किलो गरीबों को देने के अपने वायदे पर ही
खरी अभी तक नही  उतर पायी है। चर्चाएं चलती हैं। सरकार जिस पार्टी की है,
वह पार्टी चाहती है कि इस योजना को लागू किया जाए लेकिन सरकार में बैठे
लोग इस योजना को लागू करने के पक्ष में नहीं है। होते तो इतनी देर लगने
का तो कोई कारण नहीं। कहा जा रहा है कि इस संबंध में संसद में विधेयक
लाया जाएगा। सरकार क्या अध्यादेश से नहीं चलती लेकिन उसके लिए इच्छाशक्ति
होना चाहिए। जो नजर नहीं आती। नजर भी कहां से आए जब देने का मन ही न हो।

- विष्णु सिन्हा
30-10-2010


मोतीलाल वोरा हैं ही ऐसे नेता जिनकी पार्टी को सबसे ज्यादा जरुरत है

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के लिए छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधियों की सूची
जारी हो गयी हैं। जारी सूची में कई पुराने दिग्गज स्थान नहीं बना पाए हैं
तो कई दिग्गजों को सिर्फ अपने नाम से ही संतोष करना पड़ रहा है। जो स्थान
पा गए हैं, वे स्वाभाविक रुप से कांग्रेस के बड़े नेता हैं लेकिन कहा जा
रहा है कि मोतीलाल  वोरा के समर्थकों को सूची में सबसे ज्यादा स्थान मिला
है। यह कहना वास्तव में मोतीलाल वोरा के कद को कम करना है। दरअसल सूची
में जितने भी नाम हैं, वे सभी मोतीलाल वोरा के समर्थक हैं। छत्तीसगढ़
कांग्रेस में आज कोई भी नहीं कह सकता कि वह मोतीलाल वोरा का विरोधी है।
मोतीलाल वोरा कांग्रेस में सदा से गुटविहीन नेता हैं। वास्तव में न तो
उनका कोई गुट है और न ही गुटबाजी में विश्वास करते है। पूरी की पूरी
कांग्रेस उनकी है और वे कांग्रेस के है। कांग्रेस के हित में जो भी हो,
वही उनका समर्थक। उनके दरवाजे हर किसी के लिए खुले हुए हैं और वे हर किसी
को सुनने और उसकी बात पार्टी हित में हो तो उसे मानने के लिए तैयार रहते
हैं।

उम्र के जिस पायदान पर वे खड़े हैं, उस स्थिति में तो अब वे छत्तीसगढ़ के
कांग्रेसियों के लिए बाबूजी बन गए हैं। सोनिया गांधी का उन पर कितना
विश्वास है, इसके लिए किसी प्रमाण की जरुरत नहीं है। पार्टी के
राष्ट्रीय  कोषाध्यक्ष का पद छोड़कर उनकी जगह कोई भी होता तो केंद्रीय
मंत्रिमंडल में सम्मिलित होना पसंद करता लेकिन मोतीलाल वोरा को तो जैसे
कोई पद लिप्सा ही नहीं है। संगठन के कितने ही लोग केंद्रीय मंत्रिपरिषद
की शोभा बढ़ा रहे हैं लेकिन मोतीलाल वोरा को छोडऩे के लिए सोनिया गांधी
तैयार नहीं हैं। कांग्रेस में विश्वसनीयता के माप से उनका किसी से
मुकाबला हो सकता है तो वह सिर्फ मनमोहन सिंह ही है। हो सकता है कभी
मनमोहन सिंह का स्थानापन्न तलाश करने की जरुरत सोनिया गांधी को पड़े और
राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार न हों तो मोतीलाल वोरा वह
शख्स हो सकते हैं जो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान दिखायी दें।
वैसे राष्टपति के चुनाव के समय उनका नाम भी उभरता रहा है।

आज प्रणव मुखर्जी जैसा वरिष्ठ नेता 75 वर्ष की उम्र में ही अवकाश ग्रहण
की बात करने लगा है लेकिन 79 वर्ष के हो जाने के बावजूद मोतीलाल वोरा
पूरी युवा ऊर्जा से ओतप्रोत हैं और दिन में 18 घंटे आज भी अपने कर्तव्य
के निर्वाह में लगे रहते हैं। लोग तो यही पूछते हैं कि आखिर इतनी युवा
ऊर्जा मोतीलाल वोरा प्राप्त कहां से करते हैं तो दो टूक जवाब यह है कि
कर्तव्य के प्रति निष्ठï और समर्पण ही ऊर्जा का अक्षय स्त्रोत है। जब
कोई आदमी अपने काम के प्रति, अपने नेता के प्रति, अपनी संस्था के प्रति
एकनिष्ठï से कार्यरत होता है तो ब्रह्मïड की शक्तियां उसमें ऊर्जा
प्रवाहित करती हैं। एक पार्षद के रुप में अपना राजनैतिक कैरियर प्रारंभ
कर बिना किसी गुटबाजी के ही मोतीलाल वोरा ने राजनीति में जो मकाम हासिल
किया, वह कांग्रेस की राजनीति में बेमिसाल है। छत्तीसगढ़ कांग्रेस के
मामले में ही सुनी सबकी जाती है लेकिन अंतिम फैसला मोतीलाल वोरा की ही
सलाह पर लिया जाता है और इससे स्वाभाविक रुप से उनकी जिम्मेदारी बढ़ जाती
है।

गुटबाजी की राजनीति करने वाले कांग्रेसी काश उनसे ही कुछ शिक्षा ग्रहण
करते तो कांग्रेस की छत्तीसगढ़ में दुर्गति नहीं होती। स्वार्थ की
संकीर्ण सोच ने ही कांग्रेस की छवि जनसामान्य में खराब कर रखी है। जब भी
कांग्रेस किसी साफ सुथरी छवि के व्यक्ति को सामने करती है तो जनता का उसे
समर्थन मिलता है। यह बात तो कांग्रेसी अच्छी तरह से जानते हैं कि
कांग्रेस की छवि जनता के मन से क्यों उतर गयी? सत्ता में बैठकर अपने
सामने किसी को भी कुछ न समझने की आदत ने ही कांग्रेसियों की एकजुटता को
नष्ट किया। व्यक्ति व्यक्ति में भेद कांग्रेसी होने के बावजूद किया जाना
भी कांग्रेस के लिए अहितकारी सिद्ध हुआ। मोतीलाल वोरा ऐसे शख्स हैं जिनके
नेतृत्व में पार्टी एकजुट हो सकती है। कांग्रेस के गुटबाज नेताओं से
ज्यादा जरुरत निष्ठïवान कार्यकर्ता की है और यह गुण कांग्रेसी मोतीलाल
वोरा से सीख सकें तो पार्टी का भला करेंगे ही, अपना भी भला करेंगे।

राहुल गांधी जो नया नेतृत्व एनएसयूआई और युवक कांग्रेस के द्वारा उभारना
चाहते हैं, उसके पीछे भी यही सोच है कि योग्य, कर्तव्यपरायण, निष्ठïवान
लोग कांग्रेस में आगे आएं। जिससे पार्टी को युवा नेतृत्व मिले। वे
गुटबाजी जैसी बुराइयों से दूर रहें लेकिन गुटबाज नेता उनकी इस योजना को
भी पलीता लगाते हैं जब इन संगठनों के नेता अपने आपको गुट विशेष का बताते
हैं। खेल तो गुटबाज नेताओं का ही होता है। जो इन संगठनों पर कब्जा कर
अपनी ताकत बढ़ाने का इरादा रखते हैं। ये नेता जब सोनिया गांधी, राहुल
गांधी के प्रति वफादारी का दम भरते हैं तब भी इनकी जुबान चुगली करती है
कि इनका सोनिया राहुल से कितना लेना देना है और अपनी स्वार्थ सिद्धि से
कितना। मोतीलाल वोरा के तो समर्थकों की तो यही शिकायत रही है कि उनके
नेता अन्य गुटबाज नेताओं की तरह उन्हें आगे बढ़ाने के लिए गुटबाजी की
राजनीति नहीं करते। ऐसे लोग वोराजी का साथ भी छोड़ देते हैं और गुटबाज
नेताओं के फेर में भी पड़ते हैं लेकिन जल्द ही समझ में तो आ जाता है कि
मोतीलाल वोरा और अन्य नेता में अंतर क्या है? मोतीलाल वोरा अपने समर्थकों
को वस्तु की तरह इस्तेमाल नहीं करते। इसलिए भटक भटका कर कार्यकर्ता लौटता
है तो उससे किसी तरह का दुराभाव प्रगट नहीं किया जाता।

किसी भी तरह के मानवीय सहयोग की उम्मीद आप मोतीलाल वोरा से कर सकते हैं।
इस बात से मोतीलाल वोरा का कोई लेना देना नहीं होता कि आप किस जाति,
धर्म, प्रदेश या वर्ग के साथ किस राजनैतिक पार्टी के सदस्य है। जहां तक
मानवता के प्रति सदाशयता का प्रश्र है तो मोतीलाल वोरा में इंसानियत कूट
कूट कर भरी है। छत्तीसगढ़ का हित होता हो तो मोतीलाल वोरा किसी भी तरह की
राजनीति को पसंद नहीं करते। कोई छोटे मन का नेता कुर्सी के अहंकार में
मोतीलाल वोरा का अपमान भी कर देता है तो वे उसे दुश्मनों की तरह नहीं
लेते बल्कि ऐसे नेता भी अंतत: मोतीलाल वोरा के दरवाजे पर खड़े दिखायी
देते हैं लेकिन पार्टी का हित हो तो मोतीलाल वोरा अडऩा भी जानते हैं।
पूरी जिंदगी राजनीति में बिताने के कारण राजनीति की हर विधा को उन्होंने
नजदीक से देखा है। राजनीति का अच्छा और बुरा दोनों पक्ष उन्होंने देखा है
लेकिन बुरे पक्ष से अप्रभावित रहने की कला भी उन्हें आती है। काजल की
कोठरी में रहने के बावजूद बिना किसी दाग के रहने से बड़ी कला और क्या हो
सकती है?

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री, उत्तरप्रदेश के
राज्यपाल जैसे पदों को सुशोभित करने वाले मोतीलाल वोरा आज पार्टी के
कोषाध्यक्ष हैं। किसी भी पद से कम जवाबदारी का पद कोषाध्यक्ष का नहीं
होता। लोगों के पद बदलते रहे लेकिन सोनिया गांधी ने कोषाध्यक्ष के पद के
लिए मोतीलाल वोरा को ही हमेशा विश्वसनीय समझा तो यह बड़ी उपलब्धि है,
उनकी। आज छत्तीसगढ़ के मामले में आलाकमान उनकी राय को सबसे ज्यादा तव्वजो
देता है तो यह पार्टी के हित में तो है, ही, समझदारों के लिए इशारा भी है
कि पार्टी में पूछ कैसे व्यक्ति की होती है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 29.10.2010
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सलमान का स्वागत कर राज्यपाल ने कोई गलत काम नहीं किया है बल्कि बड़प्पन का परिचय दिया है

राज्यपाल शेखर दत्त एवं मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के द्वारा सलमान खान के
स्वागत को कांग्रेस विवाद का विषय बना रही है। प्रदेश अध्यक्ष धनेन्द्र
साहू कह रहे हैं कि राज्यपाल जैसे गरिमामय पद के व्यक्ति का सलमान खान का
स्वागत करना गरिमा के अनुसार नहीं है। छत्तीसगढ़ राज्य को बने 10 वर्ष
होने जा रहे हैं और इस अवसर पर राज्योत्सव मनाया जा रहा है। सत्ता से
बाहर बैठे लोगों को उत्सव नहीं भा रहा है, यह तो कोई खास बात नहीं है।
दूसरों का उत्सव मनाना दुखी लोगों को वैसे भी पसंद नहीं आता। कहा तो यह
भी जा रहा है कि राज्योत्सव धन की बर्बादी है। कांग्रेस शासनकाल में भी
राज्योत्सव तो हुए लेकिन इस समय कांगे्रसियों ने नहीं कहा कि यह धन की
बर्बादी है। स्वयं करें तो सही और दूसरा करे तो गलत। राजनीति इसी को कहते
हैं। प्रतिपक्ष के नेता रविन्द्र चौबे का राज्योत्सव के उद्घाटन में
मंचस्थ होना और विकास कार्यों की तारीफ करना भी कांग्रेसियों को रास नहीं
आ रहा है। अब प्रतिपक्ष के नेता हैं तो सरकारी कार्यक्रमों में भी जाना
पड़ता है और पद की मर्यादा के अनुसार बोलना पड़ता है। प्रतिपक्ष का नेता
होने का यह अर्थ तो नहीं होता कि हर जगह विरोधी की ही भूमिका निभायी जाए।
सरकार का विरोध करने के लिए कांग्रेसी हमेशा कारणों की तलाश करते हैं।
कोई न कोई कारण ढूंढ़ भी लेते हैं तो अपनी जितनी भी ताकत है, उससे विरोध
करते हैं लेकिन उसका न तो जनता पर असर पड़ता है और न ही आलाकमान पर। ले
देकर राज्यपाल को अपना आदमी समझते हैं तो उनके दरबार में भी शिकायत
पहुंचा देते हैं लेकिन कोई परिणाम तो दिखायी देता नहीं। राज्यपाल की
नियुक्ति राष्टपति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर करते हैं। इसका
अर्थ यह नहीं होता कि केंद्र में जिसकी सरकार है, उसके प्रतिनिधि
राज्यपाल हैं। राज्यपाल एक संवैधानिक पद है और राज्यपाल उसी के अनुसार
काम करते हैं। कोई यह समझता है कि राज्यपाल की नियुक्ति कांग्रेस सरकार
ने की है तो राज्यपाल को कांग्रेसियों के अनुसार चलना चाहिए, एकदम गलत
धारणा है। दरअसल सरकार किसी भी पार्टी की हो, होती तो राज्यपाल की सरकार
है। इसीलिए अपने संबोधन में राज्यपाल मेरी सरकार कहकर संबोधित करते हैं।
जिनकी सोच सही न हो वही राज्यपाल अपने को किसी पार्टी का मान सकता है और
राज्यपालों पर आरोप भी लगे हैं कि वे कांग्रेसी की तरह व्यवहार करते हैं
लेकिन सभी तो ऐसे नहीं हैं। वे अपने पद की मर्यादा ओर संवैधानिक
दायित्वों का निर्वाह पूरी ईमानदारी से करते हैं।

छत्तीसगढ़ के राज्यपाल शेखर दत्त भी पद की मर्यादा के अनुसार आचरण करते
हैं लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वे अहंकारी व्यक्ति हैं। वे विनम्र
व्यक्ति हैं और यही विनम्रता घर आए अतिथि के स्वागत के लिए सहर्ष तैयार
हो गयी। सलमान खान आज देश में अत्यंत लोकप्रिय कलाकार हैं। जनता उन्हें
देखना और सुनना चाहती है। वह तो इसके लिए नियम कायदों को भी तोडऩे में
परहेज नहीं करती। नियम कायदा कायम रखने के लिए पुलिस को सख्ती भी करनी
पड़ती है। यह बात जनता भी जानती है। इसके बावजूद वह पुलिस की लाठियां
खाने के लिए भी तैयार हो जाती है और बैरिकेट्स के ऊपर चढ़कर उस पार
छलांग लगा देती है। जरूर जनता को सलमान की उपस्थिति प्रसन्नता देती है।
नहीं तो कौन लाठी खाने के लिए तैयार होगा? सबको अच्छी तरह से मालूम है कि
लोकप्रिय कलाकारों के आने पर क्या होता है? लोग कलाकारों के दीवाने ही
हैं, यही तो उनकी उपयोगिता भी है। जिसकी उपस्थिति राज्य की जनता में
प्रसन्नता की लहर पैदा करे, उसका सम्मान यदि राज्यपाल करते हैं तो इसमें
ऐसी कोई गलत बात नहीं है। घर आए मेहमान का स्वागत करना तो हमारी परंपरा
है। राज्यपाल ही प्रदेश के प्रथम नागरिक हैं और वे सलमान का स्वागत,
सम्मान करते हैं तो इससे प्रदेश की प्रतिष्ठï गिरती नहीं बल्कि बढ़ती
है।

कांग्रेसी आज भी समझ नहीं पाए कि उनके नेताओं का झूठा अहंकार ही उनके
राज्य में पतन का कारण बना। आपसी प्रतिस्पर्धा ने तो मर्यादा की लक्ष्मण
रेखा ही पार कर ली। तभी तो एक कांगे्रेसी नेता कहता है कि कांग्रेसी बिक
गए हैं। सिर्फ एक दूसरे की शिकायत आलाकमान से करने और अपनी रेखा को बड़ी
दिखाने में अपनी ऊर्जा नष्ट करने के सिवाय कांग्रेसियों ने किया ही क्या
है? अब राज्यपाल को विवादास्पद बनाना चाहते हैं। जिस तरह 10 वर्ष पूरे
होने पर राज्य सरकार उत्सव मना रही है, उसी प्रकार 10 वर्ष पूरा होने पर
कांग्रेसियों को भी उत्सव मनाना चाहिए। यह तो खुशी का समय है। देखते ही
देखते 10 वर्ष बीत गए और राज्य की अपनी छवि देश भर में अच्छी खासी बन गयी
है। 3 नए बने राज्यों में छत्तीसगढ़ ही विकास के मान से सबसे आगे है। अब
सूरज आकाश में चमक रहा है तो उसे नकारने की कोशिश कोई करे तो कम से कम
आंख वाले तो उसकी बात से सहमत नहीं हो सकते। सरकार राज्योत्सव के बहाने
लोगों में खुशी का संचार कर रही है तो यह उसका कर्तव्य तो है ही, जनता का
अधिकार भी है लेकिन कांग्रेसी तो अपने संगठन का ही चुनाव ईमानदारी से
नहीं करवा सके। हुए चुनाव पर ही कांग्रेसी ऊंगलियां उठा रहे हैं। अपने
प्रभारी महासचिव पर ही कालिख फेंक रहे हैं और दोषी सरकार को बता रहे हैं।
जैसे सरकार ने कालिख फेंकने के लिए कांग्रेसियों को तैयार किया था।
राज्यपाल के दरबार में हाजिरी देकर सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहते
हैं। जबकि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि कालिख के पीछे किस बड़े नेता का
हाथ था।

एक अदद प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव भी कांग्रेसी सर्वसम्मति से नहीं कर
सकते। इसके लिए वे सर्वाधिकार सोनिया गांधी को सौंपते हैं और तरह तरह से
स्वयं के लिए लाबिंग करते हैं। कौन प्रदेश अध्यक्ष बने और किसका कांग्रेस
पर कब्जा हो, इसी से कांग्रेसियों को फुरसत नहीं। अनुशासन समिति पार्षदों
पर अनुशासन की सिफारिश करती है तो उसे ही अध्यक्ष नहीं मानते। अनुशासन
समिति नोटिस देती है तो उसका जवाब देने की भी जरूरत पार्षद नहीं समझते।
राज्यपाल के पद की गरिमा का प्रश्र उठाने का अधिकार ही वे कहां रखते हैं?
संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल कहते हैं कि कांग्रेसी विरोधी  हैं।
विरोध करना ही उनका काम है लेकिन किस बात का विरोध करना चाहिए और किस बात
का नहीं, इसके लिए तो विवेक होना चाहिए। विरोध के लिए विरोध से जनता में
कोई ग्राह्य छवि नहीं बनती। यही कारण है कि कांग्रेसियों के विरोध के
साथ जनता खड़ी नहीं होती।

यह विरोध करने की आदत का ही कारण है कि पार्टी में कांग्रेसियों के बीच
विरोधाभास की कमी नहीं है। आपस में ही इतना विरोधाभास है कि सरकार के
विरूद्घ विरोध में भी पार्टी एक नहीं हो पाती और विरोध सफल न हो जाए,
इसलिए एक दूसरे की टांग खींचने में भी कोई पीछे नहीं है। यह वही सलमान
खान है जिन्होंने पिछले चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशियों का भी प्रचार
किया लेकिन किसी भाजपा के प्रत्याशी का प्रचार किया, ऐसा तो सुनने मे
और देखने में नहीं आया। फिर भी भाजपा की सरकार होने के बावजूद भाजपा ने
सलमान का सम्मान किया। उस भाजपा सरकार ने जिस पर कांग्रेसी सदा से
सांप्रदायिकता का आरोप लगाते रहे हैं। तीनों भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने
सलमान खान का स्वागत किया। राज्यपाल ने कर दिया तो कौन सी आफत
कांग्रेसियों को आ गयी ? आखिर तो सलमान कांग्रेस समर्थक माने जाते हैं।
जनता को सब कुछ स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि भाजपा और कांग्रेस में क्या
अंतर है?

- विष्णु सिन्हा
28-10-2010


बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

अरूंधति राय का खेल स्वयं को अंतराष्ट्रिय स्तर पर चर्चित करने का है

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं होता कि व्यक्ति अभिमत प्रगट
करने के लिए स्वच्छंद है। करोड़ों लोगों की मान्यता और भावना को ठेस
पहुंचाने वाली अभिव्यक्ति कानून तोडऩे के मामले में आती है और पता नहीं
क्यों सरकार इतनी कमजोर साबित होती है कि लोग कुछ भी कहते हैं तो कानूनी
कार्यवाही से हिचकती है। अरूंधति राय को एक उपन्यास के लिए
अंतराष्ट्रिय  पुरस्कार क्या मिल गया, वे समझने लगी कि हर विषय में राय
वे प्रगट करेंगी तो लोग उन रायों को स्वीकार करेंगे। नहीं, वे अच्छी तरह
से जानती हैं कि धारा के विपरीत कथन विवादास्पद तो बनाता ही है, चर्चित
भी बनाता है। विवादास्पद बातें कहो और चर्चित बने रहो। अंतराष्ट्रिय
जगत में ऐसे लोगों की पूछ परख करने वाले भी अपने अपने स्वार्थ के अधीन
मिल ही जाते हैं। मीडिया को तो मसाला चाहिए और विवादास्पद वक्तव्य मसाले
का ही काम करते हैं। अपने प्रकाशन को अधिक से अधिक प्रसारित करने के लिए
ये मामले उपयोगी सिद्घ होते हैं।

मीडिया जरा सा भी विवेक का परिचय देता तो अरूंधति राय के विचारों को
प्रचारित करने से बचा जा सकता था। मीडिया के द्वारा प्रचार न मिले तो ऐसे
लोग जानते हैं कि फिर बोलने से क्या लाभ? काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है,
यह बात हर भारतीय मानता है। काश्मीर में अवश्य कुछ निहित स्वार्थी अपना
उल्लू सीधा करने के लिए तथाकथित आजादी की बात करते हैं और पाकिस्तान को
भी इस मामले में सम्मिलित करते हैं लेकिन जम्मू और लद्दाख के लोग ही चंद
काश्मीरियों की राय से सहमत नहीं हैं। काश्मीर नरेश हरिसिंह ने अपने
राज्य जम्मू काश्मीर का भारत में विलय किया था। आज इस क्षेत्र का बहुत
बड़ा हिस्सा पाकिस्तान और चीन के कब्जे में है। भारत तो शांतिपूर्ण ढंग
से अपने हिस्से वापस चाहता है। ऐसे में कोई भी कुछ भी कहे लेकिन काश्मीर
भारत का अभिन्न अंग है, इस विषय में किसी भी तरह के समझौते की उम्मीद
नहीं की जा सकती।

अरूंधति राय, गिलानी, जेठमलानी के कहने से क्या होता है? केंद्र सरकार को
तो इनके वक्तव्यों को लेकर इन पर कड़ी कार्यवाही करना चाहिए। खबर है कि
गृह मंत्रालय ने अरूंधति राय पर कार्यवाही की इजाजत पुलिस को दे दी है।
इसके पहले नक्सलियों के विषय में भी अरूंधति राय ने वक्तव्य दिया था।
नक्सली संगठन केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा प्रतिबंधित संगठन है। ये
तो भारत के संविधान पर ही विश्वास नहीं करते। भारत में सारी स्वतंत्रता
जो सभी भारतीयों को मिली हुई है, वह संविधान के अंतर्गत ही है। संविधान
से परे स्वतंत्रता का अर्थ कानून के विरूद्घ जाना है और इस मामले में
स्पष्ट सजा का प्रावधान है। केंद्रीय मंत्री और काश्मीर के पूर्व
मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ही कहते हैं कि भारत में कुछ ज्यादा ही
आजादी है। उनकी बात सच नहीं है। आजादी अवश्य है लेकिन वह कानून के दायरे
में है। कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारी सरकार की है और सरकार अपना
कर्तव्य निर्वाह करने में लापरवाही का परिचय दे और इसे लोग ज्यादा आजादी
समझें तो गलती सरकार की है।

सरकारों का तो पहला दायित्व ही है, कानून का शासन सख्ती से लागू करना।
कानून को कोई मजाक बनाने की कोशिश करे तो उसे जेल की कोठरी में पहुंचा
देना। अरूंधति राय कहती हैं कि भ्रष्टाचार  की खुली छूट है। भ्रष्टाचारदेश में है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन इसका यह अर्थ तो कदाचित
नहीं लगाया जा सकता कि देश में भ्रष्टाचार की छूट है। जिन्हें कानून का
पालन कराने की जिम्मेदारी संविधान ने दी है, उनके सक्षम न होने के कारण
भ्रष्टाचार फल फूल रहा है तो इसका अर्थ भ्रष्टाचार की छूट नहीं लगाया
जा सकता। फिर भी भ्रष्टाचार  और देशद्रोह में जमीन आसमान का अंतर है। देश
की अखंडता और एकता के विरूद्घ बात करना और लोगों को भड़काना देशद्रोह की
श्रेणी में आता है। जबकि भ्रष्टाचार सामान्य अपराध की श्रेणी में? सबसे
बड़ा अपराध तो हत्या को माना जाता है। जिसकी सजा फांसी तक है लेकिन
राष्टद्रोह से बड़ा अपराध तो कोई नहीं हो सकता।

एक मेजर ने फौज से अवकाश के लिए न्यायालय में मामला इस आधार पर दायर किया
था कि उसे अपने पिता की सेवा के लिए अवकाश दिया जाए। कल ही न्यायालय ने
फैसला दिया है कि देश से बड़े पिता नहीं हैं और विशेष प्रशिक्षण के कारण
मेजर की जरूरत देश को अधिक है। इसलिए उसे अवकाश नहीं दिया जा सकता।
स्पष्ट है कि देश के सामने बाकी सभी बातों का कोई महत्व नहीं है। देश को
स्वतंत्र कराने के लिए लाखों लोगों ने अपनी जवानी कुर्बान की। वर्षों
सलाखों के पीछे जेल में बंद रहे। फांसी के फंदे पर चढ़ गए। उन वीर भारत
माता के पुत्रों की कुर्बानी के कारण भारत वर्षों की गुलामी के बाद आजाद
हुआ। यह आजादी जो देश को मिली यह अरूंधति राय के कारण नहीं मिली। इसी
आजादी का परिणाम है कि अरूंधति राय जो ठीक समझें उसे अभिव्यक्त कर
करोड़ों राष्ट्रभक्त  देशवासियों की भावनाओं को ठेस लगा रही है। काश्मीर
को भारत ने विशेष दर्जा दिया तो यह भारत की काश्मीर के प्रति अनुकंपा है,
 है। इसे कोई अपना अधिकार समझ ले तो यह उसकी गलतफहमी है। सैयद अली
शाह गिलानी जैसों के अनुसार भारत नहीं चल सकता। हर भारतीय का काश्मीर पर
उतना ही अधिकार है जितना अधिकार उसका शेष भारत पर है। काश्मीरी पंडित ही
इनकी दिल्ली की सभा में इन पर जूते फेंकते हैं। वंदे मातरम का नारा लगाते
हैं। वे भी काश्मीरी हैं। इसके पहले वे भारतीय हैं।

कानून मंत्री वीरप्पा मोइली कहते हैं कि देश में अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप लोगों की देशभक्ति की
भावनाओं को ठेस पहुंचाए। ऐसे बयानों को राजनीति से जोड़कर नहीं देखा जा
सकता जो रष्ट्रद्रोह  की हद तक पहुंच जाता है। अरूंधति राय कहती हैं कि
वे अपने दिए बयान पर कायम हैं। अब गेंद सरकार के पाले में हैं। करोड़ों
निगाहें सरकार की तरफ टकटकी लगाए देख रही है कि सरकार क्या निर्णय लेती
है? वह ढुलमुल रवैया अपनाती है या ठोस कदम उठाती है। अमेरिका के
राष्टपति बराक ओबामा भारत की यात्रा पर आ रहे हैं। कहा जा रहा है कि
एकाएक जो यह गतिविधियां बढ़ी हैं, उसका कारण उनकी यात्रा है। वे अमेरिकी
राष्टपति को समझाना चाहते हैं कि वे जैसा भारत को समझते हैं, वैसा
भारत नहीं है। काश्मीर में विरोध की राजनीति इसलिए प्रदर्शित की जा रही
है जिससे भारत के प्रति जो राष्टपति की भावना है, उसे बदला जाए। सारा
खेल पाकिस्तान प्रायोजित है। मांग भी उठाने वाले उठाते हैं कि अमेरिका
बीच में पड़कर मामला निपटाए। जबकि अमेरिका बार बार कह चुका है कि मध्यस्थ
बनने का उसका कोई इरादा नहीं है लेकिन निहित स्वार्थी बाज नहीं आते।
अमेरिकी राष्टपति आएं या कोई भी आए। सरकार को स्पष्टता से दिखाना
चाहिए कि भारत में कानून का शासन है और कानून से खिलवाड़ करने वाला कोई
भी हो, सरकार उसके साथ मुरब्बत नहीं करने वाली। दरअसल सरकार की हिचक के
पीछे कारण भी है। चूंकि अरूंधति राय अंतराष्ट्रिय  पुरस्कार प्राप्त
लेखिका हैं। इसलिए उनकी गिरफतारी के विरूद्घ  अंतराष्ट्रिय मानवाधिकारी
आवाज उठाएंगे और भारत की प्रजातांत्रिक छवि को खराब करने का प्रयास
करेंगे। अपनी इसी स्थिति का लाभ उठाकर तो अरूंधति राय मनमाना बयान देती
हैं। खेल स्पष्ट है। न तो काश्मीर से और न ही नक्सलियों से, लेना देना
है तो स्वयं से। स्वयं को चर्चित, महान प्रदर्शित करने का खेल है। देश के
लोग इस खेल को देख रहे हैं और सरकार के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

- विष्णु सिन्हा
27-10-2010