यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

स्वीकार्य आज भी राम हैं, रावण नहीं

विजयादशमी का दिन फिर आ गया। हजारों वर्षों से यह दिन आता  है और बुराई
के प्रतीक रावण का अग्रि संस्कार किया जाता है। रावण के अग्रि संस्कार से
बुराई समाप्त तो नहीं हुई लेकिन स्मृति को पुन: चाक चौबंद तो किया जाता
है कि बुराई के विरूद्घ चलने वाला युद्घ आज भी जारी है। वक्त के साथ बहुत
कुछ बदला तो बुराई के रूपों में भी परिवर्तन हुआ। रावण के दस सिर माने गए
हैं, जबकि राम का एक ही चेहरा, दरअसल अच्छाई और सच्चाई के चेहरे तो एक ही
होंगे लेकिन बुराई का चेहरा बदलते रहने की जरूरत है। रावण भी जब सीता हरण
के लिए आया था तब उसने साधु का वेश धरा हुआ था। इसलिए यह समझने की भूल तो
की नहीं जा सकती कि सामने जो सच्चाई का चेहरा दिखायी पड़ रहा है, वह असल
में वास्तविक चेहरा है। जिनके विषय में सबको अच्छी तरह से पता है कि वे
बुराई के पुतले हैं, वे भी चेहरा तो अच्छाई का लगाए हुए हैं। बुराई की
बुराई करने में पीछे किसी से नहीं हैं।


आज खुलेआम जो व्यक्ति बुरा है, उसे पहचानना कठिन नहीं है लेकिन साधुता की
आड़ में जो बुराइयां कर रहा है, उसे पहचानना कठिन है। कितने ही साधु संत
हैं जिनके चेहरे से जब साधुता का नकाब उतरा तो पीछे रावण ही नजर आया।
आस्थावानों का शोषण शैतान साधु का चेहरा लगाकर ही करता है। इससे एक खतरा
और पैदा हो जाता है कि जो वास्तव में ही साधु हैं, वे भी संदेह के दायरे
में आ जाते हैं और आदमी का मन तय नहीं कर पाता कि किस पर विश्वास करे किस
पर अविश्वास। सबसे बड़ा संकट ही इस युग में विश्वास का है। अब आदमी का तो
जीवन आस्था और विश्वास के सहारे ही चलता है। जब उस पर संकट के बादल छा
जाएं तो सर्वत्र रावण ही रावण दिखायी पड़ते हैं। कहते हैं कि रावण की
लंका सोने की थी। मतलब संपन्नता से भरपूर थी। धन के देवता कुबेर रावण के
सौतेले भाई थे और उन्हें हटाकर रावण ने लंका पर कब्जा जमाया था।
आज भी धन के लिए लोग क्या नहीं कर रहे हैं ? सरकार का अदना सा कर्मचारी
ही अपने बिस्तर में, तकिये में नोटों की गड्डियां रखकर सोता है। यह धन
उसके वेतन से तो इकट्ठा हो नहीं सकता। पूरे जीवन की कमायी भी ईमानदारी से
जोड़े बिना खर्च किए, तो भी इतना धन नहीं हो सकता।  साफ मतलब है कि
भ्रष्टाचार की कमायी है। फर्क इतना ही है कि चतुर चालक लोगों की तरह धन
को व्यवस्थित करना नहीं आता। स्विस बैंक में कैसे धन भेजा जाए, यह उसे
पता नहीं। 70 लाख करोड़ रूपये जो स्विस बैंकों में भारत के लोगों का जमा
है, वे धन चोरी करना भी जानते हैं और उसे बचाकर छुपाकर रखना भी जानते
हैं। ऐसे लोग सोने की लंका में ही रहते हैं लेकिन ये अपने बचाव के तरीके
अच्छी तरह से जानते हैं तो ये सज्जन की तरह प्रतिष्ठित हैं, दुर्जन की
तरह अप्रतिष्ठित नहीं।


सरकार किसी भी पार्टी की हो और उसका मुखिया कोई भी हो। सबके पास जनता के
लिए सपने हैं। सपने आर्थिक विकास के हैं। सोने की लंका के हैं। सपने
दिखाने में कुछ खर्च तो होता नहीं और चतुर चालाक लोग स्वप्न पूरा कर भी
लेते हैं लेकिन जो आम भारतीय 20 रूपये प्रतिदिन पर अपना गुजारा करता है,
उसके लिए सपने को पूरा करने के लिए इंतजार के सिवाय कुछ नहीं है।
विश्वास, आस्था, अच्छाई, ईमानदारी जैसे सदगुण भी उसी के लिए हैं। जनता का
भला करने का राग अलापने वालों की कथा तो निराली है। ये सत्ता में बने
रहने के लिए आदमी को आदमी से लड़वाते हैं। नाना प्रकार के उपाय करते हैं
कि सब एक न हो जाएं। क्योंकि सारे अच्छे लोग एक हो जाएं तो इनका सत्ता पर
काबिज न रहना सिर्फ वक्त की बात है। ये अविश्वास पैदा करते हैं। संदेह
पैदा करते हैं। जाति, संप्रदाय, भाषा के नाम पर विभाजन की रेखा खींचते
हैं। ये राम भक्ति के नाम पर त्याग को महत्ता नहीं देते बल्कि दूसरे के
त्याग पर अपना उल्लू सीधा करते हें।


राम आज भी बहुसंख्यक भारतीयों की आस्था के केंद्र में हैं। जब राम आस्था
के केंद्र हैं तो रावण की कितनी भी बुराई करें लेकिन काम तो राम की तरह
का दिखायी नहीं देता। राम ने तो एक नागरिक धोबी के कहने पर सीता का त्याग
कर दिया था। पिता के वचन पूरे करने के लिए 14 वर्ष का वनवास हंसते हंसते
हुए स्वीकार कर लिया था। आज कौन तैयार होगा, राम के आदर्श को स्वीकार
करने के लिए। यहां तो चुनाव में वोट लेते समय जो वायदे जनता से किए जाते
हैं उसे ही पूरा करने की मंशा कितने राजनीतिज्ञ रखते है? देश में तो
ऐसे भी नेता हैं जो आर्थिक विकास के लिए जनहितकारी कार्यक्रमों को
तिलांजलि देने की बात करते हैं। जनता महंगाई से पीडि़त है लेकिन
खाद्यान्न का सट्टा बाजार बंद करने के लिए तैयार नहीं। जनता को निष्ठुर
पूंजीपतियों के हवाले करने में भी जिन्हें जरा सी भी हिचक नहीं। बाजार सब
कुछ तय करेगा तो सरकार क्या करेगी? टैक्स वसूली। अपनी सुख सुविधा के सब
तरह के इंतजाम। अपने कर्मचारियों की सुख सुविधा के लिए सब इंतजाम और जनता
बाजार के भरोसे।


क्या राम ऐसा कर सकते थे? वे रावण के भरोसे अपनी आस्थावान जनता को छोड़
सकते थे। जनता ही सबसे ज्यादा मुश्किल में हैं। राम रूप धरे रावण से वह
निपटे भी तो कैसे निपटे? राम जन्मभूमि पर राम का भव्य मंदिर बनाकर क्या
समस्याओं की इतिश्री हो जाएगी या यह भी जनता की आस्था के दोहन का माध्यम
मात्र है। खबर है कि इंदौर के पास कोई रावण का मंदिर ही बना रहा है। आज
जो स्थिति है, इसमें यह असंभव भी तो नहीं। जब बुराई भी सम्मान की दृष्टि
से देखे जाने लगी तो रावण का मंदिर बनना कोई आश्चर्य की बात नहीं।
बाहुबलियों का राजनीति में जब खुलकर उपयोग अधिकांश बड़े दल कर रहे हैं तब
वे जनता से दबाव में उसका समर्थन प्राप्त करने की ही कोशिश तो कर रहे
हैं। भ्रष्टाचार से प्राप्त धन का जब जनता से मत प्राप्त करने के लिए
उपयोग किया जाता है तब यह राम के पदचिन्हों पर चलना तो नहीं कहा जा एकता।
शासकीय तंत्र का उपयोग चुनाव जीतने के लिए किया जाए तो यह राम पथगामी
होना तो नहीं कहा जाएगा।


जब राम को वनवास हुआ तो अयोध्या के नर नारी रोते थे। आज किसी की सत्ता
चली जाए तो वह और उसके परिवार वाले भले ही रोएं लेकिन किराए पर रोने वाले
भी नहीं मिलते। रावण का वध राम ने किया तो लंकावासी सुखी हुए थे। राम जब
वनवास काटकर आए तो भरत उनकी खड़ाऊ सिंहासन पर रखकर शासन कर रहे थे। आज
कोई तैयार होगा, इसके लिए। खड़ाऊ सरकारें भी आयी लेकिन जब उन्हें हटाने
का प्रयास किया खड़ाऊ वाले ने तो खड़ाऊ से उसकी पिटायी करने से भी पीछे
नहीं रहे। जिसको एक बार मौका मिला सिंहासन पर बैठने का तो वह सब अहसान
वहसान भूल जाता है। फिर भी रावण का वध दशहरा के दिन होता है। कितने ही
राम रूप धारी रावण, रावण का ही वध करते दिखायी देते हैं। सत्य यही है कि
कृत्य रावण के भी हो तब भी शक्ल तो राम की ही चाहिए। क्योंकि आज भी
स्वीकार्य राम हैं, रावण नहीं।


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विष्णु सिन्हा
16-10-2010