चुके हैं कि 72 घंटे के लिए हिंसा बंद करें तो वार्ता हो सकती है। 72
घंटे होते ही कितने हैं। मात्र 3 दिन 3 रात। नक्सलियों के पास बातचीत का
कोई प्रजातांत्रिक मुद्दा हो तब न वे बात करें। बारूद, बंदूक के बल पर जो
शासन करना चाहते हैं, उनकी बातचीत में रूचि क्या हो सकती है? फिर ऐसी
कोई बात न तो भारत सरकार मान सकती है और न ही राज्य सरकार जो संविधान के
विरूद्घ हो। नक्सली कहते हैं कि ग्रीन हंट बंद किया जाए। चिदंबरम कह चुके
हैं कि ऐसा कोई आपरेशन चल नहीं रहा है। सिर्फ सुरक्षा बलों को कैम्पों
में बुलाया जा सकता है। जो सर्चिंग के लिए निकलते हैं। चिदंबरम यह भी कह
सकते है क्योंकि सरकार किसी झूठे अहंकार के तहत तो नक्सलियों से लड़ नहीं
रही है? नक्सलियों के पास अपना अहंकार होगा कि उसने ग्रीन हंट आपरेशन
बंद करने के लिए सरकार को बाध्य कर दिया। यदि शांति, अहिंसा का कोई
रास्ता निकलता हो तो सरकार इसके लिए भी तैयार हो सकती है।
जब सरकार पाकिस्तान से बात करने के लिए तैयार हो सकती है तब वह नक्सलियों
से भी बात कर सकती है। मुंबई पर जब हमला हुआ था तब सरकार ने कहा था कि जब
तक मुंबई हमले के गुनहगारों को पाकिस्तान सजा नहीं देता तब तक उससे कोई
बातचीत नहीं की जाएगी लेकिन सरकार विदेश सचिव, विदेश मंत्री स्तर की
वार्ता के लिए तो तैयार हो ही गयी। जबकि सरकार के पास पूरी जानकारी है
कि आतंकवादी बनाने की फैक्ट्री पाकिस्तान में बदस्तूर चालू है। सीमा से
आतंकवादियों को देश में प्रवेश कराने का भी काम बंद नहीं हुआ है। बदला
कुछ नहीं है और सरकार वार्ता की मेज पर आ चुकी है तो कारण यह है कि
पाकिस्तान भी बात करना चाहता है। पहल पाकिस्तान की ही तरफ से वार्ता की
है। भले ही यह अमेरिकी दबाव से हो। जन्म से ही जो देश भारत को अपना
दुश्मन नंबर एक मानकर चल रहा है और 62 वर्षों में कई युद्घ के साथ
सैकड़ों बार वार्ताएं और समझौते तक हो चुके लेकिन मन का मैल पाकिस्तान का
निकला नहीं।
भारत में किसी भी तरह का आतंकवाद हो पग ध्वनि पाकिस्तान की सुनायी पड़ती
है। अब तो नक्सलियों को भी पाकिस्तानी आतंकवादियों का समर्थन मिल रहा
है, ऐसा माना जाता है। नेपाल के माओवादी हों या लंका के लिट्टे या फिर
पाकिस्तान के तालिबान या फिर चीन के बने हथियार सब कुछ तो नक्सलियों के
पाले में है। ये नक्सली कौन है? कोई विदेश से आए लोग तो नहीं हैं। ये भी
इसी धरती में जन्मे लोग हैं। इनको आतंकवाद का प्रशिक्षण भले ही विदेशियों
से मिल रहा हो। इनसे सरकार तो बात कर ही सकती है। बिना किसी शर्त के भी
बात कर सकती है लेकिन ये बात करना चाहें तब न। चीन ने भारत की हजारों
वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर रखा है। मणिपुर राज्य को भी अपना बताता
है। जब उससे वार्ता हो सकती है तो नक्सलियों से क्यों नहीं? नक्सलियों
से वार्ता इसलिए नहीं हो सक रही है क्योंकि वे वार्ता करना ही नहीं
चाहते। चीन, पाकिस्तान वार्ता करना चाहते हैं तो वार्ता हो रही है।
नक्सली भी वार्ता करना चाहेंगे तो वार्ता अवश्य होगी।
कांग्रेस में आजकल दिग्विजयसिंह एक बड़े चिंतक विचारक हैं। वे कह रहे है
कि नक्सलियों को नेपाल के माओवादियों की तरह राजनीति में आना चाहिए। यही
सलाह तो नेपाल के माओवादी नेता प्रचंड पहले ही दे चुके हैं लेकिन नेपाल
की स्थिति और भारत की स्थिति में अंतर है। वहां माओवादियों की लड़ाई
राजतंत्र से थी। माओवादियों के राजनीति में आने से राजतंत्र समाप्त हो
गया। भारत में तो ऐसा कोई राजतंत्र है नहीं। यहां प्रजातंत्र है।
संविधान है। उसके तहत राजकाज जनता के चुने हुए प्रतिनिधि चलाते हैं। यहां
सरकार में आने के लिए जनता का समर्थन चाहिए। नक्सलियों के साथ जनता का
समर्थन होता तो वे भय और आतंक क्यों फैलाते? भय और आतंक से प्राप्त
समर्थन बैलेट बाक्स में काम नहीं आता। जो वोट प्राप्त कर चुनाव जीत नहीं
सकता वह राजनीति में आकर क्या करेगा? जहां पहले से प्रजातंत्र हो। जनता
स्वतंत्र हो। कायदे कानून का शासन हो। वहां जोर जबरदस्ती का कानून तो चल
नहीं सकता।
जब इंदिरा गांधी के आपातकाल को जनता ने बर्दाश्त नहीं किया तो जनता बंदूक
के भय को स्वीकार करेगी। नहीं करेगी तो नक्सली प्रजातांत्रिक राजनीति में
आकर क्या करेंगे? अभी तक तो ऐसा नहीं हुआ कि लोग प्रजातंत्र को नष्ट कर
तानाशाही को पसंद करे। तानाशाही को नष्ट कर प्रजातंत्र के लिए क्रांति
तो होती देखी गयी है। साम्यवाद भी अधिकांश जगह में प्रजातंत्र के
विरूद्घ नहीं सामंतवाद, तानाशाही के विरूद्घ पनपा। यह बात दूसरी है कि
साम्यवाद जिस सामंतवाद, तानाशाही के विरूद्घ पनपा, उससे बड़ा तानाशाह
सिद्घ हुआ। यह तो राजा ही करते रहे है कि जिसके विचार उनके विरूद्घ उसका
सर कलम कर दो। यही साम्यवाद ने भी किया। इतिहास गवाह है। साम्यवादी
सत्ता ने करोड़ों की जान ली। नक्सली भी माओवाद का नाम लेते हैं।
प्रजातंत्र सहमति असहमति दोनों को स्वीकार करता है। भारत में प्रजातंत्र
है तो पक्ष विपक्ष दोनों है। असहमतों की गर्दन उड़ाने की इजाजत कानून और
संविधान नहीं देता।
62 वर्षों का भारतीय प्रजातंत्र किसी भी कीमत पर तानाशाही को स्वीकार
नहीं कर सकता। जब तक नक्सलियों का प्रजातंत्र पर विश्वास नहीं होता तब तक
वे प्रजातंत्रिक सरकार से बात भी करेंगे तो क्या बात करेंगे? सरकार को वे
यह तो कहने से रहे कि तुम हटो हम सरकार चलाएंगे? क्योकि ऐसा वे कहें भी
तो उसका कोई औचित्य तो है, नहीं। सरकार कौन चलाएगा? यह तय करने का अधिकार
तो जनता के पास है। जनता से उसका यह अधिकार छीनने की ताकत तो सरकार को
संविधान ने भी नहीं दिया है। अन्य कोई मांग कि गरीबों के लिए,
आदिवासियों के लिए सरकार यह काम करे, वह काम करे तो सरकार यह कर सकती
है। वे हथियार सरकार को सौंपकर मुख्यधारा में लौटना चाहें तो सरकार
सहानुभूति पूर्वक उनके हिंसक किए गए कृत्यो पर भी विचार कर सकती है।
सरकार वह सब कर सकती है जो संविधान ने उसे करने का अधिकार दिया है।
लेकिन ऐसी किसी मांग के लिए नक्सली लड़ रहे हों, तब न। सरकार की तो
इकलौती मांग होगी कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ें। नक्सली इसके लिए तैयार
नहीं हैं तो फिर वार्ता का क्या औचित्य हैै? सरकार ग्रीन हंट भी बंद कर
दे तो भी कोई परिणाम निकलेगा, इसकी क्या गारंटी है? अगर कोई गारंटी दे तो
सरकार को नक्सलियों की ग्रीन हंट स्थगित करने की मांग स्वीकार भी कर
लेना चाहिए। क्योंकि वार्ता से मामला सुलझ जाए तो इसके पीछे यही भावना
है कि और खून नहीं बहेगा। खून किसी का भी बहे लेकिन बहता तो इंसान का
है। सभ्य समाज में इंसानी हिंसा से बड़ा पाप और कोई नहीं माना जाता।
सरकारों के लिए नक्सलियों से लडऩा मजबूरी है, कोई शौक नहीं। लड़ाई समाप्त
हो तो इससे अच्छी कोई बात हो नहीं सकती।
-विष्णु सिन्हा
19-05-2010