यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

बुधवार, 19 मई 2010

सरकारों के लिए नक्सलियों से लडऩा मजबूरी है, कोई शौक नही

बात तो उसी से की जा सकती है जो बात करना चाहे। चिदंबरम तो कई बार कह
चुके हैं कि 72 घंटे के लिए हिंसा बंद करें तो वार्ता हो सकती है। 72
घंटे होते ही कितने हैं। मात्र 3 दिन 3 रात। नक्सलियों के पास बातचीत का
कोई प्रजातांत्रिक मुद्दा हो तब न वे बात करें। बारूद, बंदूक के बल पर जो
शासन करना चाहते हैं, उनकी बातचीत में रूचि क्या हो सकती है? फिर ऐसी
कोई बात न तो भारत सरकार मान सकती है और न ही राज्य सरकार जो संविधान के
विरूद्घ हो। नक्सली कहते हैं कि ग्रीन हंट बंद किया जाए। चिदंबरम कह चुके
हैं कि ऐसा कोई आपरेशन चल नहीं रहा है। सिर्फ सुरक्षा बलों को कैम्पों
में बुलाया जा सकता है। जो सर्चिंग के लिए निकलते हैं। चिदंबरम यह भी कह
सकते है क्योंकि सरकार किसी झूठे अहंकार के तहत तो नक्सलियों से लड़ नहीं
रही है? नक्सलियों के पास अपना अहंकार होगा कि उसने ग्रीन हंट आपरेशन
बंद करने के लिए सरकार को बाध्य कर दिया। यदि शांति, अहिंसा का कोई
रास्ता निकलता हो तो सरकार इसके लिए भी तैयार हो सकती है।

जब सरकार पाकिस्तान से बात करने के लिए तैयार हो सकती है तब वह नक्सलियों
से भी बात कर सकती है। मुंबई पर जब हमला हुआ था तब सरकार ने कहा था कि जब
तक मुंबई हमले के गुनहगारों को पाकिस्तान सजा नहीं देता तब तक उससे कोई
बातचीत नहीं की जाएगी लेकिन सरकार विदेश सचिव, विदेश मंत्री स्तर की
वार्ता के लिए तो तैयार हो ही गयी। जबकि सरकार के पास पूरी जानकारी है
कि आतंकवादी बनाने की फैक्ट्री पाकिस्तान में बदस्तूर चालू है। सीमा से
आतंकवादियों को देश में प्रवेश कराने का भी काम बंद नहीं हुआ है। बदला
कुछ नहीं है और सरकार वार्ता की मेज पर आ चुकी है तो कारण यह है कि
पाकिस्तान भी बात करना चाहता है। पहल पाकिस्तान की ही तरफ से वार्ता की
है। भले ही यह अमेरिकी दबाव से हो। जन्म से ही जो देश भारत को अपना
दुश्मन नंबर एक मानकर चल रहा है और 62 वर्षों में कई युद्घ के साथ
सैकड़ों बार वार्ताएं और समझौते तक हो चुके लेकिन मन का मैल पाकिस्तान का
निकला नहीं।

भारत में किसी भी तरह का आतंकवाद हो पग ध्वनि पाकिस्तान की सुनायी पड़ती
है। अब तो नक्सलियों को भी पाकिस्तानी आतंकवादियों का समर्थन मिल रहा
है, ऐसा माना जाता है। नेपाल के माओवादी हों या लंका के लिट्टे या फिर
पाकिस्तान के तालिबान या फिर चीन के बने हथियार सब कुछ तो नक्सलियों के
पाले में है। ये नक्सली कौन है? कोई विदेश से आए लोग तो नहीं हैं। ये भी
इसी धरती में जन्मे लोग हैं। इनको आतंकवाद का प्रशिक्षण भले ही विदेशियों
से मिल रहा हो। इनसे सरकार तो बात कर ही सकती है। बिना किसी शर्त के भी
बात कर सकती है लेकिन ये बात करना चाहें तब न। चीन ने भारत की हजारों
वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर रखा है। मणिपुर राज्य को भी अपना बताता
है। जब उससे वार्ता हो सकती है तो नक्सलियों से क्यों नहीं? नक्सलियों
से वार्ता इसलिए नहीं हो सक रही है क्योंकि वे वार्ता करना ही नहीं
चाहते। चीन, पाकिस्तान वार्ता करना चाहते हैं तो वार्ता हो रही है।
नक्सली भी वार्ता करना चाहेंगे तो वार्ता अवश्य होगी।

कांग्रेस में आजकल दिग्विजयसिंह एक बड़े चिंतक विचारक हैं। वे कह रहे है
कि नक्सलियों को नेपाल के माओवादियों की तरह राजनीति में आना चाहिए। यही
सलाह तो नेपाल के माओवादी नेता प्रचंड पहले ही दे चुके हैं लेकिन नेपाल
की स्थिति और भारत की स्थिति में अंतर है। वहां माओवादियों की लड़ाई
राजतंत्र से थी। माओवादियों के राजनीति में आने से राजतंत्र समाप्त हो
गया। भारत में तो ऐसा कोई राजतंत्र है नहीं। यहां प्रजातंत्र है।
संविधान है। उसके तहत राजकाज जनता के चुने हुए प्रतिनिधि चलाते हैं। यहां
सरकार में आने के लिए जनता का समर्थन चाहिए। नक्सलियों के साथ जनता का
समर्थन होता तो वे भय और आतंक क्यों फैलाते? भय और आतंक से प्राप्त
समर्थन बैलेट बाक्स में काम नहीं आता। जो वोट प्राप्त कर चुनाव जीत नहीं
सकता वह राजनीति में आकर क्या करेगा? जहां पहले से प्रजातंत्र हो। जनता
स्वतंत्र हो। कायदे कानून का शासन हो। वहां जोर जबरदस्ती का कानून तो चल
नहीं सकता।

जब इंदिरा गांधी के आपातकाल को जनता ने बर्दाश्त नहीं किया तो जनता बंदूक
के भय को स्वीकार करेगी। नहीं करेगी तो नक्सली प्रजातांत्रिक राजनीति में
आकर क्या करेंगे? अभी तक तो ऐसा नहीं हुआ कि लोग प्रजातंत्र को नष्ट कर
तानाशाही को पसंद करे। तानाशाही को नष्ट कर प्रजातंत्र के लिए क्रांति
तो होती देखी गयी है। साम्यवाद भी अधिकांश जगह में प्रजातंत्र के
विरूद्घ नहीं सामंतवाद, तानाशाही के विरूद्घ पनपा। यह बात दूसरी है कि
साम्यवाद जिस सामंतवाद, तानाशाही के विरूद्घ पनपा, उससे बड़ा तानाशाह
सिद्घ हुआ। यह तो राजा ही करते रहे है कि जिसके विचार उनके विरूद्घ उसका
सर कलम कर दो। यही साम्यवाद ने भी किया। इतिहास गवाह है। साम्यवादी
सत्ता ने करोड़ों की जान ली। नक्सली भी माओवाद का नाम लेते हैं।
प्रजातंत्र सहमति असहमति दोनों को स्वीकार करता है। भारत में प्रजातंत्र
है तो पक्ष विपक्ष दोनों है। असहमतों की गर्दन उड़ाने की इजाजत कानून और
संविधान नहीं देता।

62 वर्षों का भारतीय प्रजातंत्र किसी भी कीमत पर तानाशाही को स्वीकार
नहीं कर सकता। जब तक नक्सलियों का प्रजातंत्र पर विश्वास नहीं होता तब तक
वे प्रजातंत्रिक सरकार से बात भी करेंगे तो क्या बात करेंगे? सरकार को वे
यह तो कहने से रहे कि तुम हटो हम सरकार चलाएंगे? क्योकि ऐसा वे कहें भी
तो उसका कोई औचित्य तो है, नहीं। सरकार कौन चलाएगा? यह तय करने का अधिकार
तो जनता के पास है। जनता से उसका यह अधिकार छीनने की ताकत तो सरकार को
संविधान ने भी नहीं दिया है। अन्य कोई मांग कि गरीबों के लिए,
आदिवासियों के लिए सरकार यह काम करे, वह काम करे तो सरकार यह कर सकती
है। वे हथियार सरकार को सौंपकर मुख्यधारा में लौटना चाहें तो सरकार
सहानुभूति पूर्वक उनके हिंसक किए गए कृत्यो पर भी विचार कर सकती है।
सरकार वह सब कर सकती है जो संविधान ने उसे करने का अधिकार दिया है।
लेकिन ऐसी किसी मांग के लिए नक्सली लड़ रहे हों, तब न। सरकार की तो
इकलौती मांग होगी कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ें। नक्सली इसके लिए तैयार
नहीं हैं तो फिर वार्ता का क्या औचित्य हैै? सरकार ग्रीन हंट भी बंद कर
दे तो भी कोई परिणाम निकलेगा, इसकी क्या गारंटी है? अगर कोई गारंटी दे तो
सरकार को नक्सलियों की ग्रीन हंट स्थगित करने की मांग स्वीकार भी कर
लेना चाहिए। क्योंकि वार्ता से मामला सुलझ जाए तो इसके पीछे यही भावना
है कि और खून नहीं बहेगा। खून किसी का भी बहे लेकिन बहता तो इंसान का
है। सभ्य समाज में इंसानी हिंसा से बड़ा पाप और कोई नहीं माना जाता।
सरकारों के लिए नक्सलियों से लडऩा मजबूरी है, कोई शौक नहीं। लड़ाई समाप्त
हो तो इससे अच्छी कोई बात हो नहीं सकती।

-विष्णु सिन्हा
19-05-2010

मंगलवार, 18 मई 2010

फौज भी लगाना जरुरी हो तो लगाने से चूकना नहीं चाहिए

नक्सलियों ने हिसा और आतंक का एक और काला अध्याय लिख दिया। यात्री बस को
बारुदी सुरंग से उड़ा कर निर्दोष नागरिकों के खून से होली खेल ली। हिंसक
जानवर का भी हिंसा से संबंध सिर्र्फ अपनी क्षुधा शांति तक ही रहता है।
जानवर तक पेट में भूख न हो तो किसी को मारना पसंद नहीं करते। इन इंसानों
को जो निर्दोष लोगों की हत्या करते है, नृशंस हिंसक जानवर भी नहीं कहा जा
सकता। गरीब निरीह जनता को शोषण से मुक्ति दिलाने के नाम पर उन्हीं की
हत्या के लिए तो भाषा को नया शब्द ही गढऩा पड़ेगा। कल तक जो नक्सलियों के
हिमायती बनते थे, आज उनकी जबान भी नक्सलियों के द्वारा की गई हत्या को
उचित ठहराने के लिए खुल नहीं रही है। यह सही है कि इस हत्याकांड से
छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक हिल गयी है। आज प्रधानमंत्री सुरक्षा
संबंधी मामले की मंत्रिमंडलीय बैठक कर रहे हैं। यह तो सोचा ही नहीं जा
सकता कि इन हिंसक नक्सलियों के आगे कोई भी सरकार घुटने टेक देगी। सरकार
की मंशा अवश्य रही है कि अनावश्यक हिंसा के बिना भी मामला सुलझ जाए लेकिन
जब सामने वाला ताकत के बल पर निर्णय करना चाहता है तो सरकार की भी मजबूरी
है कि वह ताकत का जवाब ताकत से दे।

छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने पिछले दिनों कहा था कि नक्सलियों
के विरुद्ध लड़ाई को फौज के हवाले कर देना चाहिए। इसके पहले केंद्रीय गृह
मंत्री पी. चिदंबरम ने भी कहा था कि आवश्यकतानुसार वायुसेना का उपयोग
किया जाना चाहिए। आज जो स्थिति निर्मित हो गयी है, इसमें तो लगता है कि
दोनों गृहमंत्रियों की राय से केंद्र सरकार इत्तफाक करे तभी कारगर कदम
उठाए जा सकते हैं। यह सिर्फ अब पुलिस के बस की ही बात नहीं रह गयी।
अद्र्धसैनिक बलों के बस की भी बात नहीं दिखायी पड़ती। जिस तरह से नक्सली
आधुनिक युद्ध कला के विषय में सब कुछ समझते हैं तो उनसे मुकाबला भी उनसे
अधिक जानकारी रखने वाले ही कर सकते हैं। फौज के सिवाय तो और कोई दिखायी
नहीं देता जो नक्सलियों से मुकाबला कर सके। जहां तक प्रशिक्षण की बात है
तो उसके लिए समय चाहिए और मुकाबला करने की आज जरुरत है। समय और मिलेगा तो
नक्सली और मजबूत होंगे।

यह भी संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि लश्कर से भी नक्सलियों के संबंध
है। युद्ध कला का प्रशिक्षण लिट्टे से नक्सलियों को मिला है। अब केंद्र
सरकार भी यह बात मानने के लिए बाध्य हो गयी है कि नक्सली आतंकवादी हैं।
विस्फोट के बाद घायलों के पास जिस तरह से 3 घंटे तक कोई मदद नहीं पहुंच
सकी और घायल पानी के लिए तड़पते रहे, उससे यह भी समझ में आता है कि
दुर्गम स्थानों पर नक्सलियों से लडऩा आसान काम नहीं हैं। नक्सलियों का भय
इतना है कि आसपास के लोग मदद के लिए आगे नहीं आते। क्योंकि ये मदद करने
गए तो नक्सली इनकी जान के भी दुश्मन बन जाएंगे। सुरक्षा बलों के पक्ष में
स्थिति किसी भी कोण से नहीं दिखायी देती। लड़ाई में वह तो भारी पड़ेगा
ही जिसका सारा क्षेत्र अच्छी तरह से देखाभाला है। यह सही है कि जो
निर्देश दिए गए हैं उनका पालन न होना भी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है।
कड़ी चेतावनी के बावजूद यात्री बसों में यात्रा भी मौत का कारण बनी।
लेकिन नक्सलियों के नेटवर्क का भी इसी से पता चलता है। यात्री बस के
छूटने के मात्र 45 मिनट बाद घटना को अंजाम देने का तो यही अर्थ है।
नक्सलियों का आतंक इतना है कि पुलिस के लिए मुखबिरी करना प्राण संकट में
डालना है। जरा सा भी भान होने पर कि फलां व्यक्ति पुलिस का मुखबिर है। वह
हो न हो। जान से हाथ गंवाना पड़ता है। स्वाभाविक रुप से भय पैदा होता है
और भय पैदा करना ही तो आतंक है। और आतंक कहते किसे हैं? झारखंड में तो
नक्सलियों ने फरमान जारी कर दिया है कि कि कांग्रेस छोड़ दो। कल ही एक
कांग्रेसी को पहले गोली मारी गई और फिर उसे जिंदा जला दिया गया। गोली
मारना, जिंदा जला देना, सामान्य आदमी के मन में भय का ही संचार करता है।
आज दुनिया भर में आतंक एक कारोबार के रुप में पनप रहा है। रुप उसका कैसा
भी हो, नाम उसका कुछ भी हो, आतंक ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले
लिया है। इन आतंकवादियों में आपसी संबंध भी स्थापित हो जाते है। फिर
बारुद और हथियार का कारोबार करने वाले है। उनका तो हित इसी में है कि
अधिक से अधिक आतंकवादी फैलें तो उसका कारोबार फले फूले।

जान देने के लिए तैयार करने के लिए आस्था, शोषण, विचार की घुट्टी पिलायी
जाती है। यह तो बाद में पता चलता है कि जो हितैषी बनकर आए थे, वे ही अब
हर तरह के शोषक बन गए। इनके चंगुल से मुक्त होना भी आसान काम नहीं है।
लंका में ही लिट्टे से निपटने में सरकार को वर्षों लगे। किसी भी तरह की
नरमी काम नहीं आयी बल्कि सरकार नरमी बरतती थी तो लिट्टे और हिंसक हो
जाता था। अंतत: पूरी सेना को लंका सरकार को झोंकना पड़ा। हजारों लोग मारे
गए। निर्दोष लोग जो लिट्टे के द्वारा बंधक बनाकर सुरक्षा कवच के रुप में
रखे गए थे, वे मारे गए। तब कहीं जाफना पर लंका सरकार का कब्जा हुआ। पंजाब
में भी जब आतंकवाद चरम सीमा पर था तब के पी एस गिल को पूरी ताकत से उनसे
लडऩा पड़ा। पंजाब के आतंकवाद ने इंदिरा गांधी की जान ली तो लिट्टे ने
राजीव गांधी की।

कांग्रेस स्वयं आतंकवाद की भुक्तभोगी रही है। आज केंद्र में उसकी गठबंधन
की सरकार है। विपक्ष के दल भी नक्सलियों से लडऩे में सरकार को पूरा
समर्थन कर रहे हैं। यहां तक कि वामपंथी भी। लडऩे के मामले में जो
विरोधाभास है, वह कांग्रेस के अंदर ही है। गृहमंत्री चिदंबरम का विरोध
कोई करता है तो वे कांग्रेसी ही है। लडऩा तो सरकार को नक्सलियों से
पड़ेगा ही और वह लड़ भी रही है लेकिन प्रश्र यही है कि वह सुरक्षात्मक कब
तक नक्सलियों से लड़ेगी। इससे तो नक्सलियों का ही मनोबल बढ़ता है। वे
हिंसा के लिए और उत्साहित होते है। उनके द्वारा की गई हत्या से रायपुर से
लेकर दिल्ली तक हलचल मचती है तो इसे वे अपनी जीत के रुप में ही लेते
हैं। जिस तरह से काश्मीर में सीमापार आतंकवादियों से फौज ने लड़ाई लड़ी,
उसी तरह की लड़ाई की अब छत्तीसगढ़ में जरुरत है। छत्तीसगढ़ में ही नहीं
पूरे नक्सली बेल्ट में जरुरत है।

जो लोग हत्या पर राजनीति कर रहे हैं, उनसे भी निपटने की जिम्मेदारी
कांग्रेस की है। इस तरह की राजनीति का प्रभाव आम जनता पर अच्छा नहीं
पड़ता। सिर्र्फराज्य सरकार की जिम्मेदारी है, ऐसा कहने से भी काम नहीं
चलेगा। क्योंकि यह कोई छत्तीसगढ़ की समस्या नहीं है। यदि यह सिर्फ एक
राज्य का मामला होता तो सरकार निपट भी लेती। राज्यों में समन्वय हो और
केंद्र सरकार इसकी निगरानी करे, इसी की आवश्यकता है चिदंबरम रायपुर में
पुलिस महानिदेशकों की बैठक करने वाले है। यह अच्छा तरीका है। सब मिल
जुलकर समस्या से निपटेंगे तो समस्या का हल अवश्य निकलेगा लेकिन एक राज्य
तो पूरी ताकत से लड़े और दूसरे राज्य पर्याप्त सहयोग दें तो इसी का तो
फायदा नक्सली उठाते हैं। फिर छत्तीसगढ़ ऐसा राज्य है जो चारों तरफ से
नक्सल प्रभावित राज्यों से घिरा हुआ है। एक राज्य की भी लापरवाही
छत्तीसगढ़ को भारी पड़ती है। बस्तर कोई एक संभाग मात्र नहीं है बल्कि
केरल राज्य से बड़ा भू-भाग है। जंगल, पहाड़ों से भरा यह क्षेत्र
नक्सलियों को सुरक्षा देता है। आबादी कम है और पहुंच मार्ग न होने से
संपर्र्क करना कठिन होता है। इसलिए सारी परिस्थितियों को गौर करते हुए
विस्तारित रणनीति बनाने की जरुरत है। जिस भी सेना को लगाने की आवश्यकता
महसूस हो उसे लगाने से हिचकना नहीं चाहिए ।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 18.05.2010
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सोमवार, 17 मई 2010

और कितनों को मारोगे, मारना ही समस्या का हल होता तो समस्याएं हल न हो जाती

आज सबसे सस्ती चीज कोई हो गयी है तो वह आदमी की जान है। खासकर उन लोगों
के लिए जो माओवाद के नाम पर एक ही काम करना जानते हैं, जान से मारना।
किसी को फांसी पर लटकाकर मारते हैं तो किसी को पत्थरों से तो किसी को
गोलियों से। यह 21 वीं सदी का सच है। कोई प्राचीन आदिमयुगीन कहानी नहीं
है। आधुनिक मानव, विकसित भारत, जिसे अब जंगली जानवरों का डर नहीं है
बल्कि जानवर ही उससे भय खाते है लेकिन आदमी का सबसे बडा दुश्मन आदमी ही
बना हुआ है। सामंतवाद में भी सभी राजा इतने क्रूर नहीं थे जितने क्रूर ये
माओवादी दिखायी दे रहे हैं। जिन इंसानों की भलाई के लिए इंसानों को मारते
हैं, उससे कोई भी कैसे सहमत हो सकता है? भय, आतंक पैदा कर जो अपनी बात को
सही सिद्घ करना चाहते हैं, उनका वास्तव में धोखे से भी शासन हो गया तो
आदमी कल्पना भी नहीं कर सकता कि उसकी क्या हालत होगी?

स्वतंत्र भारत में आपातकाल को तो लोगों ने स्वीकार नहीं किया। जिसमें
अभिव्यक्ति की आजादी छीन ली गई थी। विरोधी विचारकों को जेल के सींखचों मे
कैद कर दिया गया था। जब उसके लिए लोगों ने इंदिरा गांधी को माफ नहीं किया
और उन्हें सत्ता के सिंहासन से उतार दिया तो माओवादियों को लोग कैसे
स्वीकार कर सकते हैं? इंसान की जान न हुई मिटटी का खिलौना हो गया कि जब
चाहे तोड़ डाला। जिन हथियारों का निर्माण दुर्जनों से निपटने के लिए
किया गया था, उन्हीं हथियारों का उपयोग दुर्जन सज्जनों को मारने के लिए
कर रहे हैं और मानवाधिकार की दुहाई देने वाले लापता हैं। उन्होंने अपनी
जबान हिलाना भी जरूरी नहीं समझा कि माओवादियों की हिंसा गलत है। कहां गए
वे गांधी की अनुयायी जो सत्य अहिंसा से अंग्रेजों से देश को आजाद कराने
में तो सफल हो गए लेकिन इन माओवादियों को समझाने के लिए उनके बीच जाने से
कतराते हैं। वे बुद्घिजीवी जो बढ़ चढ़कर माओवादियों का स्तुतगान करते
हैं। अंग्रेजी भाषा में अपनी बुद्घि का प्रदर्शन करते हैं और
अंतराष्ट्रीय पुरस्कारों के हकदार बनते हैं। निर्दोष नागरिकों की
हत्या की निंदा करना तो दूर की बात है, जो शोक प्रगट करने के लिए भी आगे
नही आते।

शायद ही कोई दिन जाता है जब कही न कहीं माओवादी किसी न किसी की हत्या न
करते हों। पिछले 1 माह में छत्तीसगढ़ में जवानों और निर्दोष नागरिकों के
कत्ल तो यही साबित करता है कि इन माओवादियों को इंसानी खून देखकर ही चैन
आता है। 100 लोग छत्तीसगढ़ में ही मार दिए गए। ग्रीन हंट बंद करो। हमारे
विरूद्घ पुलिस को कोई जानकारी देगा तो सजा मौत। सरकार है कि उच्चतम
न्यायालय के द्वारा फाँसी की सजा पाए लोगो को भी फाँसी पर चढ़ाने से
हिचकती है। राष्टपति को दया की अपील के सहारे अपराधी जेल में अपना
वक्त गुजारते हैं। यहां तक कि बर्बर, राष्ट्र विरोधी अपराधियों के साथ
भी कानून का सलूक निर्मम नहीं है। गवाही, सबूत न मिले तो अपराधी भी छूट
जाते हैं। फिर अदालतों की भी श्रेणियां हैं। निचली अदालत से ही सजा होने
में वर्षों लगता है और फिर उच्च न्यायालय, उच्चतम न्यायालय का सफर
निर्मम हत्यारों को भी जीने का पर्याप्त अवसर देता है।

कसाब जैसे अपराधी को भी फाँसी की सजा तुरत फुरत नहीं दे दी जाती। जबकि
उसके गुनाहगार होने में किसी को कोई शक संदेह नहीं है। न तो सबूतों की
कमी है और न ही गवाहों की। फिर भी न्याय की एक प्रक्रिया है और उसका
पालन किया जाता है। इससे जनता कसाब जैसे मामलों में नाराज भी होती है।
क्योंकि जनता की इच्छा तो यही है कि उसे तुरंत फांसी पर खुलेआम लटका
दिया जाए। कसाब जैसे जघन्य अपराधी को भी माफ करने का भाव एक महिला ने
प्रगट किया है। जिसके पति और पुत्र की हत्या मुंबई हमले के समय की गई।
इंसानियत, मनुष्यता बहुत ही उच्च भाव है और मनुष्य से उम्मीद की जाती है
कि वह अपने जीवन में उच्च नैतिक मूल्यों को बढ़ावा दे। इसीलिए उच्च
मूल्यों का पालन करने वाले और उसकी शिक्षा मनुष्य को देने वाले तो अमर हो
जाते हैं लेकिन क्रूर हत्यारों को इतिहास याद भी नहीं रखना चाहता। याद भी
रखता है तो उन लोगों को जो महान आत्माओं के संसर्ग से अपने क्रूर जीवन को
त्यागकर इंसानियत के रास्ते पर चलने को तैयार होते हैं।

हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन जैसों की आज कोई मानवतावादी सम्मान नही करता।
इन पर करोड़ों मनुष्यों की हत्या का जुर्म है। ये ही कहां सफल हुए?
हिंसा से आदमी को भयभीत किया जा सकता है और उसके भय का शोषण किया जा सकता
है। माओवादी भी आदिवासियों को शोषण से बचाने के लिए उनके बीच आए थे
लेकिन आज वे ही सबसे बड़े शोषणकर्ता बन गए। आखिर 1500 करोड़ रूपये आते
कहाँ से हैं। छोटा कारोबार नहीं है। क्यों भ्रष्ट अधिकारियों, ठेकेदारों
को नक्सलियों से कोई भय नहीं है। कैसे तेंदूपत्ता ठेकेदारों की जीप
दनदनाती हुई घुमती है। साफ है कि ये माओवादियों को धन देते हैं और धन
देने वाला किसे खराब लगता है। आखिर इस धन के सहारे ही तो हथियार, गोला
बारूद, माओवादियों का वेतन निकलता है। माओवाद के नाम पर जो लड़ रहे हैं
वे कोई स्वयं सेवक तो हैं नहीं। आत्मसमर्पण करने वाली महिला माओवादियों
ने तो शारीरिक शोषण का भी आरोप लगाया है। जबरदस्ती विवाह के भी आरोप
हैं।

साफ मतलब है कि माओवादी पूरी तरह से तानाशाही पर विश्वास करते हैं।
दुनिया की आज जो स्थिति है, उसमें इक्का दुक्का जगह तानाशाही अवश्य है
लेकिन वह तानाशाही का कवच भी टूट रहा है। जो पीढ़ी आ रही है, वह
स्वतंत्रता का स्वाद चख चुकी है। भूख भी बर्दाश्त है लेकिन तानाशाही
नहीं। मौत डराती है, यह सच है लेकिन यह भी सच है कि एकमात्र निश्चित कोई
घटना मनुष्य के साथ घटित होती है तो वह मौत ही है। जो पैदा हुआ। चाहे वह
रंक हो या राजा, महात्मा हो या शैतान मृत्यु से बच नहीं पाया। बचपन,
जवानी, बुढ़ापा,रोग यह सब ऐसे समय के साथ घटित होने वाले परिवर्तन है कि
व्यक्ति अभी तक तो इससे बच नहीं सका। माओवादी भी जब बीमार पड़ते हैं तो
चिकित्सक की ही शरण में उन्हें जाना पड़ता है। असली बात मारना नहीं
जिलाना है और मार देना तो पल भर का काम है। जबकि एक बच्चे को पैदा करने
से लेकर बड़ा करना बहुत क्रियाशीलता और त्याग का काम है। आदमी का बच्चा
ही सबसे कमजोर होता है। यदि उसे जन्म देते ही मां छोड़ दे और कोई मनुष्य
उसे पालने के लिए न मिले तो उसका बचना असंभव है।

पृथ्वी में अपने को बचाने क लिए मनुष्य ने क्या नहीं किया ओर आज उसी का
परिणाम है कि मनुष्य ने विकास के नए आयाम छुए। आज मनुष्य सभी समस्याओं का
हल करने की स्थिति मे है। सभी सुविधाएं उसे उपलब्ध करायी जा सकती है।
मनुष्य आज अधिक शांति से रह सकता है लेकिन उसके लिए हिंसा से परहेज करने
की जरूरत है। हिंसा सिवाय नुकसान के और कुछ मनुष्य को नहीं दे सकती। वह
मिटा सकती है, निर्मित नहीं कर सकती। हर वह विचार जो हिंसा के लिए
प्रेरित करता है, वह विचार मनुष्य के विरूद्घ है। भले ही उस पर चाशनी
मनुष्य की भलाई की लगायी जाए। नक्सली इस बात को जितना जल्दी समझेंगे,
उतनी ही जल्दी लोगों का भला होगा

- विष्णु सिन्हा
17-04-2010
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रविवार, 16 मई 2010

डा. रमनसिंह ने पानी की समस्या को गंभीरता से लिया है तो वे हल करके ही रहेंगे

मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने फावड़ा उठाकर पानी निपटने की रोको महाभियान
का प्रारंभ कर दिया है। समय रहते समस्या के मूल को पहचानने की जरूरत को
महसूस किया है। नक्सली समस्या आज भले ही बड़ी लगे लेकिन उसका हल तो हो ही
जाएगा। प्रेम प्यार से हो या बंदूक की गोली से। समस्या को हल होने में
समय भी लगे तो कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन जिस स्तर पर नक्सलियों से
निपटने की तैयारी सरकार ने की है, उसी स्तर पर जल समस्या से भी तैयारी
सरकार करती है तो सरकार बिन पानी सब सून की स्थिति निर्मित होने से
छत्तीसगढ़ को बचा लेगी। यह सौभाग्य की बात है कि छत्तीसगढ़ के
मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह हैं। किसी भी समस्या से निपटने के लिए कार्य
के प्रति जिस समर्पण भाव की जरूरत होती है, वह रमन सिंह में कूट कूटकर
भरा हुआ है। वे यह भी नहीं देखते कि केंद्र सरकार मदद करेगी तब समस्या
का हल किया जाएगा। वे अपने दम पर भी समस्या से जूझने को तैयार रहते हैं।
जिस तरह से विश्व मंदी के दौर को और खाद्यान्न की बढ़ी कीमतों के दौर
को डा. रमन सिंह ने पहले ही पहचान लिया था ओर गरीबो के पेट भूखे न रहें
इसलिए 3 रू. किलो मे चांवल देने की योजना का आगाज किया था, उससे ही समझ
में आ गया कि डा. रमन सिंह की दूरदृष्टि कितनी पैनी है। आलोचना करने
वालों की कमी नहीं है कि सस्ता अनाज देकर लोगों को निकम्मा बना रहे हैं,
डा. रमन सिंह लेकिन यह आलोचना कर कौन रहे हैं? वे लोग जो गरीबों के श्रम
का शोषण करते हैं। आज गरीब का पेट भरा हुआ है तो वह किसी भी कीमत पर काम
करने को तैयार नहीं है। वह मनमाफिक मजदूरी चाहता है। जब बाजार में हर
वस्तु की कीमत आसमान पर हो तब मजदूर की मजदूरी ही सस्ती क्यों होना
चाहिए?आखिर बाजार से ही तो उसे भी हर वस्तु खरीदना पड़ता है। डा. रमनसिंह
ने इस बात को भी पहचाना कि गरीब का पेट भर दो। भूख उसकी मजबूरी न बने तो
उसका शोषण भी रूक सकता है और आज स्थिति ऐसी है कि मजदूर के न केवल काम के
घंटे कम हुए बल्कि उसे मजदूरी भी पर्याप्त मिलने लगी।

प्रधानमंत्री रोजगार योजना में भी लोग काम करने के लिए तैयार नहीं हैं।
क्योंकि प्रधानमंत्री रोजगार योजना में जो मजदूरी मिलती है, उससे अधिक
मजदूरी दूसरे काम में मिलती है। फिर नगद मजदूरी मिलती है। काम लेने वाला
जानता है कि आगे भी काम कराना है तो मजदूरी देने के मामले में बेईमानी
नहीं चलेगी। स्वाभाविक रूप से मजदूर के स्वाभिमान की इज्जत बढ़ी है।
नक्सली भी इस बात को समझते हैं कि डा. रमन सिंह की विकास योजनाएं उनके
प्रभाव वाले क्षेत्र में घुस गयी तो फिर बंदूक के बल पर आदिवासियों को
आतंकित करके अपने पक्ष में चुप रखना कठिन ही नहीं असंभव हो जाएगा। 2 रू.
किलो चांवल ने ही डा. रमन सिंह की लोकप्रियता में इतना इजाफा किया है कि
केंद्र सरकार तक 3 रू. किलो में अनाज देने के लिए बाध्य हुई। चुनाव के
पूर्व जब यह योजना लागू की गई थी तब कांग्रेसियों ने ही कम विरोध नहीं
किया था लेकिन आज जब पानी रोको अभियान डा. रमनसिंह चला रहे हैं तब तो कोई
चुनाव सामने नहीं है।

यह कोई चुनावी मुहिम नहीं है बल्कि यह भविष्य की तैयारी है। जिससे
छत्तीसगढ़ सब तरह का विकास तो कर ले लेकिन पानी के बिना सब तरह का विकास
बेमानी न साबित हो। पानी ही जीवन है और उसकी अनुपलब्धता कैसी स्थिति
निर्मित कर सकती है, इसकी कल्पना से ही रोगंटे खड़े हो जाते हैं। 1 माह
के लिए जो अभियान चलाया जा रहा था, उसे 3 वर्ष तक चलाने के लिए
मुख्यमंत्री सहमत हो गए है। पानी की सुरक्षा और संचय के लिए मुख्यमंत्री
बड़ा कानून बनाने पर भी विचार कर रह हैं। वाटर हार्वेस्टिंग लागू होने के
बावजूद नगरीय संस्थाएं कड़ाई से इसका पालन नहीं करा रही है। ऐसे में
सरकार को बाध्य होकर अब बिजली का कनेक्शन देने के मामले में वाटर
हार्वेस्टिंग को अनिवार्य करने का नियम बनाना पड़ रहा है। नलों में मीटर
लगाने की योजना पर भी नगर निगम काम कर रही है। जिससे जितना पानी कोई
उपयोग करे उससे उतना धन वसूला जा सके। यह सिर्फ धन वसूलने की बात नहीं है
बल्कि मुफत में मिलने वाली सुविधा का मूल्य न समझने के कारण मीटर लगाना
पड़ रहा है। जिससे जब पैसा देना पड़े तब समझ में आए कि अपव्यय का क्या
अर्थ होता है?

आगे स्थानीय संस्थाओ को इस पर भी विचार करना चाहिए कि जो पानी वे दे रहे
हैं, वह पीने के काम तो आता ही है, इसके साथ ही साथ दूसरे भी सभी काम
इसी पानी से लिए जाते हैं। भविष्य में दो अलग अलग तरह के पानी के प्रदाय
की भी व्यवस्था करना चाहिए। मीठे और खारे पानी का भेद भी समझा जाना
चाहिए। फिल्टर प्लांटों से जहां शुद्घ पानी दिया जाता है, वहीं कई
मोहल्ले में बोरिंग पानी भी स्थानीय संस्थाएं प्रदाय करती है। यह पानी
खारा होता है और कहीं कहीं यह बीमारी का कारण भी होता है। चिकित्सक
स्वयं मानते हैं कि बहुत सारी बीमारियों का कारण पानी की अशुद्घि है।
संपन्न लोग तो अपने घरों में फिल्टर की छोटी छोटी मशीनें लगा लेते हैं
लेकिन हर किसी के बस की बात तो यह है, नहीं। पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण
के कारण उसका असर पानी पर भी पड़ता है। भूगर्भ के पानी के प्रदूषित होने
के भी समाचार मिलते ही हैं। वाटर हार्वेस्टिंग के ही समय पृथ्वी के गर्भ
में प्रदूषित पानी न जाएं, इसकी पुख्ता व्यवस्था होना चाहिए।

शुद्घ पानी जीवनदायी है तो अशुद्घ पानी बीमारी का घर है। इसलिए 21 वीं
सदी में तो इस बात की और ज्यादा जरूरत है कि मनुष्य को शुद्घ पेयजल
उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए। आबादी कम होने के तो कोई लक्षण नहीं
दिखायी देते। गांवों में बढ़ती आबादी को अंतत: रोजी रोटी की तलाश में
शहरों की तरफ ही पलायन करना पड़ता है। छत्तीसगढ़ में रायपुर, भिलाई,
दुर्ग एक बहुत बड़ा आबादी का क्षेत्र आज ही है। वह दिन दूर नहीं जब नया
रायपुर के साथ आबादी इन क्षेत्रों में 50 लाख का भी आंकड़ा पार कर
जाएगी। कितने नगर निगम, नगर पालिका, नगर पंचायत इस क्षेत्र के अंदर होंगे
और तब वृहत रायपुर की कल्पना भी साकार होगी। आज भी इन स्थानो की यात्रा
हजारों लोग प्रतिदिन करते हैं। सरकार ने मेट्रो चलाने की भी घोषणा कर रखी
है। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों इसे सरकार को करना भी पड़ेगा। जिस
तरह से विकास हो रहा है, उससे तो स्पष्ट दिखायी देता है कि आने वाले कल
में पानी की बहत बड़ी मात्रा की जरूरत इस क्षेत्र को पड़ेगी। ऐसा भी समय
आ सकता है कि गंगरेल बांध का पूरा पानी इस क्षेत्र के नागरिकों की
आवश्यकता ही पूरा करने में खर्च हो जाए। नक्सली समस्या की तरह पानी की
समस्या पर भी युद्घ स्तर पर काम करने की जरूरत है। कभी भोपाल ताल
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के लिए काफी था लेकिन अब पानी कम पडऩे लगा।
पिछले वर्ष ही वृहत स्तर पर भोपाल ताल की सफाई और खुदाई का काम किया गया।
मुख्यमंत्री ने ध्यान दिया है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि बिजली की तरह
पानी के मामले में भी छत्तीसगढ़ सरप्लस राज्य ही रहेगा। कोई कमी नहीं आने
दी जाएगी।

-विष्णु सिन्हा
16-05-2010
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शनिवार, 15 मई 2010

चाऊर वाले बाबा पानी वाले बाबा बनकर तो अमर ही हो जाएंगे

पानी की कटौती के बावजूद अब मुंबई के पास मात्र 1 माह के लिए ही पानी शेष
है। मौसम विभाग कह रहा है कि 30 मई तक केरल में मानसून पहुंच जाएगा। 7
जून तक मुंबई में भी मानसून को इस अनुमान के अनुसार पहुंच जाना चाहिए।
विज्ञान की उन्नति के बावजूद मौसम विभाग की भविष्यवाणी हमेशा सच नहीं
निकलती। मुंबई के पास तो समुद्र है। ओर छोर नहीं है, पानी का लेकिन यह
पानी बिना शुद्ध किए नित्य उपयोग में नहीं आ सकता। मुंबई को तो तैयारी
करनी पड़ेगी, भविष्य की। क्योंकि कहा जा रहा है कि मुंबई में आज की तुलना
में आबादी 3 गुणा बढ़ जाएगी। साढ़े तीन करोड़ लोगों की पानी की आवश्यकता
पूरी करने के लिए मुंबई को तैयार होना पड़ेगा। कभी लगता था कि पेट्रोल,
डीजल के बदले यदि पानी से वाहन चलने लगे तो कितना सुविधाजनक होगा लेकिन
पानी की किल्लत जिस तरह से बढ़ रही है, उसे देखकर तो लगता है कि ऐसा समय
भी आ सकता है कि पेट्रोल, डीजल पानी से सस्ता मिलने लगे। जिन देशों में
पेट्रोल डीजल जमीन से निकाला जा रहा है, वहां स्थिति कुछ इस प्रकार की ही
है। क्योंकि समुद्र के पानी को पीने योग्य बनाया जाता है और यह बहुत
महंगा प्रोसेस है।

बहुत पहले जो कहा गया कि पानी के कारण ही तीसरा विश्व युद्ध होगा तो
पृथ्वी में पानी की बदलती स्थिति अब तो इस तरफ इशारा करती है। रायपुर में
ही आज देवेन्द्र नगर कॉलोनी जहां बसी हुई है, वहां कभी फाफाडीह के
किसानों के खेत हुआ करते थे। फाफाडीह के तालाब की ही क्षमता इतनी अधिक थी
कि बरसात में तालाब के पानी से खेतों की सिंचाई भी हो जाती थी। तब पानी
की तंगी किसी को नहीं सताती थी। रायपुर में नगर निगम नहीं था। नगर पालिका
थी और शाम को नगर पालिका के वाहन सड़कों के दोनों ओर पानी छिड़कते थे कि
धूल न उड़े। कभी किसी को लगता नहीं था कि पानी की किल्लत भी एक बड़ी
समस्या बन जाएगी। आज भूमिगत जल नीचे और नीचे गर्मियों के दिनों में जा
रहा है। पुराने बोरिंगों में पानी नहीं रहा है और पानी चाहिए तो बोर की
गहराई बढ़ानी पड़ रही है। उसके लिए भी जिला कलेक्टर से अनुमति लेनी पड़ती
है।

44-45 डिग्री तापमान पहले भी शहर का जाता था, लेकिन इतनी गर्मी नहीं लगती
थी। जितनी आज लग रही है। बिलासपुर रायपुर की तुलना में कम गर्म होता था
और कच्चे मकान ठंडकता देते थे। कांक्रीट के मकान गर्म भी बहुत होते हैं
और ठंड के मौसम में ठंडे भी बहुत होते है। मिट्टी के मकान गर्मी में
ठंडे और ठंड में गर्म हुआ करते थे। अब तो कल्पना से भी परे हैं कि पुराने
मकानों की दीवालें डेढ़ से दो फुट चौड़ी हुआ करती थी। 9 इंच की दीवाल तो
अब 4 इंच की होने लगी और सीमेंट लोहा ताप का सुचालक होने से शहर को
भट्ठियों में तब्दील करने लगा। दिन भर गर्मी सोखता है और ठंडा होने में
समय लेता है। चारों तरफ कारखाने लगने से भी तापमान पर असर पड़ता ही है।
फिर सड़कों पर चलने वाले वाहन और एयरकंडीशनिंग मशीनें सिर्फ गर्मी बढ़ाने
का ही काम करती हैं। 44-45 डिग्री तापमान तो उत्तर भारत का आम हो चुका।
कहीं कहीं तापमान 49 डिग्री तक भी पहुंच गया है। यह गर्मी पानी को भाप
बनाकर भी उड़ा रही है। मतलब साफ है कि जलाभाव को गर्मी और बढ़ा रही है।
बड़ी तेजी से पानी पूरे देश के लिए बड़ी समस्या के रुप में खड़ी है। अटल
बिहारी की सरकार ने देश की नदियों को जोडऩे की योजना बनायी थी। जिससे
नदियों में बरसात में आने वाला पानी समुद्र में न चला जाए और बारह मास
नदियों में पानी रहे। इससे भूमिगत जल स्तर भी बढ़े। यह योजना प्रारंभ
होकर पूरी हो जाती तो देश जल संकट से मुक्त हो सकता था लेकिन संप्रग
सरकार ने इस योजना पर ध्यान देना उचित नहीं समझा। ऐसी कोई योजना नहीं है
जिसमें खूबियां ही खूबियां हों। कुछ खामियां भी होती है। बड़े बांधों का
भी विरोध होता है लेकिन कटु सत्य यही है कि आज देश जल समस्या से निपट सक
रहा है तो उस कारण बड़े बांध भी हैं। दूर क्यों जाएं ? रायपुर को ही आज
पानी नहीं मिलता। लोगों को शहर छोड़कर भागना पड़ता। यदि गंगरेल बांध नहीं
होता। शहर की जल संबंधी आवश्यकता की पूर्ति गंगरेल बांध ही कर रहा है। 10
लाख से अधिक आबादी का रायपुर जो छत्तीसगढ़ की राजधानी है, गंगरेल बांध
में इकट्ठा पानी के सहारे ही जी रहा है।

जिंदा रहना है तो पानी चाहिए। खेत में अन्न उपजाना है तो भी पानी चाहिए।
जल विशेषज्ञ राजेन्द्र सिंह स्पष्ट चेतावनी दे रह हैं कि देर हुई तो हाथ
में कुछ नहीं आएगा। अभी भी अकल्पनीय है कि एक बार बरसात में वर्षा नहीं
हुई तो क्या होगा? नकरात्मक सोच अच्छी बात नहीं है लेकिन सकारात्मक सोच
का यह अर्थ नहीं है कि आने वाली समस्या के प्रति सचेत न रहा जाए। सामान्य
वर्षा होने पर आकाश से इतना पानी गिरता है कि उसे सहेज कर रखा जाए तो एक
दो वर्ष तक वर्षा न हो तो भी काम चलाया जा सकता है। अक्लमंदी तो यही कहती
है कि आपातकाल की तैयारी पहले से कर ली जाए। आज गंगरेल बांध में जितना
पानी बचा हुआ है वह बरसात न हुई तो कितने दिन काम आएगा। सारा आर्थिक
विकास, शिक्षा, उद्योग किस काम के यदि प्रदेश के लोगों को समुचित पानी न
मिले। अब हम सिर्फ भगवान पर ही इस मामले में आश्रित नहीं रह सकते।
क्योंकि जो जल की समस्या है यह प्राकृतिक नहीं है। यह हमारे कारण ही पैदा
हुई है। प्राकृतिक रुप से जितनी व्यवस्था है उस पर आबादी का बढ़ा दबाव
है।

खपत बढ़े और सामान कम हो तो समस्या खड़ी होती ही है। पुरानी जनसंख्या के
अनुसार छत्तीसगढ़ की जनसंख्या 2 करोड़ कुछ लाख थी। अब नई जनगणना हो रही
है। पता चलेगा कि आबादी और कितनी बढ़ गयी है। कभी 50 हजार लोगों का
रायपुर शहर ही आज 10 लाख से अधिक आबादी का हो गया। कितने ही खेत
कॉलोनियों में बदल गए। कितने ही गांवों को शहर ने अपने में समाहित कर
लिया और अभी भी कई गांवों को समाहित करने के रास्ते पर है। जो पानी 50
हजार लोगों के लिए पर्याप्त था, वह 10 लाख से अधिक लोगों के लिए तो कम
पड़ेगा, ही। छत्तीसगढ़ राज्य को बने 10 वर्ष होने जा रहे है लेकिन अभी भी
पानी के लिए गंगरेल बांध ही है। जो वास्तव में रायपुर शहर को पानी पिलाने
के लिए नहीं बल्कि खेतों की सिंचाई के लिए बना था।

जब जागे तब सबेरा। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने पहचान लिया है कि पानी की
किल्लत दूर करने के लिए अभी से प्रयत्न नहीं किए गए तो भविष्य ठीक नहीं
है। उन्होंने एक माह का कार्यक्रम बनाया लेकिन एक माह में क्या होगा?
निरंतर इस संबंध में काम करना होगा। राजेंद्र सिंह को सलाह देने के लिए
आमंत्रित किया। वे भी कह रहे है कि 1 माह नहीं दीर्घ कार्य योजना बनायी
जाए। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने जल समस्या से निपटने का जिम्मा अपने
हाथ में लिया है और पूरे प्रशासन सहित जनप्रतिनिधियों को सक्रिय किया है
तो परिणाम तो निश्चित रुप से अच्छा आना चाहिए। चाऊर वाले बाबा, पानी वाले
बाबा बनकर तो अमर ही हो जाएंगे।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 15.05.2010
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शुक्रवार, 14 मई 2010

नितिन गडकरी ने अभद्र भाषा का प्रयोग कर पार्टी की छवि ही खराब की

नितिन गडकरी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तो बन गए लेकिन अभी उन्हें
बहुत कुछ सीखना बाकी है। सबसे पहले तो भाषा की मर्यादा ही उन्हें समझना
पड़ेगा। जिस तरह से उन्होंने चंडीगढ़ में मुलायम सिंह यादव और लालू
प्रसाद यादव के विषय में कहा कि ये कुत्ते की तरह सोनिया गांधी के तलवे
चाटते है, पूरी तरह से अमर्यादित था। यह बात दूसरी है कि गलती का आभास
होने पर उन्होंने दूसरे ही दिन न केवल खेद प्रगट किया बल्कि अपने शब्द भी
वापस ले लिए। इससे मुलायम सिंह ने उन्हें माफ कर दिया लेकिन लालू प्रसाद
यादव अड़े हुए है कि जब तक नितिन गडकरी कान पकड़ कर उठक बैठक लगाते हुए
माफी नहीं मांगते तब तक वे माफ नहीं करेंगे। कुछ दिन पहले भाजपा के ही
नेता अनंत कुमार ने लालू प्रसाद यादव को लोकसभा में ही गद्दार तक कहा है।
लगता है कि राजनीति में मर्यादा की लक्ष्मण रेखा मिट गयी है।
इसके पहले बिहार में चुनाव के समय खुले मंच से लालू प्रसाद यादव की
धर्मपत्नी राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जद के एक नेता को
साले बहनोई कह कर अभद्रता का व्यवहार किया था। उन पर मानहानि का मुकदमा
दर्ज कराया गया है और राबड़ी देवी के विरुद्ध न्यायालय ने समंस भी जारी
कर दिया है। इसके पहले विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगडिय़ा ने तो सोनिया
गांधी के लिए कुतिया शब्द का भी प्रयोग किया था। छत्तीसगढ़ के ही पूर्व
मुख्यमंत्री अजीत जोगी अपने भाषणों में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को लबरा
मुख्यमंत्री कहते रहे हैं। भावावेश या क्रोध में जनता के सामने अति
उत्साहित होकर जो नेता भद्रता की सभी सीमाओं को लांघ जाते हैं, यह स्वस्थ
प्रजातंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है लेकिन यह हो रहा है। सबको दिखायी दे
रहा है। सोनिया गांधी ने ही गुजरात के चुनाव के समय नरेंद्र मोदी को मौत
का सौदागर कहा। यह वक्तव्य भी भद्रता की सीमा को लांघने वाला हैं।
लेकिन ऐसे वक्तव्यों से जनता को प्रभावित किया जा सकता है, यह सोच
निरर्थक है। चंद लोगों को भले ही यह ठीक लगे, उत्साहवर्धक लगे लेकिन आम
आदमी अपने नेताओं से मर्यादा की ही उम्मीद करते है। कुछ वर्ष पूर्व बसपा
भी नारा लगाती थी कि तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूता चार। महात्मा
गांधी की भी आलोचना अच्छे शब्दों में नहीं की जाती थी लेकिन देर अबेर
उहें समझ में आ गया कि तिलक, तराजू और तलवार को जूते मारने से सत्ता
नहीं मिलने वाली है तो उन्होंने सर्व समाज के हित की बात कहनी प्रारंभ की
और बसपा में सभी को प्रतिनिधित्व दिया। उन्हें परिणाम भी मिला और आज
उत्तरप्रदेश में उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार है। हमारा देश ऐसा है कि यहां
सबको जो पार्टी साथ लेकर चलेगी, वही सत्ता पर काबिज हो सकी है। वर्गभेद,
जातिभेद, संप्रदाय भेद की राजनीति करने वालों के हाथ असफलता ही लगती है।
नितिन गडकरी को सीखना होगा कि जोश में होश न खो दें। जबान से निकली बात
परायी हो जाती है और व्यक्ति की मानसिकता को उजागर कर जाती है। आम आदमी
अपनी निजी जिंदगी में किसी भी तरह की भाषा का उपयोग करें लेकिन वह अपने
नेताओं से भद्र, मर्यादित भाषा और व्यवहार ही चाहता है। पूर्व
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भाषा देखें। आलोचना करने में वे कभी
पीछे नहीं रहे लेकिन अमर्यादित, असंसदीय शब्दों का उपयोग उन्होंने कभी
नहीं किया। लालकृष्ण आडवाणी को ही नितिन गडकरी देखें। उन्होंने आलोचना की
और स्वयं आलोचना का शिकार हुए लेकिन फिर भी भाषा की मर्यादा का पालन
किया। वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही देखें। पूरी तरह से
मर्यादित भाषा का उपयोग करते हैं और अपने बड़प्पन का सबूत देते हैं। बात
आपकी तथ्यपूर्ण हो तो अभिव्यक्त करने के लिए अमर्यादित भाषा की आवश्यकता
नहीं पड़ती। तथ्य और सत्य स्वयं इतने प्रभावशील होते हैं कि भाषा कमजोर
हो तब भी व्यक्त हो जाते हैं।

कितने ही नेता इस देश में बड़े-बड़े पदों पर बैठे। वे अच्छे वक्ता भी
नहीं माने जाते। फिर भी उनके कृत्यों ने उन्हें सम्मान का हकदार बनाया।
बातों की लफ्फाजी ही सब कुछ नहीं होती। यदि बातों की लफ्फाजी लोगों को
प्रभावित करती तो डॉ. रमन सिंह की सरकार कब का जनादेश खो देती। क्योंकि
उनके विरोधियों ने चुनाव में डॉ. रमन सिंह के विरुद्ध कम लफ्फाजी नहीं की
लेकिन असलियत के जानकार लोग लफ्फाजी से प्रभावित नहीं हुए। डॉ. रमन सिंह
अपने भाषणों में, वक्तव्यों में मर्यादित भाषा का उपयोग करते है। वे बात
से ज्यादा काम पर विश्वास करते हैं। समस्या प्रदेश में कैसी भी हो, वे
समस्या को समाप्त करने के लिए कृत संकल्पित रहते है और परिणाम आता है।
अक्सर तो वे विपक्ष की आलोचना का जवाब शब्दों में न देकर काम से देते है।
नितिन गडकरी को उनसे ही सीखना चाहिए। मेरी जेब में 10 रुपए का नोट न हो
तब भी मैं 5 हजार करोड़ की कंपनी खड़ा कर सकता हूं जैसे वक्तव्य सिर्फ
अहंकार का ही द्योतक हैं। कितनी कंपनी सफलतापूर्वक चलायी, इससे
राष्ट्रीय पार्टी को भी अच्छी तरह से संचालित कर लेंगे, यह जरुरी नहीं
हैं।

इस देश में अरबों खरबों की कंपनी चलाने वाले लोग हैं। कंपनियों की तरह
राजनैतिक पार्टियां चलती तो आज किसी न किसी कंपनी का देश में शासन होता।
बिरला तो लोकसभा का चुनाव नहीं जीत पाए थे। कुछ कंपनी चलाने वाले
राज्यसभा में अवश्य पहुंच जाते हैं लेकिन कैसे और क्यों पहुंचते हैं, यह
सबको पता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कारण नितिन गडकरी भाजपा के
अध्यक्ष बने। हालांकि यह बात वे स्वीकार नहीं करते। जब मोहन
भागवत ने कहा था कि दिल्ली के चार बड़े नेताओं में से कोई भी पार्टी
अध्यक्ष नहीं बनेगा तब इतने बड़े देश में फैले लाखों भाजपा कार्यकर्ताओं
के बीच से नितिन गडकरी का चयन किस प्रक्रिया से हुआ? न समझ में आने वाली
प्रक्रिया के बावजूद नागपुर के एक कार्यकर्ता का चयन तो स्पष्ट कर ही
देता है कि संघ के कारण हुआ। यदि चुनाव होता तो पार्टी में लडऩे वालों की
कमी नहीं थी। लडऩे वालों को चुप कराने की ताकत सिर्फ संघ के पास हैं और
उसने अपनी शक्ति का उपयोग किया।

इसका सीधा अर्थ है कि धूल से उठा कर पार्टी को सत्ता सिंहासन तक पहुंचाने
की जिसे जिम्मेदारी सौंपी गयी है, उसकी असफलता पार्टी को धूल से उठने
नहीं देगी। पहले महंगाई के विरुद्ध दिल्ली में प्रदर्शन के दौरान बेहोश
होकर गिर जाना, शारीरिक अक्षमता का पता दे गया। अब लालू-मुलायम को कुत्ता
कहना मानसिक कमजोरी का भी परिचय दे गया। पार्टी को उत्साह से भरने के
बदले अपनी बात पर माफी मांगते अध्यक्ष से क्या उम्मीद करना चाहिए? क्या
गडकरी समझते हैं कि इस तरह की भाषा का प्रयोग कर वे पार्टी में नई
प्राणवायु फूंक सकेंगे। जब लालू कहते हैं कि गडकरी कान पकड़ कर उठक बैठक
कर माफी मांगें तब कैसा संदेश सबको मिलता है? अभी चुनाव में समय है लेकिन
ऐसी ही गलती गडकरी करते रहे तो संघ और पार्टी को उनसे जो आशा है, वह तो
पूरी नहीं हो सकेगी।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 14.05.2010
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गुरुवार, 13 मई 2010

पानी के संबंध में जन जागरुकता पैदा करने की सबसे ज्यादा जरुरत

2 रुपए किलो चांवल देने के बाद अब सरकार को समझ में आ गया है कि प्रदेश
में भोजन ही नहीं, पानी की भी समस्या बड़ी है। समय रहते इसका निराकरण
नहीं किया गया तो हालात नियंत्रण के बाहर भी हो सकते हैं। पानी ऐसी चीज
है जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसीलिए चंद्रमा, मंगल
में जो अंतरिक्ष यान भेजे जाते है वे भी वहां पानी की ही तलाश करते हैं।
अनाज तो बाहर से भी लाकर पेट की आग बुझायी जा सकती है लेकिन प्यास पानी
की बुझानी हो तो अपना इंतजाम स्वयं करना होगा। पानी के लिए हमारे पास दो
ही स्त्रोत हैं। एक वर्षा का पानी और दूसरा भूमिगत पानी। बोरिंग की हालत
यह होती जा रही है कि 300 फुट तक के बोरिंग गर्मी के मौसम में पानी नहीं
दे रहे हैं। मतलब साफ है कि पानी का दोहन जितना हो रहा है, उतना पानी
जमीन के भीतर जा नहीं रहा है और जाने का साधन एकमात्र वर्षा का पानी है।
शहरों में तो तालाबों को पाटकर अट्टालिकाएं बना ली गई। ड्रेन टू ड्रेन
सड़कें सफाई के नाम पर बना ली गई। वर्षा का पानी जमीन के भीतर जाए तो
कैसे? शहर के मध्य में स्थित रजबंधा तालाब का ही आज नामोनिशान नहीं है।
वहां उन समाचार पत्रों के ही भवन खड़े है जो पानी की चिंता सबसे ज्यादा
करते दिखायी पड़ते हैं। आज रायपुर में तालाबों की जमीन इतनी कीमती हो
गयी कि अच्छे अच्छों की नीयत डोल गयी है। अब वापस तो नहीं जाया जा सकता
लेकिन अभी भी जो तालाब बचे हैं, उन्हें भी सरकार सख्त कानून बनाकर बचा ले
तो बड़ी बात है। रायपुर के तालाबों के कारण रायपुर में कभी पानी की
समस्या नहीं रही लेकिन अब यह सब गुजरे जमाने की बात हो गयी। मुख्यमंत्री
डॉ. रमन सिंह ने तुरत फुरत मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाकर पानी के लिए
जो कार्ययोजना बनायी हैं, उसके लिए वे तारीफ के पात्र तो निश्चित रुप से
हैं।

लेकिन इस समय श्यामाचारण शुक्ल की भी याद करना चाहिए। राजधानी रायपुर को
आज पानी की जो कमी नहीं है, उसका कारण श्यामाचरण शुक्ल की दूरदृष्टि ही
थी। जिन्होंने गंगरेल बांध का निर्माण करवाया। शहर में पानी के वितरण में
भले ही शिकायतें हों लेकिन पानी की कमी नहीं है। रायपुर और भिलाई को पानी
की सप्लायी करने वाला गंगरेल बांध नहीं होता तो पानी की क्या स्थिति खड़ी
होती, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। श्यामाचरण शुक्ल भले ही 3 बार
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने लेकिन कुल कार्यकाल देखा जाए तो वह एक
पूरे कार्यकाल के बराबर भी नहीं है। फिर भी श्यामाचरण शुक्ल की छत्तीसगढ़
के लिए चिंता उनके सिंचाई उपक्रमों से देखी जा सकती है। आज लाखों लोग इन
बांधों के कारण न केवल अपनी पानी की आïवश्यकता पूरी कर रहे हैं बल्कि
हजारों एकड़ कृषि भूमि की भी प्यास ये बांध बुझा रहे हैं। केंद्र सरकार
उनके नाम पर माना हवाई अड्डï का नाम रखने के लिए तैयार है तो राज्य
सरकार को भी बड़ा दिल रखते हुए इसकी सिफारिश करना चाहिए।
वर्षा के जल पर ही छत्तीसगढ़ के निवासियों का जीवन निर्भर करता है। हमारी
नदियां भी बारह मास पानी नहीं देती। इसलिए वर्षा के पानी को संग्रहित
करने के लिए व्यापक योजना बनाना चाहिए। जब कबीरधाम के 110 गांवों में
पानी की सप्लायी के लिए टैंकरों की जरुरत पड़ें तो इसी से समझ में आ जाता
है कि स्थिति गंभीर हैं। नित्य उपयोग के लिए तालाबों को बांध के पानी से
भरना पड़े तो इससे भी पानी की समस्या की गंभीरता समझ में आती है। मनुष्य
के द्वारा निर्मित कारखानों को भी पानी की जरुरत हैं। पानी नहीं होगा तो
यह सब ठप्प पड़ जाएंगे। पशु, पक्षी, वृक्ष, वनस्पति सबके जीवन के लिए
पानी चाहिए। हमारे पास तो कोई समुद्र का किनारा भी नहीं, जिसका ही पानी
उपयोग के लिए निर्मित किया जा सके। सीधा और साफ मतलब हैं कि वर्षा का
पानी यदि हम समुद्र में जाने से रोक सकें तभी हमारा निस्तार हो सकता है।
हमारे यहां तो 40-45 इंच पानी गिरता है। इजरायल में तो 9-10 इंच ही
बामुश्किल पानी गिरता है। फिर भी उन्होंने ऐसे इंतजाम कर रखे है कि उनके
यहां पानी की कोई समस्या नहीं है। हमें जमीन के ऊपर और जमीन के अंदर
दोनों जगह वर्षा का पानी इकट्ठा करना पड़ेगा। शहरों में अक्सर कहा जाता है
कि नए मकान वाटर हार्वेस्टिंग के बिना नहीं बनाए जा सकते लेकिन यथार्थ
में ऐसा हो भी रहा है, क्या? नए मकान ही क्यों पुराने मकानों में भी यह
व्यवस्था कड़ाई से लागू की जानी चाहिए। यह इसलिए भी जरुरी है, क्योंकि
यदि किसी वर्ष वर्षा का पानी पर्याप्त मात्रा में आकाश से नहीं गिरा तब
क्या होगा? उस स्थिति के लिए भी तैयार तो अभी से रहना चाहिए। सबसे अच्छा
तरीका तो भू-गर्भ में जल संरक्षण ही हैं। इसलिए शहरों में ही नहीं गांवों
में भी वाटर हार्वेस्टिंग का प्रयोग अनिवार्य रुप से किया जाना चाहिए।
जब से बोरिंग का चलन बढ़ा है तब से कुआं का चलन कम से कम होता गया है।
नहीं तो पहले शहर में भी करीब-करीब हर घर में कुआं होता था। यह भी वाटर
रिचार्ज के काम बरसात में आता था। धीरे-धीरे बोरिंग घर-घर में होने लगे
तो गर्मी में कुएं सूखने लगे। तालाब या तो पटने लगे या उनका क्षेत्रफल
सिकुडऩे लगा। सरोवर हमारी धरोहर योजना भी सरकार ने चलायी थी लेकिन उसका
क्या हाल हुआ, यह सबके सामने हैं। बुढ़ा तालाब ही सिकुड़ता सिकुड़ता आधा
रह गया है। जनसंख्या का दबाव भी राजधानी रायपुर पर इतना बढ़ा है कि इंच
इंच जमीन कीमती हो गयी और तालाबों में बस्तियां बस गयी। आखिर बरसात में
जो इलाके बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं, वे भी तो पुराने तालाब है।
राजनीति में वोट की आवश्यकता ने अव्यवस्था को जन्म दिया तो जो स्थिति
निर्मित हुई है, वही तो होनी थी।

देर से सही लेकिन सरकार सचेत हुई तो कुछ न कुछ परिणाम तो निकलेगा।
खूंटाघाट पर मुख्यमंत्री श्रमदान कर गहरीकरण का शुभारंभ कर रहे हैं और एक
माह तक पूरे प्रदेश में श्रमदान से योजना को चलाना चाहते हैं तो
मुख्यमंत्री की पानी को लेकर चिंता समझ में आने वाली बात हैं। जनजागरण
जरुरी है और जनता को स्पष्ट रुप से बताना जरुरी है कि जनता ने पानी की
समस्या हल करने में पूरा सहयोग नहीं दिया तो फिर उसे कष्ट कर दिनों के
लिए तैयार रहना चाहिए। क्योंकि इस समस्या का हल जब तक सरकार, नौकरशाही और
जनता एकजुट होकर नहीं करती तब तक हल करना आसान नहीं है। सब कुछ सरकार पर
छोड़ देना और पानी का अपव्यय जारी रखने से समस्या हल नहीं होगी। जब जल
पर्याप्त मात्रा में भी उपलब्ध हो तब भी बूंद-बूंद पानी की कीमत को समझना
पड़ेगा। स्वयं सेवी संगठनों का, राजनैतिक दलों का, स्कूल, कॉलेजों का भी
सभी का दायित्व है कि जल की महिमा के साथ महत्ता को भी समझें और लोगों को
समझाएं। अभी जनगणना का काम चल रहा है। जनगणना के लिए शासकीय कर्मचारी
घर-घर जा रहे हैं। ऐसे में इस समय जनसंपर्क का उपयोग जल से संबंधित
वास्तविक स्थिति और लोगों को क्या करना चाहिए, यह भी समझाने का दायित्व
उन्हें सौंपा जा सकता है। प्रदेश में जागरुकता ऐसी होनी चाहिए कि न तो
पानी का दुरुपयोग करेंगे और न ही अपनी जानकारी में किसी को करने देंगे।
सभी एकजुट होंगे तो समस्या का हल निश्चित रुप से होगा और उस समय की भी
तैयारी होगी जब कभी आकाश से जल नहीं गिरा तो भी तकलीफ नहीं होगी।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 13.05.2010
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गृहमंत्री चिदंबरम जैसे योग्य मंत्री के हाथ में देश की आंतरिक सुरक्षा और पुख्ता ही होगी

पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश का चीन में गृह मंत्रालय की आलोचना उनके लिए
भारी साबित हो रही है। प्रधानमंत्री ने तो जयराम रमेश को फटकार लगायी ही,
सोनिया गांधी भी उनके जवाब से संतुष्ट नहीं हैं। फिर उनकी राज्यसभा की
सदस्यता का कार्यकाल भी समाप्त हो रहा है और आंध्रप्रदेश के कांग्रेसी
उन्हें राज्यसभा में भेजने का इरादा नहीं रखते। पर्यावरण मंत्री की
हैसियत से वे भले ही अपनी बुद्धि से सही काम कर रहे हों लेकिन पर्यावरण
की आड़ में जिस तरह से सड़कों, खदानों को मंजूरी नहीं दी जा रही है, उससे
इन विभागों के मंत्रियों सहित राज्य सरकार भी जयराम रमेश से नाराज है।
सड़क और बिजली दोनों आज राष्ट्र की सबसे बड़ी जरुरत है लेकिन इनकी
योजनाओं पर जयराम रमेश का रुख अड़ंगा ही डाल रहा है। चीन में दिए वक्तव्य
से उन्होंने गृह मंत्रालय को ही नहीं अपनी सरकार को ही कठघरे में खड़ा कर
दिया। पार्टी के अंदर और बाहर दोनों तरफ से उन्हें मंत्री पद से हटाने की
मांग की जा रही है।

पी. चिदंबरम के नेतृत्व में पहली बार गृह मंत्रालय न केवल ठीक ठाक काम कर
रहा है बल्कि शक्तिशाली भी दिखायी दे रहा है। देश की आंतरिक सुरक्षा और
आतंकवाद से निपटने के लिए चिदंबरम ने जिस तरह से गृह मंत्रालय को सक्रिय
किया है, उससे उनकी छवि तो बनी ही, साथ ही केंद्र सरकार की छवि में भी
इजाफा हुआ। चिदंबरम समस्या को समस्या की तरह देखते है और उसका हल निकालने
की कोशिश करते हैं। सदा से उपेक्षित रही नक्सली समस्या के प्रति भी
उन्होंने पर्याप्त ध्यान दिया है। सीमा पार से आने वाला आतकंवाद थमा तो
नहीं है लेकिन जिस तरह से मनमानी होती थी, उस पर विराम तो लगा है।
आतंकवादी कार्यवाही अब पहले की तरह आसान नहीं है, यह बात सीमा पार
आतंकवादियो को भी समझ में तो आ गयी है।

मुंबई हमले के बाद नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी का गठन किया गया और अब
नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड के गठन को मंजूरी मिल गयी है। अब जितनी भी खुफिया
जानकारी रखने वाले संगठन सरकार के पास हैं, सभी की जानकारी ग्रिड के पास
होगी। राष्ट्रीय जनगणना रजिस्टर भी बड़ा काम है। इसके पूर्ण हो जाने के
बाद गृह मंत्रालय के पास हर व्यक्ति के विषय में पूरी जानकारी होगी। तब
किसी भी विकसित देश से कम शक्तिशाली हमारा गृह मंत्रालय नहीं होगा। आज के
युग में सूचना सबसे बड़ी ताकत है और संपूर्ण सूचना जब सरकार के पास होगी
तब अपराधियों, आतंकवादियों का सरकार की पकड़ से बाहर होना सिर्फ वक्त की
बात रह जाएगी। नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड के प्रस्ताव का केंद्रीय
मंत्रिमंडल में विरोध भी हुआ। क्योंकि सबको समझ में आ गया कि ग्रिड के
गठन के बाद गृह मंत्रालय से कुछ भी छुपा नहीं रहेगा। सरकार चाहेगी तो
अपने मंत्रियों के क्रियाकलापों की भी पूरी जानकारी रख सकेगी। हालांकि
इसे व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन भी माना जा सकता है लेकिन आज जैसी
परिस्थिति देश में है, उस कारण इसी की सबसे ज्यादा जरुरत है।
क्योंकि आज देश को बाहरी ताकतों से कम और अंदरुनी से खतरा बढ़ गया है।
स्वयं पी. चिदंबरम ने माना है कि हिंदू आंतकवादी भी देश की एकता और
सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं। पाकिस्तान से आने वाला आतंकवाद
तो गिने चुने लोगों को ही अपने प्रभाव में ले सका लेकिन देश में हिंदू
आतंकवाद ने अपने पैर पसारे तो उनसे निपटना आसान नहीं होगा। नक्सली समस्या
पहले से ही देश के बड़े हिस्से में व्याप्त है। पाकिस्तान से आतंकवाद
आयात होता है लेकिन हिंदू आतंकवाद की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी
लेकिन छुटपुट ही सही उसके प्रमाण तो मिल रहे है। एक बार सुरक्षा को संकट
में डालने वालों को समझ में आ जाए कि वे पुलिस की नजर से बच नहीं सकेंगे
तो बहुतेरे हैं जो इस रास्ते पर चलने की हिम्मत ही नहीं करेंगे। पुलिस
तभी सक्षम कार्यवाही कर सकती है जब खुफिया जानकारी उसे मिलती रहे। यही
सबसे बड़ा काम है और केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम का जोर भी इसी काम
पर है।

इसीलिए पी. चिदंबरम की बढ़ती ताकत कुछ लोगों को रास नहीं आ रही है। भाजपा
तो उनका समर्थन कर रही है लेकिन कांग्रेस के लोग ही उनकी आलोचना कर रहे
हैं। सबसे पहले दिग्विजय सिंह ने चिदंबरम को निशाना बनाया। जब चिदंबरम
ने कहा कि पहले ही इस समस्या पर 10-12 वर्ष पूर्व ही ध्यान दिया गया होता
तो नक्सली इतने बड़े भू-भाग में नहीं फैलते। यह एक तरह से दिग्विजय सिंह
को लगा कि उनकी आलोचना हो रही है। क्योंकि उनके शासनकाल में ही छत्तीसगढ़
में नक्सली फले फूले। चिदंबरम से चलते-चलते बात डॉ. रमन सिंह तक आयी।
दोनों तरफ से ताल ठोंके गए लेकिन फिर मामला शांत हो गया। यहां तक कि गिला
शिकवा दूर करने के लिए दिग्विजय सिंह पी. चिदंबरम से भेंट करने भी पहुंच
गए। जयराम रमेश को फटकार प्रधानमंत्री से ऐसी मिली कि अब वे चीन के विषय
में प्रेस से बात करने को भी तैयार नहीं। स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि
चिदंबरम की बढ़ती ताकत से भले ही कुछ लोग परेशान हों लेकिन मनमोहन सिंह
और सोनिया गांधी उनके कार्य से संतुष्ट हैं।

राज्य पुलिस के जवानों को भी विशेष ट्र्रेनिंग देने में गृह मंत्रालय
रुचि ले रहा है। प्रशिक्षण के अभाव में 16 लाख पुलिस कर्मी कुछ हजार
नक्सलियों से मुकाबला नहीं कर सकते। गृह मंत्रालय ने राज्य सरकार से विशष
ट्रेनिंग स्कूल खोलने के लिए कहा है और कुल पुलिस जवानों में से साढ़े आठ
प्रतिशत के लिए विशेष प्रशिक्षण अनिवार्य किया गया है। पुलिस प्रशिक्षण
स्कूल खोलने के लिए गृह मंत्रालय हर तरह से सहयोग कर रहा है। राज्य
सरकारें भी इस मामले में पर्याप्त रुचि लें तो प्रशिक्षण शीघ्र हो सकता
है। नव नियुक्त पुलिस जवानों के लिए तो ऐसे प्रशिक्षण अनिवार्य ही होना
चाहिए। आज पुलिस के जवानों की स्थिति ऐसी है कि वे तेजी से दौडऩा तो दूर
की बात है, कितने हैं जो चल नहीं पाते। क्योंकि नियमित रुप से जो शारीरिक
कवायदें होनी चाहिए, वह भी नहीं होती।

जैसे तेज तर्रार पुलिस जवान होने चाहिए, वैसे तो अब कम से कम शहरों में
कम ही दिखायी देते हैं। नहीं तो 16 लाख पुलिस जवानों के सामने मुट्ठी भर
नक्सली ठहरते ही नहीं। इसके विपरीत नक्सली पूरी तरह से जंगलवार,
गोरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षित है। स्वाभाविक है कि सामान्य पुलिस उनका
मुकाबला नहीं कर सकती। यह बात तो स्पष्ट दिखायी दे रही है कि चिदंबरम
पूरी पुलिस फोर्स को चुस्त-दुरुस्त करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे
लेकिन अब यह राज्य सरकार के अधिकारियों पर ही निर्भर करता है कि वे अपनी
फोर्स को चुस्त-दुरुस्त बनाना चाहते हैं या नहीं। क्योंकि पुलिस के जवान
चुस्त-दुरुस्त होंगे, अधिकारी फुर्तीले होंगे तब ही न अपराधियों और
आतंकवादियों को पकड़ सकेंगे। स्वतंत्र भारत में इस तरह की कोशिश कोई गृह
मंत्री पहली बार कर रहा है। इसके लिए उसे साधुवाद तो दिया ही जा सकता है।
नक्सलियों के विरुद्ध गृह मंत्रालय पहली बार मीडिया में प्रदर्शन
विज्ञापन देकर लोगों को जागृत करने का भी प्रयत्न कर रहा है। यह भी
गृहमंत्री की सोच का ही परिणाम है। चिदंबरम को पर्याप्त समय गृह मंत्री
बने रहने का मिला तो वे जड़ से खोदकर समस्या को समाप्त करने में विश्वास
तो रखते ही हैं, साथ ही साथ ऐसी व्यवस्था तैयार करना चाहते है कि भविष्य
में भारतीय पुलिस की एक शानदार छवि बने।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 12.05.2010
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मंगलवार, 11 मई 2010

राम सेवक पैकरा के हाथ में संगठन की बागडोर अंतत: आ ही गई

राम सेवक पैकरा छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष बन गए। दूर-दूर तक
जिनका नाम कोई नहीं ले रहा था, उसे प्रदेशाध्यक्ष बनने का अवसर मिल गया
लेकिन जो प्रदेशाध्यक्ष बनने के लिए लालायित थे, वे देखते ही रह गए।
पार्टी ने जिसे 4 बार विधानसभा का टिकट दिया और वह सिर्फ एक बार चुनाव
जीत सका, वह तो प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान हो गया लेकिन जो
अपने को सबसे वरिष्ठ नेता समझते थे, उनको तव्वजो देना पार्टी ने जरुरी
नहीं समझा। लोकसभा में पार्टी के मुख्य सचेतक रमेश बैस पार्टी अध्यक्ष
बनना चाहते थे और अपना नाम स्वयं पार्टी की बैठक में प्रस्तावित किया था,
उनकी न सुनना ही समझने के लिए पर्याप्त है कि पार्टी में अहंकार की कितनी
पूछ परख है। आदिवासियों से पिछड़े वर्ग की संख्या अधिक के आधार पर पार्टी
अध्यक्ष पद पर दावा मान्य नहीं हुआ। क्योंकि पार्टी को अच्छी तरह से पता
था कि रमेश बैस को प्रदेश अध्यक्ष बनाने से पार्टी अपना जनाधार खोने के
सिवाय और कुछ प्राप्त नहीं कर सकेगी।

जब डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में सरकार अच्छा काम कर रही है तब उन्हें
डिस्टर्ब करने के विषय में पार्टी आलाकमान सोच भी नहीं सकते। आलाकमान तो
स्वयं चाहता था कि पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष ऐसा व्यक्ति बने जो संगठन और
सत्ता में पूरी तरह से तालमेल रखकर पार्टी और सरकार की छवि को और निखार
सके। राम सेवक पैकरा ने प्रदेशाध्यक्ष बनते ही स्पष्ट भी कर दिया है कि
वे सरकार के साथ मिलकर चलेंगे और 2013 विधानसभा चुनाव में पार्टी को पुन:
जनादेश मिले, इसके लिए संगठन को तैयार करेंगे। पैकरा स्पष्ट इशारा कर
रहे है कि वे पार्टी के असंतुष्ट का हथियार हरगिज नहीं बनेंगे। वे
पिछले कार्यकाल में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के साथ काम कर चुके हैं और
संसदीय सचिव भी रह चुके है। वे जमीन से जुड़े नेता है। जिस तरह से डॉ.
रमन सिंह ने अपना राजनैतिक जीवन पार्षद के रुप में प्रारंभ किया और
मुख्यमंत्री की गद्दी तक पहुंचे, उसी तरह से राम सेवक पैकरा ने भी अपनी
राजनैतिक यात्रा ग्राम पंचायत के पंच से प्रारंभ किया और आज
प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचे।

राम सेवक पैकरा को प्रदेशाध्यक्ष बना कर आलाकमान ने अति महत्वाकांक्षी,
पदाकांक्षी लोगों को जोर का झटका दिया है। राम सेवक पैकरा के चयन का
समर्थन करने के सिवाय अब उनके पास कोई चारा नहीं है। रमेश बैस को ही
देखिए। बढ़-चढ़ कर पैकरा का स्वागत कर रहे हैं। अब वे सफाई दे रहे हैं
कि पिछड़े वर्ग की संख्या अधिक होने का जो अर्थ लगाया गया, वह उनका अर्थ
नहीं था। प्रदेश में आज भाजपा की सरकार है तो उसका सबसे बड़ा कारण
डॉ. रमन सिंह के प्रति आदिवासियों का समर्थन है। बस्तर की आदिवासी सीटों
ने एक तरफा समर्थन डॉ. रमन सिंह को नहीं दिया होता तो आज सरकार के पास
बहुमत ही नहीं होता। क्योंकि बस्तर छोड़कर कांग्रेस और भाजपा की सीटों
में ज्यादा अंतर नहीं है। इसी अनुपात में कांग्रेस को बस्तर में समर्थन
मिलता तो एक दो विधायक के भी इधर उधर होने से सरकार बहुमत खो देती। अभी
त्रिपाठी जी के निधन से ही बहुमत का गणित डगमगा जाता। विधानसभा अध्यक्ष
एक विधायक के बन जाने से भी बहुमत का अंकगणित बदल सकता था।
वैशाली नगर सीट हार जाने से तो सरकार ही गिर जाती। पिछड़े वर्ग की संख्या
सबसे ज्यादा होने की बात ठीक भी हो तो भाजपा ने पिछड़े वर्ग को ही वैशाली
नगर से टिकट दिया था लेकिन वह प्रत्याशी भजनसिंह निरंकारी से हार गया।
किसी भी दृष्टि से देखें तो प्रदेश में भाजपा की सरकार आदिवासियों के
समर्थन के कारण है। इसलिए पार्टी किसी आदिवासी को पार्टी का अध्यक्ष
बनाने के विषय में निश्चय करती है तो यही सोच राजनैतिक है। पार्टी अपनी
सोच विचार नीति सिद्धांत के लिए राजनीति में है। न कि किसी की राजनैतिक
महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए। जो लोग स्वयं की महत्वाकांक्षा की
पूर्ति का साधन पार्टी को समझते हैं और समय आने पर अधिकार मिले तो
ईमानदारी से निर्णय करने के बदले अपने हित में निर्णय करते हैं, उन पर
पार्टी कैसे विश्वास कर सकती है? जो स्वयं पार्टी का पद चाहें तो पार्टी
उनके मनोभावों को अच्छी तरह से समझती हैं.

जब पार्टी तमाम बड़े नेताओं की महत्वाकांक्षा पर लगाम लगाने के लिए नितिन
गडकरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना सकती है और उन पर विश्वास कर सकती है
तो इसी से समझ में आ जाना चाहिए कि पार्टी में किसी को कुछ मांगने की
जरुरत नहीं है। बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख। जब कोई व्यक्ति
कुछ मांगता है तो पार्टी चौकन्नी हो जाती है। धैर्य की परीक्षा लेने में
भी पार्टी पीछे नहीं है। छत्तीसगढ़ में ही निगम मंडलों में नियुक्ति होना
है लेकिन नहीं हो रही है। कभी इस चुनाव की आड़ में तो कभी उस चुनाव की
आड़ में नियुक्ति टाली जा रही हैं। बहुतेरे हैं जो आकांक्षा लगाए हुए हैं
कि उनकी नियुक्ति सरकारी पद पर हो लेकिन नहीं होती। इस समय धैर्य की
जरुरत है लेकिन कुछ लोग धैर्य नहीं रख पाते और अनाप शनाप अभिव्यक्ति करने
लगते हैं। घूम फिर कर बात ऊपर तक पहुंच ही जाती है। इसीलिए तो चर्चा का
बाजार गर्म है कि फलां फलां को पद नहीं मिलेगा और पद राम सेवक पैकरा जैसे
धैर्यवान, निष्ठïवान व्यक्ति को ही दिया जाएगा। क्योंकि अंदर खाते आरोप
भी कम नहीं है कि किसने पद का दुरुपयोग कर क्या उपार्जित किया?
प्रदेशाध्यक्ष के लिए जिन लोगों का नाम सर्वप्रथम लिया जा रहा था, उन्हें
प्रदेशाध्यक्ष न बनाने के पीछे भी तो कारण है। यह बात दूसरी है कि पार्टी
उन कारणों को उजागर न करे। अब जब राम सेवक पैकरा आ गए हैं तो प्रदेश स्तर
पर नई टीम बनेगी। अधिकांश लोग संगठन के बदले सत्ता में जाना चाहते हैं
लेकिन जब उन्हें संगठन में एडजस्ट किया जाएगा तो इंकार कौन कर सकेगा? फिर
जो इंकार करेगा, उसके लिए सत्ता में पद नहीं होगा। मुख्यमंत्री और
प्रदेशाध्यक्ष संगठन मंत्री के साथ मिलकर तय करेंगे कि किसे कहां बिठाया
जाए। 10 सांसदों और कोरबा से भाजपा की प्रत्याशी रही करुणा शुक्ला को
राष्ट्रीय परिषद के लिए तो चुन ही लिया गया है। अब प्रदेश पदाधिकारियों
का प्रदेशाध्यक्ष के द्वारा राष्ट्रीय अध्यक्ष की सहमति से मनोनयन ही
होना है। तब तक तो सरकारी पद प्राप्त करने वालों को इंतजार करना ही
पड़ेगा।

एकमात्र वरिष्ठ विधायक दीवान को ही निगम मंडल में जगह देने की बात है।
वे इंतजार भी कर रहे है लेकिन नियुक्ति है कि हो नहीं रही है। चूंकि किसी
ब्राह्मण की मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली, इसलिए उन्हें निगम में
एडजस्ट किया जाएगा लेकिन यह अवसर अन्य विधायकों को नहीं मिलेगा।
मंत्रिमंडल में भी एक जगह खाली है। विधानसभा उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त
है। सभी निगम मंडल मंत्रियों के पास है और नौकरशाह शासन कर रहे हैं।
मंत्री भी यह बात जानते हैं कि नियुक्ति के बाद निगम मंडल उनके हाथ से
निकल जाएंगे। करीब-करीब डेढ़ वर्ष हो गए। विधानसभा के चुनाव को हुए और
सरकार को बने लेकिन नियुक्तियां है कि हो नहीं रही है। देखें कब तक यह
होता है या नहीं भी होता है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 11.05.2010
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सोमवार, 10 मई 2010

ननकी राम कंवर नक्सलियों से लडऩे के लिए फौज को लगाने की बात करते हैं तो गलत क्या कहते हैं?

नक्सलियों से मुकाबला कौन करेगा, यह तय करने का अधिकार सरकार के पास है।
सरकार सुरक्षा बलों को नक्सली समस्या से निपटने के लिए सक्षम समझती है या
फौज को, यह भी सोचने और निर्णय करने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है।
पुलिस के आला अफसर का यह काम नहीं है। पुलिस को तो सरकारी नीति के
अनुसार अपनी रणनीति बना कर काम करने का अधिकार है और उसे यही काम करना
चाहिए। मीडिया से भी उसे उतनी ही बात करना चाहिए जितना जरुरी हो। यदि
गृहमंत्री ननकीराम कंवर कहते हैं कि फौज को जिम्मेदारी सौंप दी जानी
चाहिए तो इस पर निर्णय करने का अधिकार मुख्यमंत्री का है। न कि डीजीपी
का। गृहमंत्री के विचारों के विरुद्ध यदि डीजीपी ही विचार व्यक्त करेंगे
तो इससे जनता में कोई अच्छा संदेश नहीं जाता। नक्सलियों को तो स्पष्ट
संदेश मिलता है कि इनके आपसी विचार एक नहीं है। मतलब जब विचारों में ही
विभिन्नता हैतो फिर एकमत होकर किस तरह से मुकाबला करेंगे। अच्छा तो यही
है कि नीतिगत मामले में विचार मुख्यमंत्री के सिवाय अन्य कोई व्यक्त न
करें। जिससे लगे सरकार और पुलिस में एका है।

मीडिया का तो काम है कि वह किसी से पूछे लेकिन जवाब देने वाले को छपास
रोग हो तो बात विवाद बन जाती है। इससे विपक्ष को आलोचना का अवसर मिलता है
और कांग्रेसी सांसद चरणदास महंत यही कर रहे हैं। वे राज्यपाल को पत्र
लिख रहे हैं। मीडिया छाप रहा है कि गृहमंत्री और डीजीपी में खुली जंग। यह
सब अच्छे संकेत नहीं है। केंद्रीय गृह मंत्रालय चेतावनी दे रहा है कि 600
नक्सली बीजापुर के आसपास डेरा डाले हुए हैं और वे किसी बड़ी वारदात को
अंजाम देने की कोशिश में हैं। वे सुरक्षा बलों की कमजोरी ढूंढ रहे है।
जिससे फिर घात लगाकर जवानों के जीवन का हरण कर सकें। कहा जा रहा है कि 24
हजार वर्ग किलोमीटर में जगह-जगह नक्सलियों ने बारुदी सुरंग बिछा रखी है।
ढाई फुट से अधिक जमीन के नीचे इन सुरंगों के होने के कारण सुरक्षा बलों
के पास साधन नहीं हैं कि वे पता लगा सकें कि कहां बारुदी सुरंग लगायी गयी
है। ऐसी स्थिति में सुरक्षा बलों को काम करना पड़ रहा है।
इस स्थिति में भी केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय पुलिस को सूचित कर रहा है
कि 600 नक्सली बड़ी घटना को अंजाम देने के लिए इकट्ठा हो गए हैं। जबकि यह
खबर राज्य पुलिस के पास पहले से होना चाहिए था। केंद्रीय गृह मंत्रालय
बार-बार कह रहा है कि नक्सलियों से निपटने का काम राज्य सरकार का है और
वह राज्य सरकार की मदद कर रहा है। सीधा और साफ है कि केंद्रीय सुरक्षा बल
लड़ रहा है और अपने जान न्यौछावर कर रहा है। राज्य पुलिस क्या कर रही है?
असल में नक्सलियों से लडऩे का दायित्व जिसका है। केंद्रीय सुरक्षा बलों
के जवान मारे जा रहे है तो उसकी जिम्मेदारी राज्य पुलिस की भी तो है। कोई
आपकी मदद करने आए और मारा जाए तो आप अपनी जिम्मेदारी से कैसे इंकार कर
सकते हैं? गृह मंत्री ननकी राम कंवर को भी लगा होगा कि नक्सलियों से
लडऩे में राज्य पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बल सक्षम नहीं हैं। इसलिए
उन्होंने कहा होगा कि फौज को जिम्मेदारी सौंप दी जानी चाहिए। अब फौज को
जिम्मेदारी दी जाए या न दी जाए, यह सोचने का काम राज्य पुलिस के आला अफसर
का नहीं हैं बल्कि राज्य सरकार और केंद्र सरकार के सामूहिक सोच का विषय
है।

वायु सेना के उपयोग की बात यदा कदा उठती तो है। जब जमीन पर बारुदी सुरंग
बिछी हो तो फिर आसमान से मुकाबले के विषय में सोचा ही जाना चाहिए या फिर
ऐसे उपकरण सुरक्षा बलों को मुहैया कराना चाहिए जो ढाई फुट से नीचे गड़े
बारुदी सुरंगों का भी पता लगा सके। आधुनिक हथियारों से लैस नक्सलियों को
युद्ध की आधुनिक तकनीक का न केवल ज्ञान है बल्कि नक्सली युद्ध के मामले
में पर्याप्त प्रशिक्षित भी दिखायी दे रहे हैं। वे अपनी पोशाक उतार कर आम
आदमी के कपड़ों में आम आदमियों के बीच ऐसे घुल मिल भी जाते हैं कि उनको
पहचानना आसान नहीं है। वाकी टाकी तक का तो प्रयोग वे करते हैं। वे पूरी
जानकारी प्राप्त कर रणनीतिक हमला करते है। उनका टारगेट निश्चित है। वे
600 भारी पड़ते हैं, 6 हजार पर। इधर हमारे नेता और अधिकारी छपास रोग से
ग्रस्त हैं। वे यह नहीं समझते कि वे जो भी बोलते हैं, उसे मीडिया
प्रचारित करता है और सब कुछ नक्सलियों को पता चल जाता है।

कल उड़ीसा में सुरक्षा बलों और ग्रेहाऊंड ने 10 नक्सलियों को एक मुठभेड़
में मारा। कहा जा रहा है कि आंध्र में पुलिस का दबाव नक्सलियों पर बढ़
गया है। इसलिए वे सुरक्षित ठिकाने छत्तीसगढ़ में घुस आए हैं। उड़ीसा के
रास्ते महासमुंद में भी प्रवेश के समाचार हैं। मतलब युद्ध का क्षेत्र
छत्तीसगढ़ बन रहा है। छत्तीसगढ़ पर जिम्मेदारी बढ़ रही है कि वह
नक्सलियों पर दबाव डाले कि वे भागने की जगह तलाश करें तो उन्हें पड़ोसी
राज्यों में जगह न मिले। गृह मंत्रालय की सूचना के अनुसार नक्सलियों की
नजर कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों पर भी हैं। इसका अर्थ होता है कि पुलिस
को अत्यधिक सतर्क रहना चाहिए। क्योंकि सुरक्षा की आखिर जिम्मेदारी तो उसी
की है। जब पुलिस का आला अधिकारी कहता है कि फौज की जरुरत नहीं है। पुलिस
सक्षम है तो कल कोई ऐसी वैसी घटना घटित होती है तो जिम्मेदार पुलिस ही
होगी।

कहा जा रहा है कि नेपाली माओवादी भी बस्तर पहुंच गए है। यदि यह समाचार
सही है तो बस्तर नक्सली और सुरक्षा बलों की जंग का मैदान बन जाएगा। पता
नहीं कितना खून खराबा होगा। अभी ही इतना खून बह चुका है कि बहता खून
लोगों को विचलित कर रहा है। जवानों के मारे जाने से शांतिप्रिय आम
नागरिकों की संवेदनाशीलता पर चोट लगती है। जवानों के रोते बिलखते परिवार
नक्सलियों के विरुद्ध भाव पैदा करते हैं लेकिन मन में यह प्रश्र कौंधता
है कि आखिर कब तक? कब बंद होगा, यह खून खराबा। यह स्थिति चिंता पैदा करती
है। कल जब तिल्दा में सीआरपीएफ के उपनिरीक्षक टेक राम वर्मा की अंतिम
यात्रा में सम्मिलित होने के लिए गृह मंत्री ननकी राम कंवर गए तो वे भी
अपने आंसू रोक नहीं पाए। टेकराम वर्मा की पत्नी, मां, पिता का रुदन सभी
को आंखों से झरझर आंसू बहाने के लिए बाध्य कर रहा था। ऐसे में किसी को भी
लग सकता है कि नक्सलियों को मारने के लिए फौज भी बुलाना पड़े तो बुलाओ।
यह सिर्फ ननकी राम कंवर की ही सोच नहीं है। ऐसे दुर्दांत लोगों से निपटने
के लिए सुरक्षा बल सक्षम नहीं है तो फौज को बुलाने में क्या आपत्ति हो
सकती है? सभी चाहते हैं कि नक्सली समस्या से मुक्ति मिले। जब लड़े बिना
कोई चारा ही दिखायी न दे और निरंतर सुरक्षा बल के जवान काल कलवित हों तो
हर स्थिति से लडऩे में सक्षम लोगों को लाया जाए और फौज के सिवाय तो और
कोई दिखायी नहीं देता। जब काश्मीर में आतंकवादियों से लडऩे के लिए फौज को
बुलाया जा सकता है तो बस्तर में क्यों नहीं? आखिर उद्देश्य तो शांतिप्रिय
नागरिकों को शांति से रहने के अधिकार की रक्षा करने का है। इसलिए केंद्र
सरकार फौज भेजने के निर्णय से भले ही सहमत न हो लेकिन ननकी राम कंवर को
इसके लिए गलत नहीं ठहराया जा सकता।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 10.05.2010
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रविवार, 9 मई 2010

और कब तक हमारे जवान इसी तरह से शहीद होते रहेंगे?

शांति न्याय यात्रा और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के 22 अरब रुपए बस्तर
में खर्च करने का जवाब नक्सलियों ने सीआरपीएफ के बख्तरबंद वाहन को बारुदी
सुरंग से उड़ा कर दिया है। 8 जवान फिर शहीद हो गए जो छुट्टी मनाने के लिए
जाने की तैयारी में थे। 76 जवानों की जान लेने के बाद भी नक्सलियों की
खूनी प्यास बुझी नहीं हैं। 1 माह भी नहीं हुए और दूसरी घटना को अंजाम
देकर नक्सलियों ने स्पष्ट संदेश दे दिया है कि वे सिर्फ गोलियों की ही
भाषा में बात करना जानते हैं। फिर भी सभ्य, अहिंसक बुद्धिजीवी अभी भी
उम्मीद रखते हैं कि नक्सली हिंसा छोड़ सकते हैं। शांति न्याय यात्रा के
लिए निकले बुद्धिजीवियों को रायपुर से लेकर जगदलपुर तक जन आक्रोश का
सामना करना पड़ा। फिर वे दंतेवाड़ा भी पुलिस संरक्षण में गए लेकिन अब
उनका पता नहीं है कि वे शांति न्याय यात्रा छोड़ कर कहां गए। एक समाचार
पत्र में खबर छपी है कि वे गुपचुप दिल्ली कूच कर गए।

अभी तक बुद्धिजीवी सलाह देते थे कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का समुचित
विकास नहीं हुआ, इसलिए नक्सलियों को फलने फूलने का मौका मिला। नक्सली
समस्या से मुक्ति तभी मिलेगी जब इन क्षेत्रों का विकास किया जाएगा। विकास
कैसे किया जाए? नक्सली विकास की ही राह में तो रोड़े अटकाते हैं। क्योंकि
वे अच्छी तरह से जानते हैं कि विकास हो गया तो उनकी दुकान बंद हो जाएगी।
मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह तो बस्तरवासियों को 50 हजार नौकरी का तोहफा दे
रहे है। बस्तर के युवक सरकारी नौकरी में आ गए तो नक्सलियों की फौज में
भर्ती होने के लिए युवक ही नहीं मिलेंगे। 22 अरब रुपए कम नहीं होते। इतना
धन जब बस्तर में खर्च होगा तो बहुत कुछ बदल जाएगा। लेकिन सरकार खर्च कर
सके ऐसा माहौल निर्मित न हो इसके लिए नक्सली हर तरह का हथियार उपयोग
करेंगे। राष्ट्रीय राजमार्ग 16 पर जब नक्सली बारुदी सुरंग लगाकर बख्तरबंद
गाड़ी को उड़ा सकते हैं तो इससे तो यही लगता है कि वे सब कुछ करने में
सक्षम हैं। विस्फोट से बुलेट प्रूफ बख्तरबंद गाड़ी के जब परखच्चे उड़
जाएं और उसमें बैठे जवानों के शरीर 100 मीटर दूर जाकर गिरें तो इसी से
समझ में आ जाता है कि नक्सली पुलिस के सुरक्षा तंत्र को तोडऩे में कितने
सक्षम हैं।

यह नक्सलियों की तारीफ नहीं है लेकिन हकीकत अवश्य है। इसीलिए गृहमंत्री
ननकीराम कंवर यह कहने में नहीं हिचक रहे हैं कि सेना अब कमान संभाले।
शायद उन्हें लगता हो कि सीआरपीएफ के बस की बात नहीं है, नक्सली। यह बात
दूसरी है कि डीजीपी कह रहे है कि हमारे जवान नक्सलियों से लडऩे में सक्षम
हैं। मुख्यमंत्री भी कह रहे है कि केंद्रीय सुरक्षा बल के सहयोग से
नक्सलियों के आतंक को समाप्त कर दिया जाएगा। प्रारंभ में जरुर लगा था कि
केंद्रीय सुरक्षा बल के आने से नक्सली बैक फुट में चले गए है लेकिन इस
छवि को तोडऩे के लिए ही नक्सली निरंतर सुरक्षा बलों के जवानों की हत्या
कर रहे हैं। हम कितना भी कहें कि यह नक्सलियों की कायराना हरकत है लेकिन
नक्सली वीरोचित लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं। वे तो छुप कर लड़ रहे है।
गोरिल्ला लड़ाई लड़ रहे हैं। वे आमने सामने की लड़ाई लड़ भी नहीं सकते।
क्योंकि ऐसी लड़ाई हो तो उनका नामोनिशान शेष नहीं होगा। वे आतंक फैलाने
की लड़ाई लड़ रहे हैं। आतंक से भय पैदा होता है। लोगों में भय व्याप्त
हो, यही तो असली ताकत है नक्सलियों की और इस मामले में वे सफल है।
वे भय पैदा कर रहे हैं और हमारा सशस्त्र बल नक्सलियों में वैसा भय पैदा
नहीं कर पा रहा है। गृहमंत्री ननकी राम कंवर की बात में दम है। कब तक
नक्सलियों के हाथ जवान मारे जाते रहेंगे। इसलिए फौज का उपयोग करना चाहिए।
फौज हर तरह के युद्ध में सक्षम है लेकिन यह भी कटु सत्य है कि फौज हमारा
आखिरी हथियार है। जंगल की लड़ाई में वर्षों लग सकते हैं। क्योंकि दबाव
बढ़ा तो एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करने की नक्सलियों को सुविधा
है। श्रीलंका की लड़ाई लिट्टे से तो छोटे से क्षेत्र में थी तब भी
श्रीलंकाई फौज को वर्षों लगे। नक्सलियों का प्रभाव तो बहुत बड़े क्षेत्र
में है। यह लड़ाई बिना सशक्त खुफिया जानकारों के नहीं लड़ी जा सकती।
क्योंकि नक्सलियों को हमारी फोर्स की गतिविधियों की जानकारी तो आसानी से
मिल जाती है लेकिन नक्सलियों की जानकारी प्राप्त करना आसान काम नहीं है।
आज जिन कठिनाइयों का सामना केंद्रीय सुरक्षा बलों को करना पड़ रहा है वही
कठिनाई तो फौज को भी होगी। रणनीतिक चूक तो हर हमले में दिखायी देती है।
नक्सलियों की सही ताकत का तो अंदाज भी नहीं है। इतने दिनों से चलने वाली
लड़ाई के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि फलां स्थान नक्सलियों के प्रभाव
से पूर्णत: मुक्त हो चुका है। फिर सभ्य समाज में भी नक्सलियों के
शुभचिंतक है। प्रसिद्ध साहित्यकार महाश्वेता देवी कहती है कि सरकार में
दम है तो उन्हें गिरफ्तार कर दिखाए। जेएनयू में गृहमंत्री चिदंबरम भाषण
देते हैं तो बाहर छात्र उन्हें काला झंडा दिखाते है। गृह मंत्रालय को
सूचना जारी करना पड़ता है कि नक्सलियों का समर्थन करने वालों को 10 वर्ष
तक जेल में कैद किया जा सकता है। इसी के परिप्रेक्ष्य में तो महाश्वेता
देवी सरकार को गिरफ्तार करने की चुनौती देती है। कुछ दिनों पहले एक
समाचार पत्र में खबर छपी थी कि केंद्रीय सुरक्षा बल के हजारों जवान नौकरी
छोडऩा चाहते हैं। कल ही जो 8 जवान मारे गए, वे अपने घर छुट्टी मनाने जाने
वाले थे। अब उनका पार्थिव शरीर उनके घर पहुंचेगा। अपने शहीद हुए साथियों
को देखने के बावजूद आत्मबल बनाए रखना कड़ी परीक्षा है। यह ठीक है कि
हमारे जवान कड़ी परीक्षा से नहीं घबराते। उनके मन में भी नक्सलियों के
कृत्य क्रोध ही पैदा करते होंगे लेकिन सत्य यह भी है कि जो हाल बिना
लड़े, उनके साथियों का हुआ वह उनका भी हो सकता है। लड़ाई आमने सामने की
हो तो मरने की परवाह जवान नहीं करते। क्योंकि मरेंगे, तो मार कर मरेंगे।
यह तो स्पष्ट दिखायी देता है कि 2-4 दिन में समस्या का हल नहीं हो सकता।
लंबी लड़ाई लडऩी पड़ेगी। गृहमंत्री चिदंबरम ने भी इस सत्य को स्वीकार
किया है कि लंबी और निरंतर लड़ाई है। इसलिए हड़बड़ी में कोई भी नीति उचित
नहीं है। अभी तक की लड़ाई में ऐसी कोई घटना नही घटित हुई जिसमें 100-50
नक्सली एक साथ सुरक्षा बलों के द्वारा मारे गए हों। जबकि नक्सली ऐसा करने
में सफल रहे हैं। इसके साथ यह भी सत्य है कि सुरक्षा बलों का दबाव
नक्सलियों पर है। जितनी बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों का इस समय
नक्सलियों के विरुद्ध उपयोग किया जा रहा है, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।
नक्सली मारे जा रहे हैं, गिरफ्तार किए जा रहे है, आत्म समर्पण भी कर रहे
हैं। यह भी सुरक्षा बलों के दबाव के कारण हो रहा है। लेकिन ऐसी जानकारी
जब तक हाथ नहीं लगती तब तक संपूर्ण सफलता मिल नहीं सकती। नक्सली
नेटवर्र्क की पूरी जानकारी और एक साथ उस पर हमला। यह काम खुफिया विभाग का
है। खुफिया विभाग जानकारी पूरी तरह से देने में सक्षम हो तो नक्सलियों से
निपट लेना सुरक्षा बलों के लिए कोई बड़ा काम नहीं है। देखें कब ऐसी सफलता
मिलती है।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 09.05.2010
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जाति के आधार पर जनगणना स्वीकार कर सरकार ने भविष्य की राजनीति के लिए नया मुद्दा दे दिया है

जात पात पूछे नहीं कोय, हरि को भजै सो हरि का होय। कभी यह बात बहुत अपील
करती थी, राजनीति में लेकिन आज बात पूरी तरह से बदल गयी है। कभी राम
मनोहर लोहिया जनेऊ तोड़ो आंदोलन चलाते थे। रानी के विरुद्ध दलित महिला को
मैदान में उतारते थे। आज उनके ही समर्थक संसद में भाषण दे रहे थे कि जाति
एक हकीकत है। जनगणना में जाति की भी गणना करना चाहिए। शरद यादव तो आंकड़े
देकर बता रहे थे कि दलित, आदिवासियों की तुलना में पिछड़े वर्ग के लोग
बहुत कम संख्या में सरकारी नौकरी में है। जिस वर्ग की जनसंख्या सबसे अधिक
है देश में उसका ही प्रतिनिधित्व शासकीय नौकरी में सबसे कम है। जनगणना
के द्वारा इस बात को सामने लाया जाए कि देश की आबादी में पिछड़े वर्ग की
जनसंख्या कितनी हैं। पिछड़ा वर्ग कोई एक जाति का नहीं है बल्कि सैकड़ों
जातियां है जो इस समूह में आती है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लोकसभा में आश्वासन दिया है कि केबिनेट की
बैठक में इस मुद्दे पर विचार किया जाएगा। सभी पार्टियों ने इसके लिए
लोकसभा में प्रधानमंत्री को धन्यवाद भी दिया। अब यह सरकार के लिए ही सोच
का विषय है कि वह जनगणना में जातियों की जनगणना किस तरह से कराती है।
सारी पिछड़ी जातियों को एक साथ गिनती है या जाति के हिसाब से गिनती है।
सरकार जाति के आधार पर जनगणना के लिए तैयार है तो उसे प्रत्येक जाति की
अलग-अलग जनगणना करना चाहिए। जिससे पता तो चले कि वास्तव में किस जाति के
कितने लोग इस देश में रहते हैं। पिछड़ी जातियों में भी वर्ग विभाजन है।
कई जातियां अति पिछड़ी है। इसलिए यदि सबकी एक साथ गणना की गई तो भविष्य
में सरकारी संरक्षण की वास्तव में जिस जाति को ज्यादा जरुरत है, उसे लाभ
मिलने के बदले, उन लोगों को लाभ मिल सकता है जो पिछड़ों में अगड़े हैं।
यह भी तो पता चले कि पिछड़ों में सबसे ज्यादा किस जाति के लोग हैं और
सबसे कम किस जाति के।

कुल पिछड़े किन्हें अपना नेता मानते हैं। इससे नए नेताओं को भी उभरने का
अवसर मिलेगा। कोई पिछड़ी जाति कहती है कि वह देश में सर्वाधिक है। इसलिए
उसका हिस्सा सबसे ज्यादा बनता है। फिर पिछड़ों की गिनती धर्म से अलग हट
कर किया जाना चाहिए। क्योंकि करीब-करीब हर धर्म में अगड़ी और पिछड़ी
जातियां है। भारतवर्ष में जो जातियों की हकीकत है, उसका मूल कारण
व्यक्तियों के द्वारा किया जाने वाला काम रहा है। पहले ही जाति से ही पता
चल जाता था कि किस जाति के आदमी का व्यवसाय क्या है? हालांकि आज तो काम
के आधार पर जाति रह नहीं गयी। सभी लोग सभी काम करते हैं। कोई शौक से करता
है तो कोई मजबूरी में लेकिन जनगणना में जाति कर्म से नहीं आंकी जाएगी
बल्कि व्यक्ति के पूर्वज किस जाति के थे,उसी से उसकी जाति तय होगी। कर्म
बदलने से जाति नहीं बदलती। ऐसा होता तो जातियां ही समाप्त हो जाती।
जब सबकी गिनती हो रही है तो सवर्णों की भी गिनती होना चाहिए। आखिर पता तो
चले कि इस देश में कितने ब्राम्हण, क्षत्री और वैश्य हैं। इनकी भी
अलग-अलग जनगणना हो। इसके साथ अल्पसंख्यकों की भी जनगणना यदि उनमें जाति
हैं तो उस आधार पर हो। जब जाति की जनगणना कर रहे है तो उपजातियों की भी
जनगणना करें। जिससे एक स्पष्ट चित्र सामने आए कि वास्तव में जाति के
नाम पर जो राजनीति की जा रही है, उसका वास्तविक चेहरा क्या है? ऐसे में
दलितों और आदिवासियों की भी जातियों की गणना करें। साथ ही जाति की जनगणना
के साथ यह भी जानकारी लें कि वर्तमान में वह व्यक्ति क्या काम कर रहा है?
इससे और स्पष्ट होगा कि 63 वर्ष के स्वतंत्रता काल में आज जातिगत क्या
स्थिति है? कितने सवर्ण, पिछड़े, दलित, आदिवासी अपनी जाति के अनुसार
किन-किन क्षेत्रों में सफलतापूर्वक काम कर रहा है। वास्तव में गरीब कौन
हैं? विकास यात्रा में कौन आगे बढ़ा और कौन पिछड़ गया?

जब कहा जाता है कि जनगणना से सरकार को अपनी योजना बनाने में मदद मिलेगी
तो जवाबदारी भी सूक्ष्मतर होना चाहिए। जनगणना से प्राप्त आंकड़े विकास के
पर्यायवाची बनना चाहिए परंतु यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अब अमीरी गरीबी
सिर्फ जाति आधारित नहीं है। हर जाति में लोग अमीर हुए है तो गरीबी भी
बढ़ी है। किसी के साथ न्याय करने का अर्थ दूसरे के साथ अन्याय नहीं होना
चाहिए। आज ब्राम्हण के घर में पैदा हुआ व्यक्ति सिर्फ पुरोहिती ही नहीं
कर रहा है और न क्षत्री के यहां पैदा व्यक्ति फौज में भर्ती हो रहा है।
व्यवसाय पर सिर्फ वैश्य जाति का एकाधिकार नहीं है। विज्ञान ने नए-नए
कार्य क्षेत्र पैदा किए हैं और ये कार्य क्षेत्र किसी जाति के मोहताज
नहीं है। सर्वजाति योग्यता के आधार पर अपना कार्य क्षेत्र चुन रही है और
सफल हो रही है। आरक्षण का संविधान में जो प्रावधान किया गया है, उसका
कारण यही है कि कैसे पिछड़ों को आगे आने का मौका मिले। जिस समय संविधान
बनाया गया, उस समय दलितों और आदिवासियों को ही पिछड़ा समझा गया लेकिन आज
63 वर्ष की स्वतंत्रता के बावजूद पिछड़ी जाति की लंबी श्रृंखला खड़ी है।

कांग्रेस इस पक्ष में नहीं थी कि जनगणना जाति आधारित हो लेकिन सभी दलों
के पिछड़े वर्ग के नेताओं की मांग के आगे झुकते हुए, उसने जाति आधारित
जनगणना पर रजामंदी दी है। बहुत वर्ष पहले जाति आधार पर जनगणना हुई थी।
उसी को आधार बनाकर राजनीति में पिछड़ों के लिए आरक्षण की मांग उठती रही
है। यहां तक कि संवैधानिक संस्थाओं में महिलाओं के आरक्षण में पिछड़े
वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग उठी और सरकार ने उसे नहीं माना।
इसलिए महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा से पारित होने के बावजूद लोकसभा से
पारित नहीं हो सका। क्योंकि इसके लिए माना गया कि पहले सामान्य सीटों पर
पिछड़ों के आरक्षण की व्यवस्था जब तक नहीं होती तब तक महिला आरक्षण में
पिछड़ों को आरक्षण नहीं दिया जा सकता।

जनगणना में जातिगत आधार पर आंकड़े उपलब्ध होने के बाद सामान्य सीटों पर
भी आरक्षण की मांग नहीं उठेगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता। सरकार ने दबाव में
जातिगत जनगणना की मांग स्वीकार करने का जो रुख अपनाया है, इससे भविष्य
में कई राजनैतिक मुद्दों का जन्म होगा। राजनीति अपना खेल खेलने से बाज
नहीं आएगी। क्योंकि पिछड़े वर्ग के जो स्थापित नेता हैं, उन्हें तो
आंकड़ा उपलब्ध होने के बाद निश्चित प्रतीत हो रहा है कि उनका वर्चस्व और
वजन राजनीति में बढ़ेगा। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में ही जब कहा जाता है कि
यह आदिवासी बहुसंख्यक नहीं पिछड़ा वर्ग बहुसंख्यक है तो आंकड़े उपलब्ध
होने के बाद जाति के आधार पर राजनीति का बोलबाला बढ़ेगा। तब बहुतेरे ठगा
सा महसूस करेंगे लेकिन फिर कुछ कर नहीं पाएंगे।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 08.05.2010

शुक्रवार, 7 मई 2010

कसाब को फांसी की सजा के बाद भी लोग शंकालु कि आखिर कब फांसी होगी ?

जब दुनिया भर में फांसी की सजा के विरुद्ध आवाज उठती हो तब भारत में
करोड़ों लोग इंतजार करते हैं कि एक व्यक्ति को न्यायालय फांसी की सजा
सुनाए। किसी भी कीमत में उसे जिंदा न रखा जाए। न्यायालय में सरकारी वकील
उस व्यक्ति को मौत की मशीन और उसके देश को मौत की मशीन बनाने वाली
फैक्ट्री कहे। उसे शैतान कहने में कोई हिचक महसूस न करे तो आसानी से समझा
जा सकता है कि उस व्यक्ति के प्रति भारतीयों के मानस में कितनी घृणा
होगी। अजमल आमिर कसाब ने निर्दोष नागरिकों को गोलियों से भून दिया था। न
तो मरने वाले कसाब को जानते थे और न मारने वाला कसाब मरने वालों को
पहचानता था। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं जो सामने आया, वही कसाब की गोलियों का
शिकार हो गया। मरने वालों की जाति धर्म से भी कसाब का कोई लेना देना नहीं
था। ऐसे व्यक्ति को जब न्यायालय ने 4 मामलों में मृत्युदंड और 5 मामलों
में उम्र कैद की सजा सुनायी तो रोने वाला अकेला कसाब ही था और खुशियां
मनाने वाले सभी थे। किसी को फांसी की सजा न्यायालय सुनाए और लोग खुशी में
फटाके फोड़ें, मिठाइयां बांटे तो इसी से समझ में आता है कि लोगों की चलती
तो वे कब का कसाब को मार चुके होते।

पुलिस के आला अफसर ने कहा भी है कि कसाब को सुरक्षित रखना कठिन काम था।
जनता के आक्रोश से ही नहीं, पुलिस वालों से भी। गुस्सा इतना ज्यादा था कि
कोई भी उसकी इहलीला समाप्त कर सकता था। अजमल आमिर कसाब की सुरक्षा में ही
सरकार के 35 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं और जब तक उसे फांसी के फंदे पर
लटका नहीं दिया जाता तब तक सरकार के खजाने से और कितना धन खर्च होगा,
क्या कहा जा सकता है? क्योंकि कसाब को फांसी कब होगी, यह तो कोई ज्योतिषी
भी नहीं बता सकता। फांसी के पहले लंबी कानूनी प्रक्रिया है। पहले उच्च
न्यायालय फांसी की सजा को निश्चित करेगी। तब कसाब फैसले के विरुद्ध उच्च
न्यायालय में अपील करने का अधिकार भी रखता है। उच्च न्यायालय के बाद
सर्वोच्च न्यायालय और उसके बाद राष्ट्रपति से दया की अपील। राष्ट्रपति के
द्वारा दया की अपील जब खारिज कर दी जाएगी तब कसाब को फांसी देने का दिन
निश्चित होगा। स्पष्ट है कि लंबा रास्ता है और तब तक कसाब को सुरक्षित
रखना भी सरकार की अहम जिम्मेदारी है। सुरक्षा का अर्थ है करोड़ों रुपए
खर्च करना।

सारा देश और हर कोई जानता है कि कसाब अपराधी है। अपराधी भी ऐसा वैसा नहीं
जघन्य अपराधी है। जिसने देश की अस्मिता पर हमला किया। आंखों देखे गवाह
हैं और टीवी पर तो पूरे देश ने ही नहीं, सारी दुनिया ने देखा है। वह
पाकिस्तानी नागरिक है। पाकिस्तान ने तो पहले उसे पाकिस्तानी मानने से
इंकार कर दिया था। फिर पाकिस्तान कहने लगा कि वह घूमने के लिए गया था।
उसे जबरन फंसाया जा रहा है। भारत सरकार ने पाकिस्तान में बैठे कसाब के
आकाओं के विरुद्ध कितने ही प्रमाण पाकिस्तान सरकार को सौंपे लेकिन
पाकिस्तान मानने के लिए तैयार नहीं कि सबूत पर्याप्त है। कहा जा रहा है
कि पाकिस्तान में प्रति वर्ष 11 हजार आतंकवादी प्रशिक्षण प्राप्त करते
हैं। एक कसाब उदाहरण है कि पाकिस्तान में क्या हो रहा है ? सारी दुनिया
अच्छी तरह से जानती है कि पाकिस्तान क्या खेल, खेल रहा है। अमेरिका में
पिछले दिनों टाइम एक्वायर पर कार के द्वारा विस्फोट करने के मामले में एक
पाकिस्तानी अमेरिकी युवक पकड़ा गया। जिसके पिता पाकिस्तान एयर फोर्स के
उपाध्यक्ष रह चुके है। अमेरिका ने पाकिस्तान को करांची में स्थित
आतंकवादियों की सूची दी तो 7 लोगों को पाकिस्तान ने गिरप्तार किया।
त्वरित कार्यवाही की। क्योंकि अमेरिका के धन से ही तो पाकिस्तान की सरकार
चल रही है।

कसाब को सजा देकर हम खुश हो सकते हैं और हमें खुश भी होना चाहिए लेकिन यह
नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान तो कसाब बनाने की फैक्ट्री है। हम न्याय
पूर्ण समाज में रहते हैं। यही सभ्य समाज की भी निशानी है लेकिन इसकी कीमत
हमें भारी चुकानी पड़ती है। एक अपराधी को फांसी तक पहुंचाने में ही हमारे
करोड़ों रुपए खर्च होते है। ऐसे अपराधियों के लिए विशेष तरह की कानूनी
व्यवस्था होना चाहिए। क्योंकि जिस धन से लाखों लोगों का भला किया जा सकता
है और जो वास्तव में जनता की मेहनत की कमायी से पैदा हुआ धन है, उसे इस
तरह जघन्य अपराधी के पीछे व्यय करना कितना उचित है? ये तो हमारे ऊपर
दोतरफा मार है। नुकसान जान और माल दोनों का हम ही उठा रहे हैं। आदर्श की
दृष्टि से भले ही यह ठीक लगे लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से यह उचित तो नहीं
लगता। फिर जिस व्यक्ति को अंतत: फांसी पर ही चढ़ाना है तो इतनी लंबी
कानूनी प्रक्रिया के बदले फास्ट ट्रैक से क्यों नहीं निपटाया जाता ?

कसाब के मामले से सरकार को सबक लेना चाहिए। आतंकवादी, जघन्य अपराधी
जानते है कि कानून की लंबी प्रक्रिया उनका हित संवर्धन करते है। वे मारे
गए तो अलग बात है लेकिन पकड़े गए तो कानूनी संरक्षण ही उनकी ढाल बन जाता
है। कितने ही फांसी की सजा पाए व्यक्ति राष्ट्रपति से दया की अपील का
निपटारा न होने के कारण आज जिंदा है। बार-बार भाजपा, शिवसेना मांग करती
है कि अफजल गुरु को फांसी दी जाए लेकिन दया अपील का निर्णय न होने के
कारण वह भले ही जेल की सलाखों के पीछे हैं लेकिन जिंदा तो है। ऐसे में
किसी अति महत्वपूर्ण व्यक्ति का अपहरण करने में आतंकवादी सफल हो गए तो
कसाब और अफजल गुरु जैसे लोगों की रिहाई की मांग भी कर सकते हैं। दुर्दांत
आतंकवादियों को हमें छोडऩा भी पड़ा है, यह नहीं भूलना चाहिए। किसी
निर्दोष के अपहरण पर हमारी मजबूरी हो जाती है कि निर्दोष को बचाया जाए या
अपराधी को सजा दी जाए।

सामान्य अपराधी और विशेष तरह के अपराधी जो देश की शांति और सुरक्षा के
लिए खतरा है, उनमे भेद तो करना पड़ेगा। जब तक कानून की सख्ती का भय
अपराधियों में पैदा नहीं होगा तब तक सजा का कोई विशेष अर्थ नहीं रहता। जो
अपनी जान हथेली पर लेकर देश के नागरिकों का कत्ले आम करने निकला था, वह
कसाब आज भले ही फांसी की सजा सुनाए जाने पर रो रहा हो लेकिन यह उसका रोना
किसी के दिल को पसीजने वाला नहीं है। क्योंकि उसने कृत्य ऐसा किया है कि
जो अक्षम्य है। उसे किसी तरह से क्षमा नहीं किया जा सकता। मानवतावादी भी
यह अपील नहीं कर सकते कि कसाब को क्षमा किया जाए। जब कसाब की गोली से बच
गए लोग न्यायालय में कहते हैं कि कसाब को फांसी की सजा दी जाए। 8-10 वर्ष
की लड़की कहती है। मृतकों के बच्चे कहते हैं तो सरकार को सोचना चाहिए कि
कैसे इस नर पिशाच को जल्दी से जल्दी फांसी के फंदे पर लटकाया जाए। जिससे
इसके हाथ मारे गए लोगों की आत्मा को शांति मिले। पाकिस्तान तो पूरी
बेशर्मी से कहता है कि कसाब को उन्हे सौंप दिया जाए और वे उसे सजा देंगे।
हमारे विदेश मंत्री कहते है कि इस पर विचार किया जाएगा। क्या यह संभव है?
ऐसा करने की भी कोशिश की गयी तो जनता बागी हो जाएगी। कानून पर से उसका
विश्वास उठ जाएगा। लोग तो मांग कर रहे है कि भिंडी बाजार में, होटल ताज
के सामने उसे खुले आम फांसी पर लटकाया जाए। कोई कहता है कि सरकार ने
शीघ्रता भी की तो 17 माह लगेंगे। कोई कहता है कि कम से कम 5 वर्ष फांसी
देने में लग जाएंगे। सरकार चाहे और वह सक्षम है तो शीघ्र कसाब को फांसी
दी जा सकती है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 07.05.2010

गुरुवार, 6 मई 2010

शांति न्याय यात्रा नहीं नक्सलियों को समझा सकते हैं हिंसा छोडऩे के लिए

तो समझाएं प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी क्या सोच कर दिल्ली से रायपुर आए थे?
आपरेशन ग्रीनहंट रोकने के लिए रायपुर से दंतेवाड़ा तक शांति न्याय यात्रा
निकालेंगे तो लोग गर्मजोशी से उनका स्वागत करेंगे। हिंसा के विरुद्ध उनकी
सोच और यात्रा का परिणाम दोनों पक्ष पर अच्छा पड़ेगा। सरकार आपरेशन
ग्रीनहंट रोकेगी तो नक्सली हथियार छोड़कर मुख्य धारा में आएंगे लेकिन इन
बुद्धिजीवियों को राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने नक्सली समर्थक समझा। भाजपा के
कार्यकर्ता ही नहीं कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने भी इनके विरोध में नारे
लगाए। टाउन हाल में होने वाली आमसभा विरोध प्रदर्शन के कारण नहीं हो
पायी। बुद्धिजीवी चिल्लाते रहे कि समस्या का समाधान गांधीवादी तरीके से
निकाला जाए लेकिन प्रदर्शनकारी सुनने के लिए तैयार नहीं हुए। इसी से समझ
में आ जाता है कि बुद्धिजीवियों के प्रति एक स्पष्ट सोच स्थापित हो गयी
है कि ये नक्सलियों के समर्थक हैं और इनकी सोच के कारण ही नक्सली फल-फूल
रहे हैं। कल आए प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों की राय भले ही नक्सलियों की
हिंसा के पक्ष में न हो लेकिन अभी तक आए बुद्धिजीवियों ने तो ऐसा ही
माहौल पैदा किया कि सरकार जो गोलियों का जवाब गोलियों से दे रही है, वह
गलत है।


सरकारी हिंसा ठीक नहीं है। तो सरकार क्या करे? नक्सलियों के हाथ पैर
जोड़े और कहें कि जो आपकी जो इच्छा हो करें। सरकार बीच में नहीं आएगी।
नक्सली जैसा चाहें वैसा निर्दोष नागरिकों के साथ व्यवहार करे। यह कहना कि
भारतीयों के विरुद्ध फौज का इस्तेमाल गलत है, कहां तक ठीक है। सरकार फौज
या सशस्त्र बल का उपयोग आतंक फैलाने के लिए नहीं करती बल्कि जो आतंक
फैलाते हैं, उनके विरुद्ध करती है। कानून का शासन हो इसलिए सरकार को गोली
का जवाब गोली से देने के लिए बाध्य होना पड़ता है। देश में संविधान से
परे जाकर कोई अपना कानून चलाने की कोशिश करे तो सरकार क्या हाथ पर हाथ रख
कर बैठी रहे? दया, मया, करुणा, अहिंसा सब अच्छे गुण हैं और इन गुणों का
पोषण भी होना चाहिए लेकिन यह एक तरफा मामला नहीं है। मुंबई हमले में
पकड़े गए आतंकी कसाब के विषय में हर पीडि़त पक्ष की यही राय है कि उसे
फांसी की सजा हो जानी चाहिए और वह भी जनता के सामने। कितने ही लोग हैं जो
नक्सलियों की गोली से मारे गए, उनके परिवार की भी यही इच्छा है कि जैसे
उनका रिश्तेदार मारा गया, उसी तरह से नक्सली भी मारे जाएं। सरकार तो एक
बार हथियार रखकर नक्सली बात करने के लिए तैयार हों तो उनके साथ
करुणापूर्वक बात करने के लिए भी तैयार है। सरकार तो उन्हें सजा देने के
बदले माफ भी कर सकती है लेकिन जो लोग मारे गए नक्सलियों के हाथ से उनके
साथ क्या अहिंसा, करुणा से इंसाफ होगा?

प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी यदि वास्तव में सिर्फ प्रचार के लिए शांति न्याय
यात्रा नहीं कर रहे हैं तो उन्हें नक्सलियों से वार्ता करना चाहिए।
नक्सलियों को समझाना चाहिए कि उनका रास्ता ठीक नहीं है। हिंसा के रास्ते
से कुछ पाया नहीं जा सकता और न ही किसी का भला किया जा सकता है। सरकार को
समझाने की जरुरत नहीं है। सरकार तो समझी समझायी हुई है। चिदंबरम अभी भी
कह रहे हैं कि 72 घंटे तक हिंसा बंद करो और वार्ता करो। सरकार कहां
वार्ता से घबरा रही है लेकिन वास्तव में नक्सली वार्ता से कोई रास्ता
निकालना चाहें तो सरकार तो एक पैर पर खड़ी हैं। सरकार ने तो समर्पण करने
वाले नक्सलियों के लिए आर्थिक पैकेज की भी घोषणा कर रखी है। सरकार
ग्रीनहंट बंद करे तो नक्सली वार्ता के विषय में सोचेंगे, यह बात उचित
नहीं है। सरकार कहां हिंसा कर रही है। सरकार तो समर्पण का अवसर देती है।
पकड़ सकती है तो पकड़ती है। सीधे ही गोली नहीं मार देती लेकिन जब सशस्त्र
बल पर नक्सली गोलियां चलाएं तो सशस्त्र बल अहिंसा का मार्ग नहीं पकड़
सकते। क्योंकि वे अहिंसा का मार्ग पकड़ेंगे तो सिर्फ मारे जाएंगे। उनका
कर्तव्य है कि वे गोलियों का जवाब गोलियों से दें।

नक्सल समस्या कोई नई तो नहीं है। पहले बुद्धिजीवी कहां थे। जब तक सरकारों
ने नक्सलियों से नक्सल प्रभावित क्षेत्रों को मुक्त कराने का प्रयास नहीं
किया था तब तक नक्सल प्रभावित क्षेत्र के लोग किस आतंक के साए में अपनी
जिंदगी गुजार रहे थे, इसका बोध बुद्धिजीवियों को नहीं था। बुद्धिजीवियों
को गलतफहमी है कि वे बातों से हर समस्या का हल निकाल सकते हैं। काश ऐसा
संभव होता तो दुनिया में कोई समस्या ही नहीं होती। क्योंकि बुद्धिजीवी
कोई आज ही पैदा हो गए, ऐसा तो नहीं है। मनुष्य को तो पशुओं से अलग बुद्धि
ही करती है। मनुष्य मात्र बुद्धिजीवी है। सारे वाद बुद्धि की ही तो देन
है। कोई किसी वाद को ठीक समझता है तो कोई किसी वाद को। नक्सली समझते हैं
कि क्रांति बंदूक की गोली से होती है। यह भी बुद्धि से ही पैदा हुआ विचार
है। माक्र्स और माओ जैसे बुद्धिजीवियों की देन है, यह विचार। सत्य और
अहिंसा भी इसी तरह का विचार है। भारत के मान से तो पुराना विचार है। जिसे
अंगेजों के विरुद्ध महात्मा गांधी ने उपयोग किया लेकिन उस समय भी बहुत से
लोग थे, इस देश में जो अहिंसा का मजाक उड़ाते थे और बिना हिंसा के आजादी
की कल्पना नहीं करते थे। उन्होंने भी अपनी तरह से कोशिश की। फांसी के
फंदे पर झूल गए। जो भी जिस विचार को मानता है, वह उसे ही सर्वोत्तम समझता
है। लड़ाई बंदूक से लड़ी जाए या सत्याग्रह से, लड़ाई मूलत: तो विचारों की
है और विचार पैदा होते है, बुद्धि से।

प्रजातंत्र में सत्ता की जंग भी तो विचार की जंग है। किसकी विचारधारा से
कितने लोग प्रभावित होते हैं, इसी पर सत्ता का अंकगणित निर्भर करता है।
सत्ता प्राप्त करने के लिए विचारधारा भले ही एक आड़ की तरह काम करे लेकिन
जनता को अपने पक्ष में करने के लिए उपयोग तो उसी का किया जाता है।
कांग्रेस को ही देखें। महात्मा गांधी की कांग्रेस, स्वतंत्रता संग्राम की
कांग्रेस, 125 वर्ष पुरानी कांग्रेस। कांग्रेस क्या अपने जन्म के समय
जैसी थी, वैसी ही आज भी है। महात्मा गांधी के ही विचारों से कांग्रेस का
कितना लेना-देना हैं। जवाहर लाल नेहरु की कांग्रेस समाजवादी थी और आज
सोनिया गांधी की कांग्रेस पूंजीवादी है। एक अर्थशास्त्री देश का
प्रधानमंत्री है। इंदिरा गांधी की हत्या होने पर सिक्खों के साथ जो हिंसा
की गयी, वह भी कागंरेस का ही इतिहास है। अहिंसा पर चली कांग्रेस हिंसा
के आरोपों से आज तक बरी नहीं हो पायी।

यह सत्य है कि आम आदमी हिंसा को पसंद नहीं करता। क्योंकि हिंसा का अर्थ
होता है, आम आदमी का सीधा नुकसान। फिर भी समाज में हिंसा व्याप्त है।
व्यक्तिगत हिंसा भी हिंसा है लेकिन वह संगठित हिंसा की तरह खतरनाक नहीं
है। बड़े-बड़े संत, अवतार, महात्माओं ने जन्म लिया और उन्होंने हिंसा को
नहीं अहिंसा को, प्रेम को, करुणा को ही सर्वश्रेष्ठ मानवीय गुण कहा
लेकिन बढ़ती आबादी और बढ़ते हथियारों ने हिंसा का रुप ही बदल दिया।
हथियार पुलिस के पास हैं, फौज के पास हैं तो हथियार उनके पास भी हैं जो
मुकाबले में खड़े हैं। अवैध हथियारों का बड़ा बाजार है और उससे भी
बहुतेरों का हित निहित है। जब सबको अपने विचार ही ठीक लगते हों तो टकराव
तो होगा ही। बुद्धिजीवी प्रतिष्ठित समझते है कि नक्सलियों को वे अपने
विचारों से प्रभावित कर सकते हैं तो करें कोशिश। जाएं। उनके साथ रहें।
तभी तो दोनों एक दूसरे को समझ सकते हैं। सरकारें तो तैयार बैठे हैं कि
नक्सली हिंसा छोड़े तो वह सब करने के लिए तैयार है। जो भी उचित हैं।
लेकिन हथियार छोडऩे के लिए तैयार तो हों नक्सली।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 06.05.2010
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