यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

बुधवार, 29 सितंबर 2010

भारतीयों को सर्व स्वीकार्य रास्ता निकालना चाहिए जिससे दुनिया में भारतीयों की प्रतिष्ठï में इजाफा हो

उच्चतम न्यायालय ने राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद मामले पर जो फैसले के
संबंध में स्थगन दिया था, उसे समाप्त कर दिया है और अब कल 30 सितंबर को
साढ़े तीन बजे इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंड पीठ 61 वर्षीय पुराने मामले
पर अपना फैसला सुनाएगी। मामले से संबंधित सभी पक्षों ने और सभी राजनैतिक
पार्टियों ने उच्चतम न्यायालय के आदेश का स्वागत किया है। सभी पक्ष एक
स्वर से फैसले के बाद शांति बनाए रखने की अपील कर रहे हैं। हर कोई यही कह
रहा है कि जीत की खुशी मनाने की जरूरत नहीं है। यह हार जीत का मामला ही
नहीं है। यह न्यायालय के निर्णय का मामला है और जो निर्णय से संतुष्ट
नहीं, उनके लिए उच्च्तम न्यायालय में अपील करने का रास्ता खुला हुआ है।
कोई भी   नहीं चाहता कि निर्णय को लेकर देश में अशांति का वातावरण तैयार
हो।

फिर भी सरकार सतर्क है। उसने अपनी तरफ से पूरी तरह से चाक चौबंद व्यवस्था
कर रखी है। संवेदनशील क्षेत्रों पर विशेष दृष्टि और सतर्कता है। यहाँ  तक
कि जमीन से ही नहीं आकाश से भी निगरानी की व्यवस्था सरकार ने की है।
उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, गुजरात, तमिलनाडू , केरल, महाराष्ट्र 
जैसे राज्यों में विशेष सतर्कता बरती जा रही है। यहां असामाजिक तत्व या
विदेशी ताकतें उत्पात मचाने की कोशिश कर सकती है लेकिन सरकार किसी को भी
मौका नहीं देना चाहती। अधिकांश जगहों में स्कूल, कालेज में छुट्टी  कर दी
गई है तो 144 धारा भी लगा दी गई है। उत्पात करने वालों को अच्छी तरह से
सोच लेना चाहिए कि सरकार ऐसे लोगों के प्रति किसी तरह की नर्मी का रूख
रखने का इरादा नहीं रखती। न्यूज चैनलों ने भी यदि इस तरह की कोई घटना
होती है तो उसे दिखाने से परहेज करने का निर्णय लिया है। स्वाभाविक रूप
से सरकार और सुरक्षा बलों के साथ मीडिया की भी बड़ी जिम्मेदारी है।
मीडिया इस मामले में पूरी तरह से जिम्मेदार साबित होगा, यही उम्मीद करना
चाहिए।

यह भारत में ही संभव है कि आस्था से जुड़े मामले पर निर्णय आने के बावजूद
कोई भी  पक्ष अशांति  और हिंसा पसंद नहीं करता। मामले को सुलझाने के लिए
संविधान के दायरे में ही कोशिश करने को उचित समझता है। यह इस देश में ही
संभव है कि मामला लडऩे वाले दोनों पक्ष एक ही रिक्शे में बैठकर अदालत
जाया करते थे। आस्था के मामले में राजनीति नहीं होती तो विवाद कब का सुलझ
भी जाता लेकिन फिर भी भारतीयों ने आस्था के मामले में भी जिस जिम्मेदारी
का परिचय दिया है, वह काबिले तारीफ है। नही  तो दुश्मन तो यही समझते थे
कि ये आपस में प्रेम  से रह ही नहीं सकते। भारतवर्ष में हिंदू, मुसलमान,
सिक्ख, ईसाई जिस प्रेम  से रहते हैं, उसे तो एक उदाहरण की तरह दुनिया में
देखा जाता है। जिन लोगों ने सोचा था कि विविधतापूर्ण यह देश कभी एक नहीं
रह सकता और स्वतंत्रता इनसे संभाले नहीं संभलेगी, वे आश्चर्य से देखते
हैं कि विविधता के बावजूद, मतभिन्नता के बावजूद भी भारतीयों में स्नेह
बंधन बहुत मजबूत है।

धर्म के नाम पर पाकिस्तान बनाने के बावजूद आज भारत में पाकिस्तान से
ज्यादा मुसलमान रहते हैं। आजादी और स्वतंत्रता का उसी तरह उपभोग करते हैं
जिस तरह से आम भारतीय करता है। कानून कायदा सबके लिए समान है। सबको अपने
अनुसार अपनी उपासना पद्घति से ईश्वर को याद करने की सुविधा है। भाईचारा
तो ऐसा है कि सभी एक दूसरे के धार्मिक उत्सवों, सामाजिक कार्यक्रमों में
सम्मिलित होते हैं। फलते फूलते प्रजातंत्र और विकसित होते राष्ट्र  को
देखकर दुनिया आश्चर्य करती है कि इतनी संभावनाओं के बावजूद भारत उस स्थान
को प्राप्त करने में पीछे क्यों है ? जिसका वह वास्तविक हकदार है, लेकिन
अब जब राष्ट्र  ने विकास की गति पकड़ ली है तो कितने ही हैं जिन्हें भारत
का विकास फूटी आंख नहीं सुहाता। धर्म के नाम पर अलग राष्ट्र  बनाने वाले
आज कहां खड़े हैं और धर्म निरपेक्षता को स्वीकार कर भारत कहां खड़ा है।
राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद का मामला भी सुलझेगा। न सुलझें ऐसी फितरत
भारतीयों की नहीं है। यह कितनी बड़ी बात है कि न्यायालय पर सबका भरोसा
है। मतलब यह बात साफ है कि अन्याय किसी के साथ नहीं होगा। किसी को भी
असंतोष की भट्टी  सुलगाकर अपनी रोटी नहीं सेंकने हैं। 18 वर्ष पूर्व हुए
खून खराबे से नसीहत तो भारतीयों ने ली है। भावनाओं की आड़ में भड़काने
वालों से भी लोग सावधान हैं। दरअसल तो भावनाओं को भड़काने वाले ही सावधान
हैं कि उन्होंने ऐसी कोशिश की तो उनकी खैर नहीं। ऐसा न हो कि सशस्त्र बल
तो बाद में कार्यवाही करे, उसके पहले ही जनता ही ऐसे लोगों को सबक सिखा
दे। सरकार तो सतर्क है, ही। जनता भी सतर्क है और किसी  भी कीमत में ऐसे
लोगों को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है जो भावनाओं को भड़काने का
प्रयास करें?

सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील ने तो स्पट कर दिया है कि वे उच्चतम न्यायालय
के अंतिम फैसले को मानेंगे। इसके साथ ही उन्होंने यह बात भी कही है कि
उच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी बातचीत हो सकती है। तब बात दूसरी होगी।
क्योंकि न्यायालय का फैसला भी सामने होगा। मुख्य रूप से यह मामला एक सौ
तीस फुट गुणा 90 फुट की उस जमीन का मामला है। जहां कभी बाबरी मस्जिद
स्थित थी और उसमें रामलला की मूर्ति रखी हुई थी। मामला यही है कि कानूनी
दृष्टि से इस जमीन पर मालिकाना हक किसका है। न्यायालय ने सभी गवाह, जमीन
से संबंधित कागजातों को देखकर तय कर लिया है कि उसका फैसला क्या होना
चाहिए ? मामला उच्चतम न्यायालय के स्थगन के कारण रूक नहीं गया होता तो
फैसला 24 सितंबर को ही आ जाता। उच्चतम न्यायालय ने फैसले पर जब स्थगन
दिया था तब कोई भी पक्ष इस स्थगन के पक्ष में नहीं था। सभी चाहते थे कि
फैसला शीघ्र आए और तय हो जाए कि कानून की दृष्टि में मालिकाना हक किसका
है।

मामले को सुलझाने के तीन ही तरीके हैं। या तो दोनों पक्ष आपसी रजामंदी से
मामला निपटाएं या फिर न्यायालय तय करे या फिर सरकार संसद से कानून बनाकर
फैसला करे। निश्चित रूप से सबसे अच्छा तरीका तो आपसी रजामंदी का ही है।
आपसी रजामंदी से तय हो जाता तो प्रेमभाव और बढ़ता ही। नहीं हुआ तो
न्यायालय के अंतिम फैसले को सबको मानना चाहिए। इससे न्याय की प्रतिष्ठा
ही बढ़ेगी। भारतीयों की न्यायप्रियता की प्रतिष्ठा  बढ़ेगी। दुनिया में
भारत की एक छवि बनेगी कि भारतीय न्याय पर चलने वाले लोग हैं। वे न तो
किसी के साथ अन्याय करते और न ही किसी के अन्याय को बर्दाश्त करते। उच्च
न्यायालय के फैसले के बाद आपसी रजामंदी से भी सर्व स्वीकार्य कोई रास्ता
निकलता है तो इससे भारत की प्रतिष्ठा  में चार चांद ही लगेंगे। फैसला
भारतीयों को ही करना है।

- विष्णु सिन्हा
29-09-2010

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

हत्या की धमकी के बल पर अपनी मांग मनवाने के बदले हिंसा त्याग कर मुख्यधारा में सम्मिलित हो

प्रजातंत्र में मिली आजादी के कारण कोई भी कुछ भी कहने के लिए आजाद है।
कहने के लिए ही क्यों करने के लिए भी आजाद है। काश्मीर में अलगाववादी
आजादी की बात करते हैं। भारत से अलग होने की बात करते हैं। स्वतंत्रता
दिवस पर राष्ट्रीय  झंडा नहीं, पाकिस्तानी झंडा लहराते हैं। पाकिस्तान
जिंदाबाद के नारे लगाते हैं। सुरक्षा बलों के जवानों को पत्थर फेंक कर
मारते हैं। सरकार स्कूल कॉलेज में पढ़ाई प्रारंभ कराती है तो अलगाववादी
कहते हैं कि लोग अपने बच्चों को स्कूल न भेजें। फिर भी बच्चे स्कूल जाते
हैं। यह बात दूसरी है कि सभी नहीं जाते लेकिन जाना नहीं चाहते, ऐसी बात
नहीं है। लोग शांति के साथ भारत के साथ रहना चाहते हैं। वे चुनाव में
मतदान कर अपनी सरकार बनाते हैं लेकिन चंद लोगों को यह सब नागवार लगता है
और वे उत्पात मचाने के लिए लोगों को बाध्य करते हैं। इसके बावजूद भारत
सरकार अपनी तरफ से सहानुभूति दिखाती हैं और 100 करोड़ रुपए की मदद करती
है।

भारत का हर नागरिक काश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानता है तो
अंतर्राष्ट्रीय  पुरस्कार प्राप्त लेखिका अरुंधति राय कहती है कि काश्मीर
भारत का कभी अंग रहा नहीं है। जब काश्मीर के राजा ने भारत के साथ विलय की
घोषणा कर दी तब काश्मीर भारत का अंग कैसे नहीं रहा? भारत के सभी राजाओं
ने इसी तरह से तो भारत में अपने राज्य का विलय किया था। अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का पूरी तरह से दुरुपयोग कर स्वयं को चर्चित बुद्धिजीवी
प्रदर्शित करने का यह तरीका आम भारतीय को तो स्वीकार नहीं हो सकता।
अरुंधति राय नक्सलियों का भी समर्थन करती हैं। नक्सली सशस्त्र बल के
सिपाहियों और निर्दोष नागरिकों को मारें तो कोई गलत काम नहीं करते लेकिन
सशस्त्र बल के सिपाहियों के द्वारा मुठभेड़ में नक्सली मारे जाएं तो गलत।
सिपाहियों का अपहरण कर और उन्हें मार कर सरकार को अपनी मांगें मानने के
लिए नक्सली बाध्य करे तो सही और सरकार नक्सलियों को पकड़कर न्यायालय में
मुकदमा चलाए तो गलत।

गनीमत है पुलिस बल नक्सलियों के नक्शे कदम पर नहीं चलता। वह तो उन्हीं को
मारता है जो उसे मारने के लिए गोलियां चलाते हैं। जो समर्पण कर देते हैं,
उन्हें तो गिरफ्तार कर न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। पिछले
दिनों ही न्यायालय में मामला सिद्ध न होने पर नक्सलियों को न्यायालय ने
रिहा कर दिया। पुलिस बल भी यह सोचने लगे कि कहां गिरफ्तार करना और मुकदमा
चलाना। यह तो हमें मार ही डालते हैं तो हम भी नक्सलियों को पकड़ें तो मार
दें। नक्सलियों के पथ पर चल कर पुलिस भी नक्सलियों के साथ नक्सलियों की
तरह व्यवहार करने लगे तो पता चल जाएगा कि नक्सली कैसे नक्सली होने का
लबादा छोड़ कर भाग खड़े होते हैं। पुलिस तो इंसानियत का प्रदर्शन करने
में भी पीछे नहीं हैं। पिछले दिनों जब मुठभेड़ के बाद एक घायल नक्सली
पकड़ में आया तो पुलिस ने न केवल अस्पताल में उसका उपचार कराया बल्कि उसे
आवश्यकता होने पर पुलिस जवान ने अपना खून तक दिया।

7 पुलिस के जवानों को नक्सलियों ने पकड़ा और उनमें से 3 को मार कर फेंक
दिया। अब 4 जवानों को वे जिंदा छोडऩे के लिए तभी तैयार होंगे जब उनकी
मांग सरकार माने। सरकार, नेता, समाजसेवी, यहां तक कि पुलिस जवानों का
परिवार भी नक्सलियों से अपील कर रहा है कि जवानों को छोड़ दिया जाए।
जवानों का परिवार तो आंध्र पहुंच कर कवि बारबरा तक से फरियाद कर चुका।
बारबरा ने भी अपील की है कि जवानों को छोड़ दिया जाए। सरकार कहती है कि
हथियार छोड़ो और बातचीत करो। क्या गलत कहती है? उसने तो आत्मसमर्पण करने
वाले नक्सलियों के लिए आर्थिक पैकेज की भी घोषणा कर रखी है। सरकार तो
पूरी दरियादिली दिखा रही है। वह कहती है कि नक्सली अपने ही लोग हैं। उनसे
कोई बैर भाव नहीं हैं। उनकी कोई भी वाजिब मांग हो तो सरकार नहीं मानेगी,
ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है। यदि नक्सलियों की नीयत में खोट नहीं है
तो वे हिंसा त्याग कर सरकारों से चर्चा को आगे आएं। खूनी खेल बंद करें।
नक्सली तो काश्मीरियों का भी समर्थन करते हैं। अलगाववादी काश्मीरियों का।
पिछले दिनों जो राजनांदगांव के पास नक्सलियों के हथियार बरामद हुए हैं,
उनमें हथगोले भी मिले हैं। जो चीन के द्वारा निर्मित है। इसका क्या यह
मतलब नहीं निकलता कि चीन इन नक्सलियों का समर्थन करता है। ठीक उसी तरह से
जिस तरह से अलगाववादी काश्मीरियों का पाकिस्तान करता है। यह बात तो
स्पष्ट हो चुकी है कि काश्मीर में जो लोग सुरक्षा बलों पर पत्थर चला रहे
हैं, उसके लिए धन पाकिस्तान से आ रहा है। भारत सरकार कितना भी इन हिंसक
लोगों को अपना समझें लेकिन ये लोग अपनत्व प्रगट कहां कर रहे हैं? एक हाथ
से तो ताली बज नहीं सकती। जो ताकत के बल पर अपने अनुसार लोगों को चलाना
चाहते हैं, उनका तो प्रजातंत्र पर ही विश्वास नहीं है। संविधान पर
विश्वास नहीं है। उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने के सिवाय चारा क्या
रह जाता है? जो भी नक्सलियों के हाथों मारे जा रहे हैं, उनकी संतानें यह
कैसे भूल सकती हैं कि उन्हें अनाथ करने वाले कौन थे? सरकार में बैठे लोग
तो फिर भी भलमनसाहत का परिचय दे रहे हैं। नहीं तो आम आदमी न तो हिंसा को
पसंद करता और न हिंसक गतिविधियों में संलग्न लोगों को।

रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद के मामले में ही हर तरह की हिंसा से दूर की
सोच व्यक्त हो रही है। आम हिन्दू और आम मुसलमान नहीं चाहता है कि इस
मामले को लेकर किसी तरह के हिंसक उत्पात हो। आज सभ्य समाज में हिंसा घृणा
का ही स्थान रखती है। दुनिया को अहिंसा का सिद्धांत भारत ने ही दिया। आम
भारतीय अहिंसा पर ही विश्वास करता है लेकिन फिर भी चंद लोग हिंसा से
लोगों को भयभीत कर अपने अनुसार चलाना चाहते हैं तो ऐसे लोगों के प्रति आम
सहमति संभव नहीं है। पिछले 63 वर्षों में प्रजातंत्र की जड़ें भारत में
और मजबूत हुई हैं। लोग वोट देकर सरकार बनाना और गिराना सीख गए हैं। समय
कितना भी लगे लेकिन विजयी होती दिखायी देने वाली हिंसा भी एक दिन दम तोड़
देती है। बड़े-बड़े हिंसक लोग पैदा हुए, इस धरती पर लेकिन वक्त ने उन्हें
नायक नहीं खलनायक ही सिद्ध किया। पृथ्वी में सबसे प्राचीन संस्कृति
सभ्यता भारत की है। कितने ही युद्ध इस सरजमीं पर हुए लेकिन अंत में सब
शांति में ही तब्दील हो गए। अब तो बात पूरी तरह से बदल गयी है। दुनिया का
ही मिजाज बदल गया है। युद्ध का अर्थ भी सभी की समझ में अच्छी तरह हैं।
ऐसे में अपनी मांग न मानने पर नक्सली 4 जवानों की हत्या तो कर सकते हैं
लेकिन अपने उद्देश्य में इस कृत्य से सफल हो जाएंगे, यदि यह उनकी सोच है
तो उनके हाथ नाउम्मीदी ही लगेगी। हिंसा के विरुद्ध सरकार का संघर्ष बंद
होने वाला नहीं है। अच्छा यही है कि इस तरह के कृत्यों से सरकार को
झुकाने की मंशा का त्याग कर नक्सली अच्छी तरह से सोच विचार करें। अंतत:
उनके हाथ मौत या जेल की सलाखें ही आने वाली है। इससे तो अच्छा है कि
सरकार से बिना शर्त हिंसा त्याग कर बातचीत करें और मुख्यधारा में
सम्मिलित हो।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 28.09.2010
----------------

सोमवार, 27 सितंबर 2010

राजस्थानी और भोपाली समाचार पत्र की जंग नियम कायदों को ताक पर रख रही है

बाहर से आकर छत्तीसगढ़ में समाचार पत्र का व्यवसाय करने वाले दो समाचार
पत्रों में प्रतिद्वंदिता के फलस्वरुप एक समाचार पत्र आरोप लगा रहा है कि
इसके हॉकरों से समाचार पत्र छीना जा रहा है। बंटने से रोका जा रहा है।
मतलब साफ है कि कानून कायदों की धज्जियां उड़ायी जा रही है। जो समाचार
पत्र सब तरफ गलत ही गलत खोजते हैं और प्रकाशित करते हैं, वे अपने
अस्तित्व के लिए गलत करने से भी नहीं रुकते। जिस तरह से केबल आपरेटर
वर्चस्व के लिए अक्सर लड़ते रहे हैं और शांति व्यवस्था के लिए प्रशासन को
भी हस्तक्षेप करना पड़ता रहा है, वैसा ही हस्तक्षेप यह प्रतिद्वंदिता
बढ़ी तो समाचार पत्रों के भी मामले में करना पड़ेगा। बाकायदा थाने में
रिपोर्ट भी दर्ज हो रही है। शासन प्रशासन के लिए यह नई मुसीबत है।
लड़ेंगे समाचार पत्र और हस्तक्षेप प्रशासन को करना पड़ेगा तो दबाव की
राजनीति भी काम करेगी। प्रशासन सही का साथ देता है तो गलत काम करने वाला
प्रशासन की छवि खराब करने की कोशिश तो कर ही सकता है।
आज जो छत्तीसगढ़ में प्रतिद्वंदिता दिखायी पड़ रही है, इसकी जड़
छत्तीसगढ़ में नहीं है बल्कि इसकी जड़ें राजस्थान और भोपाल में हैं।
मध्यप्रदेश के समाचार पत्र ने जब राजस्थान से अपना संस्करण प्रारंभ किया
और राजस्थान में पहले से ही स्थापित समाचार पत्र से आगे निकल गया तब ही
प्रतिद्वंदिता का बीजारोपण हो गया। स्वस्थ प्रतिद्वंदिता हो तो किसी को
भी कोई आब्जेक्शन नहीं हो सकता लेकिन प्रतिद्वंदिता जब गलाकाट में बदल
जाती है तब लोग नैतिक मूल्यों का परित्याग करने में भी पीछे नहीं रहते।
हर हाल में जिन्हें बड़ा रहना है, वे निम्र स्तर पर भी उतरने में पीछे
नहीं रहते। फिर संस्कारों का भी बड़ा फर्क होता है। जो जिस तरह के
संस्कारों में पला बढ़ा हो, वह समाज में प्रतिष्ठï प्राप्त करने के
बावजूद अपने संस्कारों को छोड़ नहीं पाता।

यह तो तय दिखायी दे रहा है कि नया राजस्थान से आया समाचार पत्र पहले से
जमे भोपाल के समाचार पत्र की नींद हराम कर रहा है। भोपाल में वह तिगनी का
नाच नचा ही चुका है। छत्तीसगढ़ में भी वह दिन दूर नहीं जब राजस्थानी
समाचार पत्र भोपाल के समाचार पत्र का स्थापित स्थान छीन ले। उसने तो नारा
ही दिया हुआ है कि जब 40 रुपए में माह भर अखबार मिलता है तब 90 रुपए खर्च
करने की क्या जरुरत? जहां तक उपभोक्ता का प्रश्र है तो उसे अच्छा,
उपयोगी, सुंदरमाल 40 रुपए में मिले तो वह 90 रुपए क्यों खर्च करेगा? देर
से ही सही स्थापित रहना है तो पहले से स्थापित समाचार पत्र को अपनी कीमत
कम करना पड़ेगा। 2 लाख से अधिक प्रतियां प्रतिदिन बेचने का जिसका दावा है
वह कीमत कम करता है तो उसे 50 रुपए प्रति समाचार पत्र का नुकसान होगा।
मतलब 1 लाख रुपए प्रतिदिन।

धमकी चमकी से तो अखबार का प्रसार रोका नहीं जा सकता बल्कि इस तरह के
कृत्य सहानुभूति के साथ पाठक की उत्सुकता भी जगाएंगे कि आखिर क्यों
बांटने से रोका जा रहा है? जब राजस्थान से चल कर कोई समाचार पत्र रायपुर
आया है और वह समाचार पत्र के धंधे की ऊंच नीच अच्छी तरह से समझता है तब
वह तमाम स्थितियों का अच्छी तरह से आंकलन कर ही नहीं आया होगा बल्कि कमर
कस कर भी आया होगा। गांठ में पूरी रकम भर कर लाया होगा। राजस्थानी की
घबराहट ऐसी है कि भोपाली उत्सव करा रहा है। नाच गाने के साथ कॉमेडी के
कार्यक्रम करवाकर पाठकों को अपने पक्ष में रखने का पूरा प्रयत्न कर रहा
है। समाचार पत्र के पृष्ठ भी बढ़ गए हैं। हर वह प्रयत्न किया जा रहा है
जिससे राजस्थानी को ठौर रखने के लिए जगह न मिले।

अभी तक राजनीति ही जातिवाद के साए में अपना भविष्य देखती थी लेकिन अब
समाचार पत्र भी जातिवादी संरक्षण की तलाश करते हैं। कोई अग्रवालों का
समाचार पत्र है तो कोई जैनियों का तो कोई माहेश्वरियों का। ये धनाढ्य
वर्ग के लोग हैं और स्वाभाविक रुप से अपनी जाति के मालिक समाचार पत्र को
सहयोग की भी आकांक्षा रखते हैं। समाचार पत्र भले ही सर्वहिताय की बातें
करें लेकिन उनकी निष्ठा छुपती नहीं है। कोई अखबार कहता है कि आर.डी.ए. ने
करोड़ों की जमीन गरीबों की दबाई। लगता है कितना गरीबों का हितैषी है
लेकिन वह यह नहीं बताता कि उसने कितनी जमीन दबा रखी है। कभी शहर के
हृदयस्थल में एक लाख रुपए एकड़ के भाव से एक एकड़ जमीन प्राप्त करने
वालों का एक मन एकड़ जमीन से भी कहां भरा। वर्षों तक दस हजार फुट जमीन और
दबा कर रखी गयी थी। कोई पात्रता न होने के बावजूद सरकार से दस हजार फुट
जमीन और आबंटित करा ली गई। पुरानी बिल्डिंग तोड़कर नया कॉमर्शियल
कॉम्प्लेक्स बनाया जा रहा है। यह तो सरकार के ही और प्रशासन के देखने की
बात है कि कितना नियम कायदों का पालन कर भवन, सरकार से सस्ती दर पर
भूमि प्राप्त कर बनाया जा रहा है।

कभी छत्तीसगढ़ में प्रसार की दृष्टि से नंबर एक रहे समाचार पत्र ने
अग्रिम आधिपत्य के नाम पर ही 25 वर्षों से अधिक समय से जमीन पर न केवल
आधिपत्य किया हुआ था बल्कि अच्छी खासी कमायी भी बैंक को किराए पर देकर कर
रहा है। कांग्रेसी सरकारों के जमाने में उसका मन एक एकड़ भूमि से नहीं
भरा तो उसने अपने अंग्रेजी दैनिक के नाम पर भी आधा एकड़ जमीन अग्रिम
आधिपत्य के नाम पर ले लिया था। कभी कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे नेता के
भाई को भी एक एकड़ जमीन अग्रिम आधिपत्य में मिल गयी थी। इनका भी भव्य
कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स बन कर तैयार है। समाचार पत्र के नाम से जमीन
हथियाने वालों के और भी किस्से हैं और पूरी बेशर्मी से नियम कायदों को
ताक पर रखकर अच्छा खासा किराया प्राप्त किया जा रहा है। सरकारी निगम के
दफ्तर तक इनके भवनों में किराए पर हैं।

समाचार पत्रों में नित्य किसी न किसी की पोल खोली जाती है। बताया जाता है
कि फलां कितना भ्रष्ट है लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि दिया तले अंधेरा
होता है। छत्तीसगढ़ में सत्य का अलख जगाने वाले अधिकांश समाचार पत्रों का
मुख्यालय छत्तीसगढ़ नहीं हैं। सरकार और उससे संबंधित संस्थानों के
विज्ञापनों पर ये पूरी तरह से काबिज हैं। करीब-करीब 70 प्रतिशत से अधिक
शासकीय धन इन्हीं की तिजौरी में जाता है। दरअसल जो गलाकाट प्रतियोगिता
है, यह सीधे-सीधे व्यवसायिक प्रतिद्वंदिता है। जिसके पास अधिक प्रसार
संख्या होगी, वही बड़ा और हर तरह के संसाधनों पर उसी का विशेषाधिकार। कौन
इनके विरुद्ध आवाज उठाए? आवाज कोई उठाने की कोशिश करे तो उसकी खैर नहीं
लेकिन देर भले ही हो, लोगों की आंखों में चुभ तो रहा है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 27.09.2010
---------------


कुकुरमुत्ते की तरह नित्य नए उगते समाचार पत्रों के कारण स्थानीय समाचार पत्र उपेक्षा के शिकार

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद जिस तरह की मलाई छत्तीसगढ़ में दिखायी पड़
रही है, उसे देखकर छत्तीसगढ़ के बाहर के लोगों की लार टपक रही है। हर
क्षेत्र में बहुतायत से धन कमाने के अवसर देखकर लोग आकर्षित हो रहे हैं।
सीधे सादे ढंग से व्यवसाय करने वाले ही नहीं बल्कि अपराधी भी ललचायी
निगाहों से छत्तीसगढ़ की तरफ देखते हैं। फिर विकसित होते छत्तीसगढ़ की
तरफ मीडिया के लोग आकर्षित न हों, ऐसा कैसे हो सकता है? मीडिया जिनके लिए
आड़ और सम्मान का देयक हो, वे तो और ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं। राजधानी
रायपुर और उसके माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ में पांव पसारते मीडिया
व्यवसायी स्पष्ट दिखायी देते हैं। कभी छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में अपना
विशेष स्थान रखने वाले समाचार पत्रों का प्रतियोगिता में ना ठहर पाना और
स्थान खाली करते जाना भी साफ-साफ दिखायी देता है।

कोई नागपुर से तो कोई भोपाल से आकर छत्तीसगढ़ में अपने समाचार पत्र का
प्रकाशन करता था। यह तब की बात है जब छत्तीसगढ़ में कोई बहुत ज्यादा
स्कोप दिखायी नहीं देता था। तब भी छत्तीसगढ़ में जन्में समाचार पत्र अपना
विशेष स्थान तो रखते थे लेकिन मध्यप्रदेश में जब छत्तीसगढ़ की तरफ
आकर्षित न होने वाले भी अब छत्तीसगढ़ की तरफ भागे चले आ रहे हैं। कोई
हरियाणा से आया है तो कोई इंदौर से। अब तो राजस्थान से  एक समाचार
पत्र आ गया है। खबर तो यह भी है कि अस्पताल के धंधे से अच्छा खासा धन
उपार्जित करने वाला व्यवसायी भोपाल से रायपुर आकर अपना समाचार पत्र
प्रकाशित करने का इरादा रखता हैं। एक विख्यात बिल्डर भी ऐसी मंशा भोपाल
में प्रगट कर रहा है। अपने दूसरे व्यवसायों को आड़ और संरक्षण देने के
लिए, शासन पर दबाव कायम रखने के लिए समाचार पत्र एक अच्छा माध्यम बन गया
है।

समाचार पत्र के नाम पर अधिक से अधिक सुविधाएं सरकार से प्राप्त करना
सिर्फ समाचार पत्र के लिए ही नहीं, अपने अन्य कारोबार के लिए या अन्य
कारोबारियों से समाचार पत्र के नाम पर धन उगाहना छत्तीसगढ़ में आसान 
दिखायी देता है। छत्तीसगढ़ का हितचिंतक होने का मुखौटा लगा लेना समाचार
पत्र के लिए कोई कठिन काम नहीं है। बल्कि इसी तरह के मुखौटे की आड़ में
तो सरकार को भी धमकाया चमकाया जा सकता है। आजकल बड़े अखबार छोटे साइज के
12 से 16 पृष्ठ का अलग से परिशिष्ट अंग्रेजी नाम रखकर और दो पृष्ठ
अंग्रेजी में छाप कर दे रहे है। इसमें विशेष कर एक मुखपृष्ठ की कहानी
प्रकाशित करते हैं जिसमें शासन प्रशासन के विभागों की दुर्दशा,
भ्रष्टïचार की कहानी होती है। एक पंथ दो काज। पाठकों को बताना कि वे
उनकी समस्याओं को उठा रहे हैं और सरकार को बताना कि हम तुम्हारी धज्जियां
उड़ा सकते हैं। बहुत पुरानी बात नहीं है जब इस तरह के समाचार साप्ताहिक
समाचार पत्रों में ही प्रकाशित होते थे और दैनिक सम्मानित अखबार इस तरह
की पत्रकारिता को पीत पत्रकारिता कहा करते थे। छोटे समाचार पत्रों को
ब्लैक मेलर बताया करते थे।

समाचार पत्रों की आपसी प्रतिद्वंदिता यह हाल है कि अब समाचार पत्र
उपभोक्ता सरकारी बन गया है और जिस तरह से उपभोक्ता सामग्री बेची जाती है
उस तरह से अखबार की प्रसार संख्या बढ़ाने की कोशिश की जाती है। सब तरफ
महंगाई का होना है लेकिन कितने आश्चर्य की बात है कि समाचार पत्र की
कीमतें बढ़ाऩे की कोशिश करती हैं तो नया आने वाला समाचार पत्र बढ़ती कीमतों
पर लगाम ही नहीं लगाता बल्कि कम करने के लिए भी, यदि टिके रहना है,  तो बाध्य
करता है। कोई अखबार के साथ कुर्सी बांटता है तो कोई बैग तो कोई गिलासों
का सेट और कोई कोई तो बाल्टी भी बांटता है। कैसे प्रसार संख्या अधिक से
अधिक हो इसके लिए सब तरह के उपाय किए जाते हैं। जो समाचार पत्र अपने लागत
मूल्य के हिसाब से 10 रुपए में भी नहीं मिल सकता, वह डेढ़ रुपए में अन्य
सुविधा के साथ मिलता है। इसके साथ ही यह दावा करने में भी कोई पीछे नहीं
है कि वही सबसे बड़ा अखबार है।

सबसे बड़ा अखबार का मतलब होता है, सबसे ज्यादा प्रसार संख्या। असली बात
ही प्रसार संख्या रह गयी हैं और इसी प्रतियोगिता में पाठकों को कम कीमत
पर समाचार पत्र मिलते हैं। ज्यादा प्रसार संख्या से विज्ञापनदाता भी दबता
है और सरकार के साथ उसके कर्मचारी भी दबते हैं। तब मनमाना काम करवा लेना
क्या कठिन काम होता है। जब एक की पोल खोलो और उसे  कानून के शिकंजों में
कस दो तो दूसरे वैसे ही भयभीत हो जाते हैं। फिर अखबार के नाम से ही पसीना
छूटने लगता है। अखबार उस हथियार की तरह बन गया हैं जो सही हाथों में रहे
तो जनता का कल्याण करे और गलत हाथों में रहे तो नुकसान पहुंचाएं। सेना के
हाथ में बंदूक देश की रक्षा के लिए होता है लेकिन आतंकवादी के हाथ में
बंदूक देश की सुरक्षा के लिए ही खतरा होता है। अब बंदूक का.... कहां तक
प्रश्र है तो वह बंदूक है। यह तो चलाने वाले पर निर्भर करता है कि वह किस
उद्देश्य से चलाता है।

आजकल तो कई कई संस्करणों के समाचार पत्र हो गए। करोड़ों नहीं, अरबों के
समाचार पत्र हो गए। इनकी गलाकाट प्रतियोगिता एक दूसरे का गला काटने के
लिए तो उतारु है ही, छोटे समाचार पत्रों को तो नेस्तनाबूद करने की फिराक
में है। जब देश स्वतंत्र हुआ तब देश के हुक्मरान छोटे समाचार पत्रों को
संरक्षण देने की बात करते थे। कुछ हद तक संरक्षण देते भी थे। लेकिन अब जब
देश ने समाजवादी व्यवस्था को छोड़ कर पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था को
स्वीकार कर लिया है, तब लघु उद्योग संकट का ही सामना कर रहे हैं। ऐसे ही
छोटे समाचार पत्र भी संकटों से घिर रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को
इनके संरक्षण के विषय में भी सोचना चाहिए। केंद्र सरकार जो पहले समाचार
पत्रों को 4 माह बाद ही विज्ञापन की पात्रता देती थी, अब उसने नियमों में
परिवर्तन कर दिया है और 3 वर्ष तक जो समाचार पत्र  बिना केंद्र
सरकार के विज्ञापनों के प्रकाशित हो सकता है, वही पात्रता रखता है और आजकल तो नए
समाचार पत्रों को एडजस्ट करने की भी नीति नहीं है लेकिन बड़े समाचार
पत्रों पर ये नियम लागू नहीं होता। जो पहले से ही निकल रहे हैं, वे यदि
75 हजार से अधिक प्रसार संख्या रखते हैं तो उन्हें दूसरे संस्करण निकालने
पर तुरंत पात्रता मिल जाती है। साफ मतलब है कि बड़ों के लिए सब कुछ और
छोटों का भगवान मालिक।

छत्तीसगढ़ में पांव पसारते बाहर से आए समाचार पत्रों की तुलना में
स्थानीय समाचार पत्रों को छत्तीसगढ़ सरकार को पर्याप्त संरक्षण देना
चाहिए। छत्तीसगढ़ निर्माण के लिए बढ़ चढ़ कर आंदोलन को समर्थन देने वाले
आज ठगा सा महसूस करते हैं। चतुर चालाक लोग किस तरह से संसाधनों पर कब्जा
जमा कर सब कुछ लूट लेने पर आमादा हैं तो कहीं न कहीं यह बात  तो पैदा होती
ही है कि क्या छत्तीसगढ़ पृथक राज्य इन लोगों के लिए ही बना था। क्या
अपने अधिकारों के लिए छत्तीसगढ़ के समाचार पत्रों और वासियों को संघर्ष
करना पड़ेगा। अच्छा तो यही है कि संघर्ष करने के पहले ही न्यायोचित
निर्णय लिया जाए और सरकार का कर्तव्य है कि वह स्थानीय को संरक्षण दें।
क्योंकि छत्तीसगढ़ के लोगों को यही जीना है, यही मरना है, इसके सिवाय
जाना कहां है?

विष्णु सिन्हा
दिनांक : 26.10.2010
---------------