यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 12 सितंबर 2010

सूचना के अधिकार के कारण ही प्रधानमंत्री कार्यालय को मंत्रियों की धनसंपदा की जानकारी देना पड़ा

सूचना के अधिकार कानून के तहत जब सुभाषचंद्र अग्रवाल ने केंद्रीय
मंत्रियों की संपत्ति का ब्यौरा मांगा तब प्रधानमंत्री कार्यालय ने
ब्यौरा देने से इंकार कर दिया था लेकिन केंद्रीय सूचना आयोग में अपील के
बाद ब्यौरा देने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय को तैयार होना पड़ा। कोन
मंत्री कितनी संपदा का मालिक है, यह तो जानने का अधिकार भारतीय नागरिकों
को होना ही चाहिए। जनता को पता तो चले कि कौन सा मंत्री कितना अमीर है और
कौन कितना गरीब। जिस लोकसभा में 200 से अधिक सदस्य करोड़पति हैं और फिर
भी वे वेतन, भत्तों में वृद्घि की मांग करते हैं, उनमें से ही तो कुछ
मंत्री भी हैं। मंत्रियों की संपत्ति की घोषणा से यह तो पता चल गया कि
किसके पास कितनी संपत्ति है लेकिन वास्तव में इनके पास इतनी ही संपत्ति
है, इसकी जांच भी होना चाहिए। एक विभाग तो कायदे से इसी के लिए होना
चाहिए जो विधायकों, सांसदों, मंत्रियों, सदनों के अध्यक्षों की आर्थिक
स्थिति की पूरी तरह से हमेशा जांच करे कि पद में आने के पहले इनके पास
कितनी धन संपदा थी और पद पर रहते हुए इनकी धन संपदा किस तरह से बढ़ रही
है या घट रही है।

इन जनप्रतिनिधियों के साथ नौकरशाहों की  भी इसी तरह से निगरानी की
व्यवस्था होना चाहिए। यदि जनप्रतिनिधियों और नौकरशाह ईमानदारी से काम
करें तो देश में व्याप्त भ्रष्टïचार को समाप्त भले ही न किया जा सके
लेकिन कम से कम तो किया जा सकता है। मनमोहन सिंह एक ईमानदार प्रधानमंत्री
माने जाते हैं। ईमानदारी का तकाजा है कि वे स्वयं तो ईमानदार रहें ही,
साथ अपने सहयोगियों की भी ईमानदारी पर नजर रखें। देश को आर्थिक विकास की
जितनी जरूरत है, उससे कम जरूरत भ्रष्टïचार पर निगरानी की नहीं है बल्कि
ज्यादा है। जिन पर करोड़ों के घोटालों का आरोप है वे अपनी लाखों की घोषणा
करते हैं तो इससे जनता सहमत नहीं होने वाली। करोड़ों रूपये चुनाव में
खर्च कर चुनाव जीतने वाले भी तो चुनाव खर्च चुनाव आयोग को सीमा में ही
दिखाते हैं। पकड़ में तो कोई नहीं आता। कालेधन की एक समानांतर सत्ता से
भी इंकार नहीं किया जा सकता।

वन विभाग के अदने से अधिकारी के यहां ही छापा पड़ता है तो करोड़ों की धन
संपदा का पता चलता है। एक अधिकारी के तो विभिन्न बैंकों के लाकर खोलने
में जब राजस्थान में 10 करोड़ रूपये नगद निकलते हैं तो पता चलता ही है कि
भ्रष्टïचार का क्या आलम है? लेकिन अभी तक तो किसी जांच एजेंसी ने किसी
मंत्री के घर पर छापा मारा और करोड़ों की धन संपदा प्राप्त की ऐसा उदाहरण
नहीं मिलता। फिर पकड़े भी ऐसे लोग जाते हैं जिन्हें भ्रष्टïचार से धन
उगाहना तो आता है लेकिन उसे सही ढंग से ठिकाने लगाना नहीं आता। देश भर
में जनता महंगाई को लेकर हाहाकार कर रही है तो महंगाई से बढ़ी कमायी भी
तो किसी न किसी की जेब में जा रही है लेकिन पकड़ में तो कोई नहीं आ रहा
है। चुनाव के लिए नामांकन फार्म भरते समय ही प्रत्याशी अपनी धनसंपदा की
घोषणा करता है और जीत जाने पर जब वह दोबारा उम्मीदवार बनता है तब उसकी
संपदा में जो इजाफा होता है, उसे तो पूछने वाला कोई नहीं है कि यह धन
संपदा आयी कहां से ?

एक सांसद जब संसद में तर्क देता है कि लाखों लोगों का प्रतिनिधित्व करने
के कारण उस पर आर्थिक बोझ बढ़ता है और वेतन भत्ते से काम नहीं चलता तब
उससे यह कोई नहीं पूछता कि जब वेतन से अधिक खर्च होता है तब भी उसकी
धनसंपदा कैसे बढ़ती जाती है? आय से खर्च अधिक हो तो धन कम होना चाहिए या
बढऩा चाहिए। यदि वह चंदा लेकर भी काम चलाता है तो आय व्यय का ब्यौरा रखता
है क्या और यह आय व्यय का ब्यौरा वह आयकर विभाग को देता है क्या ?
क्योंकि कानूनन तो धन कहीं से भी किसी भी रूप में प्राप्त किया जाए, उसका
विवरण आयकर विभाग को दिया जाना चाहिए । आय में से छूट भी उसी दान दक्षिणा
को मिलती है जो संस्थाएं आयकर से छूट की पात्र होती है। जब सांसद संसद
में कह रहे थे, वेतन वृद्घि की मांग को लेकर तो कह रहे थे शादी विवाह से
लेकर हर कार्यक्रम में उन्हें चंदा देना पड़ता है। अभी गणेश जी बैठे हैं,
फिर दुर्गा जी बैठेंगी तब ये नेता चंदा देते हैं, अपने क्षेत्र की
संस्थाओं को लेकिन कोई पूछने वाला तो नहीं है कि कहां से पैसा आता है और
कैसे खर्च होता है ? आयकर विभाग पूछने लगे तो यही प्रतिनिधि हल्ला
मचाएंगे कि आस्था पर आक्रमण हो रहा है ।

कानूनन तो आयकर विभाग के पास हर किसी के पास कितना धन है, जो आयकर की
सीमा में आता है, उसका रिकार्ड होना चाहिए। यह जिम्मेदारी हर नागरिक की
है कि वह ईमानदारी से आयकर पटाए और अपने आय और व्यय का विवरण आयकर विभाग
को दे लेकिन असल में तो छोटे शिकार ही आयकर के चक्कर में फंसते हैं।
सांसदों का वेतन भत्ता भी सरकार ने बढ़ा दिया है। मंत्रियों को तो हर तरह
की सुविधा सरकार देती ही है। इसके बावजूद गलत तरीके से धन कमाने के अवसर
कम नहीं हैं, उनके पास। अक्सर भ्रष्टïचार के आरोप भी लगते रहते हैं। आय
से अधिक संपत्ति के आरोप भी लगते हैं। यह तो उनकी बात है राजनैतिक द्वेष
का शिकार हो जाते हैं लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि जिन पर आरोप नहीं लगते
वे सभी दूध के धुले हुए हैं। निश्चित रूप से सूचना के अधिकार ने एक
घबराहट तो पैदा कर दी है। जिसके विषय में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी
मांगी जाती है, वही घबराने लगता है। जब प्रधानमंत्री कार्यालय अपने
मंत्रियों के विषय में जानकारी देने से कतराने की कोशिश करता है तो बाकी
लोगों के विषय में आसानी से समझा जा सकता है। निश्चित रूप से सरकार ने
सूचना का अधिकार कानून बनाकर जनता को ऐसा अधिकार दिया है जिसकी जितनी भी
तारीफ की जाए कम है। सूचना के अधिकार के तहत जानकारी न देने वाले या समय
पर जानकारी न देने वाले पर जुर्माने का भी प्रावधान किया गया है। इससे अब
अधिकांश मामले जनता के सामने उजागर होने का अवसर उपलब्ध हो गया है। पहले
बहुत सी जानकारी लोकसभा और विधानसभा में देने से इंकार कर दिया जाता है,
यह तर्क देकर कि जनहित में यह उचित नहीं है ।

मुझे याद आता है। मध्यप्रदेश में सुंदरलाल पटवा के मुख्यमंत्री बनने के
पहले कोई विधानसभा में प्रश्र करता था कि सरकार ने किस समाचार पत्र को
कितना विज्ञापन दिया तो सरकार का उत्तर होता था कि जनहित में यह बताना
उचित नहीं है और सदस्य इस तर्क को मानकर चुप रह जाते थे लेकिन 1989 में
मुख्यमंत्री बनने के बाद सुंदरलाल पटवा की सरकार से जब यह प्रश्र पूछा
गया तो सरकार ने सदन को बता दिया कि किस समाचार पत्र को उसने कितना
विज्ञापन दिया। राष्ट्रीय  हित और जनहित में बताने से इंकार के पीछे तो
असली कारण यही होता है कि बता देने से सरकार के कारनामों की पोल खुल जाती
है। जब मंत्री चुनाव लड़ता है तब वह नामांकन पत्र में अपनी और अपने
परिवार की धन संपदा की स्वयं घोषणा करता है। ऐसा न करे तो उसका नामांकन
ही रद्द हो जाए। तब मंत्री बनने के बाद उसकी जानकारी देने में क्या अड़चन
थी ? लेकिन ऐसा हुआ है, यही सत्य है। लेकिन सूचना आयुक्त के कारण जानकारी
देना तो पड़ा। प्रजातंत्र में वैसे भी सब कुछ खुला होना चाहिए। यही तो
उसकी खूबी है।

- विष्णु सिन्हा
11-10-2010