यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

अमेरिका की घटती और चीन की बढ़ती ताकत के कारण भारत के पास अपनी ताकत बढ़ाने के सिवाय और क्या चारा ?

हम गर्व कर सकते हैं, यह जानकर कि भारत दुनिया की सबसे बड़ी तीसरी ताकत
आज है और 2025 में भी भारत तीसरी बड़ी ताकत रहेगा। आज हमारी ताकत 8 फीसदी
है जो 2025 में बढ़कर 10 फीसदी हो जाएगी। अमेरिका आज दुनिया की सबसे बड़ी
ताकत है और उसके पास दुनिया की कुल ताकत का 22 फीसदी है। चीन दूसरी बड़ी
ताकत है और उसके पास आज दुनिया की कुल ताकत का 12 प्रतिशत है।  भारत 8 और
चीन 12 प्रतिशत का अर्थ होता है कि चीन की ताकत हमारी ताकत से डेढ़ गुना
है। भारत और चीन की ताकत को जोड़ भी दिया जाए तो 20 प्रतिशत होता है।
जबकि अमेरिका की ताकत 22 प्रतिशत है। मतलब साफ है कि आज दुनिया की दूसरी
और तीसरी ताकत मिल कर भी अमेरिका की ताकत से कम है लेकिन 2025 में स्थिति
बहुत कुछ बदल जाएगी। क्योंकि अनुमान यह कहता है कि तब अमेरिका की ताकत 18
प्रतिशत हो जाएगी जबकि चीन की 16 और भारत की 10 प्रतिशत हो जाएगी। जिसका
सीधा और साफ मतलब है कि चीन अमेरिका के लगभग समकक्ष खड़ा हो जाएगा।
भारत की ताकत 2 प्रतिशत बढ़ेगी तो चीन की ताकत 4 प्रतिशत और अमेरिका की
ताकत 4 प्रतिशत कम हो जाएगी। ये कोई ओलंपिक या कामनवेल्थ गेम्स के परिणाम
नहीं हैं कि कौन प्रथम, कौन द्वितीय या कौन तृतीय से फर्क नहीं पड़ता।
रूस के कमजोर होने के बाद जिस तरह से दुनिया का संतुलन बदला और
सर्वशक्तिशाली राष्ट्र  अमेरिका ही रह गया, उसके बाद दुनिया में निर्णयों
को लेकर अमेरिका की पूरी तरह से दादागिरी स्थापित हो गयी। फिर भी एक
प्रजातांत्रिक राष्ट्र  होने के कारण दुनिया के लिए अमेरिका किसी खतरे की
तरह नहीं हुआ बल्कि आतंकवाद का सबसे कड़वा स्वाद उसे ही चखना पड़ा। उसने
आतंकवादी नेता ओसामा बिन लादेन की खोज में अफगानिस्तान में अपनी फौज भेजी
और इराक में अपनी फौज भेजकर सद्दाम के शासन का खात्मा किया। फिर भी ओसामा
बिन लादेन को पकड़ पाने में अमेरिका अभी तक तो असफल ही सिद्घ हुआ। इससे
अमेरिका की प्रतिष्ठïा को नुकसान हुआ। उसने पाकिस्तान से दोस्ती की लेकिन
उसका जो लाभ उसे मिलना चाहिए था, वह भी नहीं मिला। पाकिस्तान अमेरिका और
चीन दोनों से दोस्ती का राग अलापता है और आतंकवादियों को जन्म देने का
कारखाना भी पाकिस्तान में ही है।

अमेरिका कुल जोड़ घटाना से अच्छी तरह से समझ रहा है कि पाकिस्तान ने उससे
दोस्ती का राग अलाप कर हर तरह का लाभ उठाया लेकिन उपहार में काश्मीर की
भूमि चीन को दी। आज काश्मीर का 44 प्रतिशत भाग भारत के पास है तो 36
प्रतिशत भाग पाकिस्तान के पास और चीन के पास 20 प्रतिशत भाग है। चीन ने
पाकिस्तान को परमाणु संपन्न राष्ट्र  बनाया। आज भी चीन पाकिस्तान में
परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगा रहा है।  ऐसा कोई समय आया कि पाकिस्तान को अपने
कब्जे वाला काश्मीर छोडऩा पड़ा तो वह उस पर भारत के बदले चीन का कब्जा
होना पसंद करेगा। चीन की विस्तारवादी नीति से सारी दुनिया अच्छी तरह से
परिचित है। भारत की लाखों वर्ग किलोमीटर भूमि पर उसने कब्जा किया हुआ है
और अभी भी उसका दावा समाप्त नही  हुआ है।

अमेरिका को यह बात तो अच्छी तरह से समझ में आ गयी है कि एशिया में उसका
कोई विश्वसनीय मित्र हो सकता है तो वह भारत ही है। इसीलिए भारत के प्रति
उसके झुकाव में वृद्घि हुई है। अमेरिका के साथ यूरोपीय संघों के देश भी
इस बात को अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि चीन की बढ़ती ताकत विश्व शांति के
लिए खतरा है। चीन पर यदि लगाम नही  लगाया जा सका तो उसकी विस्तारवादी
नीति सभी के लिए खतरा ही पैदा करेगी। चीन की आबादी दुनिया में सबसे अधिक
है और उसके बाद भारत का ही नंबर आता है। अनुमान तो यह लगाया जा रहा है कि
भारत और किसी मामले में चीन को पीछे छोड़े न छोड़े लेकिन जनसंख्या के
मामले में पीछे छोड़ देगा। कुछ दिन पहले ही समाचार पत्रों में आंकड़े
छपे थे कि 2025 तक चीन की आबादी का करीब 28 प्रतिशत हिस्सा 60 वर्ष से
ऊपर के बुजुर्गों का होगा। जिस प्रकार की शासन व्यवस्था चीन में है,
उसमें इन बुजुर्गों के पालने की जिम्मेदारी सरकार की है तब चीन की आर्थिक
स्थिति को इससे नुकसान पहुचेगा परंतु चीन में एक पार्टी की सरकार है और
इसे तानाशाही व्यवस्था कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसलिए चीन के
हुक्मरान अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए कुछ भी कर सकते हैं। एक
बार जिसे ताकत की भूख प्यास लग जाए, वह क्रूरता की हद को भी पार कर जाता
है। फिर राष्टहित में सब कुछ करने की आजादी प्राप्त कर लेता है।
आंकड़े और अनुमान के अनुसार ही प्रकृति के कारोबार नहीं चलते। सब कुछ
सामान्य रहा तब की स्थिति का आंकलन आज किया जा सकता है लेकिन सब कुछ ऐसा
ही रहेगा, जैसा आज है, यह कोई नहीं जानता। आज ही सब कुछ ठीक कहां है?
प्रकृति का प्रकोप तो चीन, भारत और पाकिस्तान सभी जगह दिखायी दे रहा है।
मनुष्य भी ऊपर ऊपर शांत भले ही दिखायी देता हो लेकिन असंतोष मन में सुलग
तो रहा है। राजनीति अपने स्वार्थ के लिए असंतोष को हवा देने में भी पीछे
नहीं है। और कोई मुद्दा न मिले तो धर्म को ही मुद्दा बनाकर अशांति फैलाने
की कोशिश भी  सर्वत्र दिखायी देती है। धार्मिक उन्माद फैलाने की कोशिश
भारत में ही नहीं अमेरिका में भी फैलाने की कोशिश करने वालों की कमी नहीं
है। प्राकृतिक प्रकोप बिना किसी धार्मिक भेदभाव के सबके साथ एक तरह का
व्यवहार करता है। आज जो दुनिया में ताकत का अनुमान लगाया जा रहा है, यह
भी प्रकृति के कहर के सामने किसको कितना ताकतवर बनाएगा या कमजोर यह तो
वक्त आने पर ही पता चलेगा।

कोई भी राष्ट्र  कितना भी शक्तिशाली हो गया लेकिन गरीबी तो कायम है। भारत
में ही गरीब हैं, ऐसा नहीं है। चीन और अमेरिका में भी गरीब हैं। वह तो
कहा ही गया है कि जब एक अट्टïलिका खड़ी होती है तो उसको बनाने वालों की
झोपडिय़ां भी पास में ही बनती है। जहां तक किसी भी तरह की शक्ति या ताकत
का प्रश्र है तो वह चंद लोगों की मुट्ठियों में ही कैद होती है। आम आदमी
उस ताकत का उपभोक्ता नहीं होता। पीडि़त पक्ष भले ही हो। ताकत यदि शांति,
सहृदय, करूणा को विस्तारित नहीं करती तो आततायी के हाथों में ताकत तो
इंसान के लिए सदा से खतरे का कारण रही है। भारत भले ही गर्व करे कि वह
दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी ताकत है और दिन ब दिन तो उसकी ताकत में वृद्घि
ही होगी लेकिन यह ताकत मूल्यों को स्थापित करने के काम आएगी या नष्ट
होते हुए सामाजिक मूल्यों का और बंटाधार करेगी। ताकत अक्सर तो अहंकार की
पोषक होती है लेकिन मजबूरी भी है। पड़ोस में दुर्दान्तों के पास ताकत बढ़
रही हो तो ताकत की दौड़ में शामिल होने के सिवाय चारा क्या है? भारत की
बाध्यता है कि चीन को अपनी सीमाओं तक बंधे रहने के लिए बाध्य करने के लिए
वह चीन से भी बड़ी ताकत बने। फिर इसकी कीमत आम जनता को जिस भी तरह से
चुकानी पड़े।

- विष्णु सिन्हा
22-09-2010