यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

बुधवार, 29 सितंबर 2010

भारतीयों को सर्व स्वीकार्य रास्ता निकालना चाहिए जिससे दुनिया में भारतीयों की प्रतिष्ठï में इजाफा हो

उच्चतम न्यायालय ने राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद मामले पर जो फैसले के
संबंध में स्थगन दिया था, उसे समाप्त कर दिया है और अब कल 30 सितंबर को
साढ़े तीन बजे इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंड पीठ 61 वर्षीय पुराने मामले
पर अपना फैसला सुनाएगी। मामले से संबंधित सभी पक्षों ने और सभी राजनैतिक
पार्टियों ने उच्चतम न्यायालय के आदेश का स्वागत किया है। सभी पक्ष एक
स्वर से फैसले के बाद शांति बनाए रखने की अपील कर रहे हैं। हर कोई यही कह
रहा है कि जीत की खुशी मनाने की जरूरत नहीं है। यह हार जीत का मामला ही
नहीं है। यह न्यायालय के निर्णय का मामला है और जो निर्णय से संतुष्ट
नहीं, उनके लिए उच्च्तम न्यायालय में अपील करने का रास्ता खुला हुआ है।
कोई भी   नहीं चाहता कि निर्णय को लेकर देश में अशांति का वातावरण तैयार
हो।

फिर भी सरकार सतर्क है। उसने अपनी तरफ से पूरी तरह से चाक चौबंद व्यवस्था
कर रखी है। संवेदनशील क्षेत्रों पर विशेष दृष्टि और सतर्कता है। यहाँ  तक
कि जमीन से ही नहीं आकाश से भी निगरानी की व्यवस्था सरकार ने की है।
उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, गुजरात, तमिलनाडू , केरल, महाराष्ट्र 
जैसे राज्यों में विशेष सतर्कता बरती जा रही है। यहां असामाजिक तत्व या
विदेशी ताकतें उत्पात मचाने की कोशिश कर सकती है लेकिन सरकार किसी को भी
मौका नहीं देना चाहती। अधिकांश जगहों में स्कूल, कालेज में छुट्टी  कर दी
गई है तो 144 धारा भी लगा दी गई है। उत्पात करने वालों को अच्छी तरह से
सोच लेना चाहिए कि सरकार ऐसे लोगों के प्रति किसी तरह की नर्मी का रूख
रखने का इरादा नहीं रखती। न्यूज चैनलों ने भी यदि इस तरह की कोई घटना
होती है तो उसे दिखाने से परहेज करने का निर्णय लिया है। स्वाभाविक रूप
से सरकार और सुरक्षा बलों के साथ मीडिया की भी बड़ी जिम्मेदारी है।
मीडिया इस मामले में पूरी तरह से जिम्मेदार साबित होगा, यही उम्मीद करना
चाहिए।

यह भारत में ही संभव है कि आस्था से जुड़े मामले पर निर्णय आने के बावजूद
कोई भी  पक्ष अशांति  और हिंसा पसंद नहीं करता। मामले को सुलझाने के लिए
संविधान के दायरे में ही कोशिश करने को उचित समझता है। यह इस देश में ही
संभव है कि मामला लडऩे वाले दोनों पक्ष एक ही रिक्शे में बैठकर अदालत
जाया करते थे। आस्था के मामले में राजनीति नहीं होती तो विवाद कब का सुलझ
भी जाता लेकिन फिर भी भारतीयों ने आस्था के मामले में भी जिस जिम्मेदारी
का परिचय दिया है, वह काबिले तारीफ है। नही  तो दुश्मन तो यही समझते थे
कि ये आपस में प्रेम  से रह ही नहीं सकते। भारतवर्ष में हिंदू, मुसलमान,
सिक्ख, ईसाई जिस प्रेम  से रहते हैं, उसे तो एक उदाहरण की तरह दुनिया में
देखा जाता है। जिन लोगों ने सोचा था कि विविधतापूर्ण यह देश कभी एक नहीं
रह सकता और स्वतंत्रता इनसे संभाले नहीं संभलेगी, वे आश्चर्य से देखते
हैं कि विविधता के बावजूद, मतभिन्नता के बावजूद भी भारतीयों में स्नेह
बंधन बहुत मजबूत है।

धर्म के नाम पर पाकिस्तान बनाने के बावजूद आज भारत में पाकिस्तान से
ज्यादा मुसलमान रहते हैं। आजादी और स्वतंत्रता का उसी तरह उपभोग करते हैं
जिस तरह से आम भारतीय करता है। कानून कायदा सबके लिए समान है। सबको अपने
अनुसार अपनी उपासना पद्घति से ईश्वर को याद करने की सुविधा है। भाईचारा
तो ऐसा है कि सभी एक दूसरे के धार्मिक उत्सवों, सामाजिक कार्यक्रमों में
सम्मिलित होते हैं। फलते फूलते प्रजातंत्र और विकसित होते राष्ट्र  को
देखकर दुनिया आश्चर्य करती है कि इतनी संभावनाओं के बावजूद भारत उस स्थान
को प्राप्त करने में पीछे क्यों है ? जिसका वह वास्तविक हकदार है, लेकिन
अब जब राष्ट्र  ने विकास की गति पकड़ ली है तो कितने ही हैं जिन्हें भारत
का विकास फूटी आंख नहीं सुहाता। धर्म के नाम पर अलग राष्ट्र  बनाने वाले
आज कहां खड़े हैं और धर्म निरपेक्षता को स्वीकार कर भारत कहां खड़ा है।
राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद का मामला भी सुलझेगा। न सुलझें ऐसी फितरत
भारतीयों की नहीं है। यह कितनी बड़ी बात है कि न्यायालय पर सबका भरोसा
है। मतलब यह बात साफ है कि अन्याय किसी के साथ नहीं होगा। किसी को भी
असंतोष की भट्टी  सुलगाकर अपनी रोटी नहीं सेंकने हैं। 18 वर्ष पूर्व हुए
खून खराबे से नसीहत तो भारतीयों ने ली है। भावनाओं की आड़ में भड़काने
वालों से भी लोग सावधान हैं। दरअसल तो भावनाओं को भड़काने वाले ही सावधान
हैं कि उन्होंने ऐसी कोशिश की तो उनकी खैर नहीं। ऐसा न हो कि सशस्त्र बल
तो बाद में कार्यवाही करे, उसके पहले ही जनता ही ऐसे लोगों को सबक सिखा
दे। सरकार तो सतर्क है, ही। जनता भी सतर्क है और किसी  भी कीमत में ऐसे
लोगों को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है जो भावनाओं को भड़काने का
प्रयास करें?

सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील ने तो स्पट कर दिया है कि वे उच्चतम न्यायालय
के अंतिम फैसले को मानेंगे। इसके साथ ही उन्होंने यह बात भी कही है कि
उच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी बातचीत हो सकती है। तब बात दूसरी होगी।
क्योंकि न्यायालय का फैसला भी सामने होगा। मुख्य रूप से यह मामला एक सौ
तीस फुट गुणा 90 फुट की उस जमीन का मामला है। जहां कभी बाबरी मस्जिद
स्थित थी और उसमें रामलला की मूर्ति रखी हुई थी। मामला यही है कि कानूनी
दृष्टि से इस जमीन पर मालिकाना हक किसका है। न्यायालय ने सभी गवाह, जमीन
से संबंधित कागजातों को देखकर तय कर लिया है कि उसका फैसला क्या होना
चाहिए ? मामला उच्चतम न्यायालय के स्थगन के कारण रूक नहीं गया होता तो
फैसला 24 सितंबर को ही आ जाता। उच्चतम न्यायालय ने फैसले पर जब स्थगन
दिया था तब कोई भी पक्ष इस स्थगन के पक्ष में नहीं था। सभी चाहते थे कि
फैसला शीघ्र आए और तय हो जाए कि कानून की दृष्टि में मालिकाना हक किसका
है।

मामले को सुलझाने के तीन ही तरीके हैं। या तो दोनों पक्ष आपसी रजामंदी से
मामला निपटाएं या फिर न्यायालय तय करे या फिर सरकार संसद से कानून बनाकर
फैसला करे। निश्चित रूप से सबसे अच्छा तरीका तो आपसी रजामंदी का ही है।
आपसी रजामंदी से तय हो जाता तो प्रेमभाव और बढ़ता ही। नहीं हुआ तो
न्यायालय के अंतिम फैसले को सबको मानना चाहिए। इससे न्याय की प्रतिष्ठा
ही बढ़ेगी। भारतीयों की न्यायप्रियता की प्रतिष्ठा  बढ़ेगी। दुनिया में
भारत की एक छवि बनेगी कि भारतीय न्याय पर चलने वाले लोग हैं। वे न तो
किसी के साथ अन्याय करते और न ही किसी के अन्याय को बर्दाश्त करते। उच्च
न्यायालय के फैसले के बाद आपसी रजामंदी से भी सर्व स्वीकार्य कोई रास्ता
निकलता है तो इससे भारत की प्रतिष्ठा  में चार चांद ही लगेंगे। फैसला
भारतीयों को ही करना है।

- विष्णु सिन्हा
29-09-2010