यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

नितिन गडकरी आशा तो जगाते हैं कि वे अपने मकसद में कामयाब होंगे

छत्तीसगढ़ के भाजपा कार्यकर्ताओं ने जम कर स्वागत किया, अपने राष्ट्रीय 
अध्यक्ष नितिन गडकरी का। नितिन गडकरी अध्यक्ष बनकर आए भी तो पहली बार।
डेढ़ घंटा विलंब से आने के बावजूद कार्यकर्ता टस से मस होने के लिए तैयार
नहीं थे। अति उत्साह में कार्यकर्ता एक दूसरे का सिर फोडऩे से भी बाज
नहीं आए। हालांकि यह भाजपा की संस्कृति से मेल नहीं खाता। इसीलिए तो
प्रशिक्षण की आवश्यकता महसूस की जा रही है और नितिन गडकरी ने भाजपा
कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने की भी योजना बना ली है। भाजपा सदा से
अपने को अलग तरह की पार्टी समझती और प्रदर्शित करती आयी है। अनुशासन पर
उसका सबसे ज्यादा जोर रहा। प्रारंभ में जब भारतीय जनसंघ का गठन स्व.
श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने किया था तब राष्ट्रीय  एवयं सेवक संघ के
प्रशिक्षित स्वयं सेवकों ने ही देश भर में पार्टी को विस्तारित करने का
काम किया था। इसलिए अनुशासन तो पार्टी की रगों मे दौड़ते खून की तरह था।
जैसे जैसे पार्टी का विस्तार होता गया, वैसे वैसे हर तरह के लोग पार्टी
से जुड़े लेकिन संघ से आए संगठन मंत्रियों का ऐसा प्रभाव था कि पार्टी से
जुडऩे वाला व्यक्ति उसी रंग में जुड़ता गया। वक्त के साथ बहुत कुछ बदला
तो चोर दरवाजे से अनुशानहीनता ने भी प्रवेश कर लिया।

पार्टी सत्तारुढ़ हुई तो सत्ता का लाभ उठाने वाले पार्टी की तरफ आकर्षित
हुए और ऐसे लोगों ने अलग तरह की पार्टी को आम पार्टी बनाने की कोशिश
प्रारंभ कर दी। वे कितना सफल हुए, यह अलग बात है लेकिन पार्टी में बढ़ती
अनुशासनहीनता, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ने पार्टी की छबि को नुकसान तो
पहुंचाया। अभी तक पार्टी टिकट बिकने के किस्से दूसरी जगह सुनायी देते थे
लेकिन ऐसे किस्से भाजपा में भी सुनायी देने लगे। इसका स्वाभाविक नुकसान
पार्टी को तो होना ही था। उसका फल भी पार्टी ने चखा और अच्छी तरह से चखा।
फीलगुड और इंडिया शाइनिंग जिन्हें दिखायी देता था, वे धड़ाम से गिरे और
पार्टी ने सत्ता खो दी। हवा हवाई हवा बांधने वाले लोग पार्टी को हवा में
उड़ाने लगे और पार्टी धड़ाम से जमीन पर ऐसे गिरी कि बहुत दिनों तक
दिग्गजों को समझ में ही नहीं आया कि हुआ कैसे ऐसा? पार्टी के चिंतक,
विचारक, दिग्गज नेता तो जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बता कर पार्टी को जनता
में हिट  कराने का प्रयत्न करने लगे। ऐसे लोगों ने पार्टी को तो चौंकाया
ही जनता को भी चौंकाया।

फिर से चुनाव हुए और पार्टी चारों खाने चित्त गिरी। अटल बिहारी बाजपेयी
स्वास्थ्य कारणों से पहले ही राजनीति से अघोषित अवकाश पर चले गए और दूसरे
वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी अपने सभी तरह के प्रयत्नों के बावजूद
पार्टी को उस ऊंचाई पर न ले जा सके। जहां वह पहुंचकर केंद्र सत्ता पर
काबिज हो चुकी थी। पार्टी के नेताओं में सत्ता की भूख ने गुटबाजी का रुप
ले लिया और पार्टी की अंदरुनी गतिविधियां मीडिया के कवर पर आ गयी। ऐसी
छीछालेदर पार्टी की होने लगी कि आवश्यक हो गया कि पार्टी अपने ही खदान से
कोई नायाब हीरा ढूंढे और उसे पार्टी की सर्वोच्च कुर्सी पर विराजित करे।
उसी खोज का परिणाम हैं, नितिन गडकरी। राष्ट्रीय  अध्यक्ष पद पर उनके चयन
ने सबको चौंकाया और उम्मीद की जाने लगी कि दिल्ली में स्थापित भाजपा के
दिग्गज नेता नितिन गडकरी को जमने का मौका नहीं देंगे। जब नितिन गडकरी जम
ही नहीं पाएंगे तो उखाडऩे की बात ही फिजूल है लेकिन नितिन गडकरी ऐसे जमे
कि न जमने की सोच रखने वाले नेता ही भयभीत हो गए कि कहीं नितिन गडकरी
उन्हें ही न उखाड़ दें।

दिल्ली से जो खबरें मिलती हैं, उसके अनुसार अब मीडिया के कान में
फुसफुसाने वाले अब दीवाल से भी सतर्क हो गए हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि
नितिन गडकरी की अध्यक्षता में दीवालों को भी कान मिल गए हैं। पार्टी अपने
पुराने अनुशासित चोले  में लौट रही है। नितिन गडकरी ने अपने बेबाक
वक्तव्यों से सबको समझा दिया है कि वे ही सब कुछ है। कोई गलतफहमी न पाले
कि वह अपने हिसाब से उन्हें चला सकता है। छत्तीसगढ़ में ही प्रथम आगमन पर
उन्होंने अपनी सरकार की खुलकर तारीफ की लेकिन पार्टी की बैठक में स्पष्ट
करने से भी नहीं चूके कि मतों का अंतर बहुत कम है। विधानसभा चुनाव में 1
प्रतिशत का और लोकसभा चुनाव में 4 प्रतिशत का। मत प्रतिशत बढ़ाया जाए।
उसके लिए प्रयत्न किया जाए। टिकट के मामले में किसी की सिफारिश काम आने
वाली नहीं है। काम के आधार पर जीतने वाले प्रत्याशी को ही टिकट दिया
जाएगा। जो वे कह रहे हैं, उसे करने में भी वे सफल हो गए तो छत्तीसगढ़ की
विधानसभा में 60 विधायक जितवाने में वे निश्चय ही सफल होंगे। कोई बड़ी
बात नहीं है।
लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी पार्टी में पनपती गुटबाजी को रोकना पड़ेगा।
मुख्यमंत्री बनने की लालसा में पार्टी के लिए गड्ढï खोदने वालों से
सावधान रहना होगा। इन बड़े नेताओं की शिकायत भी तो छोटा कार्यकर्ता कर
नहीं सकता। मीडिया में सरकार के विरुद्ध बयान देने में भी ये नेता पीछे
नहीं हैं। ये वे लोग हैं जो घर के अंदर घुसे हुए हैं और पार्टी की हार को
अपनी जीत के रुप में देखते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि पार्टी चुनाव
हारी तो दोष मुख्यमंत्री पर आएगा और तब आलाकमान मुख्यमंत्री की कुर्सी
खाली करवाएगा तो मौका इन्हें मिलेगा। इस तरह की प्रवृत्ति ने कांग्रेस को
जनता की नजरों में गिराया और भाजपा को सत्ता मिली। नितिन गडकरी ठीक कहते
हैं कि किसी के 10 काम हों और 11 वां न हो तो वह 10 काम की तारीफ नहीं
करता 11 वां का रोना रोता है। नितिन गडकरी की सबसे बड़ी खूबी तो यही है
कि वे जड़ से जुड़े नेता हैं। वे ग्रास रुट से आते हैं। इसलिए वे नेता और
कार्यकर्ता की मनोवृत्ति से अच्छी तरह से परिचित हैं।

पार्टी ने उन्हें राष्ट्रीय  अध्यक्ष बनाकर बड़ी जिम्मेदारी ही नहीं
सौंपी है बल्कि बड़ा विश्वास भी प्रगट किया है। जिस तरह से चिकित्सक को
मरीज के हित में शरीर पर चाकू भी चलाना पड़ता है, उसी तरह से पार्टी हित
में नितिन गडकरी को ईमानदार, वफादारी पार्टी कार्यकर्ताओं को संरक्षण
देना है तो गलत नेताओं के पर भी कतरने पड़ेंगे। छत्तीसगढ़ के बड़े नेता
जो दिल्ली में बैठे हैं, उनके विषय में भी छत्तीसगढ़ में उनकी वास्तविक
स्थिति और गतिविधियां क्या हैं, पता लगाना चाहिए। दिल्ली भले ही इन्हें
बड़ा नेता समझती हो लेकिन छत्तीसगढ़ में वैसी स्थिति इनकी नहीं है।
स्थानीय नेताओं ने इनकी जीत का रास्ता प्रशस्त न किया होता तो ये हार ही
जाते। कांग्रेस ने एक सीट लोकसभा की छत्तीसगढ़ में जीते है तो पार्टी के
बड़े नेता को हराकर ही जीती है। पार्टी के बड़े नेता अपने रिश्तेदारों को
सत्ता में पद दिलाने के लिए जोड़ तोड़ करते हैं और जीतने वाला प्रत्याशी
उनके गुट का नहीं हैं तो उसकी टिकट कटवाते हैं। टिकट ही नहीं कटवाते
बल्कि पार्टी को भी हार का मुंह देखने के लिए बाध्य करते हैं।

नितिन गडकरी पूरी तरह से ऐसे लोगों की लगाम कसने में सफल  हो गए तो कोई
बड़ी बात नहीं कि पार्टी 11 में से 11 लोकसभा सीट जीते लेकिन 11 सीट
जीतना है तो इस बार ऐसे नेता की टिकट काटना पड़ेगा। क्योंकि यह तो
स्पष्ट दिखायी देता है कि इस बार ये चुनाव निश्चित रुप से हारेंगे।
विधानसभा की 60 क्या उससे भी अधिक सीट जीतने की क्षमता पार्टी में है
लेकिन पार्टी को अपने पराए से मुक्त होना पड़ेगा। उम्मीद तो की ही जा
सकती है कि नितिन गडकरी ने जिस चुनौती को स्वीकार किया है, उसमें वे सफल
होंगे।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 04.09.2010
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