यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 27 सितंबर 2010

राजस्थानी और भोपाली समाचार पत्र की जंग नियम कायदों को ताक पर रख रही है

बाहर से आकर छत्तीसगढ़ में समाचार पत्र का व्यवसाय करने वाले दो समाचार
पत्रों में प्रतिद्वंदिता के फलस्वरुप एक समाचार पत्र आरोप लगा रहा है कि
इसके हॉकरों से समाचार पत्र छीना जा रहा है। बंटने से रोका जा रहा है।
मतलब साफ है कि कानून कायदों की धज्जियां उड़ायी जा रही है। जो समाचार
पत्र सब तरफ गलत ही गलत खोजते हैं और प्रकाशित करते हैं, वे अपने
अस्तित्व के लिए गलत करने से भी नहीं रुकते। जिस तरह से केबल आपरेटर
वर्चस्व के लिए अक्सर लड़ते रहे हैं और शांति व्यवस्था के लिए प्रशासन को
भी हस्तक्षेप करना पड़ता रहा है, वैसा ही हस्तक्षेप यह प्रतिद्वंदिता
बढ़ी तो समाचार पत्रों के भी मामले में करना पड़ेगा। बाकायदा थाने में
रिपोर्ट भी दर्ज हो रही है। शासन प्रशासन के लिए यह नई मुसीबत है।
लड़ेंगे समाचार पत्र और हस्तक्षेप प्रशासन को करना पड़ेगा तो दबाव की
राजनीति भी काम करेगी। प्रशासन सही का साथ देता है तो गलत काम करने वाला
प्रशासन की छवि खराब करने की कोशिश तो कर ही सकता है।
आज जो छत्तीसगढ़ में प्रतिद्वंदिता दिखायी पड़ रही है, इसकी जड़
छत्तीसगढ़ में नहीं है बल्कि इसकी जड़ें राजस्थान और भोपाल में हैं।
मध्यप्रदेश के समाचार पत्र ने जब राजस्थान से अपना संस्करण प्रारंभ किया
और राजस्थान में पहले से ही स्थापित समाचार पत्र से आगे निकल गया तब ही
प्रतिद्वंदिता का बीजारोपण हो गया। स्वस्थ प्रतिद्वंदिता हो तो किसी को
भी कोई आब्जेक्शन नहीं हो सकता लेकिन प्रतिद्वंदिता जब गलाकाट में बदल
जाती है तब लोग नैतिक मूल्यों का परित्याग करने में भी पीछे नहीं रहते।
हर हाल में जिन्हें बड़ा रहना है, वे निम्र स्तर पर भी उतरने में पीछे
नहीं रहते। फिर संस्कारों का भी बड़ा फर्क होता है। जो जिस तरह के
संस्कारों में पला बढ़ा हो, वह समाज में प्रतिष्ठï प्राप्त करने के
बावजूद अपने संस्कारों को छोड़ नहीं पाता।

यह तो तय दिखायी दे रहा है कि नया राजस्थान से आया समाचार पत्र पहले से
जमे भोपाल के समाचार पत्र की नींद हराम कर रहा है। भोपाल में वह तिगनी का
नाच नचा ही चुका है। छत्तीसगढ़ में भी वह दिन दूर नहीं जब राजस्थानी
समाचार पत्र भोपाल के समाचार पत्र का स्थापित स्थान छीन ले। उसने तो नारा
ही दिया हुआ है कि जब 40 रुपए में माह भर अखबार मिलता है तब 90 रुपए खर्च
करने की क्या जरुरत? जहां तक उपभोक्ता का प्रश्र है तो उसे अच्छा,
उपयोगी, सुंदरमाल 40 रुपए में मिले तो वह 90 रुपए क्यों खर्च करेगा? देर
से ही सही स्थापित रहना है तो पहले से स्थापित समाचार पत्र को अपनी कीमत
कम करना पड़ेगा। 2 लाख से अधिक प्रतियां प्रतिदिन बेचने का जिसका दावा है
वह कीमत कम करता है तो उसे 50 रुपए प्रति समाचार पत्र का नुकसान होगा।
मतलब 1 लाख रुपए प्रतिदिन।

धमकी चमकी से तो अखबार का प्रसार रोका नहीं जा सकता बल्कि इस तरह के
कृत्य सहानुभूति के साथ पाठक की उत्सुकता भी जगाएंगे कि आखिर क्यों
बांटने से रोका जा रहा है? जब राजस्थान से चल कर कोई समाचार पत्र रायपुर
आया है और वह समाचार पत्र के धंधे की ऊंच नीच अच्छी तरह से समझता है तब
वह तमाम स्थितियों का अच्छी तरह से आंकलन कर ही नहीं आया होगा बल्कि कमर
कस कर भी आया होगा। गांठ में पूरी रकम भर कर लाया होगा। राजस्थानी की
घबराहट ऐसी है कि भोपाली उत्सव करा रहा है। नाच गाने के साथ कॉमेडी के
कार्यक्रम करवाकर पाठकों को अपने पक्ष में रखने का पूरा प्रयत्न कर रहा
है। समाचार पत्र के पृष्ठ भी बढ़ गए हैं। हर वह प्रयत्न किया जा रहा है
जिससे राजस्थानी को ठौर रखने के लिए जगह न मिले।

अभी तक राजनीति ही जातिवाद के साए में अपना भविष्य देखती थी लेकिन अब
समाचार पत्र भी जातिवादी संरक्षण की तलाश करते हैं। कोई अग्रवालों का
समाचार पत्र है तो कोई जैनियों का तो कोई माहेश्वरियों का। ये धनाढ्य
वर्ग के लोग हैं और स्वाभाविक रुप से अपनी जाति के मालिक समाचार पत्र को
सहयोग की भी आकांक्षा रखते हैं। समाचार पत्र भले ही सर्वहिताय की बातें
करें लेकिन उनकी निष्ठा छुपती नहीं है। कोई अखबार कहता है कि आर.डी.ए. ने
करोड़ों की जमीन गरीबों की दबाई। लगता है कितना गरीबों का हितैषी है
लेकिन वह यह नहीं बताता कि उसने कितनी जमीन दबा रखी है। कभी शहर के
हृदयस्थल में एक लाख रुपए एकड़ के भाव से एक एकड़ जमीन प्राप्त करने
वालों का एक मन एकड़ जमीन से भी कहां भरा। वर्षों तक दस हजार फुट जमीन और
दबा कर रखी गयी थी। कोई पात्रता न होने के बावजूद सरकार से दस हजार फुट
जमीन और आबंटित करा ली गई। पुरानी बिल्डिंग तोड़कर नया कॉमर्शियल
कॉम्प्लेक्स बनाया जा रहा है। यह तो सरकार के ही और प्रशासन के देखने की
बात है कि कितना नियम कायदों का पालन कर भवन, सरकार से सस्ती दर पर
भूमि प्राप्त कर बनाया जा रहा है।

कभी छत्तीसगढ़ में प्रसार की दृष्टि से नंबर एक रहे समाचार पत्र ने
अग्रिम आधिपत्य के नाम पर ही 25 वर्षों से अधिक समय से जमीन पर न केवल
आधिपत्य किया हुआ था बल्कि अच्छी खासी कमायी भी बैंक को किराए पर देकर कर
रहा है। कांग्रेसी सरकारों के जमाने में उसका मन एक एकड़ भूमि से नहीं
भरा तो उसने अपने अंग्रेजी दैनिक के नाम पर भी आधा एकड़ जमीन अग्रिम
आधिपत्य के नाम पर ले लिया था। कभी कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे नेता के
भाई को भी एक एकड़ जमीन अग्रिम आधिपत्य में मिल गयी थी। इनका भी भव्य
कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स बन कर तैयार है। समाचार पत्र के नाम से जमीन
हथियाने वालों के और भी किस्से हैं और पूरी बेशर्मी से नियम कायदों को
ताक पर रखकर अच्छा खासा किराया प्राप्त किया जा रहा है। सरकारी निगम के
दफ्तर तक इनके भवनों में किराए पर हैं।

समाचार पत्रों में नित्य किसी न किसी की पोल खोली जाती है। बताया जाता है
कि फलां कितना भ्रष्ट है लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि दिया तले अंधेरा
होता है। छत्तीसगढ़ में सत्य का अलख जगाने वाले अधिकांश समाचार पत्रों का
मुख्यालय छत्तीसगढ़ नहीं हैं। सरकार और उससे संबंधित संस्थानों के
विज्ञापनों पर ये पूरी तरह से काबिज हैं। करीब-करीब 70 प्रतिशत से अधिक
शासकीय धन इन्हीं की तिजौरी में जाता है। दरअसल जो गलाकाट प्रतियोगिता
है, यह सीधे-सीधे व्यवसायिक प्रतिद्वंदिता है। जिसके पास अधिक प्रसार
संख्या होगी, वही बड़ा और हर तरह के संसाधनों पर उसी का विशेषाधिकार। कौन
इनके विरुद्ध आवाज उठाए? आवाज कोई उठाने की कोशिश करे तो उसकी खैर नहीं
लेकिन देर भले ही हो, लोगों की आंखों में चुभ तो रहा है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 27.09.2010
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