प्रतिशत लोग पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुके हैं और 50 प्रतिशत लोग भ्रष्ट
होने की कगार पर है। मात्र 20 प्रतिशत लोग ही पक्के तौर पर ईमानदार हैं।
यह आंकड़े उन्होंने कैसे प्राप्त किए, यह तो वे ही जानें लेकिन उनकी बात
पर विश्वास किया जाए तो देश में कानून व्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं है।
जिस देश में 30 प्रतिशत लोग पक्के तौर पर भ्रष्ट हैं और यह बात और कोई
नहीं पूर्व सतर्कता आयुक्त कह रहा है तब इन भ्रष्ट लोगों को पकडऩे और
सजा दिलाने की जिम्मेदारी जिनकी है, वे क्या कर रहे हैं? 30 प्रतिशत लोग
कम नहीं होते। 30 प्रतिशत का अर्थ होता है कि हर तीसरा व्यक्ति पक्के तौर
पर भ्रष्टï। कम से कम यह वह व्यक्ति तो नहीं है जो गरीबी रेखा के नीचे
जीवन बसर कर रहा है। इसमें भी कुछ लोग हो सकते हैं जो वास्तव में गरीबी
रेखा के नीचे तो नहीं हैं लेकिन शासकीय सुविधाओं का उपयोग करने के लिए
अपने को गरीबी रेखा से नीचे दर्ज करा रखा है। कुछ वास्तव में बोगस राशन
कार्डों के द्वारा गरीब बने हुए हैं तो अधिकांश बोगस कार्ड का लाभ वे
संपन्न लोग उठा रहे हैं जो इस तरह के बोगस राशन कार्ड बनवाने में सक्षम
हैं।
लेकिन इस तरह के भ्रष्टïचार को संरक्षण कौन देता है? राजनीति और
नौकरशाही। अब लोग देखते हैं कि तथाकथित बड़े बड़े सम्मानित लोग
भ्रष्टïचार में लिप्त हैं और उनकी संपत्ति, धन वैभव दिन दूनी रात चौगुनी
गति से बढ़ रहा है तो लगता है सभी को कि यही रास्ता है सुख सुविधा से
जीने का। रोजगार गारंटी योजना तक के धन में भी धांधली होती है। कामनवेल्थ
गेम्स के नाम पर खुलेआम भ्रष्टïचार किया जाता है। भ्रष्टïचार के तो
इतने आयाम हैं कि कोई भी नंगी आंखों से इन्हें देख सकता है। एंटी करप्शन
ब्यूरो, आयकर विभाग जहां भी छापा डालता है, करोड़ों का गोलमाल पकड़ में
आता है। भ्रष्टïचार की तो ऐसी गटर गंगा बहती है कि वे 30 प्रतिशत लोग
कौन हैं, जो पक्के तौर पर ईमानदार हैं। राजनीति तो मानकर चलती है कि जब
तक किसी का अपराध न्यायालय में सिद्घ न हो जाए तब तक वह ईमानदार। इस एक
पतली गली से ही लोग अपराधी होने के बावजूद निकल जाते हैं और शान से सत्ता
के राज सिंहासन पर विराजमान रहते हैं।
आज तो किसी के विषय में कहो कि फलां व्यक्ति ईमानदार हैं तो लोग चौंककर
पूछते हैं कि अच्छा ईमानदार है, आश्चर्य की बात है। काजल की कोठरी में
रहकर भी ईमानदार हों तो है तो आश्चर्य की बात। क्योंकि मन का कोई न कोई
कोना कहता अवश्य है कि बड़े आए ईमानदार। इनकी बेईमानी पकड़ में नहीं आयी
होगी। बहुत होशियार और चतुर चालाक होंगे। नहीं तो धन मिलता हो और कोई
लेने से इंकार करे तो यह चमत्कार से कम नहीं है। भगवान के मंदिर तक के
रखवाले तक तो भ्रष्ट पाए जाते हैं। न्यायालय भी पूरी तरह से भ्रष्टïचार
से मुक्त है, यह कोई मानता नहीं। राजनीति तो गले तक भ्रष्टïचार में डूबी
दिखायी देती है। प्रश्र तो यह भी खड़ा होता है कि जिनकी जिम्मेदारी
भ्रष्टïचारियों को पकडऩे की है कि वे भी कितने ईमानदार हैं। क्योंकि जिस
देश में हर तीसरा आदमी भ्रष्ट है, उस देश की जेलों को तो
भ्रष्टïचारियों से ही भरा होना चाहिए लेकिन इक्का दुक्का सीधे सादे वे
लोग ही जेल की हवा खाते हैं जो भ्रष्टïचार से धन तो प्राप्त कर लेते हैं
लेकिन उसे किस तरह से छुपाया जाए, यह उन्हें समझ में नहीं आता।
क्योंकि अक्लमंद तो धन को ठिकाने लगाना जानते हैं। इनका धन स्विस बैंकों
में जमा हो जाता है। जहां से पता लगाना किसी के बस में नहीं है। कहा जाता
है कि सर्वाधिक कालाधन जो निश्चित रूप से भ्रष्टïचार की ही उपज है,
स्विस बैंकों में जमा है। कहा तो यहां तक जाता है कि सर्वाधिक भारत के
लोगों का ही है। बाबा रामदेव तो कहते हैं कि स्विस बैंक से यह धन
प्राप्त किया जा सके तो देश में गरीबी का नामोनिशान नहीं रहेगा। 51 रूपये
लीटर बिकने वाला पेट्रोल साढ़े सोलह रूपये में ही बेचा जा सकता है। पहले
ईस्ट इंडिया कंपनी भारत से धन लूटकर इंग्लैंड ले गयी। उसके पहले की बात
तो जाने दें लेकिन स्वतंत्र होने के बाद भारत से काला धन इतना स्विस
बैंकों में जमा किया गया है जो एक आम आदमी की कल्पना से भी परे है।
भ्रष्टाचार का आलम देखिए कि माओवादी ही 15 सौ करोड़ रूपये वार्षिक
प्राप्त कर लेते हैं, ऐसा अनुमान है। कांग्रेस के खजाने में भी करीब इतना
ही धन प्रति वर्ष आता है। हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक
ईमानदार व्यक्ति हैं लेकिन उनके मंत्रिमंडल में संचार मंत्री ऐसे भ्रष्ट
हैं जिन पर 1 लाख करोड़ रूपये के भ्रष्टïचार का आरोप है। बहुमत का गणित
सरकार के लिए ऐसा है कि प्रधानमंत्री चाहकर भी न तो कार्यवाही कर पा रहे
हैं और न ही उन्हें मंत्रिमंडल से हटा पा रहे हैं। आरोप तो यह भी सरकार
पर है कि सीबीआई का उपयोग कर भ्रष्टïचार में फंसे लोगों का समर्थन
जुटाया जाता है। यह कोई कांग्रेस की ही कहानी नहीं है बल्कि कम ज्यादा
सभी का इससे जुड़ाव है। जिस तरह से चुनाव के समय धन लुटाया जाता है और
नियम कायदों को धत्ता बताया जाता है, चुनाव जीतने के लिए, उससे
भ्रष्टïचार और पुख्ता ही होता है।
प्रत्यूष सिन्हा ठीक कहते हैं कि समाज में अब भ्रष्टïचार को निम्र
दृष्टि से नहीं देखा जाता। भ्रष्टïचार के मामले में पकड़े जाने पर भी
सामाजिक प्रतिष्ठï कम नहीं होती। अब यह देखने की प्रथा नहीं है कि किसके
पास धन कहां से आया। धन है तो प्रतिष्ठï है। जब समाज के मापदंड बदल गए
तो भ्रष्टïचार से मुंह काला होने की बात कहां रह गयी। लोकसभा में प्रश्र
पूछने के लिए धन लेने वालों के चेहरे में किसी तरह की शर्म हया नहीं
दिखायी देती। जबकि ऋण न चुका पाने की पीड़ा से किसान आत्महत्या कर लेता
है। ऋण न चुकाने से आत्महत्या का क्या संबंध? उसके लिए संबंध है जो अपनी
जमीन को नीलाम होता नहीं देखना चाहता। इससे उसकी मान प्रतिष्ठï को चोट
लगती है लेकिन आज बड़े बड़े लोग करोड़ों का ऋण बैंकों से लेते हैं। ऋण
चुकाते नहीं और उनकी संपत्ति को बैंक नीलाम करता है तो उन्हें कोई फर्क
नहीं पड़ता। क्योंकि ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो ऋण लेकर नही पटाते और
वे धनवान होते जाते हैं। यह भी अमीर बनने का एक तरीका है, कुछ लोगों के
लिए। कुछ लोग तो एक ही संपत्ति पर कई जगह से लोन लेते हैं। बैंकों को
चूना लगाना ही जिनका धंधा है। ये सब कुछ जानते समझते हुए करते हैं तो
इनके मन में किसी तरह का अपराध बोध नहीं होता।
20 प्रतिशत वे ही लोग ईमानदार हैं जो अपराध बोध से ग्रसित नहीं होना
चाहते। या कह लें भ्रष्ट लोगों की नजरों में जो कायर हैं। क्योंकि साहसी
तो वे ही लोग हैं जो कानून को धत्ता बताकर सब कुछ करना जायज समझते हैं।
जब एक देखता है कि दूसरा भ्रष्टाचार कर मालामाल हो रहा है तो वह भी अपनी
ईमानदारी को छोडऩे में ही अक्लमंदी समझता है। यह ऐसा प्रभाव है जिससे
बचना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। जिनके पास कुछ नहीं था, जब वे
संपन्नता की सीढ़ी भ्रष्टïचार के कारण तेजी से चढ़ते हैं तो सबको सफलता
का मूल मंत्र भ्रष्टïचार ही लगता है। इससे 50 प्रतिशत लोग भ्रष्टïचार
के कगार पर खड़े हो जाते हैं तो आश्चर्य कैसा?
- विष्णु सिन्हा
09-09-2010