प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही कहें कि उनकी अभी अवकाश ग्रहण करने की
इच्छा नहीं हैं लेकिन यह बात कहने की उन्हें जरुरत ही क्यों पड़ी? यह बात
तो साफ है कि पिछले कार्यकाल की तरह वर्तमान कार्यकाल उनकी लोकप्रियता
में इजाफा नहीं कर रहा है बल्कि निरंतर उनकी लोकप्रियता में ह्राश ही हो
रहा है। वैसे भी सरकार पर होने वाले राजनैतिक आक्रमणों के लिए ढाल का काम
प्रणव मुखर्जी ही करते हैं। समस्या कैसी भी हो प्रणव मुखर्जी का जहां
हस्तक्षेप नहीं, वहां समस्या गंभीर है। काश्मीर के मामले में प्रधानमंत्री
कुछ कर नहीं पा रहे हैं। यहां तक कि पीडीपी की नेता महबूबा सईद ने तो
उनके आमंत्रण को भी अस्वीकार कर दिया था। पिछले 2 माह से अधिक समय हो गया
लेकिन काश्मीर कफ्र्यू के साये से मुक्त नहीं हो पा रहा है। ईद के दिन भी
हिंसक प्रदर्शन जारी रहा और एक थाने को निशाना बनाया गया। फौज के
अधिकारों को कम करने की नीति में भी मतभेद कम नहीं है और इसके बाद भी
समस्या शांत नहीं हुई तब क्या करेंगे? काश्मीर पूरी तरह से बेलगाम हो गया
है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से राजनैतिक समाधान की जो उम्मीद उमर
फारुख कर रहे हैं, उस मामले में मनमोहन सिंह कुछ कर नहीं पा रहे हैं।
ऐसे में प्रधानमंत्री की यह टिप्पणी कि जवाहर लाल नेहरु के समय भी
मंत्रिमंडल में पूरा सामंजस्य नहीं था, कांग्रेसियों को पूरी तरह से
नापसंद आने वाला वक्तव्य है। जवाहर लाल नेहरु की सरकार से तुलना तो कोई
भी कांग्रेसी सरकार नहीं कर सकती। जवाहर लाल नेहरु क्या इंदिरा गांधी और
राजीव गांधी की सरकार से भी तुलना मनमोहन सिंह अपनी सरकार की करेंगे तो
कांग्रेसियों को नागवार ही लगेगा। आजकल मनमोहन सिंह के मंत्रियों पर जिस
तरह से दिग्विजय सिंह निशाना साध रहे हैं और फिर भी आलाकमान उनसे कुछ
नहीं कह रहा है तो इसका अर्थ तो कांग्रेसी यही लगा रहे हैं कि दिग्विजय
वक्तव्य आलाकमान के इशारे पर ही दिए जा रहे है। पहले गृहमंत्री पी.
चिदंबरम और अब कपिल सिब्बल की नीतियों का विरोध कर दिग्विजय सिंह ने एक
तरह से निशाना तो मनमोहन सिंह पर ही साधा है। सोनिया गांधी पुन: कांग्रेस
की अध्यक्ष चुन ली गयी है। मतलब साफ है कि अब सोनिया गांधी का मनमोहन
सिंह पर पुराना विश्वास तो रहा नहीं। होता तो किसी कांग्रेसी की क्या
मजाल थी कि वह कांग्रेसी मंत्रियों की आलोचना करता।
यदि मनमोहन सिंह समझते हैं कि नरसिंह राव की तरह वे भी पद पर बने रहेंगे,
सोनिया गांधी की उपेक्षा कर तो उन्हें शीघ्र ही सब कुछ समझ में आ जाएगा।
नरसिंह राव तो प्रधानमंत्री के साथ कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे। सोनिया
गांधी तो राजनीति से बाहर खड़ी थी। अब सोनिया गांधी कांग्रेस की राजनीति
का केंद्र बिंदु हैं। राहुल गांधी भी राजनीति में हैं। वे बिहार चुनाव
में व्यस्त हैं। चुनाव प्रचार के लिए सोनिया गांधी भी बिहार जाएंगी लेकिन
मनमोहन सिंह भी चुनाव प्रचार के लिए जाएंगे या नहीं, यह अभी तय नहीं है।
वैसे भी जो जनता से चुन कर आने का माद्दा नहीं रखता, उसका चुनाव में क्या
महत्व है? चुनाव जितवाने का पूरा जिम्मा तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी
पर है और ये दोनों स्वयं चुनाव लडऩे में भी पीछे नहीं हैं। इन्हें स्वयं
के चुनाव हार जाने का दूर-दूर तक तो कोई डर नहीं है। इसलिए कांग्रेस की
असली ताकत तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही है। मनमोहन सिंह तो इनकी
ताकत के कारण भारत के प्रधानमंत्री हैं।
बिहार चुनाव में क्या निर्णय करता है, यह देखने वाली बात है। कांग्रेस
पूरी तरह से लालू यादव के सहारे बिहार में चुनाव लड़ती रही है लेकिन
लोकसभा चुनाव से कांग्रेस बिना किसी गठबंधन के अकेले चुनाव लड़ रही है।
कांग्रेस से गठबंधन के बिना चुनाव लड़कर लालू प्रसाद यादव और राम विलास
पासवान देख चुके और लालू प्रसाद तो किसी तरह से चुनाव जीत भी गए लेकिन
राम विलास पासवान चुनाव तक नहीं जीत सके। जबकि सर्वाधिक मतों से चुनाव
जीतने का रिकार्ड उन्हीं के नाम पर है। लालू प्रसाद यादव और राम विलास
पासवान मिल कर चुनाव लड़ रहे हैं। लालू प्रसाद यादव को मुख्यमंत्री के
रुप में प्रोजेक्ट किया गया है लेकिन इसका लाभ इस गठबंधन को होगा या
नीतीश कुमार कांग्रेस के अलग से लडऩे का लाभ उठा ले जाएंगे, यह फैसला
बहुत कुछ तय कर देगा। कांग्रेस के पास बिहार में खोने के लिए कुछ नहीं है
लेकिन संपूर्ण बिहार में अपने प्रत्याशी खड़ा कर कांग्रेस जो मृतप्राय हो
रही थी, नई संजीवनी अवश्य प्राप्त कर लेगी। कांग्रेस से गठबंधन तोड़ कर
लालू यादव और राम विलास पासवान ही कहीं के नहीं रहे। केंद्रीय मंत्रिमंडल
में ही स्थान देने की जरुरत नहीं समझी गई। इस बार यदि लालू पासवान की
जोड़ी चुनाव में सफल नहीं हुई तो इनके पास कांग्रेस के समक्ष घुटने टेकने
के सिवाय कोई चारा नहीं रहेगा। कांग्रेस के तो हित में है कि लालू पासवान
को पूर्ण बहुमत प्राप्त हो और सरकार बनाने का अवसर मिले भी तो बिना
कांग्रेस के समर्थन के न मिले और तब कांग्रेस का जो अपमान पिछले चुनाव
में लोकसभा में इन दोनों ने किया था, उसका बदला निकाला जा सके।
मुलायम सिंह आज भी सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने के मामले में
रुकावट बनने के इतिहास को याद अवश्य करते हैं। लोकसभा में विश्वास मत
प्राप्त करने के लिए उनका उपयोग तो कांग्रेस कर लेती है लेकिन सत्ता का
लाभ देने का अवसर आता है तो हाथ झाड़ लेती है। जब तक मतलब है तब तक
कांग्रेस पोटरना अच्छी तरह से जानती है। कांग्रेसी राजनीति के मंझे हुए
खिलाड़ी हैं। मनमोहन सिंह तो राजनीति का अक्षर ज्ञान भी नहीं रखते।
विपरीत परिस्थितियों में भी लड़ते झगड़ते दिखने वाले कांग्रेसी सत्ता के
लिए ऐसा गोलबंद होते हैं कि देखते ही बनता है और यही उनकी कामयाबी का राज
भी है। मनमोहन सिंह के भी जाने का वक्त हो गया है। दिन तारीख समय तो
सोनिया गांधी ही तय करेंगी। वैसे भी मनमोहन सिंह की जब लोकप्रियता ही
जनमानस में नहीं है और कांग्रेस को उनकी अलोकप्रिय नीतियों का दंश झेलना
पड़ रहा है तो उन्हें प्रधानमंत्री बनाए रखने का लाभ क्या?
बिहार चुनाव के बाद राहुल गांधी पर पूरा दबाव पड़ेगा कि वे प्रधानमंत्री
की कुर्सी पर कांग्रेस के हित में बैठने के लिए तैयार हों। बिहार में
कांग्रेस के पक्ष में जरा सा भी चमत्कारी प्रभाव पड़ा तो यह दबाव और
बढ़ेगा। महंगाई ने कांग्रेस की स्थिति को खराब किया हैं। यह बात आइने की
तरह साफ है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री जब इस स्थिति से देश को उबार नहीं
सकते तो उनके पद पर बने रहने का औचित्य क्या है? कांग्रेस को फिर से
चुनाव के लिए तैयार होना है और यह मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते संभव
नहीं। राहुल बनें प्रधानमंत्री तो ठीक। नहीं तो किसी अन्य को मौका दिया
जाना चाहिए। यह सोच कांग्रेस के अंदर स्पष्ट है। कुछ लोग स्वप्न भी संजो
रहे हैं कि मनमोहन सिंह हटें और राहुल गांधी तैयार नहीं हुए तो उनको अवसर
मिल सकता है लेकिन ऐसी स्थिति होने पर जब किसी वफादार की तलाश की जाएगी
तो कांग्रेस में कमी नहीं है।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 13.10.2010