मस्जिद विध्वंस के बाद देश में जो दंगे फंसाद हुए, उसके कारण सरकारों का
सतर्कता बरतना तो और भी जरूरी हो जाता है। 24 सितंबर को उच्च न्यायालय
फैसला देने वाला है। फैसला जो भी हो लेकिन उस फैसले से सभी सहमत होंगे,
इसकी आशा कम मानी जा रही है। क्योंकि स्पष्ट फैसला हुआ तो किसी के पक्ष
में जाएगा या विपक्ष में। भय यह है कि पक्ष और विपक्ष वाले आपस में भिड़
न जाएं। हालांकि इसकी संभावना 6 दिसंबर 1992 की तरह नहीं है। पिछले 18
वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। इस समय जो बढ़ चढ़कर इस मामले में
भूमिका निभा रहे थे, उनकी उम्र में भी 18 वर्ष का इजाफा हो गया है। इन 18
वर्षों में देश में एक नई युवा पीढ़ी खड़ी हो गयी है। शिक्षा का दायरा
बढ़ा है तो देश में संपन्नता भी बढ़ी है। यह दूसरी बात है कि गरीबी भी
बढ़ी है। आम आदमी के साथ युवा पीढ़ी के लिए राम जन्मभूमि बनाम बाबरी
मस्जिद से ज्यादा बड़े मुद्दे हैं। युवा पीढ़ी को अपना भविष्य संवारना है
ओर इसके लिए देश में अमन चैन शांति रहे, इसकी ज्यादा जरूरत है।
निश्चित रूप से राम जन्मभूमि का मुद्दा आस्था से ताल्लुक रखता है लेकिन
इसके लिए खून खराबा हो, दंगा फसाद हो यह अधिकांश हिंदुओं को ही मंजूर
नहीं है। फिर हिंदुओं को यह भी मंजूर नहीं है कि उनकी आस्था का दुरूपयोग
राजनीति करे। हिंदुओं का ही नहीं आम भारतीयों का स्वभाव भाई चारा है।
प्रेम मोहब्बत से आपस में मिल जुलकर रहना और सभी के दुख दर्द एवं खुशियों
में सहभागिता प्रदर्शित करना ही मूल भारतीय स्वभाव है। अपना उल्लू सीधा
करने के लिए कुछ लोग अवश्य भावनाओं को भड़काने का काम करते हैं लेकिन
भावनाओं को काबू करना और सही गलत की पहचान करना भी भारतीय स्वभाव है।
पूर्व की दुखद घटना के बावजूद आज सभी भारतीय सतर्क हैं और ऐसा कोई काम
नहीं करना चाहते और न ही ऐसे विचार व्यक्त करना चाहते हैं, जिससे
वैमनस्यता पैदा हो।
कितनी कोशिश नहीं की हमारे पड़ोसी राष्ट्र ने कि हिंदू मुसलमान लड़ें और
वह इसका फायदा उठाए। सब तरह के प्रयत्न के बावजूद उसे सफलता नहीं मिली।
जब धर्म के आधार पर अलग देश की मांग करने वाले बंटवारा करवाने में सफल हो
गए तब भी भारत धर्म निरपेक्ष राष्ट्र ही बना रहा। भारत ने अपनी गंगा
यमुना संस्कृति का परित्याग नहीं किया। करोड़ों मुसलमानों ने पाकिस्तान
जाने से इंकार कर दिया। क्योंकि उन्हें अपने हिंदू भाइयों पर पूरा एतबार
था। छुटपुट लड़ाई झगड़े कहां नहीं होते। एक ही धर्म को मानने वाले देशों
में भी होते हैं। पाकिस्तान में ही आतंकवादी विस्फोट करते थे। अपने ही
धर्मावलंबियों को मौत के घाट उतार देते हैं। वहां तो कोई हिंदू नहीं लड़
रहे हैं। जिन्हें नहीं लडऩा है, वे नहीं लड़ते। क्योंकि उनकी समझदारी
स्पष्ट है। वे जानते हैं कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। एक
निर्दोष व्यक्ति के कत्ल की इजाजत कोई नहीं देता। जो भी ऐसा कृत्य करता
है, वह किसी भी तरह से सहानुभूति का पात्र नहीं होता। वीरता की हमारी
परिभाषा किसी की जान लेने के बदले किसी की जान बचाने से संबंध रखती है।
जिस वर्धमान ने दुनिया को अहिंसा का सिद्घांत दिया, उसे हमने महावीर कहा।
यह गांधी का मुल्क है। सत्य और अहिंसा जिनका प्रमुख सिद्घांत था। जब भी
स्वतंत्रता संग्राम के समय हिंसा भड़की गांधी जी ने बेहिचक अपना आंदोलन
वापस ले लिया। जिन अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाया था, उनके प्रति भी
सद्भावना प्रगट करने में गांधी जी कभी पीछे नहीं रहे। उन्होंने समस्या को
समस्या के रूप में लिया। न कि किसी के प्रति दुश्मनी के भाव से। अब जब
राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद का फैसला न्यायालय करने वाला है तब देश
में सद्भावना की जो झलक दिख रही है, वह निश्चित रूप से काबिले तारीफ है।
न्यायालय के फैसले को हार जीत की तरह न लेने की मंशा का जिस तरह से आज
प्रगटीकरण हो रहा है, वह भारत में ही संभव है। जीत को कोई भी पक्ष खुशी
का अवसर जानकर हारने वालों के मन पर ठेस लगाने की कोशिश न करे, यह बड़ी
बात है। यही होना भी चाहिए। भारत की सभ्यता, संस्कृति सबसे पुरानी है तो
उसकी सोच भी प्रौढ़ होनी चाहिए। ऐसा कोई मसला नहीं जिसे भाईचारे से
निपटाने की क्षमता भारतीयों में नहीं है।
सरकार सतर्क है तो उसे सतर्क भी रहना चाहिए। क्योंकि 120 करोड़ के देश
में चंद लोगों को सावधान और सतर्क रहने की जरूरत भी है। सावधानी और
सतर्कता के साथ जन दबाव उन्हें अपनी मंशा में सफल तो नहीं होने देगा जो
गलत विचारों से ग्रस्त है। जिनके सोच का दायरा संकीर्ण है। कौन किस तरीके
से पूजा उपासना करता है, इसकी छूट तो हमारा संविधान हर भारतीय नागरिक को
देता है। इस विषय में कोई मतभिन्नता भी नहीं है लेकिन स्वतंत्रता जब
स्वच्छंदता की मांग करती है और दूसरे की स्वतंत्रता के लिए बाधक बनती है
तब कानून को बीच में आना ही पड़ता है। दोनों पक्षों को मामला न्यायालय के
बाहर ही सुलझा लेना चाहिए था लेकिन जब दोनों सहमत नहीं तो फिर न्यायालय
फैसला करे, इसके सिवाय अन्य कोई उपाय भी तो नहीं। जब मामला न्यायालय में
है और वह 60 वर्ष बाद फैसला देने के लिए तैयार है तब उसके फैसले का
सम्मान किया जाना चाहिए। अगर कोई न्यायालय के फैसले से असहमत है तो उसके
लिए कानून में ही उच्चतम न्यायालय जाने का प्रावधान है। फिर एक दिन
उच्चतम न्यायालय भी फैसला करेगा। तब भी फैसला किसी न किसी के पक्ष में तो
आएगा ही।
जब किसी के पक्ष में फैसला आएगा तो किसी के विपक्ष में भी आएगा। तब क्या
करेंगे? सबसे अच्छा तो यही है कि सभी मिलकर ऐसा हल ढूंढ़े, जिससे देश की
एकता पुख्ता हो और देश में भाईचारा का माहौल बढ़े। दुनिया देखे और देखती
ही रह जाए कि भारतीयों की आपसी समझदारी, भाई चारे, प्रेम मोहब्बत से
दुनिया सबक ले। जो भारत में नफरत का बीजारोपण करना चाहते हैं, उन्हें भी
समझ आ जाए कि भारतीयों को आपस में नही लड़ाया जा सकता। ऐसे ही माहौल से
हम अपनी भावी पीढ़ी को प्यार मोहब्बत से रहने का संस्कार दे सकेंगे। इससे
ही अलगाववादियों और आतंकवादियों के हौसले पस्त होंगे।
जिस देश के संस्कार दुनिया एक है, पर आधारित रहे। वह अपने ही मामले न
सुलझा सके तो वह दुनिया को क्या संदेश देगा? हमारे पूर्वज एक, हमारा खून
एक तो उपासना पद्घति से क्या अंतर पड़ता है। ये मंदिर है, वह मस्जिद है।
चाहे यह मानो चाहे वह। मतलब तो उस परमात्मा की उपासना करना ही है।
धर्मनिरपेक्ष होने के बावजूद भारतीयों के प्राण धर्म में बसते हैं।
सर्वधर्म को स्वीकार कर भारत ने दुनिया को धर्म निरपेक्षता का संदेश दिया
है। बहुसंख्यक हिंदुओं के होते हुए भी प्रजातांत्रिक भारत धर्मनिरपेक्ष
है तो यह छोटी बात नहीं है। चंद लोगों का अहंकार भारत का भाग्य नहीं हो
सकता। देख लें विभाजन के बाद आज पाकिस्तान की क्या हालत है? सबक लेने का
समय है। अवसर है अपनी एकता को प्रदर्शित करने और पुख्ता करने का।
- विष्णु सिन्हा
23-09-2010