यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 26 सितंबर 2010

कर्मचारियों को वेतन भत्ते के रुप में जो मिलता है, उसके अनुरुप क्या कर्मचारी सेवा कार्य करते हैं ?

मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने शासकीय कर्मचारियों का महंगाई भत्ता 8
प्रतिशत बढ़ा दिया है। इसे राज्योत्सव और दीपावली के तोहफे के रुप में भी
लिया जा रहा है लेकिन मनुष्य का मन ऐसा है कि कितना भी मिले, वह भरता
नहीं। कर्मचारी नेता कह रहे हैं कि अभी भी केंद्र की तुलना में 10
प्रतिशत कम मिल रहा है। सरकार 1 अक्टूबर 2010 से महंगाई भत्ता बढ़ा रही
है तो कहा जा रहा है कि 1 जनवरी 2010 से मिलना चाहिए। एक कर्मचारी नेता
तो कह रहे हैं कि सरकार को 10 प्रतिशत और न सही तो कम से कम 5 प्रतिशत और
महंगाई भत्ता दीवाली तक बढ़ाने का निर्णय लेना चाहिए। केंद्र सरकार 35
प्रतिशत महंगाई भत्ता देती थी तो उसने 10 प्रतिशत बढ़ाकर 45 प्रतिशत कर
दिया है और राज्य सरकार 27 प्रतिशत महंगाई भत्ता देती थी तो उसने 35
प्रतिशत कर दिया है। छठवें वेतन आयोग की सिफारिश केंद्र सरकार की तरह
राज्य सरकार ने भी लागू पहले ही कर दिया है। फिर भी यदि शासकीय कर्मचारी
प्रदेश के और महंगाई भत्ता चाहते हैं तो उन्हें अवश्य देना चाहिए लेकिन
वे इसके लिए जनता से समर्थन प्राप्त करें।

जिस तरह से सरकारें जनता के समर्थन से बनती हैं और जो अच्छा काम करे या
जिसके अच्छा काम करने की उम्मीद हो, जनता उसे चुनती है, सरकार बनाने के
लिए। जनता सरकार के कामकाज से अप्रसन्न हो तो जनता उसे सत्ता से बेदखल
करने में भी संकोच नहीं करती। शासकीय कर्मचारियों को तो चुनाव जैसी अग्रि
परीक्षा से नहीं गुजरना पड़ता। वेतन बढ़ा, महंगाई भत्ता बढ़ा तो यह नहीं
देखा गया कि जिसका काम अच्छा हो, जो जनता के काम की कसौटी पर खरा उतरा,
उसका वेतन महंगाई भत्ता बढ़ाया जाए। कर्मचारी मांग करते हैं कि उनका वेतन
बढ़ाया जाए। उनकी फलां फलां तरह की सुविधाएं बढ़ायी जाए लेकिन जनता कभी
भी मांग नहीं करती कि शासकीय कर्मचारियों ने बहुत अच्छा काम किया है,
इसलिए उनके वेतन और सुविधाओं में वृद्धि की जाए। शासकीय कर्मचारियों के
वेतन जनता के द्वारा दिए गए टैक्स में से ही दिया जाता है। ये पब्लिक
सर्वेंट कहे जाते हैं। मतलब जिसका सीधा और साफ होता है कि ये जनता के
सेवक हैं। मालिक तो जनता है और मालिक जब अपने कर्मचारियों से खुश हो तभी
वह उनका वेतन बढ़ाता है।

निजी क्षेत्रों में भी कर्मचारी काम करते हैं और आजकल तो योग्य लोग
शासकीय सेवा के बदले निजी क्षेत्रों में सेवा देना ज्यादा पसंद करते हैं।
क्योंकि वहां योग्य लोगों को तरक्की का अच्छा अवसर मिलता है। वहां
वरिष्ठ और कनिष्ठ के बदले योग्यता ही मापदंड होता है। आज किसी कर्मचारी
को दस हजार रुपए मिलते हैं तो उसकी योग्यता उसे ज्यादा समय तरक्की देने
में नहीं लगाती। आज तो निजी क्षेत्रों में योग्य लोग करोड़ों रुपए मासिक
वेतन पाते हैं। वे अपने काम से परिणाम देते हैं। उनकी फितरत काम को
उलझाना नहीं सुलझाना होता है। शासकीय कर्मचारी तो फाइल रख कर बैठे रहते
हैं। यदि कोई अपनी फाइल आगे बढ़वाने का काम न करे तो फाइल हिलती नहीं।
2-2 वर्ष तक फाइल पड़ी रहती है और आगे नहीं सरकती। कोई पूछने वाला भी
नहीं कि ऐसा क्यों हुआ? रुटीन में भी फाइल जिन दफ्तरों में नहीं चलती, उन
दफ्तरों के कर्मचारियों को वेतन वृद्धि देना, महंगाई भत्ता देना कितना
उचित है?

राज्य सरकार के कुल राजस्व का 22 से 25 प्रतिशत इन कर्मचारियों के वेतन
में ही खर्च होता है। स्थानीय संस्थाओं की स्थिति तो यह है कि 60 प्रतिशत
से अधिक स्थापना व्यय में ही खर्च हो जाता है। महात्मा गांधी रोजगार
योजना के ही धन की बंदरबांट में पीछे नहीं हैं, शासकीय कर्मचारी। जहां भी
छापा पड़ता है, वहां ही करोड़ों की धन संपदा का पता चलता है। यह बड़े
अधिकारियों की ही बात नहीं है बल्कि छोटे-छोटे कर्मचारियों की भी यही
स्थिति है। यह धन इन कर्मचारियों के पास आता कहां से हैं? वेतन और भत्तों
से तो यह धन इकट्ठा  होता नहीं। मतलब साफ हैं कि पद का दुरुपयोग कर जनता के
काम में गड़बड़ी कर यह धन उपार्जित किया जाता है। सभी कर्मचारियों को न
तो भ्रष्ट कहा जा सकता है और न ही ईमानदार। ईमानदार कर्मचारियों को
वास्तव में उनकी सेवाओं के प्रतिफल में एक सुविधाजनक जीवन जीने की सुविधा
देना हर मालिक का कर्तव्य है। सरकार का भी यही कर्तव्य है। सरकार तो अपनी
तरफ से सभी कर्मचारियों के कल्याण के लिए वेतन भत्तों में वृद्धि करती
है। इसके  फलस्वरुप कर्मचारियों को उनके संगठनों को भी यह सुनिश्चित करना
चाहिए कि वे जनता को अधिक से अधिक सुविधाएं मुहैय्या कराएंगे।
सरकार की जनहितैषी, कल्याणकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाएंगे और वह भी
पूरी ईमानदारी से। सड़कें बनाएंगे तो गुणवत्ता का पूरा ध्यान रखेंगे।
स्कूल में शिक्षा देंगे तो अपने कर्तव्यों का पूरी तरह से निर्वाह
करेंगे। जनता जब उनसे मिलने आएगी तो वे उसका काम तो करेंगे ही, उसे पूरा
सम्मान भी देंगे। जो सरकार उनका पूरी तरह से ध्यान रख रही है, उसकी छवि
जनता में खराब नहीं होने देंगे। क्योंकि असल में 5 वर्ष बाद जिस चुनाव के
द्वारा सरकार जनता चुनती है, वह सरकार के कामकाज से प्रसन्न होकर या
नाराज होकर ही चुनती है। प्रसन्नता और अप्रसन्नता का मुख्य कारण तो ये
कर्मचारी ही होते हैं। सरकारों की जनकल्याणकारी योजनाओं को सही ढंग से ये
लागू करें तो जनता सरकार से नाराज ही क्यों होगी? 2 रु. किलो का चांवल जब
चोरी होगा तो बदनामी सरकार के ही मत्थे आएगी। अपराध बढ़ेंगे तो बदनामी
सरकार की होगी। रोजगार योजना का काम मशीनों से लिया जाएगा और बोगस
मस्टररोल बना कर धन हड़पा जाएगा तब दोष सरकार को ही लगेगा।
आज भी सरकार अपने कर्मचारियों को जो वेतन भत्ते दे रही है, वह कम नहीं
हैं। फिर उस प्रदेश में जहां 32 लाख परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीवन
व्यतीत कर रहे हैं। करीब-करीब आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीने के लिए
बाध्य है तो शासकीय कर्मचारियों को ही सब कुछ क्यों चाहिए? उन्हें तो सभी
नागरिकों की चिंता करनी चाहिए और नागरिकों को कैसे सभी सुख सुविधा उनकी
तरह मिले, इसकी फिक्र करनी चाहिए। कभी यह भी तो सोच का विषय होना चाहिए
कि आखिर क्यों लाखों लोग प्रदेश से हर वर्ष रोजी रोटी की तलाश में देश के
दूर दराज इलाकों में जाते हैं। जबकि छत्तीसगढ़ में बाहर से आए लोग खूब
कमा रहे हैं। लखपति, करोड़पति बन रहे हैं। छत्तीसगढ़ बाहर के लोगों को
चारागाह की तरह दिखायी देता है और छत्तीसगढ़ के लोग पेट भरने के लिए बाहर
जाते हैं तो प्रश्रचिन्ह तो लगता है कि कहीं न कहीं कोई गड़बड़ी है।
जो सरकार 35 प्रतिशत महंगाई भत्ता दे रही है, वह 45 प्रतिशत भी दे सकती
है। यह कोई ऐसी बात नहीं जो संभव नहीं। सरकार और सरकार नहीं जनता वास्तव
में प्रसन्न हो अपने कर्मचारियों के कामकाज से तो वह सब कुछ दे सकती है।
जो जनता स्वयं अपना जीवन पूरी तरह असुरक्षित आर्थिक व्यवस्था में व्यतीत
करती है, वह पूरी तरह से सुरक्षित व्यवस्था में अपने कर्मचारियों को रखती
है। अवकाश ग्रहण के बाद मतलब बुढ़ापे में भी बोझ उठाने से पीछे नही है।
कभी तो उस जनता के विषय में सहानुभूति पूर्वक, आदरपूर्वक विचार करना
चाहिए और हुक्मरान बन कर नहीं सेवक बनकर उसकी व्यथा को दूर करने का
प्रयास करना चाहिए।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 25.09.2010
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