यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

जनहित में हर मामले में दखलंदाजी का अधिकार न्यायपालिका के पास है

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट नीति तय करने के
मामले में दखल न दें। मनमोहन सिंह का यह कहना तो तब उचित होता जब सुप्रीम
कोर्ट नीतिगत मामलों में दखल देता। सुप्रीम कोर्ट ने तो इतना ही निर्देश
दिया है कि अनाज सड़ रहा है तो गरीबों को मुफत में दे देना चाहिए। इस
आदेश में किस तरह से नीति के मामले में हस्तक्षेप है। यह तो सुप्रीम
कोर्ट को कहने के लिए बाध्य होना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट क्या भारत के किसी
भी नागरिक से पूछेंगे जिसके लिए अनाज का महत्व सर्वाधिक है तो वह यही
कहेगा कि अनाज सड़े इससे अच्छा है कि किसी के पेट की आग को बुझाने के काम
आए। सुप्रीम कोर्ट ने यह तो आदेश नहीं दिया है कि सरकार हमेशा गरीबों को
मुफत में अनाज दे। सरकार के पास सुरक्षित रूप से अनाज को रखने की
व्यवस्था नहीं है और सरकार खरीदकर अनाज को सड़ाती है तो नुकसान किसी
मनमोहन सिंह, शरद पवार, कांग्रेस का नहीं होता बल्कि देश के करोड़ों
नागरिकों के धन का अपव्यय होता है जो विभिन्न करों के रूप में वह सरकार
को देता है।

करोड़ों रूपये का अनाज सड़ रहा है। सरकार उसकी ठीक से देखभाल नहीं कर सक
रही है तो दोषी कौन है? सुप्रीम कोर्ट ने तो दोषियों को सजा देने का
निर्देश देने के बदले अनाज उन्हें मुफत में देने का निर्देश दिया जो गरीब
हैं। मनमोहन सिंह स्वयं मानते हैं कि देश में 36 करोड़ लोग गरीबी रेखा के
नीचे निवास करते हैं। सबको मुफत में अनाज देना संभव नहीं। जिस देश में 36
करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं, उनके प्रतिनिधियों के
वेतन में मनमाना इजाफा करना संभव है। जो सुविधा जनता को नहीं वह सुविधा
उसके प्रतिनिधियों को क्यों मिलना चाहिए? वह सुविधा उसके सेवकों को क्यों
मिलना चाहिए? मंत्रियों का वेतन, सांसदों का वेतन, शासकीय कर्मचारियों का
वेतन बढ़ाना तो सरकार के लिए संभव है लेकिन अनाज को सड़ाने के बदले
गरीबों को बाँट  देना संभव नहीं।

नीतिगत मामलों में सुप्रीमकोर्ट तभी हस्तक्षेप करता है जब नीतियां
संविधान के विरूद्घ बनायी जाती है। संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप
नीतियां होती है तो सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप नहीं करता। 63 वर्ष के
इतिहास में जब भी किसी सरकार ने संविधान के विरूद्घ जाने का प्रयास किया,
सुप्रीम कोर्ट ने उस पर लगाम लगायी। तब सरकार को पहले संविधान में
परिवर्तन करना पड़ा तब उसकी नीति क्रियान्वित हुई। इस मामले में भी सरकार
को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों में परिवर्तन की अनुमति सुप्रीम कोर्ट
ने नहीं दी। संविधान में न्यायालय की व्यवस्था और उसे व्यापक अधिकार दिए
ही इसीलिए हैं कि सरकारें मनमाना व्यवहार करने के लिए तत्पर न हों। नहीं
तो कभी भी दो तिहाई बहुमत प्राप्त कर, राज्यों में से आधे से अधिक पर
अधिकार प्राप्त कर सरकारें जो चाहे कर सकती थी। देश के संवैधानिक ढांचे
में ही आमूल चूल परिवर्तन कर सकती थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट के कारण ही
सरकार ऐसा नहीं कर सकी।

जब पुराने राजा महाराजाओं का प्रीविपर्स इंदिरा गांधी ने बंद किया तब उस
मामले में सुप्रीम कोर्ट ही आड़े आया और तब संविधान परिवर्तन कर ही उसे
लागू किया जा सका। संविधान में कितनी ही बार इसी तरह से परिवर्तन के लिए
सरकार बाध्य हुई लेकिन अब तो वैसी स्थिति सरकार की है, नहीं। गठबंधन की
सरकार है। जिसका अर्थ होता है कि किसी एक पार्टी के पास सरकार बनाने लायक
बहुमत नहीं है। दो तिहाई बहुमत की बात तो कोसों दूर ही नहीं है, आज की
तारीख में किसी के लिए भी संभव नहीं दिखायी देता? देश के आधे राज्यों में
एक पार्टी की सरकार भी संभव नहीं दिखायी देती। ऐसी स्थिति में संविधान
संशोधन करना आसान नहीं है। सबको साथ लेकर और सहमत कर ही संविधान संशोधित
किया जा सकता है। भारत की जनता ने संपूर्ण सत्ता किसी को भी सौंपने से
इंकार कर दिया है।

पिछले दिनों केंद्र सरकार को परमाणु दुर्घटना पर हर्जाना देने और
जिम्मेदारी तय करने का कानून पारित कराने के लिए विपक्ष के संशोधनों को
भी स्वीकार करना पड़ा। तब कहीं विधेयक पारित हुआ। महिला आरक्षण का विधेयक
राज्यसभा से तो पारित हो गया लेकिन सरकार लोकसभा में  पारित नहीं करवा सकी।
लोकसभा में ही सरकार को विभिन्न तरह के विचारों से सामना करना पड़ता है।
निश्चित रूप से नीतिगत निर्णय लेने का काम संसद का ही है और न्यायपालिका
इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करती। यही हमारे संविधान और प्रजातंत्र की
खूबी है कि उसने बेलगाम किसी को नहीं छोड़ा। किसी के भी हाथ में इतना
अधिकार नहीं दिया कि वह मनमानी अर्थात तानाशाही पर उतर आए। पिछले 63
वर्षों में कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत संसद में और आधे से अधिक राज्यों
में सत्ता देकर देश ने तानाशाही का भी मजा चख लिया। आपातकाल की मनमानी भी
देख ली। सर्वशक्तिशाली सरकार को जनता ने सत्ता के सिंहासन से उतार कर भी
दिखा दिया।

1972 में इंदिरा गांधी ने जब गरीबी हटाओ का नारा दिया तो इन गरीबों ने ही
दो तिहाई बहुमत लोकसभा में कांग्रेस को सौंप दिया था। राज्यों में
कांग्रेस की झोली वोटों से भर दी थी लेकिन अति विश्वास का क्या परिणाम
होता है, यह भी जनता ने देख लिया। गरीबी हटाओ के कांग्रेस के नारे को 38
साल हो गए और मनमोहन सिंह के दिए आंकड़ों के अनुसार 36 करोड़ गरीब देश
में है। जब भारत अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुआ था तब भारत की जनसंख्या
भी इतनी ही थी। तब हमारे पास खाने के लिए पर्याप्त अनाज भी नहीं था।
निश्चित रूप से देश ने तरक्की की है। तभी तो आज अनाज के गोदाम देश में
भरे पड़े हैं और अनाज सुरक्षित रखने के लिए सरकार के पास पर्याप्त साधन
भी नहीं हैं। अनाज सड़ रहा है मतलब जो अनाज गरीब की क्षुधा शांत कर सकता
है उसे गरीबों को बांटने के बदले सरकार सड़ाना पसंद करती है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब सरकार 25 लाख टन अनाज बीपीएल की दर पर
गरीबों को देने के लिए तैयार हो गयी है। सुप्रीम कोर्ट को इस विषय में
सरकार को निर्देश देना पड़ा, यह सरकार के लिए अच्छी स्थिति नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश न दिया होता तो सरकार सड़ाना पसंद करती लेकिन
गरीबों को सस्ते पर देना नहीं। ऊपर से मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि नीतिगत
मामले में सुप्रीम कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए। जनता की धन संपत्ति को
सुरक्षित रखना और उनका सदुपयोग करना सरकार का प्रथम कर्तव्य है। सरकार
अपने कर्तव्य के पालन में असफल होती है तो न्यायालय का कर्तव्य है कि
उसके पास इससे संबंधित मामला आए तो वह हस्तक्षेप करे। आखिर लोगों को
सरकार की लापरवाही से होने वाले नुकसान के लिए न्याय की अपेक्षा कहां
करना चाहिए? न्यायालय का निर्माण संविधान में इसीलिए किया गया है। कोई तो
ऐसी ताकत आवश्यक है जो सरकार की मनमानी पर लगाम कस सके। जनहित में सरकार
की किसी नीति में दखलंदाजी का पूरा अधिकार न्यायपालिका के पास है और यही
हमारे प्रजातंत्र और संविधान की सबसे बड़ी खूबी है।

- विष्णु सिन्हा
07-09-2010