यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 19 सितंबर 2010

भटगांव चुनाव की जीत हार पर कांग्रेसियों का भविष्य निर्भर करता है

भटगांव में कांग्रेस और भाजपा दोनों की प्रतिष्ठï दांव पर है। भटगांव
में कांग्रेस चुनाव जीत जाती है तो सत्ता में वापसी के लिए उसे स्पष्ट
आशा की किरण दिखायी देगी। लेकिन हार जाती है तो प्रदेशाध्यक्ष धनेन्द्र
साहू और प्रतिपक्ष के नेता रविन्द्र चौबे दोनों के लिए आलाकमान को सोचना
पड़ेगा। इस चुनाव में एक तरह से मुखिया ये दोनों ही बने हुए हैं।
रविन्द्र चौबे के विरूद्घ तो शिकायतें ही शिकायतें हैं और सबसे बड़ी
शिकायत कांग्रेसियों को यही है कि प्रतिपक्ष के नेता की जैसी छवि इनकी
होनी चाहिए, उसके विपरीत इनकी छवि है। ये सत्ता के साथ कदमताल करते
दिखायी पड़ते हैं और  कांग्रेसियों के बीच चर्चा गर्म है कि इन्हें हटाकर
किसी अन्य विधायक को प्रतिपक्ष का नेता बनाया जा सकता है। जहां तक
धनेन्द्र साहू का प्रश्र है तो विधानसभा का चुनाव वे न तो स्वयं जीत सके
और न ही पार्टी को ही जीता सके। वैशाली नगर का उपचुनाव कांग्रेस ने अवश्य
जीता लेकिन कोई भी इसका श्रेय न तो धनेन्द्र साहू को देता है और न ही
रविन्द्र चौबे को लेकिन यह निश्चित है कि भटगांव का चुनाव कांग्रेस जीती
तो ये दोनों श्रेय के हकदार बनेंगे। तब न तो रविन्द्र चौबे को प्रतिपक्ष
के नेता पद से हटाने की बात सुनी जाएगी और न ही धनेन्द्र साहू की जगह
किसी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की।

इस दृष्टि से इन दोनों कांग्रेसी नेताओं के लिए यह चुनाव सबसे ज्यादा
अहमियत रखता है। यही कारण है यू. एस. सिंहदेव को टिकट दिलाने का भी। टी.
एस. सिंहदेव के रिश्तेदार होने से टी. एस. सिंहदेव की जिम्मेदारी भी कम
नहीं है और इसीलिए टी. एस. सिंहदेव लगे हुए हैं कि कांग्रेस के दिग्गज
नेता चुनाव प्रचार के लिए भटगांव आएं। उनकी चले तो वे सोनिया गांधी और
राहुल गांधी को भी चुनाव प्रचार के लिए बुला लें लेकिन यह संभव नहीं
दिखायी देता। विद्याचरण शुक्ल, अजीत जोगी जैसे छत्तीसगढ़ के नेता तो
चुनाव प्रचार के लिए जाएंगे लेकिन मतदाताओं को ये कितना प्रभावित कर
पाएंगे, यह चुनाव परिणाम ही बताएगा। विधानसभा के चुनाव के समय भी इन
लोगों ने बड़े बड़े दावे किए थे और पार्टी ने इन्हें हेलीकापटर देकर
चुनाव प्रचार करवाया था लेकिन परिणाम ने सब स्पष्ट कर दिया कि किसका
कितना प्रभाव है। विद्याचरण शुक्ल तो आज छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के सबसे
बुजुर्ग नेता हैं लेकिन राजनीति में बहुत कुछ बदल गया। युवा पीढ़ी
निर्णायक भूमिका में आ गयी है तब वे कितना प्रभाव छोड़ पाएंगे, यह आसानी
से समझा जा सकता है। जहां तक अजीत जोगी का प्रश्र है तो उनके विषय में तो
कांग्रेसी स्वयं कहते हैं कि जब तक अजीत जोगी मतदाताओं को दिखायी देंगे
तब तक कांग्रेस की जीत की संभावना नगण्य है।

कल तक जो अजीत जोगी के समर्थक थे, उनमें से अधिकांश उनका साथ छोड़ गए।
उन्हें तो 5 विधायकों का नेता कहा जाने लगा है। दो तो वे स्वयं और पत्नी
और 3 विधायकों का नाम कांग्रेसी और लेते हैं। कांग्रेस में कोई भी पद हो
पहला दावा इन्हीं के परिवार का रहता है। जब प्रतिपक्ष का नेता विधानसभा
में बनने का अवसर था तब अजीत जोगी ही मुख्य प्रत्याशी थे लेकिन आलाकमान
ने रविन्द्र चौबे को प्रतिपक्ष का नेता बनाया। अब प्रदेश अध्यक्ष बनने का
अवसर है तब भी अजीत जोगी ही प्रमुख दावेदार हैं लेकिन उन्हें लगता है कि
आलाकमान उनके नाम पर सहमत नहीं होगा तो अपनी पत्नी रेणु जोगी का नाम
उन्होंने आगे कर दिया है। हालांकि अमित जोगी प्रारंभ से ही युवा कांग्रेस
का अध्यक्ष न बनने की बात कहते आए हैं लेकिन कांग्रेसी इस बात पर विश्वास
नही  करते थे लेकिन कल जब स्पष्ट हो गया कि वे चुनाव नहीं लड़ रहे हैं
तब भी कांग्रेसियों में चर्चा यही है कि ऊपर के आदेश के कारण वे चुनाव
नहीं लड़ रहे हैं। दूसरा कारण मां को प्रदेश अध्यक्ष बनवाना भी है।
यह तो सभी को अच्छी तरह से मालूम है कि प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव नहीं
होने वाला है। पर्यवेक्षक की उपस्थिति में एक वाक्य का प्रस्ताव पारित
होना है कि सोनिया गांधी जिसे चाहें उसे प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त करें।
सभी को स्वीकार्य होगा। ऐसे में किसके कितने प्रदेश प्रतिनिधि हैं, इसका
कोई औचित्य नहीं रह जाता और अध्यक्ष ही नहीं पूरी कार्यकारिणी ही आलाकमान
बनाने वाला है तो सीधी सी बात है कि आलाकमान सबको संतुष्ट करने की नीति
के तहत सभी को थोड़ा थोड़ा प्रसाद देगा। जहां तक कांग्रेस के दिग्गज
नेताओं का प्रश्र है तो वे भटगांव चुनाव में शिरकत करने अवश्य जाएंगे।
क्योंकि कोई बुलाए या न बुलाए, न जाने का अर्थ तो यही होगा कि कोई पूछ
परख नहीं हो रही है। कुछ जितवाने जाएंगे तो कुछ हरवाने भी जाएंगे।
क्योंकि जीत का श्रेय दूसरे उठाएं, यह भी तो बहुतों को स्वीकार नहीं। हार
गया तो प्रत्याशी जिम्मेदारी जिन पर थोपी जा सकती है, उन पर थोपी जाएगी।
प्रदेश अध्यक्ष बदलना है, प्रतिपक्ष का नेता बदलना है तो पार्टी
प्रत्याशी की जीत से तो यह होगा नहीं। पार्टी जीत गयी तो पहले से गद्दी
पर बैठे हैं, वे पूरा श्रेय लेंगे। प्रत्याशी हार गया तो दोषारोपण का
अच्छा मौका मिलेगा और तब पद पर बैठे लोगों को हटाकर अपने लिए अवसर की
तलाश की जा सकती है।

प्रदेशाध्यक्ष ने चुनाव प्रचार के लिए टीम बनायी है तो कांग्रेस के सभी
विधायकों को बुलाकर चुनाव प्रचार में लगाने की भी योजना है। बाहरी भीड़
भटगांव के मतदाताओं को कितना प्रभावित कर पाएगी और स्थानीय कार्यकर्ताओं
से नए लोगों का कितना तालमेल हो पाएगा, इस पर भी जीत हार निर्भर करेगी।
कोंग्रेसी दिखावे की पूरी कोशिश कर रहे हैं कि चुनाव वे हर हाल में जीत
कर रहेंगे और उनकी सोच भी है कि वैशाली नगर की तरह भटगांव पर भी कब्जा
किया जा सकता है। फिर भी भटगांव और वैशाली नगर में जमीन आसमान का अंतर
है। शिवप्रताप सिंह और उनके पुत्र का भाजपा के साथ होना चुनाव में अहम
भूमिका निभाएगा। इसके साथ रविशंकर त्रिपाठी की लोकप्रियता रजनी त्रिपाठी
के लिए सहानुभूति का काम करेगी। फिर भाजपा ने बृजमोहन अग्रवाल जैसे अपने
दिग्गज नेता को चुनाव की कमान सौंपी है तो उसका भी पूरा लाभ भाजपा को
मिलेगा।

स्व. रविशंकर त्रिपाठी ने पिछला चुनाव शिवप्रताप सिंह के पुत्र के
निर्दलीय चुनाव लडऩे के बावजूद भारी मतों से जीता था। कांग्रेस को जीत का
आभास इससे है कि गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के मरकाम जो चुनाव लड़ रहे हैं,
उन्होंने अच्छे खासे मतों पर कब्जा कर लिया तो कांग्रेस का प्रत्याशी
चुनाव जीत सकता है। यह तो साफ है कि कांग्रेस अपने दम पर चुनाव जीत नहीं
सकती। शिवप्रताप सिंह और उनके पुत्र के लिए भी इस चुनाव में भाजपा की जीत
बड़ी अहमियत रखती है। यदि उनके समर्थन के बावजूद भाजपा ने चुनाव नहीं
जीता तो उनका महत्व ही क्या रह जाएगा ? फिर सबसे बड़ी बात डा. रमन सिंह
की जनहित की योजनाएं हैं। डा. रमन सिंह इस चुनाव में भाजपा के स्टार
प्रचारक हैं। इसलिए भाजपा की जीत की संभावना किसी  भी तरह से क्षीण नहीं
दिखायी देती। किसी भी चुनाव प्रचारक से डा. रमन सिंह 21 ही साबित होंगे
19 नहीं।

- विष्णु सिन्हा
18-09-2010