यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

प्रकृति के साथ खिलवाड़ का नतीजा तो नहीं है प्रकृति का कहर

उत्तर भारत में पानी ने कहर ढाया हुआ है। देश की राजधानी दिल्ली तक बार
बार बाढ़ की चपेट में आ रही है। आकाश से बरसने वाला पानी और हथिनी बैराज
से छोड़ा जाने वाले पानी से यमुना का जल स्तर खतरे के निशान को भी पार कर
रहा है। कामनवेल्थ गेम्स का समय नजदीक और नजदीक आ रहा है। मच्छर डेंगू
पैदा कर रहे हैं और स्वाइन फलू भी परेशानी का सबब बना हुआ है। इस पर भी
आतंकवादियों को चैन नहीं और वे बसों पर फायरिंग  कर रहे हैं तो कार में
बम लगा रहे हैं। दिल्ली से काश्मीर समस्या का हल ढूंढऩे श्रीनगर गए
सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल को भी अलगाववादियों से टका सा जवाब मिल रहा है।
आजादी चाहिए और यह बात वे प्रतिनिधिमंडल से मिलकर नहीं कर रहे हैं बल्कि
प्रतिनिधिमंडल उनके निवास में जाकर मिल रहा है, तब उनसे कहा जा रहा है।
प्रकृति का प्रकोप तो पानी के रूप में हो ही रहा है और राष्ट्रीय 
राजमार्ग तक पानी में डूब गए हैं। यमुना का पुराना लोहे का ब्रिज दिल्ली
में आवागमन के लिए बंद कर दिया गया है तो कितनी ही ट्रेनें रद्द कर दी गई
है। हरिद्वार जाने वाला सड़क मार्ग तो बंद ही है, रेल मार्ग भी बंद है।
उत्तराखंड में तो बरसात ने स्थिति नियंत्रण से बाहर कर दी है। टिहरी बांध
जिसे दो वर्ष और अभी लगने थे भरने के लिए वह लबालब भर चुका है और खतरे के
निशान पर पहुंच गया है। उससे छोड़ा जाने वाला पानी पिछले दिनों हरिद्वार
में ही खतरे के निशान से 2 मीटर ऊपर गंगा को बहा रहा था। यमुना लबालब,
गंगा लबालब तो यह सारा पानी जहां जहां से गंगा और यमुना बहती है, सारे
क्षेत्र में अपना तांडव दिखा रहा है। उत्तरप्रदेश ओर बिहार के गांव तो
गांव शहरों तक में पानी घुसा चला आया है।

जीवन के लिए हवा और पानी की जरूरत होती है। इस वर्ष तो पानी ऐसा बरस रहा
है कि उसने अगले पिछले सभी रिकार्ड तोड़ डाले हैं? जो पानी जीवन के लिए
सर्वाधिक जरूरी है, वही जीवन को संकट में डाल रहा है। उत्तराखंड में जब
टिहरी पर बांध बनाया जा रहा था तब सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में बांध
के विरूद्घ बड़ा आंदोलन चला था लेकिन सरकारों ने आंदोलनकारियों की बात
नहीं सुनी। जब टिहरी बांध बन गया और गंगा का पानी वहां इकट्ठा  होने लगा तब
भी विरोध में आवाज उठी थी कि गंगा के प्रवाह को न रोका जाए। टिहरी बांध
के कारण कितने ही गांव खाली करने पड़े और आज भी कुछ गांव के लोग खाली
करने के लिए तैयार नहीं है। वे अभी भी आंदोलन कर रहे हैं कि उनके
पुनर्वास की पुख्ता व्यवस्था की जाए। अपनी जमीन से उजडऩे का दर्द हर कोई
नहीं समझ सकता। जिसका उजड़ता है, वही दर्द को समझता है।
पाकिस्तान के बंटवारे के बाद शरणार्थी बन भारत आए लोग हों, काश्मीर से
पलायन के लिए मजबूर काश्मीरी पंडित हों या विभिन्न बांधों के कारण अपनी
जमीन से हटाए गए लोग हों। इनका दर्द बिना भुक्तभोगी हुए समझा नहीं जा
सकता। बरसात और बाढ़ वर्षों से आदमी को कष्ट देते आए हैं   लेकिन बरसात
भी एक दिन बंद हो जाती है और बाढ़ भी उतर जाती है और आदमी फिर से अपनी
जमीन पर जमने के प्रयास में लग जाता है लेकिन जिनकी जमीन सदा के लिए
विकास के नाम पर छीन ली जाती है, वे तो दोबारा चाहकर भी अपनी जमीनों पर
लौट नहीं सकते। उत्तराखंड में आज भी टिहरी बांध को ही देखकर भय लगता है।
इतना बड़ा बांध कभी किसी प्राकृतिक घटना के कारण टूटा तो सिवाय भारी
नुकसान के और कुछ नहीं करेगा। बांधों में पानी इकट्ठा  करने की एक सीमा
होती है लेकिन जब सीमा के बाहर पानी आता है तो बांध से पानी छोडऩे के लिए
मजबूर होना पड़ता है और तब आयी बाढ़ और भयानक होती है। क्योंकि पानी नहीं
छोड़ा गया तो बांध के लिए भी खतरा पैदा हो  सकता है।

प्रकृति से छेड़छाड़ सिवाय मनुष्यों के और किसी ने नहीं किया। पहले वह
जंगल काटता है और उसे धन में परिवर्तित करता है। फिर वह पर्यावरण संतुलन
के लिए वृक्षारोपण करता है लेकिन प्राकृतिक रूप से उगे जंगल और मनुष्य
के द्वरा रोपित जंगल में जमीन आसमान का अंतर होता है। पहले मनुष्य या
किन्ही चंद लोगों की धन की भूख वायुमंडल को प्रदूषित करती है और फिर
पर्यावरण संतुलन बिगड़ता है तो वह प्रदूषण नियंत्रण की बात करता है।
क्योंकि वह बात ही कर सकता है। कोई आर्थिक विकास में पीछे नहीं रहना
चाहता। इस युग में तो मनुष्य की धन के प्रति ऐसी भूख बढ़ी है कि वह शांत
होने का नाम ही नहीं लेती। हर समस्या के मूल में उसे धन की कमी ही दिखायी
देती है। मनुष्य एक समझदार प्राणी माना जाता है लेकिन पृथ्वी पर किसी भी
प्राणी ने मौत का सामान इकट्ठा  नहीं किया, सिवाय मनुष्य के। समझदारी इसी
को कहते हैं तो मनुष्य एक समझदार प्राणी है। आज जो बेहिसाब पानी आकाश से
गिर रहा है और मनुष्य का जीवन असुरक्षित बना रहा है, उसका कारण भी तो
मनुष्य की धनलिप्सा ही है। जिसने पर्यावरण संतुलन को नष्ट करने में कोई
कसर नहीं छोड़ा है। वक्त की मांग तो यही है कि मंदिर मस्जिद के लिए लडऩे
के बदले आदमी एक होकर पर्यावरण संतुलन के लिए लड़े। पृथ्वी और उसके मौसम
की सुरक्षा मनुष्य के जिंदा रहने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है। पर्यावरण
का असंतुलन कल को मनुष्य मात्र के लिए काल साबित हुआ तो सारा तथाकथित
विकास और आपसी संघर्ष क्या मायने रखेगा?

हिमालय की भूमि बड़ा तीर्थ स्थान है। आज वहीं कहर प्रकृति दिखा रही है।
बादल फट रहे हैं। पिछले दिनों लेह में बादल फटा था तो सैकड़ों लोगों की
समाधि बन गयी और आज भी कितने ही लोग लापता हैं। ऐसा नहीं है कि यह सब
भारत में ही हो रहा है। कम ज्यादा सर्वत्र हो रहा है। पृथ्वी गर्म हो रही
है और तापमान बढ़ रहा है। ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है। कहा जा रहा है कि
सूर्य से भी हमला होने वाला है। सूर्य में भी विस्फोट हो रहा है। समुद्र
का पानी गर्म हो रहा है। पहले जो पानी दिनों में बरसता था, वह घंटों में
गिर जाता है। बादल ऐसे आसमान में आपस में टकराते हैं कि गडग़ड़ाहट घबराहट
पैदा करती है। फिर भी मनुष्य मनुष्य को ही मारता है। कहीं धर्म के नाम
पर, कही  आजादी के नाम पर तो कही  किसी वाद के नाम पर। क्या यही मनुष्य
होने का अर्थ है? क्या यही परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति के लक्षण हैं?
पृथ्वी पर कभी जीवन समाप्त होगा तो वह या तो प्रकृति के कहर के कारण होगा
या फिर मनुष्य की लालसाएं उसका जीवन नष्ट कर देगी। वह स्वयं तो मरेगा
ही, सब कुछ ले डूबेगा। भगवान भी यदि होगा तो सोचता होगा कि मनुष्य को
बनाकर उसने गलती तो नहीं की। वह तो उसका नाम लेकर लडऩे झगडऩे और मारने
में भी पीछे नहीं हैं।

- विष्णु सिन्हा
21-09-2010