यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

देश में आर्थिक समृद्धि बढ़ रही है लेकिन भ्रष्टाचार डायन सब चौपट कर रही है

कहा जा रहा है कि दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति 2014 तक एक भारतीय होगा।
उस व्यक्ति का नाम है मुकेश धीरुभाई अंबानी। इस देश के 120 करोड़ लोग
क्या गौरव का अनुभव करेंगे कि उनका ही एक भाई दुनिया का सबसे अमीर
व्यक्ति है? मनमोहन सिंह की सरकार ने यह चमत्कार तो कर दिया लेकिन अभी उस
चमत्कार का इंतजार है जब आम भारतीय गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करता न
पाया जाएगा। धन बढ़ा है, देश में। इसे तो दुनिया भी स्वीकार कर रही है।
भारत तेजी से विकसित हो रहा है और आज के संपन्न राष्ट्रों  के लिए चुनौती
बनता जा रहा है। जब अमेरिका के राष्टपति अमेरिका के लिए चीन, भारत और
जर्मनी को चुनौती मान रहे हैं तो भारत को इस स्थिति में खड़ा करने का
श्रेय मनमोहन सिंह को न मिले, ऐसा नहीं हो सकता लेकिन इसका लाभ उन गरीबों
तक तो पहुंच नहीं रहा है जिनके लिए कांग्रेस हमेशा से स्वप्नों की
नीतियां बनाती रही है।

क्या इसका कारण बढ़ती हुई समृद्धि के साथ भ्रष्टाचार में वृद्धि भी नहीं
है? ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी का अनुमान तो यह है कि प्रतिदिन भारत
से 200 करोड़ रुपए का कालाधन विदेश जा रहा है। बाबा रामदेव भी निरंतर कह
रहे हैं कि विदेशी बैंकों में भारत का इतना धन जमा है कि वह वापस देश में
लाया जा सके तो देश में गरीबी नाम की चीज शेष ही न बचे। कौन लोग हैं जो
इस तरह से धन को विदेश ले जाकर भारत को क्षति पहुंचा रहे हैं? संगठित
अपराध और आतंकवादियों के लिए जिस तरह के कड़े कानूनों की वकालत सदा से की
जाती रही है, उसी तरह का कानून क्या धन विदेश ले जाने वालों के लिए नहीं
बनाया जाना चाहिए? क्या इन्हें देशद्रोही, गद्दार जैसी संज्ञाओं से नवाजा
नहीं जा सकता? क्या सरकार इतनी निकम्मी है कि उसे पता ही नहीं है कि कौन
लोग देश के साथ इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं? देश में ही कर चोरी कर
कालाधन इकट्ठा  करने वाले और उसका देश में ही उपयोग करने वाले तो एक बार
क्षम्य भी हो सकते हैं लेकिन देश से बाहर धन ले जाने वाले तो किसी भी
कीमत पर क्षम्य नहीं हो सकते।

हर तरह के अपराधी, भ्रष्टाचारी पकड़े जाते हैं लेकिन इतनी बड़ी मात्रा
में धन विदेश ले जाने वाले तो पकड़ में नहीं आते। फिर संदेह के दायरे में
राजनेता, नौकरशाह और व्यापारी ही तो आते हैं। वे तो पकड़े भी जाते हैं जो
धन को देश में ही रखे हुए हैं लेकिन जो विदेश ले जा रहे हैं वे पकड़ में
क्यों नहीं आते? जब पूर्व सतर्कता आयुक्त कहते हैं कि 30 प्रतिशत लोग देश
में भ्रष्ट हैं तो भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए सख्त कदम उठाने से
सरकार हिचकती क्यों है? टैक्स और टैक्स के रुप में आम जनता तो मजबूर है
टैक्स पटाने के लिए और सरकारी खजाना भरने के लिए लेकिन जिन लोगों से
वास्तव में टैक्स मिलना चाहिए, वे तो बच निकलते हैं। जिस देश में एक
व्यक्ति दुनिया का सबसे अमीर बनने जा रहा है, उस देश में अनाज को सड़ाने
के लिए तो सरकार तैयार है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद गरीबों
को मुफ्त बांटने के लिए तैयार नहीं है। जिस देश में 37 करोड़ लोग गरीबी
रेखा के नीचे जीवन यापन करने के लिए मजबूर हैं, उस देश से प्रतिदिन 200
करोड़ रुपए चोरी कर लिए जाते हैं तो यह किसके लिए शर्म की बात है?
यह धन विदेश जाने से रोका जा सके तो सरकार आम जनता पर टैक्स कम कर सकती
है। महंगाई को रोक सकती है। आखिर महंगाई के कारण आम जनता को भले ही
निचोड़ा जा रहा है लेकिन किसी की तिजौरी भी तो भर रही है। किसान के खेत
में 2 रु. किलो में पैदा होने वाला आलू जब आम उपभोक्ता तक पहुंचता है तो
वह 20 रुपए किलो से अधिक का हो जाता है। वास्तविक उत्पादक 2 रुपए प्राप्त
करता है और आम जनता उसके लिए 20 रुपए चुकाती है तो 18 रुपए किसकी जेब में
जाता है? यह तो एक उदाहरण है। क्या यही हाल बाजार के शोषण का नहीं है?
बाजार शोषक और उपभोक्ता शोषित, यही बाजार की अर्थव्यवस्था है। भ्रष्टाचार
घुन की तरह है जब तक इसे रोकने का उचित उपाय नहीं किया जाता तब तक देश
में एक तरफ बढ़ती अमीरी और दूसरी तरफ बढ़ती गरीबी को नहीं रोका जा सकता।
देश में बढ़ते धन का लाभ आम आदमी तक पहुंचाने की ईमानदार मंशा हो तो
भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के सिवाय कोई चारा नहीं है।

लेकिन यह करेगा कौन? राहुल गांधी कर सकते हैं। वे युवा हैं और कह भी रहे
हैं कि देश की सेवा करने के लिए प्रधानमंत्री बनना आवश्यक नहीं। मुंबई
में उनके पिता श्री राजीव गांधी ने कांग्रेस सम्मेलन में कहा था कि सत्ता
के दलालों को कोड़े लगाना चाहिए और पूरे देश ने इसका स्वागत किया था
लेकिन उन्हीं के मंत्रिमंडलीय सहयोगी ने उन्हें ही सत्ता का दलाल साबित
करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। यहां तक कि प्रचार की ऐसी आंधी खड़ी
की गयी थी कि देश भर नारे लगते थे कि सत्ता के दलालों को जूता मारो सालों
को। अंतत: इस दुष्प्रचार ने उन्हें सत्ताच्युत कर दिया था। यह कभी सिद्ध
नहीं हो सका कि राजीव गांधी ने बोफोर्स सौदे में दलाली ली थी। सूचना के
अधिकार के तहत जानकारी मांगने पर गुजरात में एक व्यक्ति को अपनी जान
गंवानी पड़ी और हत्या के आरोप में पकड़ा गया, एक भाजपा सांसद का भतीजा।
भ्रष्टïचारी अपने धन से इतने सशक्त तो हो गए हैं कि वे भ्रष्टाचार की
कलाई खोलने वालों की जान ले लें। राहुल गांधी ही कहते हैं और उनके
पिताश्री राजीव गांधी भी कहते थे कि केंद्र से भेजा गया 1 रुपया वास्तविक
हकदारों तक 15 पैसे से अधिक नहीं पहुंचता। यह बात भी आज की नहीं है बल्कि
25 वर्ष पुरानी है।

राजनैतिक पार्टियां ही करोड़ों रुपए इकट्ठा  करती हैं। चंदा चेक से दिया
जाए, यह कानून है। तब करोड़ों का चंदा तो मिलने से रहा। कांग्रेस ही कूपन
बेचकर 600 करोड़ रुपए इकट्ठा  कर लेती है। भाजपा भी पीछे नहीं हैं। वह भी
300 करोड़ रुपए के आसपास इकट्ठा  कर लेती है। 40-50 करोड़ तो वामपंथी
पार्टियां भी इकट्ठा  कर लेती है। कोई भी जब करोड़ों का चंदा देता है तो
राजनैतिक संरक्षण के रुप में कीमत तो वसूलता है। ईमानदारी से कमाने वाला
तो चंदा देने से रहा। वह अपने धार्मिक पर्वों के लिए 100-50 रुपए चंदा
भले ही दे दे लेकिन उसके पास इतना होता ही नहीं कि वह लाखों करोड़ों में
दे। भ्रष्टाचार तो खरपतवार की तरह है। जितना उखाड़ो उखाडऩे के बावजूद कई
गुणा शेष रह जाती है। चुनाव आयोग अब आयकर अधिकारियों का उपयोग चुनावी
खर्च की निगरानी के लिए करने वाला है। प्रत्याशियों से कहा जा रहा है कि
बैंक में खाता खोलो और उसमें से चुनावी खर्च करो। अच्छा है। बंदिश लगाने
का काम तो होना चाहिए लेकिन टीएन शेषन ही चुनाव में भ्रष्टïचार के
विरुद्ध खड़े होने वाले पहले चुनाव आयुक्त थे लेकिन उन्हें भी
प्रत्याशियों ने अंगूठा तो दिखा ही दिया था। जब तक चुनाव धन से मुक्त
नहीं होंगे तब तक भ्रष्टाचार को रोकना आसान नहीं है। चुनाव जितने महंगे
होंगे, भ्रष्टाचार भी उतना ही बढ़ेगा। आजकल तो वार्ड पार्षद के चुनाव में
ही प्रत्याशी लाखों नहीं करोड़ों खर्च कर देते हैं। तब भ्रष्टाचार को
रोका कैसे जा सकता है? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो चुनाव लड़ते ही नहीं।
एक बार लड़ा भी था तो हार गए थे। बिना अनुभव के वे भ्रष्टाचार से मुक्त
चुनावों को नहीं कर सकते तो बाकी क्षेत्रों को भ्रष्टाचार से मुक्त कराना
असंभव भले ही न हो लेकिन कठिन तो है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 15.10.2010
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