उसने आदेश दिया था, सलाह नहीं। केंद्रीय कृषि मंत्री अभी तक संसद के भीतर
और बाहर यही समझाते रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने सलाह दिया है और सुप्रीम
कोर्ट की सलाह मानना संभव नहीं है। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर
दिया है, तब शरद पवार संसद में ही कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का
सम्मान किया जाएगा। दरअसल एक संवेदनशील सरकार के लिए तो यह उचित होता कि
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के पहले ही वह अनाज को सडऩे देने के लिए छोडऩे
के बदले गरीबों को खाने के लिए बांट देती। अनाज या जिसे व्यवहार में अन्न
कहा जाता है हिंदुओं के लिए ब्रह्म का दर्जा रखता है। अन्न को
धर्मशास्त्रों ने ब्रह्म कहा है। भोजन की थाली में अन्न का एक भी दाना
छोडऩा उचित नहीं माना जाता। भोजन ग्रहण करने के पहले भोजन को प्रणाम करने
की भी परंपरा है। वैसे भी अन्न के बिना जीवन ही संकट में पड़ जाता है।
ऐसे अन्न को धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा लगाए सरकार सडऩे के लिए छोड़ देती
है, बनिस्बत की वह किसी भूखे के पेट की अग्रि को शांत करने के काम में आए
तो इसे किसी भी दृष्टि से कम से कम भारत में तो उचित नहीं माना जा सकता।
एक समय था, जब अधिक अन्न उपजाने के लिए अमेरिका की प्रतिस्पर्धा थी और
अन्न के भाव बाजार में कम न हो जाएं, इसलिए बाजार में भाव को बनाए रखने
के लिए वह जिन्हें अन्न की आवश्यकता थी, उन्हें देने के बदले समुद्र में
बहा देता था। एक जमाना वह भी था जब भारत अन्न की अपनी आवश्यकता पूरी नहीं
कर पाता था तो अमेरिका से ही पीएल 480 का लाल गेहूं प्राप्त करता था। जो
राशन दुकानों के माध्यम से लोगों को सरकार मुहैया कराती थी। इसे खाने के
योग्य भारतीय जनता नहीं समझती थी लेकिन पेट की आग उसे खाने के लिए विवश
करती थी। अमेरिका का अहंकार उस समय सातवें आसमान पर था और वह समझता था कि
भारत बिना उसके अन्न के अपने लोगों का पेट नहीं भर सकता। तब इंदिरा गांधी
प्रधानमंत्री थी। जिन्होंने देश में हरित क्रांति की देश की आवश्यकता से
अधिक अन्न उपजाने के लिए हरसंभव योजना क्रियान्वित की। उस समय तो 50-60
करोड़ ही भारत की आबादी थी और भारत को कृषि प्रधान देश ही माना जाता था।
कृषि प्रधान देश होने के बावजूद भारतीयों का पेट पूरी तरह से भरता नहीं
था। आज भी भारत ने बहुत औद्योगिक प्रगति भले ही कर ली हो, कृषि भूमि
छीनकर उद्योग लगा लिया हों लेकिन आज भी भारत की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर
ही निर्भर है। आज आबादी 120 करोड़ के आसपास है और हमारे किसान इतना अन्न
उत्पादित करते हैं कि किसी अन्य से मांगने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि
हम निर्यात तक करते हैं। इसके बावजूद अन्न का सडऩा तो कोई भी उचित नहीं
मान सकता। लोगों को इस मामले के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़े कि
अनाज को सडऩे के बदले गरीबों को बांट दिया जाए तो यह सरकार के लिए अच्छी
स्थिति नहीं है। जनता ने ही सरकार को चुना है तो सरकार का तो कर्तव्य
बनता है कि उसके पास आवश्यकता से अधिक है तो वह मुफत में अन्न अपनी जनता
को बांट दे। इससे बाजार के व्यापारियों को नुकसान भी होता है तो भी जनता
की सुख सुविधा का ध्यान रखना सरकार का प्रथम कर्तव्य है। व्यापार, धंधा
जनता के हित में होना चाहिए। न कि व्यापार धंधे के लिए अन्न को सड़ाना।
कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के समय अपने घोषणा पत्र में 3 रू. किलो अनाज
गरीब जनता को देने का वायदा किया था। चुनाव हुए 1 वर्ष से अधिक हो गया
लेकिन सरकार केंद्र में बन जाने के बावजूद कांग्रेस अभी तक 3 रू. किलो
अनाज देने के विषय में सोच विचार ही कर रही है। जबकि छत्तीसगढ़ की डा.
रमन सिंह की सरकार पिछले 3 वर्षों से गरीबों को चांवल पहले 3 रू. किलो और
अब 2 रू. एवं 1 रू. किलो में दे रही है। केंद्र सरकार के बीपीएल कोटे
में 90 प्रतिशत कमी के बावजूद। खबर है कि पंजाब में लाखों टन चांवल खराब
हो रहा है, कोई लेने वाला नहीं है। महंगाई की मार से पीडि़त जनता के
प्रति सरकार की संवेदनशीलता नहीं निष्ठुरता ही उजागर होती है। अन्न न हो
देश में तो महंगाई समझ में भी आने वाली बात है। मांग अधिक हो और पूर्ति
पर्याप्त न हो और विदेशों से मंगाना पड़ता हो तब भी बात समझ में आने वाली
है लेकिन देश में अनाज के गोदाम भरे हुए हैं। गोदामों के अभाव और देख रेख
की उचित व्यवस्था के न होने से अन्न सड़ रहा है, कीड़े लग रहे हैं लेकिन
जनता को उसे खाने के लिए नहीं दिया जा सकता। उस जनता को जो वास्तव में
देश की मालिक है। सरकार के ठाट बाट उसी के कारण हैं। सरकार और संसद में
बैठे लोग हर तरह की सुविधा उसी जनता के कारण ही प्राप्त करते हैं।
क्योंकि वही उन्हें चुनकर सरकार और संसद में बैठने का अधिकार देती है।
उसी जनता की सेवा की दुहाई देकर सत्ता प्राप्त की जाती है। अन्न भी उसी
जनता के द्वारा उगाया हुआ है। जनता को सरकार की नीति के विरूद्घ न्यायालय
का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। न्यायालय संवेदनशील है। वह आदेश भी देता है
कि गरीब जनता को मुफत में बांट दो तो पूरी बेशर्मी से मंत्री कहते हैं कि
न्यायालय ने सलाह दी है, आदेश नहीं दिया है। तब न्यायालय को पुन: कहना
पड़ता है कि सलाह नहीं दी है, आदेश दिया है। किसी के घर में पका हुआ भोजन
खाने के बाद बच जाता है तो वह भी नाली में नहीं फेंकता बल्कि जरूरतमंद को
खिलाना पसंद करता है। बड़े ध्यान से भोजन करता है कि थाली के बाहर अन्न
का एक भी दाना न गिरे। अन्न की महिमा से तो शास्त्र भरे पड़े हैं। उस
अन्न का सम्मान जब सरकार नहीं करेगी तो भगवान रूपी जनता उससे प्रसन्न नहीं
होने वाली है। वक्त के साथ बहुत कुछ बदला लेकिन अन्न की महिमा भारतीय
समाजों में कम नहीं हुई, न ही अन्न के बिना 120 करोड़ भारतवासियों का काम
चलने वाला है।
आम भाषा में यही कहा जाता है कि इस पापी पेट के लिए जो न करना पड़े थोड़ा
है। इक्का दुक्का लोग हैं जो वर्षों से बिना अन्न पानी के भी जिंदा हैं
लेकिन आम आदमी के लिए यह संभव नहीं। पिछले दिनों अहमदाबाद में एक साधु का
चिकित्सकों ने परीक्षण किया, जिसके विषय में कहा जाता है कि वर्षों से
अन्न पानी ग्रहण नहीं किया। ऐसे कुछ लोगों की और भी कहानियां हैं लेकिन
ये अपवाद है। विज्ञान इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है। बहुत दिनों
से सुनते आए हैं कि भविष्य में अन्न की जरूरत नहीं पड़ेगी। वैज्ञानिक ऐसी
गोलियां बनाने में सफल होंगे जिससे एक खुराक सुबह और एक खुराक शाम को
लेने से ही मनुष्य का काम चल जाएगा। यह तो जब होगा तब होगा और आदमी इसके
लिए तैयार होगा या नहीं लेकिन आज तो सबको भोजन चाहिए और अन्न ही प्रमुख
भोज्य पदार्थ है। जब भूख सताती है तब अन्न किसी भगवान से कम नहीं होता।
सरकारों को सोचना चाहिए कि कैसे वह अपने नागरिकों को नि:शुल्क न सही तो
कम से कम कीमत पर अन्न उपलब्ध करा सकती है। तब कोई यह नहीं कहेगा कि पापी
पेट के लिए वह गलत काम करने के लिए उद्यत हुआ। दाल रोटी की मजबूरी ने उसे
अपराध के लिए बाध्य किया।
- विष्णु सिन्हा
1-9-2010