यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 6 सितंबर 2010

भाजपा और कांग्रेस का अंतर दोनों के अध्यक्षों को देखकर ही लगाया जा सकता है

देश की दो बड़ी राष्ट्रिय  पार्टियां है, भारतीय जनता पार्टी और
कांग्रेस। सबसे बड़ा अंतर दोनों पार्टियों में तो यही है कि कांग्रेस को
भले ही स्वतंत्रता संग्राम की पार्टी कहा जाए, लेकिन यह एक परिवार की ही
पार्टी है। मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी
के बाद अब पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी स्थायी रूप से सोनिया गांधी के पास
है। सोनिया गांधी  तो अपने ही परिवार का अध्यक्ष रहने का रिकार्ड तोडऩे
जा रही है। 1998 से लगातार वे पार्टी अध्यक्ष हैं और फिर से उनके पार्टी
अध्यक्ष चुने जाने में कोई शक शुब्हा नहीं है। कल नामांकन दाखिले के समय
किसी भी कांग्रेसी ने हिम्मत नहीं की कि वह भी नामांकन दाखिल करे। कारण
भी स्पष्ट है कि कोई भी यदि ऐसी कोशिश करता तो उसे प्रस्तावक और समर्थक
ही नहीं मिलते। इक्का दुक्का लोगों ने पूर्व में ऐसे प्रयास किए तो
उन्हें मुंह की खानी पड़ी। इसलिए कांग्रेसी किसी भी पद का उम्मीदवार हो
सकता है लेकिन अध्यक्ष के पद का उम्मीदवार नहीं हो सकता। सबको अच्छी तरह
से पता है कि सोनिया गांधी अध्यक्ष पद जब  छोडऩा चाहेंगी स्वयं तब ही वे
पद से हट सकती हैं। नहीं तो उनसे अध्यक्षता छीनने की शक्ति किसी में नहीं
है।

उनके विदेशी मूल का होने के कारण कुछ शरद पवार जैसे कांग्रेसियों ने
कांग्रेस छोड़ी भी तो आज के इस विषय में कोई बात नहीं करना चाहता और
सोनिया गांधी की कांग्रेस के साथ गठबंधन कर केंद्र और महाराष्ट की
सत्ता पर काबिज हैं। सोनिया गांधी के बाद कांग्रेस की अध्यक्षता कौन
करेगा? यह भी सबको अच्छी तरह से पता है, राहुल गांधी। राहुल गांधी जिस
तरह से मंत्री और प्रधानमंत्री बनने के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर पा
रहे हैं और अंतत: वे तैयार नहीं हुए तब भी पार्टी अध्यक्ष का पद किसी और
के भाग्य में नहीं है। प्रियंका गांधी हैं, न। पार्टी में उनकी छवि
इंदिरा गांधी की तरह है। प्रियंका ने पिछले दिनों इंदिरा गांधी की स्टाइल
में बाल कटवा लिए है। अमेठी और रायबरेली में अपने भाई और माता के लिए वह
चुनाव प्रचार के लिए भी जाती है। इसलिए किसी कांग्रेसी के लिए यह सोच
विचार का विषय नहीं है कि सोनिया गांधी के बाद कांग्रेस की अध्यक्षता कौन
करेगा? सब कुछ निश्चित है। राहुल गांधी ने विवाह नहीं किया है। वे 40
वर्ष के होने जा रहे हैं। वे जीवन पर्यन्त विवाह बंधन में नहीं बंधते तब
भी प्रियंका की संतान हैं, न। आगे पार्टी का नेतृत्व करने के लिए। सब
विधि के विधान की तरह कांग्रेस में निश्चित है।

लेकिन दूसरी बड़ी राजनैतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी में इस तरह की कोई
व्यवस्था नहीं है। लालकृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज भाजपा के नेता अध्यक्षता
छोड़ते हैं तो उनके परिवार का कोई व्यक्ति अध्यक्षता नहीं संभालता बल्कि
राजनाथ सिंह पार्टी की कमान संभालते हैं। दूर दूर तक उनका आडवाणी परिवार
से कोई खून का रिश्ता नहीं है। राजनाथ सिंह का अध्यक्षता समय पूर्ण होने
पर छोड्ते हैं तो नितिन गडकरी जैसे नेता को अध्यक्षता सौंपी जाती है।
जिसने कभी दिल्ली या राष्ट्रीय  स्तर की राजनीति नहीं की। मात्र राज्य
स्तर के नेता रहे। उन्हें पार्टी अपने तमाम वरिष्ठ नेताओं की तुलना में
तरजीह देती है। सुषमा स्वराज, अरूण जेटली, वेंकैया नायडू जैसे दिग्गज
नेताओं के दिल्ली में होते हुए भी भाजपा नितिन गडकरी को अपना अध्यक्ष
बनाती है। सबसे बड़ी बात तो यही है कि तमाम वरिष्ठ नेता नितिन गडकरी को
अपना अध्यक्ष स्वीकार भी कर लेते हैं। कहीं कोई चूं चपड़ नहीं होती।
भाजपाई नेताओं में महत्वाकांक्षा नहीं है, ऐसा नहीं है लेकिन पार्टी की
कीमत पर किसी की महत्वाकांक्षा का कोई मूल्य नहीं है, यह पार्टी के नेता
और कार्यकर्ता अच्छी तरह से जानते हैं। यही पार्टी के सबसे अलग होने की
भी निशानी है।

कांग्रेस की केंद्र में गठबंधन सरकार है तो उसका आधार तथाकथित
धर्मनिरपेक्षता है। पहले जनसंघ और अब भाजपा पर कांग्रेस का आरोप ही यही
है कि पार्टी सांप्रदायिक है। कारण भाजपा हिंदू हितों की बात करने में
हिचकती नहीं। राम जन्मभूमि जैसे मुद्दों से अपने को जोडऩे से भाजपा
हिचकती नहीं। इसके राष्टरीय स्वयं सेवक संघ से घनिष्ठ रिश्तों को इसका
आधार बनाया जाता है। संवैधानिक रूप से भाजपा धर्मनिरपेक्ष पार्टी है।
क्योंकि संवैधानिक रूप से तो किसी पार्टी का पंजीकरण ही नहीं हो सकता।
सत्ता के लिए मतों का विभाजन विभिन्न आधार पर जिनकी जरूरत है, वे इसी तरह
के आधारों पर अपनी राजनीति करते हैं। धर्मनिरपेक्षता का पहाड़ा पढऩे
वालों के प्रधानमंत्री तक कहते हैं कि देश के संसाधनों पर पहला हक
अल्पसंख्यकों का है। सांप्रदायिक कौन है? वही जो बहुसंख्यक हिन्दू हितों
की बात करे। हिंदुओं को संगठित करने का प्रयास करे। जात पात का भेदभाव
समाप्त करने की बात करे। भाजपा यह सब करती है। इसलिए वह सांप्रदायिक है।
लेकिन इससे परे देखा जाए कि शासन कौन अच्छा चला रहा है तो प्रथम तीन नाम
जिन राज्यों का आता है, वे भाजपा शासित राज्य हैं। गुजरात में नरेंद्र
मोदी की सरकार के विरूद्घ मत मंगते हुए तो सोनिया गांधी ने उन्हें मौत
का सौदागर तक कहा लेकिन समस्त मीडिया के पूर्व अनुमानों को ध्वस्त करते
हुए गुजरात की जनता ने नरेंद्र मोदी को ही दो तिहाई मतों से सत्ता सौंपी।
छत्तीसगढ़ में डा. रमन सिंह के विरूद्घ कम दुष्प्रचार करने की कोशिश नहीं
की गई लेकिन छत्तीसगढ़ की जनता ने उन्हें ही शासन दोबारा सौंपा। तीसरी
बार भी सत्ता उन्हें ही जनता सौंप दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। सबसे
स्मरणीय बात तो यही है कि चुनाव के समय स्टार प्रचारक रहे दिलीप सिंह
जूदेव के विरूद्घ एक सीडी भी जारी की गई और छत्तीसगढ़ की जनता की नजरों
में भाजपा की छवि को खराब करने के लिए कोई कोर कसर नही  छोड़ी गई। फिर भी
जनता ने कांग्रेस से सत्ता छीनकर भाजपा को सौंप दी।

कांग्रेस ने वर्षों देश पर शासन किया। आज भी केंद्र की सरकार उसी की है।
यह बात दूसरी है कि वह सरकार सिर्फ अपने बल पर बनाने में सक्षम नहीं है।
उन पार्टियों के सहयोग के भरोसे उसकी सरकार है जिन्होंने एक समय कांग्रेस
से प्रांतीय सत्ता छीन ली थी। भाजपा ने तो स्वतंत्रता के बाद शून्य से
प्रारंभ किया था और उसके बाद 6 वर्षों तक देश की सत्ता की जिम्मेदारी
उसके पास रही। भले ही उसकी गठबंधन की सरकार थी लेकिन तथाकथित
धर्मनिरपेक्ष दलों ने ही उसके साथ गठबंधन किया था। राष्टरीय स्वयं सेवक
संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत कहते हैं कि धूल से खड़े होने की ताकत भाजपा
में है तो इस कथन को सत्य सिद्घ करने के लिए ही पार्टी ने अपना अध्यक्ष
नितिन गडकरी को बनाया है।

दोनों पार्टियों का भेद स्पष्ट दिखायी देता है। नितिन गडकरी अपना
कार्यकाल पूरा करेंगे तो कोई दूसरा कार्यकर्ता पद को सुशोभित करेगा लेकिन
कांग्रेसी कोई भी सोनिया गांधी की कुर्सी का दावा नहीं कर सकता। ऐसे दावा
करने वाले के लिए पार्टी में ही कोई जगह नहीं रहेगी। प्रजातंत्र में रंक
को भी राजा बनने का अधिकार है। यही प्रजातंत्र की खूबी है। इसे भाजपा
सार्थक भी करती है। यही उसकी पूंजी है। राजनीति में है तो सत्ता उ्देश्य
होगा ही लेकिन मात्र सत्ता ही जिनका उद्देश्य होता है, वे मूल्यों का
क्षरण रोक नही   सकते और मूल्यों के बिना राजनीति स्वयं तो दिग्भ्रमित
होती ही है, देश का भी नुकसान करती है।

- विष्णु सिन्हा
03-09-2010