यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

सरकार में बैठे लोग भले ही हिन्दी का सम्मान न करें लेकिन हिन्दी को उसके स्थान से हिलाया नहीं जा सकता

हिन्दी। बेचारी हिन्दी। याद करने के लिए एक दिन तय है। इस दिन हिन्दी को
सम्मानित करने की बात कही जाती है। हिन्दी के बड़े-बड़े पक्षधर भी अपनी
संतानों को अंग्रेजी माध्यम से ही शिक्षा देने में रुचि लेते हैं। फर्क
तो सर्वत्र दिखायी देता है हिन्दी माध्यम से पढ़े लिखे लोगों में और
अंग्रेजी माध्यम से पढ़े लिखे लोगों में। हिन्दी जिनकी मातृभाषा है, वे
भी ठीक से हिन्दी का ज्ञान नहीं रखते। कभी इस देश में और विशेष कर उत्तर
भारत में अंग्रेजी के विरुद्ध आंदोलन हुआ था। कुछ राजनैतिक दलों खासकर
समाजवादियों ने और छात्रों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। परीक्षा पास
करने के लिए अंग्रेजी में पास होना भी अनावश्यक कर दिया गया था। अंग्रेजी
को दूसरी भाषा का दर्जा दिया गया था। उस समय अंग्रेजी माध्यम के गिने
चुने स्कूल थे और आंदोलनकारियों ने इन्हें कम परेशान नहीं किया था। कोई
दुकानदार अपना साइनबोर्ड अंग्रेजी में नहीं लिखा टांग सकता था। जिन्होंने
अंग्रेजी में बोर्ड लगाए थे, उनके बोर्ड काले कोलतार से पोत दिए गए थे।
पूरा इतिहास है हिन्दी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने की मंशा रखने
वालों का।

लेकिन यह आंदोलन धीरे-धीरे समाप्त हो गया और अंग्रेजी ने अपना वर्चस्व
जमाना प्रारंभ कर दिया। आज तो कुकुरमुत्ते की तरह अंग्रेजी माध्यम के
स्कूल शहरों में ही नहीं, कस्बों और गांवों तक पहुंच गए हैं। जो बच्चा
अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में नहीं पढ़ता, वह हीनभावना से ग्रस्त हो जाता
है। उसे दोयम दर्जे का समझा जाता है। फिर उच्च शिक्षा  और विशेषकर
विज्ञान और वाणिज्य से संबंधित पढ़ाई तो अंग्रेजी माध्यम से ही होती हैं।
आज देश गर्व भी करता है कि चूंकि भारत के लोग अंग्रेजी जानते हैं, इसलिए
उनकी दुनिया भर में पूछ परख है। चीन इस मामले में पिछड़ गया है। भारत के
इंजीनियर डॉक्टर की दुनिया भर में मांग है और अमेरिका तो घबरा गया है कि
कहीं भारतीय पूरी तरह से छा न जाएं। दुनिया से बात करना है तो माध्यम
हिन्दी नहीं है,अंग्रेजी है। इसी सोच से शासकीय स्कूलों में भी अंग्रेजी
को आवश्यक बना दिया। हिन्दी माध्यम से शिक्षा सस्ती है और अंग्रेजी
माध्यम से महंगी लेकिन फिर भी हर किसी की मंशा अपनी संतानों को शिक्षा
अंग्रेजी माध्यम से देने की है।

जब लाल बहादुर शास्त्री ने अपने शासनकाल में हिन्दी को अनिवार्य राजकाज
में करने की कोशिश की तो सबसे बड़ा विरोध तमिलनाडु से ही प्रारंभ हुआ।
द्रविड़  मुनेत्र कषगम तो सिर्फ हिन्दी विरोध के नाम से वर्षों से तमिलनाडु
की सत्ता पर काबिज है। कांग्रेस तो सिर्फ हिन्दी के नाम से ही ऐसी उखड़ी
तमिलनाडु से कि उसने दोबारा इस पचड़े में पडऩे की कोशिश ही नहीं की। आज
महाराष्ट्र  में राज ठाकरे हिन्दी का विरोध कर मराठी को आगे लाना चाहते
हैं। वे उत्तर भारतीयों का विरोध इस सीमा तक करते हैं कि हिन्दी भी विरोध
का कारण बनती है। यहां तक कि विधानसभा में शपथ ग्रहण एक विधायक के द्वारा
हिन्दी में किए जाने पर राज ठाकरे के विधायक उस विधायक से मारपीट करने के
लिए विधानसभा में ही उतारु हो गए थे। उन विधायकों को निलंबित भी किया
गया। हिन्दी हिन्दुस्तान में इसीलिए तो बेचारी है कि उसका विरोध कर लोग
अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को परवान चढ़ाते हैं।

स्वतंत्रता के पूर्व हिन्दी किसी भी तरह के विवाद का विषय नहीं थी लेकिन
63 वर्षों की स्वतंत्रता के बाद भी हिन्दी को जो राजकाज की भाषा में ही
स्थान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। छत्तीसगढ़ के अधिकारी ही कहते हैं
कि केंद्र सरकार को पत्र हिन्दी में लिखो तो जवाब अंग्रेजी में आता है।
पिछले दिनों राजभाषा हिन्दी के लिए हुई बैठक में ही जब अंग्रेजी में
कार्यवाही होने लगी तो रमेश बैस ने विरोध किया और कागजों को फाड़ कर बैठक
का विरोध किया। लोग हिन्दी के साथ अंग्रेजी या अन्य भाषा को व्यवहार में
लाएं, इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन सरकारी काम यदि आम
जनता की भाषा में हो तो आम जनता उसे समझ तो सकती हैं। भाषा अभिव्यक्ति का
माध्यम है और जिम्मेदार लोगों के लिए यह समझना जरुरी है कि अभिव्यक्ति उस
भाषा में होना चाहिए जिसे लोग आसानी से ग्राह्य कर सके।

कन्नड़ भाषी देवगौड़ा जब देश के प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने घोषणा
की थी कि वे 1 वर्ष में हिन्दी सीख कर हिन्दी में ही भाषण करेंगे। सोनिया
गांधी को जब कांग्रेस का नेतृत्व सौंपने की बात आयी तब उन पर भी यही
प्रश्र चिन्ह लगा था कि उन्हें हिन्दी नहीं आती लेकिन जब उन्होंने हिन्दी
में लिखा भाषण ही पढऩा प्रारंभ किया तो लोगों को प्रभावित कर ही लिया। आज
वे अच्छी खासी हिन्दी बोलती हैं। उन्हें आम जनता से हिन्दी में बतियाने
में कोई तकलीफ नहीं होती और उनसे मिल कर अपनी भाषा में चर्चा कर लोग भी
प्रसन्न होते हैं। वे जननेता हैं। इसलिए उन्हें जनता के अनुसार चलना है।
जो जनता को पसंद हो वह काम करना है लेकिन नौकरशाहों की ऐसी कोई जरुरत
नहीं है। वे तो सूचना के अधिकार कानून के पक्ष में नहीं हैं लेकिन यह
कानून बना और आज जनता को बहुत सी जानकारी सहज ही उपलब्ध है। राज्य सरकार
की कार्यवाही तो हिन्दी में होती है लेकिन केंद्र सरकार जब अंग्रेजी में
कार्यवाही करेगी तो जानकारी भी अंग्रेजी में मिलेगी। ऐसे में जब तक
अंग्रेजी भाषा का ज्ञान न हो तब तक जानकारी को प्राप्त करने वाला समझेगा
कैसे?

हिन्दी दिवस के रुप में रस्म अदायगी मात्र से काम नहीं चलने वाला है। 2
अक्टूबर को महात्मा गांधी का जन्म दिन मना कर जिस तरह रस्म अदायगी की
जाती है और गांधी जी के नीति सिद्धांतों से सरकारें कोई लेना देना नहीं
रखती, उसी तरह का व्यवहार हिन्दी के साथ भी हो रहा है। हिन्दी ही देश में
ऐसी भाषा है जिसका राजनीति अपना उल्लू सीधा करने के लिए विरोध न करे तो
उसे उचित सम्मान और राजकाज में स्थान मिल सकता है और मिलना भी चाहिए। जिन
प्रदेशों में और खासकर तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध किया जाता है, वहां
भी हिन्दी फिल्में चलती हैं और ग्रामीण जनता भले ही न समझे लेकिन शहरी
जनता तो समझती है। वे सभी हिन्दी भाषा समझते हैं और हिन्दी बोलते भी हैं
जिन्हें हिन्दी भाषियों से किसी तरह का भी लाभ होता है। तमिल फिल्मी
कलाकार तक हिन्दी फिल्मों में स्थान बनाने के लिए लालायित रहते हैं। वैसे
भी हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी को जन-जन तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभायी
है।

यह दूसरी बात है कि हिन्दी के नामचीन कलाकार हिन्दी के बदले अंग्रेजी में
बात करना ज्यादा पसंद करते हैं। इस विरोधाभास के बावजूद रोटी तो वे
हिन्दी की ही खाते हैं। अंग्रेजी मीडिया अपने आपको कितना भी महत्वपूर्ण
समझे लेकिन हिन्दी पत्रकारिता ने उसे उसका स्थान दिखा दिया है। कुल
प्रसार संख्या का मुख्य हिस्सा हिन्दी समाचार पत्रों के पास ही है। यहां
तक कि न्यूज चैनल की टीआरपी अंग्रेजी चैनलों से अधिक है। स्वाभाविक रुप
से हिन्दी ने अपना स्थान बनाया है और सरकारी असहयोग के बावजूद जन-जन की
भाषा हिन्दी है। जब किसी भाषा का प्रयोग 100 करोड़ से अधिक आबादी करती है
तो कोई चाहे न चाहे, उसके स्थान से उसे हिलाया नहीं जा सकता। हिन्दी की
सबसे बड़ी खूबी तो यही है कि जो बोला जाता है वही लिखा जाता है और जो
लिखा जाता है वही पढ़ा जाता है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 14.10.2010
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