प्रजातंत्र में मिली आजादी के कारण कोई भी कुछ भी कहने के लिए आजाद है।
कहने के लिए ही क्यों करने के लिए भी आजाद है। काश्मीर में अलगाववादी
आजादी की बात करते हैं। भारत से अलग होने की बात करते हैं। स्वतंत्रता
दिवस पर राष्ट्रीय झंडा नहीं, पाकिस्तानी झंडा लहराते हैं। पाकिस्तान
जिंदाबाद के नारे लगाते हैं। सुरक्षा बलों के जवानों को पत्थर फेंक कर
मारते हैं। सरकार स्कूल कॉलेज में पढ़ाई प्रारंभ कराती है तो अलगाववादी
कहते हैं कि लोग अपने बच्चों को स्कूल न भेजें। फिर भी बच्चे स्कूल जाते
हैं। यह बात दूसरी है कि सभी नहीं जाते लेकिन जाना नहीं चाहते, ऐसी बात
नहीं है। लोग शांति के साथ भारत के साथ रहना चाहते हैं। वे चुनाव में
मतदान कर अपनी सरकार बनाते हैं लेकिन चंद लोगों को यह सब नागवार लगता है
और वे उत्पात मचाने के लिए लोगों को बाध्य करते हैं। इसके बावजूद भारत
सरकार अपनी तरफ से सहानुभूति दिखाती हैं और 100 करोड़ रुपए की मदद करती
है।
भारत का हर नागरिक काश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानता है तो
अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त लेखिका अरुंधति राय कहती है कि काश्मीर
भारत का कभी अंग रहा नहीं है। जब काश्मीर के राजा ने भारत के साथ विलय की
घोषणा कर दी तब काश्मीर भारत का अंग कैसे नहीं रहा? भारत के सभी राजाओं
ने इसी तरह से तो भारत में अपने राज्य का विलय किया था। अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का पूरी तरह से दुरुपयोग कर स्वयं को चर्चित बुद्धिजीवी
प्रदर्शित करने का यह तरीका आम भारतीय को तो स्वीकार नहीं हो सकता।
अरुंधति राय नक्सलियों का भी समर्थन करती हैं। नक्सली सशस्त्र बल के
सिपाहियों और निर्दोष नागरिकों को मारें तो कोई गलत काम नहीं करते लेकिन
सशस्त्र बल के सिपाहियों के द्वारा मुठभेड़ में नक्सली मारे जाएं तो गलत।
सिपाहियों का अपहरण कर और उन्हें मार कर सरकार को अपनी मांगें मानने के
लिए नक्सली बाध्य करे तो सही और सरकार नक्सलियों को पकड़कर न्यायालय में
मुकदमा चलाए तो गलत।
गनीमत है पुलिस बल नक्सलियों के नक्शे कदम पर नहीं चलता। वह तो उन्हीं को
मारता है जो उसे मारने के लिए गोलियां चलाते हैं। जो समर्पण कर देते हैं,
उन्हें तो गिरफ्तार कर न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। पिछले
दिनों ही न्यायालय में मामला सिद्ध न होने पर नक्सलियों को न्यायालय ने
रिहा कर दिया। पुलिस बल भी यह सोचने लगे कि कहां गिरफ्तार करना और मुकदमा
चलाना। यह तो हमें मार ही डालते हैं तो हम भी नक्सलियों को पकड़ें तो मार
दें। नक्सलियों के पथ पर चल कर पुलिस भी नक्सलियों के साथ नक्सलियों की
तरह व्यवहार करने लगे तो पता चल जाएगा कि नक्सली कैसे नक्सली होने का
लबादा छोड़ कर भाग खड़े होते हैं। पुलिस तो इंसानियत का प्रदर्शन करने
में भी पीछे नहीं हैं। पिछले दिनों जब मुठभेड़ के बाद एक घायल नक्सली
पकड़ में आया तो पुलिस ने न केवल अस्पताल में उसका उपचार कराया बल्कि उसे
आवश्यकता होने पर पुलिस जवान ने अपना खून तक दिया।
7 पुलिस के जवानों को नक्सलियों ने पकड़ा और उनमें से 3 को मार कर फेंक
दिया। अब 4 जवानों को वे जिंदा छोडऩे के लिए तभी तैयार होंगे जब उनकी
मांग सरकार माने। सरकार, नेता, समाजसेवी, यहां तक कि पुलिस जवानों का
परिवार भी नक्सलियों से अपील कर रहा है कि जवानों को छोड़ दिया जाए।
जवानों का परिवार तो आंध्र पहुंच कर कवि बारबरा तक से फरियाद कर चुका।
बारबरा ने भी अपील की है कि जवानों को छोड़ दिया जाए। सरकार कहती है कि
हथियार छोड़ो और बातचीत करो। क्या गलत कहती है? उसने तो आत्मसमर्पण करने
वाले नक्सलियों के लिए आर्थिक पैकेज की भी घोषणा कर रखी है। सरकार तो
पूरी दरियादिली दिखा रही है। वह कहती है कि नक्सली अपने ही लोग हैं। उनसे
कोई बैर भाव नहीं हैं। उनकी कोई भी वाजिब मांग हो तो सरकार नहीं मानेगी,
ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है। यदि नक्सलियों की नीयत में खोट नहीं है
तो वे हिंसा त्याग कर सरकारों से चर्चा को आगे आएं। खूनी खेल बंद करें।
नक्सली तो काश्मीरियों का भी समर्थन करते हैं। अलगाववादी काश्मीरियों का।
पिछले दिनों जो राजनांदगांव के पास नक्सलियों के हथियार बरामद हुए हैं,
उनमें हथगोले भी मिले हैं। जो चीन के द्वारा निर्मित है। इसका क्या यह
मतलब नहीं निकलता कि चीन इन नक्सलियों का समर्थन करता है। ठीक उसी तरह से
जिस तरह से अलगाववादी काश्मीरियों का पाकिस्तान करता है। यह बात तो
स्पष्ट हो चुकी है कि काश्मीर में जो लोग सुरक्षा बलों पर पत्थर चला रहे
हैं, उसके लिए धन पाकिस्तान से आ रहा है। भारत सरकार कितना भी इन हिंसक
लोगों को अपना समझें लेकिन ये लोग अपनत्व प्रगट कहां कर रहे हैं? एक हाथ
से तो ताली बज नहीं सकती। जो ताकत के बल पर अपने अनुसार लोगों को चलाना
चाहते हैं, उनका तो प्रजातंत्र पर ही विश्वास नहीं है। संविधान पर
विश्वास नहीं है। उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने के सिवाय चारा क्या
रह जाता है? जो भी नक्सलियों के हाथों मारे जा रहे हैं, उनकी संतानें यह
कैसे भूल सकती हैं कि उन्हें अनाथ करने वाले कौन थे? सरकार में बैठे लोग
तो फिर भी भलमनसाहत का परिचय दे रहे हैं। नहीं तो आम आदमी न तो हिंसा को
पसंद करता और न हिंसक गतिविधियों में संलग्न लोगों को।
रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद के मामले में ही हर तरह की हिंसा से दूर की
सोच व्यक्त हो रही है। आम हिन्दू और आम मुसलमान नहीं चाहता है कि इस
मामले को लेकर किसी तरह के हिंसक उत्पात हो। आज सभ्य समाज में हिंसा घृणा
का ही स्थान रखती है। दुनिया को अहिंसा का सिद्धांत भारत ने ही दिया। आम
भारतीय अहिंसा पर ही विश्वास करता है लेकिन फिर भी चंद लोग हिंसा से
लोगों को भयभीत कर अपने अनुसार चलाना चाहते हैं तो ऐसे लोगों के प्रति आम
सहमति संभव नहीं है। पिछले 63 वर्षों में प्रजातंत्र की जड़ें भारत में
और मजबूत हुई हैं। लोग वोट देकर सरकार बनाना और गिराना सीख गए हैं। समय
कितना भी लगे लेकिन विजयी होती दिखायी देने वाली हिंसा भी एक दिन दम तोड़
देती है। बड़े-बड़े हिंसक लोग पैदा हुए, इस धरती पर लेकिन वक्त ने उन्हें
नायक नहीं खलनायक ही सिद्ध किया। पृथ्वी में सबसे प्राचीन संस्कृति
सभ्यता भारत की है। कितने ही युद्ध इस सरजमीं पर हुए लेकिन अंत में सब
शांति में ही तब्दील हो गए। अब तो बात पूरी तरह से बदल गयी है। दुनिया का
ही मिजाज बदल गया है। युद्ध का अर्थ भी सभी की समझ में अच्छी तरह हैं।
ऐसे में अपनी मांग न मानने पर नक्सली 4 जवानों की हत्या तो कर सकते हैं
लेकिन अपने उद्देश्य में इस कृत्य से सफल हो जाएंगे, यदि यह उनकी सोच है
तो उनके हाथ नाउम्मीदी ही लगेगी। हिंसा के विरुद्ध सरकार का संघर्ष बंद
होने वाला नहीं है। अच्छा यही है कि इस तरह के कृत्यों से सरकार को
झुकाने की मंशा का त्याग कर नक्सली अच्छी तरह से सोच विचार करें। अंतत:
उनके हाथ मौत या जेल की सलाखें ही आने वाली है। इससे तो अच्छा है कि
सरकार से बिना शर्त हिंसा त्याग कर बातचीत करें और मुख्यधारा में
सम्मिलित हो।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 28.09.2010
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