भटगांव विधानसभा क्षेत्र के चुनाव के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ने
अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं। इस बार कांग्रेस को अपना प्रत्याशी
घोषित करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। क्योंकि गुटीय राजनीति की बहुत
दिलचस्पी अपना प्रत्याशी खड़ा करने में नहीं थी। टिकट दिलवाओ तो जितवाने
की भी जिम्मेदारी लो। कौन झंझट पाले, जब जीतने की संभावना ही न दिखायी
दे। भाजपा की पहले से जीती हुई सीट है और दिवंगत विधायक रविशंकर त्रिपाठी
की लोकप्रियता का ही परिणाम था कि भाजपा के पूर्व अध्यक्ष शिवप्रताप सिंह
के पुत्र के निर्दलीय चुनाव लडऩे और अच्छे खासे मत प्राप्त करने के
बावजूद भाजपा प्रत्याशी भारी मतों से जीत गया था। अब रविशंकर त्रिपाठी की
पत्नी को ही भाजपा टिकट दे रही है, यह जानकारी होने के बाद भाजपा से सीट
छीन लेना संभव नहीं दिखायी देता। तब कोई क्यों अपनी गर्दन जबरदस्ती टिकट
वितरण के मामले में फंसाए ।
इसी कारण राज परिवार के प्रत्याशी यू. एस. सिंहदेव को टिकट देने का
प्रस्ताव हुआ तो ज्यादा सोच विचार की गुंजाईश ही नहीं थी। लो भाई टिकट और
जीतकर दिखाओ। चरणदास महंत केंद्र सरकार में मंत्री बनना चाहते हैं और कहा
जा रहा है कि सिंहदेव को टिकट दिलाने में उन्हीं का हाथ है तो टी. एस.
सिंहदेव और चरणदास महंत भाजपा की जीती बाजी पलट कर दिखाएं। क्योंकि टी.
एस. सिंहदेव ही वह शख्स है जिन्होंने कहा था कि चरणदास महंत कांग्रेस के
प्रदेश अध्यक्ष रहते तो पार्टी छत्तीसगढ़ में सत्ता पर होती। चरणदास महंत
कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष तो अभी भी हैं और उनकी पसंद के व्यक्ति को
कांग्रेस ने टिकट भी दे दिया तो जिम्मेदारी भी उनकी है। कांग्रेस ने पहले
टिकट देकर मैदान मार लिया, ऐसी सोच रखने वालों को चुनाव परिणाम आने पर
पता चल जाएगा कि कांग्रेस ने मैदान मार लिया या कांग्रेस चारों खाने
चित्त गिरी, चुनावी समर में।
भटगांव उपचुनाव की तैयारी तो भाजपा ने बहुत पहले से कर रखी है। उसने पहले
ही तय भी कर लिया कि चुनावी समर में सेनापति बृजमोहन अग्रवाल होंगे।
शिवप्रताप सिंह की भाजपा में वापसी की संभावना भी सौ प्रतिशत है और वे
भाजपा में आएं न आएं लेकिन भाजपा प्रत्याशी को हराने का काम तो करेंगे
नहीं। फिर भाजपा प्रत्याशी रजनी त्रिपाठी के पक्ष में सबसे बड़ी बात
सहानुभूति है। रविशंकर त्रिपाठी एक जीवंत नेता थे ओर आम आदमी से उनका
संबंध जिस तरह का था, उस तरह का संबंध राज परिवार का तो जनता से है,
नहीं। अंबिकापुर से स्वयं टी. एस. सिंहदेव कड़े मुकाबले में बड़ी मुश्किल
से चुनाव जीते थे। जैसा प्रभाव ग्वालियर राजघराने का ग्वालियर क्षेत्र
में है वैसा प्रभाव सरगुजा राजघराने का तो है, नहीं। जैसा प्रभाव भाजपा
के दिलीपसिंह जूदेव का अपने क्षेत्र जशपुर में है, वैसा प्रभाव भी
सिंहदेव परिवार का नहीं है। ऐसी स्थिति में यू. एस. सिहदेव चुनाव भाजपा
की रजनी त्रिपाठी को हराकर जीत जाते हैं तो यह किसी आश्चर्य से कम नहीं
होगा।
यू. एस. सिंहदेव के बदले रामचंद्र चुनाव लडऩे के लिए तैयार हो जाते तो
निश्चित रूप से भाजपा के लिए खतरे की घंटी बज सकती थी। कोरिया के पूर्व
नरेश की छवि अवश्य जनता में एक ईमानदार नेता की है और वे उन बिरले लोगों
में से हैं जो चुनाव लड़कर जीतने की स्थिति में होने के बावजूद पिछले
चुनाव में लडऩे से इंकार कर चुके हैं। चुनाव लडऩे में भी जिस तरह से नियम
कायदों का पालन करते हुए वे चुनाव लड़ते और जीतते रहे हैं, वह तो एक
उदाहरण है और इसका सर्वत्र अभाव दिखायी देता है। ये चुनाव प्रचार के लिए
भी तैयार हो जाएं तो कांग्रेस प्रत्याशी का भला कर सकते हैं लेकिन क्या
वे तैयार होंगे ? जहां तक कांग्रेस के प्रदेश स्तर के बड़े नेताओं का
प्रश्र है तो वे भटगांव चुनाव में उपयोगी तो नहीं दिखायी देते। खासकर
चुनाव जितवाने के मामले में। चरणदास महंत और टी. एस. सिंहदेव की खुन्नस
में ये कांग्रेस प्रत्याशी को हरवाने का काम करें तो कोई आश्चर्य की बात
नहीं।
आजकल भाजपा में कई नेता पार्टी प्रत्याशी को हरवाने की कलाकारी करते
देखें गए हैं। इनकी दिली इच्छा भले ही हो कि भाजपा प्रत्याशी चुनाव हार
जाए और डा. रमन सिह को कुर्सी से हटाया जा सके लेकिन इनका प्रभाव इस
क्षेत्र में कितना काम करेगा, यह इनके लिए ही सोच का विषय है। निश्चित
रूप से ये शिवप्रताप सिंह को फुसलाने का प्रयत्न कर सकते हैं लेकिन ये
सफल होंगे, इसकी संभावना तो कम ही दिखायी देती है लेकिन आजकल कौन क्या
करेगा, यह पूरी विश्वसनीयता से कहा भी नहीं जा सकता। भाजपा में आज
राष्ट्रीय स्तर पर ही इतनी मतभिन्नता और गुटबाजी है कि झारखंड में
अर्जुन मुंडा के शपथ ग्रहण में राष्ट्रीय नेता अनुपस्थित रहे। जबकि पहले
ऐसे किसी कार्यक्रम में पार्टी के दिग्गज नेता उपस्थित होना गर्व की बात
समझते थे। चर्चा तो यही है कि लालकृष्ण आडवाणी और उनके समर्थक नेता नहीं
चाहते थे कि शिबू सोरेन के साथ मिलकर भाजपा सरकार बनाए लेकिन इनकी इच्छा
के विरूद्घ सरकार बन गई। ऐसा तो हो नहीं सकता कि पार्टी के राष्ट्रीय
अध्यक्ष नितिन गडकरी की सहमति के बिना यह सरकार बनी होगी लेकिन संसदीय
बोर्ड से अनुमति लेने की जरूरत नहीं समझी गयी। साफ मतलब निकलता है कि
संगठन अपने निर्णय के लिए अब इनका मोहताज नहीं है। मतभिन्नता के बावजूद
पार्टी में यह तो रिवाज था कि नेता एक दिखने की कोशिश करते थे, लेकिन अब
वह झीना पर्दा भी हट गया है।
इस दृष्टि से देखें तो अब राष्ट्रीय अध्यक्ष शक्तिशाली या संसदीय बोर्ड
के नेता यह लड़ाई प्रारंभ हो गयी है। पहली बार राष्ट्रीय अध्यक्ष ने
अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर दिया है। अब झारखंड में अपना कार्यकाल अर्जुन
मुंडा पूरा न करें, इसी में संसदीय बोर्ड के नेताओं को अपना लाभ दिखायी
दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इससे एक और ध्वनि निकल रही है कि अब
असंतुष्ट के लिए नया ठिकाना संसदीय बोर्ड के नेता हैं। लालकृष्ण
आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरूण जेटली की टीम से राष्ट्रीय अध्यक्ष का टकराव
भाजपा को कितना नुकसान पहुंचाता है, यह तो वक्त तय करेगा लेकिन इसका
नुकसान पार्टी को नहीं होगा, यह मानने का तो कोई कारण नहीं है। हालांकि
ये नेता कितने भी बड़े नजर आएं लेकिन संगठन से बड़े तो नहीं हैं और संगठन
की उपेक्षा के बाद उनकी हैसियत क्या रहेगी, यह भूतकाल के नेताओं को देखने
से सहज ही समझा जा सकता है।
संगठन के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ खड़ा है तो छुटभैये नेता भी यह
तो जानते ही हैं कि उनकी वास्तव में संगठन के समर्थन के बिना क्या स्थिति
है ? भाजपा में वर्चस्व की लडई प्रारंभ हो गयी है लेकिन भटगांव उपचुनाव
को यह प्रभावित कर सकेगी, इसकी उम्मीद तो नहीं की जा सकती। वैसे भी
भटगांव क्षेत्र में गोंड मतदाताओं का जितना प्रभाव पड़ेगा, उतना ही
झारखंड से आकर क्षेत्र में बसे लोगों का भी पड़ेगा और इनकी संख्या कम
नहीं है। छत्तीसगढ़ के भाजपाई सांसदों को अच्छी तरह से पता है कि बिना
पार्टी के सहयोग के उनकी क्या दशा होगी ? दिल्ली में संसदीय नेताओं से
मेल जोल बढ़ाने का काम जो पिछले दिनों किया गया, उसके भी इशारे अब साफ हो
रहे हैं। जिस मेल जोल की जरूरत पिछले 58 वर्षों में जनसंघ और भाजपा को
नहीं पड़ी, उसकी जरूरत अब क्यों पड़ रही है? दरअसल नितिन गडकरी को पपेट
बनाने में दिग्गज नेता सफल नही हो रहे हैं। इसके लिए ही रास्ते तलाशे जा
रहे हैं लेकिन भटगांव उपचुनाव में इसका असर कितना पड़ेगा, यह चुनाव
परिणाम बता देगा। क्योंकि फैसला राजनीति नहीं जनता करेगी।
-विष्णु सिन्हा
12-10-2010