यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

प्रदर्शन, रैली, बड़े-बड़े लोगों की अपील से न्यायालय का फैसला नहीं बदलता

न्यायालय को प्रभावित करने के जितने भी प्रयास हो सकते थे,किए गए। देश में ही नहीं विदेशों में भी प्रदर्शन किया गया। नेल्सन मंडेला की तरह विनायक सेन को महान साबित करने के पोस्टर छपवाए गए। न्यायालय में विदेशी पर्यवेक्षक भेजे गए। हर तरह के प्रयासों की एक ही ध्वनि थी कि विनायक सेन न केवल निर्दोष हैं बल्कि महान हस्ती भी हैं। मानव सेवा को समर्पित चिकित्सक हैं। उनके विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं हैं। इसलिए राजद्रोह के नाम पर आजीवन कारावास की सजा जो निचली अदालत ने दी है, वह गलत है। उच्च न्यायालय के जजों ने दोनों पक्षों की दलील सुनी। नक्सली हिंसा के शिकार पुलिस अधिकारियों की पत्नी की भी दलील सुनी और जमानत देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि प्रथम दृष्टि में तो मामला साबित होता है। 

भारतीय न्याय व्यवस्था पर संदेह करने और ऊंगली उठाने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि कसाब जैसे आतंकवादी अपराधी तक को न्याय व्यवस्था सुनवायी का मौका देती है। उसके लिए वकील की व्यवस्था करती है। जबकि कसाब को फांसी देने के लिए प्रत्यक्ष सबूतों की ही कमी नहीं हैं। निचली अदालत से फैसला हो जाने के बाद उच्च न्यायालय में अपील करने की उसे सुविधा दी गई। उच्च न्यायालय के फैसले ने सजा बहाल रखी तो कसाब उच्चतम न्यायालय में भी फैसले के विरुद्ध अपील कर सकता है। वहां भी सजा बहाल रही तो राष्ट्रपति के पास सजा से माफी की प्रार्थना भी कर सकता है। अफजल गुरु को उच्चतम न्यायालय ने फांसी की सजा दी लेकिन माफी की प्रार्थना 
राष्ट्रपति  के पास लंबित होने के कारण उसे अभी तक फांसी नहीं दी जा सकी है। 

अपराध कैसा भी हो लेकिन सजा देने का अधिकार न तो राजनैतिक पदों पर बैठे नेताओं के पास है और न ही नौकरशाहों के पास। सजा देने का अधिकार न्यायालय के पास है और उसमें सीढ़ी दर सीढ़ी उच्चतम न्यायालय तक अपना पक्ष रखने और न्याय प्राप्त करने का अधिकार सभी भारतीय नागरिकों को है। डॉ. विनायक सेन को भी न्याय प्राप्त करने का अधिकार है। इसीलिए तो उनकी जमानत की अर्जी पर उच्च न्यायालय ने सुनवाई की और जमानत पर रिहा करने से इंकार कर दिया। इस फैसले के विरुद्ध विनायक सेन उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकते हैं और वे करेंगे भी जरुर लेकिन किसी तरह के दबाव के कारण न्यायालय उन्हें छोड़ देगा, यह सोच ही फिजूल है। वे निश्चित रुप से छूट सकते हैं लेकिन तब जब न्यायालय सबूतों के आधार पर पाए कि वे निर्दोष हैं। 


विनायक सेन निर्दोष हैं या दोषी, यह तय करने का काम किसी का है तो वह न्यायालय का है। किसी के विनायक सेन को निर्दोष समझने से विनायक सेन न तो निर्दोष सिद्ध हो जाएंगे और न ही किसी के दोषी समझने से दोषी। भारत में खुली न्याय व्यवस्था है। खुली अदालत में न्यायाधीश हर पक्ष की बात सुनते हैं, सबूतों को देखते हैं और फिर अपना निष्कर्ष फैसले के रुप में देते हैं। इसके लिए विदेशी पर्यवेक्षकों की तो कोई जरुरत नहीं थी। फिर भी वे आए और न्यायालय की कार्यवाही को देखा। उनके कार्यवाही देखने से न्यायालय पर कोई प्रभाव पड़ा, ऐसा तो जमानत की अर्जी निरस्त होने से ही समझ में आता है। देश के बड़े-बड़े शक्तिशाली नेताओं के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा चले। न्यायालय ने बिना किसी परवाह के न्याय किया। इंदिरा गांधी के विरुद्ध ही फैसला देने से न्यायालय हिचकिचाया नहीं। जबकि वे देश की प्रधानमंत्री थी।  शक्तिशाली प्रधानमंत्री थी। दो तिहाई बहुमत उनके पास लोकसभा में था तो अधिकांश राज्यों में उन्हीं की पार्टी की सत्ता थी। जब भारत के न्यायाधीश इंदिरा गांधी की सत्ता से प्रभावित नहीं हुए तब वे किसी की सोच से प्रभावित होंगे, यह सोचना ही फिजूल है। 


पिछले दिनों एक न्यायाधीश ने टिप्पणी की है मुख्यमंत्री रहते हुए विलासराव देशमुख ने एक विधायक के लिए कानूनी काम में हस्तक्षेप किया और न्यायालय ने सरकार पर 10 लाख का जुर्माना किया। ऐसे व्यक्ति को केंद्र में मंत्री बनाना उचित नहीं है। इसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने 10 लाख रुपए जुर्माना न्यायालय में जमा किया है। विदेशों में जमा कालाधन हो,  दूर संचार का घोटाला हो या सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति का मामला न्यायालय ने सरकार को फटकार लगाने में कभी किसी तरह के दबाव की परवाह नहीं की। केंद्रीय मंत्री के न्यायालय को प्रभावित करने के प्रयासों को भी न्यायालय ने नहीं माना। सरकार के कितने ही कामों के विरुद्ध न्यायालय ने फैसले दिए। सरकार और नौकरशाह किसी को किसी का भय है तो वह न्यायालय ही है। इसीलिए तो गलत काम करने वाले भी खुले आम भले ही न्यायालय के विरुद्ध न कहें लेकिन जानते हैं कि आम जनता और न्यायालय का फैसला उन्हें सिंहासन से उतारकर सड़क पर खड़ा कर सकता है। 


हिंसा की इजाजत न तो समाज दे सकता और न ही कानून। नक्सलियों के पास हर बात का जवाब हिंसा है। वे या तो अपहरण करते हैं या फिर जान से मार देेते हैं या फिर विस्फोट कर सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं। कानून के हिसाब से यह सब अपराध की श्रेणी में ही आता है। कानून का शासन इसकी इजाजत नहीं दे सकता। शांतिपूर्वक जीवनयापन करने वालों को सुरक्षा देना सरकार का कर्तव्य है। 


कानून से परे कोई अपनी सरकार चलाना चाहे तो इसे कोई भी प्रजातांत्रिक सरकार चलने नहीं दे सकती। इसलिए सरकार ने नक्सलियों को पकडऩे के लिए, हिंसा की स्थिति में उनसे लडऩे  के लिए अपने सशस्त्र बलों को लगा रखा है। इनके विरुद्ध सख्त कानून भी बनाया है। कानूनी रुप से केंद्र और राज्य सरकार ने इनके संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया है। नक्सलियों का सहयोग करने वालों को भी कानून के दायरे में लाया है। विनायक सेन को नक्सलियों का सहयोगी होने के कारण पुलिस ने गिरफ्तार किया है। विनायक सेन सही हैं या गलत, पुलिस सही है या गलत, इसका फैसला सरकार तो कर नहीं रही है। फैसला न्यायालय कर रहा है और निचली अदालत संतुष्ट हुई पुलिस की दलीलों और सबूत से तो उसने आजीवन कारावास की सजा सुना दी। इसमें गलत क्या है? फैसले से असंतुष्ट हैं तो उच्च न्यायालय में अपील कर ही दिया है। उसके फैसले से भी असंतुष्ट होंगे तो सुप्रीम कोर्ट है, न। फिर इतनी हाय तौबा क्यों? 22 नोबेल पुरस्कार प्राप्त लोगों के कहने से तो न्यायालय  छोडऩे वाला नहीं। इस तरह का दबाव भी उचित नहीं। रैली, प्रदर्शन से भी सिद्ध नहीं होता कि कौन सही और कौन गलत? मीडिया की वकालत भी इस मामले में बेमानी है। न्यायालय ही संतुष्ट होगा तो वही छोड़ सकता है। या फिर नक्सली समस्या समाप्त हो तो आम माफी की तरह लोग छोड़े जाएं। न्याय का तकाजा भी यही है कि वह किसी से प्रभावित न हो।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 11.02.2011
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रविवार, 6 फ़रवरी 2011

कोई पार्टी का कितना भी प्रिय हो लेकिन कानून तोडऩे वाले के साथ सख्ती से ही पार्टी की छवि निखरेगी

भयमुक्त शासन का यही अर्थ होता है कि किसी को किसी का भय नहीं। सज्जन भयमुक्त हों इसे तो प्रजातंत्र की सबसे बड़ी देन कहा जाएगा लेकिन सज्जन से ज्यादा भयमुक्त तो भयमुक्त शासन में दुर्जन ही ज्यादा दिखायी पड़ते हैं। कभी पुलिस के नाम से भय रखने वाले अब पुलिस  से नहीं डरते बल्कि पुलिस ही उनसे डरती है। किसी दुर्जन को भी पुलिस वाले ने पकड़ा तो उसे छुड़वाने के लिए राजनैतिक शक्तियां काम करने लगती हैं। तब पुलिस के अदने से सिपाही को कौन पूछता है? ज्यादा चूं चपड़ किया तो लाईन अटैच या सस्पेंड या स्थानांतरण। फिर थाने में भले ही बड़े बड़े आदर्श वाक्य लिखे हों। तब पुलिस में भर्ती जवान तो जानता है कि वह पुलिस की नौकरी अपने परिवार के भरण पोषण के लिए करता है। वह न तो लाईन अटैच होकर और न ही सस्पेंड होकर और न ही स्थानांकित होकर अपने परिवार की सही ढंग से देखभाल कर सकता है। इसलिए अपमान सह कर भी नौकरी को बनाए रखने में उसे अपनी भलाई दिखायी देती है। 

नहीं तो एक आन ड्यूटी पुलिस के कर्मचारी पर कोई हाथ उठाए तो इससे बड़ा अपराध क्या होगा? यह तो सीधे-सीधे कानून के गाल पर ही तमाचा है। किसी भी पुलिस वाले को चाहे वह छोटा से छोटा सिपाही हो या उच्चाधिकारी कानून किसी के साथ मार पिटायी की इजाजत नहीं देता। लेकिन फिर भी पुलिस थानों में अपराधियों की पिटायी आम बात है। आदतन अपराधियों के साथ पुलिस कड़ाई से पेश आती है। आदतन अपराधी का दबदबा तोडऩे के लिए कभी कभी तो सड़क पर ही आम जनता के सामने पिटाई करने से पुलिस परहेज नहीं करती लेकिन यह सब तब होता था जब भयमुक्त शासन था। अब तो बात बदल गयी है। भयमुक्त शासन में पुलिस ऐसा करने की हिम्मत  नहीं करती बल्कि यदा कदा आज पुलिस ही दबदबे वाले नेताओं की मार का शिकार ही नहीं होती, चोर भी पुलिस की हत्या तक का अपराध करने लगे हैं। पिछले दिनों बिलासपुर जिले में तांबा तार चोरों ने एक एसआई और हवलदार की बल्लियों से मार-मार कर हत्या कर दी। महाराष्ट्र  में एक एडिशनल कलेक्टर को तेल चोरों ने जिंदा जला दिया। बिलासपुर में ही एक नेता ने डी एस पी को थप्पड़ सरे राह मार दिया। एक नेता ने हवलदार को पीट दिया। यह कारनामा सत्तारुढ़ दल के लोग ही करते हैं, ऐसा नहीं है बल्कि विपक्ष के नेता भी पीछे नहीं है।
एक अधिकारी को सर्किट हाऊस में बुला कर खुलेआम अपमानित करने का काम तो मंत्री भी करते हैं। कर्मचारी आंदोलन करते हैं लेकिन मंत्री का कुछ बिगड़ता नहीं। नगर निगम कार्यालय में जाकर आयुक्त के साथ भाजपा के वरिष्ठ नेता अपमानजनक व्यवहार करते हैं। फिर सरकार से शिकायत करते हैं कि उनके विरुद्ध थाने में गलत रिपोर्ट लिखायी गयी। अब सरकार क्या करें? जो कृत्य किए जा रहे हैं, उसमें हस्तक्षेप करे और अपने लोगों को बचाने के लिए सत्ता का दुरुपयोग करे। इससे मनोबल कर्मचारियों अधिकारियों का कमजोर होगा। यह अलग विषय हो सकता है कि कौन अधिकारी, कर्मचारी ईमानदार है लेकिन इसके लिए कानून को हाथ मे लेना कैसे उचित ठहराया जा सकता है? ऐसे तो फिर नक्सलियों को कैसे गलत ठहराएंगे? फर्क तो यही है कि सीधे-सीधे जान ही ले लेते हैं। किसी सज्जन आदमी का अपमान होना जान लेने से कम दुखद नहीं होता, भुक्तभोगी के लिए।


फिर शासन अपनी ही पार्टी का हो तो इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि कानून को गैर कानूनी ढंग से अपने हाथ में लिया जाए। शासन पक्ष की पार्टी की जिम्मेदारी तो और भी ज्यादा होती है। उसे जब काम लेने के लिए कानून को अपने हाथ में लेने जैसा काम करना पड़ता है तो जनता में पार्टी की छबि खराब ही होती है। अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए ऐसे कृत्य शासन की लोकप्रियता को खंडित करते हैं। आज सरकार की छबि डॉ. रमन सिंह की छबि है लेकिन इस तरह के कृत्य किए जाते रहे तो पूर्व सरकार के अनुभव को याद कर लेना चाहिए। भयमुक्त शासन से मुक्ति के लिए जनता ने भाजपा की सरकार बनायी थी। डॉ. रमन सिंह ने सरकार की छबि भयमुक्त बनायी भी। इसीलिए वे जानते बुझते हुए भी नक्सलियों के विरुद्ध कार्यवाही करने से पीछे नहीं हटे। जिससे नक्सल प्रभावित क्षेत्र की जनता भयमुक्त जीवन व्यतीत कर सके। विरोध करने वालों ने कम विरोध नहीं किया। विरोध अभी भी जारी है। यहां तक कि न्यायालय के फैसले के विरुद्ध भी ऊंगली उठायी जा रही है लेकिन तमाम विरोधों के बावजूद आम जनता के हिसाब से डॉ. रमन सिंह ही सही है और यह बात बस्तर की जनता ने एकतरफा समर्थन डॉ. रमन सिंह को देकर सिद्ध भी किया है। 


कुछ कुंठाग्रस्त नेता भले ही डॉ. रमन सिंह की लोकप्रियता से प्रसन्न न हों। क्योंकि डॉ. रमन सिंह लोकप्रिय है तो उनके लिए जगह तो खाली करने वाले नहीं है। सस्ता चांवल की भी आलोचना कर रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने की इच्छा रखने वालों की परेशानी तो समझ में भी आती है। उनकी कुंठा विभिन्न बातों को लेकर अभिव्यक्त होती है। लोग भी समझते हैं कि संकीर्ण दायरे के छोटे नेता है। किसी के पास सिर्फ आदिवासियों की बात है तो किसी के पास पिछड़ों की। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ऐसे नेता हैं जिनके पास सबकी बात है। सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय उनकी नीति है। इसलिए सहजता से वे सब पर विश्वास भी कर लेते हैं। अब कोई विधायक का चुनाव नहीं जीत सका तो उसके लिए डॉ. रमन सिंह तो दोषी नहीं हैं। अब हारने वाले को किसी निगम मंडल का अध्यक्ष पद नहीं दिया तो वह मैं हूं, दिखाने के लिए ऐसा कुछ करे कि उसके नाम से  थाने में रिपोर्ट दर्ज हो तो मुख्यमंत्री क्या करें? कानून को अपना काम करने दें या उसमें हस्तक्षेप करें।


कोई किसी सरकारी कर्मचारी अधिकारी को मारेगा तो उसके खिलाफ रिपोर्ट न लिखी जाए, उसे गिरफ्तार न किया जाए, उस पर मुकदमा न चले, यह भयमुक्त शासन का अर्थ नहीं होता। होना तो यह चाहिए कि पार्टी की छबि खराब करने के आरोप में संगठन ही ऐसे लोगों को बाहर का रास्ता दिखाए। वह तो संगठन कर नहीं रहा। उल्टे मुख्यमंत्री से कह रहा है कि बचाओ इन्हें। पार्टी के खिलाफ चुनाव लड़ा तो पार्टी से बाहर और जिसने पार्टी में रहकर अपने कृत्यों से पार्टी को नुकसान पहुंचाया, उसके साथ क्या सलूक? जिन्हें पार्टी से निकाला, उन्हें फिर से जब अपना स्वार्थ सामने आया तो पार्टी में ले लिया। ईनाम भी देने का आश्वासन दे दिया। सिद्धांत तो वही दिखायी देता है कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है। कल तो जो गलत था, वह सही होगा। अपना उल्लू सीधा होता है तो सब सही। कम से कम कानून की धज्जियां उड़ाने वालों को तो आश्रय नहीं देना चाहिए। फिर भले ही वह कितना भी अपना हो या प्रिय हो। आज एक को बचाने जाएंगे। कल को धीरे-धीरे ऐसे लोगों की संख्या में इजाफा होगा। तब पार्टी की साफ सुथरी छबि नष्ट होगी और परिणाम आसानी से सोचा जा सकता है कि क्या होगा?

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 05.02.2011
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खुले मन और बड़े दिल से काम करेंगी तो किरणमयी लोकप्रिय महापौर बन सकती हैं

15 वर्ष लग गए इंडोर स्टेडियम को बनने में। मध्यप्रदेश में रहते हुए इंडोर स्टेडियम बनना प्रारंभ हुआ तो छत्तीसगढ़ राज्य बनने के 10 वर्ष बाद इसका उदघाटन हो सका। महापौर किरणमयी नायक कह रही हैं कि अभी भी 6 करोड़ रुपए की जरुरत स्टेडियम को है। स्टेडियम का नामकरण मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने पूर्व महापौर स्व. बलबीर जुनेजा के नाम पर घोषित कर दिया है। उदघाटन समारोह के दौरान सांसद रमेश बैस ने बलबीर जुनेजा को याद करते हुए कहा कि जुनेजा ने उस समय के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह  के समक्ष सिर्फ 2 करोड़ रुपए की मांग बड़ी विनम्रता से किया था लेकिन दिग्विजय सिंह ने स्वीकार नहीं किया। मध्यप्रदेश में तो खास कर दिग्विजय सिंह के शासनकाल के दौरान छत्तीसगढ़ के साथ सौतेले व्यवहार की कथाओं की कमी नहीं है। रायपुर मेडिकल कॉलेज जो छत्तीसगढ़ में इकलौता मेडिकल कॉलेज था, के लिए ही छात्रों के आंदोलन के बावजूद मात्र 7 करोड़ रुपए देने से दिग्विजय सिंह ने इंकार कर दिया था। छत्तीसगढ़ राज्य बनने से कितना परिवर्तन हुआ है, यह तो हर किसी को दिखायी पड़ता है।
उदघाटन समारोह में जब बृजमोहन अग्रवाल ने रायपुर के विकास के लिए नगर निगम को 500 करोड़ रुपए देने की मांग की तो इस मांग को भी मुख्यमंत्री ने स्वीकार कर लिया और इस वर्ष 150 करोड़ रुपए देने की घोषणा कर दी। उन सारे आरोपों को भोथरा कर दिया कि कांग्रेस की सत्ता नगर निगम में होने के कारण भाजपा की सरकार आर्थिक सहयोग नहीं कर रही है। पिछले दिनों ही नगरीय प्रशासन मंत्री राजेश मूणत ने प्रत्येक वार्ड के लिए 20 लाख रुपए की राशि आबंटित की है। महापौर तो स्टेडियम के लिए ही 6 करोड़ रुपए मांग रही थी, मुख्यमंत्री  ने दरियादिली दिखाते हुए 150 करोड़ रुपए इसी वर्ष देने की बात कर दी। टकराव की राजनीति के बदले महापौर समन्वय की राजनीति पार्टी राजनीति से हट कर करेंगी तो शहर का तो निश्चित रुप से भला करेंगी ही, अपना भी भला करेंगी।
भारत जैसे विभिन्नता के देश में संकीर्णता के लिए ज्यादा स्थान नहीं हैं। संकीर्णता कुछ समय के लिए भले ही लाभप्रद दिखायी दे लेकिन अंतत: तो वैचारिक संकीर्णता हर मामले में संकीर्णता ही पैदा करती है। बिना भेदभाव के सम्मान देना सम्मान प्राप्त करने का सबसे अच्छ तरीका होता है। इंडोर स्टेडियम के निर्माण में बहुतों का योगदान है। विद्याचरण शुक्ल के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। वे वैसे भी कांग्रेस के ही वरिष्ठï नेता हैं। उद्घाटन अवसर पर उन्हें आमंत्रित न करना कोई अच्छा संदेश नहीं देता। यह तो वक्त की बात है कि किरणमयी नायक आज नगर निगम की महापौर हैं। इंडोर स्टेडियम की आधारशिला से लेकर उदघाटन तक सबसे कम योगदान किसी का है तो उन्हीं का है। जिनका वास्तव में योगदान है, उन्हें बुलाया जाना चाहिए था और सम्मानित भी किया जाना चाहिए था। बलबीर जुनेजा की सेवाओं को ध्यान में रखा जाता तो उनकी पत्नी को ही मंचस्थ किया जा सकता था। नगर निगम में जब भाजपा पदारूढ़ थी तब उसने बड़े दिल का परिचय देते हुए स्टेडियम का नाम बलबीर जुनेजा के नाम पर करने का प्रस्ताव किया था।
मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने भी बलबीर जुनेजा के नाम पर स्टेडियम का नामकरण करने में हिचक महसूस नहीं की। भाजपा के मंत्री, पदाधिकारी, पार्षदों ने भी किसी तरह की संकीर्णता नहीं दिखायी। विद्याचरण के साथ पूर्व महापौर सुनील सोनी को भी आमंत्रित किया जाना चाहिए था। उनके कार्यकाल में त्वरित गति से स्टेडियम का निर्माण किया गया।  गंगाराम शर्मा, के.डी. सिंह, सतीश जैन जैसे युवकों ने स्टेडियम के लिए संघर्ष किया। छात्रनेता तो मध्यप्रदेश की विधानसभा में पर्चा फेंकने के नाम पर गिरफतार भी हुए लेकिन कल जब स्टेडियम रंगारंग कार्यक्रम से सराबोर था तब उन्हें पूछने वाला, याद करने वाला कोई नहीं था। वह तो गनीमत है कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए स्टेडियम के उद्घाटन के लिए सोनिया गांधी, राहुल गांधी को आमंत्रित करने की मंशा नहीं प्रगट की गई। समझ में तो आ ही गया होगा कि मुख्यमंत्री को बुलाने का क्या अर्थ होता है? मुख्यमंत्री ने तो एक तरह से नगर निगम की दलिद्री दूर करने के लिए भारी भरकम रकम की घोषणा कर दी।
आगे नगर निगम के नए भवन का उद्घाटन होना है। कौन करेगा, उद्घाटन यह भी महापौर को ही तय करना है। जिस तरह से स्टेडियम निर्माण में महापौर की कोई अहम भूमिका नहीं है, उसी तरह से नगर निगम के नए भवन के निर्माण में भी महापौर की भूमिका नहीं है। यह तो पेड़ किसी ने लगाया और फल कोई खाता है, वाली बात है। नगर निगम के नए भवन के निर्माण का श्रेय किसी को जाता है तो वह डा. रमन सिंह और सुनील सोनी हैं। इनके साथ ही किसी की अहम भूमिका थी तो वह उस समय के नगरीय प्रशासन मंत्री अमर अग्रवाल की थी। डा. रमन सिंह और अमर अग्रवाल ने खुलकर आर्थिक सहयोग किया और सुनील सोनी ने स्वप्र देखा। जो अब साकार हो गया है। वक्त की बात है कि किरणमयी नायक आज महापौर हैं और उन्हें ही नए भवन की सुख सुविधाओं का उपयोग करने का अवसर मिलेगा। मन में संकीर्णता न हो तो सुनील सोनी और अमर अग्रवाल को भी उद्घाटन अवसर पर विशिष्ठ अतिथि बनाया जाना चाहिए। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को तो उद्घाटनकर्ता बनाया ही जाना चाहिए। इससे महापौर किरणमयी नायक की विवादास्पद छवि बदलेगी। संकीर्णता का दोषारोपण भी समाप्त होगा।
जब डा. रमन सिंह और उनकी सरकार भेदभाव नहीं कर रही है तो कुछ तो उनसे कांग्रेसियों को भी सीखना चाहिए। राजनीति से भी पहले दृष्टिï जनता पर होना चाहिए। क्योंकि जनता ही असली ताकत है। वही सत्ता सौंपती है और वही सत्ता से उतार देती है। उसे डा. रमन सिंह जैसे व्यक्ति अच्छे लगते हैं। जो सीधी और साफ बात करते हैं। पूरी विनम्रता से अपनी बात रखते हैं। राज्य के हित में जिससे भी मिलना पड़े, कोई झिझक नहीं है। कोई पार्टी राजनीति आड़े नहीं। किसी तरह का अहंकार रास्ते की रूकावट बनता नहीं। सफल होना है राजनीति में तो डा. रमन सिंह से सीखना चाहिए। उलझाने वाली विवाद खड़ा करने वाली राजनीति अक्सर कुछ समय के लिए प्रभावशाली तो दिखायी देती है लेकिन देर अबेर ऐसा व्यक्ति पसंदीदा नहीं रहता। सबका सम्मान करना राजनीति में सबसे बड़ी पूंजी है। दबंग राजनीतिज्ञों का जमाना लद गया। अब तो बेटा, बेटी ही बाप की अकड़ बर्दाश्त नहीं करते। सीख सकती हैं महापौर तो बहुत कुछ है उनके लिए सीखने को। अभी राजनीति में तो पदार्पण ही हुआ है। व्यवहार और काम ही काम आने वाला है। हीनग्रंथि ही नहीं उच्च ग्रंथि से भी छुटकारा ही स्वस्थ मन की निशानी है। लोकप्रियता तो उसी को कहते हैं जिसमें पक्ष के लेाग ही नहीं विपक्ष के लोग भी तारीफ करने के लिए बाध्य हो जाएं। बाकी जहां तक समझदारी की बात है तो किरणमयी किसी से कम समझदार हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं। व्यवहारिक राजनीति का अनुभव कम है लेकिन अब धीरे धीरे वह भी बढ़ रहा है। उम्मीद की जा सकती है कि और सुधार होगा।
- विष्णु सिन्हा
04.02.2011

400 पद के लिए 7 लाख उम्मीदवार प्रश्र चिन्ह तो लगता हैं आर्थिक विकास और सरकार की नीतियों पर

भारत तिब्बत सीमा सुरक्षा बल के लिए 400 जवानों की आवश्यकता है। इसके लिए विज्ञापन दिए जाने के बाद उत्तरप्रदेश के एक शहर में 7 लाख युवक इकट्ठा  होते हैं। 400  पद और 7 लाख उम्मीदवार। इसी से समझ में आता है कि बेरोजगारी की क्या स्थिति है? भारत दुनिया की बड़ी आर्थिक शक्ति बनकर उभर रहा है। यहां तक कि अमेरिका भी भारत और चीन की बढ़ती आर्थिक ताकत से खौफजदा है लेकिन ऐसी आर्थिक समृद्धि से बेरोजगारी तो समाप्त नहीं हो रही है। नौकरी की दृष्टि से देखें तो सिपाही का पद कोई बहुत आकर्षण का पद तो है, नहीं। आज जब युवा इंजीनियर लाखों रुपए के वेतन पर काम कर रहे हैं। एमबीए पास युवकों को लाखों में वेतन मिल रहा है। दुनिया भर में भारतीयों को रोजगार मिल रहा है और इससे घबराहट भी है कि कहीं भारतीय युवक युवतियां दुनिया के इस वर्ग आयु के लोगों के लिए खतरा बन सकते हैं तब भी अमीरी और गरीबी का अनुपात कहां बदल रहा है?
मिश्र की राजधानी काहिरा में 10 लाख लोग इकट्ठा होकर अपने राष्टपति होस्नी मुबारक के विरुद्ध आंदोलन कर रहे हैं। ये लोग चाहते हैं कि राष्टपति, पद से इस्तीफा दे दें। फौज भी राष्ट्रपति के बदले जनता के साथ दिखायी दे रही है। पुलिस तमाम प्रयासों के बावजूद लोगों को खदेडऩे में सफल नहीं हो रही है। लोगों की जान जा रही है, घायल हो रहे हैं लेकिन राष्ट्रपति को पद से हटाने के लिए कृतसंकल्पित दिखायी दे रहे हैं। राष्टï्रपति कह रहे हैं कि सितबंर तक उन्हें अपने पद पर रहने दिया जाए और वे अगला चुनाव नहीं लड़ेंगे लेकिन जनता आज उन्हें मोहलत देने के लिए तैयार नहीं है। जनता की हताशा, निराशा की पराकाष्ठा सत्तारुढ़ के लिए खतरे की घंटी ही साबित होती है। मिश्र की अशांति दुनिया को परेशान कर रही है। क्योंकि तेल के दाम बढ़ रहे हैं और इससे सभी की आर्थिक स्थिति डगमगाने लगी है।
भारत की भी स्थिति इस मामले में कठिन है। अभी ही पेट्रोल एवं डीजल के भाव सरकार की दृष्टि से भले ही कम हों और पड़ोसी मुल्कों का उदाहरण देकर वह महंगा तेल खरीदने के लिए जनता को बाध्य करे लेकिन जनता को तो लग रहा है कि उसका गला दबाया जा रहा है। महंगाई से त्रस्त जनता भ्रष्टाचार का यह खेल देख रही है। पूर्व दूरसंचार मंत्री की सीबीआई के द्वारा गिरफ्तारी, महाराष्टï्र के पूर्व मुख्यमंत्री का नाम एफआईआर में आना, कर्नाटक के मुख्यमंत्री का अपने पुत्र और परिवारजनों को कीमती जमीन कौडिय़ों के भाव आबंटित करना, ऐसे उदाहरण हैं कि हमाम में सभी नंगे दिखायी देते हैं। अब तो लोग इंतजार कर रहे हैं कि राष्टï्रमंडल खेलों के भ्रष्टïाचार के खलनायकों की गिरफ्तारी कब होगी? कोई भी समाचार पत्र उठाइए, कोई भी न्यूज चैनल देखिए, अपराध और भ्रष्टïाचार की कथाओं से रंगा हुआ ही पाएंगे। अब तो अपराधियों का ही मनोबल इतना बढ़ा हुआ है कि वे अधिकारियों को जिंदा जलाने लगे हैं। बल्लियों से पुलिस अधिकारियों की मार-मार कर हत्या कर रहे हैं। मिलावट का काम करने वाले तो पत्थर मारकर अधिकारियों, कर्मचारियों की गाड़ी के कांच ही नहीं, सर भी फोडऩे लगे हैं।
समाज जिस तरफ बढ़ रहा है, उससे यह तो स्पष्ट दिखायी देता है कि हुक्मरानों की सोच में खामियां है। एक तरफ आर्थिक विकास ने धन के पहाड़ खड़े कर दिए हैं तो दूसरी तरफ दो वक्त की रोटी भी भारी पड़ रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य हर मामले में दो तरह का भारत है। अमीर का अलग और गरीब का अलग। एक तरफ पब्लिक स्कूल की महंगी पढ़ाई जो सक्षम और संपन्न लोगों की संतानों का कैरियर निश्चित करती है तो दूसरी तरफ शासकीय स्कूल। जहां पढ़कर नौकरी प्राप्त करना हर किसी के बस की बात नहीं। स्वास्थ्य का भी यही हाल है। एक तरफ फाईव स्टार चिकित्सालय हैं जहां अमीरों का उपचार होता है तो दूसरी तरफ शासकीय अस्पताल। जहां भगवान ही मरीज का मालिक होता है। कृषि भूमि कम होती जा रही है। आवास और उद्योग उस पर काबिज हो रहे हैं तो पारिवारिक बंटवारे के कारण बंटते-बंटते जमीन भरण पोषण के लिए पर्याप्त नहीं। सिवाय बेचकर आगे दूसरा काम करने की बाध्यता के और कोई अवसर तो बचता नहीं।
आबादी के मामले में हम गौरवान्वित हैं कि वह दिन दूर नहीं जब हमारी जनसंख्या चीन से भी ज्यादा होंगी लेकिन इसका परिणाम क्या होगा? कृषि भूमि का व्यक्ति के आधार पर और कम होना। आवास के लिए और ज्यादा जगह की जरुरत होगी। अभी ही कहा जा रहा है कि विश्व की आर्थिक मंदी की चपेट में आने से भारत बच गया तो उसका प्रमुख कारण हमारी कृषि आधारित आर्थिक व्यवस्था है। चूंकि खाने के लिए भरपूर खाद्यान्न हम उत्पन्न कर लेते हैं और भोजन ही मिल जाए तो बुहत से दुखों को हम भूला देते हैं लेकिन बढ़ती जनसंख्या को कृषि संभाल नहीं सकती। वैसे भी यंत्रीकरण बढऩे से अब कृषि में भी श्रम की पहले की तुलना में कम आवश्यकता होती है। तब जनसंख्या के रुप में जो मानवीय श्रम सरप्लस निर्मित हो रहा है, उसका क्या करेंगे? आज 400 सिपाहियों के पद के लिए 7 लाख लोग उम्मीदवार हो जाते हैं तो आने वाले कल में यह संख्या 70 लाख भी पहुंच सकती है।
7 लाख लोग जब किसी शहर में धमक जाते हैं तो पूरी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है। 7 लाख लोगों को ठहराना, खिलाना-पिलाना कम से कम मध्यम श्रेणी के शहर के बस की बात तो होती नहीं। फिर आक्रोश भड़कता है और उसके परिणाम भी सामने आते हैं। लूटमार, आगजनी जैसी घटनाएं भी हो जाती है। प्रशासन चाहने लगता है कि ये किसी तरह से शहर छोड़कर अपने घर वापस जाएं लेकिन 7 लाख लोगों की वापसी के लिए आवागमन के साधन ही पर्याप्त नहीं होते। तब ट्रेन की छतों पर, ट्रेन के इंजन पर ये भीड़ चढ़ जाती है। प्रशासन इन्हें उतारता नहीं बल्कि टुकुर-टुकुर देखता है। नियम कायदों की धज्जियां उड़ती है और ट्रेन रवाना कर दी जाती है। दुष्परिणामों की चिंता किए बिना सोच यही होती है कि अपनी बला तो टले। दुष्परिणम होता है। ट्रेन के ऊपर सवार युवक एक ब्रिज से टकराकर गिरने लगते हैं और घायल होने के साथ कितने ही अपनी जान गंवा देते हैं।
एक दिन समाचार पत्र में समाचार छपता है और फिर बात आई गई समाप्त हो जाता है लेकिन जिसका पुत्र मारा जाता है, वही समझता है, पीड़ा को। भविष्य के लिए खतरे के चिन्ह तो दिखायी दे रहे हैं। आर्थिक विकास जरुरी है तो उसके दूरगामी परिणामों का अध्ययन भी जरुरी है। आर्थिक विकास समाज में खाई बनने का काम न करे। महात्मा गांधी के ही अनुसार अंतिम व्यक्ति को उसका लाभ मिलना चाहिए। हर वर्ष खबरें आती हैं कि करोड़ों नौकरियां बढ़ रही है लेकिन इसके बावजूद करोड़ों के लिए कोई नौकरी नहीं होती। 400 पदों के लिए इक_ïा 7 लाख लोग तो उदाहरण हैं ही कि उनके पास नौकरी नहीं है। ये भी युवक हैं। इनके समतुल्य युवतियां भी तो हैं। समानाधिकार की बात है तो उनके लिए भी नौकरियां चाहिए। पूरे देश में बेरोजगारों की संख्या इसी तरह से बढ़ती गयी और निश्चित रुप से बढ़ेगी तो ये बेरोजगार पूरे शासकीय तंत्र को हिलाने की क्षमता रखते हैं। काम नहीं होगा तो अपराध आकर्षित करेगा। परिणाम अच्छा तो नहीं दिखायी देता।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 03.02.2011
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चिदंबरम के बयान के बाद यह तो सिद्ध हो गया कि सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने झूठा बयान दिया

केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर पी जे थामस की नियुक्त केंद्र सरकार के लिए गले में फंसी हड्डी बन गयी है। न तो सरकार उसे निगल ही पा रही है और न ही उगल । केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दायर कर कहा है कि थामस के पामोलीन मामले में दागी होने की उसे जानकारी नहीं थी। प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने इसका कड़ा प्रतिवाद किया और उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दायर कर सरकार के झूठ से पर्दा उठाने की मंशा जाहिर की। लेकिन अब सुषमा स्वराज को ऐसा करने की जरुरत नहीं है। क्योंकि स्वयं गृहमंत्री पी.चिदंबरम ने पत्रकारवार्ता में स्वीकार कर लिया है कि थामस के दागी होने की जानकारी थी और बैठक में यह बात श्रीमती स्वराज ने उठाया था। ईमानदार प्रधानमंत्री की इच्छा से थामस की नियुक्ति सुषमा स्वराज के विरोध के बावजूद की गई। इसके बाद कोई मांग करे न करे मनमोहन सिंह को अपने गृहमंत्री की स्वीकारोक्ति के बाद नैतिक दृष्टि से भी, संवैधानिक दृष्टि से भी अपना पद त्याग देना चाहिए।
लेकिन ऐसा कोई इरादा अभी तक तो मनमोहन सिंह ने व्यक्त नहीं किया है। इसके बदले वे चाहते हैं कि थामस इस्तीफा दे दें और मामला समाप्त हो जाए लेकिन थामस इस्तीफा देने के मूड में दिखायी नहीं देते। उन्होंने तो स्पष्ट रुप से कह भी दिया है कि वे इस्तीफा देने वाले नहीं है। जिस पद की उपयोगिता ही तमाम तरह के असंवैधानिक, अवैध कार्यों को पकडऩे और सजा दिलाने की है। जो सीबीआई जैसी संस्थाओंं  में सर्वोच्च पद पर नियुक्ति का अधिकार रखता है। जब वही पाक साफ नहीं होगा तो कैसे उम्मीद की जाए कि वह ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करेगा। सीबीआई पर यदा कदा राजनैतिक दबाव में काम करने के आरोप लगते रहते हैं। 2जी स्पेक्ट्रम मामले में ही सरकार जेपीसी की नियुक्ति के बदले उच्चतम न्यायालय के मार्गदर्शन में सीबीआई से जांच कराने की बात कहती रही है। इससे आम आदमी यही निष्कर्ष निकाल सकता है कि सीबीआई की जांच सरकार के लिए रक्षा कवच का काम करेगा। शायद इसी उद्देश्य से एक दागी व्यक्ति को सतर्कता आयुक्त बनाया गया।
सरकार छोटी से छोटी नौकरी भी देती है तो नियुक्ति के पूर्व पुलिस वेरिफिकेशन कराती है। थामस पर तो पहले से ही मुकदमा न्यायालय में विचाराधीन है। तब प्रथम दृष्टि में तो उनका नाम नियुक्ति के लिए बनाए पैनल में नहीं होना चाहिए था। इससे मनमोहन सिंह की नीयत की चुगली होती है। वे भले ही ईमानदार हों लेकिन जब वे इस बात का ध्यान नहीं रखते कि सतर्कता आयुक्त की कुर्सी पर एक ईमानदार व्यक्ति को ही बिठाना चाहिए तब वे स्वयं इस बात की चुगली करते हैं कि ईमानदार व्यक्ति उनकी पसंद का व्यक्ति नहीं है। यदि ऐसा वे किसी के दबाव में करते हैं तो भी वे स्वयं दोषमुक्त कैसे कहे जा सकते हैं? प्रधानमंत्री अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह भी ईमानदारी से न कर दबाव में करता है तो सबसे पहले तो यह उसी के सोच का विषय है कि प्रधानमंत्री पद के शपथ में उन्होंने जो बात कही, उसका पालन ही वे नहीं कर रहे हैं तो उन्हें अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।
संवैधानिक रुप से राज्यसभा के सदस्य के रुप में वे सोनिया गांधी की इच्छा से देश के प्रधानमंत्री तो बन गए लेकिन वास्तव में क्या वे देश की जनता के द्वारा चुने हुए व्यक्ति हैं? उन्हें लोकसभा की कार्यवाही में प्रधानमंत्री के रुप में भाग लेने का तो हक है लेकिन किसी लोकसभा के मतदान में मत देने का अधिकार नहीं हैं। लोकसभा में संसदीय दल के नेता प्रणव मुखर्जी हैं। सोनिया और राहुल गांधी लोकसभा के सदस्य हैं। मतलब ये जनता के प्रतिनिधि है लेकिन मनमोहन सिंह तो असम से राज्यसभा के सदस्य हैं। साफ है कि राज्यसभा की सदस्यता भी उन्हें सोनिया गांधी की कृपा से ही मिली है। प्रधानमंत्री का पद भी उन्हें सोनिया गांधी की दया से मिला है। इसीलिए तो वे मंत्रिमंडल में भी फेरबदल अपनी इच्छा से नहीं कर सकते। तब सतर्कता आयुक्त वे क्या अपनी मर्जी से बनाएंगे?
सीबीआई ने न्यायालय में अर्जी दी है कि बोफोर्स का मामला वह वापस लेना चाहती है। उसी समय आयकर ट्रिब्यूनल बोफोर्स की दलाली पर टैक्स लेने का फैसला सुनाता है। वह बताता है कि बोफोर्स में कितनी दलाली ली गई। सीबीआई हो या आयकर विभाग दोनों केंद्र सरकार के ही विभाग है। जब सीबीआई के अनुसार बोफोर्स दलाली में केस चलाने लायक नहीं है तो आयकर ट्रिब्यूनल बोफोर्स दलाली पर टैक्स क्यों मांग रहा है? ईमानदार नौकरशाह चाहिए या बेईमान। क्योंकि ईमानदार नौकरशाह तो गलत काम करने के लिए तैयार होगा नहीं। तब बेइमानों को ईमानदार नौकरशाह पसंद कैसे आएगा? वह सतर्कता आयुक्त की कुर्सी पर बैठ गया तो सरकार में जो गलत काम होगा, उसे बचाने की कोशिश तो नहीं करेगा। जब केंद्रीय मंत्री कैग की रिपोर्ट को ही पूरी बेशर्मी से खारिज कर देता है तो इसी से समझ में आता है कि स्थिति कैसी विचित्र है? कैग ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपए के सरकारी खजाने को नुकसान की बात नहीं उठायी होती तो राजा संचार मंत्री बने रहते।
जबकि राडिया का टेप सरकार के पास मौजूद था। सरकार के ही एक विभाग ने राडिया की फोन टैपिंग की थी। कैसे लाबिंग कर केंद्र में मंत्री बनाए जाते हैं, इसका कच्चा चिट्ठïा टेप में मौजूद था। फिर भी ईमानदार प्रधानमंत्री को जैसे कोई लेना देना नहीं था। यह तो वे मामले हैं जो सबके सामने आया हैं। न जाने कितने मामले हैं जो अभी दफन है और जिनकी किसी को कोई खबर नहीं है। राडिया टेप से ही यह बात सामने आयी कि एक कांग्रेसी केंद्रीय मंत्री हर ठेके पर 15 प्रतिशत कमीशन लेता है। फेरबदल में उसका विभाग तो बदल दिया गया लेकिन वह शान से अभी भी मंत्री पद पर शोभायमान है। गृहमंत्री पी.चिदंबरम की तो तारीफ ही की जा सकती है कि सत्य को स्वीकार करने का उनमें माद्दा तो है। नहीं तो सुप्रीम कोर्ट में दिए हलफनामे को झूठा साबित करना एक मंत्री को भारी पड़ सकता है। वे चाहते हैं तो चतुर सुजान की तरह चुप्पी साध सकते थे। पानी में रहकर मगर से दुश्मनी का माद्दा कितनों में होता है। चिदंबरम की स्वीकारोक्ति के बाद मनमोहन सिंह तो सीधे-सीधे कठघरे में खड़े हो गए हैं।
यदि आप सिर्फ ईमानदार व्यक्ति दिखना चाहते हैं तो वह समय समाप्त हो रहा है। वास्तव में आप ईमानदार व्यक्ति हैं तो अपनी ईमानदारी का प्रमाण भी देना पड़ेगा। मनमोहन सिंह को देश को बताना चाहिए कि किस दबाव में उन्होंने सतर्कता आुयक्त के रुप में थामस की नियुक्ति सब कुछ जानते समझते हुए की और क्यों झूठा हलफनामा सरकार के द्वारा उच्चतम न्यायालय में दायर किया गया? क्योंकि संदेश तो जनता को मिल गया है कि सरकार ने झूठ बोलने के सभी रिकार्ड तोड़ दिए हैं। ऐसी स्थिति सरकार की लोकप्रियता को ही नहीं उम्र को भी कम कर देगी। फिर दोबारा लौटने का अवसर जनता देगी इसकी उम्मीद भी नहीं करना चाहिए ।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 01.02.2011
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भष्टïचार के विरुद्ध जनयुद्ध का अर्थ ही है कि जनता को अब और बरगलाया नहीं जा सकता

भ्रष्टाचार के विरुद्ध अब आक्रोश प्रगट होने लगा है। यह बात तो लोगों को अच्छी तरह से समझ में आ गयी है कि सरकार भ्रष्टïाचार रोकने के लिए कृतसंकल्पित नहीं है। जहां कोई मामला उजागर होता है तो उसकी भी लीपापोती करने से परहेज नहीं किया जाता। विदेशों में जमा कालाधन हो या महंगाई सबकी जड़ में भ्रष्टï तंत्र ही जिम्मेदार दिखायी देता है। सब कुछ जानकर भी प्रधानमंत्री जब तक हल्ला नहीं मचता तब तक देखकर भी अंजान बने रहते हैं। इंतहा तो यह है कि कैग की रिपोर्ट को ही कपिल सिब्बल जैसा मंत्री खारिज कर देता है। कपिल सिब्बल कहते हैं कि 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ है। जब भ्रष्टाचार नहीं हुआ है तो जेपीसी से जांच कराने की विपक्ष की मांग से सरकार सहमत क्यों नहीं है? कालेधन के मामले में सरकार नाम उजागर करने के लिए तैयार नहीं है और इसके लिए अंतर्राष्टï्रीय संधियों की आड़ ले रही है। यह सिर्फ कर चोरी का ही मामला नहीं है, उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी भी सरकार को परेशान नहीं करती। सतर्कता आयुक्त थामस के दागी होने से सरकार स्वयं को अंजान बता रही है। अंतत: महाराष्टï्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का नाम आदर्श घोटाले की एफआईआर में आ ही गया।
भ्रष्टïाचार जो सामने आ रहा है, वही हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह है तो जो सामने नहीं आया है, उसकी कल्पना ही घबराहट पैदा करने वाली है। अब तो सीवीसी और सीबीआई को भी भंग करने की मांग उठने लगी। बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में 60 शहरों में रैलियां कर लोगों ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनयुद्ध की घोषणा कर दी है। माहौल फिर जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की याद दिला रहा है। योग गुरु स्वामी रामदेव पूरे भारत के दौरे पर हैं और गांव-गांव भ्रष्टïाचार और विदेशों में जमा भारतीय धन के विषय में जनजागृति फैला रहे हैं। जनता भी बड़े उत्साह के साथ स्वामी रामदेव के अंदोलन को गति और शक्ति प्रदान कर रही है। आज कम से कम सरकार के सांसद बल के कारण तानाशाह बनने का खतरा नहीं है। इंदिरा गांधी के पास जैसा दो तिहाई बहुमत था, वैसा बहुमत सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के पास नहीं है और न ही सभी राज्यों में उनकी सत्ता है। इसलिए न तो आपातकाल का खतरा है और न ही सरकार के पास मनमानी करने का अधिकार।
आर्थिक विकास के नाम पर जिस तरह से देश में भ्रष्टïाचार और कालेधन को आश्रय मिला, उसने जनता पर कर का बोझ तो बढ़ाया ही, साथ ही सब्सिडी के लाभ से भी मासूम जनता को महरुम कर दिया। फलस्वरुप   जनता महंगाई की गिरफ्त में इस तरह से जकड़ गयी जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। एक, दो, पांच रुपए के नोट हों या सिक्के इनका चलन में कोई बहुत मायने नहीं रह गया। सरकार में बैठे लोग बेशर्मी से कहते हैं कि विकास की कीमत तो चुकानी पड़ेगी। जनता की आय में वृद्धि हुई लेकिन किस जनता की? आज भी देश की आधी आबादी 20 रुपए प्रतिदिन में गुजारा करती है। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूल आवश्यकताएं तो धन की गुलाम बन गयी। अच्छी शिक्षा का अर्थ महंगी शिक्षा। निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें गरीबों को देने की बात भी फाइलों में दर्ज है लेकिन वास्तव में कितने स्कूल हैं देश के जो गरीबों को उनका हक दे रहे हैं। बातें सबके पास बड़ी-बड़ी और लंबी चौड़ी है लेकिन अमलीजामा पहनाने के मामले में सरकार फिसड्डïी ही साबित हो रही है। हजारों करोड़ों की मनरेगा योजना ही भ्रष्टïाचार का शिकार हो गयी है और किसी तरह का नियंत्रण नहीं दिखायी देता।
जब सरकार सीवीसी जैसे पद पर दागी व्यक्ति को बिठाने में हिचक महसूस नहीं करती और प्रतिपक्ष की नेता की बात सुनने के लिए तैयार नहीं तो इसी से सरकार की नीयत की चुगली होती है। फिर इस मामले में तो सीधे-सीधे हमारे प्रधानंमत्री ही सम्मिलित रहे। अब सरकार सतर्कता आयुक्त से कह रही है कि इस्तीफा दे दो तो खबर है कि वह इस्तीफा देने  से इंकार कर रहे हैं। पूर्व संचार मंत्री राजा से ही इस्तीफा लेने में सरकार को पसीना छूट गया था। पहले तो राजा ने इस्तीफा देने से इंकार कर दिया था। राजा ने तो स्पष्ट कहा था कि सब कुछ प्रधानमंत्री की जानकारी में किया गया। मंत्रिमंडल के फेरबदल में उम्मीद की जा रही थी कि मंत्रिमंडल के कुछ बदनाम चेहरों को सरकार से बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा लेकिन विभागों में बदलाव के सिवाय कुछ नहीं किया गया। पूरा का पूरा लोकसभा का एकसत्र जेपीसी की मांग सरकार के न मानने के कारण बिना काम-काज के ही समाप्त हो गया।
सत्तारुढ़ दल की ही ऐसी स्थिति है, ऐसी बात नहीं है। भाजपा जिसे वर्तमान राजनैतिक परिस्थिति का सबसे ज्यादा लाभ मिलता, वह भी सत्ता के मोह में कर्नाटक के येदुरप्पा को बचाने के कारण अपनी छबि पर बट्टïा लगा बैठी। कभी शंकर सिंह वाघेला के बगावत के कारण सत्ता गंवाने वाली भाजपा में अब वह बात दिखती नहीं। अब राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के विरुद्ध मामला चलाने की इजाजत दे दी है। यही कारण है कि भ्रष्टाचार और महंगाई के विरुद्ध भाजपा के आंदोलन को कार्यकर्ताओं का समर्थन भले ही मिले लेकिन जनता का समर्थन तो नहीं मिल रहा है। यह तो कोई भी नहीं कह सकता कि सिर्फ कांग्रेस की सरकारों में ही भ्रष्टïाचार है। भाजपा की राज्य सरकारें भी पूरी तरह से भ्रष्टाचार मुक्त मुक्त तो नहीं है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भ्रष्टïाचार के विरुद्ध कड़े कदम उठाने की बात करते हैं। 20 वर्ष में नहीं 6 माह में फैसले की बात करते हैं। सोनिया गांधी के भी बयान भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं लेकिन बयान और वास्तविक स्थिति का भेद किसी से छुपा नहीं है।
इसीलिए देश में स्थिति ऐसी उत्पन्न हो रही है कि अब कोई भी व्यक्ति सिर्फ कसमसाकर नहीं रह सकता। उसे विरोध के लिए सड़क पर उतरना पड़े तो वह उतरेगा। बाबा रामदेव ने अलख सबसे पहले जगाया है और उनका संगठन भी देश में तैयार हो रहा है। स्थापित राजनेताओं और राजनैतिक पार्टियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब जनता ही उठ खड़ी होती है तो वह फिर किसी को बख्शती नहीं। इंदिरा गांधी ने तो जेल में बंद कर रखा था राजनेताओं को लेकिन जनता ने जब इंदिरा गांधी से मुक्ति का संकल्प ले लिया तो सत्ता से बेदखल कर ही दिया था। स्वयं इंदिरा गांधी तक को चुनाव में पराजित कर दिया था। जनता की सहनशक्ति की एक सीमा है और वह समाप्त हो रही है। नेतृत्व की कमी थी। लगता था कि एक तरफ कुंआ है तो दूसरी तरफ खाई। किधर भी जाओ मरना अपने को ही है लेकिन अब बाबा रामदेव के रुप में सशक्त नेतृत्व मिल गया है। जनता में यह विश्वास तो पैठ रहा है कि यह बाबा उन्हें धोखा नहीं देगा और जनता का विश्वास से बड़ी ताकत प्रजातंत्र में और कुछ नहीं होती। अब भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनयुद्ध की घोषणा ही इस बात की निशानी है कि पानी नाक के ऊपर आ गया है। जनता को और बरगलाया नहीं जा सकता।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 31.01.2011 

किरणमयी स्वयं चाहती हैं कि उनका कार्यकाल असफल साबित हो तो कुछ भी कहना बेकार है

संकीर्णता मानसिकता से किसी का भी भला नहीं होने वाला है। सुनील सोनी के रायपुर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष बनने पर समाचार पत्र में विज्ञापन में महापौर किरणमयी नायक का चित्र छप गया तो इससे कोई भूचाल नहीं आ गया लेकिन किरणमयी को कांग्रेस संगठन नोटिस देकर पूछ रहा है कि विज्ञापन में उनकी सहमति से उनका चित्र छापा गया, क्या? जैसे चित्र छपने से कांग्रेस की इज्जत खराब हो गयी। कोई भी व्यक्ति किसी भी पद को सुशोभित करता है तो लोकाचार में सभी उसे शुभकामनाएं देते हैं, बधाई देते हैं। सुनील सोनी को ही कितने ही कांग्रेसी नेताओं ने दूरभाष पर बधाई और शुभकामनाएं दी। यदि चित्र छप जाने से अनुशासनहीनता होती है तो शुभकामनाएं देने से नहीं होती, क्या? कितने ही कांग्रेसी है जो मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की आपसी चर्चा में तारीफ करते हैं। सार्वजनिक रुप से तारीफ करने से डरते हैं। क्योंकि डर है कि अनुशासन का डंडा उनके विरुद्ध इस्तेमाल हो सकता है।
कांग्रेसी ही कहने से नहीं हिचकते कि कांग्रेसी नेताओं की आपसी प्रतिद्वंदिता डॉ. रमन सिंह के सिर पर जीत का सेहरा तीसरी बार भी बांध सकता है। जब केंद्र से आए मंत्री डॉ. रमन सिंह की तारीफ करते हैं तो कांग्रेसियों के चेहरे देखने लायक हो जाते हैं। कांग्रेसियों को संकीर्णता का त्याग करना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि रायपुर शहर की जनता ने जब महापौर के रुप में एक कांग्रेसी का चयन किया है तो रायपुर की जनता का हित कैसे पूरा किया जाए? रायपुर की जनता के हित को पूरा करने में यदि महापौर सफल नहीं हुई तो फिर रायपुर में कांग्रेस का भविष्य ही क्या होगा? रायपुर के विकास के लिए शासकीय स्तर पर नगर निगम और रायपुर विकास प्राधिकरण दो संस्थाएं हैं। जब किरणमयी नायक महापौर चुनी गयी थी और उनका शपथ ग्रहण समारोह हुआ था तब पूर्व महापौर सुनील सोनी ने खुले मंच से उन्हें अपनी शुभकामनाएं दी थी। भाजपा के मंत्री ने भी दी थी। शुभकामनाएं और बधाई देने में भाजपा के लोगों ने संकीर्णता प्रदर्शित नहीं की थी।
कोई कांग्रेस के साथ है तो कोई भाजपा के साथ लेकिन हैं तो सभी रायपुरवासी। सोच का विषय यह होना चाहिए कि कैसे मिल जुलकर रायपुरवासियों का भला किया जाए। यह सबको अच्छी तरह से पता है कि नगर निगम अपने आर्थिक संसाधनों से रायपुर शहर के वासियों की आकांक्षा पर खरा साबित नहीं हो सकता। उसे राज्य सरकार के सहयोग की जरुरत है तो उसे राज्य सरकार से संबंध बनाना ही पड़ेगा। केंद्र में कांग्रेस की सरकार है और छत्तीसगढ़ में भाजपा की लेकिन राज्य के हित में केंद्रीय मंंत्रियों से मिलने के डॉ. रमन सिंह और उनके मंत्री जाते हैं। क्योंकि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि राजनैतिक विचारधारा भले ही अलग हो लेकिन नागरिकों का हित सर्वोपरि है। कांग्रेसी तो यही आरोप लगाते रहते हैं कि केंद्र की योजना को राज्य सरकार अपने नाम से प्रसारित करती है। राज्य सरकार तो फिर भी उतनी केंद्र सरकार पर आश्रित नहीं है जितना आश्रित नगर निगम राज्य सरकार पर है। राज्य सरकार संकीर्णता दिखाए तो नगर निगम तो कुछ भी करने की स्थिति में नहीं है।
किरणमयी को 1 वर्ष से अधिक समय हो गया, महापौर बने। नगर निगम में विवाद के सिवाय हो क्या रहा है? राज्य सरकार से आर्थिक असहयोग का रोना रोया जा रहा है। भाजपा पार्षद मंत्री से मिलकर सहयोग की मांग करते हैं तो मंत्री जी सहयोग के लिए तुरंत तैयार हो जाते हैं। प्रत्येक वार्ड के लिए रकम दी जाती है। कोई भेदभाव नहीं किया जाता। सरकार पर दोषारोपण करने से ही शहर की समस्याएं हल नहीं होने वाली हैं। सभापति सामान्य सभा के लिए बार-बार महापौर को लिखते है लेकिन 5 माह से सामान्य सभा ही नहीं होती। भाजपा पार्षद आयुक्त के पास जाकर शिकायत करते हैं। नगर निगम में त्रिकोणात्मक सत्ता काम करती है। एक तरफ महापौर हैं तो दूसरी तरफ सभापति और तीसरी तरफ आयुक्त के अधीन कर्मचारियों की फौज। सबको मालूम हैं कि आयुक्त के पास सीधे चले जाओ तो सही काम हो जाता है। महापौर से कहो तो काम नहीं होता।
बड़ी विचित्र स्थिति है। महापौर को कानून कायदों के साथ व्यवहारिक होने की जरुरत हैं लेकिन वो भी क्या करें? कांग्रेस संगठन उनके महापौर बनने के बाद उन्हें नोटिस ही देता रहता है। अपने ही टांग खींचने से पीछे नहीं तो वे कितने मुकाम पर संघर्ष करें। महापौर महिला हैं, वकील हैं, सब कुछ समझती है। उन्हें भी आभास नहीं होगा कि महापौर बनने के बाद उन्हें नगर विकास के लिए इतना संघर्ष करना पड़ेगा लेकिन वे संघर्ष कर रही है। दरअसल उन्हें संघर्ष के बदले समन्वय की तरफ अपनी राजनीति को मोडऩा चाहिए। वे पढ़ी लिखी हैं तो उन्हें अमर्यादित शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। सभापति को बाबू कहना, मात्र पार्षद बताना शोभनीय शब्दावली नहीं है। सभापति पार्षदों के बहुमत से चुना जाता है और जिस तरह से विधानसभा में विधानसभा अध्यक्ष की स्थिति होती है, सम्मान की दृष्टि से, उसी तरह से नगर निगम के सभापति की भी होती है।
रायपुर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष पद को महापौर से छोटा बताना भी कोई अच्छी बात नहीं है। आदमी पद से छोटा बड़ा नहीं होता वह अपनी सोच और चरित्र से छोटा बड़ा होता है। सुनील सोनी रायपुर नगर निगम के 6 वर्ष तक महापौर रहे। 43 हजार सीटों  से रायपुर की जनता ने उन्हें महापौर बनाया था। वे किरणमयी नायक से वरिष्ठ हैं। सभापति संजय श्रीवास्तव भी वरिष्ठï पार्षद हैं। महापौर सोच समझकर शब्दों का प्रयोग करेंगी तो अपना और अपने पद का गौरव बढाएंगी। रायपुर शहर के नागरिकों ने उन्हें महापौर चुनकर उन पर विश्वास व्यक्त किया है।
उस विश्वास पर खरा उतरता रायपुर के नागरिक देखना चाहते हैं। हर बात पर कानून की धमकी महापौर जैसे पद पर बैठी महिला के मुंह से शोभा नहीं देता। इसलिए लोग कहते हैं कि काला कोट उतारकर किरणमयी राजनीतिज्ञ की तरह व्यवहार करें। बड़ा अवसर मिला है। 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा होने पर कोई यह नहीं पूछेगा कि उनकी समस्याओं का निपटारा क्यों नहीं हुआ? तब जनता फैसला सुनाएगी। फैसला अपने पक्ष में चाहती हैं तो व्यवहार में परिवर्तन करें। व्यवहारिक बनें। विनम्र बनें। तभी भविष्य में जनता से समर्थन की उम्मीद करें। कोई नहीं चाहता। सिवाय चंद राजनैतिक प्रतिद्वंदियों के कि किरणमयी का कार्यकाल असफल साबित हो लेकिन किरणमयी भी वास्तव में ऐसा चाहती हैं, क्या?
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 30.01.2011
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250 शराब दुकानों को बंद करना ही अंतिम लक्ष्य नहीं होना चाहिए

कुल 1054 शराब दुकानें छत्तीसगढ़ में हैं और इसमें से 250 दुकानें 1 अप्रैल से बंद करने का इरादा सरकार ने व्यक्त किया है। कहा जा रहा है कि इससे 100 करोड़ रुपए की राजस्व हानि होगी लेकिन शेष दुकानों में बढ़ी बिक्री से यह घाटा पूरा हो जाएगा। जानकर अच्छा लगता है कि डॉ. रमन सिंह की सरकार शराब को हतोत्साहित करना चाहती है। क्योंकि शराब को मनुष्य के लिए किसी भी दृष्टि से उपयोगी नहीं माना जाता। कभी कभार ऐसे समाचार भी मिलते हैं कि निश्चित मात्रा में शराब के सेवन से स्वास्थ्य को लाभ होता है लेकिन व्यवहारिक पहलू तो यही है कि शराब व्यक्ति सहित उसके परिवार की बर्बादी का ही कारण बनती है। मध्यप्रदेश के समय में ही निर्णय हुआ था कि जिस क्षेत्र की महिलाएं शराब दुकानें बंद करने की मांग करेंगी, वहां शराब दुकान बंद कर दी जाएगी, लेकिन अधिकांश मामलों में यह संभव नहीं हुआ।
प्रदेश में शराब बंदी नहीं है। कभी मध्यप्रदेश में शराब बंदी थी। जब तक महात्मा गांधी का प्रभाव कांग्रेस पर संपूर्ण था तब तक कांग्रेस सरकारें शराब बंदी पर कायम रही लेकिन सरकारों की बढ़ती आर्थिक आवश्यकताओं ने शराब बंदी समाप्त कर दी। स्व. द्वारका प्रसाद मिश्र जब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने शराब बंदी पूरी तरह से समाप्त कर दी। इसके बाद किसी भी सरकार ने मध्यप्रदेश में शराब बंद करने की कोशिश नहीं की। शराब से मिलने वाले राजस्व और शराब ठेकेदारों से मिलने वाली सौगातों ने शराब बंदी की सोच को ही समाप्त कर दिया। शराब का जितना वैध कारोबार होता है, उसके सामानान्तर ही अïवैध कारोबार भी होता है। दरअसल धन की लालसा अच्छे बुरे का भेद मिटा देती है। चुनाव आयोग कितना भी आदर्श आचार संहिता लगाए लेकिन चुनावों में शराब का छक कर प्रयोग होता है। कोई बिरला बिना शराब बांटे चुनाव जीत जाता हो तो जीत जाता हो। नहीं तो शराब  बांटे बिना जीत की उम्मीद नहीं की जा सकती।
छत्तीसगढ़ सरकार की अति महत्वाकांक्षी योजना 1 रु. और 2 रु. में 35 किलो चांवल की भी आलोचना इस बात को लेकर की जाती है कि बढ़ती संपन्नता का दुरुपयोग शराबखोरी के लिए किया जाता है। सरकार की नीयत तो साफ है। वह चाहती है कि कोई भी भूखा न रहे लेकिन इसका भी दुरुपयोग कुछ लोग करें तो सर्वहित की योजना को सरकार बंद तो नहीं कर सकती। छत्तीसगढ़ के आम आदमी की संपन्नता बढ़े, इसके लिए सरकारी प्रयासों की सराहना की जाती हैं लेकिन बढ़ती संपन्नता के दुरुपयोग को रोकना भी तो सरकार का ही काम है और प्रथम चरण में सरकार 250 शराब दुकानें बंद करने का इरादा रखती है तो उसकी तारीफ ही की जाएगी। यह बात सरकार भी अच्छी तरह से समझती है कि जिन क्षेत्रों में शराब दुकानें बंद की जाएगी, वहां अवैध व्यापारी अवैध शराब बेचने में हिचकेंगे नहीं। सिर्फ दुकानें बंद करने से ही उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। जब तक कि शासकीय मशीनरी कृतसंकल्पित नहीं होगी, अवैध कारोबार को रोकने के लिए। यह कटु सत्य है कि वैध कारोबार की तुलना में अवैध कारोबार शासकीय मशीनरी की जेब ज्यादा गर्म करेगा। इस पर रुकावट की व्यवस्था नहीं की गई तो शराब दुकान बंद कर सरकार जो उद्देश्य प्राप्त करना चाहती है, उसमें सफल नहीं होगी।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के मामले में स्वयं डॉ. रमन सिंह ने रुचि लेकर जिस तरह की व्यवस्था की और आज पूरा देश छत्तीसगढ़ की वितरण प्रणाली से प्रभावित होकर अपने राज्य में छत्तीसगढ़ की व्यवस्था को लागू करने के लिए तैयार है। ठीक उसी तरह से अवैध शराब बिक्री को निरुत्साहित करने की जरुरत है। 1 रु. और 2 रु. किलो चांवल की योजना यदि व्यवस्था सुचारु नहीं होती तो असफल सिद्ध हो जाती। असफल होती तो सरकार को आज जो लोकप्रियता हासिल है, वह अलोकप्रियता में बदल जाती। तब ऐसा जनसमर्थन नहीं मिलता जो अभी तक मिल रहा है। इसलिए अच्छी नीति बनाना अलग बात है और उसे लागू करना अलग। यह नहीं कहा जा सकता कि राशन माफिया का तंत्र पूरी तरह से समाप्त हो चुका है लेकिन राशन माफिया कमजोर तो पड़ा है। बोगस राशन कार्ड आज भी पकड़े जाते हैं लेकिन हितग्राहियों को राशन नहीं मिलता, यह तो नहीं कहा जा सकता।
राजस्व के मान से भले ही 15 प्रतिशत शराब दुकानें बंद की जा रही हैं लेकिन दुकानों की संख्या के आधार पर तो एक चौथाई दुकानें बंद की जा रही है। इसकी सफलता पर ही भविष्य में शराब बंदी की योजना लागू हो सकती है । सरकार जितना धन सस्ते दर पर अनाज देने में खर्च कर रही है, उसके आसपास ही सरकार की शराब से आय है। एक जनहितकारी सरकार शराब राजस्व के लोभ को छोड़ सकती है। यदि इससे छत्तीसगढ़वासियों का उद्धार होता है। सरकार पूर्ण शराब बंदी चुनाव से पूर्व लागू करने में सफल हो गयी तो प्रदेश की आधी जनसंख्या महिलाओं की उसे सहज ही सहानुभूति मिल सकती है। यह छोटा काम नहीं है बल्कि बड़े से बड़ा काम है। यह तो एक उदाहरण होगा कि महात्मा गांधी के नाम पर राजनीति की रोटी सेंकने वालों ने शराब दुकानें खुलवायी  और भाजपा ने दुकानें बंद करवायी। शराब का विरोध धर्मों ने सिर्फ आर्थिक नुकसान के कारण नहीं किया बल्कि शराब के कारण जो बेहोशी व्यक्ति पर तारी होती है, उसके कारण किया। नशे में धूत्त व्यक्ति को अच्छे बुरे का बोध नहीं होता। इस कारण हर तरह की बुराइयों का जन्म होता है। सबसे पीड़ाजनक स्थिति शराब के कारण महिलाओं को होती है। क्योंकि अंतत: पुरुष के कृत्यों का भुगतान तो महिला को ही करना पड़ता है।
समाचार है कि मंत्रिमंडल की बैठक में शराब के अवैध कारोबार को लेकर कुछ मंत्रियों ने चिंता प्रगट की। स्वाभाविक है। जिम्मेदार जनप्रतिनिधि को नित्य अपने मतदाताओं के संबंध में जानकारी  मिलती है। महिलाएं तो सिसक-सिसक कर अपना दुख प्रगट करती है। डॉ. रमन सिंह और अमर अग्रवाल कृतसंकल्पित हों तो पूरे प्रदेश में भी शराब बंदी की जा सकती है। डॉ. रमन सिंह को तो वैसे भी प्रदेश की जनता की कीमत पर राजस्व की चिंता होती नहीं। यह उन्होंने विभिन्न योजनाओं से सिद्ध किया है। राज्य का सकल उत्पाद बढ़ रहा है। राजस्व बढ़ रहा है। 3 हजार करोड़ का वार्षिक बजट 30 हजार करोड़ पहुंच रहा है। तब शराब की 8-9 सौ करोड़ की आय की विशेष आवश्यकता तो सरकार को होना नहीं चाहिए। पूर्णत: शराबबंदी की भविष्य में सरकार की सोच नहीं है तो 250 दुकानों को बंद करने से कुछ होगा, नहीं। सिर्फ अवैध शराब विक्रेताओं को लाभ पहुंचाने के। कदम आगे बढ़ाया है तो मंजिल तक पहुंचाने का माद्दा भी होना चाहिए। डॉ. रमन सिंह और अमर अग्रवाल में यह माद्दा नहीं है, यह सोचने का तो कोई कारण नहीं। दोनों को कदम आगे बढ़ाने के लिए साधुवाद।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 29.01.2011
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यदि सरकार ने न्यायालय में झूठा हलफनामा दायर किया है तो यह गिरावट की पराकाष्ठï है

सरकार ने हलफनामा दायर कर उच्चतम न्यायालय को बताया कि उसे भ्रष्टïाचार के मामले में केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पी.जे. थामस के खिलाफ चार्जशीट दाखिल होने की जानकारी नहीं थी। जनता से झूठ बोलना, झूठे वायदे करना तो सरकारों के लिए एक आम बात है। स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नरसिंहराव की सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए संसद में कहा था कि चुनाव में वायदा करना अलग बात है और उसे पूरा करना अलग। मानसिकता तो स्पष्टï है। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब लोकसभा के  चुनाव में कांग्रेस ने वायदा किया था कि वह गरीबों को 3 रू. किलो अनाज देगी लेकिन डेढ़ वर्ष से अधिक हो गया, सरकार अपना वायदा पूरा करती नहीं दिखायी पड़ती। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इसके लिए दबाव भी बनाया लेकिन सरकार ने दबाव को स्वीकार नहीं किया। मोटे तौर पर यह आम बात है। मनमोहन सिंह की सरकार ही ऐसा करती है, ऐसा नहीं है। अधिकांश सरकारों की फितरत इसी तरह की है।
लेकिन केंद्र सरकार उच्चतम न्यायालय में झूठा हलफनामा भी दाखिल कर सकती है, यह बात तो किसी को भी स्वीकार नहीं होगी। लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज कहती हैं कि सरकार सफेद झूठ बोल रही है। सीबीसी की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और प्रतिपक्ष की नेता को मिलाकर तीन सदस्यीय समिति होती है। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के साथ सुषमा स्वराज भी समिति की सदस्य थी। तीन सदस्यीय पैनल में से थामस के नाम का विरोध सुषमा स्वराज ने किया था। कारण उन पर चार्जशीट ही थी। यह तो स्पष्टï है कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री थामस को सतर्कता आयुक्त बनाना चाहते थे। इसलिए सर्वसम्मति से न होकर उनका नाम बहुमत के आधार पर तय किया गया। जिसका यह भी स्पष्टï अर्थ होता है कि समिति की बैठक औपचारिकता थी। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री ने पहले से ही तय किया हुआ था कि थामस को सतर्कता आयुक्त नियुक्त करना है। तब थामस की चार्जशीट की जानकारी बैठक में क्यों रखी जाती? गृह विभाग को यह जानकारी न हो, इस बात पर तो कोई विश्वास नहीं कर सकता।
इसके साथ 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के समय थामस दूरसंचार मंत्रालय में सचिव थे। विपक्ष संसद की कार्यवाही पूरे एक सत्र भर नहीं चलने देता कि 2जी स्पेक्ट्रम की जांच के लिए संयुक्त संसदीय दल बनाया जाए। सरकार भी अड़ी हुई है कि वह जेपीसी नहीं बनाएगी। यदि आप ईमानदार हैं और आपकी सरकार ने कुछ गलत नहीं किया है तो जेपीसी जांच से परहेज क्यों ? शक संदेह के लिए सरकार ही कारण बन रही है। जब कोई कुछ छुपाना चाहता है तब ही वह किसी भी तरह की जांच से घबराता है। आज मनमोहन सिंह की सरकार की स्थिति भी वैसी ही हो गयी है जैसी कभी विभिन्न आरोपों में घिरी नरसिंहराव सरकार की हो गयी थी और कभी बोफोर्स के कारण राजीव गांधी की हो गयी थी। बोफोर्स का जिन्न अभी भी चिराग के अंदर जाने के लिए तैयार नहीं है। आयकर विभाग ने उसे फिर से अपने फैसले से जिंदा कर दिया है।
काश्मीर के श्रीनगर के लाल चौक पर 26 जनवरी को झंडा फहराने के कार्यक्रम ने भाजपा को फिर से जिंदा कर दिया है। भले ही ये निखालिस राजनीति हो लेकिन राष्टï्र प्रेमियों के मन पर कांग्रेस की छवि खराब ही हुई है। कांग्रेस हिंदू उग्रवाद के नाम पर जिस तरह से संघ और भाजपा की छवि खराब करना चाहती थी और इससे अपनी छवि निखारना चाहती थी, वह भी अब संभव नहीं दिखायी देता। कोर्ट के आदेश पर जिस तरह से मस्जिद हटायी गयी और मुसलमानों के विरोध के बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने मस्जिद पुन: बनवाने का आश्वासन दिया, उससे कांग्रेस ने मुसलमानों का दिल जीतने का भले ही प्रयास किया लेकिन चौक चौराहों से जिस तरह से हिंदू मंदिर हटाए जा रहे हैं, उससे संदेश स्पष्टï है। यह उच्चतम न्यायालय के आदेश से हो रहा है और छुटपुट विरोध के सिवाय हिंदू मंदिर हटाने में प्रशासन को कोई दिक्कत नहीं आ रही है। हिंदुओं में यदि उग्रवाद होता तो क्या यह संभव था?
कांग्रेस की छवि खराब हो रही है और भाजपा की छवि निखर रही है। उच्चतम न्यायालय में यह कहकर कि सतर्कता आयुक्त को हटाया जा सकता है, सरकार ने अपनी कमजोरी भी प्रगट कर दी है। सरकार जब उच्चतम न्यायालय में झूठ का सहारा लेकर बचने की कोशिश कर रही है और सुषमा स्वराज हलफनामा दायर कर उच्चतम न्यायालय में सत्य को प्रगट करने का इरादा रखती है तो इससे बड़ी शर्मिंदगी की बात सरकार के लिए और क्या हो सकती है? बजट सत्र भी आ रहा है। फिर सरकार और विपक्ष आमने सामने होगा। विपक्ष सरकार से इस्तीफा भी मांग सकता है। अविश्वास का प्रस्ताव भी ला सकता है। 2जी स्पेक्ट्रम मामले से बड़ा मामला तो उच्चतम न्यायालय में दिया गया झूठा हलफनामा भी बन सकता है। सतर्कता आयुक्त की कुर्सी पर जब एक दागी व्यक्ति को सरकार बहुमत के आधार पर बिठाती है तो वह जनता को स्पष्टï संदेश अपने चरित्र के विषय में देती है।
जहां तक मनमोहन सिंह का प्रश्र है तो उनकी ईमानदारी पर कोई संदेह व्यक्त नहीं कर रहा लेकिन उनकी नाक के नीचे जो भ्रष्टïाचार और गलत नियुक्ति हुई, उसकी नैतिक जिम्मेदारी से वे भले ही इंकार करें लेकिन उन्हें राष्टï्र को बताना चाहिए कि गठबंधन की मजबूरी भ्रष्टïाचार को देखकर अनदेखा करने के लिए उन्हें बाध्य करती थी तो सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति में ऐसा किसका दबाव था जो सब कुछ जान बूझकर उन्होंने किया।  क्योंकि सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति मनमोहन सिंह  से अप्रत्यक्ष रूप से नहीं प्रत्यक्ष रूप से संबंधित मामला है। राहुल गांधी महंगाई को गठबंधन की मजबूरी बता सकते हैं लेकिन सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति भी गठबंधन की मजबूरी है, क्या? थामस की नियुक्ति के लिए दो लोग जिम्मेदार हैं। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रूप में और गृहमंत्री के रूप में पी. चिदंबरम।
ये दोनों कांग्रेसी हैं। तीसरी सदस्य सुषमा स्वराज ने तो असहमति प्रगट की थी। इसलिए सीधे सीधे यह कांग्रेस का ही निर्णय है। अब कहा जा रहा है, उच्चतम न्यायालय से कि थामस को हटाया जा सकता है। एक बार मान भी लिया जाए कि थामस की चार्जशीट के मामले में मनमोहन सिंह को जानकारी नहीं थी लेकिन आज हटाने की बात करने के पहले ही उन्हें क्यों नहीं हटा दिया गया? कोई उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर होने के बाद ही सरकार को तो मालूम नहीं पड़ा कि थामस दागी है। जब सुषमा स्वराज ने जानकारी दी तभी जांच कर लेना चाहिए था। नहीं किया गया तो दाल में काला ही काला तो स्पष्टï दिखायी देता है। सतर्कता आयुक्त की कुर्सी की महत्ता सेे मनमोहन सिंह परिचित नहीं, ऐसा तो मानने का कोई कारण नहीं। यदि गलत उद्देश्य से नियुक्ति नहीं की गयी तो सफेद झूठ बोलने की क्या जरूरत है? यह तो सिर्फ अब अपनी चमड़ी बचाने का ही तरीका दिखायी देता है लेकिन क्या इससे झूठ सच हो जाएगा?
- विष्णु सिन्हा
28-01-2011


कानून के रक्षक को ही जब जिंदा जला दिया गया तब यह नौकरशाहों के लिए सोच विचार का विषय है

अभी तक तो बहुओं को मिट्टïी का तेल डालकर जलाने की व्यथा कथा सामने आती थी लेकिन अब अपराधियों और खासकर आर्थिक अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हो गए हैं कि वे कानून के रक्षक को ही मिट्टïी का तेल डालकर जलाने लगे। किसी भी जिंदा आदमी पर मिट्टïी का तेल डालकर जलाना क्रूरता की पराकाष्ठïा है। ऐसा काम कोई जानवर नहीं करता लेकिन इंसान तो करता है। आज इंसान को किसी जानवर से इतना खतरा नहीं है जितना इंसान से है। आम आदमी की बात तो जाने दीजिए, उसकी आज भी क्या बिसात है लेकिन कानून की रक्षा करने वाले एक एडिशनल कलेक्टर यशवंत सोनवणे को ही जब जिंदा जला दिया जाता है तो फिर सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि जब रक्षक ही सुरक्षित नहीं तो कौन सुरक्षित होगा?
समाज में बेईमानी, भ्रष्टïाचार इतना बढ़ रहा है कि ईमानदार की जान तो जोखिम में है, ही । उसे किसी का इकलौता सहारा है तो वह कानून का है। कानून का रक्षक ही सुरक्षित नहीं है तो फिर भगवान भरोसे हो गया, एक ईमानदार इंसान। यशवंत सोनवणे का कसूर क्या था ? यही कि वे एक ईमानदार अधिकारी थे और अपराधियों को पकडऩा चाहते थे। अपराधियों को कानून के रक्षक का यह हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं हुआ। अपराधियों का दुस्साहस इतना बढ़ा हुआ था कि दिन दहाड़े यशवंत सोनवणे के पी. ए.  एवं ड्रायवर के सामने ही यशवंत सोनवणे पर मिट्टïी का तेल डालकर आग लगा दिया। यशवंत सोनवणे ने जलते जलते भी अपराधी को पकड़ लिया ओर खबर यह है कि सोनवणे तो शहीद हो गए लेकिन अपराधी भी अस्पताल में 60 प्रतिशत जलकर जीवन और मौत के बीच झूल रहा है। अपराधियों के साथियों को भी पुलिस ने गिरफतार कर लिया है ।
यह आज सभी के लिए सोच का विषय होना चाहिए कि ऐसी घटना क्यों घटित हुई ? बढ़ती अर्थ पिपासा ही  इसकी जड़ तो नहीं है। क्योंकि अपराध और भ्रष्टïाचार का सबसे बड़ा कारण अर्थ पिपासा ही है। राजनैतिक पार्टियां और सरकारें एक ही बात करती है, आर्थिक विकास। कैसे आदमी की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो ? जब एक ही मंत्र बार बार दोहराया जाए तो वह अपना असर भी दिखाता है। एक अंधी विकास की दौड़ में इंसान को उलझा दिया गया है और जब लोग देखते हैं कि अपराध से सुगमता से धन प्राप्त किया जा सकता है और प्राप्त धन से कानून के रक्षकों की जेब गर्म कर अपराध से बचा भी जा सकता है तो प्राप्त किया धन हौसला अफजाई का ही काम करता है। जेब में धन हो और जेल में भी कुछ दिन रहना पड़े तो जेल में भी सब तरह की सुविधा उपलब्ध हो जाती है। इससे जेल जाने का भय भी समाप्त हो जाता है। कानून में सजा का प्रावधान जिस उद्देश्य से किया गया है, वही बेमतलब साबित होता है। रिश्वत लेना आज एक आम बात हो गयी है। बिना किसी हिचक के रिश्वत मांगी जाती है और रिश्वत अपना स्वार्थ सिद्घ करने के लिए दी भी जाती है। सरकारी एजेंसियां जहां भी जिस भी अधिकारी के यहां छापा मारती है, उसी के यहां करोड़ों का अघोषित धन मिलता है। जो निश्चित रूप से प्राप्त वेतन से कई गुना अधिक होता है। जांच की जवाबदारी जिनकी है वे ही कहां दूध के धुले हुए हैं। वे भी सपड़ में आते हैं तो करोड़पति ही पाए जाते हैं। राजनेता, नौकरशाह, व्यापारी इनके बीच काले धन की गटर गंगा इस तीव्रता से बहती है जो राष्टï्र की कुल आय के समतुल्य है। विदेशी बैंकों में देश का काला धन कोई आम आदमी ने तो जमा नहीं कराया है। नाम भले ही सामने न आए और सरकार संधि के बहाने उच्चतम न्यायालय को भी बताने के लिए तैयार न हो लेकिन असलियत तो एकदम साफ है। फौज तक तो भ्रष्टाचार से बच नहीं सका। न्यायालयों पर भी संदेह के बादल उमड़ते रहते हैं।
आखिर खेल तो धन का ही है। एक तरफ इफरात धन चंद लोगों के पास जा रहा है। इतना धन है कि फूहड़ प्रदर्शन भी होता है। इसकी कीमत आम आदमी महंगाई के नाम पर चुकाता है। हर तरह का सट्टïा बाजार गर्म है। ऐसे में अर्थ कमाने की सोच को कैसे बदला जा सकता है ? मेहनत मशक्कत से तो जीवन भर कमाने के बाद रहने के लिए एक मकान ही आदमी बना ले तो बड़ी बात होती है लेकिन अपराध का रास्ता सारी सुख सुविधा मुहैया करा देता है। कल ही रायपुर मेें एक चंदन तस्कर की हत्या कर दी गई। उसकी पुलिस को तलाश थी लेकिन वह शान से रह रहा था। मतलब कानून की पकड़ से बाहर था। हरियाणा, दिल्ली से आकर वह अंतर्राष्टï्रीय तस्करी कर रहा था। कहा जा रहा है कि उसका एक भाई सुपारी किलर है और मरते मरते चंदन तस्कर अपनी हत्या में उसी का नाम ले गया है।
कभी कहा जाता था कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं लेकिन उसके विपरीत अब तो यह कहा जा सकता है कि अपराधियों के हाथ बहुत लंबे  होते हैं। कानून के नेटवर्क से बड़ा नेटवर्क तो अपराधियों का है। न्यायालय किसी को सजा सुना देता है तो उसके विरूद्घ भी आवाज उठने लगती है। कसाब जैसे अपराधी को भी लंबी कानूनी प्रक्रिया एक तरह से संरक्षण ही देती है। उच्चतम न्यायालय सजा फांसी की सुना भी दे तो राष्टï्रपति से क्षमा प्रार्थना कर अपराधी लंबा जीवन जीता है। ऐसे में ईमानदार लोगों के लिए संरक्षण कहां है ? भले ही 7 अपराधी छूट जाएं लेकिन एक निरपराध को सजा नहीं होना चाहिए जैसा आदर्श वाक्य ईमानदारों को कम और अपराधियों को ज्यादा संरक्षण देता है।
तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी ईमानदारी जिंदा है तो उसके लिए ईमानदार लोग ही जिम्मेदार हैं। यशवंत सोनवणे तो शहीद हो गए लेकिन उन अपराधियों को जिन्होंने घृणित कृत्य किया, सजा दिलाना क्या आसान काम है ? न्यायालय तो साक्ष्य के आधार पर चलता है। यशवंत सोनवणे का पीए और ड्रायवर ही क्या गवाही दे पाएंगे? आज महाराष्टï्र के शासकीय अधिकारियों ने हड़ताल की घोषणा की है। आज हड़ताल से ज्यादा जरूरत इस बात की है कि अधिकारी कसम खाएं कि वे न तो गलत करेंगे और न गलत काम होता देखेंगे। आज देश के नौकरशाह इस बात के लिए कृतसंकल्पित हो जाएं कि वे अपने कर्तव्य का निर्वहन ईमानदारी से करेंगे। बिना किसी भय लालच के करेंगे तो वे देश में बहुत कुछ बदल सकते हैं। क्या वे ऐसा करेंगे ? उत्तर उन्हें ही देना है लेकिन उनके अंदर आत्मा जैसी कोई चीज है तो वे उसी से पूछें कि देश को जिस तरफ  ले जाया जा रहा है, उसके लिए वे भी कितने जिम्मेदार हैं ? अपराधियों का हौसला इसी तरह से बढ़ता रहा तो रहना सभी को इसी देश में है। वे कैसा भारत चाहते हैं? जहां उनके बाल बच्चे और परिवार रह सकें। यशवंत सोनवणे को सही श्रद्घांजलि तो यही होगी कि उनके रास्ते पर चलें।
- विष्णु सिन्हा
27-1-2011