यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

कोई पार्टी का कितना भी प्रिय हो लेकिन कानून तोडऩे वाले के साथ सख्ती से ही पार्टी की छवि निखरेगी

भयमुक्त शासन का यही अर्थ होता है कि किसी को किसी का भय नहीं। सज्जन भयमुक्त हों इसे तो प्रजातंत्र की सबसे बड़ी देन कहा जाएगा लेकिन सज्जन से ज्यादा भयमुक्त तो भयमुक्त शासन में दुर्जन ही ज्यादा दिखायी पड़ते हैं। कभी पुलिस के नाम से भय रखने वाले अब पुलिस  से नहीं डरते बल्कि पुलिस ही उनसे डरती है। किसी दुर्जन को भी पुलिस वाले ने पकड़ा तो उसे छुड़वाने के लिए राजनैतिक शक्तियां काम करने लगती हैं। तब पुलिस के अदने से सिपाही को कौन पूछता है? ज्यादा चूं चपड़ किया तो लाईन अटैच या सस्पेंड या स्थानांतरण। फिर थाने में भले ही बड़े बड़े आदर्श वाक्य लिखे हों। तब पुलिस में भर्ती जवान तो जानता है कि वह पुलिस की नौकरी अपने परिवार के भरण पोषण के लिए करता है। वह न तो लाईन अटैच होकर और न ही सस्पेंड होकर और न ही स्थानांकित होकर अपने परिवार की सही ढंग से देखभाल कर सकता है। इसलिए अपमान सह कर भी नौकरी को बनाए रखने में उसे अपनी भलाई दिखायी देती है। 

नहीं तो एक आन ड्यूटी पुलिस के कर्मचारी पर कोई हाथ उठाए तो इससे बड़ा अपराध क्या होगा? यह तो सीधे-सीधे कानून के गाल पर ही तमाचा है। किसी भी पुलिस वाले को चाहे वह छोटा से छोटा सिपाही हो या उच्चाधिकारी कानून किसी के साथ मार पिटायी की इजाजत नहीं देता। लेकिन फिर भी पुलिस थानों में अपराधियों की पिटायी आम बात है। आदतन अपराधियों के साथ पुलिस कड़ाई से पेश आती है। आदतन अपराधी का दबदबा तोडऩे के लिए कभी कभी तो सड़क पर ही आम जनता के सामने पिटाई करने से पुलिस परहेज नहीं करती लेकिन यह सब तब होता था जब भयमुक्त शासन था। अब तो बात बदल गयी है। भयमुक्त शासन में पुलिस ऐसा करने की हिम्मत  नहीं करती बल्कि यदा कदा आज पुलिस ही दबदबे वाले नेताओं की मार का शिकार ही नहीं होती, चोर भी पुलिस की हत्या तक का अपराध करने लगे हैं। पिछले दिनों बिलासपुर जिले में तांबा तार चोरों ने एक एसआई और हवलदार की बल्लियों से मार-मार कर हत्या कर दी। महाराष्ट्र  में एक एडिशनल कलेक्टर को तेल चोरों ने जिंदा जला दिया। बिलासपुर में ही एक नेता ने डी एस पी को थप्पड़ सरे राह मार दिया। एक नेता ने हवलदार को पीट दिया। यह कारनामा सत्तारुढ़ दल के लोग ही करते हैं, ऐसा नहीं है बल्कि विपक्ष के नेता भी पीछे नहीं है।
एक अधिकारी को सर्किट हाऊस में बुला कर खुलेआम अपमानित करने का काम तो मंत्री भी करते हैं। कर्मचारी आंदोलन करते हैं लेकिन मंत्री का कुछ बिगड़ता नहीं। नगर निगम कार्यालय में जाकर आयुक्त के साथ भाजपा के वरिष्ठ नेता अपमानजनक व्यवहार करते हैं। फिर सरकार से शिकायत करते हैं कि उनके विरुद्ध थाने में गलत रिपोर्ट लिखायी गयी। अब सरकार क्या करें? जो कृत्य किए जा रहे हैं, उसमें हस्तक्षेप करे और अपने लोगों को बचाने के लिए सत्ता का दुरुपयोग करे। इससे मनोबल कर्मचारियों अधिकारियों का कमजोर होगा। यह अलग विषय हो सकता है कि कौन अधिकारी, कर्मचारी ईमानदार है लेकिन इसके लिए कानून को हाथ मे लेना कैसे उचित ठहराया जा सकता है? ऐसे तो फिर नक्सलियों को कैसे गलत ठहराएंगे? फर्क तो यही है कि सीधे-सीधे जान ही ले लेते हैं। किसी सज्जन आदमी का अपमान होना जान लेने से कम दुखद नहीं होता, भुक्तभोगी के लिए।


फिर शासन अपनी ही पार्टी का हो तो इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि कानून को गैर कानूनी ढंग से अपने हाथ में लिया जाए। शासन पक्ष की पार्टी की जिम्मेदारी तो और भी ज्यादा होती है। उसे जब काम लेने के लिए कानून को अपने हाथ में लेने जैसा काम करना पड़ता है तो जनता में पार्टी की छबि खराब ही होती है। अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए ऐसे कृत्य शासन की लोकप्रियता को खंडित करते हैं। आज सरकार की छबि डॉ. रमन सिंह की छबि है लेकिन इस तरह के कृत्य किए जाते रहे तो पूर्व सरकार के अनुभव को याद कर लेना चाहिए। भयमुक्त शासन से मुक्ति के लिए जनता ने भाजपा की सरकार बनायी थी। डॉ. रमन सिंह ने सरकार की छबि भयमुक्त बनायी भी। इसीलिए वे जानते बुझते हुए भी नक्सलियों के विरुद्ध कार्यवाही करने से पीछे नहीं हटे। जिससे नक्सल प्रभावित क्षेत्र की जनता भयमुक्त जीवन व्यतीत कर सके। विरोध करने वालों ने कम विरोध नहीं किया। विरोध अभी भी जारी है। यहां तक कि न्यायालय के फैसले के विरुद्ध भी ऊंगली उठायी जा रही है लेकिन तमाम विरोधों के बावजूद आम जनता के हिसाब से डॉ. रमन सिंह ही सही है और यह बात बस्तर की जनता ने एकतरफा समर्थन डॉ. रमन सिंह को देकर सिद्ध भी किया है। 


कुछ कुंठाग्रस्त नेता भले ही डॉ. रमन सिंह की लोकप्रियता से प्रसन्न न हों। क्योंकि डॉ. रमन सिंह लोकप्रिय है तो उनके लिए जगह तो खाली करने वाले नहीं है। सस्ता चांवल की भी आलोचना कर रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने की इच्छा रखने वालों की परेशानी तो समझ में भी आती है। उनकी कुंठा विभिन्न बातों को लेकर अभिव्यक्त होती है। लोग भी समझते हैं कि संकीर्ण दायरे के छोटे नेता है। किसी के पास सिर्फ आदिवासियों की बात है तो किसी के पास पिछड़ों की। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ऐसे नेता हैं जिनके पास सबकी बात है। सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय उनकी नीति है। इसलिए सहजता से वे सब पर विश्वास भी कर लेते हैं। अब कोई विधायक का चुनाव नहीं जीत सका तो उसके लिए डॉ. रमन सिंह तो दोषी नहीं हैं। अब हारने वाले को किसी निगम मंडल का अध्यक्ष पद नहीं दिया तो वह मैं हूं, दिखाने के लिए ऐसा कुछ करे कि उसके नाम से  थाने में रिपोर्ट दर्ज हो तो मुख्यमंत्री क्या करें? कानून को अपना काम करने दें या उसमें हस्तक्षेप करें।


कोई किसी सरकारी कर्मचारी अधिकारी को मारेगा तो उसके खिलाफ रिपोर्ट न लिखी जाए, उसे गिरफ्तार न किया जाए, उस पर मुकदमा न चले, यह भयमुक्त शासन का अर्थ नहीं होता। होना तो यह चाहिए कि पार्टी की छबि खराब करने के आरोप में संगठन ही ऐसे लोगों को बाहर का रास्ता दिखाए। वह तो संगठन कर नहीं रहा। उल्टे मुख्यमंत्री से कह रहा है कि बचाओ इन्हें। पार्टी के खिलाफ चुनाव लड़ा तो पार्टी से बाहर और जिसने पार्टी में रहकर अपने कृत्यों से पार्टी को नुकसान पहुंचाया, उसके साथ क्या सलूक? जिन्हें पार्टी से निकाला, उन्हें फिर से जब अपना स्वार्थ सामने आया तो पार्टी में ले लिया। ईनाम भी देने का आश्वासन दे दिया। सिद्धांत तो वही दिखायी देता है कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है। कल तो जो गलत था, वह सही होगा। अपना उल्लू सीधा होता है तो सब सही। कम से कम कानून की धज्जियां उड़ाने वालों को तो आश्रय नहीं देना चाहिए। फिर भले ही वह कितना भी अपना हो या प्रिय हो। आज एक को बचाने जाएंगे। कल को धीरे-धीरे ऐसे लोगों की संख्या में इजाफा होगा। तब पार्टी की साफ सुथरी छबि नष्ट होगी और परिणाम आसानी से सोचा जा सकता है कि क्या होगा?

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 05.02.2011
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