यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

खुले मन और बड़े दिल से काम करेंगी तो किरणमयी लोकप्रिय महापौर बन सकती हैं

15 वर्ष लग गए इंडोर स्टेडियम को बनने में। मध्यप्रदेश में रहते हुए इंडोर स्टेडियम बनना प्रारंभ हुआ तो छत्तीसगढ़ राज्य बनने के 10 वर्ष बाद इसका उदघाटन हो सका। महापौर किरणमयी नायक कह रही हैं कि अभी भी 6 करोड़ रुपए की जरुरत स्टेडियम को है। स्टेडियम का नामकरण मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने पूर्व महापौर स्व. बलबीर जुनेजा के नाम पर घोषित कर दिया है। उदघाटन समारोह के दौरान सांसद रमेश बैस ने बलबीर जुनेजा को याद करते हुए कहा कि जुनेजा ने उस समय के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह  के समक्ष सिर्फ 2 करोड़ रुपए की मांग बड़ी विनम्रता से किया था लेकिन दिग्विजय सिंह ने स्वीकार नहीं किया। मध्यप्रदेश में तो खास कर दिग्विजय सिंह के शासनकाल के दौरान छत्तीसगढ़ के साथ सौतेले व्यवहार की कथाओं की कमी नहीं है। रायपुर मेडिकल कॉलेज जो छत्तीसगढ़ में इकलौता मेडिकल कॉलेज था, के लिए ही छात्रों के आंदोलन के बावजूद मात्र 7 करोड़ रुपए देने से दिग्विजय सिंह ने इंकार कर दिया था। छत्तीसगढ़ राज्य बनने से कितना परिवर्तन हुआ है, यह तो हर किसी को दिखायी पड़ता है।
उदघाटन समारोह में जब बृजमोहन अग्रवाल ने रायपुर के विकास के लिए नगर निगम को 500 करोड़ रुपए देने की मांग की तो इस मांग को भी मुख्यमंत्री ने स्वीकार कर लिया और इस वर्ष 150 करोड़ रुपए देने की घोषणा कर दी। उन सारे आरोपों को भोथरा कर दिया कि कांग्रेस की सत्ता नगर निगम में होने के कारण भाजपा की सरकार आर्थिक सहयोग नहीं कर रही है। पिछले दिनों ही नगरीय प्रशासन मंत्री राजेश मूणत ने प्रत्येक वार्ड के लिए 20 लाख रुपए की राशि आबंटित की है। महापौर तो स्टेडियम के लिए ही 6 करोड़ रुपए मांग रही थी, मुख्यमंत्री  ने दरियादिली दिखाते हुए 150 करोड़ रुपए इसी वर्ष देने की बात कर दी। टकराव की राजनीति के बदले महापौर समन्वय की राजनीति पार्टी राजनीति से हट कर करेंगी तो शहर का तो निश्चित रुप से भला करेंगी ही, अपना भी भला करेंगी।
भारत जैसे विभिन्नता के देश में संकीर्णता के लिए ज्यादा स्थान नहीं हैं। संकीर्णता कुछ समय के लिए भले ही लाभप्रद दिखायी दे लेकिन अंतत: तो वैचारिक संकीर्णता हर मामले में संकीर्णता ही पैदा करती है। बिना भेदभाव के सम्मान देना सम्मान प्राप्त करने का सबसे अच्छ तरीका होता है। इंडोर स्टेडियम के निर्माण में बहुतों का योगदान है। विद्याचरण शुक्ल के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। वे वैसे भी कांग्रेस के ही वरिष्ठï नेता हैं। उद्घाटन अवसर पर उन्हें आमंत्रित न करना कोई अच्छा संदेश नहीं देता। यह तो वक्त की बात है कि किरणमयी नायक आज नगर निगम की महापौर हैं। इंडोर स्टेडियम की आधारशिला से लेकर उदघाटन तक सबसे कम योगदान किसी का है तो उन्हीं का है। जिनका वास्तव में योगदान है, उन्हें बुलाया जाना चाहिए था और सम्मानित भी किया जाना चाहिए था। बलबीर जुनेजा की सेवाओं को ध्यान में रखा जाता तो उनकी पत्नी को ही मंचस्थ किया जा सकता था। नगर निगम में जब भाजपा पदारूढ़ थी तब उसने बड़े दिल का परिचय देते हुए स्टेडियम का नाम बलबीर जुनेजा के नाम पर करने का प्रस्ताव किया था।
मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने भी बलबीर जुनेजा के नाम पर स्टेडियम का नामकरण करने में हिचक महसूस नहीं की। भाजपा के मंत्री, पदाधिकारी, पार्षदों ने भी किसी तरह की संकीर्णता नहीं दिखायी। विद्याचरण के साथ पूर्व महापौर सुनील सोनी को भी आमंत्रित किया जाना चाहिए था। उनके कार्यकाल में त्वरित गति से स्टेडियम का निर्माण किया गया।  गंगाराम शर्मा, के.डी. सिंह, सतीश जैन जैसे युवकों ने स्टेडियम के लिए संघर्ष किया। छात्रनेता तो मध्यप्रदेश की विधानसभा में पर्चा फेंकने के नाम पर गिरफतार भी हुए लेकिन कल जब स्टेडियम रंगारंग कार्यक्रम से सराबोर था तब उन्हें पूछने वाला, याद करने वाला कोई नहीं था। वह तो गनीमत है कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए स्टेडियम के उद्घाटन के लिए सोनिया गांधी, राहुल गांधी को आमंत्रित करने की मंशा नहीं प्रगट की गई। समझ में तो आ ही गया होगा कि मुख्यमंत्री को बुलाने का क्या अर्थ होता है? मुख्यमंत्री ने तो एक तरह से नगर निगम की दलिद्री दूर करने के लिए भारी भरकम रकम की घोषणा कर दी।
आगे नगर निगम के नए भवन का उद्घाटन होना है। कौन करेगा, उद्घाटन यह भी महापौर को ही तय करना है। जिस तरह से स्टेडियम निर्माण में महापौर की कोई अहम भूमिका नहीं है, उसी तरह से नगर निगम के नए भवन के निर्माण में भी महापौर की भूमिका नहीं है। यह तो पेड़ किसी ने लगाया और फल कोई खाता है, वाली बात है। नगर निगम के नए भवन के निर्माण का श्रेय किसी को जाता है तो वह डा. रमन सिंह और सुनील सोनी हैं। इनके साथ ही किसी की अहम भूमिका थी तो वह उस समय के नगरीय प्रशासन मंत्री अमर अग्रवाल की थी। डा. रमन सिंह और अमर अग्रवाल ने खुलकर आर्थिक सहयोग किया और सुनील सोनी ने स्वप्र देखा। जो अब साकार हो गया है। वक्त की बात है कि किरणमयी नायक आज महापौर हैं और उन्हें ही नए भवन की सुख सुविधाओं का उपयोग करने का अवसर मिलेगा। मन में संकीर्णता न हो तो सुनील सोनी और अमर अग्रवाल को भी उद्घाटन अवसर पर विशिष्ठ अतिथि बनाया जाना चाहिए। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को तो उद्घाटनकर्ता बनाया ही जाना चाहिए। इससे महापौर किरणमयी नायक की विवादास्पद छवि बदलेगी। संकीर्णता का दोषारोपण भी समाप्त होगा।
जब डा. रमन सिंह और उनकी सरकार भेदभाव नहीं कर रही है तो कुछ तो उनसे कांग्रेसियों को भी सीखना चाहिए। राजनीति से भी पहले दृष्टिï जनता पर होना चाहिए। क्योंकि जनता ही असली ताकत है। वही सत्ता सौंपती है और वही सत्ता से उतार देती है। उसे डा. रमन सिंह जैसे व्यक्ति अच्छे लगते हैं। जो सीधी और साफ बात करते हैं। पूरी विनम्रता से अपनी बात रखते हैं। राज्य के हित में जिससे भी मिलना पड़े, कोई झिझक नहीं है। कोई पार्टी राजनीति आड़े नहीं। किसी तरह का अहंकार रास्ते की रूकावट बनता नहीं। सफल होना है राजनीति में तो डा. रमन सिंह से सीखना चाहिए। उलझाने वाली विवाद खड़ा करने वाली राजनीति अक्सर कुछ समय के लिए प्रभावशाली तो दिखायी देती है लेकिन देर अबेर ऐसा व्यक्ति पसंदीदा नहीं रहता। सबका सम्मान करना राजनीति में सबसे बड़ी पूंजी है। दबंग राजनीतिज्ञों का जमाना लद गया। अब तो बेटा, बेटी ही बाप की अकड़ बर्दाश्त नहीं करते। सीख सकती हैं महापौर तो बहुत कुछ है उनके लिए सीखने को। अभी राजनीति में तो पदार्पण ही हुआ है। व्यवहार और काम ही काम आने वाला है। हीनग्रंथि ही नहीं उच्च ग्रंथि से भी छुटकारा ही स्वस्थ मन की निशानी है। लोकप्रियता तो उसी को कहते हैं जिसमें पक्ष के लेाग ही नहीं विपक्ष के लोग भी तारीफ करने के लिए बाध्य हो जाएं। बाकी जहां तक समझदारी की बात है तो किरणमयी किसी से कम समझदार हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं। व्यवहारिक राजनीति का अनुभव कम है लेकिन अब धीरे धीरे वह भी बढ़ रहा है। उम्मीद की जा सकती है कि और सुधार होगा।
- विष्णु सिन्हा
04.02.2011