यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

प्रदर्शन, रैली, बड़े-बड़े लोगों की अपील से न्यायालय का फैसला नहीं बदलता

न्यायालय को प्रभावित करने के जितने भी प्रयास हो सकते थे,किए गए। देश में ही नहीं विदेशों में भी प्रदर्शन किया गया। नेल्सन मंडेला की तरह विनायक सेन को महान साबित करने के पोस्टर छपवाए गए। न्यायालय में विदेशी पर्यवेक्षक भेजे गए। हर तरह के प्रयासों की एक ही ध्वनि थी कि विनायक सेन न केवल निर्दोष हैं बल्कि महान हस्ती भी हैं। मानव सेवा को समर्पित चिकित्सक हैं। उनके विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं हैं। इसलिए राजद्रोह के नाम पर आजीवन कारावास की सजा जो निचली अदालत ने दी है, वह गलत है। उच्च न्यायालय के जजों ने दोनों पक्षों की दलील सुनी। नक्सली हिंसा के शिकार पुलिस अधिकारियों की पत्नी की भी दलील सुनी और जमानत देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि प्रथम दृष्टि में तो मामला साबित होता है। 

भारतीय न्याय व्यवस्था पर संदेह करने और ऊंगली उठाने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि कसाब जैसे आतंकवादी अपराधी तक को न्याय व्यवस्था सुनवायी का मौका देती है। उसके लिए वकील की व्यवस्था करती है। जबकि कसाब को फांसी देने के लिए प्रत्यक्ष सबूतों की ही कमी नहीं हैं। निचली अदालत से फैसला हो जाने के बाद उच्च न्यायालय में अपील करने की उसे सुविधा दी गई। उच्च न्यायालय के फैसले ने सजा बहाल रखी तो कसाब उच्चतम न्यायालय में भी फैसले के विरुद्ध अपील कर सकता है। वहां भी सजा बहाल रही तो राष्ट्रपति के पास सजा से माफी की प्रार्थना भी कर सकता है। अफजल गुरु को उच्चतम न्यायालय ने फांसी की सजा दी लेकिन माफी की प्रार्थना 
राष्ट्रपति  के पास लंबित होने के कारण उसे अभी तक फांसी नहीं दी जा सकी है। 

अपराध कैसा भी हो लेकिन सजा देने का अधिकार न तो राजनैतिक पदों पर बैठे नेताओं के पास है और न ही नौकरशाहों के पास। सजा देने का अधिकार न्यायालय के पास है और उसमें सीढ़ी दर सीढ़ी उच्चतम न्यायालय तक अपना पक्ष रखने और न्याय प्राप्त करने का अधिकार सभी भारतीय नागरिकों को है। डॉ. विनायक सेन को भी न्याय प्राप्त करने का अधिकार है। इसीलिए तो उनकी जमानत की अर्जी पर उच्च न्यायालय ने सुनवाई की और जमानत पर रिहा करने से इंकार कर दिया। इस फैसले के विरुद्ध विनायक सेन उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकते हैं और वे करेंगे भी जरुर लेकिन किसी तरह के दबाव के कारण न्यायालय उन्हें छोड़ देगा, यह सोच ही फिजूल है। वे निश्चित रुप से छूट सकते हैं लेकिन तब जब न्यायालय सबूतों के आधार पर पाए कि वे निर्दोष हैं। 


विनायक सेन निर्दोष हैं या दोषी, यह तय करने का काम किसी का है तो वह न्यायालय का है। किसी के विनायक सेन को निर्दोष समझने से विनायक सेन न तो निर्दोष सिद्ध हो जाएंगे और न ही किसी के दोषी समझने से दोषी। भारत में खुली न्याय व्यवस्था है। खुली अदालत में न्यायाधीश हर पक्ष की बात सुनते हैं, सबूतों को देखते हैं और फिर अपना निष्कर्ष फैसले के रुप में देते हैं। इसके लिए विदेशी पर्यवेक्षकों की तो कोई जरुरत नहीं थी। फिर भी वे आए और न्यायालय की कार्यवाही को देखा। उनके कार्यवाही देखने से न्यायालय पर कोई प्रभाव पड़ा, ऐसा तो जमानत की अर्जी निरस्त होने से ही समझ में आता है। देश के बड़े-बड़े शक्तिशाली नेताओं के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा चले। न्यायालय ने बिना किसी परवाह के न्याय किया। इंदिरा गांधी के विरुद्ध ही फैसला देने से न्यायालय हिचकिचाया नहीं। जबकि वे देश की प्रधानमंत्री थी।  शक्तिशाली प्रधानमंत्री थी। दो तिहाई बहुमत उनके पास लोकसभा में था तो अधिकांश राज्यों में उन्हीं की पार्टी की सत्ता थी। जब भारत के न्यायाधीश इंदिरा गांधी की सत्ता से प्रभावित नहीं हुए तब वे किसी की सोच से प्रभावित होंगे, यह सोचना ही फिजूल है। 


पिछले दिनों एक न्यायाधीश ने टिप्पणी की है मुख्यमंत्री रहते हुए विलासराव देशमुख ने एक विधायक के लिए कानूनी काम में हस्तक्षेप किया और न्यायालय ने सरकार पर 10 लाख का जुर्माना किया। ऐसे व्यक्ति को केंद्र में मंत्री बनाना उचित नहीं है। इसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने 10 लाख रुपए जुर्माना न्यायालय में जमा किया है। विदेशों में जमा कालाधन हो,  दूर संचार का घोटाला हो या सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति का मामला न्यायालय ने सरकार को फटकार लगाने में कभी किसी तरह के दबाव की परवाह नहीं की। केंद्रीय मंत्री के न्यायालय को प्रभावित करने के प्रयासों को भी न्यायालय ने नहीं माना। सरकार के कितने ही कामों के विरुद्ध न्यायालय ने फैसले दिए। सरकार और नौकरशाह किसी को किसी का भय है तो वह न्यायालय ही है। इसीलिए तो गलत काम करने वाले भी खुले आम भले ही न्यायालय के विरुद्ध न कहें लेकिन जानते हैं कि आम जनता और न्यायालय का फैसला उन्हें सिंहासन से उतारकर सड़क पर खड़ा कर सकता है। 


हिंसा की इजाजत न तो समाज दे सकता और न ही कानून। नक्सलियों के पास हर बात का जवाब हिंसा है। वे या तो अपहरण करते हैं या फिर जान से मार देेते हैं या फिर विस्फोट कर सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं। कानून के हिसाब से यह सब अपराध की श्रेणी में ही आता है। कानून का शासन इसकी इजाजत नहीं दे सकता। शांतिपूर्वक जीवनयापन करने वालों को सुरक्षा देना सरकार का कर्तव्य है। 


कानून से परे कोई अपनी सरकार चलाना चाहे तो इसे कोई भी प्रजातांत्रिक सरकार चलने नहीं दे सकती। इसलिए सरकार ने नक्सलियों को पकडऩे के लिए, हिंसा की स्थिति में उनसे लडऩे  के लिए अपने सशस्त्र बलों को लगा रखा है। इनके विरुद्ध सख्त कानून भी बनाया है। कानूनी रुप से केंद्र और राज्य सरकार ने इनके संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया है। नक्सलियों का सहयोग करने वालों को भी कानून के दायरे में लाया है। विनायक सेन को नक्सलियों का सहयोगी होने के कारण पुलिस ने गिरफ्तार किया है। विनायक सेन सही हैं या गलत, पुलिस सही है या गलत, इसका फैसला सरकार तो कर नहीं रही है। फैसला न्यायालय कर रहा है और निचली अदालत संतुष्ट हुई पुलिस की दलीलों और सबूत से तो उसने आजीवन कारावास की सजा सुना दी। इसमें गलत क्या है? फैसले से असंतुष्ट हैं तो उच्च न्यायालय में अपील कर ही दिया है। उसके फैसले से भी असंतुष्ट होंगे तो सुप्रीम कोर्ट है, न। फिर इतनी हाय तौबा क्यों? 22 नोबेल पुरस्कार प्राप्त लोगों के कहने से तो न्यायालय  छोडऩे वाला नहीं। इस तरह का दबाव भी उचित नहीं। रैली, प्रदर्शन से भी सिद्ध नहीं होता कि कौन सही और कौन गलत? मीडिया की वकालत भी इस मामले में बेमानी है। न्यायालय ही संतुष्ट होगा तो वही छोड़ सकता है। या फिर नक्सली समस्या समाप्त हो तो आम माफी की तरह लोग छोड़े जाएं। न्याय का तकाजा भी यही है कि वह किसी से प्रभावित न हो।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 11.02.2011
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