यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 20 सितंबर 2010

राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद के फैसले को हार जीत की दृष्टि से देखने के बदले न्याय की दृष्टि से देखना चाहिए

24 तारीख को राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद मामले का फैसला आने वाला है।
6 दिसंबर 1992 को जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया गया था और देश में कई
स्थानों पर दंगे भड़के थे, उसकी याद इस मौके पर आना स्वाभाविक है। फैसले
के बाद कोई ऐसी घटना पुन: न घटित हो, इसलिए शासन और प्रशासन दोनों सतर्क
हो गए हैं। आम आदमी का तो हिंसक घटनाओं से इतना ही लेना देना होता है कि
वह उसके परिणामों को भोगता है। राजनीति करने वालों को भले ही यह अवसर की
तरह दिखायी दे और असामाजिक तत्वों को लाभप्रद लगे लेकिन आम आदमी तो शांति
और सुव्यवस्था का ही ख्वाहिशमंद होता है। प्रश्र यह भी नहीं है कि मुकदमे
का फैसला किसके हक में आता है। क्योंकि स्वाभाविक रूपसे यह सोच तो है कि
किसी न किसी के पक्ष में आएगा तो किसी के विरूद्घ भी आएगा। फैसले की
प्रतिक्रिया में खुशी और आक्रोश दोनों दिखायी देगा। इस संबंध में ही
सतर्कता और सावधानी बरतने की जरूरत है।

जिसके विरूद्घ फैसला आएगा, वह आक्रोशित होकर एक बार शांति भी रख सकता है।
क्योंकि फैसला यह अंतिम नहीं होगा। इस फैसले के विरूद्घ उच्चतम न्यायालय
में अपील करने का रास्ता खुला हुआ है लेकिन जीत की किसी पक्ष ने खुशी
मनायी और खुलकर प्रदर्शित किया तो हारने वाले का आक्रोश भड़क सकता है।
क्योंकि खुशी का प्रदर्शन आक्रोश की आग में घी का काम करेगा।  मामला
आस्था का है तो आस्था तर्क वितर्क नहीं मानती। इसलिए तो हिंदू संगठन के
नेता कहते हैं कि राम जनमभूमि का फैसला न्यायालय से नहीं हो सकता। सरकार
संसद में कानून बनाकर सोमनाथ मंदिर की तरह राम जन्मभूमि पर रामलला का
मंदिर बनाने का फैसला करे। जबकि मुस्लिम नेता कह रहे हैं कि उन्हें
न्यायालय का फैसला सुप्रीम कोर्ट के द्वारा किया हुआ मंजूर होगा। फैसले
को तटस्थता पूर्वक दोनों पक्ष मानने के लिए तैयार हों तो किसी भी तरह के
विवाद की गुंजाईश नहीं होगी लेकिन लगता नहीं कि ऐसा होगा।

देश में वैसे भी समस्याओं की कमी नहीं है। काश्मीर में हिंसक वारदातें हो
रही हैं और महिनों से कफर्यू के साये में काश्मीरी अवाम रह रहा है। नक्सल
समस्या भी कम गंभीर नहीं है। आतंकवादियों को अवसर मिले तो वे भी मौका
नहीं चूकना चाहते। कल ही दिल्ली में जामा मस्जिद के पास दिन दहाड़े
फायरिंग की गई और धमकी दी गई कि दम है तो कामनवेल्थ गेम्स करके दिखाओ।
महंगाई की समस्या से आम जनता वैसे ही पीडि़त है। इस स्थिति में राम
जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद पर न्यायालय का आने वाला फैसला आम जनता को
शांति  भंग होने की आशंका से ग्रसित किए हुए हैं। कोई भी आम हिन्दुस्तानी
नहीं चाहता कि किसी तरह की उत्तेजना इस मामले में फैले लेकिन उसके वश में
क्या है? चंद लोग शांति भंग करने पर उतारू होंगे तो जिस तरह से काश्मीर
की शांतिप्रिय जनता कुछ नहीं कर सक रही है, उसी तरह से बाकी देश की जनता
भी क्या कर लेगी ?

सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो सरकार की है ही कि वह उत्पात करने की कोशिश करने
वालों से सख्ती से निपटे लेकिन राजनैतिक दलों की भी अहम जिम्मेदारी है कि
उनके नेता सामूहिक रूप से आव्हान करें कि न्यायालय के फैसले का सम्मान
किया जाए और किसी भी तरह से अशांति न फैलायी जाए। यह उनकी सामूहिक
जिम्मेदारी है। ऐसी ही जिम्मेदारी धार्मिक एवं सामाजिक नेताओं की भी है।
ये सब मिलकर ईमानदारी से प्रयास करे तो हिंसक घटनाओं से बचा जा सकता
है। देश के अमन चैन से जिन विदेशी ताकतों को तकलीफ होती है, वे अवश्य इसे
अवसर समझेंगे और विस्फोटकों के जरिये लोगों को भड़काने का प्रयास करेंगे।
काश्मीर को छोड़ दिया जाए तो अभी तक वे सभी तरह का प्रयत्न कर के भी  कुछ
हासिल नहीं कर पाए। देश की सांप्रदायिक एकता को तोड़ नहीं आए। निश्चित
रूप से जब से पी. चिदंबरम देश के गृह मंत्री बने हैं तब से विदेशी
आतंकवादी सफल नहीं हो पा रहे हैं। नहीं तो देश में विस्फोट की घटनाएं तो
नित्य का कारोबार बन गयी थी।

काश्मीर में अवश्य मामला नियंत्रण से बाहर हो गया है और वहां शांति
लौटायी नहीं जा सकी है लेकिन नक्सल मामले में भी सफलता मिली है और नक्सली
स्वयं मानते हैं कि ग्रीन हंट आपरेशन से उन्हें बड़ा नुकसान हुआ है। उनके
नेता भी मारे गए हैं। वे 300 का आंकड़ा गिनाते हैं। समय भले ही लग रहा है
लेकिन चिदंबरम ने विश्वास तो दिलाया है कि वे नक्सली समस्या से निपट
लेंगे। जहां तक काश्मीर का मामला है तो वहां का अवाम भी शांति चाहता है।
आज ही सर्वदलीय एक प्रतिनिधिमंडल श्रीनगर जा रहा है और वह हालात का जायजा
लेगा। समय कितना भी लगे लेकिन काश्मीर का अवाम जब शांति चाहता है तो
शांति वहां कायम होकर रहेगी। किसी के लिए यह सब मामले भले ही सियासती हों
लेकिन आम आदमी तो शांति से ही अपने परिवार का भरण पोषण करना चाहता है।
पंजाब की अशांति भी एक दिन शांत हुई। क्योंकि हिंसा के प्रति आम जनता की
सहानुभूति कभी नहीं होती। क्योंकि हिंसा उसके पारिवारिक जीवन को सिवाय
कष्ट के और कुछ नहीं देती।

जब 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहायी गयी थी तब भी देश
में कई जगह उत्पात हुआ था लेकिन छत्तीसगढ़ शांत था। सांप्रदायिक
वैमनस्यता का छत्तीसगढ़ में कोई रिकार्ड नहीं है। छुटपुट कभी कुछ घटा भी
तो जनता ने उसे तवज्जो नहीं दिया। इस समय तो मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने
पुलिस अधिकारियों की बैठक लेकर स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि किसी भी तरह
की अशांति फैलाने वालों के साथ सख्ती से निपटा जाए। पुलिस ने असामाजिक
तत्वों की खोज खबर लेना भी प्रारंभ कर दिया है। किसी को किसी तरह की
गलतफहमी नहीं होना चाहिए कि सरकार दंगा फसाद करने वालों को किसी तरह का
संरक्षण देगी। छत्तीसगढ़ विकास के पथ पर अग्रसर है और विभिन्न वर्गों के
बीच जो समरसता है, वह बेमिसाल है।

23 सितंबर को गणेश विसर्जन होगा और 24 सितंबर से पितृपक्ष प्रारंभ हो
जाएगा। पितृपक्ष के प्रथम दिवस ही न्यायालय का फैसला आएगा। पितृपक्ष में
वैसे भी हिंदू मान्यताओं के अनुसार पूर्वजों को आमंत्रित किया जाता है।
15 दिन तक पितरों का श्राद्घ किया जाता है। ऐसे में आम हिंदू को अपने से
ही फुरसत नहीं होगी। सभी पितरों की उपस्थिति में फैसला आ रहा है तो उसे
शांति से स्वीकार्य करना चाहिए और सहमत न हों तो उच्चतम न्यायालय में
अपील का रास्ता तो है, ही। जहां तक रामलला का प्रश्र है तो सभी भारतीयों
के पूर्वज हैं। हिंदुओं के आराध्य देव हैं। वे चाहेंगे तो फैसला राम
मंदिर राम जन्मभूमि पर बनाने का उनके पक्ष में ही आएगा। वे नहीं चाहेंगे
तो फैसला पक्ष में नहीं आएगा। वे सर्व शक्तिमान हैं। वे जो चाहेंगे वही
होगा। इसलिए शांतिपूर्वक न्यायालय के फैसले को स्वीकार करने की तैयारी
सभी को करना चाहिए। यह किसी की हार जीत का मामला नहीं है। बांया हाथ
दाहिने हाथ से लड़ेगा तो कौन जीता कौन हारा इससे फर्क क्या पड़ता है? यह
विवाद और अहंकार का विषय भी नहीं होना चाहिए। इसी में सबकी भलाई है।

- विष्णु सिन्हा
20-09-2010