यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

नारायण सामी की अगले चुनाव में टिकट न देने की धमकी से क्या विधायक डर जाएंगे ?

भटगांव में मतदान के लिए अब 7 दिन ही शेष है। क्षेत्र के लोगों को छोड़कर
बाहरी लोगों के लिए चुनाव प्रचार के लिए तो अब 5 दिन ही शेष बचे हैं। 5
वें दिन सभी को चुनाव क्षेत्र से बाहर का रास्ता नांपना पड़ेगा।
छत्तीसगढ़ के कांग्रेस प्रभारी नारायण सामी ने कांग्रेसी विधायकों को
चेतावनी दी है कि कोई भी भटगांव के बाहर अंबिकापुर में दिखायी न दे।
अधिकांश विधायकों ने अंबिकापुर में ही डेरा डाल रखा है। नारायण सामी तो
यहां तक चेतावनी दे गए कि यदि कोई विधायक अंबिकापुर में दिखायी दिया तो
उसकी अगले चुनाव में टिकट काट दी जाएगी। इसका तो यह भी अर्थ निकलता है कि
मजबूरी में कांग्रेसी विधायक भटगांव चुनाव प्रचार के लिए अवश्य पहुच गए
हैं लेकिन उनकी रूचि कोई बहुत ज्यादा चुनाव प्रचार में नहीं है। वैसे भी
क्षेत्र उनके लिए नया है। कार्यकर्ता भी अपरिचित की तरह ही हैं। फिर टिकट
काटने  जैसी धमकियां की परवाह कांग्रेसी विधायक नहीं करते। जब अगला चुनाव
होगा तब कौन टिकट बांटेगा और जीते हुए विधायक की टिकट तो वैसे भी काटना
आसान नहीं होता।

एक बार सत्ता में रहे पार्टी तो ऐसा कर भी सकती है। जैसा पिछले चुनाव में
भाजपा ने किया था लेकिन जब तक गंभीर शिकायत न हो, विधायक के हार जाने की
ही संभावना नहीं तब तक टिकट काटना करीब करीब असंभव होता है। जब टिकटों का
फैसला होता है तब सबसे पहले टिकट वर्तमान विधायकों की ही फायनल होती है।
पार्टी को खुलेआम नुकसान पहुंचाने वालों तक की गंभीर शिकायत के बावजूद
छोटों पर भले ही कार्यवाही हो लेकिन बड़े नेताओं पर कार्यवाही कहां होती
है। सभी कांग्रेसी अच्छी तरह से जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को
बैकफुट पर कौन ले गया? हालांकि उस नेता के पर कतरने की कम कोशिश नहीं की
गई लेकिन पार्टी का प्रमुख चेहरा बनने की उसकी कोशिशों को तो रोका नहीं
जा सका। फिर बिना गाड फादर के कांग्रेस में रहकर टिकट प्राप्त करना आसान
नहीं है। जिसका गाडफादर प्रदेश का कोई नेता नहीं, उसके भी गाडफादर दिल्ली
में बैठे नेता हैं और वे इतने शक्तिशाली हैं कि कौन उनकी टिकट काट सकता
है?

राहुल गांधी युवक कांग्रेस और एनएसयूआई के द्वारा कांग्रेस को नए युवा
नेता देना चाहते हैं। इसके लिए वे चुनाव भी करवा रहे हैं। चुनाव में वह
हर तरह का हथकंडा अपनाया जा रहा है जो किसी  भी चुनाव में अपनाया जाता
है। फिर भी स्वतंत्र रूप से युवा नेता कहां उभर रहे हैं? रोज समाचार
पत्रों में चुनाव की जो खबरें प्रकाशित हो रही हैं, उनमें स्पष्ट रूप से
लिखा जा रहा है कि फलां नेता का प्रत्याशी फलां जगह से विजयी हुआ। कोई
जोगी गुट का नेता है तो कोई विद्याचरण शुक्ल का तो कोई चरणदास महंत का
और तो और संगठन गुट का भी नेता है। अब ये गुटों में बंटे युवा वर्ग के
नेता कितना कांग्रेस को लाभ पहुंचाएंगे  और कितना नुकसान यह हर कांग्रेसी
अच्छी तरह से समझता है। पार्टी को लोकप्रिय बनाने के हर प्रयास को पलीता
लगाने में गुटीय नेता कहीं से भी पीछे नहीं हैं। हर कोई चाहता है कि युवक
कांग्रेस का जो अध्यक्ष बने, वह उसका वफादार हो। जिन युवाओं को भटगांव
चुनाव में भागीदारी निभानी चाहिए, वे अपने चुनाव में व्यस्त हैं।
आज तो पूरी पार्टी को भटगांव चुनाव जीतने के लिए उतारा गया है लेकिन
इसका कितना सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। जिन्हें भटगांव विधानसभा क्षेत्र के
लोगों की मानसिकता का ही पता नहीं है, वे किस तरह से मतदाताओं को
प्रभावित करेंगे? फिर मतदाता उन्हें पहचानता नहीं और न ही ये मतदाताओं को
पहचानते हैं। न पहले कभी इन्हें देखा और न ही चुनाव के बाद ये दिखायी
देने वाले हैं तब इन  पर मतदाता विश्वास कैसे करेंगे ? बाहरी लोगों से
मतदाता बिचक जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। समाचार तो यह भी है कि रात
में प्रचार करना संभव नहीं। जंगल के रास्तों में नक्सली भय भी है। नारायण
सामी विधायकों से उम्मीद करते हैं कि वे उन क्षेत्रों में ही रहे जहां की
जिम्मेदारी उन्हें दी गई है तो वहां रहना बिना सुख सुविधाओं के संभव  है,
क्या?  अपने विधानसभा क्षेत्र में सब कुछ परिचित हैं। जब वहां रूकने के
बदले लोग मुख्यालय लौट आते हैं तब अंबिकापुर ही उनके लिए सुविधाजनक स्थान
है। आदेश देना अलग बात है और आदेश का पालन करना अलग। स्वयं नारायण सामी
ही किसी जंगल के गांव में 5 दिन रहकर देख लें। वे तो वीआईपी हैं और
प्रोटोकाल के तहत उन्हें सुविधा मिल सकती है। वैसे आचार संहिता  के कारण
उन्हें भी सुविधा न मिले तब वे समझ सकेंगे कि विधायक क्यों अंबिकापुर में
टिके हुए हैं?

चुनाव कांग्रेस जीते या हारे, विधायकों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा
सकता। वे सीधे सीधे चुनाव जितवाने के लिए जिम्मेदार नहीं है। किसी से भी
उसके क्षेत्र से बाहर जाकर प्रचार करने के लिए कहना आसान है लेकिन प्रचार
से मनचाहा परिणाम प्राप्त कर लेना आसान नहीं है। फिर भटगांव का चुनाव
कांग्रेस जीत भी गयी तो इन विधायकों को किसी तरह का श्रेय नहीं मिलने
वाला है। तब श्रेय लेने वालों की एक अलग जमात है। अधिकांश तो श्रेय न
मिले तो ऐसे काम में रूचि नहीं लेते और प्रतिद्वंदी को श्रेय मिले तो
उन्हें नुकसान की आशा होती है। प्रतिद्वंदी ताकतवर बने तो इससे तो स्वयं
को ही नुकसान होना है। अच्छा तो यही है कि प्रत्याशी हार जाए तो हार का
ठिकरा प्रतिद्वंदी के सर पर फोड़ा जा सके। प्रदेश अध्यक्ष और प्रदेश
कार्यकारिणी का गठन होना है। बहुतेरे आशान्वित हैं कि उन्हें अवसर
मिलेगा। कुछ को जीत से उम्मीद है पदाधिकारी बनने की तो कुछ को हार से
उम्मीद है। किसी को जीत में अपना भविष्य उज्जवल दिखायी देता है तो किसी
को हार में। अब जिसकी जैसी मानसिकता होगी, वह उसी के अनुसार तो काम
करेगा।

बहुत कठिन डगर है, जीत की। कांग्रेस को भाजपा से ही चुनावी मुकाबला नहीं
करना है बल्कि अपने लोगों से भी करना है। राज परिवार को जीत का श्रेय
लेना है तो उन लोगों के लिए जरूरी है कि राज परिवार का प्रत्याशी हार जाए
जिन्हें राज परिवार के कमजोर होने में ही लाभ दिखायी देता है। नारायण
सामी, धनेन्द्र साहू ओर रविन्द्र चौबे को जीत का श्रेय लेना है। क्योंकि
वे तभी आलाकमान से अपनी अच्छी चरित्रावलि लिखवा सकते हैं। जीत से ही
सिद्घ होगा कि इनके नेतृत्व में पार्टी वापस अपनी लोकप्रियता हासिल कर
रही है। ये वाहवाही प्राप्त करेंगे तो बहुतों के लिए यह शुभ नहीं होगा जो
प्रदेशाध्यक्ष बनना चाहते हैं, प्रतिपक्ष का नेता बनना चाहते हैं, उनके
स्वप्न तो धूल धुसरित हो जाएंगे। अब कांग्रेस वह स्वतंत्रता संग्राम की
पार्टी तो है नहीं, जिसमें सभी कोंग्रेसी पद की नहीं त्याग की भावना रखते
थे। अब तो तेल देखो और तेल की धार देखो का जमाना है। अपने लिए कोई
गुंजाईश बनती है तो पार्टी का भी भला हो जाए तो कोई बुराई नहीं। अपना भला
न हो तो दूसरे का लाभ सोचने का जमाना नहीं है। इसलिए धमकियों से डरने
वाले कांग्रेसी नहीं हैं। वे तो यह भी जानते हैं कि जो चाहे, करो। पार्टी
से निलंबित या निष्कासित होने पर भी पार्टी में फिर से जगह बना लेना कोई
कठिन काम नहीं है। कितने तो हैं। पार्टी ने निकाला लेकिन फिर से पार्टी
में ही दिखायी देते हैं।

- विष्णु सिन्हा
24-09-2010