यह जनगणना मूल जनगणना के बाद की जाएगी। जाति के आधार पर जनगणना सरकार
करवाना नहीं चाहती थी। 1931 के बाद जातिगत जनगणना हुई भी नहीं।
स्वतंत्रता के बाद हर 10 वर्ष में जनगणना हुई लेकिन नीतिगत रूप से
कांग्रेस शासन ने ही तय कर रखा था कि जाति जनगणना नहीं होगी। देश की एकता
की दृष्टि से इसे उचित नहीं माना गया। सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति की
ही गणना की जाती थी। क्योंकि इनके लिए निर्वाचन में भी आरक्षण की
व्यवस्था थी। अभी भी निर्वाचन में सिर्फ इन्हीं के लिए आरक्षण की
व्यवस्था है , अन्य जातियों एवं धर्म के आधार पर निर्वाचन में आरक्षण लोकसभा
और विधानसभा में तो नहीं है लेकिन स्थानीय निकायों, पंचायतों में इन
जातियों को छोड़कर अन्य जातियों एवं महिलाओं के लिए भी आरक्षण है। लोकसभा
और विधानसभा में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था का विरोध जातीय आधार
पर किया जा रहा है। कुछ पिछड़ी जाति के नेता चाहते हैं कि महिला आरक्षण
में पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए भी आरक्षण किया जाए।
कांग्रेस और भाजपा को यह उचित नहीं लगता। जब सामान्य सीटों पर पिछड़ी
जातियों को आरक्षण नहीं है तब महिला आरक्षण में उन्हें आरक्षण कैसे दिया
जा सकता है ? इसीलिए बहुमत के आधार पर राज्यसभा से पारित होने के बावजूद
महिला आरक्षण का विधेयक लोकसभा से पारित नहीं हो सका। बहुमत के आधार पर
यह लोकसभा से भी पारित हो सकता है लेकिन पिछड़ों के विरोध के कारण सरकार
ने लोकसभा से बहुमत के आधार पर विधेयक पारित करवाना उचित नहीं समझा। उसका
कारण भी स्पष्ट है। सरकार को डर है कि ये पिछड़े वर्ग के नेता सरकार में
बैठे दलों को पिछड़ा विरोधी प्रचारित करने से नहीं चूकेंगे और तब इससे
राजनीतिक लाभ के बदले नुकसान ही होगा। सत्ता में बैठे लोग क्या उचित है
या क्या अनुचित है, सिर्फ इसी आधार पर निर्णय नहीं लेते बल्कि उनके हित
में क्या उचित है और क्या अनुचित इस आधार पर निर्णय लेते हैं। उचित
अनुचित का भी अर्थ यही होता है कि मतदाताओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यदि
जिद कर महिला विधेयक बहुमत के आधार पर पारित करवा ले तो पिछड़े वर्ग का
समर्थन खोने का डर है ।
इसीलिए तो जनगणना में भी जाति आधार पर मतगणना का विरोध होने के बावजूद
सरकार पिछड़ी जातियों को खुश करने के लिए जाति आधार पर जनगणना के लिए
तैयार हो गयी। कांग्रेस और भाजपा में पिछड़ी जाति के जो नेता हैं, वे भी
चाहते हैं कि जनगणना जाति के आधार पर हो। क्योंकि उन्हें स्पष्ट लगता है
कि 1931 की जनगणना में ही जब वे कुल आबादी का आधे से अधिक थे तो अब बढ़ी
हुई जनसंख्या में तो उनकी जातियों की जनसंख्या और बढ़ गयी होगी। एक बार
सरकारी जनगणना से आंकड़े उपलब्ध हो जाएं तो वे सत्ता में बड़े हिस्से की
मांग कर सकेंगे। उनका दबाव अपनी अपनी पार्टी में बढ़ेगा। वे एक तरफा
पिछड़ों को एक कर पाए तो राज्यों की ही नहीं, देश की सत्ता भी उनके हाथ
में होगी। बिहार विधानसभा के चुनाव की घोषणा के बाद लालूप्रसाद यादव ने
कहा कि अब बिहार में कोई सवर्ण मुख्यमंत्री की गद्दी का दावेदार नहीं हो
सकता। उन्होंने 15 वर्ष पूर्व ही सवर्णों के लिए रास्ता बंद कर दिया।
लालूप्रसाद यादव के वक्तव्य से मनोवृत्ति की झलक मिलती है।
जातिगत जनगणना न तो अनुसूचित जाति, जनजाति की मांग है और न ही सवर्णों
की। मांग उनकी है जो सत्ता में पूरा कब्जा चाहते हैं। इसके लिए जातिगत
राजनीति की जरूरत है लेकिन स्वनामधन्य जातिगत राजनेता यह भूल जाते हैं कि
पिछड़ी जाति कोई एक जाति नहीं है। पिछड़ी जाति में कई तरह की जातियां आती
है। फिर यह सिर्फ हिंदू पिछड़ी जाति का ही मामला नहीं है बल्कि विभिन्न
धर्मों में भी पिछड़ी जातियां हैं। पिछड़ी जातियों को यदि निर्वाचन में
आरक्षण मिला जो कि देर अबेर असंभव नहीं है तो पिछड़ी जातियों से नए नेता
उभरेंगे और यह भी प्रतिस्पर्धा का विषय बनेगा कि कौन सी पिछड़ी जाति का
नेता नेतृत्व करे। फिर यादवों के नेता होंगे तो साहुओं के भी नेता होंगे?
कुर्मियों और दक्षिण भारत की पिछड़ी जाति के नेता भी होंगे। जिस जाति को
जिस राजनैतिक पार्टी में ज्यादा स्थान मिलेगा, वह उसी तरफ मुखातिब होगा।
आखिर सत्ता प्राप्त करने के लिए बसपा नेता मायावती को सवर्णों का भी
सहयोग लेना पड़ा। पिछड़ी जाति के नेता मुलायम सिंह देखते ही रह गए और
मायावती ने उत्तरप्रदेश की सत्ता पर पूरा कब्जा जमा लिया।
अब यह तो वक्त ही बताएगा कि जातिगत आधार पर जनगणना का सरकार का निर्णय
देश के लिए कितना लाभप्रद साबित होता है। जब सरकार ने निर्णय ले लिया है
तो जनगणना तो होगी लेकिन सवर्ण पिछड़े इस आधार पर जनगणना नहीं होना
चाहिए। सवर्णों और पिछड़ों में भी किस जाति के कितने लोग हैं, इसकी
जनगणना होना चाहिए। जब जातिगत आधार पर मतगणना करवा ही रहे हैं तो सब कुछ
स्पष्ट रूप से पता चले कि किस जाति के कितने लोग इस देश में हैं। सिर्फ
संख्या ही क्यों आर्थिक आधार भी पता लगना चाहिए। यह भी तो पता चले कि
कहीं सवर्णों की कुछ जातियां पिछड़े वर्ग में तो नहीं आ गयी और तथाकथित
पिछड़ी जातियां अगड़ी हो गयी। हर जाति के मलाईदार तबके, संपन्न,
अर्धसंपन्न, पिछड़े और अति पिछड़ों की भी साफ साफ गणना हो। सिर्फ जाति के
आधार पर सिर ही न गिने जाएं। माली हालत, शैक्षणिक स्थिति, विभिन्न
नौकरियों में प्रतिशत की भी गणना हो। क्योंकि यह गणना सिर्फ जनगणना तक ही
सीमित नहीं रहने वाला है।
जनगणना के बाद राजनीति प्रारंभ होगी। जनगणना राजनैतिक मुद्दों को भी जन्म
देगा। आधी अधूरी जानकारी किसी के साथ न्याय करेगी तो किसी के साथ अन्याय
भी करेगी। आज बहुत सी सवर्ण जातियों की भी स्थिति अच्छी नहीं है। निर्णय
तो आज की स्थिति में सरकारों को लेना पड़ेगा। न कि पूर्वजों के जमाने की
स्थिति में। 63 वर्ष की स्वतंत्रता ने जाति आधार पर किसे क्या दिया ? कौन
संपन्न हुआ, कौन निर्धन हुआ?जब सारा आधार ही आज समाज में आर्थिक है तो
आर्थिक आधार पर ही जातिगत मतगणना होना चाहिए। जब सरकार ने मधुमक्खी के
छत्ते में हाथ डालने का सोच ही लिया है तो उसके परिणामों के लिए भी तैयार
रहना चाहिए। जातिगत आधार पर मतगणना का विरोध करने वालों की तो नहीं चली
अब वे कह रहे हैं कि लोग जाति के स्थान पर भारतीय या हिंदुस्तानी लिखवाएं
लेकिन यह भी चलने वाला नहीं है।
जो लोग जातिगत व्यवस्था को उचित नही बताते हैं, वे भी मानते तो हैं कि
समाज में जाति व्यवस्था यथार्थ है। जब यथार्थ है तो उससे भागा तो नहीं जा
सकता। शुतुरमुर्ग बनकर नकारा तो नहीं जा सकता। आज भी जहां जातीय व्यवस्था
कट्टरपन लिए हुए हैं, वहां कानूनी स्वीकृति के बावजूद अंतर्जातीय विवाह
पर मृत्युदंड तक की सजा दी जाती है। आनरकिलिंग तक के मामले सामने आते
हैं। शहरों में भले ही जाति का प्रभाव कम हो रहा हो लेकिन गांवों में तो
वह कायम है और भारत वास्तव में बसता तो गांवों में ही है। इसलिए जब तय कर
ही लिया है कि जातिगत आधार पर जनगणना करेंगे तो उसके परिणामों पर भी
राजनीति से परे मंत्रिमंडल को विचार करना चाहिए। क्योंकि जो निर्णय लेता
है, परिणामों की जिम्मेदारी भी उसी की होती है।
- विष्णु सिन्हा
10-09-2010