यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 27 सितंबर 2010

कुकुरमुत्ते की तरह नित्य नए उगते समाचार पत्रों के कारण स्थानीय समाचार पत्र उपेक्षा के शिकार

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद जिस तरह की मलाई छत्तीसगढ़ में दिखायी पड़
रही है, उसे देखकर छत्तीसगढ़ के बाहर के लोगों की लार टपक रही है। हर
क्षेत्र में बहुतायत से धन कमाने के अवसर देखकर लोग आकर्षित हो रहे हैं।
सीधे सादे ढंग से व्यवसाय करने वाले ही नहीं बल्कि अपराधी भी ललचायी
निगाहों से छत्तीसगढ़ की तरफ देखते हैं। फिर विकसित होते छत्तीसगढ़ की
तरफ मीडिया के लोग आकर्षित न हों, ऐसा कैसे हो सकता है? मीडिया जिनके लिए
आड़ और सम्मान का देयक हो, वे तो और ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं। राजधानी
रायपुर और उसके माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ में पांव पसारते मीडिया
व्यवसायी स्पष्ट दिखायी देते हैं। कभी छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में अपना
विशेष स्थान रखने वाले समाचार पत्रों का प्रतियोगिता में ना ठहर पाना और
स्थान खाली करते जाना भी साफ-साफ दिखायी देता है।

कोई नागपुर से तो कोई भोपाल से आकर छत्तीसगढ़ में अपने समाचार पत्र का
प्रकाशन करता था। यह तब की बात है जब छत्तीसगढ़ में कोई बहुत ज्यादा
स्कोप दिखायी नहीं देता था। तब भी छत्तीसगढ़ में जन्में समाचार पत्र अपना
विशेष स्थान तो रखते थे लेकिन मध्यप्रदेश में जब छत्तीसगढ़ की तरफ
आकर्षित न होने वाले भी अब छत्तीसगढ़ की तरफ भागे चले आ रहे हैं। कोई
हरियाणा से आया है तो कोई इंदौर से। अब तो राजस्थान से  एक समाचार
पत्र आ गया है। खबर तो यह भी है कि अस्पताल के धंधे से अच्छा खासा धन
उपार्जित करने वाला व्यवसायी भोपाल से रायपुर आकर अपना समाचार पत्र
प्रकाशित करने का इरादा रखता हैं। एक विख्यात बिल्डर भी ऐसी मंशा भोपाल
में प्रगट कर रहा है। अपने दूसरे व्यवसायों को आड़ और संरक्षण देने के
लिए, शासन पर दबाव कायम रखने के लिए समाचार पत्र एक अच्छा माध्यम बन गया
है।

समाचार पत्र के नाम पर अधिक से अधिक सुविधाएं सरकार से प्राप्त करना
सिर्फ समाचार पत्र के लिए ही नहीं, अपने अन्य कारोबार के लिए या अन्य
कारोबारियों से समाचार पत्र के नाम पर धन उगाहना छत्तीसगढ़ में आसान 
दिखायी देता है। छत्तीसगढ़ का हितचिंतक होने का मुखौटा लगा लेना समाचार
पत्र के लिए कोई कठिन काम नहीं है। बल्कि इसी तरह के मुखौटे की आड़ में
तो सरकार को भी धमकाया चमकाया जा सकता है। आजकल बड़े अखबार छोटे साइज के
12 से 16 पृष्ठ का अलग से परिशिष्ट अंग्रेजी नाम रखकर और दो पृष्ठ
अंग्रेजी में छाप कर दे रहे है। इसमें विशेष कर एक मुखपृष्ठ की कहानी
प्रकाशित करते हैं जिसमें शासन प्रशासन के विभागों की दुर्दशा,
भ्रष्टïचार की कहानी होती है। एक पंथ दो काज। पाठकों को बताना कि वे
उनकी समस्याओं को उठा रहे हैं और सरकार को बताना कि हम तुम्हारी धज्जियां
उड़ा सकते हैं। बहुत पुरानी बात नहीं है जब इस तरह के समाचार साप्ताहिक
समाचार पत्रों में ही प्रकाशित होते थे और दैनिक सम्मानित अखबार इस तरह
की पत्रकारिता को पीत पत्रकारिता कहा करते थे। छोटे समाचार पत्रों को
ब्लैक मेलर बताया करते थे।

समाचार पत्रों की आपसी प्रतिद्वंदिता यह हाल है कि अब समाचार पत्र
उपभोक्ता सरकारी बन गया है और जिस तरह से उपभोक्ता सामग्री बेची जाती है
उस तरह से अखबार की प्रसार संख्या बढ़ाने की कोशिश की जाती है। सब तरफ
महंगाई का होना है लेकिन कितने आश्चर्य की बात है कि समाचार पत्र की
कीमतें बढ़ाऩे की कोशिश करती हैं तो नया आने वाला समाचार पत्र बढ़ती कीमतों
पर लगाम ही नहीं लगाता बल्कि कम करने के लिए भी, यदि टिके रहना है,  तो बाध्य
करता है। कोई अखबार के साथ कुर्सी बांटता है तो कोई बैग तो कोई गिलासों
का सेट और कोई कोई तो बाल्टी भी बांटता है। कैसे प्रसार संख्या अधिक से
अधिक हो इसके लिए सब तरह के उपाय किए जाते हैं। जो समाचार पत्र अपने लागत
मूल्य के हिसाब से 10 रुपए में भी नहीं मिल सकता, वह डेढ़ रुपए में अन्य
सुविधा के साथ मिलता है। इसके साथ ही यह दावा करने में भी कोई पीछे नहीं
है कि वही सबसे बड़ा अखबार है।

सबसे बड़ा अखबार का मतलब होता है, सबसे ज्यादा प्रसार संख्या। असली बात
ही प्रसार संख्या रह गयी हैं और इसी प्रतियोगिता में पाठकों को कम कीमत
पर समाचार पत्र मिलते हैं। ज्यादा प्रसार संख्या से विज्ञापनदाता भी दबता
है और सरकार के साथ उसके कर्मचारी भी दबते हैं। तब मनमाना काम करवा लेना
क्या कठिन काम होता है। जब एक की पोल खोलो और उसे  कानून के शिकंजों में
कस दो तो दूसरे वैसे ही भयभीत हो जाते हैं। फिर अखबार के नाम से ही पसीना
छूटने लगता है। अखबार उस हथियार की तरह बन गया हैं जो सही हाथों में रहे
तो जनता का कल्याण करे और गलत हाथों में रहे तो नुकसान पहुंचाएं। सेना के
हाथ में बंदूक देश की रक्षा के लिए होता है लेकिन आतंकवादी के हाथ में
बंदूक देश की सुरक्षा के लिए ही खतरा होता है। अब बंदूक का.... कहां तक
प्रश्र है तो वह बंदूक है। यह तो चलाने वाले पर निर्भर करता है कि वह किस
उद्देश्य से चलाता है।

आजकल तो कई कई संस्करणों के समाचार पत्र हो गए। करोड़ों नहीं, अरबों के
समाचार पत्र हो गए। इनकी गलाकाट प्रतियोगिता एक दूसरे का गला काटने के
लिए तो उतारु है ही, छोटे समाचार पत्रों को तो नेस्तनाबूद करने की फिराक
में है। जब देश स्वतंत्र हुआ तब देश के हुक्मरान छोटे समाचार पत्रों को
संरक्षण देने की बात करते थे। कुछ हद तक संरक्षण देते भी थे। लेकिन अब जब
देश ने समाजवादी व्यवस्था को छोड़ कर पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था को
स्वीकार कर लिया है, तब लघु उद्योग संकट का ही सामना कर रहे हैं। ऐसे ही
छोटे समाचार पत्र भी संकटों से घिर रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को
इनके संरक्षण के विषय में भी सोचना चाहिए। केंद्र सरकार जो पहले समाचार
पत्रों को 4 माह बाद ही विज्ञापन की पात्रता देती थी, अब उसने नियमों में
परिवर्तन कर दिया है और 3 वर्ष तक जो समाचार पत्र  बिना केंद्र
सरकार के विज्ञापनों के प्रकाशित हो सकता है, वही पात्रता रखता है और आजकल तो नए
समाचार पत्रों को एडजस्ट करने की भी नीति नहीं है लेकिन बड़े समाचार
पत्रों पर ये नियम लागू नहीं होता। जो पहले से ही निकल रहे हैं, वे यदि
75 हजार से अधिक प्रसार संख्या रखते हैं तो उन्हें दूसरे संस्करण निकालने
पर तुरंत पात्रता मिल जाती है। साफ मतलब है कि बड़ों के लिए सब कुछ और
छोटों का भगवान मालिक।

छत्तीसगढ़ में पांव पसारते बाहर से आए समाचार पत्रों की तुलना में
स्थानीय समाचार पत्रों को छत्तीसगढ़ सरकार को पर्याप्त संरक्षण देना
चाहिए। छत्तीसगढ़ निर्माण के लिए बढ़ चढ़ कर आंदोलन को समर्थन देने वाले
आज ठगा सा महसूस करते हैं। चतुर चालाक लोग किस तरह से संसाधनों पर कब्जा
जमा कर सब कुछ लूट लेने पर आमादा हैं तो कहीं न कहीं यह बात  तो पैदा होती
ही है कि क्या छत्तीसगढ़ पृथक राज्य इन लोगों के लिए ही बना था। क्या
अपने अधिकारों के लिए छत्तीसगढ़ के समाचार पत्रों और वासियों को संघर्ष
करना पड़ेगा। अच्छा तो यही है कि संघर्ष करने के पहले ही न्यायोचित
निर्णय लिया जाए और सरकार का कर्तव्य है कि वह स्थानीय को संरक्षण दें।
क्योंकि छत्तीसगढ़ के लोगों को यही जीना है, यही मरना है, इसके सिवाय
जाना कहां है?

विष्णु सिन्हा
दिनांक : 26.10.2010
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