यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

प्रेम की जंजीरें इतनी मजबूत हैं कि उन्हें कोई फैसला तोड़ नहीं सकता

पूरी तरह से माहौल बदला हुआ है। 6 दिसंबर 1992 और 30 सितंबर 2010 में
जमीन आसमान का अंतर आ गया है। हर तरफ एक ही आवाज आ रही है कि अमन, शांति।
चाहे राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने वाले हों, चाहें बाबरी मस्जिद वाले।
कोई नहीं चाहता कि देश के शांत वातावरण से अशांति की दुर्गंध उठे।
राजनेता हों या मीडिया वाले या फिर धार्मिक सामाजिक नेता सभी की एक ही
तमन्ना है कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद किसी तरह की अशांति देश में न
पैदा हो। एक तरफ शांति की चाहत रखने वाले आम नागरिक हैं तो दूसरी तरफ
कानून व्यवस्था कायम रखने वाले। अशांति फैलाने की किसी के भी मन में जरा
सी भी इच्छा हो तो उसे अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि उसके साथ कैसा
व्यवहार किया जाएगा? छत्तीसगढ़ में तो शांति व्यवस्था के लिए कलेक्टर और
एस.पी को फ्री हैंड दिया गया है। मतलब साफ है कि अशांति फैलाए तो बख्शें
नहीं जाओगे।

सुरक्षा की ऐसी तैयारी अक्सर नहीं देखी जाती लेकिन सरकारों ने सुरक्षा की
ऐसी तैयारी इसीलिए की है, क्योंकि पुराना अनुभव अच्छा नहीं है। तब भी
अशांति फैलाने के मामले में आम जनता की जरा सी भी रुचि नहीं थी लेकिन चंद
लोगों के कृत्यों ने अशांति और हिंसा को जन्म दिया था। आज बिलकुल स्थिति
विपरीत है। लोग न केवल सतर्क हैं बल्कि यह भी जानते हैं कि उनकी आस्था की
आड़ में लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं। गुजरात जैसे राज्य में आज हिंदू
और मुसलमान मिलकर शांति के लिए गीता और कुरान का पाठ एक साथ कर रहे हैं।
सांप्रदायिकता के नाम पर हिंसा का जो तांडव गुजरात ने देखा और भोगा है,
उसका अनुभव उन्हें पूरी सतर्कता बरतने के लिए बाध्य करता है। आज सबसे
ज्यादा गांधीजी को ही याद सभी कर रहे हैं और ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको
सम्मति दे भगवान जैसा भजन गुनगुना रहे हैं।

सबसे बड़ी बात तो यही है कि लोग चाहते हैं कि न्यायालय अपना फैसला करे।
लोग सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं। लोग शुतुरमुर्ग की तरह समस्या
से मुंह छुपाना नहीं चाहते। समस्या से निजात पाना चाहते हैं। आज मंदिर
मस्जिद से ज्यादा लोगों को अपनी भावी पीढ़ी के लिए भाई चारे की जरुरत है।
वे ऐसा भारत नहीं देखना चाहते, जहां भाई ही भाई का दुश्मन बन कर रहे। जिन
लोगों ने बाबरी मस्जिद विध्वंस को जीत के रुप में देखा था, वे भी आज हार
जीत की बात नहीं कर रहे हैं। अपील भी शांति की इसी आधार पर की जा रही है
कि फैसला किसी की जीत हार नहीं है। जिसके पक्ष में फैसला आए, वह अपनी
खुशी का इजहार न करे, जिससे दूसरे पक्ष को दुख हो। यह छोटी भावना नहीं है
बल्कि इसी तरह की उच्च भावनाओं के लिए भारतीयों को दुनिया में याद किया
जाता है।

यह भारत और भारतीयों की सोच का ही नतीजा है कि वह किसी को भी अपना दुश्मन
नहीं समझता। पाकिस्तान जो पूरी तरह से भारत के प्रति दुर्भावना रखता है
और भारत के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करता है, आंतकवादी भेजता है,
उस पर भी जब बाढ़ के कारण तकलीफ आयी तो भारत ने अपनी तरफ से मदद की पेशकश
की। गांधीजी का प्रियभजन था। वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर परायी जाने
रे। जो दूसरों की पीड़ा को महसूस करे, उसे ही वैष्णव कहते हैं। भारत ने
तो सबको स्वीकार किया। हर धर्म  यहां फला-फूला। जो यहां आया, वह यहीं का
होकर रह गया। मर्यादा को स्थापित करने के कारण मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान
राम को कहा गया। इसलिए मर्यादा को ही भारत की सबसे बड़ी धरोहर माना गया।
अमर्यादित आचरण कभी भारतीयों का स्वभाव नहीं रहा। आम भारतीयों का तो कभी
नहीं। एक दूसरे के प्रति आदर, सद्भाव ही हमारी सांस्कृतिक विरासत है।
महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता की लड़ाई अहिंसा, सत्य और मर्यादा के बल पर
ही लड़ी।

वे तो बंटवारे के लिए भी तैयार नहीं थे। उन्होंने तो कहा भी था कि वे
बंटवारे के बाद पाकिस्तान में रह कर लोगों को समझाएंगे। जब देश आजादी का
जश्र मना रहा था तब भी गांधीजी बंगाल में बंटवारे के बाद भड़की हिंसा को
बंद करने के लिए आमरण अनशन कर रहे थे और अंतत: हिंसा से परहेज करने के
लिए लोगों को तैयार होना पड़ा। ऐसे मौके जब दुनिया की निगाहें भारत में
भड़कने वाली अशांति की तलाश करती है तब भारतीयों को ही दिखाना है कि वे
असली महात्मा गांधी के वारिस  हैं। उनमें भाईचारे का ऐसा बंधन है कि नापाक
ताकतें उसे तोड़ नहीं सकती। सरकार तो अपनी जिम्मेदारी निभाएगी लेकिन जनता
को भी दिखाना है कि वे भी जिम्मेदारी निभाने में सरकार से पीछे नहीं है।
सुरक्षा के लिए हर नुक्कड़ में खड़े पुलिस वालों को हाथ भी न हिलाना पड़े
तो यही हमारी सबसे बड़ी जीत है। ये जवान तो हमारी सुरक्षा के लिए खड़े
हैं कि कोई भी उत्पाती हमारी शांति और सुरक्षा के लिए खतरा न बने। कोई
पागल ही ऐसे समय में गलत हरकत करने की कोशिश कर सकता है। सामान्य आदमी के
लिए करना तो दूर की बात है, वह सोच भी नहीं सकता।

फैसला आ रहा है। पूरी शांति से फैसले को फैसले की ही दृष्टि से देखना
चाहिए। आज भी जिनके विश्वास कई कारणों से डांवाडोल हैं, उनका विश्वास भी
न्यायालय पर है। जब कहीं न्याय की उम्मीद न दिखे तब न्यायालय ही अंतिम
न्याय का स्थान दिखायी देता है। इसलिए हमारे संविधान ने न्याय की भी
सीढिय़ां बना रखी है। निचली अदालत के फैसले से सहमत न हो तो उच्च न्यायालय
और उच्च न्यायालय से सहमत न हों तो उच्चतम न्यायालय। मतलब साफ है कि
न्यायिक प्रक्रिया भी किसी एक न्यायाधीश के फैसले पर निर्भर नहीं करती।
उच्चतम न्यायालय के फैसले से लोग संतुष्ट न हों तो सरकार न्याय संसद के
द्वारा भी कर सकती है। 63 वर्ष के प्रजातांत्रिक शासन में हम इतने अनुभवी
तो हो चुके हैं कि प्रजातंत्र का अर्थ अच्छी तरह से समझ सकें । कानून के
शासन का अर्थ समझ सके। किसी को भी किसी के साथ अन्याय करने का हक नहीं
है, यह भी अच्छी तरह से समझ सकें। स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं है
और न ही बहुसंख्यकों को अधिकार है कि वह संख्या बल से अल्पसंख्यकों के
साथ किसी भी तरह के न्याय के विरुद्ध फैसला करें। बहुसंख्यकों की
जिम्मेदारी तो और ज्यादा है। उन्हें न्याय प्रिय दिखना ही नहीं होना भी
चाहिए। परीक्षा की घड़ी है और सदा से परीक्षा में उत्तीर्ण रहने वाले फिर
उत्तीर्ण ही होंगे और सारी दुनिया आश्चर्य से देखेगी कि न जाने भारतीय
किस मिट्टी के बने हैं। इनकी प्रेम की जंजीरों को तोडऩा किसी के भी बस की
बात नहीं।

- विष्णु सिन्हा
दिनाक : 30.09.2010
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