यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

उच्चतम न्यायालय के व्यंग्य के बावजूद कुछ बदलेगा, ऐसा तो नहीं लगता

भ्रष्टïचार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कड़ी टिप्पणी की है और यहां
तक कहने से परहेज नहीं किया कि सरकार घूस की दर क्यों नहीं तय कर देती ?
भ्रष्टïचार एक सर्वव्यापी मामला बन गया है। वरिष्ठ अधिवक्ता शांतिभूषण
ने तो उच्चतम न्यायालय में ही कहा कि कम से कम 8 पूर्व चीफ जस्टिस
भ्रष्ट थे। फिर कौन सा ऐसा क्षेत्र बच जाता है जहां भ्रष्टïचार ने अपने
डैने न फैला रखे हो? जब न्यायपालिका ही भ्रष्टïचार से मुक्त नहीं तो फिर
किससे उम्मीद की जा सकती है। कहा जाता है कि भ्रष्टïचार की जननी राजनीति
है। चुनाव और राजनीति में असुरक्षित भविष्य राजनीतिज्ञों को सुरक्षा के
लिए भ्रष्टïचार से धन कमाने के लिए बाध्य करता है। चुनाव जीतने के लिए
धन की और अब तो बेहिसाब धन की जरूरत होती है। नगर निगम का पार्षद बनने के
लिए ही लोग 50-60 लाख खर्च कर देते हैं तो उसका सीधा और साफ मतलब तो यही
है कि चुनाव जीतकर इससे कहीं ज्यादा का लाभ उठाया जा सकता है। नहीं तो
मोहल्ले का कचरा उठवाने, नाली साफ कराने के लिए और बदले में ढाई हजार
वेतन प्राप्त करने के लिए कोई इतनी बड़ी रकम दांव पर नहीं लगाएगा।

चुनाव लडऩे के लिए ही नहीं, अब तो टिकट प्राप्त करने के लिए भी धन की
जरूरत होती है। चुनाव जीतने लायक धन है या नहीं, यह पार्टी को बताना
पड़ता है। कहा जाता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों ने 8 हजार
करोड़ रूपये खर्च किए। 75 लाख से 1 करोड़ रूपये तक की मदद तो जीतने में
सक्षम प्रत्याशियों की मदद पार्टी ने भी की। चुनाव के समय हवा में उडऩा
तो अब हर पार्टी के बड़े नेता के लिए जरूरी हो गया है। चुनाव आयोग कड़ी
से कड़ी कार्यवाही की चेतावनी देता है और अब तो बैंक में खाता खोलकर खर्च
करने की व्यवस्था भी की गयी है और प्रत्याशी की वित्तीय  जांच के लिए
आयकर अधिकारियों को लगाया गया है। उच्चतम न्यायालय के जज कह रहे हैं कि
सबसे ज्यादा भ्रष्टïचार आयकर, बिक्री कर और आबकारी विभाग ही करता है। अब
उन्हीं आयकर अधिकारियों को चुनाव खर्च की जांच और निगरानी के लिए  लगाया
गया है।

भले ही उच्चतम न्यायालय के जजों ने व्यंग्य में कहा हो कि भ्रष्टïचार की
दर तय कर देना चाहिए। जिससे लेने और देने वालों को सुविधा हो लेकिन सरकार
तय भी कर देगी तो भ्रष्टïचार कम होने वाला नहीं है। छठवां वेतन आयोग
लागू होने के बाद शासकीय कर्मचारियों को सरकार भरपूर वेतन दे रही है
लेकिन मन किसी का भर रहा है, क्या ? केंद्र सरकार ने 10 प्रतिशत तो
छत्तीसगढ़ सरकार ने 8 प्रतिशत महंगाई भत्ता और बढ़ा दिया है लेकिन  कोई
काम करना चाहता है, क्या? फिर जिस काम में कुछ भी मिलने की उम्मीद न हो
उस काम की फाइल को तो वर्षों कोई हाथ नहीं लगाना चाहता। काम कराना है तो
फाइल लेकर टेबल टेबल घूमो और भेंट चढ़ाओं। यह सब खुलेआम होता है। कुछ लोग
दिखाने के लिए पकड़े भी जाते हैं तो होता जाता कुछ नहीं।  वर्षों जांच
चलती है। मुकदमा चलाने की अनुमति विभाग से मांगे, तो अनुमति नहीं मिलती।
फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि भ्रष्टïचार के मामले में पकड़े जाने से
भी समाज  में मान सम्मान की कमी नहीं होती।

छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी पत्रकार वार्ता कर कहते हैं कि
सत्तापक्ष और कांग्रेस में ऊपर से नीचे तक मिली भगत है। भटगांव का
उपचुनाव हारने के बाद यह बात जोर शोर से उठ रही है कि कांग्रेसियों को
भाजपाइयों ने खरीद लिया था।  इसी कारण कांग्रेस बुरी तरह से हारी।
भाजपाइयों ने खरीदा और कांग्रेसी बिक गए, यह बात जब कांग्रेस का ही एक
बड़ा नेता कहता है और आलाकमान को पत्र लिखकर इस मामले की जांच कराने की
मांग  खुलेआम करता है तो यह कांग्रेस आलाकमान  के ही सोच का विषय है कि वह
जांच कर बिके हुए कांग्रेसियों पर कार्यवाही करे या फिर मुद्दा उठाकर
कांग्रेस की छवि खराब करने के आरोप में मुद्दा उठाने वाले पर कार्यवाही
करे। जबकि आरोप लगाने वाले पर भी विधायकों की खरीद फरोख्त का आरोप है।
इसीलिए तो अपनी पार्टी के विषय में कोई मुद्दा सार्वजनिक रूप से उठाने
वाले को पार्टियां अनुशासनहीन मानती हैं और हर पार्टी का यही निर्देश
होता है कि मामला पार्टी फोरम में उठाया जाए।

राजनीति और भ्रष्टïचार का तो चोली दामन का साथ है। जीसस ने कहा कि पत्थर
वह मारे जिसने कोई पाप नहीं किया लेकिन राजनीति तो ऐसी जगह है, जहां पापी
ही पापी पर पत्थर मारते हैं। जब कोई किसी पर भ्रष्टïचार का आरोप लगाता
है तब यह जरूरी नहीं कि आरोप लगाने वाला कोई पुण्यात्मा हो। इस मामले में
भी जलनखोरी कम नहीं है। खुद भ्रष्टïचार करे तो सही और दूसरा करे तो गलत।
इसीलिए तो कहते हैं, पूरी बेशर्मी से कि कोई किसी को  कमाता खाता नहीं
देख सकता। जब सभी चुनावों में हर तरह की सेटिंग की जाती है तो भटगांव
चुनाव में नहीं की गई होगी, ऐसा मानने का तो कोई कारण नहीं है। साम, दाम,
दंड, भेद सभी का उपयोग कर चुनाव जीतने का प्रयत्न सभी अपनी शक्तिभर करते
हैं। भाजपा इस मामले में सफल हो रही है और कांग्रेस असफल तो इतनी खुन्नस
की आईबी से जांच कराएंगे।

विधायकों को तो कांग्रेस के राज्य प्रभारी नारायण सामी ने धमकी तक दी थी
कि चुनाव प्रचार के लिए अपने निर्धारित क्षेत्र में नहीं गए और
अंबिकापुर में दिखायी दिए तो अगले चुनाव में टिकट तक कट जाएगी लेकिन धमकी
का परिणाम क्या निकला? कांग्रेस बुरी तरह से हार गयी और सांप के निकल
जाने के बाद लकीर पीटने से कुछ मिलने वाला नहीं लेकिन अक्लमंद कांग्रेस
की ही मिट्टी  पलीद करने में लगे हैं। कांग्रेसी यदि सरकार के साथ
मिलीभगत कर रहे हैं तो दोषी कौन है? किससे उन्होंने यह हुनर सीखा है?
आखिर बच्चे अच्छा बुरा जो भी सीखते हैं तो सीखते अपने बुजुर्गों से ही
हैं। कांग्रेस में ऐसा बिखराव है तो जिम्मेदारी स्वयं लेना चाहिए। आईबी
जांच से क्या सब कुछ ठीक हो जाने वाला है? जब सांसद लोकसभा में प्रश्र
पूछने के लिए धन लेने से नहीं हिचकते तो फिर रह ही क्या जाता है? सांसदों
की खरीद फरोख्त कर जब बहुमत जुटाया जाता है तब कांग्रेसी और सीख भी क्या
सकते हैं? वे यह भी  तो देखते हैं कि ईमानदारी से काम करने वालों को कौन
पूछता है?

फिर सब से बड़ी बात तो यही है कि जनता सब कुछ देख रही है। वह सब कुछ समझ
भी रही है। जहां तक भ्रष्टïचार का अनुभव है तो जनता से बड़ा भुक्तभोगी
कौन है? भ्रष्टïचार के परिणाम को भोगना तो जनता को ही पड़ता है। दिल्ली
में केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों कोंग्रेस की है और उनकी नाक के
नीचे ही कामनवेल्थ गेम्स के नाम पर भ्रष्टïचार का ऐसा खेल खेला गया कि
रोकने वाला कोई नहीं था? अंत में यही कहा गया कि देश की इज्जत का मामला
है और खेल हो जाने दो। भ्रष्टïचार के मामले बाद में देख लिए जाएंगे। 70
हजार करोड़ रूपये खर्च करने का मामला है। वह तो भारतीय खिलाडिय़ों के
अच्छे प्रदर्शन ने लोगों को खुश कर दिया और विश्व में मिली प्रशंसा से
भारतीय गदगद हैं। नहीं तो कामनवेल्थ गेम्स के नाम से ही लोग बिचक रहे थे
और कांग्रेस के ही मणिशंकर अय्यर दुआ कर रहे थे कि खेल असफल हो। उच्चतम
न्यायालय के व्यंग्य के बावजूद कुछ बदलेगा, इसकी उम्मीद तो किसी को नहीं
है।

- विष्णु सिन्हा
11-10-2010