यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

उमर अब्दुल्ला के बयान के बाद अब कांग्रेस स्पष्ट करे कि वह उमर के विचारों से सहमत है या नहीं

भारत में काश्मीर का विलय नहीं हुआ था बल्कि काश्मीर एक समझौते के तहत
भारत का अंग बना था। यह बात कोई अलगाववादी या पाकिस्तानी नहीं कह रहा है
बल्कि जम्मू काश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कह रहे हैं। जो
मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कांग्रेस के समर्थन से बैठे हैं और पिछले दिनों
जब उनकी नाकाबलियत पर ऊंगलियां उठी तो राहुल गांधी की सिफारिश पर ही
कांग्रेस ने उन्हें अभयदान दिया था। जिसके लिए उन्होंने राहुल गांधी के
प्रति कृतज्ञता भी व्यक्त की थी। जब जम्मू काश्मीर की विधानसभा में भाजपा
के विधायकों ने उमर अब्दुल्ला के बयान का विरोध किया तो भाजपा के
विधायकों की पिटायी मार्शलों के द्वारा करायी गयी और इस दौरान घायल
विधायक को विधानसभा से सीधे अस्पताल ही ले जाना पड़ा। भाजपा के साथ पैंथर
पार्टी ने भी उमर अब्दुल्ला के बयान का विरोध किया।

उमर अब्दुल्ला साफ साफ कहते हैं कि काश्मीर समस्या आर्थिक नहीं है बल्कि
राजनैतिक है और केंद्र सरकार को आर्थिक पैकेज नहीं राजनैतिक  पैकेज देना
चाहिए। वे चाहते हैं कि काश्मीर को पूर्ण स्वायत्तता मिले। बीच में एक
समय तो प्रधानमंत्री स्वायत्तता के लिए तैयार भी हो गए थे लेकिन उन्हें
इस मामले में सर्वदलीय समर्थन नहीं मिला। काश्मीर जो सर्वदलीय
प्रतिनिधिमंडल भेजा गया था, उसमें से कुछ लोगों ने अलगाववादियों से भी
चर्चा की लेकिन भाजपा ने ऐसा नहीं किया। अलगाववादियों से चर्चा से भी कोई
 लाभ तो हुआ नहीं बल्कि अपमानजनक स्थिति का ही सामना करना पड़ा। यह बात
तो साबित हो चुकी है कि उमर अब्दुल्ला के बस की बात नहीं है, काश्मीर
समस्या का हल करना और सबसे अलोकप्रिय मुख्यमंत्री काश्मीर के वही हैं।
अपनी बची खुची राजनैतिक जमा पूंजी को बचाने के लिए अब वे भी
पृथकतावादियों के सुर से सुर मिला रहे हैं।

अब यह तो कांग्रेस के लिए ही सोच का विषय है कि वह उमर अब्दुल्ला की
सरकार का समर्थन कर उसे कायम रखती है या फिर समर्थन वापस लेकर
राष्ट्रपति शासन लगाती है। कांग्रेस ने पहले सईद से मिलकर सरकार चलायी
तो वे भी अलगाववादी ही निकले और उमर अब्दुल्ला भी उसी रास्ते पर जा रहे
हैं। काश्मीरी पंडितों को तो काश्मीर लौटने के लिए कांग्रेस सुरक्षित
स्थिति निर्मित कर नहीं पायी। यह बात हर भारतीय को अच्छी तरह से पता है
कि काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। भारत भर में नारे लगते रहे हैं कि दूध
मांगोगे तो खीर देंगे लेकिन काश्मीर मंगोगे तो चीर देंगे। काश्मीर को
सुरक्षित रखने के लिए भारतीय सेना ने कम कुर्बानियां नहीं दी है। भारत
माता के सपूतों ने जान की बाजी लगाकर पाकिस्तानियों को काश्मीर में घुसने
से रोका है तो आतंकवादियों के साथ मुकाबले में अपनी जान की परवाह नहीं की
है।

पाकिस्तान के पूर्व राष्टपति परवेज मुशर्रफ ने तो स्वीकर किया है कि
आतंकवादी पाकिस्तान तैयार करता है। काश्मीर के स्वतंत्रता संग्राम के
लिए। यह उनकी भाषा में उनकी स्वीकृति है। आज पाकिस्तान में तेलों के
टैंकरों को आतंकवादी आग के हवाले कर रहे हैं जो सेना के लिए तेल लेकर
अफगानिस्तान जाते हैं। काश्मीर और भारत के लिए तैयार किए गए आतंकवादी आज
पाकिस्तान में ही अपना खूनी खेल रहे हैं। यह बात बार बार कही जाती है कि
पंडित जवाहरलाल नेहरू की गलत नीतियों के कारण ही काश्मीर समस्या का जन्म
हुआ। जिस तरह से भारत के अन्य राज्यों का विलय सफलता पूर्वक सरदार वल्लभ
भाई पटेल करने में सफल हुए, उसी तरह से काश्मीर का मामला भी पटेल के पास
होता तो यह स्थिति खड़ी नहीं होती। पंडित जवाहरलाल नेहरू स्वयं काश्मीरी
पंडित थे। इस तरह से गांधी नेहरू परिवार का मूल तो काश्मीर ही है। यहां
तक कि उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला के पिता भी काश्मीरी पंडित
थे। जिनका नाम जगन्नाथ कौल था। इस परिवार के सत्ता में रहते हुए काश्मीरी
पंडितों को काश्मीर छोडऩे के लिए बाध्य होना पड़ा तो इससे गलत बात और
क्या हो सकती है?

जो लाखों काश्मीरी पंडित भारत में निवास कर रहे हैं, उनका भी पूरा हक
काश्मीर पर है। वे तो मानते हैं कि काश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है।
इसलिए जब उन्हें काश्मीर से भागने के लिए बाध्य किया गया तो वे भागकर
जम्मू और भारत ही आए। काश्मीर को भारत के अन्य राज्यों की तुलना में
क्यों स्वायत्तता अधिक मिलना चाहिए? ऐसे तो हर कोई हर कुछ मांगने के लिए
स्वतंत्र है लेकिन देने वालों को तो यह सोचना ही पड़ता है कि किसी की
नाजायज मांग स्वीकार न करे। भले ही मांगने वाला कोई भी हो। उमर अब्दुल्ला
ने ऐसी बात कही है कि उसके उपरांत कांग्रेस को ही गंभीरता से सोचना चाहिए
कि कांग्रेस समर्थन कर उनकी सरकार को बचाए या समर्थन वापस लेकर देश के
सामने उदाहरण प्रस्तुत करे कि किसी भी तरह की अलगाववादी मांगों के साथ वह
नहीं है।

राष्ट्रीय  स्वयं सेवक संघ को सिमी के समान समझने वाले राहुल गांधी का अब
क्या विचार है, उमर अब्दुल्ला के विषय में ? जो शख्स काश्मीर के भारत में
विलय को ही अस्वीकार करता हो उसके साथ राहुल गांधी और कांग्रेस को संबंध
रखना चाहिए या नहीं। काश्मीर विधानसभा में संघ की ही राजनैतिक शाखा भाजपा
के विधायकों ने ही उमर अब्दुल्ला के बयान का विरोध किया है लेकिन
कांग्रेस के विधायक तो चुपचाप सत्ता का आनंद लूट रहे हैं। कांग्रेस अब भी
उमर अब्दुल्ला को काश्मीर में समर्थन करती रहेगी तो पूर्वोत्तर राज्यों
से भी इसी तरह की मांग उठेगी। भड़काने के लिए चीन बाजू में ही बैठा हुआ
है। विदर्भ, तेलंगाना जैसे पृथक राज्यों की मांग तो कांग्रेस स्वीकार
करती नहीं। जबकि ये मांगें भारत से अलग होने की नहीं है। तब वह उमर
अब्दुल्ला के विचारों से कैसे सहमत हो सकती है?

काश्मीर को विशेष राज्य की स्थिति मानने का कोई कारण नहीं है। भारत का हर
राज्य भारत का अभिन्न अंग है। जो ऐसा नहीं मानता वह करोड़ों भारतीयों की
भावनाओं से खिलवाड़ करता है। भारत के संविधान के तहत ही काश्मीर है और जो
उसके विलय को स्वीकार नहीं करता तो उसे मुख्यमंत्री बने रहने का क्या
अधिकार है?  ऐसे व्यक्ति को सत्ता में टिकाए रखकर कांग्रेस देश को कोई
अच्छा संदेश नहीं दे रही है। कांग्रेस राष्ट्रीय  पार्टी है और वह एक
प्रदेश में जो नीति अपनाती है,  उसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ता है।
तुष्टिकरण और वोट बैंक का यह अर्थ नहीं होता कि जो बात देश को स्वीकार न
हो वह बात एक राज्य का मुख्यमंत्री कहे और ऐसा मुख्यमंत्री कहे जो
कांग्रेस के समर्थन के कारण मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो। उमर
अब्दुल्ला जो कहते हैं या करते हैं, उसके लिए वे ही जिम्मेदार नहीं हैं
बल्कि कांग्रेस भी उतनी ही जिम्मेदार है। कांग्रेस असहमत है तो सरकार से
समर्थन वापस लेकर देश की जनता को स्पष्ट संदेश दे कि वह अलगाववादी
विचारों की पोषक नहीं हो सकती।

- विष्णु सिन्हा
08-10-2010