यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

सोनिया दाई के लाडले रहे इस बंदे की चिंता करने की जरूरत नहीं है डा. रमन सिंह को

प्रदेश के विकास से यह बंदा खुश होने लगा तो उसे अपना बोरिया बिस्तर
बांधकर दुकान में ताला लगाना पड़ेगा। बंदा स्वयं संतुष्ट हो गया तो वह
अपने पक्ष में जनता को असंतुष्ट कैसे करेगा? बड़ी मुश्किल से तो
मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली थी। कोई भी विधायक तैयार नहीं था मुख्यमंत्री
बनाने के लिए लेकिन सोनिया दाई प्रसन्न थी तो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर
लाडले को बिठा दिया। बिठाने की जिम्मेदारी दिग्गी राजा को सौंपी गई थी और
बिठाने के चक्कर में छत्तीसगढ़ तो हाथ से गया ही गया, बेचारे की मरम्म्त
भी हो गयी थी। शान से बंदे ने तीन वर्ष तक छत्तीसगढ़ पर शासन किया। उसका
शासन करना कांग्रेसियों को ही रास नही  आया। विïद्याचरण शुक्ल तो ऐसा
बिफरे कि पार्टी छोड़कर बंदे की सरकार को गिराने के लिए पूरे छत्तीसगढ़
में तूफानी दौरा किया। फिर भी बंदे को उम्मीद थी कि वह चुनाव के बाद
सरकार बनाने में सफल हो जाएगा। इसके लिए भाजपा के विधायकों को भी उसने
फोड़ा। सत्ता की लड़ाई तो बंदे और विद्याचरण के बीच हो रही थी।

लेकिन छत्तीसगढ़ की जनता ने न बंदे को चुना और न ही विद्याचरण को बल्कि
चुन लिया भाजपा को और भाजपा ने सत्ता सौंप दी डा. रमन सिंह को। तब भी कुछ
नहीं बिगड़ा था। हालांकि फिर कोशिश चुनाव परिणाम के बाद की गई बंदे के
द्वारा कि भाजपा की सरकार न बने। बड़ा हंगामा हुआ। पत्रकारों को पत्रकार
वार्ता कर लाखों की थैली दिखायी गयी। बदनामी तो ऐसी हुई कांग्रेस की कि
कांग्रेस की सोनिया दाई को ही अपने लाडले को पार्टी की सदस्यता से
निलंबित करना पड़ा। लाडला तो फिर भी लाडला था। दाई का तो स्वभाव होता है,
अपने लाडले में गल्तियों को न देखने का। लोकसभा चुनाव के बहाने निलंबन
समाप्त हो गया। अभी भी लाडले से उम्मीद कम नहीं हुई। उम्मीद की सबसे बड़ी
किरण लाडले की योग्यता के साथ डा. रमन सिंह की सरकार के अलोकप्रिय हो
जाने की आशा से थी। इसी उम्मीद ने कांग्रेसी विधायकों को लाडले के साथ
जोड़ रखा था कि फिर से लाडला बहुमत विधायक दल में प्राप्त कर लेगा और
सरकार कांग्रेस की बन जाएगी। लाडला हर तरह से योग्य समझा जाता था और डा.
रमन सिंह उसके मुकाबले में कहीं लगते नहीं थे।

उम्मीद तो यह भी की जाती थी कि भाजपाई ही डा. रमन सिंह को अधिक समय तक
झेल नहीं पाएंगे। भाजपा में असंतोष फैलेगा तो भाजपा की लोकप्रियता का
ह्रास होगा। इसके साथ ही चतुर चालाक नौकरशाहों को अपने अनुसार चलाना डा.
रमन सिंह के बस की बात नहीं। भाजपा में भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर
टिकाए लोगों की कोई कमी तो नहीं थी लेकिन डा. रमन सिंह ने 5 वर्ष का
कार्यकाल पूरा किया और पूरा करने के पहले ही जनहितकारी योजनाओं की लंबी
श्रृंखला प्रारंभ की। 3 रू. किलो में 35 किलो चांवल ने तो कांग्रेस के
पुन: सत्ता में आने की हवा ही निकाल दी। फिर भी कांग्रेसी अपने लाडले के
नेतृत्व में पुन: सत्ता में आने की उम्मीद पाले थे। कितने ही लोग थे जो
कहते थे कि प्रदेश की हवा बदल गयी है और कांग्रेस सत्ता में आ रही है।
डा. रमनसिंह और उनकी भाजपा लौटने वाली नहीं है। नक्सली समस्या ने सरकार
की छवि मिट्टी  में मिला दी है लेकिन जब दूसरी बार चुनाव हुए और बस्तर से
ही जहां नक्सलियों का गढ़ है भाजपा ने  12 में से 11 सीटें जीती तो
कांग्रेस के सरकार बनाने के ख्वाब धराशायी हो गए।

सबसे बड़ी बात तो यही थी कि पिछले चुनाव में कांग्रेस के 7 प्रतिशत वोट
काटने वाले विद्याचरण शुक्ल भी कांग्रेस में ही लौट चुके थे। फिर भी
छत्तीसगढ़ के मतदाताओं ने डा. रमन सिंह को ही मुख्यमंत्री के रूप में फिर
से चुना। सबको समझ में आ गया कि डा. रमन सिंह से सत्ता छीनना आसान नहीं
है। अब जब डा. रमन सिंह के विरूद्घ जनता का समर्थन मिलता नहीं तो इसके
सिवाय चारा क्या है कि आपस में ही लड़ा जाए। वैशाली नगर का उपचुनाव जीतने
के बाद कांग्रेस में आशा का संचार हुआ कि जनता उसके पक्ष में आ रही है।
नगर निगम के चुनाव भी प्रमुख शहरों में जीतने से और आशा बंधी थी। लगता था
कि जनता का मन बदल रहा है। इसलिए भटगांव में जब उपचुनाव हुआ तो पूरी आशा
थी राज परिवार को टिकट देकर कि चुनाव जीत लिया जाएगा। पूरी पार्टी चुनाव
लडऩे भटगांव पहुंच गयी। जोश का उफान तो इतना था कि पुराने लाडले ने जोश
में कहा कि भटगांव चुनाव जीतने के बाद सरकार भसक जाएगी। जो जनता सरकार को
कायम देखना चाहती है, जब उसे भटगांव चुनाव जीतकर भसकाने की बात कही गयी
तो भटगांव के मतदाताओं का निर्णय और स्पष्ट हो गया कि किसी भी हालत में
कांग्रेस प्रत्याशी को नहीं जीतने देना है।

34 हजार से अधिक मतों से भाजपा प्रत्याशी को विजयी बनाकर मतदाताओं ने
स्पष्टï कर दिया कि वह डा. रमन सिंह की सरकार को भसकाने के बदले कांग्रेस
को ही भसकाना उचित समझती है। कांग्रेस हारी क्या कांग्रेस में घमासान मच
गया। पुराने लाडले ने पत्रकार वार्ता लेकर कह दिया कि कांग्रेस में ऊपर
से लेकर नीचे तक कांग्रेसी बिक गए। जिसका सीधा मतलब तो यही निकलता है कि
कांग्रेसी बिकाऊ हैं और जो खरीद सकते हैं खरीद ले। सार्वजनिक रूप से इसकी
घोषणा से जनता के बीच कांग्रेस की छवि बनी तो नहीं और बिगड़ गयी। ज्यादा
लाड़ प्यार से लाडले किस तरह से बिगड़ जाते हैं, यह बात अब तो सोनिया दाई
को अच्छी तरह से समझ में आ गयी होगी। टी. एस. सिंहदेव कह रहे हैं कि कोई
कोंग्रेसी बिका नहीं और सबने ईमानदारी से काम किया।

कौन सही बोल रहा है और कौन कांग्रेस की इज्जत खराब करने की कोशिश कर रहा
है, यह देखना काम तो सोनिया दाई का ही है। छत्तीसगढ़ के लोग देख रहे हैं
कि 10 वर्ष के पहले छत्तीसगढ़ में क्या था और आज क्या है? इन 10 वर्षों
में भी डा. रमन सिंह के 7 वर्ष के शासनकाल में छत्तीसगढ़ को क्या मिला?
सारी समस्याएं देन तो कांग्रेसी शासन की है और धीरे धीरे उन समस्याओं का
हल डा. रमन सिंह कर रहे हैं। डा. रमन सिंह को बंदे की चिंता करने की
जरूरत नहीं है। बंदा इसके सिवाय कुछ कर नहीं सकता। कहने का भी तभी तो कोई
अर्थ है जब लोग कहे पर विश्वास करें। जनता स्वयं सत्य का साक्षात्कार कर
रही है तो वह झूठी बातों पर विश्वास नहीं कर सकती। जो बंदा जिस डाल पर
बैठा है, जब उसे ही काटने में नही  चूकता तो वह छत्तीसगढ़ का क्या उद्घार
करेगा?

छत्तीसगढ़ के लाभ से जिसका कोई लेना देना नहीं तब तक जब तक की वह लाभ
उसके द्वारा नहीं, ऐसे व्यक्ति को छत्तीसगढ़ की जनता अच्छी तरह से
पहचानती है। भाजपा के वरिष्ठ नेता नंदकुमार साय ने ही कहा है कि
विद्याचरण कहते है कि जब तक यह बंदा कांग्रेस का नेता है तब तक
कांग्रेस छत्तीसगढ़ में आ नहीं सकती। कांग्रेस में ऐसा मानने वालों की
कमी नहीं है। कभी सोनिया दाई के लाडले रहे इस बंदे की चिंता करने की
जरूरत नहीं है, डा. रमन सिंह को।

- विष्णु सिन्हा
12-10-2010